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46 पाण्डुलिपि-विज्ञान
एक चिह्न परिकल्पित हुआ।
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पहले यह चिह्न और 'सिद्ध' दोनों साथ-साथ पाये
फिर अलग-अलग भी इनका प्रयोग हुआ। वस्तुतः यह चिह्न 'ओं०' 5 का स्थानापन्न है । आगे चलकर 'इष्ट सिद्धम्' का उपयोग हुआ भी मिलता है, पर 'सिद्धम्' बहुत लोकप्रिय रहा ।
पाँचवीं शताब्दी ईसवी में एक और प्रतीक मंगल के लिए काम में आने लगा यह था 'स्वस्ति' । इसके साथ 'ओम' भी लगाया जाता था, 'स्वस्ति' या 'प्रोम स्वस्ति' कभी-कभी 'प्रोम' के लिए '१' का प्रयोग भी कर दिया जाता था।
__'प्रोम्', 'प्रोम् स्वस्ति' या 'स्वस्ति' मात्र के साथ 'स्वस्ति श्रीमान्' भी इसी भाव से लिखा मिलता है। फिर कितने ही मंगल प्रतीक मिलते हैं, जैसे--स्वस्ति जयत्याविष्कृतम्, प्रोम् स्वामी महासेन प्रोम् स्वस्ति अमर संकाश, स्वस्ति जयत्यमल, प्रोम् श्री स्वामी महासेन, ओम् स्वस्ति जयत्याविष्कृतम्, अोम स्वस्ति जयश्चाम्युदयश्च । प्रोम् नमः शिवाय अथवा नमश्शिवाय, श्री ओम् नमः शिवाय, श्री प्रोम् नमः शिवाभ्याम्, प्रोम् प्रोम् नमो विनायकाय,
ओम् नमो वराहाय, प्रोम् श्री आदि-वाराहाय नमः, प्रोम् नमो देवराज-देवाय, ओम नमः सर्वज्ञाय । ये शिलालेखों आदि से प्राप्त मंगल-प्रतीक हैं। पर हस्तलेखों-पाडुलिपियों में हमें 'जिन' स्मरण मिलता है या अपने संप्रदाय के संस्थापक का 'प्रोम् निम्बार्काय या 'वाग्देवी' का स्मरण 'ओम् सरस्वत्यः नमः' और सामान्यतः "श्री गणेशाय नमः' मिलता है । राम-सीता, कृष्ण-राधा का स्मरण भी मिलता है। इस प्रकार की अनेक विधियों से पांडुलिपियों में मंगल शब्द मिलते हैं जिनका काल-क्रम निर्धारण नहीं किया गया है, जैसा कि शिलालेखों के मंगल वाचकों का हुआ है।
(2) नमस्कार (Invocation)-ऊपर के विवरण में हम मंगल या स्वस्ति के साथ 'नमस्कार' को भी मिला गये हैं । 'नमोकार' या 'नमस्कार' एक अन्य भावाश्रित तत्त्व है । इसको अंग्रेजी में डॉ. पांडेय ने INVOCATION (इनवोकेशन) का नाम दिया है । वस्तुतः जिस मांगलिक शब्द-प्रतीक में 'नमो'-कार लगा हो वह इंवोकेशन या नमोकार ही है । सबसे प्राचीन नमोकार खारबेल के हाथी-गुभ्फा वाले अभिलेख में आता है । सीधे सादे रूप में 'नमो अर्हतानाम्' एवं 'नमो सर्व सिद्धानाम्' आता है । शिलालेखों में जिनको नमस्कार किया गया है वे हैं-धर्म, इन्द्र, संकर्षण, वासुदेव, चन्द्र, सूर्य, महिमावतानाम, लोकपाल, यम, वरुण, कुबेर,
1. इस सम्बन्ध में मुनि पुण्यविजय जी का यह कथन है कि "भारतीय आर्य संस्कृति ना अनुयायियों कोई
पण कार्यनी शुरूआत कांई न कोई नानु के मोदु मंगल करीने जेज करे छे शाश्वत नियमानुसार ग्रन्थ लेखनना आरम्भ माँ हरेक लेखकों में नम ऐं नमः जयत्यनेकांतकण्ठी रवः, नमो जिनाय, नमः श्री गुरुभ्यः, नमो बीतरागायः, ॐ नमः सरस्वत्यै, नमः सर्वज्ञाय, नमः श्री सिद्धार्थसूताय इत्यादि अनेक प्रकारना देव गुरु धर्म इष्टदेवता आदि ने लगता सामान्य के विशेष मंगलसूचक नमस्कार करता जगना.........."
-भारतीय जैन श्रमण संस्कृति अने लेखन कला, धृ.57-581
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