Book Title: Mahapurana Part 3
Author(s): Pushpadant, P L Vaidya
Publisher: Bharatiya Gyanpith
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Page #1 -------------------------------------------------------------------------- ________________ महाकवि पुष्पदन्त चिरचित महापुराण [भाग-३] मूल सम्पादक अनुवादक डॉ. देवेन्द्र कुमार जैन, एम.ए., पी-एच.डी. भारतीय ज्ञानपीठ प्रकाशन Page #2 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ज्ञानपीठ मूर्तिदेवी जैन ग्रन्थमाला : अपभ्रंश ग्रन्थांक-१७ महाकवि पुष्पदन्त विरचित महापुराण भाग-३ [ तीर्थकर अजितनाथसे मल्लिनाथ-चरित तक ] (सन्धि ३७ से ६७ तक ) हिन्दी अनुवाद, प्रस्तावना तथा अनुक्रमणिका सहित मूल-सम्पादक डॉ. पी. एल. वैद्य अनुवादक डॉ. देवेन्द्र कुमार जैन, एम. ए., पी-एच. डो. प्रोफेसर, हिन्दी विभाग, शासकीय कला एवं वाणिज्य महाविद्यालय इन्दौर (म. प्र.) SEACTION पनी ADMIN भारतीय ज्ञानपीठ प्रकाशन वीर नि० संवत् २५०७ : वि. संवत् २०३८ : सन् १९८१ प्रथम संस्करण : मूल्य पचपन रुपये Page #3 -------------------------------------------------------------------------- ________________ स्व. पुण्यश्लोका माता मूर्तिदेवीकी पवित्र स्मृतिमें स्व. साहू शान्तिप्रसाद जैन द्वारा संस्थापित एवं उनकी धर्मपत्नी स्वर्गीया श्रीमती रमा जैन द्वारा संपोषित भारतीय ज्ञानपीठ मूर्तिदेवी जैन ग्रन्थमाला इस ग्रन्थमालाके अन्तर्गत प्राकृत, संस्कृत, अपभ्रंश, हिन्दी, कन्नड़, तमिल आदि प्राचीन भाषाओं में उपलब्ध आगमिक, दार्शनिक, पौराणिक, साहित्यिक, ऐतिहासिक आदि विविध विषयक जैन- साहित्यका अनुसन्धानपूर्ण सम्पादन तथा उसका मूल और यथासम्भव अनुवाद आदिके साथ प्रकाशन हो रहा है। जैन- मण्डारोंको सूचियाँ, शिलालेख संग्रह, कला एवं स्थापत्य, विशिष्ट विद्वानोंके अध्ययन-ग्रन्थ और लोकहितकारी जैन साहित्य-ग्रन्थ भी इसी ग्रन्थमालामें प्रकाशित हो रहे हैं । ग्रन्थमाला सम्पादक सिद्धान्ताचार्य पं. कैलाशचन्द्र शास्त्री डॉ. ज्योतिप्रसाद जैन प्रकाशक भारतीय ज्ञानपीठ प्रधान कार्यालय : बी / ४५-४७, कॅनॉट प्लेस, नयी दिल्ली- ११०००१ मुद्रक : सन्मति मुद्रणालय, दुर्गाकुण्ड मार्ग, वाराणसी-२२१०१० स्थापना : फाल्गुन कृष्ण ९, वीर नि० २४७०, विक्रम सं० २०००, १८ फरवरी १९४४ सर्वाधिकार सुरक्षित Page #4 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मूल प्रेरणा दिवंगता श्रीमती मूर्तिदेवी जी मातुश्री श्री साहू शान्तिप्रसाद जैन अधिष्ठात्री दिवंगता श्रीमती रमा जैन धर्मपत्नी श्री साहू शान्तिप्रसाद जैन Page #5 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Page #6 -------------------------------------------------------------------------- ________________ JNANAPITHA MURTIDEVI GRANTHAMALA: Apabh. Grantha No. 17 MAHAKAVI PUSPADANTA'S MAHAPURANA Vol. III [From Tirthankara Ajitanātha to Mallinātha ] (Samdhi 37 to 67) With Introduction, Hindi Translation and Index of the verses etc. Text Edited by Dr. P. L. VAIDYA Translated by Dr. DEVENDRA KUMAR JAIN, M. A., PH. D. Professor, Department of Hindi, Govt. Arts and Commerce College, INDORB BHARATIYA JNANPITH PUBLICATION VIRA NIRVANA SAMYAT 2507: V. SAMVAT 2038: A. D. 1981 First Edition: Price Rs. 55/ Page #7 -------------------------------------------------------------------------- ________________ BHARATIYA JÑANAPITHA MORTIDEVI JAINA GRANTHAMĀLA FOUNDED BY LATE SAHU SHANTI PRASAD JAIN IN MEMORY OF HIS LATE MOTHER SHRIMATI MURTIDEVI AND PROMOTED BY HIS BENEVOLENT WIFE LATE SHRIMATI RAMA JAIN IN THIS GRANTHAMALA CRITICALLY EDITED JAINA AGAMIC, PHILOSOPHICAL, PURANIC, LITERARY, HISTORICAL AND OTHER ORIGINAL TEXTS AVAILABLE IN PRAKRIT, SANSKRIT, APABHRÚSA, HINDI, KANNADA, TAMIL, ETC., ARE BEING PUBLISHED IN THEIR RESPECTIVE LANGUAGES WITH THEIR TRANSLATIONS IN MODERN LANGUAGES. ALSO BEING PUBLISHED ARE CATALOGUES OF JAINA-BHAŅDĀRAS, INSCRIPTIONS, STUDIU. ON ART AND ARCHITECTURE BY COMPETENT SCHOLARS AND ALSO POPULAR JAINA LITERATURE. General Editors Siddhantacharya Pt. Kailash Chandra Shastri Dr. Jyoti Prasad Jain Published by Bharatiya Jnanpith Head Office : B/45-47, Connaught Place, New Delhi-110001 Founded on Phalguna Krishna 9, Vira Sam. 2470, Vikrama Sam. 2000,18th Feb., 1944 All Rights Reserved. Page #8 -------------------------------------------------------------------------- ________________ एलाचार्य श्रद्धेय मुनिश्री विद्यानन्दजीको समर्पित जो परम्परामें रहकर भी उसे नये सन्दर्भ दे रहे हैं। जो जैन-धर्मको उस विश्व-धर्ममें देखते हैं, जो मानव-धर्मको कसौटी पर खरा उतरे। जिनकी वीतरागता विद्यानुरागमें रूपायित है, विद्याका हर आयाम जिन्हें आन्दोलित करता है। जिनकी आत्म-साधना विश्वकल्याण-भावनासे अनुप्रेरित है। मूलतः कन्नडभाषी होकर जो ऐसी प्रांजल हिन्दी बोलते हैं कि जिसे सुनकर कोई कह नहीं सकता कि वे उत्तर भारतीय नहीं हैं। हालांकि साधुका अपना कोई देश नहीं होता, जाति नहीं होती। प्राकृत अपभ्रंशमें जिनकी गहरी और सक्रिय दिलचस्पी है, जो चाहते हैं कि उक्त समूचा साहित्य आधुनिक वैज्ञानिक पद्धतिसे सम्पादित होकर प्रकाशमें आये जिससे भारतीय सांस्कृतिक धाराके अनछुए तत्त्वों और अध्यायोंको उजागर किया जा सके। उनकी यह चाह मूर्त हो। -देवेन्द्रकुमार जैन Page #9 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Page #10 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अनुवादक का निवेदन महाकवि पुष्पदन्तके महापुराणके पहले खण्डका अनुवाद 'नाभेयचरिउ'के नामसे दो खण्डोंमें प्रकाशित हो चुका है, उसी प्रकाशन शृंखलाकी यह दूसरी कड़ी है जिसमें ३८वीं सन्धिसे लेकर ६७वीं सन्धि तकका अंश है । इस अंशको महत्ता इस तथ्यमें है कि इसमें अधिकतर तीर्थंकरों, चक्रवतियों, बलदेवों, वासुदेवों और प्रतिवासुदेवोंके चरित आ गये हैं। यह महापुराण -श्रमण संस्कृतिके ऐतिहासिक विकास और मूल प्रवृत्तियों को समझनेके लिए एक काव्यात्मक दस्तावेज है। समकालीन बृहत्तर भारतीय संस्कृतिकी दूसरी धाराओंके आलोचनात्मक अध्ययनके लिए इसका महत्त्व निर्विवाद है । अपभ्रंश भाषा और पद्धडियाबन्धमें होने के कारण, इसका महत्त्व अकूत है । महापुराणको भाषा और शैली नयी है। आधुनिक भारतीय आर्यभाषाओं और उनके साहित्यके वैज्ञानिक अध्ययनको दृष्टिसे इसकी उपादेयताका जब सम्पूर्ण मूल्यांकन होगा, तब अब तककी अध्ययन दृष्टि और उसके परिणामोंमें आमूल क्रान्ति होगी। लेकिन इस समय अध्ययनकी जो स्थितियां हैं, अवसरवाद ज्ञानके क्षेत्रमें जैसी कलाबाजियाँ दिखा रहा है उन्हें देखते हए निकट भविष्यमें यह मूल्यांकन हो सकेगा, इसकी न तो आशा है और न सम्भावना, फिर भी निराश इसलिए नहीं है कि संसार क्षणभंगुर है, उसमें एक सी स्थिति कभी नहीं रहती, कभी न कभी स्थिति बदलेगी और अध्येता सही सन्दर्भमें इस काममें लगेंगे। मैं इसे दुहराना आवश्यक समझता हूँ कि संस्कृत प्राकृत-अपभ्रंशसे आधुनिक भारतीय आर्य और आर्येतर भाषा तक पहुँचने के लिए हमें भारतीय भाषा ( भारती ) को एक प्रवाहके रूपमें देखना होगा, जो बोलचालके स्तरपर निरन्तर गतिशील रहा है । विभिन्न भाषाओं में जो साहित्य उपलब्ध हैं, वे धाराके बाँध हैं, बांध और धारा में फर्क है; बाँधसे धाराकी गति नहीं रुकती। अपने समय और क्षेत्र की दृष्टिसे ये बांध अलग-अलग हो सकते हैं, परन्तु उनको धारा जोड़े रहती है। अतः वैज्ञानिक अध्ययनकी प्रक्रिया ही भाषा प्रवाहके स्थायी और गतिशील तत्त्वोंका सही मूल्यांकन कर सकती है। २०वीं सदीका आठवां दशक ( १९७०-८०) अपभ्रंशभाषा और साहित्यके विचारसे सचमुच दुर्भाग्यपूर्ण दशक है क्योंकि उसमें इसके अधिकांश प्रेरक, आश्रयदाता, शोधकर्ता और विद्वान् इस दुनियासे उठ गये। महापुराण के अंश 'नाभेयचरिउ' के अनुवादके समय अपभ्रंश साहित्यके मनीषी डॉ. पी. एल. वैद्य भी अब हमारे बीच नहीं हैं। पहले खण्डकी भमिकामें, १९७४ में, मत्यसेजपर पडे-पडे उन्होंने लिए पुष्पदन्तकी तीसरी रचना 'महापुराण' विशाल ग्रन्थ है, जिसके तीन खण्डोंके सम्पादनमें मुझे दस सालसे भी अधिक (१९३२-४१) का समय लगा। यह उसका डॉ. देवेन्द्र कुमार जैनके हिन्दी अनुवादका दूसरा संस्करण है, जो भारतीय ज्ञानपीठ द्वारा प्रकाशित है। मैं विशेष रूपसे सुखका अनुभव करता हूँ कि उक्त संस्थाने इसका प्रकाशन किया, और विद्वानों को इसे उपलब्ध कराया। अपभ्रंश साहित्यके प्रेमी भारतीय ज्ञानपीठके प्रति अत्यन्त अनुगृहीत हैं। मैंने आशा की थी कि इस युगनिर्माता प्रकाशनका युवा शोध-विद्वान् अध्ययन करेंगे।" सन्तोष भी है कि उनके जीवनकालमें ही महापुराणका पहला खण्ड हिन्दी अनुवाद और उनकी भूमिकाके साथ प्रकाशित हो गया था। चूंकि यह प्रकाशन भारतीय ज्ञानपीठ ने अपने हाथमें लिया है, इसलिए जीवनकी आखिरी सांस तक उन्हें विश्वास रहा होगा कि शेष खण्ड भी उसी आनबानसे प्रकाशित होंगे। विश्वास है कि मत्युसे जूझते हुए स्व. डॉ. वैद्यने जो अपील की थी अपभ्रशके अध्येता उसपर ध्यान देंगे। Page #11 -------------------------------------------------------------------------- ________________ महापुराण इस अवसरपर, मैं भारतीय ज्ञानपीठके न्यासधारियों, निदेशक भाई लक्ष्मीचन्द्रजी और डॉ. गुलाबचन्द का हृदयसे अनुगृहीत हूँ कि उन्होंने विभिन्न स्तरोंपर इस कार्यको गति दी। मूर्तिदेवी ग्रन्थमालाके वर्तमान सम्पादक श्रद्धेय पण्डित कैलाशचन्द्र शास्त्री और डॉ. ज्योतिप्रसाद जैनके प्रति कृतज्ञ होना मेरा कर्तव्य है कि जिनके सम्पादनमें इसका प्रकाशन हो रहा है। अपभ्रंशकाव्य कृतियों के अनुवादकी प्रेरणा देनेवाले श्रद्धेय प. फुलचन्द्रजी शास्त्रीका कृतज्ञस्मरण कर मैं सुखका अनुभव कर रहा हैं। अनुवादको मुलगामी और शुद्ध बनानेका पूरा प्रयास किया गया है परन्तु अपभ्रंश-जैसी लचीली विकल्प प्रिय भाषा और उसके चरितकाव्योंकी संक्षिप्त और विस्तृत शैलोके कारण कभी-कभी सन्दर्भोको जोड़ना माथापच्चीका काम है, शब्दकी पहचान भी टेढ़ी खीर बन जाती है। इसके अलावा पिछले दशकमें जिन्दगीमें आनेवाले व्यवधानों तथा पुष्पदन्तके इस कथनको दुहरानेवाले कलिमलमलणु कालु विवरेउ णिग्घिणु णिग्गुणु दुण्णयगार जो जो दीसइ सो सो दुज्जणु णिप्फलु नीरसु णं सुक्कउ वणु राउ राउ णं संझहि केरउ" ४।३८ कलियुगके पापोंसे मैला, यह समय अत्यन्त विपरीत है, निर्दय निर्गुण और दुर्नयोंको करनेवाला जोजो दिखाई देता है। (मिलता है ) वह-वह दुर्जन, फलहीन और नीरस, मानो यह दुनिया आदमियोंकी दुनिया नहीं, सूखे पेड़ोंका जंगल है। लोगोंका राग, सन्ध्याके रागके समान है, पल-भरमें, या काम होते ही गायब ! मनहूस क्षणोंके कारण भी कुछ भूलें रह जाना या हो जाना सम्भव है। सहृदय पाठकोंसे निवेदन है कि यदि ऐसी भूलें उनके ध्यानमें आयें तो निस्संकोच उन्हें सूचित करनेका कष्ट करें, जिससे भविष्य में उन्हें ठीक किया जा सके। शान्तिनिवास 114 उषानगर, इन्दौर 452009 20-5-1981 -देवेन्द्र कुमार जैन Page #12 -------------------------------------------------------------------------- ________________ PREFACE The first Volume of the Mahapurana of Puşpadanta containing the first thirtyseven samdhis out of a total of one hundred and two was issued in 1937 as No 37 of the Manikchand Digambara Jaina Granthamala, Bombay, under the kind patronage of the Trustees of that Series. I am now issuing the second Volume of the work containing the next forty-three samdhis (xxxviii-Ixxx) in the same Series as No 41 and under the patronage of the same Trustees as also of the University of Bombay. I hope to issue the third and the last Volume of the work within a year from now. It is my pleasant duty to thank all those who have assisted me in the production of this second Volume. In the first place I should like to thank most heartily the Managing Trustee of the Manikchand Digambara Jaina Granthamala, Mr. Thakordas Bhagwandas Javeri, who, in spite of low funds of the Mala, agreed to finance the publication. To Pandit Nathuram Premi and Professor Hiralal Jain of King Edward College, Amraoti, the Secretaries of the Malā, I owe a special debt of gratitude. The funds of the Mala, after the publication of the first Volume of the work, were completely exhausted, and I feared that I would be forced to abandon the work unfinished, but these learned scholars moved heaven and earth to find out the required amount for publication. I am to thank Professor Hiralal Jain specially for his having secured for my use the Ms. of the Uttarapuräna designated A in the Critical Apparatus and also of the Tippaņa of Prabhācandra from Master Motilal Sanghi Jain, Sanmati Pustakalaya, Jaipur, who very kindly placed them at my disposal as long as I wanted them for collation work. My thanks go to Master Motilal for this kindness. Mr. R. G. Marathe, M. A., formerly my pupil and now Professor of Ardha-Magadhi at the Willingdon College, Sangli, helped me for the collation of this Volume also. My thanks go to him for the help he rendered me. Nor should I forget to mention thankfully the work of Mr. R. D. Desai of the New Bharat Printing Press, Bombay, and his willing staff of Proof-readers and Pressmen who are responsible for the excellent get-up and faultless execution of this Volume. Lastly, the Editor and the Publishers acknowledge their indebtedness to the University of Bombay for the substantial financial help (Rs. 650/- ) it has granted towards the cost of publication of this Volume. Nowrosjec Wadia College, Poona August 1940 P. L. Vaidya [2] Page #13 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Page #14 -------------------------------------------------------------------------- ________________ INTRODUCTION CRITICAL APPARATUS The Text of Mahapurapa or Tisatthimahapurisagupalamkara of Puspadanta in this Volume is based upon three Mss. designated K, A and P which are fully collated. Occasional help for the purpose of settling the text was also derived from the Tippapa of Prabhacandra. I give below the full description of this material - (1) K. This Ms. is fully described in my Introduction to Vol. I on pages xi and xii. The Uttarapurapa portion begins on leaf No 289 of this Ms. As this Ms was found to contain the older of the two recensions of the Adipurana with corrections to accord with the other recension, I have relied upon it for the constitution of the text in this Volume. It is to be regretted that no Ms. corresponding to Ms. G of the Adipurana Mss. could be discovered for this Volume. I may say here that the No. of the Uttarapurapa Mss known to me is much smaller than those of the Adipurapa. (2) A. This Ms was obtained for me by Professor Hiralal Jain of the King Edward College, Amraoti, from Master Motilal Sanghi Jain, Sanmati Pustakalaya, Jaipur. It consists of 423 leaves measuring 13 inches by 5 inches with 11 lines to a page and about 40 letters to a line. This Ms presents in its original form a recension as in P, but seems to have been corrected to another recension no longer available to me with the result that the variants recorded are those of the corrected recension. The Ms further seems to have been made up of (a) leaves of the original Ms of which a few were lost, and (b) of leaves newly added to make up the lost portion and written in a different hand. This hypothesis of mine is supported by reference to Folio No 383-384 which leaves half the page blank in order that the matter should run on with the first syllable on Folio No 385 of the original part. The pages so substituted have nine lines to a page and about 38 letters to a line. That this Ms. presents a recension different from those of K and P is clear from the fact that it contains Prasasti Stanzas 46, 47 and 48 (See Introduction to Vol I, page xxvii) which are not common to any other Ms of the Uttarapuraņa. The Ms begins: ॐ नमो वीतरागाय । बंभहो बंभालयसामियहो and ends : इय महापुराणे तिसट्ठिमहापुरिसगुणालंकारे महाकरपुप्फयतविरइए महामन्वभर हाणुमण्णिए महाकवे दुउत्तरसयमो परिच्छेओ समत्तो ॥ संधि ॥ १०२ ॥ इति उत्तरपुराणं समाप्ता ॥ शुभमस्तु ॥ कल्याणमस्तु ॥ संवत् १६१५ वर्षे मानदि ६ शुक्रवासरे उत्तरपुराणं समाएं || नाईटोपनायें ज्ञानावणी कम्पार्थ संख्या | १२००० ॥ This last page however is not the original page of the Ms but is newly written. According to this colophon the Ms is dated Friday, the 6th day of the month of Magha (Feb.-March) of the Samvat year 1615, corresponding to 1558 A. D. (3) P. This is Ms No 1106 of 1884-87 of the Deccan College Collection, now deposited in the Bhandarkar Oriental Research Institute, Poona. It has 681 leaves. measuring 11 inches by 4 inches with 8 lines to a page and 33 letters to a line. It is dated the full moon day of the month of Bhadrapada (Aug.-Sept.) of the samvat year 1630 corresponding to 1573 A. D. The last page of the Ms, is damaged and hence it Page #15 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 12 MAHĀPURĀŅA was rewritten on the 6th day of the bright half of Așadha (July) of the samvat year 1934 corresponding to 1877 A, D. It has a brief marginal gloss. It begins; * 741 afatite m QHTI AHISHATI..The original page ends : 14 Hellcio......GETAHT afazzant het. In second hand we have further : 9 € 30 aŭ HTEYTHR 248ë funifazit (fala 38 ) TIHEYAT Harga Tiroe asic Filc... icare...... The replaced page ends : बलदेवदास टौंग्याकाकारज मोती असाडसुदी ६ समत १९३४ का सालम श्रीषीयामंडीका मंदर पंचाइतामंदरने चडायो 113 113 1111811 This Baladevadas had before him the damaged page of the Ms in two parts, the first part of which is still preserved alongwith the Ms at the Institute. The year 1630 put on the original page and the Patļāvalı portion on the original page seems to have been written in a different hand. In addition to these three Mss fully collated, I have made full use of the Tippana of Prabhācandra, a Ms of which was procured for my use by Professor Hiralal Jain from Master Motilal Sanghi Jain of Jaipur. This Ms of the Tippapa has 57 leaves measuring 12 inches by 5 inches with 13 lines to a page and 31 letters to a line. It begins : 30 74: the 4: 461 454647: and ends : staat 4 at 29101431154धिकसहस्रे महापुराणविषमपदविवरणं सागरसनसेद्धांतान पारशाय मूलाटप्पणकां चालाक्य कृतमिदं समुच्चयाटप्पणं ।। मशपातभीतेन श्रीमदलात्कारगणश्रासघाचार्यसत्कविशिष्येण श्राचद्रमुानना नजदोदंडाभिभूतारपुराज्यविजायनः श्रामोजदेवस्य ॥१०२॥ इतिउत्तरपुराणाटप्पणक प्रमाचंद्राचार्यावराचतं समाप्त ॥ छ।। अथ संवत्सस्मिन् श्रा नृपावक्रमादित्यगताब्दः संवत् १५७५ वर्ष भाद्रवा सुदि। बुद्धदिने। कुरुमांगलदसे । सुलतान सिकंदरपुत्रु सुनितानब्राहमुराज्यप्रवतेमाने श्राकाष्ठासंघ माथुरान्वय पुष्करगणे। भट्टारकलागुणभद्रसूारदवा। तदाम्नायं जैसवालु चौ. टोडरमल्लु। इद उत्तरपुराणटाका लिखापत । सुभं भवतु । मांगल्यं ददाति लेखकपाठकयोः ॥ छ । The colophon of this Ms raises some interesting problems which have been fully discussed in my Introduction to Vol I, page xv, aud hence it is not necessary to restate and reexamine them here. I need only say that i have made full use of this T as also of the marginal gloss in K and P in constituing my text and in preparing my Foot-Notes, There is one more Ms of the Uttarapurāpa known to me. It is deposited in the Balätkára Gana Jain Mandir at Karanja, Berar, and bears No 7029 in the Catalogue of Sanskrit & Prakrit Mss in the C. P. and Berar, by the late Rai Bahadur Hiralal. This Ms is dated Thursday the 8th day of the dark half of Märgaśīrṣa of the samvat year 1606, i, e., 1549 A. D. I have personally examined this Ms at Karanja during my visits to that place in 1927 & 1929, have had some trial collations, was promised the loan of it by the trustees of the temple, but could not get it when I actually required it owing to some strange attitude which the trustees then took. From my trial collations however, it appears that this Ms agrees very closely with P which is fully collated for this edition. I have constituted my text in this Volume on the material described above. In doing so I have mostly relied upon the text as preserved in K which was found to represent the earliest of three recensions of the Uttarapurāna. SUMMARY OF CONTENTS This Second Volume of the Mahăpurāna contains samdhis XXXVIII-LXXX of the great epic, and describes the lives of twenty Tirthamkaras beginning with Ajita the second and ending with Nami the twenty-first, eight each of the nine Page #16 -------------------------------------------------------------------------- ________________ INTRODUCTION Baladevas, Vasudevas and Prati-Vasudevas, and ten out of twelve Cakravartins. from Sagara to Jayasena. In narrating these lives the poet has followed the information handed down by tradition and seems to have been greatly influenced by Gunabhadra's Uttarapurana in Sanskrit. It appears that the details of the lives of these Great Men were codified by old monks, but individual poets handling the theme were free to use their poetic genius in detailed description. Vimalasüri in his Paumacariya, for instance, says : नामावलियनिवई आयरियपरंपरागयं सवं । वच्छामि पउमचरियं अहाणुपुचि समासे ॥ १.८. 