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42/पाण्डुलिपि-विज्ञान
15.
एद० ।। या एर्द० ।--‘योंकार' का चिह्न कुछ लोगों का विचार रहा है कि यह चिह्न सं० 980 है । जैन-शास्त्र-लेखन इसी संवत् से प्रारम्भ हुआ पर मुनि पुण्यविजय जी इसे 'प्रो०' का चिह्न मानते हैं ।
क ॥
ये चिह्न कभी-कभी ग्रन्थ की समाप्ति पर लगे मिलते हैं।
ये 'पूर्ण कुम्भ' के द्योतक चिह्न हैं । जो ‘मंगल वस्तु है । -६०,3-के०,४.
किन्हीं-किन्हीं पुस्तकों के अन्त में ये चिह्न मिलते हैं । मुनि पुण्यविजयजी का विचार है कि पांडुलिपियों में अध्ययन, उद्देश्य, श्रुतस्कंध, सर्ग, उच्छवास, परिच्छेद, लंभक, कांड आदि की समाप्ति को एकदम ध्यान में बैठाने के लिए भिन्न-भिन्न प्रकार की
चित्राकृतियाँ बनाने की परिपाटी थी, ये चिह्न भी उसी निमित्त लिखे गये हैं। ((10) लेखक द्वारा अंक लेखन
___ ऊपर हम अक्षरों से अंक लेखन की बात बता चुके हैं, पर ग्रन्थों में तो शब्दों से अंक द्योतन की परिपाटी बहुत लोकप्रिय विदित होती है । पांडुलिपियों की पुष्पिकानों में जहाँ रचना काल आदि दिया गया है वहाँ कितने ही रचयिताओं ने शब्दों से अंक का काम लिया है ।
संस्कृत, प्राकृत, अपभ्रश, हिन्दी तथा अन्य देशी भाषाओं के ग्रन्थों में शब्दों से अंक सूचित करने की परिपुष्ट प्रणाली मिलती है । भा० जैन श्रम० सं० तथा भा० प्रा० लि. मा० में 'अंकों' के लिए उपयोग में आने वाले शब्दों की सूची दी गई है । अोझा जी का यह प्रयत्न प्राचीनतम है, भा० जैन श्र० सं० बाद की कृति है । दोनों के आधार पर यह सूची यहाँ प्रस्तुत की जाती है । यहाँ ध्यान रखने की बात यह है कि पहले इकाई की संख्या वाचक फिर दहाई एवं सैकड़े व हजार की संख्या के बोधक शब्दों का प्रयोग होता है जैसेकि पाद टिप्पणी का भाग (अ) संवत् 1623 को बता रहा है ।
1. कुछ ग्रन्थों में से उदाहरण इस प्रकार हैं :
3 2 61 (अ) गुणनयनरसेन्दु मिते वर्षे भाव प्रकरणवि चूरि :
78 4 1 (ब) मुनि वसु सागर सितकर मित वर्षे सम्यक्त्व कौमुदी।
1 181 (स) संवत मसिकृतवसु ससी आस्वनि मिति तिथि नाग,
दिन मंगल मंगल करन हरत सकल दुख दाग ।
4 181 (द) वेद इन्दु गज भू गनित संवत्सर कविचार,
श्रावन शुक्ल त्रयोदशी रच्यो ग्रन्थ सुविचारि ।
6 7 7 1 (य) रस सागर रवितरंग विध संवत मधुर वसंत,
विकस्यो 'रसिक रसाल' लखि हुलसत सुहृद व सन्त' ।
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