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पाण्डुलिपि-ग्रन्थ-रचना - प्रक्रिया 47
वासव, अर्हत, वर्द्धमान, बुद्ध, भागवत-बुद्ध, संबुद्ध, भास्कर, विष्णु, गरुड़, केतु (विष्णु) शिव, पिनाकी, शूलपाणि, ब्रह्मा ग्रार्या वसुधारा (बौद्धदेवी ) । हिन्दी पांडुलिपियों में यह नमोकार विविध देवी - देवताओं से सम्बन्धित तो होता ही है, सम्प्रदाय प्रवर्त्तक गुरुयों के लिए भी होता है ।
(3) श्राशीर्वाचन या मंगल कामना (Benediction) यों तो 'मंगल कामना' के बीज-रूप अशोक के शिलालेखों में भी मिल जाते हैं किन्तु ईसवी सन् की आरम्भिक शताब्दियों में मंगलकामना का रूप निखरा और यह विशेष लोकप्रिय होने लगी । वस्तुतः गुप्त-काल में इसका विकास हुआ और भारतीय इतिहास के मध्ययुग में यह परिपाटी अपनी चरम सीमा तक पहुँच गई।
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(4) प्रशस्ति (Laudation ) — किये गये कार्य की प्रशंसा और उसके शुभ फल का उल्लेख प्रशस्ति में होता है, इसमें शुभ कार्य के कर्त्ता की प्रशस्ति भी गर्भित रहती है । इसका बीज तो अशोक के अभिलेखों में भी मिल जाता है । इनमें नैतिक और धार्मिक कृत्यां फलतः उनके कर्त्ताओं की सन्तुलित प्रशस्ति या प्रशंसा मिलती है ।
गुप्त एवं वाकाटक काल में प्रशस्ति-लेखन एक नियमित कार्य बन गया और इसमें विस्तार भी आ गया, इनमें दानदाताओं की प्रशंसा के साथ उन्हें अमुक दिव्य फल की प्राप्ति होगी, वह भी उल्लेख किया गया है। आगे चल कर धर्म शास्त्रों एवं स्मृतियों के भी पावन कार्य की प्रशंसा में उद्धृत किये गये मिलते हैं यथा :
बहुभिर्वसुधा दत्ता राजभिस्सगरादिभि:
यस्य यस्य यदा भूमिस्तस्य तस्य तदा फलम् ।।
षष्टि वर्ष सहस्रारिण : स्वर्गे मोदेत भूमिदः ।
(दामोदरपुर ताम्रपत्रानुवास्तवे ) 1
विद्यापति की कीर्तिलता में यह प्रशस्ति अंश इस प्रकार आया है :
गेहे गेहे कलो काव्यं, श्रोतातस्य पुरे पुरे ||
देशे देशे रसज्ञाता, दाता जगति दुर्लभः ||2|| 2
बाद में यह परम्परा लकीर पीटने की भाँति रह गई ।
(5) वर्जना - निन्दा - शाप ( Imprecation ) - इसका अर्थ होता है किसी दुष्कृत्य की अवमानना या भर्त्सना, जिसे शाप के रूप में अभिव्यक्त किया जाता है । इसे किसी शिलालेख, अनुशासन, या ग्रन्थ में लिखने का अभिप्राय यही होता था कि कोई उक्त दुष्कृत्य न करे जिससे वह शाप का भागी बन जाये । ऐसी निन्दा के बीज हमें अशोकाभिलेखों में भी मिलते हैं - यथा, यह परिस्रव है जो प्रपुण्य है ( एसतु पीरस्तवे य (ञ) । निन्दा या शाप वाक्यों का नियमित प्रयोग चौथी शताब्दी ईसवी से होने लगा था । छठी से तेरहवीं ईसवी शताब्दी के बीच यह निन्दा-परम्परा लकीर पीटने का रूप ग्रहण कर लेती है । बाद में कुछ शिलालेखों में इसके स्थान पर केवल 'गढे गलस'
1. Pandey, R. B.-Indian Palaeography, p. 163. 2. अग्रवाल, वासुदेवशरण (सं.) - कीर्तिलता, पृ० 4.
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