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पाण्डुलिपि-ग्रन्थ-रचना-प्रक्रिया/25
ने बताया है कि---
“कायस्थ शब्द के अतिरिक्त लेखक के लिए करण, करणिक, करनिन् आदि शब्द प्रयुक्त होते रहे । चेदिलेख में (करणिक धीर सुतेन) तथा चन्देलों की खजुराहो प्रशस्ति में करणिक शब्द का प्रयोग मिलता है जो सुन्दर अक्षर लिखते थे......."कीलहान ने करण को भी कानूनी पत्रों के लेखक के अर्थ में माना है । ......."उन्हें संस्कृत भाषा का अच्छा ज्ञान रहता था ।
शिल्पी, रूपकार, सूत्रधार तथा शिलाकूट का काम भी लेख उत्कीर्ण करना ही था। __ पांडुलिपि विज्ञान की दृष्टि से 'लिपिकार' का महत्त्व बहुत अधिक है। उसके प्रयत्न के फलस्वरूप ही हमें हस्तलेख प्राप्त हुए हैं। उसकी कला से ग्रन्थ सुन्दर या असुन्दर होता है, उसका व्यक्तित्व ग्रन्थ में दोष भी पैदा कर सकता है। लिपिकार के सम्बन्ध में डॉ० हीरालाल माहेश्वरी ने बताया है कि किसी हस्तलेख की प्रामाणिकता पर भी लिपिकार के व्यक्तित्व का प्रभाव पड़ता है। उन्होंने दस प्रकार के लिपिकार बताये हैं :
(1) जैन श्रावक या मुनि । (2) साधु/सम्प्रदाय-विशेष का या आत्मानंदी । (3) गृहस्थ । (4) पढ़ाने वाला (चाहे कोई हो) (5) कामदार (राजघराने के लिपिक) (6) दफ्तरी।
5वें और छठे में भेद है । कामदार तो लिपिक के रूप में ही रखे जाते हैं,
दफ्तरी अन्य कार्यों के साथ प्राज्ञा होने पर प्रतिलिपि भी करता था। (7) व्यक्ति विशेष के लिए लिखी गई प्रति का लिपिक कोई भी हो सकता है। (8) अवसर विशेष के लिए लिखी गई प्रति का लिपिक कोई भी हो सकता है। (9) संग्रह के लिए लिखी गई प्रति का लिपिक कोई भी हो सकता है ।
(10) धर्म विशेष के लिए लिखी गई प्रति का लिपिक कोई भी हो सकता है । लिपिकार द्वारा प्रतिलिपि में विकृतियाँ
उद्देश्य
लिपिकार से ही लिपिगत विकृतियां जुड़ी हुई हैं।
किसी प्रति का महत्त्व उसमें लिखी रचना अथवा पाठ के कारण ही है । अतः पांडुलिपि-विज्ञान एवं पांडुलिपि सम्पादन के सन्दर्भ में जितनी भी भूलें संभव हो सकती हैं, उनको जानना भी आवश्यक है। संपादन में तो उनका निराकरण भी करना होता है। निराकरण प्रधानतया प्रति के 'उद्देश्य' से किया जा सकता है। पाठालोचन के विज्ञान में अभी तक इस ओर इंगित भी नहीं किया गया है। मुख्यतः पाठ सम्बन्धी भूलें/समस्यायें ये होती हैं :--
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