________________
Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra
www.kobatirth.org
Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir
पाण्डुलिपि-ग्रन्थ-रचना-प्रक्रिया/35
जाता था । मंदसौर प्रशस्ति, (473-74 ई०) में विराम चिह्न का नियमित उपयोग हुआ। इसमें पद्य की अर्द्धाली के बाद एक दंड (1) और चरण समाप्ति पर दो दंड (|) रखे गये हैं । आगे इनका प्रयोग और संख्या भी बढ़ी । भारत में मिलने वाले विराम चिह्न
ये हैं।
1,I.T(यह उतर में नहीं मिलता). 21.74 .111 17.M.-, या ) या .. .......)
इन चिह्नों के साथ अंक तथा मंगल चिह्न भी विराम चिह्न की भाँति प्रयोग में लाये जाते रहे हैं।
(5) पृष्ठ संख्या-हस्तलिखित ग्रन्थ में यह परम्परा प्राप्त होती है कि पृष्ठ के अंक या संख्या नहीं दी जाती, केवल पन्ने के अंक दिये जाते हैं । ताम्र पत्रों पर भी ऐसे ही अंक दिये जाते थे। यह संख्या पन्ने (पत्र) की पीठ वाले पृष्ठ पर डाली जाती थी, इसलिए उसे सांक पृष्ठ कहा जाता था, यों कुछ ऐसी पुस्तकें भी हैं जिनमें पन्ने के पहले पृष्ठ पर ही अंक डाल दिये गए हैं।
किन्तु प्रश्न यह है कि यह पृष्ठ संख्या किस रूप में डाली जाती थी ? इस सम्बन्ध में मुनिजी ने बताया है कि "ताड़पत्रीय जैन पुस्तकों में दाहिनी ओर ऊपर हाशिये में अक्षरात्मक अंक और बांयी ओर अंकात्मक अंक दिये जाते थे। जैन छेद आगमां और उनकी चूणियों में पाठ, प्रायश्चित, भंग, आदि का निर्देश अक्षरात्मक अंकों में करने की परिपाटी थी। 'जिन कला सूत्र' के प्राचार्य श्री जिन भद्रिमरिण क्षमा श्रमण कृत भाष्य में मूलसूत्र का गाथांक अक्षरात्मक अंकों में दिया गया है।"
मुनि पुण्य विजय जी ने अक्षरांकों के लिए जो सूची दी है वह पृष्ठ 36 पर है। पृष्ठ 37 पर अोझाजी की सूची है।
इन अंकों को दान-पत्रों और शिलालेखों में और पांडुलिपियों में किस प्रकार लिखा जाता था, यह अोझा जी ने बताया है, जो यों है : "प्राचीन शिला-लेखों और दान-पत्रों में सब अंक एक पंक्ति में लिखे जाते थे परन्तु हस्तलिखित पुस्तकों के पत्रांकों में चीनी अक्षरों की नाई एक दूसरे के नीचे लिखे मिलते हैं । ई० सं० की छठी शताब्दी के आसपास मि० बाबर के प्राप्त किये हुए ग्रन्थों में भी पत्रांक इसी तरह एक-दूसरे के नीचे लिखे मिलते हैं । पिछली पुस्तकों में एक ही पन्ने पर प्राचीन और नवीन दोनों शैलियों से भी अंक लिखे मिलते हैं । पन्ने के दूसरी तरफ के दाहिनी ओर के ऊपर की तरफ के हाशिये पर तो अक्षर संकेत से, जिसको अक्षर-पल्ली कहते थे, और दाहिनी तरफ के नीचे के हाशिये पर नवीन शैली के अंकों से, जिनको अंक-पल्ली कहते थे।"
1. ई.पू. दूसरी शबब्दा से ई० सातवीं तक यह '' चिन्ह, (दण्ड) के स्थान पर प्रयुक्त होता रहा है । 2. ईसवी सन् की प्रथम से आठवीं शताब्दी तक दो दण्डों के स्थान पर । 3. कुषाण काल में और बाद में 6 के स्थान पर । 4. मुनि श्री पुण्य विजयजी-भारतीय जैन श्रमण संस्कृति अने लेखन कला, पृ. 62 ।
वही पृष्ठ 63। भारतीय प्राचीन लिपि माला. पृ. 108 ।
For Private and Personal Use Only