Book Title: Mahapurana Part 3
Author(s): Pushpadant, P L Vaidya
Publisher: Bharatiya Gyanpith

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Page 567
________________ प . . महापुराण [ LII5. 4b पृयवयणहिं-ऋ पृय में है जो प्रियके रूप में आनी चाहिए, सम्भवतः यह हेमचन्द्र के नियम अभूतोऽपि क्वचित्, ( 399 ) का बढ़ाव है । 6. 13 जसु जसु-यस्य यशः—जिसका यश । 7. 86 मगवइयहि जाएं-मगावती के पुत्रके द्वारा। यानी त्रिपष्ठके द्वारा। 9a संचालेवी-कर्मवाच्यका सम्भाव्य कृदन्त रूप है, तुलना कीजिए-पालेवी जणेवी, परिणेवी इत्यादिसे । हेमचन्द्र 438 नियममें इसके लिए एवा रूप देते हैं जो तव्यका स्थानापन्न है । वे एवीका उल्लेख नहीं करते। 9. 13-14 णियजणणविइण्ण-पंक्तियों का अर्थ है कि अर्ककीति अपने पिताकी भौंहोंके संकेतों को समझते हुए राजा प्रजापतिके पास गया और इस प्रकार उसे प्रणाम किया। ___10. la हरिबलेहि-त्रिपृष्ठ और बलके द्वारा; ससुरउ ( श्वसुर ), त्रिपृष्ठका होनेवाला ससुर । 11. 12-13 पुणु भणिउ-उन्होंने फिर अनन्त ( त्रिपृष्ठ ) से कहा-हम देखें और पत्थरके गोल खम्भे उठायें और मुझे बतायें कि क्या तुम अश्वग्रीवकी हत्या कर सकते हो। 15. 14 अह सो सामण्णु भणहं ण जाइ-उसे सामान्य व्यक्ति नहीं कहा जा सकता। LII 1. 2 चिरभववइरवसु-पूर्व जन्मके वैरके प्रभावसे कि जब वे विश्वनन्दी और विशाखनन्दी थे। 4 तिखंडखोणिपरमेसरु-तीन खण्ड धरतीके चक्रवर्ती । अश्वग्रीव अर्धचक्रवर्ती था। 5. 40 विज्जाहर भूयरभूमिणाहु--विद्याधरभूमि और मनुष्यभूमिके स्वामी । अर्धचक्रवर्ती अश्वग्रीव । 7. 3a मा रसउ काउ चप्पिवि कवालु-आदमोके सिरपर कौएका बैठना और कांव-काव करना आनेवाली मौतका संकेत है। 8. 2 करगय-स्वर्णका हार देखने के लिए तुम्हें दर्पण क्यों चाहिए कि जो तुम्हारे हाथमें है। वह प्रसिद्ध लोकोक्ति है, 5a भरहह लग्गिवि-भरत चक्रवर्तीके समयसे लेकर, प्रथम चक्रवर्ती । 11 रणु बोल्लंतहुं चंगउं-युद्ध की बात करना आनन्ददायक है । तुलना कीजिए कि युद्धस्य कथा रम्या । 3. किंकर णिहणंतहं णत्थिाय-अनुचरोंको मारने में कोई आकर्षण या आनन्द नहीं है। अश्वग्रीव त्रिपृष्ठसे लड़ने में प्रसन्न था, उसने सोचा कि छोटे व्यक्ति या अनुचरसे लड़ने में कोई मजा नहीं है । 15 सारं का 'टी' में बलवान अर्थ किया गया है। परन्तु लगता है कि त्रिपृष्ठको वासुदेव होने के कारण शृंगका बना धनुष रखना चाहिए, विष्णुको शाङ्गधर कहा जाता है-हिन्दू-पुराण विद्यामें । हिन्दू-पुराण विद्यामें विष्णुके दूसरे प्रतीक है पाँचजन्य, कौस्तुभमणि, असि, कौमोदकी गदा, गरुडध्वज और लक्ष्मी । जैनपुराण विद्यामें ये प्रतीक वासुदेवके भी माने जाते हैं और इसलिए मैं सोचता है कि सारंगधनुका अर्थ शाधिनु होगा । 10. 4a-b यह पंक्ति बलदेवके हथियारोंका वर्णन करती है, ये हैं लांगल, मुसल और गदा जो चन्द्रिमा कहा जाता है। 11. 2 खगाहिवो-गरुड़, जो वासुदेव या विष्णुके ध्वजका प्रतीक है । 84 णिच्चिच्चुंचे-मोटा और ऊँचा । 'टी' के अनुसार यह मुहावरा निस् + उच्च से बना । सम्भवतः कि नित्य + उच्च से बना हो, उच्च उंच होता है, अथवा उच्च + उच्च; इसका अर्थ है अन्त तक खड़े बाल, जो हमेशा खड़े रहते हैं । 12. 8a-b भडु इत्यादि-योद्धा कहता है यदि मेरा मस्तक भी गिर जाता है तो भी मेरा धड़ शत्रुका वध करेगा और नाचेगा। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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