________________
२५५
-५४. २. १२]
महाकवि पुष्पदन्त विरचित पत्ता-णउ मयकलंकपडलें मलिणु ण धरइ खयवंकत्तणु ॥
मुँहुं मुद्धहि चंदें समु भणमि जइ तो कवेणु कइत्तणु ॥१॥
दुवई-मत्तकरिंदमंदलीलागइ णरमणणलिणगोमिणी ॥
किं वण्णमि गरिंद सा कामिणि कामिणियणसिरोमणी ॥ दिस बिंबाहररंगें रावइ कररुहपंति पईवहिं दीवइ । कंचियकेसहं कतिइ कालइ माणिणि माणवमहुयरमालइ । सललियवाणि व सकइहि केरी जहिं दोसइ तहिं सा भल्लारी। पढइ चारु पोसियपत्थावउ गायइ सुंदरि कण्णसुहावउ । णञ्चइ बहुरसभावणिउत्तउं सा जइ लहहि कह व मई वृत्तउं । तो संसारहु पेई फलु लद्धलं सयलु वि तिहुवणु तुज्झु जि सिद्ध। ससिजोण्हाहीणे कि गयणे णासाविरहिएण किं वयणे। लवणजुत्तिवियलेण व भोजें ताइ विवजिएण किं रज्जें। घत्ता-तं णिसुणिवि राएं मंतिवरु देवि उवायणु पेसियउ ॥
घरु जाइवि तेण सुसेणपहु पियवायइ संभौसियउ ॥२॥ पत्ता-वह मृगलांछनके पटलसे मलिन नहीं होती, वह क्षय और वक्रताको धारण नहीं करती, फिर भी यदि मैं उस मुग्धाके मुखको चन्द्रमाके समान कहता हूँ तो इसमें कौन-सा कवित्व है ? ॥१॥
मतवाले करीन्द्रकी मन्दलीलाके समान गतिवाली वह कामिनी मनुष्यके मनरूपी कमलकी शोभा और कामिनी-जन की शिरोमणि है। उसका क्या वर्णन करूं ? उसके बिम्बाधरोंके रंगसे दिशा अनुरंजित होती है, नख पंक्तिके प्रदीपोंसे आलोकित होती है, घुघराले बालोंको कान्तिसे काली होती है। वह मानवरूपी मधुकरोंको मालासे मानिनी है, वह सुकविको सुन्दर वाणीके समान है, वह जहाँ-जहाँ दिखाई देती है वहीं कल्याणमयी है। वह सुन्दर सुभाषित युक्तियोंको पढ़ती है, वह सुन्दरी कानोंको सुहावना लगनेवाला गाती है। अनेक रसों और भावोंसे परिपूर्ण नृत्य करती है। यदि उसे तुम किसी प्रकार पा सकते हो, तो मैं कहता हूँ कि तुमने संसारका फल पा लिया और समस्त त्रिभुवन सिद्ध हो गया। चन्द्रमाकी ज्योत्स्नासे रहित आकाशसे क्या ? नाकसे रहित मुखसे क्या ? लवणयुक्तिसे रहित भोजनसे क्या? इसी प्रकार उस सुन्दरीसे रहित राज्यसे क्या?"
घत्ता-यह सुनकर, राजाने मन्त्रीवरको उपहार देकर भेजा। उसने घर जाकर प्रियवाणीमें राजा सुषेणसे सम्भाषण किया ।।२।।
४. AP महुं। ५. AP कमणु । २. १. AP कामिणिजणं । २. AP फलु पई । ३. AP पेसिउ । ४. AP संभासिउ ।
Jain Education International
For Private & Personal Use Only
www.jainelibrary.org