________________
Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra
www.kobatirth.org
Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir
अध्याय 3
पाण्डुलिपि-प्राप्ति और तत्सम्बन्धित प्रयत्न :
क्षेत्रीय अनुसन्धान
. 'पाण्डुलिपि-विज्ञान' सबसे पहले 'पांडुलिपि' को प्राप्त करने पर और इसी से सम्बन्धित अन्य प्रारम्भिक प्रयत्नों पर ध्यान देता है। इस विज्ञान की दृष्टि से यह समस्त प्रत्यन 'क्षेत्रीय अनुसंधान' के अन्तर्गत आता है । क्षेत्र एवं प्रकार
पांडुलिपि-प्राप्ति के सामान्यतः दो क्षेत्र हैं-प्रथम पुस्तकालय, तथा द्वितीय निजी । पुस्तकालयों के तीन प्रकार मिलते हैं--एक धार्मिक, दूसरा राजकीय तथा तीसरा विद्यालयों के पुस्तकालयों का ।
1. धार्मिक पुस्तकालय-ये धार्मिक मठों, मन्दिरों, बिहारों में होते हैं । 2. राजकीय पुस्तकालय-राज्य के द्वारा स्थापित किये जाते हैं । 3. विद्यालय पुस्तकालय-इनका क्षेत्र विद्यालयों में होता है ।
पूर्वकाल में यह विद्यालय-पुस्तकालय धर्म या राज्य दोनों में से किसी भी क्षेत्र में या दोनों में हो सकता था । आजकल इसका स्वतन्त्र अस्तित्व है। निजी क्षेत्र
भारत में घर-घर में ग्रन्थ-रत्नों को पुराने समय से धार्मिक प्रतिष्ठाएँ मिली हुई थी। किसी के घर में पांडलिपियों का होना गर्व और गौरव की बात मानी जाती थी । इन पोथियों की पूजा भी की जाती थी। अतः बीसवीं शती में ग्रंथानुसंधान करने पर घर-घर में हस्तलिखित ग्रंथों के होने का पता चला। काशी नागरी-प्रचारिणी सभा ने सन् 1900 ई० से जो खोज कराई उससे हमारे इस कथन की पुष्टि होती है । राजस्थान में भी यही स्थिति है । यहाँ तो निजी ग्रंथागार काफी अच्छे हैं । डॉ० ओझाजी ने 'भारतीय प्राचीन लिपिमाला' में अजमेर के सेठ कल्याणमल ढढ्ढा के पुस्तकालय का उल्लेख किया है जिसमें मूल्यावान स्वर्ण और रजत में लिखे ग्रंथ थे । यह पुस्तकालय निजी था । बीकानेर में श्री अगरचन्द नाहटा का निजी भण्डार काफी बड़ा है । यहीं बिहार के 'खुदाबख्श पुस्तकालय' का उल्लेख भी करना होगा । यह खुदाबख्श का निजी पुस्तकालय था । खुदाबख्श को अपने पिता से उत्तराधिकार में 1900 पांडुलिपियाँ मिली थीं । खुदाबख्श ने इस संग्रह को और समृद्ध किया। 1891 में जब इसे सार्वजनिक पुस्तकालय का रूप दिया गया तब इसमें पांडुलिपियों की संख्या 6000 हो गई थी । सन् 1976 में इस पुस्तकालय में 12000
1. भारतीय प्राचीन लिपिमाला, पृ० 156 ।
For Private and Personal Use Only