13 Although most of the information seems to have been codified and tabulated and handed down by tradition of each of the two schools of the Jainas, there is considerable uniformity in the subject matter. I have myself prepared some Tables. and given them in the form of Appendices to this Volume. I now proceed to give the summary of contents by samdhis where such summary cannot be given in a tabular form. XXXVIII. The Poet at the beginning offers salutations to the five Parameşthis and assures the reader to continue his work by narrating the life of Ajita the second prophet of the Jainas. But before he proceeds he says that for some reason he was uneasy at heart and so stopped his literary activity for some time. One day the goddess of Learning appeared before him in dream and asked him to offer his salutations to the Arhats. The poet woke up but saw nobody before him. At this juncture Bharata, his patron, came to his house and asked him whether he (Bharata) offended him any way as a result of which he did not continue his work. Bharata reminded the Poet further that the life was fickle and that he should make full use of the gift of his poetic powers. The Poet then said to his patron that he was uneasy at heart because he found the world to be full of wicked people, and that, for that reason, he was not inclined to continue his composition, but that he would resume it at his request which he could not refuse. The Poet then resumes the work and narrates the life of Ajita. For details see Notes and the Tables in Appendices I, II, and III. XXXIX. There lived a king named Jayasena at Prthvipura, the capital of Vatsavatt in the eastern Videha. He had two sons, Ratisepa and Dhrtisena by name, possessing great beauty. Of these Ratişepa died early. His father, overcome by grief, and disgusted with the worldly life, gave his kingdom to his son, Dhrtisega, and alongwith his minister Maharuta, became a monk. Both Jayasena and Mahiruta practised penance, and after death became gods named Mahābala and Maniketu. These two gods made an agreement between themselves that whoever would be born on the earth earlier should be taught by the other the highest Dharma. Of these Mahabala was born first on the earth as king Sagara of Saketa, and in course of time became a Cakravartin. Once a monk named Caturmukha attained Kevalajñana, on which occasion gods arrived on the earth. Sagara went there to pay his respects to the monk. Mapiketu saw king Sagara there and was reminded of his promise to god Mahabala. Mapiketu thereupon took the opportunity to tell Sagara how fickle the earthly prosperity was, but Sagara paid no heed to him. Once again Maniketu came to Sagara's palace to enlighten him, but this time also Page #17 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 14 MAHÁPURANA he failed. Now just about this time, sixty thousand sons of Sagara approached their father and asked him to give some work of command as they were tired of being id.le Sagara at first told them that there was nothing that was left for them to do as his cakra had already achieved everything for them. His sons however insisted and then Sagara asked them to go to Mandara mountain and make some arrangement for the protection of the temples of the twenty-four Jinas built by Bharata the first Cakravartin. The sixty thousand sons of Sagara then started on their mission, dug up a huge ditch round Mandara and filled it with waters of the Ganges which flowed into the Nagaloka. This time Maniketu thought of enlighting Sagara by a new method. He became a big snake, looked at the sons of Sagara with anger, and burned them to ashes. Only two, Bhīma and Bhagirathi, escaped alive. Sagara was informed of this disaster, was advised by a Brahmin on the fickleness of samsăra. Following his advice, Sagara placed his son Bhagirathi on the throne, and with his son Bhima, became a monk. Maņiketu was delighted to see this and showed to Sagara how he wrought about by his magic the death of his sons. All the sons were then brought to life, but they also followed their father by becoming monks. Bhagirathi also, in due course, became a monk and attained emancipation. XL, XLI, XLII, XLIII, and XLIV. For the lives of Sambhava, Abhinandana, Sumati, Padmaprabha and Supāıśva, see the Tables. XLV. This samdhi describes the six previous births of Candraprabha the eighth Tírthamkara. In the earliest of these births, the soul of Candraprabha was born Śrišarman or Srivarman, son of king Śrīşena and queen Śrīkāntă of Sripura in the Sugandha country of Western Videha, Leading a pious life he was next born as a god named Sridhara. In the next life he was born as a son named Ajitasena to king Ajitamjaya and queen Ajitasenā of Ayodhya in the Alaka country. This Ajitasena became a cakravartin, led a pious life, and was next born as the lord of the Acyuta heaven. After this he was born as Padmanabha or Padmaprabha, son of Kanakaprabha and Kanakamala of the town Vastusamcaya in the Mangalavati region, In his next birth he was born as Ahamindra in the Vaijayanta heaven. XLVI. For the life of Candraprabha as a Tirthamkara see the Tables. XLVII. For the life of Suvidhi or Puşpadanta see the Tables. XLVIII. Sitala the tenth Tirthamkara was in his previous life king Pfthvipala of Susīmā. His wife, Vasantalakşmi by name, died in the prime of youth, and the king, reflecting on her death, renounced the worldly life. In his next birth he was born as a god in the Arupa heaven. In his next birth he was born as a son named Sitala to king Drdharatha and queen Sunandă of the town of Rajabhadra or Bhadrilapura. On seeing a bee dead in the lotus flower, he formed a disgust for the worldly life, renounced it, and going through the usual course of a Tirthamkara, attained emancipation. After his nirvana Jainism fell on bad days for want of persons preaching and practising it. There was at this time a king called Megharatha at Bhadrilapura. He wanted to spend his wealth in making gifts to suitable persons and asked the advice of his minister what type of gift was the best gift. His minister mentioned Sastradana to be the best form. The king however, did not like this advice, and asked a Brahmin named Mundaśalāyana who told the king that he Page #18 -------------------------------------------------------------------------- ________________ INTRODUCTION 15 should make the gifts to Brahmins of girls, elephants, cows etc. The king followed his advice which only went to enrich the Brahmins but did the king no good. IL. For the life of Śreyāmsa see the Tables. L, LI and LII. These three samdhis describe the narrative of the first set of Bala devas, Vasudevas and Prati-Vasudevas. During the regime of Sreyāmsa there lived at Rajagrha a king named Viśvabhati and queen Jaint. The king had a younger brother named Visakhabhūti and his queen was called Lakşmaņā. Jaini gave birth to a son called Visvanandi and Lakşmana to Visakhanandi. One day Visvabhäti saw an autumnal cloud disappearing in the sky. From this the king realised impermanence of samsāra, and giving his kingdom to his younger brother Visakhabhati, renounced the worldly life. When Visakhabhūti became king, Visvanandi became the Yuvarāja. Now Visvanandi once went to his pleasure-garden called Nandana, and while he enjoyed life there in the company of women, Visakhanandi saw him. A desire to possess that very garden arose in his mind. He went to his father and pressed him to give it to him. The king agreed to do this, called Visvanandi and asked him to take charge of his father's kingdom, and told him further that he (Visakhabhati) would go to the frontier to overcome the rebelling tribes. Visvanandi did not like the idea that his uncle should go to fight, but told him that he would rather himself go for that purpose. Visakhabhati agreed and Visvanandi went away. During his absence Visakhabhati gave the Nandana garden to his son Visakhanandi. When Visvanandi returned, he found that his garden was taken possession of by Visakhanandi. Visvanandi got angry with his uncle and cousin. He wanted to attack his cousin who climbed up the tree. Visvanandi uprooted the tree with Visakhanandi on, and wanted to smash them both. Visakhanandi however escaped but climbed a stone pillar which Visvanandi smashed into pieces. Visakhanandi then ran away for life. At this time Viśvanandi was filled with pity that he attacked his cousin, and made up his mind to be a Jain monk. Visakhabhati also made up his mind to follow Visvanandi, placed Visakhanandi on the throne, went to the forest and practised penance. After his death he was born in the Mahāśukra heaven. Now Visakhanandi was overcome by a powerful enemy, and ran away from his capital. He went to Mathura and became the minister of the king. Once his cousin, the monk Visvanandi, was going along the road on his begging tour when he was hit by a young cow that had recently delivered a calf, and Viśvanandi fell on the ground. Visakhanandi saw this from the terrace of the house of his courtezan, and insulted him. Unable to bear the insult Visvanandi formed a hankering that he should in his next life have a revenge on Visakhanandi. After his death Visvanandi was born in the Mahabukra heaven where his uncle Visakhabhati was born. Visakhanandi also was later overcome with disgust for his conduct, practised penance, and after death was born in the same heaven. Now there lived in Alaka a king named Mayūragrīva and queen Nilanjanaprabha. Visakhanandi in his next life became their son and was named Ašvagrīva, a Prati-Vasudeva. He defeated his enemies and became the lord of the three continents of the earth, i. e., an Ardha-cakravartin. Page #19 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 16 MAHĀPURĀŅA There lived in Podanapura a king named Prajapati. He had two queens, Jayavati and Mrgāvatt. Jayāvatr gave birth to a son called Vijaya, who was Visakhabhati in his previous birth. This Vijaya is the first Baladeva of the Jain Mythology and had a white complexion. Mrgāvatr gave birth to a son called Triprstha, who in his previous birth was Visvanandi. This Triprştha is the first Vasudeva and had a dark complexion. These two step-brothers were greatly attached to each other, LI. Once a report was brought to king Prajapati that a terrific lion had been working a havoc on the subjects. His subjects requested him to remove this scourge. Thereupon the king himself prepared to go to kill the lion when his son Vijaya requested his father to allow him to go on that mission. The king allowed Vijaya to go, his younger brother Triprstha followed him. Both of them approached the cave of the lion, which, on being roused by the din and cry of warriors, came out, and was about to attack Vijaya, when Triprstha with his arms caught both the claws of the lion and sruck it on the face. The lion fell dead. One day the door-keeper approached the king and told him that there was at the door a Vidyadhara who wanted to see him. He was admitted to the king's presence. The Vidyadhara told king Prajapati that he was Indra by name and had come there as a messenger of king Jvala najaţi. He came there to invite the king and his two sons to the region of the Vidyadharas in order that Triprstha should lift up the huge slab of stone known as the Koçišila, to kill Ašvagrīva and marry his daughter Svayamprabha, and thereafter to rule over the three continents of the earth and to make Jvalanajaji the lord of both the sides of the Vaitadhya mountain. King Prajapati accepted the invitation and went to the region of the Vidyadharas. King Jvalanajaţi received them well and introduced them to his son Arkakirti. In the course of their talk it was arranged that Triprstha should first lift up the Koțiśila which would convince them that he was capable of killing Aśvagrīva. Thereupon they all went to the forest where the Koțiśila stood and asked Triprstha to life it up. He did so with ease. Jvalanajați and others praised Triprştha for his great strength. Thereafter they all returned to Podanapura and celebrated the marriage of Triprstha with Svayamprabha. The news of this marriage reached the ears of Ašvagriva who resented the action of Jvalanajaci in marrying his daughter outside his clan, i. e., in giving her to Triprstha, a human being, in stead of to Ašvagrīva, a Vidyadhara. Ašvagrīva thereupon marched against Jvalanajati and king Prajapati even against the advice of his ministers. LII. Spies brought the news of the arrival of the army Aśvagrīva to the gates of Podanapura. Thereupon king Prajapati consulted with Jvalanajaţi as to how they should meet the situation when Vijaya told them that he was sure in his mind that Triprstha would kill Aśvagriva. King Jvalanajaţt then taught Triprstha several magic lores, after which order was given to the army to march against Ašvagriva. Before however the fight began Ašvagrīva sent a messenger to Triprstha to see if Triprstha was prepared to make peace with Ašvagriva by handing over Svayamprabha. Triprstha rejected the proposal. The fight began. The goddesses gave to Triprstha a bow called Sarnga, a conch called pāñcajnya, Kaustubha gem, a gada called kaumudi, and to Vijaya a plough, a pestle and a gada. The armies met and Page #20 -------------------------------------------------------------------------- ________________ INTRODUCTION there was a terrible fight between them. In the course of the fight, Aśvagrīva threw his discus at Triprstha, but instead of doing any harm to him, it remained on his arm. He then used this very discus against Aśvagrīva who was killed. Immediately on his death Triprstha became the Ardha-cakravartin. Jvalanajati thereafter returned to his capital Rathanapura, and enjoying the sovereignty of both the sides of the Vaitadhya mo intain for a considerable time, became a monk. King Prajapati also did the same. Now Triprstha remained ever unsatiated with pleasures, died and went to the seventh hell. After his death Vijaya handed over his kingdom to Srivijaya, practised penance and attained emancipation. Svayamprabha also did the same. LIII. For the life of Vasupujya see the Tables. LIV. This samdhi gives the narrative of the second set of Baladevas and Vasudevas. There lived in Vindhyapura a king named Vindhyafakti. King Susepa of Kanakapura was his contemporary. Both of them were great friends. Now king Susepa had at his court a beautiful courtezan named Gupamañjart. King VindhyaSakti hearing about the beauty of Gunamañjarī sent a messenger to Susepa and asked him to send the courtezan to him. This request was, of course, rejected and the two friends met in a battle in which Susena was defeated. On hearing the defeat of Susena, his friend, king Vayuratha of Mahapura, got disgusted with the worldly. life and became a monk. King Susena also became a monk, but formed a hankering to avenge his defeat in one of his next births. Both Vayuratha and Susena were born in the Prapata heaven. King Vindhyaśakti also was born in one of the heavens. In the next birth Vindhyasakti was born as son to king Śrīdhara and queen Srimath of Bhogavardhana, and was named Taraka, who, in course of time became. an Ardha-cakravartin. Vayuratha and Susena were born sons to king Brahms and queens Subhadra and Uvavädevi or Uşădevī and were named Acala and Dvipṛṣṭha who were the Baladeva and Vasudeva. They had an excellent elephant. Now laraka had a desire to have that elephant and sent a messenger to Acala to hand it over. As Acala refused to do so, there was a fight between Taraka and Dvipṛṣṭha in which Taraka was killed. Dvipṛṣṭha then became the Ardha-cakravartin. After death both Taraka and Dviprstha went to hell, and Acala, seeing the death of his brother, became a monk and secured emancipation from samsara. 17 LV. For the life of Vimala the thirteenth Tirthamkara see the Tables. LVI. There was a king called Nandimitra in Śrīpura in the western Videha. One day he reflected on the impermanence of the world, renounced the pleasures, became a monk, and after death was born in the Anuttaravimana heaven. There lived in Śravasti a king named Suketu. There lived in the same town another king named Bali. They once indulged in the play of dice in which Suketu lost everything. Out of disgust he became a monk, but while practising penance he formed a hankering that he should take revenge on Bali in the next birth. Suketu, after death, was born in the Lantava heaven. Bali also was born as a god in heaven. In their subsequent births Bali was born as a son of king Samarakesarī and queen Sundari of Ratnapura, and was called Madhu. He was a Prati-Vasudeva and [3] Page #21 -------------------------------------------------------------------------- ________________ MAHAPURANA an Ardha-cakravartin. Nandimitra and Suketu were born as sons to king Rudra of Dvaravati by his wives Subhadra and Pṛthivi, and were named Dharma (Baladeva) and Svayambha (Vasudeva). One day Svayambha, while seated on the terrace of his palace, saw an army encamped outside the city and asked his minister whose army it was. His minister told him that a feudatory named Safisomya sent his tribute to king Madhu and that it consisted of elephants, horses etc., which was being taken. to him. Svayambha would not allow that, defeated Sasisomya and carried off the tribute. The news reached the ears of Madhu who thereupon marched against Svayambha. In the fight that followed Svayambha killed Madhu, and became an Ardha cakravartin. After enjoying the kingdom Svayambhu died and went to hell. Dharma became a monk and attained emancipation. 18 LVII. This samdhi narrates an episode of Samjayanta, Meru and Mandara, out of which the two latter were the Ganadharas of Vimala, the thirteenth Tirthamkara. There are two more persons connected with the story, viz., Śrībhuti the minister and Bhadramitra the merchant. Of these the name of Śrībhuti is confounded with Satyaghosa. The poet describes the seven previous of the first three and only a few of the last two. A glance at the lists given in Notes on this Samdhi will facilitate the understanding of the reader. In the city of Vitaloka there lived a king named Vaijayanta. His queen was called Sarvaśrī. She gave birth to two sons, Samjayanta and Jayanta, One day on hearing the discourse of a Jain monk they all renounced the world. In course of time Vaijayanta secured emancipation. Gods arrived on this occasion to show their reverence to Vaijayanta. Among them was the lord of snakes who was very beautiful. Jayanta formed a hankering to have a beautiful body like that of the lord of snakes in the next birth. He was then born in the nether world as lord of snakes. One day, when Samjayanta was practising the pratimas, a Vidyadhara, Vidyuddanstra by name, saw him, picked him up and threw him into the waters of the confluence of five rivers, and told the people that the monk was a demon. The people thereupon beat him, but the monk remained undisturbed, and bearing the hardships, died and attained emancipation. On the occasion of his nirvana gods arrived including Jayanta who was then the lord of snakes. Finding the plight of his brother Samjayanta, the lord of snakes began to attack people. They however said that they beat the monk on the report of Vidyuddanstra. The lord of snakes then caught Vidyuddanṣtra, and while the former was about to throw the latter into the sea, god Adityaprabha intervened and narrated the story of the former lives of them all. There was a king named Simhasena in the city of Simhapura. His queen was named Ramadatts. He had two ministers, Śrtbhati and Satyaghosa. There was a merchant named Bhadramitra, the son of Sudatta and Sumitra of Padmaṣandapura. Now this Bhadramitra, while wandering, obtained precious gems in Ratnadvipa, which, during his halt at Simhapura, he deposited with Satyaghosa (There is later a confusion between Śrībhūti and Satyaghosa). After some time Bhadramitra asked for the return of his gems, but Satyaghosa denied all knowledge of gems even though Page #22 -------------------------------------------------------------------------- ________________ INTRODUCTION he was questioned by the king. Bhadramitra then went mad and ascending a tree in the neighbourhood of the king's palace, used to decry the minister. Queen Ramadatta got angry with the minister, but arranged to play a trick on him. She arranged a game of dice with Satyaghosa, in which he lost his signet ring and the sacred thread. to the queen, who then sent the ring to the treasurer of the minister through her maid, and obtained from him the gems of Bhadramitra. In order to ascertain that Bhadramitra has told the truth, the king got a few gems of his mixed with those of Bhadramitra, to whom they were shown. Bhadramitra picked only his gems saying that others were not his. The king was then pleased with him, punished the minister, treating him as a thief would be treated. The minister bore ill-will towards the king for this. In his next birth he became an agandhana snake, stood at the treasury of the king and bit him. 19 In his next birth Bhadramitra became the son of Ramadatta, and was named Simhacandra. He had a younger brother called Parpacandra. It is in this strain that the previous of all the three persons mentioned at the beginning of the samdhi are narrated. LVIII. For the life of Ananta the fourteenth Tirthamkara, see Tables. During his regime were born the fourth set of Baladeva, Vasudeva, and Prati-Vasudeva. Their names were Suprabha, Purusottama and Madhusudana. There was a king named Mahabala in