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महापुराण
[३८. ११. ५सुहदंसणि णियमणि संतुट्ठउ जा छम्मासहिं ता परिउटेउ। पल्हत्थंतु णिहाणई दिट्ठउ। णरवप्रंगणि दविणु ण माइउं सयलहं दीणाणाहह ढोइउं । पवरिक्खाउससंभूयहु
वम्महरूवपरज्जियरुवहु । विजयदेवि णं चंदह रोहिणि जियसत्तुहि णरणाहहु गेहिणि । अहिणवसयदलकोमलगत्ती । हंसवणि पल्लकि पसुत्ती। घत्ता-परमेसरि णिसि पच्छिमपहरि एक्केक्कउ जि समिच्छइ ।। णिहालसवस मउलियणयण सोलह सिविर्णय पेच्छइ ॥११॥
१२ मउल्लल्लगंडं
पमत्तं पयंडं । गिरिंदप्पमाणं
गयं गज्जमाणं। धरित्ती खणंतं
विसं ढेकरंतं । हयारिंदपक्खं
हरिं तिक्खणक्खं । करिंदाहिसित्तं
सिरिं पोमवत्तं । सयामोयधाम
णवं पुप्फदाम। सुहं सेयभाणं
दिसुब्भासिभाणुं । सिणिद्धं समाणं
दहे कीलमाणं । रईलीलयाणं
जुयं मीणयाणं । वरं वारिपुण्णं
सियंभोयछण्णं।
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कुबेर धनकी धाराओंमें बरस गया। शुभदर्शनसे अपने मनमें सन्तुष्ट जब छह माह हो गये, तब वह परितुष्ट हो गया। निधान फैलता हुआ दिखाई दिया। राजाके आंगनमें धन नहीं समाया, समस्त धन दीनों और अनाथोंके लिए दे दिया गया। महान् इक्ष्वाकु कुलमें उत्पन्न कामदेवके रूपको अपने रूपसे पराजित करनेवाले राजा जितशत्रुकी गृहिणी विजयादेवी उसी प्रकार थी जिस प्रकार चन्द्रमाकी रोहिणी, जो अभिनव शतदलके समान कोमल शरीरवाली थी। हंसके रंगकी वह पलंगपर सो रही थी।
पत्ता-रातके अन्तिम प्रहर में नींदसे अलसायी आंखें बन्द किये हुए वह परमेश्वरी सोलह सपने देखती है और एक-एककी समीक्षा करती है ।।११।।
१२ मदसे गीले गण्डस्थलवाला प्रमत्त प्रचण्ड पहाड़ जैसा गरजता हुआ महागज, धरती खोदता हआ. तथा फेक्कार करता हआ वषभ, शत्रपक्षको नष्ट करनेवाला, तीखे नखोंवाला सिंह, गजेन्द्रोंके द्वारा अभिषिक्त कमलपत्रोंवाली लक्ष्मी, सदैव आमोद प्रदान करनेवालो नव पुष्पमाला, शुभ्र चन्द्र, दिशाओंको उद्भासित करनेवाला सूर्य, सरोवरमें क्रीड़ा करता हुआ रतिक्रीड़ासे युक्त मत्स्योंका स्निग्ध जोड़ा, जलसे भरित और श्वेत कमलोंसे आच्छादित घड़ोंकी शोभा
५. A परिवुठ्ठउ but corrects it to परितुट्ठउ; P परिवुठ्ठ; T परिउट्ठउ । ६. A P add
after this : घणु जिह पुणु वरिसंतु अणिठ्ठउ । ७. A P"पंगणि । ८. A सविणय; P सिविण । १२.१. P पोम्मवत्तं ।
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