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26/पाण्डुलिपि-विज्ञान
विकृतियाँ :
(अ) सचेष्ट (जानबूझ कर की गयी) (ब) निश्चेष्ट (अनजाने हो जाने वाली) तथा
(स) उभयात्मक (सचेष्ट-निशचेष्ट) ये कई प्रकार से होती हैं या लाई जाती हैं :--- (क) मूल पाठ में वृद्धि के लिए। (ख) मूल पाठ में से कुछ कमी के लिए। (ग) मूल पाठ के स्थान पर अन्य पाठ बैठाने के लिए। (घ) मूल पाठ के क्रम में परिवर्तन के लिए, (ङ) मूल पाठ में मिश्र पाट की प्रति का अंश ग्रहण करने के लिए,
स्वेच्छा से। (च) मिश्र पाठ की प्रति का किसी एक परम्परा की प्रति से मिलान करते
समय स्वेच्छा से । अन्तिम दोनों का (ङ और च) एक प्रकार से प्रारम्भिक चारों में से किसी न किसी में अन्तर्भाव हो जाता है। ऐसा इसलिए होता है कि इनमें से कोई न कोई भूल हो जाती है :
(क) लिपिभ्रम, लिपि-साम्य । (ख) वर्ण-साम्य (द् यूटना या दुबारा लिखना) । (ग) शब्द-साम्य (द्यूटना या दुबारा लिखना)। (घ) लिपिकार द्वारा लिखे गये संकेत चिह्नों को न समझना । (ङ) शब्द का ठीक अन्वय न कर सकना । (च) पुनरावृत्ति (पंक्ति, शब्द और अर्द्ध पंक्ति की)। (छ) स्मृति के सहारे लिखना। . (ज) बोले हुए को सुनकर लिखना । समान ध्वनियों वाली गलतियाँ
इसी कारण होती हैं। यहाँ पाठ-वक्ता या पाठ-वाचक के तत्त्व को स्थान देते हैं । क्योंकि लिपिकार अक्षर देख नहीं रहा, सुन
रहा है। (झ) हाशिये में दिये गये पाठ को प्रतिलिपि करते समय सम्मिलित कर
लेना । इसके तीन रूप हो सकते हैं1. हाशिये में क्रमशः पाई पंक्ति का एक सीध वाली मूल पाठ की पंक्ति में मिश्रण कर
लेना। 2. हाशिये की सम्पूर्ण पंक्तियों या पूरे पाठ का बराबर वाले पूर्ण विराम चिह्न के
पश्चात् वाले मूल पाठ के बाद लिखना । अपवाद (Exception) के तौर पर कभी-कभी सम्पूर्ण हाशिये का पाठ प्रतिलिपि में आदि/अन्त ओर प्रसंग-विशेष की समाप्ति पर भी ले लिया जाता है। (डॉ. माहेश्वरी को मेहोजी कृत रामायण के विभिन्न हस्तलेखों का पाठ मिलान करने पर ऐसे उदाहरण मिले हैं । पर ऐसा कम ही पाया जाता है ।)
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