Nandapura. He became a monk and after death was born in Sahasrara heaven. There lived at this time at Podanapura a king named Vasusena. His queen Nanda was very beautiful. Once his friend Capdaśasana came to stay with him, saw Nanda, fell in love with her, and asked Vasusena to give her to him. He refused to do so, but Canḍaśāsana carried her by force. Vasusena thereafter became a monk, and after death was born in the same heaven where Mahabala was born. Canḍaśāsana in his next birth became the son of king Vilasa and queen Gunavati of Varanasi. Mahabala and Vasuṣena became sons of king Somaprabha by his queens Jayavati and Sita, and were named Suprabha and Purusottama. Madhusudana made a demand of tribute from them, and as they refused to pay it, there was a fight between Madusüdana and Purusottama in which Madhusudana was killed. After him Purusottama became the Ardha-cakravartin. LIX. For the life of Dharma the fifteenth Tirthamkara see Tables. During his regime there appeared the fifth set of Baladeva and Vasudeva, There was a king called Naravrsabha in the city of Vitaloka. He practised penance and was born in the Sahasrara heaven. At this time there was at Rajagṛha a king named Sumitra. He was defeated in battle by Rajasimha. Sumitra thereupon practised penance, formed a hankering to defeat Rajasimha in the next birth, and after death was born in the Mahendra heaven. Now Rajasimha in his next birth became king Madhukrīda of Hastinapura. King Naravrsabha and king Sumitra were born as sons to king Simhasena and queens Vijaya and Ambika, were called Sudarsana and Purusasimha and were the fifth of the Baladevas and Vasudevas. Page #23 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 20 MAHĀPURANA King Madhukrida sent his messengers to Sudarśana and demanded tribute from him which he refused. They fought. Purusasimha killed Madhukrida and became an Ardha-cakravartin. In the same regime there lived a king named Sumitra at Saketa. He had a queen called Bhadra. She gave birth to a son, Maghavan by name, who, having conquered the six continents of the earth, became the third sovereign of the Jain Mythology. After having enjoyed the kingdom for a long time, he renounced the world and attained emancipation. After some time in the same regime there came the fourth cakravartin, Sanatkumāra by name. He was the son of king Anantavirya and queen Mahadevī of Vinītapura. He was said to be extremely beautiful. Two gods sent by Indra came to see his beauty and said to the king that his beauty would have been everlasting if there had been no oldage and death. On hearing the mention of oldage and death Sanatkumāra renounced the world and attained emancipation. LX. A Brahmin named Amoghajihva once predicted that within a week lightning would fall on the head of king Srivijaya, the son of Triprstha Vasudeva, and that he would receive a shower of gems on his head. When the Brahmin was asked how he could predict such a thing, he said he studied the science under a famous teacher. One day, when he asked his wife for his meals, she served him only cowries in a plate, as, owing to extreme poverty, she had nothing else in her house. His wife then rebuked him that he did not work and earn money. Just at this time a spark of fire fell on his plate and his wife disbursed a pot of water over his head. It is from this incident that he predicted the fall of lightning on the head of king Srivijaya and a shower of gems over his head. The ministers thereupon advised the king to abdicate the throne for a wbile in order to escape the calamity and to place some one on throne for the time being. The samdhi then narrates the enmity and fight between Srivijaya and Amitatejas, a Vidyadhara. A monk intervenes, preaches them the doctrines of Jainism as a result of which they both become monks. LXI. In their next birth Srivijaya and Amitatejas were born in heaven as gods Manicula and Ravicala. In their next birth they were born as sons of Stimitasāgara of the city of Prabhāvati by his queens Vasundhara and Anumati, and were called Ananta vīrya and Aparăjita. They had two beautiful dancing girls in their court which were demanded by a Vidyadhara king named Damitāri. LX-LXIII. These four samdhis narrate the life of Santi together with his previous births as also of Cakrāyudha, as detailed in LXIII. 11 and explained in the Notes. LXIV. For the life of Kunthu see the Tables. LXV. For the life of Ara see the Tables. During the regime of Ara, there appeared the eighth cakravartin, Subhauma# * The story of Jamadagni, Paraśurāma and Subhauma here is a mixture of two stories on the side of the Hindu mythology, viz , the story of the carrying away of Vasiştha's cow, Nandini, by Gadhi, and of Kártavirya Sahasrarjuna and Paraśurāma. Page #24 -------------------------------------------------------------------------- ________________ INTRODUCTION 21 by name. There was a king named Sahasrabahu. His queen Vicitramati gave birth to a son, Kệtavīra by name. Vicitramati's sister Srimati was married to king Satabindu. A son was born to them and was named Jamadagni. Owing to the death of his mother in early childhood, Jamadagni became a tāpasa ascetic. Satabindu and his minister Harišarman also became ascetics under Jainism and Hinduism respectively. After death Śatabindu was born in the Saudharma heaven and Harišarman was born in the Jyotiska heaven. They both wanted to test the piety of Jamadagni, assumed the form of a couple of sparrows, built their nest in the beard of Jamadagni, and talked something insulting to him. He then got angry with the birds and threatened to kill them. One of the birds thereupon said to the sage that he did not know that he could not obtain heaven as he did not beget a son. Jamadagni was then set to thinking, went to his maternal uncle, and sought a girl for marriage. Owing to his oldage however, no girl was prepared to marry him. He thereupon cursed all the girls of the town to be dwarfish or hump-backed, which town thereafter became known as Kanyakubja ( Modern Kanauj ). He however found his uncle's daughter, all dusty, called her Reņuká (Dusty), attracted her by showing her a plantain, made her sit on his lap, and married her, as, he said, she liked him. In course of time she gave birth to two sons, Indrarāma and “vetarāma. Her brother gave to her a gift of a cow that would yield everything desired, as also a charm (mantra ) of axe (Parašu). Renuka and her husband Jamadagni thereafter lived happily. One day king Sahasrabahu with his son Kệtavira came to her hermitage. They were both treated to a royal feast by Renukā. The king and his son were struck with the excellence of the food and asked Repuka how she, the wife of an ascetic, could treat them so sumptuously. She said that her borther had given her a cow that yielded desired things. Kộtavira wanted that cow, and, inspite of Renuka's protests, carried her off. In the fight that ensued between Kệtavīra and Jamadagni, Sahasrabāhu killed Jamadagni. His sons Indraráma and Svetaráma were away, but when they returned and learnt from their mother that their father was killed by Sahasrabahu and his son Kftavira, and that their cow was carried off by them, they got angry. Renukā taught them the Parasumantra. They then went to Saketa, killed Sahasrabahu and Kștavīra, and all other members of the Ksatriya race twentyone times. After the extermination of all living Ksatriyas they gave the earth to Brahmins who thereafter ruled over it. Vicitramati, the queen of Sahasrabahu, was pregnant at this time, and bore in her womb the soul of a former king Bhûpala by name, who was destined to be a cakravartin. She ran for life into the forest, and was offered shelter by a sage named Săpdilya. There in his hermitage she gave birth to a son who was named Subhauma. LXVI. Subhauma passed his childhood in the hermitage of the sage Sandilya in the forest, and grew to be a strong and powerful youth. One day he asked his mother how it was that he did not see his father and pressed her to tell him his whereabouts. Thereupon Vicitramati narrated to him how his father Sahasrabahu was killed by Paraśurāma. Page #25 -------------------------------------------------------------------------- ________________ MAHAPURANA In the meanwhile an astrologer came to the house of Parasurama who asked the astrologer how he would meet his death. The astrologer told him that he at whose glance the plate filled with the teeth of his enemies (Sahasrabahu and Kṛtavira) would turn into a plate of rice, would be his killer. Thereupon Parasurama established a danasala in the city where Brahmins were served meals free and were shown the plate of teeth. Subhauma was asked to visit the danasala to see if he was the person at whose hands Parasurama was to meet his death. Subhauma thereupon went to the danasala, saw the plate when it turned into a plate of cooked rice. Immediately. the keepers attacked young Subhauma who was unarmed. But the plate itself turned. into a discus with which he killed them and also Parasurama. He thereafter became a cakravartin. 22 King Subhauma was once served a cinca fruit by his cook. He got angry with the cook and killed him for this offence. The cook was born as a Jyotiska god and assuming the form of a merchant offered the king some nice fruits. The king liked them very much and pressed the merchant to have more of them. The merchant said that gods gave him the fruits which were exhausted. As the king persisted in his demand, the merchant told him that the king would obtain them if he would accompany him to an island. The king agreed, went with merchant who placed him on a rock and killed him. Subhauma after death went to hell. In the regime of Ara, there appeared the sixth set of Baladeva etc., whose names were Nandişena. Pundarika and Niśumbha. For details see Tables. LXVII. For the life of Malli, see Tables. During his regime there appeared the ninth cakravartin, Padma by name. For details of his life see Tables. It is in the regime of Malli that there appeared the seventh set of Baladeva etc., whose names were Nandimitra, Datta and Bali. For details see Tables. THE APPENDICES The monotony with which the traditional details of the lives of Sixty-three Great Men of Jain Mythology are given and a hint by Vimalasuri in his Paumacariya quoted on page xi above suggested to me the idea of tabulating the information under suitable heads. I have therefore appended to this Volume Five Tables. Appendix I gives the iconographical information about the images of the Tirthamkaras according to the school of the Digambaras. I have taken this. Appendix from Mr. G. H. Khare's Martivijääna, a very valuable book in Marathi on Iconography. I have made slight modifications in Mr. Khare's Table so that the information in my Table should agree with the same as supplied in the works of Puspadanta and Gapibhadra. Appendix It gives details about the Tirthankaras II such as their previous lives, place of birth, parents etc. Appendix III supplies the number of Gapadharas of different Tirthamkaras. Appendix IV supplies some information about the Twelve Cakravartins or sovereign rulers of the Jain Mythology. Appendix V gives information about the eight out of nine sets of Baladevas, Page #26 -------------------------------------------------------------------------- ________________ INTRODUCTION Vasudevas and Prati-Vasudevas. The sources of my information are of course the Adipurapa of Jinasena, the Uttarapurana Gupabhadra and the Mahapurana of Puspadanta, which works, I hope, represent one of the best, if not the best, of the Digambara tradition. At one or two places I used Śvetambara sources as my texts failed to give, or I failed to trace therein the material. I shall be greatly obliged to scholars if they bring to my notice inaccuracies or deficiencies in them which I shall most thankfully consider. Nowrosjee Wadia College, Poona August 1940 23 P. L. Vaidya Page #27 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Page #28 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भूमिका पुष्पदन्तके महापुराणकी पहली जिल्दमें, कुल एक सौ दो सन्धियोंमें-से सैंतीस सन्धियां हैं, जो १९३७ में, ग्रन्थमालाके न्यासधारियोंके सदय संरक्षणमें, माणिकचन्द ग्रन्थमाला बम्बईके ३७वें क्रमांकके रूप में प्रकाशित हुई थीं। अब मैं दूसरी जिल्द, जिसमें अगली तैतालीस सन्धियां हैं उसी ग्रन्थमालाके ग्रन्थ क्रमांक इकतालीसवेंके रूपमें प्रकाशित कर रहा है, वह भी, उक्त न्यासधारियों और बम्बई विश्वविद्यालयके संरक्षणमें । मैं सोचता हूँ कि अबसे एक साल के भीतर महापुराणको तीसरी और अन्तिम जिल्द प्रकाशित कर दी जाये। यह मेरा सुखद कर्तव्य है कि मैं उन सबके बारे में सोचें कि जिन्होंने इस दूसरी जिल्दके प्रकाशनमें मेरी सहायता की। सबसे पहले मैं माणिकचन्द दिगम्बर ग्रन्थमालाके कार्यकारी न्यासधारी श्री ठाकुरदास भगवानदास जबेरीको धन्यवाद देना चाहँगा कि जिन्होंने ग्रन्थमालाकी धनराशि कम होते हए भी, इसके प्रकाशनमें आर्थिक सहायता दी। ग्रन्थमालाके मन्त्री, पण्डित नाथूराम प्रेमी और हीरालाल जैन, प्रोफेसर किंग एडवर्ड कॉलेज अमरावतीके प्रति मैं अपनी विशेष हार्दिक कृतज्ञता प्रकट करता है, पहली जिल्दके प्रकाशनके समय 'माला'की धनराशि लगभग समाप्त हो चुकी थी, और डर था कि शायद मुझे तीसरी जिल्दका, जो अधूरी है, काम छोड़ना पड़ेगा, परन्तु इन विद्वानोंने धन प्राप्त करने के लिए आकाश-पाताल एक कर दिया, कि जो इसके प्रकाशनमें लगता। विशेषरूपसे मैं प्रोफेसर हीरालाल जैनको धन्यवाद देता है कि जिन्होंने मेरे उपयोगके लिए उत्तरपुराणकी पाण्डुलिपि (जिसे आलोचनात्मक सामग्रीमें 'ए' प्रति कहा गया है । ) और मास्टर मोतीलाल संघवी जैनके सन्मति पुस्तकालयसे, प्रभाचन्द्र के टिप्पण उपलब्ध कराये, उन्होंने कृपाकर तबतकके लिए मेरे अधिकारमें उसे दे दिया कि जबतक मैं मिलानके लिए उनका उपयोग करना चाहूँ। मैं मास्टर मोतीलालको धन्यवाद देता है उनकी इस उदारताके लिए। श्री आर. जी. मराठे, एम. ए. ने जो मेरे भूतपूर्व शिष्य और इस समय विलिंगडन कॉलेज सांगलीमें अर्द्धमागधीके प्रोफेसर हैं, इस जिल्दके मिलानकार्यमें मेरी मदद की। उन्होंने जो सहायता की, उसके लिए वे धन्यवादके पात्र हैं। न्यू भारत प्रिंटिंग प्रेस बम्बईके श्री देसाई और उनके प्रफरीडरोंके, इच्छासे काम करनेवाले स्टाफको मैं नहीं भूल सकता, कि जो इसकी शानदार साज-सज्जा और इसके निर्दोष प्रकाशनके लिए उत्तरदायो हैं । मुझे इस बातका उल्लेख विशेष रूपसे करना है कि इस जिल्दके अन्तमें जो ग़लतियोंकी सूची है वह उनकी उपेक्षाका परिणाम नहीं है, बल्कि वह उनका मेरी दृष्टिसे ओझल हो जानेका परिणाम है। अन्तमें सम्पादक और प्रकाशक, विश्वविद्यालय बम्बईके प्रति अपनी कृतज्ञता ज्ञापित करते हैं, जिसने प्रतीक रूपमें ६५७) रु. मूलभूत सहायता की। नार्वस वाडिय कॉलेज अगस्त: १६४० -पी. एल. वैद्य Page #29 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Page #30 -------------------------------------------------------------------------- ________________ परिचयात्मिका भूमिका आलोचनात्मक सामग्री पुष्पदन्तका 'महापुराण' अथवा त्रिषष्टिपुरुषगुणालंकार, जो इस जिल्दमें है, के., ए. और पी. पाण्डुलिपियों पर आधारित है । इनका पूर्णरूपसे मिलान किया गया है । कभी-कभी पाठको निश्चित करनेके लिए, प्रभाचन्द्रके टिप्पणसे सहायता ली गयी है, मैं नीचे इस सामग्रीका सम्पूर्ण विवरण दे रहा हूँ | १. ‘के' इस पाण्डुलिपिका मेरी पहली जिल्दके ७-८ पृष्ठोंपर पूरा विवरण है । उत्तरपुराणका हिस्सा पत्र क्रमांक २८९ से प्रारम्भ होता है, चूंकि आदिपुराणके दो पाठों की तुलनामें यह पाण्डुलिपि निश्चित रूपसे पुरानी है, अत: इस जिल्दके पाठोंकी रचनायें मैं इसपर 'निर्भर' रहा हूँ । यह खेदकी बात है कि आदिपुराणकी 'जी' पाण्डुलिपिसे मिलती-जुलती पाण्डुलिपि इस जिल्दके लिए प्राप्त नहीं की जा सकी । मैं यहाँ यह कह सकता हूँ कि उत्तरपुराणकी जो पाण्डुलिपियाँ मुझे ज्ञात हैं, बहुत थोड़ी हैं, आदिपुराणकी पाण्डुलिपियों की तुलनामें । २. 'ए' यह पाण्डुलिपि मुझे प्रोफेसर हीरालाल जैन, किंग एडवर्ड कॉलेज अमरावतीने, मास्टर मोतीलाल संघवी जैन सन्मति पुस्तकालय जयपुरसे उपलब्ध करायी । इसमें ४२३ पन्ने हैं, जो १३ इंच लम्बे और ५ इंच चौड़े हैं । प्रत्येक पृष्ठपर ११ पंक्तियां और प्रत्येक पंक्ति में लगभग ३६ अक्षर हैं । इस पाण्डुलिपिमें अपने मूलरूपमें वही पाठ हैं, जो 'पी' में हैं, परन्तु फिर भी किसी दूसरी पाण्डुलिपिके आधारपर पाठों में सुधार किया गया है, परन्तु वह मुझे उपलब्ध नहीं, इसका परिणाम यह हैं कि जो विभिन्न पाठ अंकित किये गये हैं वे संशोधित पाठोंके आधारपर हैं। आगे यह पाण्डुलिपि, (a) मूल पाण्डुलिपि के पन्नों बनी है कि जिसके कुछ पन्ने खो गये हैं, और (b ) कुछ उन पन्नोंसे बनी है, जो भिन्न-भिन्न हाथोंसे लिखित नये पन्नोंसे बनी है, जो खोये हुए पन्नोंके स्थानपर जोड़े गये हैं । मेरा यह अनुमान, ३८३-३८४ के पत्रांक के सन्दर्भसे समर्थित है जिसमें आधा पृष्ठ खाली है कि जिससे मैटर मूलभाग के अगले पृष्ठ ३८५ के अक्षरसे प्रारम्भ किया जा सके। इस प्रकार जोड़े गये पृष्ठों में प्रति पृष्ठपर नौ पंक्तियाँ हैं, प्रत्येक पंक्ति में लगभग ३८ अक्षर हैं । इस पाण्डुलिपिके पाठ, 'के और पी' प्रतियोंके पाठों से भिन्न हैं, यह इस तथ्यसे स्पष्ट है कि इममें ४६,४७,४८ ( पहली जिल्द की भूमिका पृ. २७ देखिए ) प्रशस्तिछेद हैं, जो उत्तरपुराणकी किसी भी पाण्डुलिपिसे नहीं मिलते। यह पाण्डुलिपि इस प्रकार प्रारम्भ होती है : ओं नमः वीतरागाय, बभहो बंभालयसामिहो; और अन्त इस प्रकार है : 'इय महापुराणे तिसट्ठिमहापुरुसगुणालंकारे महाकइपुष्फयंतविरइए महाभव्वभर हाणुमण्णिए, महाकव्वे दुउत्तरसयमो परिच्छेओ समत्तो । संधि १०२ । इति उत्तरपुराण समाप्ता । शुभमस्तु । कल्याणमस्तु । संवत् १६१५ वर्षे, माघादि ६ सुक्रवासरे उत्तरपुराणं समप्तं । बाईहठो पठनार्थं ज्ञानावरणी कम्म खयार्थं ग्रंथ संख्या ॥। १२००० | यद्यपि, यह अन्तिम पृष्ठ मूल पाण्डुलिपिका मूल पृष्ठ नहीं है, बल्कि नया लिखा गया है । इस पुष्पिका के अनुसार पाण्डुलिपिकी तिथि माघको छठ है, वि. संवत् १६१५ की, जो १५५८, ईसवीके लगभग है । पी दक्खन कालेज के संग्रहकी इस पाण्डुलिपिका क्रमांक ११०६-१८८४-८७ है, जो अब भाण्डारकर संस्थान पूनामें जमा है । इसमें ६८१ पन्ने हैं, जो ११ + ४३ इंच हैं, प्रत्येकमें आठ पंक्तियाँ Page #31 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २८ महापुराण और प्रत्येक पंक्तिमें ३३ अक्षर हैं । इसकी तिथि भाद्रपदकी पूर्णिमा है ( अगस्त-सितम्बर); वि. स. १६३०, ई. १५७३ के लगभग । इस पाण्डुलिपिका अन्तिम पृष्ठ क्षतिग्रस्त है और इसलिए फिरसे लिखा गया, आषाढ़ शुक्ल छठीको (जुलाई ) वि. सं. १९३४. ई. स. १८७७ के लगभग । इसमें पार्श्वभागमें संक्षिप्त टीका है। यह इस प्रकार प्रारम्भ होता है; ओं नमः वीतरागाय । बभहो । बंभालयसमियहो । मूल पृष्ठका अन्त इस प्रकार है इय महापुराणे-दुइत्तरसमो परिच्छेओ समत्तो। दूसरे रूपमें पाठ इस प्रकार है : संवत् १६३० वर्षे भाद्रपदमासे शुक्लपक्षे पूर्णिमातिथी, के (वि वासरे उत्त), रा भाद्रपदा नक्षत्रे, नेमिनाथ चैत्यालये, श्रीमूलसंघे-बलात्कार छे कुंदकुंदान्वये-स्थापन्न पृष्ठका अन्त इस प्रकार होता है। बलदेवदास टौंग्याका कारज, मीती अषाढ़ सुदी ६ समत १९३४ का सालम, श्री घीया मंडीका मंदिर पंचाइतो मंदरने छडायो ॥ छ । छ । छ । इन बलदेवदासके पास क्षतिग्रस्त पन्ना दो हिस्सों में था, जिसका पहला हिस्सा, अभी भी, मूल पाण्डुलिपिके साथ संस्थानमें सुरक्षित है; मूल पृष्ठपर १६३० अंकित है, और मूल पृष्ठपर पट्टावलीवाला हिस्सा, किसी दूसरे हाथसे लिखा हुआ प्रतीत होता है। उक्त तीन पाण्डुलिपियोंके सम्पूर्ण मिलानके अतिरिक्त प्रभाचन्द्रके टिप्पणका पूरा उपयोग किया गया है। इसकी पाण्डुलिपि, प्रोफेसर हीरालाल जैन ने, श्री मोतीलाल संघी जैन, जयपुरसे प्राप्त करायी। टिप्पणकी इस पाण्डुलिपिमें ५७ पृष्ठ हैं। जो लम्बाई-चौड़ाईमें १२४५ इंच हैं। प्रत्येक पृष्ठमें १३ पंक्तियां और प्रत्येक पंक्तिमें ३१ अक्षर हैं। यह प्रारम्भ होता है-ओं नमः सिद्धेभ्यः, बंभहो परमात्मनो । अन्त इस प्रकार होता है-श्रीविक्रमादित्य संवत्सरे वर्षाणामशोत्यधिक सहस्र, महापुराण-विषम-पद विवरणं सागरसेन सैद्धान्तान् परिज्ञाय, मूल टिप्पणकां चालोक्य कृतमिदं समुच्चयटिप्पणं । अज्ञपातभीतेन श्रीमद्वलात्कार गण श्रीसंघाचार्य सत्कवि शिष्येण श्रोचन्द्रमुनिना निजदोर्दण्डाभिभूतरिपुराज्यविजयिनः श्रीभोजदेवस्य ॥१०२॥ इति उत्तर पुराण टिप्पणकं प्रभाचन्द्राचार्यविरचितं समाप्तं छे ॥ अथ संवत्सरेऽस्मिन् श्रीनृपविक्रमादित्यगताब्दा संवत् १५७५ वर्षे भाद्रवा सुदि । बुद्धि दिने । कुरुजांगल देसे । सुलितान सिकन्दर पुत्रु सुलितानाब्राहीम सुरताज प्रवर्तमाने श्रीकाष्ठासंघे माथुरान्वये पुष्करगणे भट्टारक श्रीगुणभद्रसूरिदेवाः । तदाम्नाये जैसवाल्ल चौ. टोडरमल्लु । इदं उत्तर पुराण टीका लिखापितं । सुभं भवतु । मागल्यं ददाति, लेखकपाठकयोः। ओम् सिद्धोंको नमस्कार, ब्रह्म और परमात्माको नमस्कार । श्री विक्रम संवतके एक हजार अस्सी अधिक होने पर, महापुराणके विषम पदोंका विवरण, सागरसेन सैद्धान्तसे (?) को ज्ञातकर और मूलटिप्पणियाँ देखकर, यह समूचा टिप्पण किया गया। अज्ञपात भीत श्रीमत् बलात्कार गणके श्रीसंघाचार्य सत्कवि शिष्य चन्द्रमुनिने, अपने बाहदण्डसे अभिभूत शत्रुके राज्यको जीतनेवाले श्रीभोजदेवके । प्रभाचन्द्राचार्य द्वारा विरचित उत्तरपुराण टिप्पण समाप्त हुआ। अथ इस संवत्सर नृप विक्रमादित्य गत १५७५ वर्ष भादों सुदी, बुधवार । कुरुजांगल देशमें सुलतान सिकन्दरके पुत्र सुलतान इब्राहीमके द्वारा सुराज्य स्थापित होने पर, श्रीकाष्ठासंघ, माथुरान्वय, पुष्करगण । भट्टारक श्रीगुणभद्र सूरीदेव, उनके आम्नायमें जैसवाल .