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पाण्डुलिपि-ग्रन्थ-रचना-प्रक्रिया/63 काष्ठपट्टिका, कपड़ा, ताड़पत्र, भूर्जपत्र या रेशमी कपड़ा आदि । लकड़ी के पटरे का ताड़पत्र पर पहले सफेद रंग पोतते हैं । यही सफेद रंग चित्र में भी प्रयुक्त होता है।
3. 'लेख्य या लेप्य कर्म' द्वारा चित्र के लिए भूमि का लेपन या आलेखन किया जाता है । जैसे जिन भागों में अमुक रंग या कोई झांई की पृष्ठभूमि तैयार करना है तो तदनुकूल रंग को प्लास्टर की तरह लीपा या पोता जाता है । ग्रन्थ पर चित्र बनाने के लिए यह प्रक्रिया सदैव अावश्यक नहीं होती, चित्र बनाते समय ही पृष्ठभूमि का रंग भी भर दिया जाता है । वृहदाकार भूमि पर चित्रित होने वाले चित्रों के लिए ही इसकी आवश्यकता होती है।
4. 'रेखाकर्म'-फिर, कूची से रेखाएँ खींचकर चित्र का प्रारूप बनाया जाता है जिसको खाका कह सकते हैं ।
5. इसके बाद अर्थात् जब खाका पूर्णतया तैयार हो जाता है तो रंग भरने का काम प्रारम्भ होता है । इसको 'वर्णकर्म' कहते हैं। प्राचीन चित्रकार प्रायः सफेद, पीला, नीला, लाल, काला, और हरा रंग काम में लेते थे । सफेद रंग शंख की राय से बनाया जाता था । पीला रंग हरताल से बनता था और इसका प्रयोग शरीरावयव-संरचना तथा देवताओं के मुखमण्डन के लिए किया जाता था। पूर्वी भारत और नेपाल की चित्रकारियों में ऐसे प्रयोग खूब मिलते हैं। नीला रंग बनाने में नील काम में ली जाती है । यह प्रयोग भारत में सर्वत्र और सभी कालां में होता रहा है । लाल रंग के लिए पालक्तक, लाक्षारस
और गरिक (गैरू) तथा दरद का प्रयोग होता था। काले रंग की तैयारी में कज्जल की प्रधानता थी।
__हरा रंग मिश्र वर्ण कहलाता है । इसको बनाने के लिए नीले और पीले रंगों को बहुत सावधानी से मिलाना होता है, फिर, छाया की मध्यमता अथवा उज्ज्वलता को न्यूनाधिक करने के लिए सफेद रंग भी मिलाया जाता है । प्राचीन भारतीय चित्रों में हरे रंग का प्रयोग कम ही किया जाता था । मुस्लिम-काल में इसका चलन अधिक हुआ है परन्तु देखा गया है कि नील और हरताल के मिश्रण के कारण यह रंग कागज को जल्दी ही क्षति पहुंचाता है। कितने ही प्राचीन चित्रों में जहाँ हाशिये की जगह हरा रंग लगाया गया है वहाँ से कागज जीर्ण होकर गल गया है और बीच का चौखटा बच गया है ।
शिल्परत्न' और 'मानसोल्लास' में रंगों के विषय में विस्तार से लिखा गया है । बताया गया है कि कपित्थ और नीम भी रंग बनाने में प्रयुक्त होते थे।
6. विस्तार और गोलाई प्रशित करने के लिए रंगां में जो हल्कापन और गहरापन देकर स्पष्ट सीमोल्लेखन किया जाता है उसको 'वर्तनाक्रम' कहते हैं । इसमें वर्तनी अर्थात कूची के प्रयोग की सूक्ष्मता का चमत्कार प्रधान होता है । 'विष्णु धर्मोत्तरपुराण' में 'वर्तनाक्रम' का विवरण द्रष्टव्य है।
7. चित्र में अन्तिम निश्चयात्मक रेखांकन को लेखन अथवा 'लेखकर्म' कहते हैं । मूल चित्र से भिन्न रंग में जो चौहद्दी बनाई जाती है वह भी इसी में सम्मिलित है ।
8. कभी-कभी मूल रेखा को अधिक स्पष्ट बनाने के लिए उसको दोहरा बना दिया जाता है-यह 'द्विककर्म' कहलाता है ।
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