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महापुराण
[६७. १५.१
तहिं पहिल्लओ णंदिमित्तओ बीयओ वि णामेण दत्तओ। खरपयावभरतसियवासवा बे वि ते णिवा सीरिकेसवा । बे वि सिद्धहरिरहविहंगया बे विकासकज्जलणिहंगया। बिहिं मि अत्थि महिपंसुपिंजरो खीरसायरो णाम कुंजरो। मग्गिओ ये सो रायराइणा धीरैवइरिसंतावदाइणा। अट्टहास हिमरासिवण्णओ तेहिं तस्स सोणेय दिण्णओ। दूयवयणविहिवढिओ कली सह चमूइ आर्यउ णिवो बली । चारु अमरकंतारवासिणा दोहिणिल्लसेढीखगीसिणा। बद्धणेहरसमुणियसाउणा
माउलेण केसवइभाउणा । सहिय बे वि बंधू वि णिग्गया सह बलेण समराइरं गया। जाययं रणं वलियसंमुहा
सीरिणा या वइरितणुरुहा । चूरिया रहा दारिया हरी लूरिया धया मारिया करी। णच्चिया णहे अमरसुंदरी बद्धमच्छरो धाइओ अरी। अंतरे भडो संठिओ हरी
तेण दोंछिओ खयरकेसरी। घत्ता-दोहिं मिजं कयं विजापहरणं ॥
को तं वण्णए बहुरूवं रणं ।।१५।।
उनमें पहला नन्दिमित्र था दूसरा भी नामसे दत्त था। अपने प्रखर प्रतापके भारसे इन्द्रको सन्त्रस्त करनेवाले वे दोनों राजा बलदेव और नारायण थे। उन दोनोंको क्रमशः सिद्ध रथ वाहिनी और गरुड़ विद्याएँ सिद्ध थीं । दोनोंके शरीर कास और काजलके रंगके समान थे। दोनोंके पास धरतीको धूलसे घूसरित क्षीरसागर नामका हाथी था। उसे धीर वैरियोंको सन्ताप देनेवाले राजराजा ( बलीन्द्रने ) मांगा। अट्टहास और हिमराशिके रंगका वह गज उन लोगोंने उसे नहीं दिया। दूतके शब्दोंसे कलह बढ़ गयो। सेनाके साथ वह बलि राजा वहां आया। अमरकान्तार नगरके निवासी दक्षिण श्रेणीके विद्याधर स्वामी बद्धस्नेहके स्वादको जाननेवाले मामा केशवतीके भाईके साथ वे दोनों भाई भी निकल पड़े। सेनाके साथ दोनों समरांगणमें गये। उनमें रण हआ। बलि (बलीन्द्र राजा) के सम्मुख बलभद्रने शत्रुके पुत्रका काम तमाम कर दिया, रथको चूर-चूर कर दिया। घोड़ेको फाड़ डाला । ध्वज फाड़ डाले। हाथोको मार डाला। अमरसुन्दरो आकाशमें नाच उठी । तब मत्सर बांधता हुआ शत्रु दौड़ा। वह योद्धा और हरिके बोच स्थित हो गया। उसने विद्याधर राजाकी भत्सना की।
पत्ता-दोनोंके द्वारा जो विद्याओंका अपहरण किया गया है, ऐसे उस बहुरूपी रणका कोन वर्णन कर सकता है ? ॥१५॥ १५. १. A हुवा । २. AP वि । ३. AP वोरं । ४. AP आइओ । ५. A दाहिणल । ६. A दुच्छिओ ।
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