ची. टोडरमल । यह उत्तरपुराण टीका लिखवाई। शुभ हो। मांगल्य देता है-लेखक और पाठकको । __ इस पाण्डुलिपिकी पुष्पिका कुछ दिलचस्प समस्याएं खड़ी करती हैं ? जिनका मैंने प्रथम जिल्दके पृ. छह पर विस्तारसे विचार किया है। इसलिए यहां उनका फिरसे कथन और परीक्षण जरूरी नहीं है। मुझे यहाँ केवल यह कहना जरूरी है कि मैंने 'टी' का पूरा उपयोग किया है, और के. और र पर अंकित टीकाओंका भी, पाद-टिप्पणियोंकी रचनामें । उत्तर पुराणकी एक और पाण्डुलिपि मुझे ज्ञात है। यह कारंजा ( बरार ) के बलात्कार गण जैन मन्दिर में सुरक्षित है। सी. पी. एण्ड बरारके संस्कृत-प्राकृत कैटलागमें इसका क्रमांक ७०२९ है। यह क्रमांक Page #32 -------------------------------------------------------------------------- ________________ परिचयात्मिका भूमिका २९ स्व. रायबहादुर हीरालालने दिया है। इस पाण्डुलिपिकी तिथि, संवत् १६०६, मार्गशीर्ष कृष्णपक्ष अष्टमी, जो १५४९ ई. है। १९२७-१९२९ में मैंने व्यक्तिगत रूपसे कारंजा जाकर इस पाण्डुलिपिका परीक्षण किया है, और जाँचके तौर पर कुछ मिलान किया है। मुझे मन्दिरके न्यासधारियोंने यह वचन दिया था पाण्डुलिपि मुझे उधार दे दी जायेगी। लेकिन जब मुझे वास्तविक रूपसे इसकी जरूरत पड़ी, तो मैं न्यासधारियोंकी विचित्र मनोवृत्तिके कारण उसे प्राप्त नहीं कर सका। अपने जाँच मिलानसे, लगता है कि यह पाण्डुलिपि 'पी' पाण्डुलिपिके बहुत निकट है, जिसका कि इस संस्करणमें पूरा मिलान किया गया है। इस जिल्दमें, मैंने अपने मूल पाठकी रचना ऊपर लिखित सामग्रीके आधारपर की है। ऐसे करते हुए मैं 'के' में सुरक्षित पाठोंपर अधिकतर निर्भर रहा हूँ जो उत्तरपुराणकी तीनों पाण्डुलिपियोंमें सबसे पुरानी है। विषयसामग्रीकी संक्षेपिका २. महापुराणकी इस दूसरी जिल्दमें महापुराण महाकाव्यकी ३७ से ८०-कुल चवालीस सन्धियाँ हैं, और बीस तीर्थंकरोंकी जीवनियोंका वर्णन करती हैं। अजितनाथसे प्रारम्भ होकर नमिनाथ तक, जो २१वें तीर्थंकर है। नौमें-से आठ बलदेवों, वासुदेवों और प्रतिवासुदेवोंका वर्णन है । और बारह चक्रवतियोंमेंसे दस चक्रवर्तियोंका, सगरसे लेकर जयसेन तक। इन जीवनियोंके वर्णनमें कविने परम्परासे प्राप्त सूचनाओंसे काम लिया है, वह अधिकतर गुणभद्रके संस्कृत उत्तरपुराणसे प्रभावित है, ऐसा प्रतीत होता है कि इन महापुरुषोंको जीवनियोंका विस्तार, पुराने साधुओंने वर्गीकृत कर दिया था। परन्तु विषयवस्तुका उपयोग करते हुए व्यक्तिगत रूपसे कवि, विस्तृत वर्णनमें अपनी काव्य-प्रतिभाके उपयोगमें स्वतन्त्र थे। विमलसूरिने 'पउमचरिउ' में कहा है 'नामावलिय निबद्धं आयरियपरम्परागयं सव्वं । वोच्छामि पउमचरियं अहाणुपुन्वि समासेण ॥ ऐसा लगता है कि यद्यपि, जैनोंके दोनों सम्प्रदायोंमें जानकारी अधिकतर वर्गीकृत और तालिकाबद्ध रूपमें परम्परासे प्राप्त है, और विषयवस्तुमें काफी समानता है। मैंने स्वयं कूछ तालिकाएँ बनायी है और उन्हें इस जिल्दके परिशिष्टमें दिया गया है। अब मैं सन्धियोंका संक्षेप देना शुरू करता हूँ कि जहाँ सन्धियोंका संक्षेप तालिकाके रूपमें देना सम्भव नहीं है। XXXVIII-कवि प्रारम्भमें पांच परमेष्ठियोंकी वन्दना करता है और दूसरे तीर्थकर, अजितनाथ की जीवनीका वर्णन करते हए, पाठकोंको काव्यरचना जारी रखनेका पहले, वह कहता है कि कुछ कारणोंस उसका मन उदास था और इसलिए उसने कुछ समयके लिए क रचना बन्द कर दी थी। एक दिन विद्याकी देवी सरस्वती उसके सामने स्वप्नमें प्रकट हुई और बोलीं, 'तुम महत्को नमस्कार करो। कवि जाग पड़ा पर उसे कोई भी दिखाई नहीं दिया। संकटके इस क्षणमें आश्रयदाता भरत उसके घर आया और बोला कि क्या मैंने उसके प्रति कोई अपराध किया है कि जिसके कारण वह काव्यरचना जारी नहीं रख सका । भरतने उसे स्मरण दिलाया कि जीवन क्षणभंगुर है, और उसे अपनी काव्यप्रतिभाका पूरा-पूरा उपयोग करना चाहिए। तब कवि ने आश्रयदाता भरतसे कहा कि मैं अपने मनमें दुःखी हूँ, क्योंकि यह दुनिया दुष्टोंसे भरी है। और इसलिए काव्यरचना जारी रखनेकी रुचि उसमें नहीं है। लेकिन अब वह उसकी प्रार्थनापर फिर काव्यरचना शुरू करेगा क्योंकि वह उसे इनकार नहीं कर सकता। कवि काव्यरचना प्रारम्भ करता है और अजितके जीवनका वर्णन करता है, विस्तारके लिए देखिए टिप्पण और तालिका । परिशिष्ट I, II, III में देखिए ! Page #33 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३० महापुराण xxxIX-पृथ्वीपुरमें राजा जयसेन था, पूर्व विदेहमें वत्सावती उसकी राजधानी थी। उसके रतिसेन और धृतिसेन-दो सुन्दर पुत्र थे। रतिसेन जल्दी मर गया। उसके पिता बहुत दुःखी हुए। वह सांसारिक जीवनसे विरक्त हो गये। पुत्रको राज्य देकर, मन्त्री महारुतके साथ मुनि बन गये । जयसेन और महारुत दोनोंने तपस्या की। मृत्युके बाद वे स्वर्गमें महाबल और मणिकेतु नामक देव हुए। इन दो देवोंने आपसमें यह प्रतिज्ञा की कि जो पहले धरतीपर उत्पन्न होगा, उसे दूसरा उच्चधर्मकी शिक्षा देगा। इनमें से महाबल पहले धरतीपर सगर नामका राजा हुआ साकेतमें। और समयके दौरान चक्रवर्ती राजा बन गया। एक बार चतुर्मुख मुनिको केवलज्ञान प्राप्त हुआ, उस अवसर पर देव वहाँ आये। सगर भी वहां मुनिके प्रति अपनी श्रद्धा समपित करनेके लिए गया। मणिकेतुने राजा सगरको देखा। उस देव महाबलको दिया गया अपना वचन याद आया। इसपर मणिकेतुने सगरको संसारको क्षणभंगुरता बतानेका प्रयास किया परन्तु उसने उसकी बातपर ध्यान नहीं दिया। मणिकेतु एक बार, सगरके प्रासादपर उसे समझाने आया, परन्तु इस बार भी वह असफल रहा। ठीक इसी समय, सगरके साठ हजार पुत्र, अपने पिताके पास आये, और उनसे कुछ काम बतानेके लिए कहा-क्योंकि वे आलस्यमें रहनेसे थक चुके हैं। सगरने पहले तो यह कहा कि ऐसा कोई काम करने के लिए नहीं है। क्योंकि चक्र ने प्रत्येक चीज उनके लिये उपलब्ध कर दी है। लेकिन तब भी पुत्रोंने आग्रह किया-तो सगरने उनसे मन्दराचल जाने और प्रथम चक्रवर्ती भरत द्वारा निर्मित चौबीस तीथंकरोंके मन्दिरोंकी सुरक्षाका प्रबन्ध करनेके लिए कहा । तब सगरके साठ हजार पुत्र अपने लक्ष्यपर गये। उन्होंने बहुत बड़ी खाई खोदी मन्दराचलके चारों ओर, और उसे गंगाके पानीसे भर दिया, जो नागलोकमें पहुँच गया । इस अवसरपर मणिकेतुने नई शैलीसे सगरको समझानेकी बात सोची। वह बहुत बड़ा नाग बन गया। उसने सगरके हजारों पुत्रोंको क्रुद्ध दृष्टिसे देखा, और उन्हें भस्मीभूत कर दिया; केवल भीम और भगीरथ जीवित बच सके । सगरको विनाशकी सूचना दी गयो, ब्राह्मणने उसे संसारकी क्षणभंगुरताके बारेमें बताया। सगरने भगीरथको गद्दी दी, और वह अपने पुत्र भीमके साथ मुनि हो गया। यह देखकर मणिकेतु बहुत प्रसन्न हुआ और उसने सगरको बताया कि किस प्रकार उसने विद्याके बलसे उसके पुत्रोंको मृत कर दिया था, तब सब पुत्र जीवित कर दिये गये परन्तु उन्होंने भी अपने पिताका अनुगमन किया-और मुनि बन गये । काफी समय बीतनेपर भगीरथ भी मुनि बन गया, और मुक्त हुआ। XL, XLI, XLII, XLIII, और XLIV-सम्भव, अभिनन्दन, सुमति, पद्मप्रभ और सुपार्श्वको जीवनियोंके लिये, तालिका देखिए। XLV-यह सन्धि, आठवें तीर्थकर चन्द्रप्रभके पूर्वभवोंका वर्णन करती है। अपने इन पूर्वभवोंमें चन्द्रप्रभुकी आत्मा, पश्चिमी विदेहके सुगन्धदेशमें श्रीषेणराजा और रानी श्रीकान्ताके दम्पतिका पुत्र हुई। पवित्र जीवन बिताते हुए, वह अगले जन्ममें श्रीधरदेव, फिर अजितसेन नामसे, अलकादेशको अयोध्यानगरीमें राजा अजितंजय और रानी अजितसेना दम्पति की सन्तान (पुत्र) हुई। यह अजितसेन चक्रवर्ती बना। उसका जीवन पवित्र था। अगले जन्ममें अच्युत स्वर्गमें अहमेन्द्र हुई । अगले जन्ममें वह पद्मनाभ, यह पद्मप्रभके रूपमें उत्पन्न हुई, कनकप्रभ और कनकमालाके पुत्रके रूपमें, मंगलावती क्षेत्रके वस्तुसंचय नगरमें । अगले जन्ममें उसका जन्म वैजयन्त स्वर्गमें अहमेन्द्रके रूपमें हुआ। XLVI-चन्द्रप्रभके जीवनके लिए तालिका देखिए । XLVII-सुविधि तीर्थकरके जीवन के लिए तालिका देखिए । XLVIII-दसवें तीर्थंकर शीतल, अपने पूर्व जोवन में, सुसोमाके राजा पृथ्वीपाल थे। उसकी पत्नीका नाम वसन्तलक्ष्मी था, जो यौवनको प्राथमिकतामें ही मर गयो। उसकी मृत्युसे प्रभावित हुए राजाने संन्यास ग्रहण कर लिया। अगले जन्ममें वह अरुण स्वर्गमें देव हुआ। अगले जन्ममें वह शीतलके नामसे राजा र गया उसको मृत्यु से प्रभावित हुए राजाने Page #34 -------------------------------------------------------------------------- ________________ परिचयात्मिका भूमिका ३१ दृढ़रथ और रानी सुनन्दाका पुत्र हुआ राजभद्र नगरमें। कमलमें मरे हए भौंरेको देखकर, उसके मनमें सांसारिक जीवनके प्रति घृणा हो गयी, उसने संन्यास ग्रहण कर लिया। तीर्थकरकी सामान्य जीवन प्रक्रियामें गुजरते हुए उन्होंने निर्वाण प्राप्त किया। उनके निर्वाणके बाद, उपदेश देने और आचरण करनेवालोंके अभावमें जैनधर्मको बुरे दिन देखने पड़े। इस अवसरपर भद्रिलपुण्णमें मेघरथ नामका राजा था। वह उपयुक्त आदमियों के लिए अपने धनका दान करना चाहता था, उसने मन्त्रियोंसे सलाह मांगी कि सबसे अच्छा दान क्या होगा । मन्त्रीने शास्त्रदानको दानका सर्वश्रेष्ठ रूप बताया। परन्तु राजाको यह सलाह पसन्द नहीं आयी। उसने मुण्डशालावन मन्त्रीसे पूछा, उसने राजासे कहा कि उसे ब्राह्मणोंको हाथी, गाय आदि दानमें देने चाहिए। राजाने सलाह मान ली जिसने केवल ब्राह्मणोंको सम्पन्न बनाया परन्तु उससे अच्छा नहीं हुआ। ___IL-श्रेयांसकी जीवनीके लिए तालिका देखिए । L, LI, LII-ये तीन सन्धियां प्रथम बलदेव, वासुदेव और प्रतिवासुदेवका वर्णन करती हैं। श्रेयांसके तीर्थकालमें राजगहमें राजा वसुभति और रानी जैनी थे। राजाका विशाखभूति नामका छोटा भाई था, उसकी पत्नीका नाम लक्ष्मणा था । जैनीने वसुनन्दी पुत्रको जन्म दिया और लक्ष्मणाने विशाखनन्दीको। एक दिन राजाने शरद्के बादल आकाशमें विलीन होते हुए देखे, इससे राजाको संसारसे विरक्ति हो गयी। अपने छोटे भाई विशाखभतिको राज्य देकर उसने दीक्षा ग्रहण कर ली। जब विशाखभति राजा हुआ, तो विश्वनन्दी युवराज बन गया। एक दिन वह अपने प्रमद-उद्यान नन्दनवनमें गया। वह वहाँ स्त्रियों के साथ आनन्द कर रहा था, विशाखनन्दीने उसे देख लिया। उसके मनमें उस उद्यानपर अधिकार करनेकी कल्पना आयी। वह अपने पिताके पास गया और उसने वह उद्यान उसे देने के लिए उनपर दबाव डाला। राजाने ऐसा करना स्वीकार कर लिया। उसने विश्वनन्दीको बुलाया और उससे राज्यका भार लेने के लिए कहा, उसने आगे बताया कि वह विद्रोह करने वाली जातियोंके दमनके लिए सीमान्त प्रदेशपर जाना चाहता है। विश्वनन्दीको यह विचार अच्छा नहीं लगा कि उसके चाचा लड़ने जायें, उसने उनसे कहा कि वह खुद इस कार्यके लिए जाना पसन्द करेगा। विशाखभूतिने विश्वनन्दीकी यह बात मान ली। विश्वनन्दी चला गया । विश्वनन्दीकी अनुपस्थितिमें विशाखभूतिने नन्दनवन अपने पुत्र विशाखनन्दीके लिए दे दिया। जब विश्वनन्दी लौटा तो उसने पाया कि उद्यान विशाखनन्दीके अधिकारमें है। विश्वनन्दी अपने चाचा और चचेरे भाईपर क्रुद्ध हो उठा । उसने भाई पर आक्रमण करना चाहा, परन्तु वह वृक्षपर चढ़ गया, विश्वनन्दीने उसे विशाखनन्दी सहित उखाड़ दिया। उसने दोनोंको नष्ट करना चाहा, परन्तु विशाखनन्दो पत्थरके खम्भेपर चढ़ गया, विश्वनन्दीने उसके टुकड़े-टुकड़े कर दिये। तब विशाखनन्दी अपना जीवन बचानेके लिए भागा । इस बीच विश्वनन्दीको तरस आया कि उसने अपने भाईपर आक्रमण किया, उसने जैनमुनि बननेका निश्चय कर लिया। विशाखभूतिने भी विश्वनन्दीका अनुकरण करनेका निश्चय कर लिया। विशाखनन्दीको गद्दीपर स्थापित कर दिया। वनमें जाकर उसने तप किया। मरने के बाद महाशुक्र स्वर्गमें उत्पन्न हुआ। अब विशाखनन्दी एक शक्तिशाली शत्रुसे पराजित होकर राजधानीसे भागकर मथुरा गया और वहाँके राजाका मन्त्री बन गया। एक दिन, मुनि विश्वनन्दी (चचेरे भाई ) चर्याके लिए सड़कपर जा रहे थे। हाल ही में व्यानेवाली जवान गायने उन्हें मार दिया जिससे वह गिर पड़े। महलकी छतसे विशाखनन्दीने यह देखा और उसने मुनिका अपमान किया। मुनि इसे सहन नहीं कर सके, उन्होंने संकल्प किया कि अगले जन्ममें मैं इस अपमानका बदला लूँगा। मरकर वह महाशुक्र स्वर्गमें देव हुए जहाँ उसके चाचा विशाखभूति थे। कुछ समय बाद विशाखनन्दी घृणासे अभिभूत हो उठा । उसने तप किया और वह भो महाशुक्र स्वर्गमें देव हुआ। अलका नगरीमें राजा मयूरग्रीव और उसकी पत्नी नीलांजनप्रभा रहती थी । अगले जन्ममें विशाखनन्दी उसका पुत्र हआ-अश्वग्रीवके नाम से । अपने दुश्मनों का सफाया कर, वह प्रतिवासुदेव तीन खण्ड धरतीका सम्राट Page #35 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३२ महापुराण अर्धचक्रवर्ती बन बैठा । पोदनपुरके राजाकी दो रानियां थीं-जयावती और मृगावती । जयावतीने जिस पुत्रको जन्म दिया, उसका नाम विजय था जो कि पूर्वजन्ममें विशाखभूति था। यह विजय, जैन पुराणविद्याके प्रथम बलदेव थे, उनका रंग गोरा था। मृगावतीने जिस बालकको जन्म दिया, उसका नाम त्रिपृष्ठ था जो कि अपने पूर्वजन्म में विशाखनन्दी था। यह पहले वासुदेव थे, और इनका वर्ण काला था। ये दोनों सौतेले भाई एक दूसरेके प्रति प्रगाढ़ प्रेम रखते थे। LI एक बार राजा प्रजापतिके पास यह समाचार आया कि एक भयंकर सिंह प्रजामें आतंक मचा रहा है। प्रजाने उससे इस अनर्थको हटानेकी प्रार्थना की। तत्पश्चात् राजा स्वयं जाकर सिंहको मारनेके लिए तैयार हो गया, जब कि विजयने उससे प्रार्थना की कि उसे इस कार्यके लिए जाने दिया जाये। पिताने उसे जानेकी अनुमति दे दी, उसका छोटा भाई भी उसके पीछे गया। दोनों सिंहकी गुफामें पहुँचे, योद्धाओंके शोरगुल और चिल्लाहटसे भड़ककर सिंह बाहर आया। वह विजयपर झपटनेवाला था कि त्रिपृष्ठने अपने दोनों बाहुओं में सिंहके पंजे पकड़ लिये और उसके मुंहपर आघात किया । सिंह मरकर गिर गया। एक दिन द्वारपाल पहँचा और राजासे निवेदन करने लगा-कि द्वारपर एक विद्याधर है जो आपसे मिलना चाहता है। उसे राजाके सम्मुख उपस्थित किया गया। विद्याधरने राजा प्रजापतिसे कहा कि उसका नाम इन्द्र है और वह राजा ज्वलनजटीका दूत बनकर आया है। वह राजा और विजय तथा त्रिपृष्ठको विद्याधर-क्षेत्रके लिए निमन्त्रित करने आया है ताकि त्रिपुष्ठ पत्थरकी शिला उठाये, जिसका नाम कोटिशिला है, तथा अश्वग्रीव को मारे और उसकी कन्या स्वयंप्रभासे शादी करे, वह तीनखण्ड धरतीका राजा बने और राजा ज्वलनजटीको विजया पर्वतकी दोनों श्रेणियोंका राजा बनाये। प्रजापतिने निमन्त्रण स्वीकार कर लिया। वह विद्याधर क्षेत्रमें गया। ज्वलन जटीने उनका अच्छी तरह स्वागत किया। उससे अपने पुत्र अर्ककोतिसे परिचय कराया। बातचीतके दौरान यह तय किया गया कि सबसे पहले त्रिपृष्ठ शिला उठाये जिससे उन्हें विश्वास हो सके कि वह अश्वग्रीवको मार सकता है। तत्पश्चात वे सब उस जंगलमें गये, जहां कोटिशिला रखी हुई थी। उन्होंने त्रिपृष्ठसे शिला उठानेके लिए कहा। उसने आसानीसे उसे उठा दिया । ज्वलनजटी और दूसरोंने इतनी शक्तिके लिए उसकी प्रशंसा की। उसके बाद वे सब पोदनपुर लौट आये और उन्होंने त्रिपृष्ठ और स्वयंप्रभाके विवाहका उत्सव मनाया। विवाहका समाचार अश्वग्रीवके कानोंमें पड़ा, वह ज्वलनजटीके कार्य से कुढ़ गया, कि उसने अपनी कन्याका विवाह जातिके बाहर किया-अर्थात् उसने एक मनुष्य त्रिपृष्ठको अपनी कन्या विवाह दी, बजाय विद्याधर अश्वग्रीवके । उसने मन्त्रियोंकी रायके विरुद्ध ज्वलनजटी और प्रजापतिपर चढ़ाई करने के लिए कूच किया । LII-चरोंने राजाको सेना और अश्वग्रीवके पोदनपुरके प्रवेशद्वार तक पहुँचनेकी सूचना दी। इसपर प्रजापतिने ज्वलनजटीसे परामर्श किया कि उन्हें किस प्रकार स्थितिका सामना करना चाहिए, जबकि विजयने कहा-मुझे विश्वास है कि त्रिपृष्ठ निश्चित रूपसे अश्वग्रीवको मार डालेगा। लड़ाई शुरू होने के पहले अश्वग्रीवने दूत भेजा, त्रिपृष्ठके पास यह जाननेके लिए कि क्या वह अश्वग्रीवके साथ सन्धि करने और स्वयंप्रभा वापस करनेके लिए तैयार है । त्रिपृष्ठने प्रस्ताव ठुकरा दिया। युद्ध शुरू हो गया। देवीने त्रिपृष्ठको सारंग नामका धनुष, पांचजन्य नामका शंख, कौस्तुभ मणि और कुमुदनी गदा और विजयके लिए हल, मुसल और गदा दिया। सेनाएँ भिड़ों और उनमें भयंकर युद्ध हुआ। युद्धके दौरान अश्वग्रीवने अपना चक्र त्रिपृष्ठपर फेंका, पर वह उनकी हानि नहीं कर सका, वह उसके हाथ में स्थित हो गया। उसने तब इसी चक्रका उपयोग अश्वग्रीवके विरुद्ध किया जिससे वह मारा गया। उसकी मृत्युके बाद त्रिपृष्ठ अर्धचक्रवर्ती बन गया। उसके शीघ्र बाद ज्वलनजटी अपनी राजधानी रथनूपुर नगर आ गया और लम्बे अरसे तक विजयाई पर्वतकी दोनों श्रेणियोंके ऊपर प्रभुसत्ताका भोग करता रहा, फिर साधु हो गया। राजा प्रजापतिने भी ऐसा ही किया । अब त्रिपृष्ठ सदैव आनन्दसे अतृप्त रहा। वह मरकर सातवें नरकमें गया। उसकी मृत्युके Page #36 -------------------------------------------------------------------------- ________________ परिचयात्मिका भूमिका ३३ बाद विजयने अपनी राजधानी श्रीविजय को सौंप दी और तपस्या कर मुक्ति प्राप्त की स्वयंप्रमाने भो यही किया । LIII वासुपूज्य की जीवनीके लिए तालिका देखिए । 1. IV यह सन्धि बलदेव, वासुदेव और प्रतिवादेव के दूसरे समूहका वर्णन करती है। विन्ध्यपुरमें कनकपुरका रामा सुपेग उसका मित्र या सुषेणके पास गुणमंजरी नामकी विन्ध्यशक्ति राज्य करता था सुन्दर वेश्या थी कि उसके पास दूत भेजा कि वेश्या उसे दे दी जाये। सुषेणने प्रार्थना ठुकरा दी। दोनों मित्रोंमें युद्ध छिड़ गया। सुषेण पराजित हुआ। मित्रको पराजय सुनकर महापुरके वायुरच सांसारिक जीवन विरक्त हो गया वह मुनि बन गया। सुपेणने भी मुनित्रतकी दक्षा ले ली। उपने मरते समय अपने वैरका बदला लेनेका निदान बाँधा । वायुरथ और सुषेण दोनों प्राणत स्वर्ग में देव हुए । राजा शक्ति भी किसी एक स्वर्गमे उत्पन्न हुआ। अगले जन्म में विन्ध्यशक्ति भोगवर्धनपुरके राजा श्रीधर और रानी श्रीमतीका पुत्र उत्पन्न हुआ उसका नाम तारक था। समय की अवधि में वह अर्धवर्ती बन गया । वायुरथ और सुषेण राजा ब्रह्मा एवं रानी सुभद्रा और उषादेवीके पुत्र हुए। अचल और द्विपृष्ठ उनके नाम थे जो बलदेव और वासुदेव थे। उनके पास श्रेष्ठ हावी था। तारक उस हाथीको अपने पास रखना चाहता था और उसने द्विपृष्ठके पास हाथी देनेके लिए दूत भेजा । अचलने मना कर दिया । तारक और द्विपृष्ठमें संघर्ष हुआ, जिसमें तारक मारा गया । द्विपृष्ठ अर्ध वक्रवर्ती बन गया । मृत्युके बाद तारक और द्विपृष्ठ नरक गये। अपने भाईको मृत्यु देखकर अचलने जैन दीक्षा ग्रहण कर ली और उसने संसाररी मुक्ति प्राप्त कर ली । 1. V - तेरहवें तीर्थंकर बिमलकी जीवनी के लिए तालिका देखिए । IVI नमी विदेहके श्रीपुर में राजा नन्दिमित्र था एक दिन उसे संसारकी क्षणभंगुरताका ज्ञान हो गया, सुखभोग छोड़कर उसने दीक्षा ग्रहण कर ली। मृत्युके अनन्तर यह अनुत्तर विमान में देव हुआ । श्रावस्ती में सुवे तु नामका राजा था। उसी नगर में दूसरा राजा बली था । वे एक दिन जुआ खेले जिसमें सुकेतु सब कुछ हार गया निराशामें वह मुनि बन गया। परन्तु तपस्या करते हुए उसने यह निदान बाँधा कि उसे बलीसे अगले जन्म में बदला लेना चाहिए । मृत्युके बाद सुकेतु लान्तव स्वर्ग में उत्पन्न हुआ । बली भी स्वर्ग में देव उत्पन्न हुआ । अपने अगले जन्मों में बली रत्नपुरके राजा समरकेशरी और रानी सुन्दरीका पुत्र हुआ । उसको मधु कहा गया। वह प्रतिवापुदेव और अर्धचक्रवर्ती था । नन्दिमित्र और सुकेतु द्वारावतीके राजा रुद्रकी पत्नियों सुभद्रा और पृथ्वीसे उत्पन्न हुए उनके नाम थे धर्म (बलदेव) और स्वयम्भू ( वासुदेव ) । एक दिन स्वयम्भूने जब अपने महलको छतपर बैठा हुआ था, शहरके बाहर सैनिक शिविरको ठहरा हुआ देखा। उसने मन्त्री से पूछा कि यह सेना किसकी है। मन्त्रीने उससे हा कि सामन्त शशियोमने राजा मधुको उपहार भेजा है जिसमें हाथी-घोड़ा आदि हैं । स्वयम्भूने इसकी अनुमति नहीं दी। उसने शशिसोमको हरा दिया और उपहार छीन लिया। यह खबर मधुके कानों तक पहुँची। उसके बाद उसने स्वयम्भूपर हमला बोल दिया। बाद में जो लड़ाई हुई उसमें स्वयम्भू ने मधुका काम तमाम कर दिया यह अर्थ हो गया। राज्यका उपभोग करते हुए स्वयम्भू भी मरकर नरकमें गया। धर्मने मुनित्रमंको दीक्षा ली और निर्वाण प्राप्त किया। LVII — यह सन्धि संजयन्त मेह और मन्दरकी कहानीका वर्णन करती है। इनमें से दो बादमें विमलवाहनके गणधर हुए, जो तेरहवें तीर्थंकर थे । दो और आदमी थे जो इस कहानीसे सम्बन्धित हैंमन्त्री श्रीभूति और व्यापारी भद्रमित्र । इनमें से श्रीभूति सत्यघोषसे संलग्न है । पहले तीन व्यक्तियो के सात भवका कवि वर्णन करता है जब कि अन्तिम दोके कुछ ही भवका वर्णन करता है। इस सन्धि के टिप्पण में इनकी सूची पर दृष्टिपात किया गया है जिससे पाठकों को समझने में सुविधा होगी । [५] Page #37 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३४ महापुराण वीतशोकनगरमें वैजयन्त नामका राजा था। उसकी रानीका नाम सर्वश्री था। उसने दो पुत्रोंको जन्म दिया-संजयन्त और जयन्त । एक दिन जैन मुनिका प्रवचन सुनकर उन सबने संसारका परित्याग कर दिया। समयके दौरान वैजयन्तने निर्वाण प्राप्त किया। इस अवसरपर जो देव उनके प्रति अपनी श्रद्धा प्रदर्शित करने आये, उनमें नागोंका देव भी था जो अत्यन्त सुन्दर था। जयन्तने यह निदान बांधा कि अगले जन्ममें उसका वैसा ही सुन्दर शरीर हो जैसा कि नागोंके स्वामीका है। वह नागलोकमें नागोंका देवता हुआ। एक दिन जब संजयन्त प्रतिमाओंकी साधना कर रहा था, विद्य इंष्ट विद्याधरने उसे देखा, उसे उठाया और पांच नदियोंके संगमक्षेत्र में फेंक दिया तथा लोगोंसे कह दिया कि मुनि शैतान है। इसपर लोगोंने मुनिको पीटा, परन्तु वह अविचलित रहे। वह यातनाओंको सहते हुए निर्वाणको प्राप्त हुए। इस अवसरपर जयन्त सहित, जो नागोंका देवता था, सब देव आये। अपने भाईकी स्थिति देखकर नागने लोगोंपर हमला शुरू कर दिया। वे बोले कि हमने इसलिए साधुको विद्याधर विद्युइंष्टकी सूचनापर पीटा। तब नागदेवताने विद्याधर विद्युदंष्ट्रको पकड़ा, और जब कि पहला दूसरेको समुद्र में फेंकनेवाला था, आदित्यप्रभ देवने बीच-बचाव किया और उसने उन सबके पूर्वभवोंका वर्णन किया। सिंहपुरमें वहाँ सिंहसेन नाम का राजा था। रामदत्ता उसकी रानी थी। श्रीभति और सत्यघोष उसके मन्त्री थे। नगरमें भद्रमित्र नामक व्यापारी था, जो पद्मखण्डपुरके सुदत्त और सुमित्राका पुत्र था। यात्रा करते हुए भद्रमित्रको कीमती मणि मिले जिन्हें उसने अश्वघोषके पास धरोहर के रूपमें रख दिया। (बाद में सत्यघोष और श्रीभतिमें भ्रम है) कुछ समय बाद भद्रमित्रने अश्वघोषसे रत्न लौटानेको कहा, परन्तु उसने रत्नोंकी जानकारी के बारेमें साफ मना कर दिया, यहाँ तक राजाके पूछने पर भी। भद्रमित्र पागल हो गया और राजमहलके पड़ोसमें एक पेड़पर चढ़कर चिल्लाकर मन्त्रीकी इज्जत घटाने लगा। रानी रामदत्त। मन्त्रीसे चिढ़ गयी और उसने उसके साथ एक चाल चली। उसने सत्यघोषके साथ जुएका खेल खेला जिसमें वह पहचानवाली अंगूठी और पवित्र जनेऊ रानीसे हार गया। उसने अपनी दासीके माध्यमसे मन्त्रीके खजांची के पास अंगुठी भेजी और उससे रत्न प्राप्त कर लिये। इस बातकी परीक्षाके लिए कि भद्रमित्रने जो कुछ कहा है, वह सत्य है, राजाने उन रत्नोंमें मिला दिये जो द्रमित्रके थे। वे रत्न भद्रमित्रको दिखाये गये । उसने केवल अपने रत्न उठाये यह कहते हुए कि वे उसके नहीं हैं। तब राजा उसपर प्रसन्न हो गया। रानाने मन्त्रीको सजा दी और वही बर्ताव किया जो एक चोरके साथ किया जाता है। मन्त्रोने इसके लिए राजाके प्रति अपने मनमें गांठ बाँध ली । अगले जन्ममें वह अगन्धन नाग बना और राजाके खजाने में खड़े होकर राजाको काट खाया। अगले जन्म भद्रमित्र रामदत्ताके पुत्रके रूपमें जन्मा उसका नाम सिंह चन्द्र रखा गया । उसका छोटा भाई पूर्णचन्द्र था। और यह इस विस्तारमें है कि तीनों व्यक्तियोंकी पूर्व भव की जोवनियाँ इस सन्धिके प्रारम्भमें वर्णित की गयी हैं। LVII!