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संधि ४०
पणवेप्पिणु संभवु सासयसंभवु संभवणासणु मुणिपवरु॥ पुणु तहु केरी कह रंजियबुहसंह कहंवि सरासइ देउ वरु ॥ ध्रुवकं ।।
सदयं परिरक्खियमयं चूरियअलियलयंसयं दूसियपरहणहरणयं विणिवारियपरदारयं रयणीभोयणविरमणं कयगिहिसंगपमाणयं
अदयं विद्धंसियमयं । लुचियअलिअलयं सयं । पुसियबंभहरिहरणयं । परदरिसियपरदारयं । धीरं विवेविरमणं । बहुणयणिहियपमाणयं ।
सन्धि ४. शाश्वत है जन्म जिनका, ऐसे तथा जन्मका नाश करनेवाले मुनिप्रवर सम्भवनाथको प्रणाम कर, फिर उन्हींकी, पण्डित सभाको रंजित करनेवाली कथा कहता हूँ, हे सरस्वती देवी, मुझे वर दो।
जो पशुओंकी रक्षा करनेवाले सदय हैं, जो मदको ध्वस्त करनेवाले अदय हैं, जिन्होंने असत्यके अंशको ध्वस्त कर दिया है, और भ्रमरके समान श्याम केशोंको उखाड़ दिया है, जिन्होंने दूसरेके धनके हरणको निन्दा की है, जिन्होंने ब्रह्मा, हरि और हरके नयको दूर कर दिया है। जो परस्त्रीका निवारण करनेवाले हैं, तथा जिन्होंने दूसरोंके लिए मोक्षका द्वार बताया है, जो निशा भोजनसे विरत हैं, धीर और अकम्पित मन हैं। जिन्होंने गृहस्थ जीवन में परिग्रहका परि
Mss. A and P have the following stanza at the beginning of this Samdhi :--
विनयाङ्करसातवाहनादौ नृपचक्रे दिवि ( व ) मीयुषि क्रमेण ।
भरत तव योग्यसज्जनानामुपकारो भवति प्रसक्त एव ॥१॥ This stanza is also found at the beginning of Samdhi XXXII of this Work in certain Mss. See foot-note on page 530 of Vol I. K does not give it there or here.
१.१. A P°बहसुह । २. A वीरं ।
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