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70/पाण्डुलिपि-विज्ञान इसका रोचक वृत्तान्त यहाँ दिया जाता है । इससे खोज के एक और मार्ग का निर्देश होता
. डॉ० परमेश्वरी लाल गुप्त ने एक भेटवार्ता में बताया कि 'चन्दायन' की उन्होंने जिस प्रकार खोज को उसे 'जासूसी' कहा जा सकता है ।।
डॉ० गुप्त को प्रिंस ऑफ वेल्स म्यूजियम में चन्दायन के कुछ पृष्ठ मिले । उन पर भूमिका लिखने के लिए वे 'गार्सा द तासी' का 'हिंदुई साहित्य का इतिहास के पन्ने पलट रहे थे कि उनका ध्यान उस उल्लेख की ओर आकर्षित हुआ जिसमें तासी ने बताया था कि ड्यूक ऑफ ससक्स के पुस्तकालय में हूरक और हंदा की कहानी का सचित्र ग्रन्थ था। डॉ० गुप्त समझ गये कि यह हरक हंदा 'लूरक या लोरिक' चन्दा ही है । यह उल्लेख तासी ने 1834 ई. में किया था।
डॉ० गुप्त जानते थे कि किसी बड़े ड्यूक के मरने के बाद उसका पुस्तकालय बेचा गया होगा। उन्होंने यह भी अनुमान लगा लिया कि वह पुरानी पुस्तकों के विक्रेताओं ने वरीदा होगा और फुटकर बिक्री की गयी होगी।
यह अनुमान कर उन्होंने इण्डिया आफिस (लंदन) ब्रिटिश म्यूजियम से प्राचीन पुस्तक विक्रेताओं द्वारा प्रकाशित सूची-पत्र प्राप्त किये । उनसे पता चला कि ससैक्स का पुस्तकालय लिली नाम के विक्रेता ने खरीदा था ।
आगे पता लगाया तो विदित हुआ कि लिली से अरबी-फारसी के ग्रन्थ इन भाषाओं के च विद्वान ग्लांड ने खरीदे ।
पता लगा कि ग्लांड मर चुके हैं, पुस्तकालय बिक चुका है।
खोज आगे की। उनका संग्रह इंग्लैण्ड के किसी अर्ल ने खरीदा था । अर्ल को पत्र लिखा । उत्तर देने वाले अर्ल ने बताया कि उनके पिताजी का संग्रह मेनचेस्टर विश्वविद्यालय के रिलैंड पुस्तकालय में है।
वहाँ वह पुस्तक डॉ० गुप्त को मिल गयी।
इस विवरण से यह सिद्ध हुआ कि एक सूत्र को पकड़ कर अनुमान के सहारे आगे बढ़कर अन्य सूत्र तक पहुँचा जा सकता है, उससे अन्य सूत्र मिल सकते हैं तब अभीष्ट ग्रंथ प्राप्त हो सकता है। किन्तु इसके लिए सूत्र मिलते जाने चाहिये । भारत में ऐसे सूत्र आसानी से नहीं मिलते हैं।
नागरी-प्रचारिणी-सभा की खोज-रिपोटों में प्रत्येक हस्तलेख के मालिक का नाम दिया रहता है । पूरा पता भी रहता है । आज पत्र लिखने पर न तो कोई उत्तर पायेगा, और न आगे खोज करने पर ही कुछ पता चलेगा।
किन्तु इस प्रकार की खोज में सूत्र से सूत्र मिलाने में भी कितने ही अनुमान और उनके आधार पर कितने ही प्रकार के प्रयत्नों की अपेक्षा रहती है । बड़े धैर्यपूर्वक एक के बाद दूसरे अनुमान करके उनसे सूत्र मिलाने के प्रयत्न किये जाते हैं ।
निश्चय ही यह भी पुस्तक खोज का एक मार्ग है । ग्रन्थ शोधक को एक डायरी रखनी चाहिये । इसमें उसे अपने किये गये दैनंदिन
1. कादम्बिनी (मासिक प्रकाशन, जून 1975), निबन्ध : तस्करी के जाल में कला-कृतियाँ', प्रस्तोता :
. श्री रतीलाल शाहीन : १० 44।
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