-अनन्तकी जीवनीके लिए ( १४वें तीर्थंकर ) तालिका देखिए । उनके तीर्थकाल में बलदेव, वासुदेव और प्रतिवासुदेवका चौथा समूह उत्पन्न हुआ। नन्दपुरमें राजा महाबल था। वह मुनि हो गये और मरकर सहस्रार स्वर्गमें उत्पन्न हुए। उस समय पोदनपुरमें राजा वसुसेन राज्य करता था। उसकी रानी नन्दा बहुत सुन्दर थी। उसका मित्र चन्द्रशासन उसके पास रहने आया। उसने नन्दाको देखा, वह उसके प्रेममें पड़ गया और वसुसेनसे कहा कि वह उसे दे दे। उसने ऐसा करनेसे मना कर दिया। परन्तु चन्द्रशासन उसे जबरदस्ती ले गया। इसके बाद वसुसेन मुनि बन गया और मृत्यु के बाद उसी स्वर्गमें उत्पन्न हुआ, जिसमें महाबल उत्पन्न हआ था। चन्द्रशासन अगले जन्ममें वाराणसीके राजा विलास और रानी गुणवतीका पुत्र हुआ। महाबल और वसुसेन, राजा सोमप्रभकी रानियों (जयावती और सीता) से क्रमशः उत्पन्न हुए और क्रमशः उनके नाम सुप्रभ और पुरुषोत्तम रखे गये । मधुसूदनने उनसे उपहारको मांग की, और चूंकि उन्होंने ऐसा करनेसे मना कर दिया, इसलिए मधुसूदन और पुरुषोत्तम में संघर्ष हुआ जिसमें मधुसूदन मारा गया। पुरुषोत्तम अर्धचक्रवर्ती बन गया । Page #38 -------------------------------------------------------------------------- ________________ परिचयात्मिका भूमिका ३५ LIX-पन्द्रहवें तीर्थकर धर्मनाथको जीवनीके लिए तालिका देखिए। इनके तीर्थकालमें बलदेव, वासुदेव और प्रतिवासूदेवका पांचवां समूह हआ। वीतशोकनगरमें नरवृषभ राजा हआ। उसने तपस्या की और मरकर वह सहस्रार स्वर्गमें उत्पन्न हुआ। राजगृहमें राजा सुमित्र था। वह राजसिंहसे लड़ाईमें मारा गया। सुमित्रने तपस्या की और मरते समय यह निदान बाँधा कि मैं अगले जन्ममें राजसिंहको पराजित करूँ। मृत्युके बाद वह महेन्द्र स्वर्गमें उत्पन्न हुआ। राजसिंह अगले जन्ममें हस्तिनापुरका राजा मधुक्रीड़ हुआ। राजा नरवृषभ और सुमित्र राजा सिंहसेनको रानियों विजया और अम्बिकासे उसके पुत्र हुए, उनके नाम सूदर्शन और पुरुषोत्तम थे, जो पांचवें बलदेव और वासुदेव थे। राजा मधुक्रीड़ने दुत भेजकर सुदर्शनसे कर मांगा जिसे उसने अस्वीकार कर दिया। उनमें युद्ध हुआ। पुरुषोत्तमने मधुक्रीड़ो मार डाला और अर्धचक्रवर्ती सम्राट् बन गया। उसी राज्यमें साकेतमें राजा सुमित्र था। उसको रानी भद्रा थी। उसने एक पुत्रको जन्म दिया, उसका नाम मघवन था। उसने समस्त छह खण्ड धरती जोत ली और जैनपुराणविद्याके अनुसार तीसरा सार्वभौम चक्रवर्ती सम्राट् बन गया। बहुत समय तक धरतीका उपभोग करने के बाद उसने संसारका परित्याग कर मोक्ष प्राप्त किया। थोड़े समयके बाद उसो शासनकालमें चौया चक्रवर्ती हुआ, उसका नाम सनत्कुमार था । वह विनीतपुरके राजा अनन्तवीर्य और रानो महादेवीका पुत्र था। वह अत्यन्त सुन्दर था । इन्द्रके द्वारा प्रेषित दो देव उसका सौन्दर्य देखने आये। उन्होंने राजासे कहा कि कुमारका सौन्दर्य शाश्वत रहेगा यदि उसे बुढ़ापे और मोतने नहीं घेरा। बुढ़ापे और मृत्युका नाम सुनकर सनत्कुमारने संसारका परित्याग कर दिया और निर्वाणलाभ किया। LX-अमोघजीत नामके ब्राह्मणने भविष्यवाणी की कि छह महीने बाद राजा श्रीजीवके सिरपर गरेगी, जो वासुदेव त्रिपृष्ठका पुत्र है और उसके सिरपर रत्नोंकी वर्षा होगी। जब ब्राह्मणसे यह पूछा गया कि वह इस प्रकारका भविष्यकथन कसे कर सकता है तो उसने कहा कि मैंने प्रसिद्ध शिक्षकसे यह विद्या पढी है। एक दिन जब उसने अपनी पत्नीस भोजनके लिए कहा तो उसने थालीमें खाली कौड़ियाँ परोस दी, क्योंकि गरीबीके कारण उसके घरमें कुछ और था ही नहीं। पत्नीने उसे झिड़का कि तुम कुछ काम करके धन नहों कमाते । ठोक इसी समय आगकी चिनगारी उसको थालीमें गिरी, ठीक इसी समय पानीका घड़ा उसकी पत्नीने उसके सिरपर डाल दिया। यह इस घटनाके कारण था कि ब्राह्मणने यह भविष्यवाणी को थी कि राजाके सिरपर बिजली गिरेगी और उसके सिरपर रत्नोंको वर्षा होगी। तत्पश्चात् मन्त्रियोंने राजाको सलाह दी कि देवो विपत्तिको टालने के लिए कुछ समयके लिए राज्य छोड़ दिया जाये और तबतक के लिए किसी दुसरेको गद्दोपर बैठा दिया जाये । इसके बादको सन्धि श्रीविजय और अमिततेज विद्यावरके बीच हुई शत्रुता और संघर्षका वर्णन करती है। एक मुनि हस्तक्षेप करते हैं और उन्हें जैनसिद्धान्तोंका उपदेश देते हैं। इसके परिणामस्वरूप वे दोनों दीक्षा ग्रहण कर लेते हैं। LX1-अगले जन्ममें श्रीविजय और अमिततेज स्वर्ग में देव हए. मणिचुल और रविचलके नामसे । अगले जन्ममें प्रभावती नगरके राजा स्मितसागरके रानी वसुन्धरा और अपराजितासे पुत्र हुए। उनके दरबारमें दो सुन्दर नृत्यांगनाएँ थों, जिनकी विद्याधर राजा दमितारिने मांग की। LX.LXIII-ये चार सन्धियाँ तीर्थकर शान्तिनाथ और उनके पूर्वभवोंका, विशेषरूप और खासकर चक्रायुधकी, जीवनी विस्तारसे ( LXIII ) जिसका टिप्पणमें विस्तार है। LXIV-कुन्थकी जीवनी के लिए तालिका देखिए। LXV-अर्हके जोवनके लिए तालिका देखिए। अर्हके शासनकालमें आठवें चक्रवर्ती सुभौम हुए। सहस्रबाह नामका राजा था। उसकी पत्नो विचित्रमतीने कृतवीर पुत्रको जन्म दिया। विचित्रम तीकी बहन श्रीमतोका विवाह शतबिन्दुसे हुआ था। उनसे जो पुत्र हुआ उसका नाम जमदग्नि रखा गया। बचपनमें माताकी मृत्युके कारण जमदग्नि तापसमुनि बन गया। शतबिन्दु और उसका मन्त्री हरिशर्मा भी क्रमशः जैन Page #39 -------------------------------------------------------------------------- ________________ महापुराण और हिन्दू मुनि बन गये। कुछ समयके बाद शतबिन्दु मरकर सौधर्म स्वर्गमें देवता हुआ तथा हरिशर्मा ज्योतिष देव हआ। वे दोनों जमदग्निकी पवित्रताकी परीक्षा करना चाहते थे। उन्होंने चिड़ी-चिड़ाका रूप धारण कर जमदग्निके बालोंमें घोंसला बना लिया। और कुछ उसके प्रति अपमानजनक बातें करने लगे। वह पक्षियोंपर नाराज हो गये और उन्हें मारनेको धमकी दी। उन पक्षियों में से एकने कहा कि उसे नहीं मालूम कि वह ( जमदग्नि ) इसलिए स्वर्ग न पा सका क्योंकि उसके पुत्र नहीं है। जमदग्निने इसपर विचार किया और मामाके पास जाकर उसने उसकी क-यासे विवाह करने का प्रस्ताव किया। बुढ़ापा होनेसे कन्या उससे विवाह नहीं करना चाहती थी। इसपर क्रुद्ध होकर उसने नगरको सब कन्याओंको बौना होनेका शाप दे दिया। तबसे उस नगरका नाम कान्यकुब्ज पड़ गया ( आधुनिक कन्नौज)। उसे किसी प्रकार मामाको लड़की मिल गयी, उसका नाम रेणुका (धूलभरी) मिल गयो। उसे केला दिखाकर आ अपनी गोदमें बैठा लिया। उससे विवाह कर लिया। चूँकि उसने कहा कि वह उसे चाहती थी। समय बीतनेपर उसने दो पुत्रोंको जन्म दिया-इन्द्रराम और श्वेतराम । उसके भाइयोंने उसे दानमें एक गाय दी थी जो सब मनोकामनाएं पूरी करता थी, और मन्त्र फरशा दिया। रेणुका और जमदग्नि सुखपूर्वक रहते थे । एक दिन राजा सहस्रबाहु अपने पुत्र कृतवीरके साथ मुनिकी कुटियापर आया। रेणुकाने उन्हें राजकीय भोज दिया। पिता-पुत्र भोजनकी श्रेष्ठतासे प्रभावित हुए और उन्होंने पूछा कि मुनिकी पत्नी होते हुए रेणुकाने उनको इतना व्ययसाध्य भोजन कैसे दिया। रेणुका बोली कि उसके भाइयोंने गाय दी है वह मनचाही चीजें देती है । कृवीरने वह गाय चाही और रेणुकाक विरोधके बावजूद वह उसे ले गया। कृतवीर और जमदग्निकी जो लड़ाई हुई उसमें सहस्रबाहुने जमदग्निको मार डाला। उसके पुत्र इन्द्रराम और श्वेतराम बाहर थे। जब वे लोटे तो उन्हें अपनी माँस पता चला कि उनके पिताको सहस्रबाह और उसके पुत्रने मार डाला है और वे उनकी गाय ले गये हैं। वे क्रुद्ध हुए। रेणुकाने उन्हें परशुमन्त्र पढ़ाया। तब वे सावेत गये और सहस्रबाह तथा कृतवीर तथा घरके दूसरे सदस्योंको तथा क्षत्रियजातिको इक्कीस बार हत्या की। समस्त क्षत्रियोंके विनाशके बाद उन्होंने सारी धरती ब्राह्मणोंको दे दी जिसपर उन्होंने बादमें शासन किया। सहस्रबाहुकी रानो विचित्रति उस समय गर्भवती थी, उसके गर्भसे पूर्वजन्मकी आत्मा भूपालके नामसे पैदा हई, जिसकी नियति आगे चक्रवर्ती होने की थी। वह जीवनकी सुरक्षाके लिए जंगल में भाग गयी। शाण्डिल्य मुनिने उसे संरक्षण दिया । उसको कुटियामें उसने बच्चे को जन्म दिया, जिसका नाम सुभौम रखा गया। LXVI-सुभौमने अपना बचपन जंगलमें शाण्डिल्य मुनिकी कुटियामें बिताय।। वह एक शक्तिशालो दृढ़ युवक बन गया। एक दिन उसने अपनी मासे पूछा कि उसने अपने पिताको नहीं देखा और उनके बारे में बताने के लिए आग्रह किया। तब माने सारी कहानी सुनायी कि किस प्रकार सहस्रबाहु परशुरामके द्वारा मारे गये। इसी बीच एक ज्योतिषी परशुरामके घर आया और उसने बताया कि उसकी मृत्यु किस प्रकार होगी। उसने कहा कि उसके शत्रुओं ( सहस्रबाहु और कृतवीर ) के दांतोंसे भरी थाली, जिसके दृष्टिपातसे चावलोंकी थालमें बदल जायेगी, वह उसका वध करनेवाला होगा। इसपर परशुरामने नगरके मध्य एक दानशाला खुलवायो जहाँ ब्राह्मणोंको मुफ्त भोजन दिया जाता और उन्हें दांतोंको थाली दिखाई जाती । सुभौमसे भी दानशालेकी भेंट करने के लिए कहा गया, यह जाननेके लिए कि क्या यही वह व्यक्ति है जिसके हाथों परशुरामकी मौत होगी। तब सुभौम दानशालामें गया, उसने थाली देखी जो पके हुए चावलोंके रूपमें बदल गयी । रक्षकोंने फौरन हमला कर दिया जब कि वह निहत्था था। परन्तु वह थाली ही तत्काल चक्रमें बदल गयी जिससे उसने उनका और परशुरामका अन्त कर दिया। उसके बाद वह चक्रवर्ती हो गया। एक बार सुभौमको उसके रसोइएने चिका फल परोसा। वह क्रूद्ध हो उठा और उसने इस अपराधके लिए रसोइएको मार डाला। रसोइया ज्योतिष देव उत्पन्न हुआ। वह व्यापारीका रूप धारण करके आया और राजाको कुछ सुन्दर फल दिये। राजाने उन फलोंको खूब पसन्द किया और व्यापारोसे और फल लानेका आग्रह Page #40 -------------------------------------------------------------------------- ________________ परिचयात्मिका भूमिका किया। व्यापारोने कहा कि देवने जो फल दिये थे वे समाप्त हो गये हैं। चूंकि राजा अपनी मांगके लिए आग्रह करता रहा, तो ज्योतिषोने कहा कि राजा उन फलोंको पा सकता है यदि वह उसके साथ एक द्वीपके लिए चलता है। राजाने मंजूर कर लिया। वह व्यापारीके साय गया, उसने उसे चट्टानपर रखा और मार डाला । मृत्युके बाद सुभौम नरक गया । अरके शासनकालमें बलदेव, वासुदेव और प्रतिवासुदेवका छठा दल उत्पन्न हुआ। उनके नाम थे नन्दीसेन, पुण्डरीक और निशुम्भ । विस्तारके लिए तालिका देखिए । LXVII- मल्लिकी जीवनीके लिए तालिका देखिए। इनके शासनकालमें नौवें चक्रवर्ती पद्म हुए। विस्तृत जीवनीके लिए तालिका देखिए। यह मल्लिनाथके शासनकाल में हुआ कि बलदेव, वासुदेव और प्रतिवासुदेवका सातवाँ दल उत्पन्न हुआ। जिनके नाम हैं नन्दिमित्र, दत्त और बलि । विस्तारके लिए तालिका देखिए। परिशिष्ट जैनपुराणोंमें त्रेसठ शलाका पुरुषोंकी जीवनियोंके परम्परागत विस्तारमें जो एकरूपता दे दी गयी है, और विमलसूरिने अपने 'पउमचरिउ'में जो संकेत दिया है (पृ. ११ पर उद्धृत है ) ने मुझे यह विचार दिया कि मैं सुविधजनक शीर्ष कोंके रूपमें सभीकी मुख्य बातोंको अंकित कर दूं। इसलिए मैं इस जिल्दमें पांच तालिकाएं दे रहा हैं। तालिका एकमें, दिगम्बरोंकी परम्पराके अनुसार तीर्थंकरोंको प्रतिमाओं के चिह्नोंको दिया गया है । मैंने यह तालिका, श्री जी. एच. खरेकी मराठी पुस्तकसे जो बहुत मूल्यवान् है, ली है, इसलिए कि मेरी तालिकामें जानकारी है, वह गुण भद्र और पुष्पदन्तके उस जानकारीसे मिलनी चाहिए, जो उन्होंने अपने पुराणोंमें दी है, इसके लिए मैंने श्री खरेको तालिकामें थोड़ा फेर-बदल किया है। दूसरी तालिका, तीर्थकरोंके पूर्वजन्म, जन्मस्थान आदिका विवरण देती है। तीसरी तालिका में विभिन्न तीर्थंकरों के गणधरों की सूची है। चौथीमें चक्रवर्तियों के बारेमें सूचनाएं हैं। पाँचवीं तालिकामें बलदेवों, वासुदेवों, प्रतिवासुदेवोके बारे में जानकारी है। दरअसल मेरी जानकारीका स्रोत जिनसेनका आदिपुराण, गुणभद्रका उत्तरपुराण और पुष्पदन्तका महापुराण है। ये रचनाएं, मैं आशा करता हूँ कि दिगम्बर परम्पराका प्रतिनिधित्व करनेवाले सर्वोत्तम स्रोतोंमें से एक हैं, यदि ते सर्वोत्तम नहीं हैं तो एक या दो स्थानोंपर मैंने श्वेताम्बर परम्पराका उपयोग किया है, क्योंकि उनकी जानकारी देने में महापुराण समर्थ नहीं था या फिर मैं उसमें सामग्री ढूँढ़ने में समर्थ नहीं हो सका। मैं पाठकों के प्रति अत्यन्त कृतज्ञ होऊंगा यदि वे अनुपयुक्तताओं और कमियोंको ध्यानमें ला सके, मैं धन्यवादके साथ उनपर विचार करूँगा। नोरोजी वाडिया कालेज पूना अगस्त १६४० -पी. एल. वैद्य Page #41 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Page #42 -------------------------------------------------------------------------- ________________ विषयानुक्रमणिका अड़तीसवीं सन्धि : अजितनाथकी वन्दना ( १-२ ), कविको सृजनसे उदासी ( २-३ ), सरस्वती और भरतकविको समझाना, (३), कविका उत्तर, समयकी विपरीतताका उल्लेख, सृजनको स्वीकृति (४-५), रचनाका उद्देश्य जिनभक्ति ( ५-६ ), वत्सदेश और सुसीमा नगरीका वर्णन ( ६-७ ), विमलवाहन राजाको विरक्ति और तपस्या, विजयका अनुत्तर विमान में जन्म ( ८ ), इन्द्रके आदेशसे कुबेर द्वारा अयोध्याकी रचना; स्वर्णवृष्टि (९), विजयादेवीका सोलह स्वप्न देखना (१०), स्वप्नफल कथन ( ११-१२), अजितनाथका जन्म (१२), अजित जिनका जन्माभिषेक (१३), देवों द्वारा जिनकी वन्दना (१४), विवाहका प्रस्ताव (१५), उल्कापात देखकर विरक्ति (१६), लौकान्तिक देवों द्वारा सम्बोधन और स्तुति (१७), दीक्षा ग्रहण करना (१८), देवेन्द्र द्वारा जिनेन्द्रकी स्तुति; समवसरण की रचना (२०), जिनवर द्वारा तत्त्वकथन (२१), संघका वर्णन (२२) | उनतालीसवीं सन्धि : वत्सावती देशके राजा पुण्डरीकका वर्णन (२४), राजा जयसेनका वर्णन, उसके रतिसेन और धृतसेन पुत्र, रतिसेनकी मृत्यु, पिताका शोक (२५), जितसेन दीक्षा ग्रहण करता है, जयसेन मरकर स्वर्ग में महाबलदेव हुआ, उसके साथ तप करनेवाला सामन्त महारुत भी मरकर सोलहवें स्वर्ग में मणिकेतु हुआ (२६), उनमें तय हुआ कि जो स्वर्ग में रहेगा, वह दूसरेको मर्त्यलोकमें जाकर उपदेश देगा; महाबलको मृत्यु (२७), महाबलका सगरके रूपमें जन्म, उसका चक्रवर्ती बनना, मणिकेतुदेवका आकर समझाना ( २८ ), देवका अपना परिचय देना, सगरकी अनसुनी करना, मणिकेतुका मुनिके रूपमें आना (२९), सगरका उनसे विरक्तिका कारण पूछना, मणिकेतुका उपदेश; सगरपर कोई प्रतिक्रिया नहीं, देवकी वापसी; सगरके साठ हजार पुत्र (३०-३२), सगरका भरत द्वारा निर्मित मन्दिरोंकी सुरक्षाका आदेश, पुत्रोंका वज्ररत्न से कैलासके चारों ओर खाई खोदना, पानीका निकलना, खाइके रूप में गंगाका कैलास पर्वतको घेरना ( ३३-३४), नागभवनका प्रताड़ित होना, मणिकेतु देवका नागराज बनकर पुत्रोंको भस्म कर देना, भीम और भगीरथका जाकर सारा वृत्तान्त राजा सगरको बताना, दण्डी साधुका अवतरण, साधुका उपदेश, उसका वस्तुस्थिति बताना, सगरकी विरक्ति और भगीरथको राजगद्दी मिलना (३४-३७), मणिकेतुका मृत पुत्रोंको जीवित करना, उनका दीक्षा ग्रहण करना, तपस्याका वर्णन, सगरकी निर्वाण - प्राप्ति (३९-४० ) । चालीसवीं सन्धि : सम्भवनाथको स्तुति (४१-४२), कच्छ देशके क्षेम नगरका वर्णन (४३), राजा विमलवाहनका तप ग्रहण करना, सुदर्शन विमानमें जन्म (४४), श्रावस्ती में इक्ष्वाकुवंशका शासन, राजा ... १-२३ २४-४० ४१-१७ Page #43 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४० महापुराण दृढ़रथ, रानी सुषेणा, स्वप्न दर्शन (४५), इन्द्रका कुबेरको आदेश, सम्भवनाथका जन्म, रत्न वर्षा (४६), जिनेन्द्र सम्भवनाथका अभिषेक और अलंकरण (४७-५१), सम्भवनाथका तावरण, केवलज्ञानको प्राप्ति, देवताओं द्वारा स्तुति और समवसरण (५२.५४) गणधरोंकी संख्या और मोक्ष (५५-५७)। इकतालीसवीं सन्धि: ५८-५ अभिनन्दनकी स्तुति (५८-५९), मंगलावठी देश, रत्नसंचय नगर, राजा महाबल, रानी लक्ष्मीकान्ता, राजाको विरक्ति और तपश्चरण, अनुत्तरविमानमें जन्म (६०-६१), इन्द्रके आदेशसे कुबेर द्वारा कौशलपुरीकी रचना, स्वप्नकथन, राजा स्वयंवरका भविष्यकथन; अहमेन्द्रका अभिनन्दनके रूप में जन्म, इन्द्रके द्वारा अभिषेक (६२-६४), अभिषेकमें विशेष देवताओंका आह्वान (६६-६७), अभिनन्दनके योवनका वर्णन, राज्याभिषेक (६८-६९), विरक्ति, लौकान्तिक देवोंका सम्बोधन, पारणा, केवलज्ञान, देवेन्द्र द्वारा स्तुति, निर्वाण (७०-७५)। बयालीसवीं सन्धि : ७६-८८ सुमतिनाथकी वन्दना (७६-७७), पुण्डरोकिणी नगरीका वर्णन (७७), राजा रतिसेन अपने पुत्र अर्हनन्दनको राज्य देकर दीक्षा ग्रहण करता है (७८), अहमेन्द्र स्वर्गमें उत्पन्न होना, इन्द्रका कुबेरको आदेश कि वह जाकर अयोध्यामें भावी तीर्थकरके जन्मकी व्यवस्था करे, मेघरथ की पत्नी मंगलाका स्वप्न देखना (७९), राजा द्वारा तीर्थकरके जन्मका भविष्यकथन, कुबेर द्वारा स्वर्णवृष्टि (८०), जिनके जन्मपर देवेन्द्र द्वारा वन्दना (८१), जिनेन्द्रका अभिषेक (८२), सुमतिनाथको बालक्रीड़ा, राज्याभिषेक, राज्य करते हुए जिनेन्द्र का आत्मचिन्तन (८३), लौकान्तिक देवोंका आगमन और उद्बोधन, दीक्षाग्रहण (८४), केवलज्ञान की प्राप्ति, देवेन्द्र द्वारा स्तुति (८५), स्तुति जारी (८६), समवसरण की रचना, उसका वर्णन, गणधरोंका उल्लेख (८७), गणधरोंका उल्लेख, निर्वाण (८८)। तैंतालीसवीं सन्धि: ८९-१-२ पद्मप्रभुकी वन्दना (८९), वत्स देशका वर्णन, सुसीमा नगरी, अपराजित राजा (९०), राजाका आत्मचिन्तन, दीक्षा ग्रहण करना (९१), तपस्याका वर्णन; मृत्युके बाद प्रीतंकर विमानमें जन्म, ह माह शेष रहनेपर इन्द्र के आदेशसे कोशाम्बी नगरीकी रचना और स्वर्णप्रासाद की रचना (९२), रानीका स्वप्नदर्शन (९३), स्वप्नफल कथन, जिनेन्द्रकी उत्पत्तिकी भविष्यवाणी, जिनका गर्भमें आना (९४), जिनका जन्म अभिषेक, बालक्रोड़ा (९५), महागजकी मृत्यु, पद्मप्रभको विरक्ति (९६), दीक्षाभिषेक और तपश्चरण (९७), सोमदत्त द्वारा आहारदान, तपश्चरण, केवलज्ञानको उत्पत्ति, देवों द्वारा स्तुति (९८), स्तुति (९९), समवसरणकी रचना (१००), निर्वाणलाभ (१०१)। चौवालीसवीं सन्धि: १०३-१११ सुपार्श्वनाथकी वन्दना (१०३), कच्छ देशका वर्णन, क्षेमपुरी राजावी विरक्ति, तपश्चरण, शरीर त्यागकर भद्रामर विमानमें अहमेन्द्र (१०४), छह माह शेष रहनेपर इन्द्रके आदेशसे कुबेर द्वारा काशीकी वाराणसीकी पुनर्रचना, पथ्वीसेनाका स्वप्नदर्शन (१०५-१०६), Page #44 -------------------------------------------------------------------------- ________________ विषाणका स्वप्नफल कथन, सुपार्श्वका गर्भ में अवतरण (१०७), बालक्रीड़ा, भोगमय जीवन, उल्कापात देखकर विरक्ति (१०८), दीक्षाकल्याण (१०९), देवेन्द्र द्वारा स्तुति (१०९), केवलज्ञानकी उत्पत्ति, जिनका उपदेश (११०), निर्वाणलाभ ( १११ ) । पैंतालीसवों सन्धि : पद्मनाभ तीर्थंकरका वर्णन (११२-१२४) | छियालीसवीं सन्धि : चन्द्रप्रभ स्वामीका वर्णन (१२५-१३७) तक | सैंतालीसवों सन्धि : पुष्पदन्तका वर्णन (१३८-१५२) । अड़तालीसवीं सन्धि : शीतलनाथका वर्णन (१५३-१७२) । उनचासवों सन्धि : श्रेयांसनाथका वर्णन (१७३-१८४) । पचासवों सन्धि : अश्वग्रीव और त्रिपृष्ठ वासुदेव और बलदेवकी उत्पत्ति (१८५-१९५) । इक्यानवीं सन्धि : त्रिपृष्ठ द्वारा सिंहमारण और कोटिशिलाका उद्धार (१९५-२११) । बावनवों सन्धि : त्रिपृष्ठकी अश्वग्रीवसे भिड़न्त (२१२-२४१) । त्रेपनवों सन्धि : वासुपूज्यका वर्णन (२४२-२५३) । चौवनवीं सन्धि : द्विपृष्ठ और तारक के चरितका वर्णन (२५४-२७१)। पचपनवीं सन्धि : विमलनाथका वर्णन : (२७२-२८१) । छप्पनवीं सन्धि : भीम और स्वयम्भूकी भिड़न्तका वर्णन (२८२-२९१) । [६] 0.00 : .... ४१ ११२-१२४ १२५-१३७ १३८-१५२ १५३-१७२ १७३ - १८४ १८५-१९५ १९६-२११ २१२-२४१ २४२-२५३ २५४-२७१ २७२-२८१ २८२-२९१ Page #45 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १२ महापुराण २९३-३१७ ३१८-३३६ ३३७-३५७ ३५८-३८४ ३८५-४०५ ४०६-४२४ सत्तावनवीं सन्धि: मन्दर और मेरुकी कथा (२९३-३१७) । अट्ठावनवी सन्धि: अनन्तनाथके तीर्थकाल में सुप्रभ पुरुषोत्तम और मधुसूदन की कथा (३१८-३३६) । उनसठवीं सन्धि: धर्मनाथका वर्णन, सुदर्शन, पुरुषसिंह, मधुक्रीड़, मघवा, सनत्कुमार (३३७-३५७) । साठवीं सन्धि: शान्तिनाथ भवाबलि (३५८-३८४) । इकसठवीं सन्धि: वज्रायुध चक्रवर्ती (३८५-४०५) । बासठवीं सन्धि: मेघर थका तीर्थंकर गोत्रबन्ध (४०६-४२४) । वेसठवीं सन्धि : - शान्तिनाथ निर्वाणगमन (४२५-४३४)। चौंसठवीं सन्धि : कुन्थु चक्रवर्ती और तीर्थकर (४३५-४४४) । पैंसठवीं सन्धि : अर तीर्थकर और परशुराम विभवका वर्णन (४४५-४६४) । छियासठवीं सन्धि: .. सुभौम चक्रवर्ती-वासुदेव-प्रतिवासुदेव कथान्तर (४६५-४७४) । सड़सठवीं सन्धि: मल्लिनाथ-पद्म चक्रवर्ती-नन्दिमित्र-दत्तवलि-पुराण (४७५-४८९)। ४२५-४३४ ४३५-४४४ ४४५-४६४ ४६५-४७४ ४७६-४८९ Page #46 -------------------------------------------------------------------------- ________________ महापुराण भाग ३ Page #47 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Page #48 -------------------------------------------------------------------------- ________________ महाकवि पुष्पदन्त विरचित महापुराण संधि ३८ बंभहु बंभालयसामियहु ईसहु ईसरवंदहु || अजहु जियकाम कामयहु पणविवि परमजिदिहु || ध्रुवकं ॥ १ सुरुओं वीरमघोरं उवसमणिलयं कंदरवालं मंदरसिंत्तं रामारमणे विणयजणाणं जेण कयं तं आलोयंते भइ जसोहो णाही ताणं सुहरु मेहं । वयविहिघोरं । पसमियणिलयं । कंदरणीलं । मंदर सितं । रामारमणे । विणयजणाणं | जेण कयंतं । आलोयंते । भवेइजसोहो । जो भत्ताणं । सन्धि ३८ ब्रह्मा (परमात्मा ) मोक्षालय के स्वामी, ईश्वरोंके द्वारा वन्दनीय, ईश, जिन्होंने कामको जीत लिया है, जो कामनाओंको पूरा करनेवाले हैं, ऐसे परम जिनेन्द्र अजितनाथको में प्रणाम कर । १० १ जिन्होंने रोगों ( काम-क्रोधादि ) के समूहका नाश कर दिया है, जो पुण्यरूपी वृक्षके लिए मेघ के समान हैं, जो वीर ओर सोम्य हैं, जो व्रतोंके आचरण में कठोर हैं, जो उपशम ( शान्तभाव ) के घर हैं, जिन्होंने मनुष्यों के विनाशको शान्त कर दिया है, जिनकी ध्वनि (दिव्य ध्वनि ) मेघकी ध्वनि के समान है, गुफा ही जिनका घर है, जिनका सुमेर पर्वतपर अभिषेक हुआ है, जिसमें धन और कामका मन्थन है ऐसे स्त्रीरमण में जिनकी मन्दरसता है, जिन्होंने विनत जनोंके लिए विनयजज्ञान ( श्रुतज्ञान ) दिया है, जो यमको नहीं देखते, जिनका यश-समूह चन्द्रमाको किरणों के समान शोभावाला है, तथा लोकपर्यन्त परिभ्रमण करता है, जो भक्तोंका त्राण करने १. १. A भवइ । २. A भमइ । Page #49 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १५ २० २५ महापुराण जो भयवंतो जमकरणवह अण्णाणमहं णिहारयिं अवसावसणं आसासमणं वररमणीसं णीसं सालं परसमयंत अहिवं दिययं जेणें ण कहियं णिरुवमदेह मणि जाएण किंपि अमणोज्जें निव्विण्णेड थिड जाम महाकइ भइ भडारी सुहयरुओह जो भयवंतो । जमकरणवहं । सामहं । णिहार हियं । आसावसणं । आसासमणं । वररमणीसं । णीसं सालं । परसमयं तं । घत्ता - पुणु पणविवि पंच वि परमगुरु णियजसु तिजगि पयासैवि ॥ दुरियपडलणिण्णासयरु अजियहु चरिउ समासवि ॥१॥ २ सुहदिययं । तेलोक्कहियं । तं वंदेहं । [ ३८. १. १४ कइवेयदियहईं केण वि कजें । ता सिविणंतरि पत्त सरासइ । पण अरुहं सुहरु मेहं । वाले स्वामी हैं, जो ज्ञानवान् और सात भयोंका नाश करनेवाले हैं, जो रोगादिका विनाश करनेवाले यमों और व्रतोंका अनुष्ठान करनेवाले हैं, जो अज्ञानका नाश करनेवाले ज्ञानको धारण करते हैं, जो निद्रा और कलत्रसे रहित हैं, जो शापसे शून्य और दिशारूपी वस्त्रोंको धारण करते हैं, जो सब ओर त्रैलोक्यरूपी लक्ष्मीसे विलसित हैं, जो आशा के शामक और मुक्तिरूपो रमणीके ईश हैं, जिनकी बुद्धि वर देनेवाली है, जो मनुष्योंको प्रशंसासे युक्त हैं, जो संसारका परित्याग कर चुके हैं, जो पर सिद्धान्तोंका अन्त करनेवाले हैं, जो श्रेष्ठ शान्तिसे रमणीय, और नागराजके द्वारा अभिनन्दनीय हैं, जिन्होंने इन्द्रियजन्य सुखको सुख नहीं माना, तथा जो अनुपम और अशरीरी हैं, ऐसे अजितनाथकी में वन्दना करता हूँ । घत्ता - पाँचों परमगुरुओं ( पाँच परमेष्ठियों ) को प्रणाम कर तथा अपने यशको तोनों लोकों में प्रकाशित कर घन पाप पटल के नाशक श्री अजितनाथके चरितका संक्षेपमें कथन करता हूँ । २ कई दिनों तक किसी कारण, मन में कुछ असुन्दर बात हो जानेसे जब कवि उदासीन था तो उसे सपने में सरस्वती प्राप्त हुई । आदरणीया वह कहती हैं- "संसारके रोगसमूहका नाश करनेवाले तथा पुण्यरूपो वृक्षके मेघ श्री अरहन्तको तुम नमस्कार करो ।” ३. A णिंदारहियं । ४. P जेण णं । ५. AP पयासमि । ६. AP समासमि । २. १. A कश्वयदियहें; P कइवयइ दियहें । २. K णिग्विणोउ थिउ but gloss निर्विण्णः; P णिव्विणु उट्टिउ । ३. A पणमहु; P पणवह । ४. A सुहयरमेहं but gloss in K शुभतरुमेघम् । Page #50 -------------------------------------------------------------------------- ________________ -३८. ३.६] महाकवि पुष्पदन्त विरचित इय णिसुणेवि विउ उ कइवरु सयलकलायरु णं छणससहरु । दिसउ णिहालइ किं पि ण पेच्छइ जा विम्हियमैइ गिंयघरि अच्छइ । ताम पराइएण जयवंत मउलियकरयलेण पणवंत । दसदिसिपसरियजसतरुकंदें वरमहमत्तवंसणहँ यंदें । छणससिमंडलसंणिहवयणे णवकुवलयदलदीहरणयणे । घत्ता-खलसंकुलि कालि कुसीलमइ विणउ करेप्पिणु संवैरिय ॥ वचंति विसुण्णसुसुण्णवहि जेण सरासइ 'उद्धरिय ॥२॥ अइयणदेवियव्वतणुजाएं जिणवरसमयणिहेलणखंभे मई उवयारभाव णिव्वहणे तेओहामियपवरक्करहें बोल्लाविउ कइ कवपिसल्लउ किंदीसहि विच्छायउ दुम्मणु जयदुंदुहिसरगहिरणिणाएं । दुत्थिय मित्तें ववगयेडंभ। विउसविहुरसयभयेणिम्महणे । तेण विगठवें भव भरहें। किं तुहु सञ्चउ बप्प गहिल्लउ । गंथकरणि किं ण करहि णियमणु । यह सुनकर महाकवि जाग उठा मानो समस्त कलाओंको धारण करनेवाला पूर्णिमाका चन्द्र हो। वह दिशाओंको देखता है, परन्तु वहां कुछ भी नहीं देखता, विस्मित बुद्धि जब वह अपने घरमें स्थित था, तब जो न्यायशोल है, जिसने दोनों करतल जोड़ रखे हैं, जो प्रणाम कर रहा है, जिसके यशरूपी वक्षकी जड़ें दसों दिशाओं में फैल रही है, जो श्रेष्ठ माहामात्यके वंशरूपी आकाशका चन्द्रमा हैं, जिसका मुख पूर्णिमाके चन्द्रमाके समान है, जिनके नेत्र दोर्घ कुवलयदलके समान हैं, ऐसे आये हुए भरतने घत्ता-खलोंसे व्याप्त समयमें विनय करके कुशीलमतिको रोका। जिसके द्वारा आकाशके सूने पथमें जाती हुई सरस्वतीका उद्धार किया गया ॥