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48 पाण्डुलिपि-विज्ञान
अर्थात् 'पदहा शाप' गंवारू गाली के रूप में लिखा गया है और एक में तो गदहे का ही रेखांकन कर दिया गया है । भारतीय मध्य-युगीन भाषाओं की काव्य-परंपरा में खल-निंदा का भी यहो स्थान है। इसके द्वारा अशोभनीय कार्य न करने की वर्जना अभिप्रेत होती है।
(6) उपसंहार : पुष्पिका--- उपसंहार या समाप्ति की पुष्पिका में इन बातों का ममावेश रहता था---
(1) रचनाकार--(कवि आदि) का नाम, लेखादि को अनुष्ठित कराने वाले या अनुष्ठाता का नाम, उत्कीर्ण कर्ता का नाम, दूतक का नाम ।
(2) काल-रचना काल, तिथि आदि, लेखन काल, प्रतिलिपि काल । 13) स्वस्तिवचन--यथा : एवं संगर-साहस-प्रमथन प्रारब्ध लब्धोदया 12581 पुष्णाति श्रियमाशाशंकघरणीं श्री कीर्तिसिंहोनृपः
12591 (4) निमित्त(5) समर्पण, यथा-माधुर्य-प्रभवस्थली गुरु यशो-विस्तार शिक्षा सखी
यावद्विश्वमिदञ्च खेलतु कवेविद्याप्रतेभारती ।। (6) स्तुति---- (7) निन्दा(8) राजाज्ञा---[जिससे यह कृति यो प्रस्तुत की गई] यथा-संवत् 747 वैशाख शुक्ल तृतीया तिथी। श्री श्री जय जग
ज्ज्योतिर्मल्ल-देव-भूपानामाज्ञया दैवज्ञ-नारायण-सिंहेन
लिखितमिदं पुस्तकं सम्पूर्णमिति शिवम् शुभाशुभ
भारतीय परम्परा में प्रत्येक बात के साथ शुभाशुभ किसी न किसी रूप में जुड़ा ही हुआ है। ग्रन्थ-रचना की प्रक्रिया में भी इसका योग है । पुस्तक का परिमारण क्या हो, इस सम्बन्ध में 'योगिनी तन्त्र' में यह उल्लेख है :
मानं वक्ष्ये पुस्तकस्य श्रृणु देवि समासतः । मानेनापि फलं विद्यादमाने श्रीहंता भवेत् । हस्तमानं पुष्टिमान मा बाहु द्वादशां गुलम् ।
दशांगुलं तथाष्टौ चततो हीनं न कारयेत् । इसमें विधान है कि परिमाण में पुस्तक हाथ भर, मुट्ठी भर, बारह उंगली भर, दस उँगली भर और पाठ उँगली भर तक की हो सकती है। इससे कम होने से 'श्री हीनता' का फल मिलता है। श्री हीन होना अशुभ है।
__ कैसे पत्र पर लिखा जाय ? 'योगिनी तन्त्र' में बताया है कि भूर्जपत्र, तेजपत्र, ताड़पत्र, स्वर्णपत्र, ताम्रपत्र, केतकी पत्र, मातंण्ड पत्र, रौप्यपत्र, बट-पत्र पर पुस्तक लिखी जा सकती है, अन्य किसी पत्र पर लिखने से दुर्गति होती है। जिन पत्रों का ऊपर उल्लेख हुआ है उन पर लिखना शुभ है, अन्य पर लिखना अशुभ है ।
1. अगवाल, वासुदेवशरण (सं.)-कीतिलता. पृ० ३१४ ॥
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