२।। जो अइयण (एयण या देवीयवा) देवीका पुत्र है, जिसका स्वर विजयकी दुंदुभिके स्वरकी तरह गम्भीर है, जो जिनवरके सिद्धांतरूपो भवनका आधार स्तम्भ है, जो दुःस्थित लोगोंका मित्र है, दम्भसे रहित है, मुझमें उपकार भावका निर्वाह करनेवाला है, जो विद्वानोंके संकटों और सैकड़ों भयोंका नाश करनेवाला है, जिसने अपने तेजसे सूर्यके रथको निष्प्रभ कर दिया है, ऐसे उस गवरहित भव्य भरतने कहा- "हे काव्य-पण्डित कवि, क्या तुम बेचारे ग्रहगृहीत हो (तुम्हें भूत लग गया है ), तुम कान्तिहीन और उदासीन क्यों दिखाई देते हो, ग्रन्थ रचनामें ५. A विबुद्धउ । ६. AP विभियमइ । ७. P दसदिस । ८. APणहचंदें । ९. P संवरिइ । १०. A विसण्ण सुसुण्ण । ११. P उद्धरिह । ३. १. A अइयणदेविअंब्व.; P इयणुदेवियव । २. A ववगयडिंभे । ३. AP परउवयार। ४. A°भार; P°हार ।५.Aरुय । Page #51 -------------------------------------------------------------------------- ________________ महापुराण [३८. ३.७ किं किउ काइं वि मई अवराह अवरु को वि किं विरसुम्माहउ । भणु भणु भणियउं सयलु पडिच्छविं हउं कयपंजलियरु ओहछविं । घत्ता-अथिरेण असारे जीविएण किं अप्पउ संमोहहि ।। तुहे सिद्धहि वाणीधेणुयहि णवरसखीरु ण दोहहि ॥३।। तं णिसुणेप्पिणु दरविहसंते मित्तमुहारविंदु जोयतें। कसणसरीरें सेहकुरूवें मुद्धाएविगब्भसंभूवें। कासवगोत्ते केसवपुत्तें केइकुलतिलएं सरसइणिलएं। पुप्फयंतकइणा पडिउत्तउ भो भो भरह णिसुणि णिक्खुत्तउ । कलिमलमलिणु कालु विवरेरउ णिग्घिणु णिग्गुणु दुण्णयगारउ । जो जो दीसइ सो सो दुजणु णिप्फलु णीरसु णं सुक्कउ वणु। राउ राउ णं संझहि केरउ अस्थि पयट्टइ मणु ण महारउ । उव्वेउ जि वित्थरइ णिरारिउ एक्कु वि पउ वि रएवउ भारिउ । घत्ता-दोसेण होउ त उ भणमि चोज्जु अवरु मणि थक्कउ ।। जगु एउ चडाविउं चाउं जिह तिह गुणेण सह वंकउं ॥४॥ अपना मन क्यों नहीं लगाते ? क्या मुझसे कोई अपराध हो गया है, या कोई दूसरी, उदासीनता उत्पन्न करनेवाली बात हो गयी है। कहो कहो, मैं कहा हुआ सबको स्वीकार करता हूँ। लो, यह हाथ जोड़कर तुम्हारी बात सुननेके लिए मैं बैठा हूँ। घत्ता-अस्थिर और असार जीवनसे तुम अपनेको सम्मोहित क्यों करते हो, तुम सिद्ध वाणीरूपी धेनुसे नव ( नौ | नया ) रस रूपी दूध क्यों नहीं दुहते ॥३।। १० यह सुनकर थोड़ा हंसते हुए मित्रका मुखकमल देखते हुए, कृश शरीर और अत्यन्त कुरूप मुग्धादेवीके गर्भसे उत्पन्न कश्यपगोत्रो केशवपुत्र, कविकुल तिलक और सरस्वतोके पुत्र पुष्पदन्त कविने प्रत्युत्तर दिया-हे भरत, तुम निश्चितरूपो सुनो । कलिके मलसे मैला यह समय विपरीत निर्गुण निर्गुण और दुर्नयकारक है, जो-जो दीखता है, वह दुर्जन है, वह निष्फल नीरस है, मानो शुष्कवन हो । ( लोगोंका ) राग सन्ध्याके रागकी तरह है, मेरा मन किसी अर्थमें प्रवृत्त नहीं होता, अत्यन्त उद्वेग बढ़ रहा है, एक भी पदकी रचना करना भारी जान पड़ रहा है। घत्ता-दोष होगा इसलिए नहीं कहता, मेरे मनमें दूसरा कुतूहल यह है कि यह विश्व गुणके साथ उसी प्रकार टेढ़ा है जिस तरह डोरी पर चढ़ा हुआ धनुष टेढ़ा होता है ॥४॥ ६. AP पडिच्छमि । ७. A कयपंजलि अरुहहं अच्छमि । ८. PT ओहच्छमि। ९. AP तुह । ४. १. A सुट्ठसुरूवें; P सुद्धकुरूवें । २. P कयकुल । ३. A omits सरसइणिलएं and reads उत्तमसत्तें in its place; P सरसय । ४. P adds after this | उत्तमसत्तें जिणपयभत्ते । ५. A रएंतउ । ६.Aणव । Page #52 -------------------------------------------------------------------------- ________________ -३८.६.३] महाकवि पुष्पदन्त विरचित जइ वि तो वि जिणगुणगणु वण्णेवि किह पइं अब्भत्थिउ अवगण वि । चायभोयभोउग्गमसत्तिइ पई अणवरयरइयकइमेत्तिइ । राउ सॉलवाणु वि विसेसिउ पई णियजसु मुवणयलि पयासिउ । कालिदासु जे खंधे णीय उ तहु सिरिहरिसहु तुहुँ जगि वीयउ । तुहुं कइकामधेणु कइवच्छलु तुहूं कइकप्परुक्खु ढोइयफलु । तुहुँ कइसुरवरकीलागिरिवरु तुहं कइरायहंसमाणससरु । मंदु मयालसु मयणुम्मत्तउ लोउ असेसु वि तिहइ मुत्तउ । केण वि कन्वपिसल्लउ मण्णउ केण वि थेद्ध भणिवि अवगणिउ । णिञ्चमेव सब्भाउ पउंजिउ पई पुणु विण उ करिवि हउ रंजिउ । घत्ता-धणु तणु समु मज्झु ण तं गहणु णेहु णिकारिभु इच्छेविं ।। देवीसुय सुहणिहि तेण हउं णिलइ तुहारइ अच्छवि ॥५।। महुसमयागमि जायहि ललियहि काणणि चंचरीउ रुणुरुंटइ मझु कइत्तणु जिणपयभत्तिहि बोल्लइ कोइल अंबयकलियहि । कीरु किं ण हरिसेण विसदइ। पसरइ णउ णियजीवियवित्तिहि । यद्यपि, तब भी जिनवरके गुणोंका वर्णन करता हूँ। तुमने अभ्यर्थना की है किस प्रकार उपेक्षा करूं? तुमने त्याग भोगको उद्दाम (उद्गम ) शक्ति, और निरन्तर की गयी कविकी मित्रता द्वारा, राजा शालिवाहनसे भी विशेषता प्राप्त की है। तुमने अपना यश भुवनतल पर प्रकाशित किया है, जिसने कालिदासको अपने कन्धे पर बैठाया है उस श्रीहर्षसे तुम जगमें द्वितीय हो, तुम कवियोंके लिए कामधेनु और कवि वत्सल हो, तुम कवियोंके लिए फल उपहारमें देनेवाले कल्पवृक्ष हो। तुम कवियों के लिए ( कपियोंके लिए), देवोंके क्रीड़ा पर्वत ( सुमेरु पर्वत ) हो। तुम कविराज रूपी हंसके लिए मानसरोवर हो । लोग, मन्द मदालस, कामसे उन्मत्त और तृष्णासे भुक्त हैं। किसीके द्वारा कामपण्डित माना गया, और किसीके द्वारा मूर्ख कहकर मेरी अवहेलना की गयी। लेकिन तुमने हमेशा सद्भावका प्रयोग किया और विनय करके मुझे प्रसन्न रखा। घत्ता-धन मेरे लिए तिनकेके समान है, मैं उसे नहीं लेता। मैं अकारण स्नेहका भूखा हूँ। हे देवीपुत्र शुभनिधि भरत, इसीलिए मैं तुम्हारे घरमें रहता हूँ ॥५॥ वसन्तका समय आने पर सुन्दर हुई आम्रमजरी पर कोयल बोलती है, काननमें भ्रमर रुनझुन करता है, फिर तोता हर्षसे विशिष्ट क्यों नहीं होता, मेरा कवित्व जिनवरके चरणोंकी भक्तिसे प्रसरित होता है अपनी आजीविकाकी वृत्तिसे नहीं। ५. १. P जय वि । २. A वणम्मि; P वण्णमि । ३. AP अवगण्ण मि । ४. AP सालिवाहणु । ५. APT मण्णिउ । ६. A मंदु; P थड्ढ; T वंठ जडः । ७. AP सब्भाव । ८. A तिणु । ९. AP इच्छमि । १०. AP अच्छमि । Page #53 -------------------------------------------------------------------------- ________________ महापुराण [३८. ६.४विमलगुणाहरणंकियदेहउ एउ भरह णिसुणइ पई जेहउ । कमलगंधु घेप्पेइ सारंगें णउ सालूरे णीसारंगें। गमणलील जा कय सारंगें सा किं णासिज्जइ सारंगें। सज्जणदूसियदूसणवसणे सुइकित्ति किं हम्मइ पिसुण । कहमि कम्वु वम्महसंघारणु अजियपुराणु भवण्णवतारणु । घत्ता-जिणगणरयणावलिवेयडिउ सहसवण्णसमजल ।। आहासइ गणहरु सेणियहु करहु कण्णि कहकोंडलु ।।६।। सरपंकयरयरत्तविदेहइ जंबूदीवहु पुत्वविदेहइ। सीयहि दाहिणेकूलि रवण्णउ वच्छउ णाम देसु वित्थिण्णउ । सहलारामहिं गामहिं घोसहिं दहियविरोलणमंथणिघोसहिं । पविउलपककलवकेयारहिं कणिसु चुणंतहिं जंपिरकीरहिं । घणकणगुरुभरणवियहिं धण हिं हंसहि णवबंभहरणिसण्णहिं । चंपयदेवदारुसाहारहिं कुसुमालीणभमरझंकाहिं । णचिरमुक्कमोरकेकारहिं पबलबलालवसह ढेकारहिं । महिसमेसजुज्झुच्छवमिलियहिं जो सोहइ''गंदंतहिं हलियहिं । हे भरत, जिसने शरीर पर विमल गुणरूपी आभरण धारण किये हैं ऐसा तुम जैसा व्यक्ति उसे सुनता है, कमलको गन्ध भ्रमरके द्वारा ग्रहण की जाती है सारहोन मेंढकके द्वारा नहीं । हरिणके द्वारा जो गमनलीला को जाती है, क्या वह धनुषके द्वारा नष्ट की जा सकती है। जिनका स्वभाव सज्जनोंको दूषित करना है ऐसे दुष्टके द्वारा क्या सुकविकी कीर्ति नष्ट की जा सकती है। मैं कामदेवका संहार करनेवाले और संसार रूपी समुद्रसे सन्तरण करनेवाले अजित पुराण काव्यको कहता है __ घत्ता-गौतम गणधर कहते हैं, "हे गौतम, तुम जिनवरके गुणोंकी रत्नावलीसे विड़ित शब्दरूपी स्वर्णसे समुज्ज्वल यह कथा रूपी कुण्डल अपने कानोंमें धारण करो" ॥६॥ जहां सरोवरोंके कमलरजसे पक्षियोंके शरीर धूसरित हैं जम्बूद्वीपके ऐसे पूर्व विदेहमें, सीता नदीके दक्षिण तट पर, सुन्दर वत्स नामका विशाल देश है, जो फल सहित उद्यानों, ग्रामों, दही बिलोनेकी मथानियोंके घोषवाले गोकुलों, पके हुए प्रचुर धान्यके खेतों, कण चुगते बोलते हुए शुकों, सघन दानोंसे भरे हुए नये धान्यों, नवकमलों पर बैठे हुए हंसों, चम्पक देवदारु और आम्र वृक्षों, पुष्पोंमें लीन भ्रमरोंकी झंकारों, नृत्य करते हुए मुक्त मयूरोंकी ध्वनियों, प्रबल बलयुक्त बैलोंके ढेक्कार शब्दों तथा भैंसाओं और मेढ़ोंक युद्धोत्सवमें इकट्ठे हुए प्रसन्न हलवाहोंसे शोभित है। ६. १. P एह । २. AP घिप्पइ। ३. AP वड्ढियसज्जणदूसण । ४. P सुकय । ५. AP °सुवण्णु । ६. AP कहकुंडलु । ७. १. उत्तर; K उत्तर but corrects it to दाहिण । २. A° पिक्क । ३. AP' कलम । ४. AP अण्णहिं; K धण्णहिं and gloss धान्यैः । ५. A देवदार । ६. AP कुसुमालीण । ७. AP णच्चिरमोरमुक्क। ८. P केक्कारहिं । ९. AP महिसहि मेसहिं जुज्झिवि मिलियहि । १०. P omits जो। ११. P adds णिरु after णंदंतहि । Page #54 -------------------------------------------------------------------------- ________________ -३८. ८. १३] महाकवि पुष्पदन्त विरचित घत्ता-तहिं अत्थि सुसीमा णाम पुरि सररहछण्णमहासर ॥ “णंदणवणसं ठियदेवसिरमउडरयणकर सियघर ॥७॥ परिहाजलपरिघोलिररसणहिं हिमपंडुरपायारणिवसणहिं । विविहदुवारंतरवरवयणहिं गेहगवक्खुग्घाडियणयणहिं । ●वधूमधम्मेल्लेयकसणहिं तोरणमोत्तियमालादसणहिं । लंबियचलचिंधावलिवत्थहिं ठाणमाणलक्खणहिं पसत्यहिं । मंदिरकंचणकलसयथणियहि किं वणिजइ सीमंतिणियहि । जं वण्णहुँ भेसइ वि ण सक्का सुरवइ फणिवइ अवरु वि सक्कइ। अस्थि विमलवाहणु तहिं राणउ जर्से विहवेण ण सक्कु समाणउ । जसु सोहग्ग वम्महु भज्जइ तेण अणंगत्तणु पडिवज्जइ । जसु वइवसुवसु दंडहु संकइ तेयहु तरणि तवंतु चवकइ । पडिगयभडथड भड भंजंतहु तासु णरिंदलच्छि भुंजंतहु । जाणियसारासारविवेयउ एक्कहिं दिणि जायउ णिवेयउ । घत्ता-पुरु परियणु हय गय रह सधय अंतेउरु अवगणिवि ।। सीहासणछत्तई चामरइं गउ सयेलई तणु मण्णिवि ।।८।। घत्ता-उसमें सुसीमा नामकी नगरी है जिसके सरोवर कमलोंसे आच्छन्न हैं, तथा लक्ष्मीगृह नन्दनवनोंमें बैठे हुए देवोंके सिरोंके मुकुटोंकी किरणोंसे युक्त हैं ।।७।। परिखाके जलोंकी शब्द करनेवाली करधनियों, हिमकी तरह स्वच्छ प्राकार रूपी वस्त्रों, विविध द्वारोंके अन्तररूपी मुखों, घरोंके झरोखों रूपो उघड़े हुए नेत्रों, धूपके धुओं रूपो केशपाशोंसे काले तोरणोंकी मुक्तामालाओंके दांतों, लम्बे चंचल ध्वजोंको आवलियोंके वस्त्रों, स्थान और मानके प्रशस्त लक्षणों, मन्दिरोंके स्वर्णकलशोंके स्तनों वाली उस नगरी रूपी सोमंतिनी ( नारी)का क्या वर्णन किया जाये, जिसका वर्णन बृहस्पति भी नहीं कर सकता, देवेन्द्र नागराज और दूसरा कोई भी वर्णन नहीं कर सकता। उस नगरीमें विमलवाहन नामका राजा है, इन्द्र भी उसके वैभवके समान नहीं है, जिसके सोभाग्यसे कामदेव भग्न हो जाता है इसीलिए उसके द्वारा अंगहीनत्व धारण किया जाता है, जिसके दण्डसे यमकी सेना डर जाती है, जिसके तेजसे सूर्य चमकता रहता है, शत्रुओंके हाथियों और योद्धाओंके समूहको नष्ट करते हुए तथा राजलक्ष्मीका भोग करते हुए उसे जिसमें सार और असारका विवेक जान लिया गया है, ऐसा वैराग्य एक दिन हो गया। घत्ता–पुर परिजन अश्व गज ध्वज सहित रथ और अन्तःपुरकी उपेक्षाकर, तथा समस्त सिंहासनों छत्रों चामरोंको तिनकेके बराबर समझकर चला गया ।।८।। १२. P महासरि । १३. P°वणमंडिय कसहिं । १४. AP°देवसिरि मउड । १५. P सियधरि । ८. १. P धूपं । २. AP धम्मेल्लहिं । ३. P रायमाणं । ४. A जसु विहवें सक्कु वि ण समाणउ । ५. PT वइवसुपसु । ६. A चमक्कइ; P चमुक्कई । ७. Pघडथई। ८. A सिंहासण; P सिंघासण । ९. AP सयल वि तिणु । Page #55 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ५ १० गुरुचरणारविंदु से वेपिणु वीययवयण विणोयउ अप्पा तिहिं गुत्तिर्हि भावेई वेजीवञ्च करइ मुणिण हहं धम्मु अहिंसालक्खणु अक्खइ आगच्छंतुवसग्गु समिच्छइ दंसमसय सुडसंत ण साइ दंसणसुद्धिविणउ आराहइ विर्कहउ ण कहइ ण रुसइ ण हसइ णाणु निरंतरु तेणब्भसियड एम घोरु तवचरणु चरेष्पिणु घत्ता महापुराण ९. जाय परमभिक्खु तर लेपिणु । पालइ पंचमहव्वयमायड | तेत्तीसंबुहिउपमाणइ किं वण्णैविं पुण्णेणुष्पपर्णेउ जेंवइ णिसिहि ण सोवइ । बालहं वुड्ढहं रुयहय देहह । मित्त वित्त विसमै जि णिरिक्खइ | लंबियकरु उर्भुब्भर अच्छइ । सप्प व लग्ग देहि णउ फेडइ । सहइ परीसह इंदिय साहइ | भीणि णिज्जणि काणणि णिरसइ | कम्मु अहम्मकार संपुसियउ । तित्थयरत्तु णाउं बंधेपिणु । - तेलोक्कचक्कसंखोहणई सुहकम्माई समज्जिवि ॥ मुमुणिवरुणिरसणविहि करिवि चित्तु समत्ति णिउंजिवि ||९|| १० [ ३८. ९.१ पंचाणुत्तर विजयविमाणइ | हत्थमेत्तणु ससहरवण्णउ । ९ गुरुके चरण-कमलों की सेवा कर वह तप ग्रहण कर परम भिक्षु हो गया । वह वीतरागके वचनोंसे ज्ञात, पाँच महाव्रतोंकी पांच-पाँच भावनाओं का पालन करता है, वह स्वयंको तीन गुप्तियोंसे भावित करता है, नीरस भोजन करता है, रात में नहीं सोता है । रोगसे जिनका शरीर आहत है ऐसे बाल और वृद्ध मुनिस्वामियोंकी वैयावृत्य ( सेवा ) करता है, अहिंसा लक्षणवाले धर्मकी व्याख्या करता है, जो मित्र और शत्रुको समानरूपसे देखता है, आते हुए उपसर्गकी सहन करता है, हाथ ऊपर कर खड्गासन में स्थित रहता है । काटते हुए डांस और मच्छरोंको नहीं भगाता, शरीर पर लगे हुए साँपको भी नहीं हटाता, दर्शनविशुद्धि और विनयको आराधना करता है, परीषहों को सहन करता है, और इन्द्रियोंको सिद्ध करता है, विकथा नहीं कहता, न क्रोध करता है और न हँसता है, भीषण और निर्जन काननमें निवास करता है। इस प्रकार उसने निरन्तर ज्ञानका अभ्यास किया, और अधर्म करने वाले कर्मको नाश कर दिया इस प्रकार घोर तपश्चरण कर तीर्थंकर प्रकृतिका बंधकर । घत्ता - त्रिलोकचक्रको क्षुब्ध करनेवाले शुभ कर्मोंका अर्जनकर, अनशन विधिकर और चित्तको सम्यक्त्वमें नियोजित कर वह मृत्युको प्राप्त हुए ||९|| १० तैंतीस सागर आयु प्रमाणवाले पांचवें विजयनामक अनुत्तर विमानमें वह उत्पन्न हुए । पुण्य से उत्पन्न उनका क्या वर्णन करूं, उनका एक हाथ प्रमाण शरीर चन्द्रमाके रंगका प्रतिकार९१. P विष्णायउ । २. A गोवइ । ३ AP जेमइ । ४. AP विज्जावच्चु । ५. AP समु । ६. P उब्भब्भउ । ७. AP झाडइ । ८. A विकहउ कहइ ण हसइ ण रुसइ । ९. AP अणसण | १०. १. A तसं । २. AP पंचाणुत्तरि । ३ AP वण्णमि । ४. A पुण्णेण पउण्णउ; P पुण्णेणु पण । ५. AP हत्यमेत्तु तणु । Page #56 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १० -३८.११. ४] महाकवि पुष्पदन्त विरचित णिप्पडियारउ गिरहंकारउ भूसणहरु अहमिदभडारउ । णियवासहु वासंतरु ण सरइ उत्तरवेउविउ वउ ण करइ । सीहासणि सुणिसण्णउ अच्छइ ओहिइ तिजगणाडि संपेच्छइ । लेइ मणेण भक्खु छुह णासहि सो तेत्तीसहिं वरिससहासहिं । णिग्गयदइयंधवणणिहदुक्खहिं णीस सेइ तेत्तियहिं जि पक्खहिं । छम्मासाउसु वट्टई जइयहु सोहम्मिदें जाणिउ तइयहु । सो अहमेमराहिउ आवेसई जियसत्तहि घरि जिणवरु होसइ । इम चिंतेवि भणिउ जक्खाहिउ धरणीगयणिहाणलक्खाहिउ । जंबूदीवभरह उज्झाउरि धणय कणयमयणिलयण लहु करि । घत्ता-ता णयरि कुबेरें णिम्मविय कंचणभवणविसेसहिं ।। सरिसरवरउवेवणजिणहरहिं "पहचच्चरविण्णासहिं ॥१०॥ ११ आयउ देविउ इंदाएसें पुरवरु माणवमाणिणिवेसें। सिरिहिरिदिहिमइकंतीकित्तिउ विजयादेविहि सेव करंतिउ । तणुसंसोहणगुणसंजोये हिं. थक्कउ णाणाविहिहिं विणोयहि । गब्भि ण थंतहु अमरवरिट्ठउ वसुधारहिं वइसवणु वरिट्ठउ । से रहित और निरहंकार, भूषण धारण करनेवाला आदरणीय अहमेन्द्र । वह अपने निवासविमानसे दूसरे विमान में नहीं जाता। उसका शरीर प्रतिशरीर उत्पन्न नहीं करता। वह अपने सिंहासनपर स्थित रहता । अवधिज्ञानसे वह तीनों लोकोंकी नाड़ीको देखता, वह भूख नष्ट करनेके लिए तैंतीस हजार वर्ष में मनसे आहार ग्रहण करता और धमनीके समान दुःखसे रहित तैंतीस पक्षमें एक बार श्वास लेता। जब उसकी छह माह आयु शेष रह जाती है तब सौधर्म स्वर्गके इन्द्रके द्वारा जान ली गयी। वह अहमेन्द्रराज आयेगा और जितशत्रुके घर जिनवर होगा। यह विचारकर ( इन्द्रने ) धरतीपर स्थित लाखों निधानोंके स्वामी कुबेरसे कहा, 'हे धनद, जम्बूद्वीपके भरतक्षेत्रकी अयोध्यानगरीमें स्वर्णमय प्रासादका निर्माण करो।' घत्ता-तब कुबेरने नगरीका विशेष कंचन भवनों, नदियों, सरोवरों, उपवनों, जिनघरों, पथों और चत्वरोंकी रचनाओंसे निर्माण कर दिया ॥१०॥ इन्द्र के आदेशसे मानवोंकी मानवियोंके वेश देवियाँ नगरवरमें आयीं। श्री, हो, धृति, कान्ति, कीर्ति और विजयदेवो सेवा करने लगीं। शरीरके संशोधनों और गुणों के उत्पादनों और नाना प्रकारके विनोदोंके साथ वे स्थित हो गयीं। उनके गर्भ में स्थित नहीं होते हुए भी अमर श्रेष्ठ ६. AP अहमिदु । ७. P भिक्खु । ८. A तेतीसहिं । ९. P°दयिधवण । १०. P adds वि after णीससे।। ११. A P वड्ढइ । १२ A P सो लहु अमराहिउ । १३. A P आएसइ। १४. A जंबूदीवे भरहे उज्झा'; P जंबूभरहदोउ उज्झा । १५. P°णिलयह लह । १६. P°जिणहर उववणेहि । १७. A अइरमणीयपएसहिं।। ११.१. P आइउ । २. P संजोवहिं। ३. Pणाणविहिहिं। ४. A गब्भेच्छंतह; P गब्भि ण छतउ। २ Page #57 -------------------------------------------------------------------------- ________________ महापुराण [३८. ११. ५सुहदंसणि णियमणि संतुट्ठउ जा छम्मासहिं ता परिउटेउ। पल्हत्थंतु णिहाणई दिट्ठउ। णरवप्रंगणि दविणु ण माइउं सयलहं दीणाणाहह ढोइउं । पवरिक्खाउससंभूयहु वम्महरूवपरज्जियरुवहु । विजयदेवि णं चंदह रोहिणि जियसत्तुहि णरणाहहु गेहिणि । अहिणवसयदलकोमलगत्ती । हंसवणि पल्लकि पसुत्ती। घत्ता-परमेसरि णिसि पच्छिमपहरि एक्केक्कउ जि समिच्छइ ।। णिहालसवस मउलियणयण सोलह सिविर्णय पेच्छइ ॥११॥ १२ मउल्लल्लगंडं पमत्तं पयंडं । गिरिंदप्पमाणं गयं गज्जमाणं। धरित्ती खणंतं विसं ढेकरंतं । हयारिंदपक्खं हरिं तिक्खणक्खं । करिंदाहिसित्तं सिरिं पोमवत्तं । सयामोयधाम णवं पुप्फदाम। सुहं सेयभाणं दिसुब्भासिभाणुं । सिणिद्धं समाणं दहे कीलमाणं । रईलीलयाणं जुयं मीणयाणं । वरं वारिपुण्णं सियंभोयछण्णं। १० कुबेर धनकी धाराओंमें बरस गया। शुभदर्शनसे अपने मनमें सन्तुष्ट जब छह माह हो गये, तब वह परितुष्ट हो गया। निधान फैलता हुआ दिखाई दिया। राजाके आंगनमें धन नहीं समाया, समस्त धन दीनों और अनाथोंके लिए दे दिया गया। महान् इक्ष्वाकु कुलमें उत्पन्न कामदेवके रूपको अपने रूपसे पराजित करनेवाले राजा जितशत्रुकी गृहिणी विजयादेवी उसी प्रकार थी जिस प्रकार चन्द्रमाकी रोहिणी, जो अभिनव शतदलके समान कोमल शरीरवाली थी। हंसके रंगकी वह पलंगपर सो रही थी। पत्ता-रातके अन्तिम प्रहर में नींदसे अलसायी आंखें बन्द किये हुए वह परमेश्वरी सोलह सपने देखती है और एक-एककी समीक्षा करती है ।।११।। १२ मदसे गीले गण्डस्थलवाला प्रमत्त प्रचण्ड पहाड़ जैसा गरजता हुआ महागज, धरती खोदता हआ. तथा फेक्कार करता हआ वषभ, शत्रपक्षको नष्ट करनेवाला, तीखे नखोंवाला सिंह, गजेन्द्रोंके द्वारा अभिषिक्त कमलपत्रोंवाली लक्ष्मी, सदैव आमोद प्रदान करनेवालो नव पुष्पमाला, शुभ्र चन्द्र, दिशाओंको उद्भासित करनेवाला सूर्य, सरोवरमें क्रीड़ा करता हुआ रतिक्रीड़ासे युक्त मत्स्योंका स्निग्ध जोड़ा, जलसे भरित और श्वेत कमलोंसे आच्छादित घड़ोंकी शोभा ५. A परिवुठ्ठउ but corrects it to परितुट्ठउ; P परिवुठ्ठ; T परिउट्ठउ । ६. A P add after this : घणु जिह पुणु वरिसंतु अणिठ्ठउ । ७. A P"पंगणि । ८. A सविणय; P सिविण । १२.१. P पोम्मवत्तं । Page #58 -------------------------------------------------------------------------- ________________ -३८. १३. ५ ] महाकवि पुष्पदन्त विरचित रमारामरम्म घडाणं च जुम्म। लयापत्तणीलं विउद्धारणालं । मरालालिरोलं सरं सारसालं। जलुल्लोलमालं महामच्छबालं। गहीरं रवालं समुददं विसालं। पहारिद्धिरूढं मइंदढपीढं। णहे धावमाणं सुराणं विमाणं । धरारंधणित्तं पसत्थं पवित्तं । जसेणुण्णयाणं घरं पण्णयाणं। गयासामऊहं मणीणं समूह। सिहाली,लंतं हुयासं जलंतं । घत्ता--इय सिविणयपंति मणोहरिय जोइवि सीलविसुद्धइ ॥ सुविहाणइ रायहु पन्जरिय सुत्तविउद्धइ मुद्धइ ।।१२।। पहुणा विहसिवि गुणगणवंतहि सिविणयफलु विण्णासिउ कंतहि । होही तुह सुउ जियवम्मीसरु तिहुयणगुरु तिणाणजोईसरु । तासु विमलवाहणअहमिंदहु आउ पउण्णउ बुहयणचंदहु । कुंजरवेसें नृवरामाणणि झत्ति पइट्ठउ णं दिणयरु घणि । गब्भि परिट्ठिउ जिणु जगमंगलु उट्ठिउ घरि सुरसंथुइकलयलु । समूहसे युक्त जोड़ा, लतापत्रोंसे हरा, खिले हुए कमलोंसे युक्त, सारसोंका घर सरोवर, उछलती हुई, जलतरंगोंसे सहित महामत्स्योंका पालक शब्दमय विमल शरीर समुद्र, प्रभाके वैभवसे भरपूर सिंहासनपीठ, आकाशमें दोड़ता हुआ देवताओंका विमान, धरतीके बिलसे निकलता हुआ पवित्र प्रशस्त तथा यशसे उन्नत नागोंका समूह, दिशाओं में फैली हुई किरणोंवाला मणिसमूह, तथा ज्वालाओंमें जलती हुई आग। घत्ता-इस प्रकार स्वप्नावली देखकर, शीलसे विशुद्ध सुन्दर मुग्धा विजयादेवी सबेरे सोकर उठी। उसने राजासे कहा। ॥१२॥ १३ राजाने हंसकर गुणगणसे युक्त कान्ताको स्वप्नोंका फल बताया-"तुम्हारा कामदेवको जीतनेवाला त्रिभुवनका गुरु तीन ज्ञानोंका धारक योगीश्वर पुत्र होगा।" बुधजनोंके चन्द्र उस विमलवाहन अहमेन्द्रकी आयु पूर्ण हो गयी। वह शीघ्र गजरूपमें रानीके मुख में इस प्रकार प्रवेश कर गया मानो सूर्यने बादलोंमें प्रवेश किया हो। विश्वका कल्याण करनेवाले जिन गर्भमें आये २. A P विबुद्धा । ३. P°णेत्तं । ४. A सिहालीपलित्तं; P सिहालीवलत्तं, but T सिहालीचलंतं । ५. P विउट्ठइ । १३. १. A P add after this : जेट्ठहु मासहु पक्खि अचंदणि ( P पक्खियचंदिणि ), मावसदिणि ससहरि थियरोहिणि । २.A Pणिव । Page #59 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १२ महापुराण [ ३८.१३. ६णच्चि उ णवरसालु तियसेसरु अहिणंदिउ जियसत्तु णरेसरु । तासु घरंगणि वण्णविचित्तई रयणई पुणु णवमास णिहित्तई । धणयाएसें जक्खकुमारिहिं घोसियसुमहुरसाहुँ कारिहिं । कामकोहमयमोह विहंजणि णिव्वुइ रिसहजिणिदि णिरंजणि । जलणिहिसमहं कालपरिवाडिहिं जा पण्णासलक्खु गय कोडिहिं। घत्ता-ता माहमासंसियदसमिदिणि बीयउ सिवपयगामिउ ।। तित्थंकर णाणत्तयसहिउ उप्पण्णउ जगसामिउ ॥१३॥ १४ उप्पण्णइ जिणि आऊरिय घर केहिं वि समुग्गय जयघंटारव । कहि वि मइंदणिणाय सुभइरव कहिं वि समुग्गय जयघंटारव । आसणकं विम्हावियमइ कंपिउ अहिवइ महिवइ सुरवइ। दसणकमलसरणच्चियसुरवरि मयजलमिलियघुलियबहुमहुयरि । सयमहु मुणिमहसयणिव्वूढउ अइरावणि वारणि आरूढउ। भंभाभूरिभेरिसंघाहिं वज्जंतहिं वाइतँणिणायहिं । जिणकमकमलजुयलसंगयमणु सवहु सवाहणु सधउ सपहरणु । सोमभीमभूसाभाभासुर चलिय हरि सरसरसिर सुरासुर । कोसलणयरि झड त्ति पराइय परियंचेवि तिवार घरु आइय । और घरमें देवताओंकी स्तुतिका कल-कल शब्द होने लगा। इन्द्रने अत्यन्त मधुर नृत्य किया, उसने राजा जितशत्रुका अभिनन्दन किया। नौ माह तक उसके घरमें रत्नोंकी वर्षा होती रही। जिन्होंने साधुकारकी घोषणा की है ऐसी यक्ष-कुमारियोंने रंगबिरंगे रत्नोंकी वर्षा कुबेरके आदेशसे की। काम, क्रोध, मद और मोहका नाश करनेवाले ऋषभ जिनेन्द्रके निर्वाणको प्राप्त होनेके बाद, पांच लाख करोड़ वर्ष बीत जाने पर घत्ता-माघ माहके शक्लपक्षकी दसमीके दिन शिवपदगामी तीन ज्ञानके धारी विश्वके स्वामी द्वितीय तीर्थकर अजितनाथका जन्म हुआ ।।१३।। अजितनाथ जिनके उत्पन्न होनेपर धरती आपूरित हो उठी। कहींपर जय-जय और घण्टोंके शब्द होने लगे, कहीं भयंकर सिंहनाद शब्द हो रहा था, कहीं जयघण्टारव उठा, आसनके कम्पायमान होनेसे जिसकी बुद्धि विस्मित है ऐसे नागराज, पृथ्वीराज और देवराज कांप उठे, जिसके दांतोंपर स्थित सरोवरके कमलपर देववर नृत्य कर रहे हैं, जिसके मदजलसे आकृष्ट होकर अनेक भ्रमर गुनगुना रहे हैं, ऐसे ऐरावत महागजपर, तीर्थंकरोंके अभिषेकका निर्वाह करनेवाला इन्द्र आरूढ़ हो गया। भम्भा और प्रचुर भेरियोंके समूहों, बजते हुए वाद्योंके निनादोंके साथ, जिनवरके चरणकमल युगलमें संगतमन अपनी वधू, वाहन, ध्वज और अस्त्रोंके साथ, सौम्य विशाल भूषाको आभासे भास्वर, प्रेमसे शब्द करते हुए इन्द्र, सुर और असुर चले। वे शीघ्र ही अयोध्या नगरी पहुंचे, तीन परिअर्चनाएं कर वे घरमें आये। ३. A°कुमारहिं । ४. A °साहुक्कारहिं। ५. A°लक्ख । ६. A°मासि। ७. A सिवपुर । ८. A तित्थंकर । १४. १. A P कहि मि । २. A विभावियं । ३. P भंभाभेरिपडह। ४. P वायत्त । Page #60 -------------------------------------------------------------------------- ________________ महाकवि पुष्पदन्त विरचित घत्ता - पण वेष्पिणु पियरई आयरिण सहसा चित्ति वियैप्पिउ || माहि माइ सुरवरहिं मायाबालु सैमप्पि ||१४|| १५ - ३८. १६. २ ] जगगुरु लेवि देव गय तहिं सीहोसण णिहिउ भडारउ इंदजल जमणेरियवरुणह आवाहण करेवि पोमाइवि अमरपंति अवितुट्टै करेपिणु किसलयछण्ण कलस उच्चाइवि देविंदहिं जिणंदु अहिसिंचिड देवं वत्थ परिहाविउ भूसिउ भूसणेहिं साणंदें घत्ता -जाएण जेण जसु बंधुयणु कीलासु वि अविसंकिउ ॥ बहिरंत रंगवइरिहिं ण जिउ अजिउ तेण सो कोक्किउ || १५|| णमो जिणा कर्यतपासणासणा णमो कसायसोयरोयवज्जिया सुरगिरिपंडुसिलायलु जेतहि । मयणबाणसं तार्णेणिवारउ । पवणघणयभवस सिखर किरणहं । जण्णभाउ सब्भावें ढोइवि । णीरु खीरेंमयरहरि भरेपिणु । मंतु पणवसाहा संजोइवि । कुवलयकमलकयंबहिं अंचिउ । देउ दिव्वगंधेहिं विलेविड । णामकरणु विरइउं देविंदें । १६ णमो विसुद्ध बुद्ध सिद्धसासणा । णमो फणिंदेचंदबिंदपुज्जिया । १३ ५. P वियप्पियउ । ६. P समप्पियउ । १५. १. ATP सिंहासणि । २. A संता । ३. P अविरुड्ढ । ४. P खीरु । ५. A देव । १६. १. A P विसुद्धबुद्धि सिद्धसासणा । २. AP फणिदइंदचंदपुज्जिया । १० घत्ता-माता-पिताको आदरसे प्रणाम कर सहसा देवेन्द्रने अपने मनमें विचार किया और मायासे निर्मित कृत्रिम बालक जिनवरकी माताको दे दिया || १४ || ५ १५ विश्वगुरुको लेकर देवता वहां गये, जहाँ सुमेरु पर्वतपर पाण्डुक शिला थी, वहाँ कामदेवके बाणोंका सन्ताप दूर करनेवाले भट्टारक जिनवरको रख दिया । इन्द्र, अग्नि, यम, नैऋत्य, वरुण, पवन, धनद, शंकर, चन्द्र और सूर्यका आह्वान कर संस्तुति की ओर सद्भावसे यज्ञ पूरा कर अविच्छिन्न देवपंक्ति निर्मित कर, क्षीरसागरसे जल भरकर, किसलयोंसे आच्छादित कलशोंको ऊपर कर, 'ओम् स्वाहा' कहकर, नीलकमलोंसे युक्त जलसे देवेन्द्रोंने जिनेन्द्रदेवका अभिषेक किया तथा उन्हें दिव्य वस्त्र पहनाये । दिव्य गन्धोंसे लेप किया, देवेन्द्रने आनन्दपूर्वक अलंकारोंसे उन्हें भूषित किया, तथा उनका नामकरण संस्कार किया । घत्ता - जिसके उत्पन्न होनेसे जिसके बन्धुजन कीड़ाओंमें शंकाविहीन हो उठे और जो बहिरंग तथा अन्तरंग शत्रुओंसे नहीं जीते जा सके इसलिए उन्हें 'अजित' कहकर पुकारा गया ।। १५ ।। १० १६ यमके पाशको काटनेवाले हे जिन आपको नमस्कार हो, हे सिद्धबुद्ध और सिद्धशासन आपको नमस्कार हो, कषाय समूह और रोनासे रहित आपको नमस्कार हो; नागेशों चन्द्रोंके समूह से Page #61 -------------------------------------------------------------------------- ________________ महापुराण [ ३८. १६. ३णमो अदीणकामबाणवारणा णमो महाभवंबुरासितारणा। णमो विसालमोहजालछिदणा णमो जियारिरायरायणंदणा । णमो णिहित्तसुण्णवाइवासणा णमो अणेयमेयभावभासणा। णमो गयालसालसीलभूसणा णमो पसण्ण दिण्णरोसदसणा। णमो विमुक्कदिव्वघोसणीसणा णमो रिसी तवोविहीपयासणा। णमो अणंतसंतसम्मभावणा णमोरहंत मोक्खमग्गदावणा। घत्ता-इय वंदिवि अमराणंदियहि गंदणवणसुच्छायहि ॥ आणेप्पिणु उज्झहि परमजिणु इंदें अप्पिउ मायहि ॥१६॥ १० कालें जंतें जायउ पोढउ जयवइणवजोव्वणि आरूढउ । का वि णारि आलिंगण मग्गइ क वि कामाउर पायहि लग्गइ। का वि कुमारि भणइ मइं परिणहि विरहु भडारा किं तुहं ण मुणहि । एक्कसु देहि दिट्ठि सुहगारी जा जीवमि ता दासि तुहारी। इय णारीयणु होतु रसिल्लउ कामासत्तउ कामगहिल्लउ । रक्खहि देवदेव णियसंग मारिज्जंतु वराउ अणंगें 1 पिउणा सुरवइणा घरु गंपिणु पत्थिउ जिणकुमारु पणवेप्पिणु । पूज्य आपको नमस्कार हो, अदीन काम बाणोंका ध्वंस करनेवाले आपको नमस्कार हो, हे निर्भय आपको नमस्कार, महासंसाररूपी समुद्रसे तरनेवाले आपको नमस्कार, विशाल मोहरूपी जालका छेदन करनेवाले आपको नमस्कार, जितशत्रुके पुत्र आपको नमस्कार; शून्यवादी विचारधाराको समाप्त करनेवाले आपको नमस्कार, अनेक भेदों और भावोंका कथन करनेवाले आपको नमस्कार, आलस्यसे रहित, और शीलसे भूषित आपको नमस्कार, प्रसन्न और क्रोधरूपी दूषणको दूर करनेवाले आपको नमस्कार, दिव्यध्वनिका शब्द करनेवाले आपको नमस्कार, तपकी विधिके को नमस्कार, अनन्त शान्त और समभाववाले आपको नमस्कारः मोक्षमार्गके अर्हन्त आपको नमस्कार । पत्ता-इस प्रकार वन्दनाकर, इन्द्रने, नन्दनवनके समान शोभा धारण करनेवाली अयोध्यामें आकर जिनेन्द्रदेवको उनको माताके लिए अर्पित कर दिया ॥१६।। समय बीतनेपर वे प्रौढ़ हो गये। विश्वपति अजितनाथ नवयौवनमें स्थित हो गये। कोई नारी आलिंगन मांगती है, कोई कामातुर होकर पैरोंसे लगती है, कोई कुमारी कहती है कि "मुझसे विवाह करो। हे आदरणीय क्या आप विरहको नहीं समझते। एक सौभाग्यशाली दृष्टि दीजिए, मैं जीवित नहीं रहूँगी, तुम्हारी दासी हूँ। इस प्रकार रसमय कामसे आसक्त और कामसे गृहीत होते हुए, कामदेवसे मारे जाते हुए नारीजनकी हे देवदेव अपने संगसे रक्षा कीजिए" इस प्रकार पिता और इन्द्रने घर जाकर जिनकुमार अजितको प्रमाणकर निवेदन किया। किसी ३. A P°दिण्णदोस । ४. A P°संतसोमभावणा । ५. A णमो अरहंत । १७. १. A एक्क सुदिठि देहि सुहगारी; P एक्क सदिठि देहि सुहगारी। २. A P add after thia:; कुमरतें ( P कुमरत्ति ) पुणु कालु सुहासिउ, पुश्व अट्ठदहलक्ख पणासिउ । Page #62 -------------------------------------------------------------------------- ________________ -३८. १८.९ ] महाकवि पुष्पवम्त विरचित कह व कह व मड़ई इच्छाविउ कण्णासहसहि पँहु परिणाविउ । सुसिरु तंति घणु पुक्खरु वज्जइ जहिं तुंबुरुणा सुसरउ गिजइ । जहिं ऊवसिरंभहि णञ्चिज्जइ अणवैमरसविसेसु संचिज्जइ । घत्ता-जहिं मंगलदम्वविहत्थियहिं उरघोलिरहारमणिहिं॥ आवंतिहिं जतिहिं सुललियहिं छेउ णत्थि सुररमणिहिं ॥१७॥ १८ जहिं उवमाणउ किं पि ण दिजइ तं उच्छउ मई किं वणिजइ । सम्वतित्थपरिपुण्णहिं कलसहिं मुणिवंयणहिं णं वियलियकलुसहिं । खीरतुसारतारणित्तारहिं । जित्तविलासिणिमोत्तियहारहिं। कोमलकिसलयछाइयवत्तहिं विसहरसरणरखयरुक्खित्तहिं । मंगलघोसविलासविसेसहिं तियसिंदहिं मिलेवि पुहईसहिं । किउ रज्जाहिसेउ सूर्यसेवहु बधु णिलाडि पट्टु तहु देवहु । महि मुंजंतह पीणियभव्वहुं एक्कुणवीस लक्ख गय पुव्वहं । एक्कहिं दिणि णरणियरणिरंतरि । अच्छंतें अत्थाणब्भंतरि । वसुवइवसुमइकंताकतें रयणिहि गयणभाउ जोयंते । प्रकार बलपूर्वक इच्छा उत्पन्न करके प्रभुका एक हजार कन्याओंसे विवाह कर दिया गया जहां सुषिर, तन्त्री, धन और पुष्कर वाद्य बजाये जाते हैं और तुम्बिरके द्वारा सुसरस गान किया जाता है, जहां उर्वशी और रम्भाके द्वारा नत्य किया जाता है। इस प्रकार बिना नौवें रस (शान्त) के बिना रस विशेष संचित किया जाता है। पत्ता-जहां, जिनके हाथमें मंगल द्रव्य हैं और वक्षपर हारमणि हिलडुल रहे हैं ऐसी आती जाती हुई सुन्दर सुर रमणियोंका अन्त नहीं है ।।१७।। जिसका कोई भी उपमान नहीं दिया जा सकता, ऐसे उस उत्सवका मेरे द्वारा क्या वर्णन किया जा सकता है ? मुनि वचनोंके समान कालुष्य (पाप-कलुषता) से रहित, क्षीरकी तरह हिमकणोंसे निरन्तर भरपूर, विलासिनियोंके मोतियोंके हारको जीतनेवाले, कोमल किसलयवाले, पत्तोंसे आच्छादित, नागों, देवों और मनुष्यों एवं विद्याधरोंके द्वारा उठाये गये, सब तीर्थोसे परिपूर्ण कलशोंसे, मंगलघोषों और विलासोंसे विशिष्ट, देवों देवेन्द्रों और पृथ्वीशोंने, लक्ष्मीके द्वारा सेवित देवका राज्याभिषेक किया और उनके ललाटपर पट्ट बांध दिया। भव्योंको प्रसन्न करनेवाले और धरतीका भोग करनेवाले उन्नीस लाख पूर्व समय बीत गया। एक दिन मनुष्य-समूहसे भरपूर दरबारके मध्य बैठे हुए धरती और लक्ष्मीके स्वामी रात्रिमें आकाश मार्गमें, ३. A मंडइ; P मडइ। ४. P सहु। ५. A P अणुवम'; T अणुवम but the meaning given is शान्तरसरहितः । १८. १. A P Q मुणि । २. P जिणिवि विला। ३. A कमलकिसलयच्छाइय'; P कमलहिं किसलय छाइयं । ४. A सुरसेवह; P सियसेवहु । ५. A एक्कुणलक्खवीस गय; P तयपंचास लक्ख गय । ६. P अच्छा जा अत्याण । Page #63 -------------------------------------------------------------------------- ________________ महापुराण [३८. १८.१०पत्ता-ता तेण दीह ससहरधवल उक्क पडंती दिट्ठिय ।। णं णहसिरिकंठहु परियलिय चलमुत्ताहलकंठिय ॥१८॥ १९ पेच्छंतहु सा तहिं जि विलीणी ईसमणीस समासमलीणी। गयणुम्मुक्क उक्क गय जेही अथिर गरेसरसंपय तेही । लग्गमि णिरवज्जहि मुणिविज्जहि पभणइ सामि जामि पावज्जहि । छणि छणि जडयणु किं हरिसिज्जहि आउ वरिसवरिसेणे जि खिज्जइ। जीय भणंतहं विहसइ तूसइ । मैर पभणंतहं रंजइ रूसइ । ण सहइ मरणह केरउ णाउं वि: पहरणु धरइ फुरइ णित्थाउ वि । कालि महाकालिहिं घरु ढुक्कइ मज्जु मासु ढोवंतु ण थक्कइ । जोइणीहिं को किरै रक्खिज्जइ पीडिवि मोडिवि काले खज्जइ। खयकालहु रक्खंति ण किंकर मय मायंग तुरंगम रहवर । खयकालहु रक्खंति ण केसव चक्कवट्टि विज्जाहर वासव । होइ विसूई संप्पं घेप्पई दाढिविसाणिमृगहि दारिजइ । जलि जलयर थलि थलयर वइरिय णहि णहयर भक्खंति अवारिय । तो वि जीउ जीवेवेइ वंछइ लोहें मोहें मोहिउ अच्छइ । घत्ता-चन्द्रमाके समान धवल लम्बी उल्का गिरते हुए देखी मानो आकाशरूपी लक्ष्मीकी मोतियोंकी चंचल कण्ठी गिर गयी हो ॥१८॥ १९ देखते-देखते वह उल्का वहीं विलीन हो गयी । भगवान् की बुद्धि उपशमको प्राप्त हुई। वह विचार करने लगे कि जिस प्रकार आकाशसे च्युत उल्का चली गयी, उसी प्रकार नरेश्वरकी सम्पत्ति अस्थिर है। मैं निरवद्य मुनिविद्यामें लगूंगा। स्वामीने कहा कि मैं प्रव्रज्याके लिए जाता हूँ। मूर्खजन क्षण-क्षणमें क्यों प्रसन्न होता है ? आयु साल-सालमें क्षीण-क्षीण होती है। 'जियो' कहने वालों पर ( जीव ) हंसता है और सन्तुष्ट होता है, मरो कहने वालों पर गजंता है और रुष्ट होता है ? वह मरणका नाम भी सहन नहीं करता। दुर्बल होते हुए भी प्रहरण धारण करता है, स्फुरित होता है । काली और महाकालीके घर पहुंचता है। और मद्य मांस ले जाते हुए नहीं थकता । योगिनियोंके द्वारा किसको रक्षा की जाती है, कालके द्वारा पीडित कर और र खा लिया जाता है। अनुचर क्षयकालसे नहीं बचा सकते। मत्तमातंग तुरंग और रथवर भी। क्षयकालसे केशव चक्रवर्ती विद्याधर इन्द्र भी रक्षा नहीं करते । विशूचिका होता है और सांपके द्वारा ग्रहण किया जाता है। दाढ़ी और सींगवाले पशुओंके द्वारा विदीर्ण कर दिया जाता है। जल में जलचर और थल में थलचर उसके दुश्मन हैं, आकाशमें आकाशचर जीव खा लेते हैं विना किसी देरके । तब भी जोव जीनेको इच्छा रखता है, और लोभ तथा मोहसे मोहित रहता है। ७. A तो। १९. १. P पव्वजहि । २. A P वरिसु वरिसेण । ३. A मरण भणंतह: P मरु पभणंतहं । ४. A किर को रक्खिज्जइ; P कि किर । ५. A संपेसिज्जइ। ६. A P add after this : दहि बुड्डइ जलणेण पलिप्पा । ७. A P°मिगहिं । ८. A P add after this : विसविवक्खसत्यहिं मारिजइ। ९. A जीवेवउ; P जीवेव्वउ । Page #64 -------------------------------------------------------------------------- ________________ -३८. २०.१२] महाकवि पुष्पदन्त विरचित घत्ता-सुहं वंछइ पर तं णउ लहइ मरणह तसइ ण चुक्कइ ।। 'इच्छाभयपरवसु एहु जणु जममुहकुहरहु ढुक्कइ ।।१९।। २० तांवाइय लोयंतिय सुरवर ते भणंति जय जगगुरु सुरवर । चंगउ चित्तैडिंभु संथवियउ। णाणणिहेलणि पई संथवियउ । छंडेहि पणइणि कंचर्णगोरी धरहि मुवणसंबोहणगोरी । गइदुचरित्तकम्मसंताणइ अजियसेणु णिहियउ संताणइ । पभणिउ पुत्त चरसु संताणइ सयलमहीयलकयसंताणइ । तहिं अवसरि णहु छण्णु विमाणहिं पत्तहिं गिव्वाणेहिं विमाणिहिं । किउ दिक्खाहिसेउ तियसेसहिं अंचिउ पहु पसत्थतियसेसहिं । गय खग सुर णियसिवियाजाणे फलतरुणविएं पवरुज्जाणे । णार्वइ णविउ सहेउँवणामें सो सोहंतु सुद्धपरिणामें । णिच्च करंति पणयकलहं सई जहिं सरि सरु मुयंति कलहंसइं। १°तडगंधव्वगीयकलहंसई ताई चलणि रसियई कलहंसइं। तहिं सत्तच्छयतलि सुणिसण्णउ जिणु जिणंतु चत्तारि वि सण्णउ । घत्ता-सुखकी इच्छा करता है परन्तु उसे नहीं पाता, मौतसे डरता है ( त्रस्त होता है ) परन्तु चूकता नहीं, इस प्रकार इच्छा और भयके अधीन यह जीव उन यमके मुख रूपी कुहरमें प्रवेश करता है ॥१९॥ २० इतने में लौकान्तिक देववर आये। वे देववर कहते हैं कि हे विश्वगुरु आपकी जय हो, आपने चित्तरूपी बालकको धैर्य बँधाया, और उसे ज्ञानरूपी घरमें स्थापित किया। स्वर्गकी तरह गोरी कामिनीको आप छोड़ते हैं, और भुवनको सम्बोधित करनेवाली गोरी ( सरस्वती) को धारण करते हैं । दुश्चरित कर्मको सन्तान परम्परा चले जाने पर उन्होंने अजितसेनको कुलपरम्परामें स्थापित किया और कहा-हे पूत्र, तुम कुल-परम्परामें चलना, और समस्त विश्वको निज सन्तान समान मानना । उस अवसरपर आकाश विमानोंसे आच्छादित हो गया। आये हए असंख्य देवेन्द्रोंके द्वारा दीक्षाभिषेक किया गया। प्रशस्त स्त्रियोंके द्वारा अर्चा की गयी। विद्याधर और देव अपने-अपने शिविकायानसे चले गये। वह अपने शद्ध धारणाओंसे इस प्रकार शोभित है, जिस प्रकार, फलसे यौवनको प्राप्त, सहेतुक नामका विशाल उद्यान जैसे झुक गया हो। जहां कलहंस स्वयं नित्य प्रणयकलह करते हैं और जहाँ नदीमें वे सुन्दर स्वर करते हैं। जहां नट गन्धर्वोके गीतों की सुन्दरताको नष्ट करनेवाले उनके पैरोंमें सुन्दर नूपुर बज रहे थे, ऐसे उद्यानमें सप्तपर्णी वृक्षके नीचे बैठे हुए, चार संज्ञाओं ( आहार, निद्रा, भय और मैथुन ) को जीतते हुए, आशा रहित परमेश जिनवर ने। १०. P तं पर णउ। ११. A इच्छाहय परवसु; P मिच्छाभयपरवसु । २०.१. A P तावाश्य । २. वित्तभु but gloss बालकः । ३. A छंडिवि3 Pछट्टहि । ४. AP चंपय । ५. P वरहि । ६. P धरसु । ७. A णर; P णिव । ८. A तावइ णमिउ । ९. A P सहेउअणामें; K सहेउपणामें but gloss and T सहेउवणामें सहेतुकनाम्नोद्यानम् । १०. A णडगंधव । P तडि गंधर्व Page #65 -------------------------------------------------------------------------- ________________ महापुराण [ ३८. २०. १३पत्ता-'माहे मासे सियणवमिदिणे रोहिणिरिक्खि गयासें॥ अवरोहइ केसलोउ करिवि लइय दिक्ख परमेसें ॥२०॥ २१ जे धम्मेल्ल विमुक्क सुवत्तें ते सुरणाहे मणिमयपत्ते । लेवि चित्त खीरण्णवणीरइ को णउ करइ भत्ति जइ णीरइ । विसयेपरीसहरिउहु ण संकिउ नॅवसहासु ते सहुं दिक्खं किउ । णाणु चउत्थउ खणि उप्पण्णउं छट्ठववासें व्रउ पडिवण्णउं । उज्झाणयरिहि बीयई वासरि किउं पारणउं बंभरायहु घरि । कुसुमवरिसु सुरवंडहणिणायई पंचच्छरियई तहिं संजायई । गेहणेहबंधणु विच्छिण्णउं बारहवरिसई तउ संचिण्णउं । पूसहु सुक्कपक्खि संपत्तइ एयारसि रोहिणिणक्खत्तइ । भावाभावालोयविराइउ केवलणाणु तेण उप्पाइउ । हय दुंदुहि णं गज्जिउ सग्गे आय देव दिसिविदिसेहुं मग्गें। घत्ता-चत्तारि सयाइं सरासणहं सड्ढई देहु जिणिंदहो ।। ____ अमरिंदें दूरासंकिएण मण्णिउ सरिसु गिरिंदहो ॥२१॥ १० घत्ता-माघ, माहके शुक्लपक्षकी नवमीके दिन रोहिणीनक्षत्रके अपरालके समय केश लोंचकर दीक्षा ग्रहण कर ली ॥२०॥ सुन्दर मुखवाले उन्होंने जो बाल छोड़े उन्हें देवेन्द्रने मणिमय पात्रमें लेकर क्षीर समुद्रके पानीमें डाल दिया, नीरज ( रजरहित निष्पाप ) मुनिकी भक्ति कौन नहीं करता। विषयरूपी परीसहके शत्रुसे शंका नहीं करते हुए, एक हजार राजाओंने उनके साथ दीक्षा ग्रहण कर लो। एक क्षणमें चौथा ज्ञान उन्हें उत्पन्न हो गया, छठे अवाससे उनका व्रत सम्पन्न हुआ, दूसरे दिन, अयोध्यानगरीमें उन्होंने ब्रह्मराजाके यहां पारणा की। कुसुम वर्षा, देवनगाड़ोंका निनाद और पांच महाश्चर्य वहां हुए, घरके स्नेहका बन्धन छिन्न-भिन्न हो गया, बारह वर्ष तक उन्होंने तपश्चरण किया। पूष माहका शुक्लपक्ष आनेपर ग्यारस रोहिणी नक्षत्र में विश्वके समस्त पदार्थोंको प्रकाशित करनेवाला केवलज्ञान उन्हें उत्पन्न हो गया। देव दुन्दुभियां आहत हो उठीं, मानो स्वर्ग गरज उठा हो, देवता दिशा और विदिशाके रास्ते आये। __ घत्ता-जिनेन्द्र के साढ़े चार सौ धनुष ऊँचे शरीरको देखकर दूरसे आशंकाको प्राप्त इन्द्रने उन्हें सुमेरु पर्वतके समान समझा ॥२१॥ ११. AP माहहो मासहो। २१. १. A P°वत्तें । २. A P विसहपरीसह । ३. A P णिव । ४. A P वउ । ५. A तीयइ । ६. A P पडह । ७. P गेहि ह । ८. A P भावाभावलोएं पविरायउ। ९. A'विदिसहं मग्गे; P"विदिसि णहग्गें। Page #66 -------------------------------------------------------------------------- ________________ - ३८. २२.१५ ] णवकणयवण्णु अ जय भव भवंत जय भूयेणाह जय गोरिरमण जय तिउरडण जय मोक्खमग्ग जय सोमसीस जय णायहारसुतिलोयणाससुरयंतवित्तणीसरियविमल जय वेयभासि डिंभ कंपावियक्क महाकवि पुष्पदन्त विरचित २२ खमभावु पुण्णु । अमराहिवेण । जय दाणवंत । विरइयविवाह | जय सुविसगमण | जय मयणमण । णिग्गंथ णग्ग | जय तिहुवणीस | भूसियसरीर । हर हरविलास | पब्भाररत । चउवयणकमल । पसुवहपयासि । जय परमबंभ | कयधम्मचक्क । १९ ५ १० २२ इन्द्र ने उनकी स्तुति शुरू की - " आप नवस्वर्णवर्ण के समान हैं, आपका क्षमाभाव पूर्ण हो चुका है, भवका अन्त करनेवाले हे शंकर आपकी जय हो । दानशील आपकी जय हो । हे भूतनाथ ( सकल प्राणियों के स्वामी ), आपकी जय हो । विवाहसे विरक्त आपकी जय हो । गौरीरमण (पार्वती सरस्वती से रमण करनेवाले ) आपकी जय हो, सुवृषगमन ( धर्मका प्रवर्तन करनेवाले, बेलपर गमन करनेवाले ) आपकी जय हो । त्रिपुर दहन ( त्रिपुरराक्षसका दहन करनेवाले और जन्म जरा और मरणका नाश करनेवाले ) आपकी जय हो, मोक्षमार्ग ( मोक्षमार्ग स्वरूप, बाण छोड़नेवाले ) आपकी जय हो, हे निर्ग्रन्थनग्न आपकी जय हो । हे सोमशिष्य ( शान्तशिष्य, चन्द्रमस्तक ) आपकी जय हो । त्रिभुवनस्वामी ( त्रिलोकस्वामी, त्रिपथगा स्वामी ) आपकी जय हो । हे नायधार ( सन्मार्ग धारण करनेवाले और नागोंको धारण करनेवाले ) आपकी जय हो । भूषित शरीर ( अलंकृत शरीर, भभूतसे अलंकृत शरीर ) आपकी जय हो । हे सुतिलोयनाश ( त्रिलोकका नाश करनेवाले, तीन नेत्रोंको धारण करनेवाले ) हे हर ( शिव, धर्मंधर ) आपकी जय हो, हरविलास ( क्रीड़ा रहित विशिष्ट क्रीड़ावाले ) आपकी जय हो । सुरयंतवित्त प्राग्भाररक्त ( सुरतिका अन्त करनेवाले, चरितके व्रतमें लीन रहनेवाले, सुरतिमें अन्ततक प्रयत्नशील रहनेवाले ) णीसरियविमल ( जिससे विशिष्ट मल अलग हो चुके हैं, ऐसे जो चार मुख रूपी कमलवाले हैं । वेदभाषी ( ज्ञानको प्रकाशित करनेवाले, वेदको प्रकाशित करनेवाले ) आपकी जय हो । पसुवह पयासी ( पशुवध करनेवाले, पशुओंके लिए भी पथ प्रकाशक ) आपकी जय हो । निर्दग्धदम्भ ( दम्भको जलानेवाले, निकृष्ट दम्भवाले ) आपकी जय हो । हे परम ब्रह्म (परमात्मस्वरूप, ब्रह्मा, विष्णु, और महेश स्वरूप ) आपकी जय हो, अकंको कम्पित करनेवाले हे धर्मचक्र २२. १. P भूवणा । २. A निद्दंदडंभ | १५ Page #67 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २० जय चक्कपाणि बहुसोक्ख दिवि एम सुरिंदें सत्तिइ माणखंभसरवरसर परिहहिं णिम्मियपायारेहिं विचित्तिहिं कप्पदुमचेईहरचिंधहिं सालाहि तं वियहिं तोरणरयणालंकियदोमहिं जं ऍहउं तहिं मोक्खहु पंथिउ पुर्व्वासासंमुहुं आसीण महापुराण घत्ता— तुह गब्भणिवासि हिरण्णमयविट्ठिइ सुट्टु पसिद्धउ ॥ तुहुं तेण हिरण्णगर्भे भणिउ अण्णहु ऐउँ णिसिद्धउ ||२२|| जय दिव्वणाणि । जय गरुलकेउ । २३ [ ३८. २२.१६ विरइड समवसरणु जिणभत्तिइ । सेकुसुमवेल्लिहिं मरगयफलिहहिं । हहिं सुरयं तमणि दित्तिहिं । धूवह डेहिं सुधूर्व सुगंध हिं । थामि थामि मणिमय मंडवियहिं । कणयदंडवरफणिपडिहारहिं । अजियाहु सीहासणि संठिउ । किं वण्णमि तेल्लोक पहाणउ | ( धर्मचक्र, चक्राकार धनुषवाले) आपकी जय हो । हे चक्रपाणि ( हाथमें चक्रका लांछनवाले, चक्रवाले ) आपकी जय हो । हे दिव्यज्ञान आपकी जय हो । बहुसोक्खहेउ ( बहुत लोगोंके सुखके कारण, वधुओंके सुखके कारण ) हे गरुडध्वज आपकी जय हो । घत्ता - गर्भ में स्थित रहनेपर हिरण्यमय वृष्टिसे आप बहुत प्रसिद्ध हुए इसी कारण आप हिरण्यगर्भ कहे गये, दूसरेके लिए, यह नाम निषिद्ध है ॥२२॥ २३ इस प्रकार देवेन्द्रने वन्दना कर, मानस्तम्भों, सरोवरों, सरों और परिखाओं, पुष्प सहित लताओं, मरकत और स्फटिक मणियों, बनाये गये विचित्र परकोटों, सूर्यकान्तमणियोंसे दीप्त थूनियों, कल्पवृक्षों, चैत्यगृहों और चिह्नों, सुन्दर धूप से सुगन्धित धूपघटों, जिनमें ताण्डव नाट्य किया जा रहा है, ऐसी नाट्यशालाओं, स्थान-स्थानपर मणिमय मण्डपों तोरणों, रत्नों से अलंकृत मालाओं, स्वर्णदण्ड धारण करनेवाले श्रेष्ठ ...? प्रतिहारोंसे, उसने ( देवेन्द्रने ) शक्ति और भक्तिके साथ जब ऐसे समवशरणकी रचना की, तो मोक्षके पथिक अजितनाथ सिंहासनपर स्थित हो गये । पूर्व दिशा के सम्मुख बैठे हुए उन त्रिलोक श्रेष्ठ का मैं क्या वर्णन करूं ? ३. A P दिव्ववाणि । ४. AP ब्भु । ५. A एउ ण सिद्धउ । २३. १. P सुकुसुमं । २. P सुगंधसुगंधहि । ३. A णट्टमंडवियहि । ४. A P रयणतोरणालं । ५. AP ह | ६ AP दंडधर । ७. P जं एहउ तं सक्कें पत्थिउ, जगकारुण्णं आवेष्पिणु थिउ । ८. P पुव्वासामुहं तेण आसीणउ । Page #68 -------------------------------------------------------------------------- ________________ -३८. २४. १२ ] महाकवि पुष्पदन्त विरचित घत्ता-चउतीसातिसयविसेसधरु जिणु हरिवीढि बइठ्ठउ ।। उययहिसिहरि उययंतु रवि छुड़ णं लोएं दिहउ ॥२३॥ २४ सव्वभद्दु तं तहु सीहासणु कुसुमवासु भसलावलिपोसणु । णवकंकेल्लिरुक्खु कोमलदलु भामंडलु णं दिणयरमंडलु । छत्तई तिणि चंदसंकासई चमरई हिमगोखीराभासई। वज्जइ दुंदुहि मुवणाणंदणु विरइयरिद्धिउ सई सक्कंदणु । णिग्गय दिवभास सच्चुण्णय तं णिसुणंति अमर णर पण्णय । अक्खइ जिणु सत्त वि पायालई णरयलक्खदुक्खग्गिविसालई । अक्खइ जिणु भावणसंपत्तिउ वेंतरजोइससरगुप्पत्तिउ । अक्खइ जिणु अहमिंद वि सुरवर बहुविह णर तिरिक्ख तस थावर । अक्खइ जीवकम्मभेयंतर अक्खइ पेक्खइ तिजणु णिरंतरु । सीहसेणरायाइय गणहर जाया गउँइ तासु सम्मयधर । घत्ता-सहसाई तिण्णि पण्णासियई सयई सत्त भयवंतहं ॥ पुत्वंगधरहं तहिं मुणिवरह जायई संतहं दंतहं ॥२४॥ घत्ता-चौंतीस अतिशय विशेषोंको धारण करनेवाले जिनेन्द्र भगवान् सिंहासनपर बैठ गये मानो लोगोंने उदयाचलके शिरपर उगता हुआ सूर्य शीघ्र देखा हो ॥२३॥ २४ उनका वह सर्वभद्र सिंहासन था, जिसमें कुसुमोंकी गन्ध है, और जो भ्रमरावलीका पोषण करनेवाला है, ऐसा कोमलदलवाला नव अशोकवृक्ष, भामण्डल, ( मानो दिनकरका मण्डल हो) चन्द्रमाके समान तीन छत्र, चन्द्रमा और दूधकी आभाके समान चमर, भुवनको आनन्द देनेवाली दुन्दुभि बजती है। ऋद्धियोंको उत्पन्न करनेवाला इन्द्र स्वयं ( कहता है); भगवान्की सत्यसे उन्नत दिव्यभाषा निकलती है उसे अमर नर और नाग सुनते हैं। जिन भगवान् नरकको लाखों दुःखरूपी अग्नियोंसे विशाल सात पातालों ( सातों नरकों) का कथन करते हैं । जिनवर, भवनवासी देवोंकी सम्पत्तिका कथन करते हैं। व्यन्तर ज्योतिष स्वर्गोंकी उत्पत्तिका कथन करते हैं। जिन, अहमेन्द्र सुरवर बहुविध मनुष्य तिथंच त्रस और स्थावरका कथन करते हैं। जीव और कर्मके भेदोंका कथन करते हैं । त्रिजगको निरन्तर देखते हैं और उसका कथन करते हैं। सम्यग्दर्शन धारण करनेवाले सिंहसेनादि उनके नब्बे गणधर थे। पत्ता-तीन हजार सात सौ पचास ज्ञानवान पूर्वागके धारी शान्त और दांत मुनिवर हुए ॥२४॥ ९. A णं तइलोएं दिट्ठउ । २४. १. P दिव्ववाणि । २. A सव्वुण्णय; P सव्वण्णुय; but K सच्चुण्णय and gloss सत्योन्नता । ३. कम्महो यंतरु। ४. A तिजयभंतरु। ५. A P णवइ; Kणउवि and gloss नवतिः । ६. A सम्मइधर । Page #69 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २२ ५ १० उडुसयाई इगिवीस सहासई चउसयाई णवसहसई सिट्ठईं केवलणाणिहिं वीस सहा सईं ताईं जि पुणु चसयहिं समेयइं तवसमसहसई पुणरवि उत्तई सग्गारोहणसुहयणिसे णिहिं तेत्तियई जि पण्णासइ रहियई एंबे गणंतगणंतहुँ आयउ अजह लक्खईं तिण्णि समासविं तेत्तिय हउं सावय आहासवि संखारहिय देव णिद्देस विं ११ सिहरिहि दरिसियदरिमय वे यहु मासमेत थि पडिमाजोएं महापुराण २५ सिक्खुरिसिहिं विमुक्कघणास | णाणत्तय संजुत्तहं दिट्ठईं । जाई अनंगसंगणिण्णासई । विक्करियारिद्धिहरहं णेयई । चसयाई पण्णासइ जुत्तेई । संभई मणपज्जवणाणिहिं । दिण्णुत्तर विवाइहिं विहिये । एक्कु लक्खु भिक्खुहुं संजायउ । उप्पर सहसई वीस णिवेसविं । पंचलक्ख अणुवइयहिं घोसव" । देवहिं कि परमाणु गवेसविं । घत्ता - इय एत्तियसंघें परियरिउ पुग्वहं विरइयपेरेंहिय || "तेपण्णलक्खु महियलि भमिवि बारहव रिसहिं विरहि ||२५|| 93 २६ पुणु अवसाणि गंपि संमेयहु | जाणेमि णाहु विमुक्कउ जोएं । | ३८. २५. १ २५ धनकी आशासे रहित इक्कीस हजार सातसौ शिक्षक मुनि थे। नौ हजार चार सो, तीन ज्ञानोंसे युक्त ( अवधिज्ञानी ) कहे गये हैं । कामके संगका नाश करनेवाले बीस हजार केवलज्ञानी । इतने ही अर्थात् बीस हजार और चार सौ विक्रिया ऋद्धिवालोंको जानना चाहिए। स्वर्गारोहणकी सुखद नसैनी मन:पर्यय ज्ञानी बारह हजार चार सौ पचास पचास रहित इतने ही अर्थात् बारह हजार चारसौ उत्तर देनेवाले अनुत्तरवादी । इस प्रकार गिनते-गिनते एक लाख भिक्षु हो जाते हैं, संक्षेपमें तीन लाख बीस हजार आर्यिकाएँ और इतने ही मैं श्रावक कहता हूँ । मैं पाँच लाख अणुव्रतियों (श्राविकाओं) की घोषणा करता हूँ। मैं देवोंका संख्यारहित निर्देश करता हूँ । देवियों के परिमाणकी में क्या खोज करू ? धत्ता - इस प्रकार इतने संघसे घिरे हुए, बारह वर्ष कम त्रेपन लाख पूर्वतक, दूसरोंका हित करते हुए उन्होंने धरतीपर परिभ्रमण किया ||२५|| २६ जिसकी घाटियों में हरिणोंका वेग दिखाई देता है, ऐसे सम्मेदशिखरपर वह अन्तमें गये । एक माह तक प्रतिमायोग में स्थित रहे। मैं जानता हूँ फिर स्वामी योगसे विमुक्त हो गये । इस २५. १. A P° संजुत्तइं । २. P° उत्तई । ३. A P सुहणिस्से णिहिं, but T सुह सुखद । ४. P संभूयहि । ५. P वहियई । ६. AP एम । ७. AP समासमि । ८. AP णिवेसमि । ९. A P सावई आहासमि । १०. A P घोसमि । ११. A P णिद्दे समि । १२. AP कहि ! १३ AP गवेसमि । विहरइ परहिय । १५. A तेवण्ण लक्ख; P सो एक्कु लक्खु । १४. AP २६. १. A दावियदरिसरिवेयहु; P दरिसियदरिसरिवेयहु । Page #70 -------------------------------------------------------------------------- ________________ - ३८. २६.११ ] महाकवि पुष्पदन्त विरचित एक्कपिंड बाहत्तरिलक्खइं मासि चइत्ति पक्खि ससिजोन्हइ रोहिणिरिक्खि कम्मसंघारणु अंतिमझाणु झत्ति विरएप्पिणु वर्णत्तयसिहरहु सुहठाणहु कय णिव्वाणपुज सुरसारहिं गउ सुरवइ जिणगुणरंजियमणु जीवेपि पुन्वहं कयँसोक्खई । पंचमिदिवसि जाइ पुग्वण्हइ । दंडकवाडुरुजगजगपूरणु । तिणि वि तणुबंधणई मुएप्पिणु । अजिउ भडारउ ग णिव्वाणहु । संपूई अग्गिकुमारहिं । अवरु वि जहिं आयउ तहिं गउ जणु । घत्ता - जिह रिसहें भरहद्दु वज्जरिडं विह हउं तुह सूयमाणण ॥ आहासमि सयररायचरिउ कुंदपुप्फदंताणण ||२६|| इय महापुराणे तिसट्टि महापुरिसगुणालं कारे महाकइपुप्फयंतविरइए महामव्वमरहाणुमणिए महाकवे अजियणिष्वाणगमणं णाम भट्टतीसमो परिच्छेओ समत्तो ॥ ३८ ॥ ॥ अंजियचरियं समत्तं ॥ इस प्रकार त्रेसठ महापुरुषोंके गुणालंकारोंसे युक्त महापुराणमें महाकवि पुष्पदन्त द्वारा विरचित एवं महामव्य भरत द्वारा अनुमत महाकाव्यका अडतीसवाँ परिच्छेद समाप्त हुआ ॥ ३८ ॥ २३ प्रकार बहत्तर लाख पूर्व वर्ष सुख पूर्वक जीकर चरमशरीरी, चैत्रशुक्ल पंचमी के दिन पूर्वाह्न में ( जब कि रोहिणी नक्षत्र था ) कर्मका संहारक दण्डप्रतर आदि लोकपूरण-समुद्धात क्रिया कर तथा अन्तिम ध्यान कर तीन शरीर बन्धनों ( ओदारिक तेजस और कार्मण ) को छोड़कर, आदरणीय अजितनाथ भुवनत्रयके शिखर शुभस्थान निर्वाणके लिए चले गये । सुरश्रेष्ठोंने उनकी निर्वाणपूजा की। अग्निकुमार देवोंने उनके शरीरका संस्कार किया। इन गुणोंसे रंजित मन होनेवाला इन्द्र चला गया । और भी लोग जहांसे आये थे वहीं चले गये । ५ घत्ता — कुन्द पुष्पके समान मुखवाले हे श्रेणिक, सगर राजाका जैसा चरित ऋषभ नाथने भरतसे कहा था वैसा मैं तुमसे कहता हूँ ॥ २६ ॥ १० २. AP जाणिवि । ३. A P कयसंखहं । ४. A दंडु कवाड पयरजयपूरण; P दंडु कवाडु प जयपूरणु । ५. A भुवणंतयं; P भुवत | ६. A P संकारिउ । ७. APT सियमाणण । ८. A Pomit अजियचरियं समत्तं । Page #71 -------------------------------------------------------------------------- ________________ संधि ३९ गुणगणहरु भासइ गणहरु बहुरसमावणिरंतर ॥ मगहाहिव णिसुणि महाहिव सयरणरिंदकहंतर ॥ध्र वकं । इह जंबुदीवि खरयरकराहि सीयहि दाहिणेयलि संणिसण्णु णं धरणिइ दाविउ सुहपएसु मायंदणवदलुक्कंठियाउ कमलायर धरियसुपुंडरीय उववणई विविहवच्छंकियाई मंदरगिरिपुस्विल्लइ विदेहि । उद्दामगामसीमापउण्णु । वच्छावइ णामें अस्थि देसु । जहिं कलयलंति कलयंठियाउ। णं णरवइ धरियसुपंडरीय । गोउलई धवलवच्छंकियाई । सन्धि ३९ गुणोंके समूहको धारण करनेवाले गौतम गणधर कहते हैं-"हे महाधिप मगधराज, अनेक रसभावोंसे परिपूर्ण राजा सगरका कथान्तर सुनो।" सूर्यके तेजसे युक्त इस जम्बूद्वीपमें मन्दराचलके पूर्व विदेहमें सीता नदोके दक्षिण तटपर स्थित वत्सावती नामका देश है । उत्कट ग्रामों और सीमाओंसे परिपूर्ण जो मानो धरतीके द्वारा सुप्रदेशके रूपमें दिखाया गया हो। जहां आम्रवृक्षोंके नवदलोंके लिए उत्कण्ठित कोयले कलकल ध्वनि करती हैं, कमलोंको धारण करनेवाले सरोवर ऐसे हैं मानो राजाने सुपुण्डरीक ( छत्र और कमल ) धारण कर रखा हो । जहां विविध वृक्षोंसे अंकित उपवन हैं, और धवल बछड़ोंसे अंकित Mss. A and P have the following stanza at the beginning of this Samdhi : शशधरबिम्बात्कान्ति (न्ति ?) स्तेजस्तपनाद्गभीरतामुदधेः । इति गणसमुच्चयेन प्रायो भरतः कृतो विधिना ॥१॥ This stanza is also found at the beginning of Samdhi XVIII of this Work in certain Mss. of the Mahāpurāņa. For details see Introduction to Vol. I. pp. xvi-xxvii and also foot-note on page 295 of the same Vol. K does not give it there or here. १. १. A P महाणिव । २. A उत्तरयलि; K उत्तरयलि but corrects it to दाहिणयलि । ३. A कलियंठियाउ । Page #72 -------------------------------------------------------------------------- ________________ - ३९.२.१० ] महाकवि पुष्पदन्त विरचित जहिं मंडव दक्खाहल व घरि घरि करिसैणियहं हल वहति । जहिं णिच्चु जिसु सुहिक्खु खेडं कामिणिउ देति कामुयहं खेडं । घत्ता - विम्हिर्यसुरु तहिं पुहईपुरु पविमलमणिमयमहियेल || सरयामलु चंदयरुज्जलु "घरचूलाहयणहयले ' ॥१॥ तहिं णिवसइ सिरिजयसेणु राउ रइसेणु पुत्तु पररमणिअवरु ते विणि वि जण पश्ञ्चक्खकाम ते बिणि वि जण ससिसूरधाम. बिण वि जण पर हियविवेये गुरुदेव मित्तबंध व विणीउ करपल्लवग्गताडियउराई पण मुति ण धैरु दुवारु २ जिणसेणापणइणिजणियराउ । उप्पण्णु ताहं दिहिसेणु अवरु । ते बिणि वि जण संपेण्णकाम | ते बिणि वि जण जयलच्छिधाम । ते बिणि वि जण जणणहु विज्ञेय । रइसेणु णवर काळेण णीउ । पडियइं पियर इं सोयाउराई । सिमोहणी मुणिहिं वि दुवारु । घत्ता - विडंतह बिहिं वि रडंतहूं उवसम भाउप्पाणु ॥ कय संतिहिं दिण्डं मंतिहिं जिणवरवर्येणु रसायणु ॥२॥ २५ १० १० गोल हैं । जहाँ मण्डप द्राक्षाफलों ( अंगूरों ) को धारण करते हैं, जहां घर-घर में किसानोंके हल चलते हैं । जहाँ क्षेत्र नित्य सुन्दर और सुभक्ष्य रहते हैं, जहाँ कामिनियां कामुकों को आलिंगन देती हैं । ५ घत्ता - उसमें देवों को विस्मित करनेवाला और स्वच्छ मणिमय महीतलवाला पृथ्वीपुर नामका नगर है, जो शरद्की तरह निर्मल, चन्द्रकिरणोंकी तरह उज्ज्वल और अपने गृहशिखरों से आकाशको आहत करनेवाला है ||१|| २ उसमें श्री जितसेन नामका, अपनी प्रणयिनी जितसेनाके लिए राग उत्पन्न करनेवाला राजा निवास करता था । उसका परस्त्रियोंसे दूर रहनेवाला रतिसेन नामका पुत्र हुआ, एक और दूसरा धृतिसेन नामका । वे दोनों ही जन जैसे साक्षात् कामदेव थे । वे दोनों ही पूर्ण कामनावाले थे। वे दोनों ही सूर्य और चन्द्रमाके आश्रय थे। वे दोनों ही विजयलक्ष्मी के घर थे । वे दोनों ही दूसरोंके कल्याणका विवेक रखते थे, वे दोनों ही लोगोंके प्रति विनयशील थे । गुरुदेव, मित्रों और बन्धुजनों के लिए विनीत रतिसेनको कालने उठा लिया। माता-पिता, करपल्लवोंके अग्रभागसे ( हथेलियोंसे ) अपने उर पीटते हुए शोकसे व्याकुल होकर मूच्छित हो गये । वे स्वयंको घर और द्वारको कुछ भी नहीं समझते । पुत्रका स्नेह मुनियोंके लिए भी दुर्निवार होता है । धत्ता - शान्ति करनेवाले मन्त्रियोंने मूच्छित और पड़े हुए तथा रोते हुए उन दोनों को जिनवर - वचनरूपी रसायन दिया ॥२॥ ४. A P दक्खारसु । ५. A करसणियहं । ६. AP सुत्थ 1७. AP सुभिक्खु । ८. A P विभि । ९. AP महिलु । १०. | ११. A POहलु | २. १. A संपुण्णकाम | २. A विज्ञेय but gloss विवेक: । ३ AP घर दुवारु । ४. AP कुलमंतिहि । ५. A वयण रसायणु । ४ Page #73 -------------------------------------------------------------------------- ________________ महापुराण [ ३९. ३.१ कुलकंचुईहिं संबोहियाई कह कह व ताई उम्मोहियाई । जणमयगलमूलालाणरज्जु तक्खणि दिहिसेणहु देवि रज्जु । जयसेणे णासियरइरुएण सामंत समरं महारुएण । णियदेविइ सहुँ रयविहुणएहिं अण्णेहिं मि बहुणरमिहुण एहिं । दुर्जयदुण्णयदुजसहरासु वउ लइयउ पणविवि जसहरासु । परिसेसेप्पिणु णीसेसु संगु तर चिण्ण तेहिं दुवालसंगु। वोलीणइ गुरुसेवाइ कालि पच्छा संपत्तइ मरणकालि । मणि तिहयणलच्छीवइ सरेवि वरपरैगणचरियई पइसरेवि । मुणिवरहिं मयणघणमारुएहिं दोहिं मि जयसेणमहारुएहिं । घत्ता-दुरियल्लई तिण्णि वि सल्लई हिययहु कडूढिवि घित्तई। किउ अणसणु दूसहु भीसणु पंच वि करणई जित्तई ॥३॥ जयसेणु मरेवि महाबलक्खु वेउठिवउ जहिं णीरोउ कार इयरु वि सुहकम्में तहिं जि धामि तणु मुइवि महारुउ पउरतेउ संजायउ सुरवरु जसवलक्खु । बावीसजलहिसमपरिमियाउ । सोलहमइ अञ्चयकप्पणामि। संभूयउ सिरिमणिकेउ देउ । कुलके प्रतिहारियों द्वारा सम्बोधित होनेपर किसी प्रकार बड़ी कठिनाईसे उनका मोह दूर हुआ । उसने शीघ्र धृतिषेणको जनरूपी मदगजोंको बाँधने के लिए रस्सीके समान राज्य देकर रतिके आकर्षणको नष्ट करनेवाले जयसेन नामक सामन्त महारुत और अपनी देवीके साथ, तथा रागको नष्ट करनेवाले, दूसरे नर जोडोंके साथ दर्जय, दनंय और अपयशका हरण करनेवाले यशोधर मुनिको प्रणाम कर व्रत ग्रहण कर लिये । समस्त परिग्रहको छोड़कर उन दोनोंने दुष्कालका साथी तप ग्रहण कर लिया। गुरुकी सेवा आदिमें समय बीतनेपर और बादमें मरणकाल आने पर अपने मनमें त्रिभुवन-लक्ष्मीपति जिनेन्द्रको याद कर, उत्तम और श्रेष्ठ चर्या में प्रवेश करते हुए, कामरूपी मेघके लिए पवनके समान उन दोनों-जयसेन और महारुत मुनिवरोंने घता-अपने हृदयसे पापमयी तीनों शल्योंको उखाड़कर फेंक दिया। उन्होंने दुःसह्य और भीषण अनशन किया और पांचों इन्द्रियोंको जीत लिया ॥३॥ X जयसेन मरकर महाबल नामका यशसे उज्ज्वल देववर हुआ। जहां उसका नीरोग वैक्रियिक शरीर था और बाईस सागर प्रमाण आयु थी। दूसरा भो ( महारुत ) शरीर छोड़कर अच्युतकल्प नामक सोलहवें स्वर्गमें प्रवर तेजस्वी श्री मणिकेतु नामका देव हुआ। सज्जन लोग अपने स्नेहका बन्ध नहीं छोड़ते। उन दोनोंने एक दूसरेको प्रतिबोधित करने का यह वचन दिया ३. १. P कह व कहव । २ A णं मयगलथूणा; Pणं मयगलाथूला। ३. A P रइविहुणएहिं । ५. A दुक्कियदुण्णयदुज्जसहरासु; P दुक्कियदुण्णयदुज्जयहरासु । ५. A P वउ । ६. A P परपरगण । ४. १. AP थामि । २. A महारुइ । Page #74 -------------------------------------------------------------------------- ________________ -३९ ५.८] महाकवि पुष्पदन्त विरचित ण भुयंति सयण ससणेहबंधु किउ दोहिं मि पडिबोहणणिबंधु । जो पावइ अग्गइ मणुयजम्मु तहु अमरु समासइ परमधम्मु । बिण्णि वि ते दिवि णिवसंति जांव कालेण महाबलु ढलिउ तांव।। कोसलपुरि राउ समुद्दविजउ जसु घरि घोसिज्जइ णिञ्चविजउ । विजया णामें तहु अत्थि घरिणि परमेसरि णाई अणंगधरणि । सो तियसु सग्गसिहराउ ल्हसिउ तहि केरइ गब्भणिवासि वसिउ । घत्ता-हरिकंधरु बहुलक्खणधरु छणससहरमंडलमुह ॥ कणयच्छवि णावइ णवरवि जाणियउ जणणिइ तणुरुहु ॥४॥ संगामसमुहरउद्दमयरु कोकिउ कुमारु ताण सयरु । णं केसरि दरदीसंतदादु दुव्वारवेरिसंगामसोढु। कालेण गलंतें जाउ पोद पलयक्कु व तिवपयावरूढ । तणु तासु जोहकरभूसणाह चउरद्धसयाई सरासणाहं। मंदरभित्ति व उत्तगिमाई छज्जइ गोरी सेविय रमाइ। तह णिवकुमारकीलाइ ललिय पुव्वहं अट्ठारहलक्ख गलिय । देत्तिय जि महामंडलवइत्तु पालंतहु पत्थिवपय पयत्तु । गय जइयहुँ तइयतुं सुकियसारु उप्पण्णउ चक्कु फुरंतधारु । कि जो पहले मनुष्य-जन्म प्राप्त करेगा, देव उसे परमधर्मका कथन करेगा। इस प्रकार जब वे दोनों स्वर्गमें निवास कर रहे थे तब समयके साथ महाबल देव स्वगंसे च्युत हआ। कोशलपुरमें राजा समुद्रविजय था। उसके घर में नित्य विजय घोषित की जाती थी, उसकी विजया नामकी गृहिणी थी। वह परमेश्वरी जैसे कामदेवकी भूमि थी। वह देव स्वर्गशिखरसे च्युत होकर, उसके गर्भनिवासमें आकर बस गया। घत्ता-सिंहके समान कन्धोंवाले, अनेक लक्षणोंके धारक और पूर्णिमाके चन्द्रके समान मुखवाले उस बालकको माताने जन्म दिया, जैसे स्वर्णच्छविने नवसूर्यको जन्म दिया हो ॥४॥ संग्रामरूपी समुद्र के भयंकर मगर उस कुमारको पिताने सगर कहकर पुकारा। दुर्बार वैरियोंके संग्राममें समर्थ वह मानो सिंह था कि जिसकी थोड़ी-थोड़ी डाढ़ें दिखाई दे रही थीं। समय बीतनेपर वह प्रौढ़ हो गया। वह प्रलय-सूर्यके समान अपने तोत्र प्रतापसे प्रसिद्ध था। उसका शरीर योद्धाओंके हाथोंके आभूषण स्वरूप साढ़े चार सौ धनुषके बराबर था। ऊंचाईमें वह मन्दराचलको भित्तिके समान था। लक्ष्मी और सरस्वतीसे सेवित वह शोभित था। पत्नीकी सुन्दर क्रीड़ामें अठारह लाख पूर्व वर्ष बीत गये, और जब इतने ही वर्ष महामण्डलाध्यक्षके रूप में पार्थिवप्रजाका प्रयत्नपूर्वक पालन करते हुए हो गये तो उसे पुण्यका सारभूत चमकती धारवाला ३. A सयणि । ४. A P पवरु धम्मु । ५.१. A पयायरूढ़ । २. P उत्तंगिमाइ। ३.P कुमारलीलाइ । Page #75 -------------------------------------------------------------------------- ________________ महापुराण [ ३९. ५.९असि चम्म छत्तु गहवेइ पुरोहु करि हरि कागणि मणि सेण्णणाहु । वरजुवइ थवइ वरकुलिसदंड परपहरणगणणिददलेणचंड । चोद्दह रयणई महियलु छखंडु महाकालु कालु पिंगलु "पयंडु । दुई पोम संख दुइ अव दिव्वु माणव इय णव णिहि द ति सव्वु । घत्ता-महि हिंडिवि समरु समोडिवि दुजणे" दुटु दुसाहिय ।। जलथलवइ णहयर णरवइ देव वि तेण पसाहिय ॥५॥ वरवसुमइ असिणा वसि करेवि णीसेसणरेसहं कप्पु लेवि । आवेप्पिणु कउ उज्झ हि णिवासु एत्तिय संपय भुवणयलि कासु । जिंव भरहहु तिवे सयरहु जि होइ तं वण्णहुँ ण वि सक्कंति जोइ। णामेण चउम्मुहु देउ संतु उप्पण्णउं तहु केवलु अणंतु । आसीणु भडारउ णिलइ जेत्थु संजायउ देवागमणु तेत्थु । किंकरकरवालकरालधारु अण्णहिं दिणि संदरु सपरिवार । गउ वंदणहै त्तिइ सयौं राउ अवयरिउ तहिं जि मणिके उ देउ। अवलोइउ जिणपयणि हियचित्त बोल्लाविउ तियसें परममित्त । भो देव महाबल णित्रियप्प ओलक्खहि किं मई णाहिं बप्प । चक्ररत्न प्राप्त हुआ। असि, चर्म, छत्र, गृहपति, पुरोहित, हाथी, अश्व, काकणीमणि, सेनापति, वरकामिनी, स्थपति, शत्रुओंके शस्त्रसमूहको नष्ट करनेवाला श्रेष्ठ वज्रदण्ड, ये चौदह रत्न और छह खण्ड धरती महाकाल, काल, पिंगल, पद्म, महापद्म, प्रचण्ड दो और शंख (शंख, महाशंख ), और मानव, ये नो निधियां उसको सब कुछ देती थीं। पत्ता-धरतीपर घूमकर युद्ध कर उसने दुःसाध्य दुष्ट, दुर्जन, जलस्थलपति, विद्याधर, राजा और देव सभोको सिद्ध कर लिया ॥५॥ अपनी श्रेष्ठ तलवारसे श्रेष्ठ धरतीको जीतकर, समस्त राजाओंसे कर लेकर और आकर उसने अयोध्यामें निवास किया। भुवनतलमें इतनी सम्पत्ति किसकी है ? जिस प्रकार भरतके पास सम्पत्ति थी, उतनी हो सगर चक्रवर्तीकी थी, योगी भी उसका वर्णन नहीं कर सकता। चतुर्मुख नामक एक मुनिको अनन्त केवलज्ञान उत्पन्न हुआ। वह आदरणीय मुनि जिस स्थानपर विराजमान थे, वहां देवोंका आगमन हुआ। दूसरे दिन अनुचर और भयंकर तलवार धारण करनेवाला वह राजा सगर अपने परिवारके साथ वन्दनाभक्तिके लिए गया। वहोंपर मणिकेतु देव भी आया। उस देवने जिनके चरणों में अपना मन लगाये हए अपने मित्र सगरको देखा। उसने कहा-“हे विकल्पहीन महाबल देव ! हे सुभट, क्या तुम मुझे नहीं पहचानते । पृथ्वीपुरमें ४. A P चम्मु । ५. A P गिहवइ । ६. A P हरि करि । ७. K omits थवइ । ८. A P दढ । ९. Aणिहहणचंड: P"णिवहणचंडु । १०. A चउदह । ११. A P पचंडु । १२. A तह पोम संख णेसप्पु सम्वु । १३. P पवरभन्चु । १४. A P सुमंडिवि । १५. P दुज्जस । ६.१. A P जिम । २. A Pतिम । ३. P वंदणभत्तिइ। ४. A P सयरराउ । ५. P अवलोयउ। Page #76 -------------------------------------------------------------------------- ________________ -३९. ७. १२] महाकवि पुष्पदन्त विरचित पुहईपुरि णरवरसंथुएहिं होइवि जयसेणमहारुएहिं । चिरु चिण्ण तउ जइणिंदमग्गि जाया बिणि वि सोलह मि सग्गि । घत्ता-तुहं सुहमइ हूयउ परवइ हउं ओहँच्छविं सुरवरु ।। जं जंपिउ आसि वियप्पिरं तं हिय उल्लइ संभरु॥६॥ जे गय ते मयम उलवियणयण जे हरिवर ते चल वंकवयण । संदण ण मुणंति विइण्णु णेहु किंकर णियकजहि देंति देहु । रायहं हियवइ धम्मु जि ण थाइ चामरपवणे उडेवि जाइ। अंतरि छत्तई छत्तहर दतु तं तइ वि बप्प पेक्खइ कयंतु । अंगई लच्छिहि दोसंकियाई भुजंतई केवै ण संकियाई । राय उलइं पहु पई जेरिसाइं पंचिंदियसुहविसरसवसाई। णिवडंति णरइ घोरंधयारि ण विरप्पइ किं तुहुं भोयभारि । किं रक्खइ तेरउ विजयचक्क सिरि पडइ भयंकरु कालचक्कु । तहु वयणहु तेण ण दिण्णु कण्णु गउ सुरवरु सुरहरु मणि विसण्णु । पुणु अण्णहि वासरि रयणके उ णियरूवोहामियमयरकेउ।। मुणिवरु होइवि कयधम्मसवणि आइउ थिउ सयरजिणिंदभवणि । तं पेच्छिवि पुरु जंपइ असेसु एहे उं ण रूवु पावइ सुरेसु । लोगोंके द्वारा संस्तुत जयसेन और महारुत होते हुए, प्राचीन समय में हम दोनोंने जैनमार्गका तप ग्रहण किया था, और हम सोलहवें स्वर्गमें देव उत्पन्न हुए थे। घत्ता-तुम, अब शुभमतिवाले राजा हुए हो, और मैं सुरवर ही हूँ। जो विचार तुमने कहा था, उसे अब याद करो ॥६॥ जो गज हैं वे आंखें बन्द कर मर जाते हैं, जो अश्व हैं वे चंचल और वक्रनेत्र हैं। रथ कुछ भी विचार नहीं करते । स्नेह विदीर्ण ( नष्ट) हो जाता है। अनुचर अपने स्वार्थसे शरीर देते हैं। राजाओंके हृदयमें धर्म नहीं ठहरता है, चमरके पवनसे वह उड़ जाता है। छत्रधर भीतर छत्र लगा देते हैं परन्तु उसे ( जीवको) कृतान्त वहाँ देख लेता है। लक्ष्मीके दोषोंसे अंकित अंगोंका ( सप्तांग राज्य ) का भोग करते हुए राजा लोग आशंकित क्यों नहीं होते ? पांच इन्द्रियोंके सुख रूपी विषरसके वशीभूत होकर हे प्रभु, तुम्हारे जैसे राजकुल, घोर अन्धकारपूर्ण नरकमें गिरते हैं । तुम भोगके भारसे विरक्त क्यों नहीं होते ? क्या तेरा विजयचक्र तेरी रक्षा कर लेगा? सिरपर भयंकर कालचक्र पड़ेगा। परन्तु राजाने उसके वचनोंपर कान नहीं दिया। सुरवर अपने मनमें दुखी होकर स्वर्ग चला गया। एक दूसरे दिन, अपने रूपसे कामदेवको तिरस्कृत करनेवाला मणिकेतु देव मुनिवर होकर, जिसमें धर्मश्रवण किया जाता है ऐसे जिन-मन्दिरमें सगर आकर बैठ गया। उसे देखकर, सारे नगरने कहा कि ऐसा रूप इन्द्र भी नहीं पा सकता । ६.A Pणरवई । ७. A P सो अच्छमि । ७.१. P मउले वि णयण । २. P वियण्णु । ३. A के उ संकियाई; P केम ण संकियाई। ४. P omits पुणु । ५.A P आइवि । ६. P एहउ णरु ण अच्चुयसुरेसु । Page #77 -------------------------------------------------------------------------- ________________ महापुराण [३९. ७. १३.घत्ता-जणणेत्तई जहिं जि णिहित्तई तहिं जि णिरारिउ लग्गई ।। बुहयंदहु तासु मुणिंदहु को वण्णइ तणुअंगई |७ . तं वदिवि चिंतइ सयरु एंव किं एहा होंति ण होंति देव । एहउ सुरूवु णउ वम्महासु पुणु चवइ णिवइ दरविये सियासु । मुँणि किं तुह किर वेग्गु थियउ भणु किं जोवणु वणजोग्गु कियउ । तं सुणिवि भणइ मायारिसिंदु झिज्जंतु ण पेक्खहि पुण्णिमिदु । भरियउ पुणु रित्तउ होइ राय सासय किं चिंतहि अब्भछाय । तणु धणु परियणु सिविणयसमाणु तसथावरजीवहुं अभयदाणु । किज्जइ तरुणत्तणि तवपवित्ति वडत्तणि पुणु परियलइ सत्ति । जर पसरइ विहडइ देहबंधु लोयणजुयलुल्लउ होइ अंधु। पब्भट्टचेट्छु गयरमणराउ तरुणिहिं कोकिज्जइ हसिवि ताउ । डह थेरु सो वि किं णिब्वियारि दइवेण जि पंड उ बंभयारि । जीविज्जइ जहिं सो णिययदेसु तं भोयणु जं मुणिभुत्तसेसु । घत्ता-किं भवें पंडियगठवें लोउ असेसु णडिज्जइ । विउसत्तणु तं सुकइत्तणु जेण ण णरइ पडिजइ ॥८॥ घत्ता-लोगोंके नेत्र जहाँ भी पड़ते वे वहीं लगकर रह जाते। बुध-चन्द्र उस मुनीन्द्रके शरोरके अंगोंका वर्णन कौन कर सकता है? ||७|| उसकी वन्दना करके राजा सगर अपने मन में विचार करता है, हो न हो ये क्या देव हैं ? यह मनुष्यका स्वरूप नहीं है। अपना थोड़ा-सा मुंह खोलते हुए राजाने कहा, "हे मुनि, आप विरक्त क्यों हो गये ? बताइए आपने-अपने यौवनको वनके योग्य क्यों बनाया ?" यह सुनकर वह कपटी मुनि बोला, "क्या तुम पूर्णिमाके चन्द्रको नष्ट होते हुए नहीं देखते ? पहले चन्द्रमा भर जाता है, फिर खाली होता है, हे राजन्, क्या तुम बादलोंकी छायाको शाश्वत समझते हो ? तन, धन, और परिजन स्वप्नके समान हैं ? इसलिए त्रस और स्थावर जीवोंके लिए, अभयदान एवं योवनमें तपकी प्रवृत्ति करनी चाहिए। बुढ़ापेमें तो फिर शरीरको शक्ति नष्ट हो जाती है। बुढ़ापा फैलने लगता है । शरीरके बंध ढीले पड़ जाते हैं, दोनों नेत्रयुगल अन्धे हो जाते हैं । चेष्टाओंसे भ्रष्ट और रमणरागसे रहित बूढ़ा आदमी युवतियोंके द्वारा हंसकर तात पुकारा जाता है। वृद्ध आदमी दग्ध हो जाता है ( उसकी इन्द्रियचेतना नष्ट हो जातो है ) क्या वह भी निवृत्ति करनेवाला हो सकता है ? नपुंसकको तो दैवने ही ब्रह्मचारी बना दिया ? वहीं जीवित रहना चाहिए जो अपना देश है, भोजन वही हैं जो मुनिके आहारसे बचा हो। पत्ता-बुद्धिके गर्ववाले भव्यके द्वारा समस्त लोक क्यों प्रतारित किया जाता है ? पाण्डित्य और सुकवित्व वही है कि जिससे मनुष्य नरकमें नहीं पड़ता ||८|| ८. १. A सरूउ; P सरूव । २. A P दरविहसियासु । ३. A मुणि; P मुणे । ४. P वइरग्गु । ५. A वणजोगु; P वणिजोगु । ६. A P सुठु पहुत्तणु । Page #78 -------------------------------------------------------------------------- ________________ - ३९.१०.२ ] महाकवि पुष्पदन्त विरचित ९ सो सुद्धबुद्धि जा तच्चु मुणइ । तं तणुबलु जं वयभारु वहइ । ते कम जे मउयडं संचरंति । तं तोंडु णं जं विप्पियैई चवइ । ते सवण ण जे रइसुइ सुणंति । तं हियउ ण जं परमत्थि चलइ । तं कुणजं इच्छइ सुगंधु । सो मित्तु समउं जो रण्णि वसइ । उप्पाडिय जे मुणिवरकरेहिं । लग्गाइ विलासिणिथणि ण जाई । तं जीविउ जं चारित्तसहिउ । गुणभायणु तं माणुसु सुकुलीणउ ॥ मण्णविं घणु जं तव चरणें खीणउ ||९|| सो सूरउ जो इंदियई जिणइ सोइ बंधु जो धम्मु कहइ ते कर जे पडिलिहणेडं धरंति तं सिरु जं जिणपयजुयलि णवइ ते चक्खुण जे तियमइ नियंति सा जीह ण जा रसलोल लुलइ सुंकारु देतु जिंदइ दुगंधु तं अंगुणजं कुसयणहु तसइ ते चार केस संजमधरेहिं सँकत्थई जईकररुहई ताई उज्झउ कामाउरु सीलर हिउ घत्ता - उज्जेयमणु जं तं जणु ह आवेहि जाहुं लइ तुहुं वि दिक्ख इय कहइ जइ विसो देवसाहु १० सिक्ख हि गयमयरय मोक्खसिक्ख । पडिबुद्ध तो विण पुविणाहु | ३१ ५ ९ शूर वही है जो इन्द्रियोंको जीतता है, वही सद्बुद्धिवाला है जो तत्वका विचार करता है । वही इष्ट बन्धु है कि जो धर्मका कथन करता है । वही शरीरबल है जो व्रतभारको धारण करता है । वे ही हाथ हैं जो मयूरपिच्छ धारण करते हैं । वे ही चरण हैं जो मृदुता से चलते हैं, वही सिर हैं जो जिनपद युगलमें नमन करते हैं, वही मुख है जो बुरा नहीं बोलता । वे ही आँखें हैं जो स्त्रियों को नहीं देखतीं । वे ही कान हैं जो रतिसुखको नहीं सुनते । जीभ वही है जो रसकी लम्पटता में नहीं पड़ती है । हृदय वही है जो परमार्थ से नहीं चलता । नाक वही है जो सुंकार करते हुए न तो दुर्गंधको निन्दा करती है और न सुगन्धकी इच्छा करती है ? शरीर वह है जो कुश पर सोने से पीड़ित नहीं होता । वही मित्र है जो जंगलमें साथ रहता है । सुन्दर केश वही हैं, जो संयमधारण करनेवाले मुनिवरोंके द्वारा उखाड़े जाते हैं । मुनिके वे ही हाथ कृतार्थ हैं जो विलासिनियों के स्तनोंसे नही लगे । कामातुर और शील रहित जीवन में आग लगे । वही जीवन है जो चारित्र्य सहित हो । मनुष्य कुलीन है । उसी योवनको घत्ता - जो सरलमन और गुणोंका भाजन है, वही मैं मानता हूँ जो तपश्चरणके द्वारा क्षीण है ||९|| १० १० "आओ, चलें, तुम भी दोक्षा ले लो । मदरजसे रहित मोक्षको शिक्षा सोख लो ।" यद्यपि ९. १. A सो सुद्धबुद्धि जो । २ AP पडिलेन धरति । ३. A जंण । ४.AP विपियउ । ५. AP णक्कु । ६. A गुगंधु । ७. P सकइत्थई । ८. AP जणं । ९. A उज्जुयमणु । १० AP मण्णमि । १०. १. A पुरणाह । Page #79 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३२ ५ १० ५. लइ अंज्जि विण लहइ काललद्धि गउ चक्कवट्टि सहेिलणासु अत्थाणि परिट्टिउ छुडु जिजाम आयाई भणतई जीर्ये देव दे देहि र आसु किं पि मंदर महिर जेवेड्डु जंपि तं णिणिव सक्समाणएण आएसहु कारणु किं पि णत्थि अहुं महु रिद्धिहि फलाई महापुराण जाणिव देवें कय गमण सिद्धि । णं इंदिंदिरु कमलिणिवणासु । सहसाई सट्ठि तणुरुहहं ताम | पाहुं तुहारी पायसेव । सरहुँ महारिणि पर्यं पि । लीलाइ समाणहुं कज्जु तं पि । विहसे पिणु वुत्तरं राणएण । आरुहिवि तुरंगम मत्तहत्थि । मा जंप वयणई चप्फलाई । मंडलाई धणरिद्धइं ॥ महु एकें मुके चक्के सुट् ठु दुसज्झई सिद्धई ॥१०॥ घत्ता - किं वग्गह पेसणु मग्गह अह जइ सुत्तु दक्खविडं अज्जु देवेण जाई चसरेण लंबियघंटाचामरधयाहूं वरसिहरहं चवीसह वि ताह जिह णासइ खलमाणवहं मग्गु [ ३९.१०.३ ११ तो करह महारउ धम्मकज्जु । कारावियाई भरहेस रेण । केलासु गंपि कंचणमयाहं । परिरक्ख पजह जिणहराहं । तिह विरयह तरुसिलसलिलदुग्गु । वह देवमुति यह कहता है, फिर भी वह पृथ्वीनाथ सगर प्रतिबुद्ध नहीं हुआ । लो वह आज भी काललब्धि नहीं पाता। यह जानकर उस देवने गमनसिद्धि की ( अर्थात् वह वहाँसे चला गया ) 1 राजा सगर अपने निवासके लिए चला गया, मानो भ्रमर अपने कमलिनी - निवास के लिए चल दिया हो । जैसे ही वह अपने दरबार में बैठा, वैसे ही उसने अपने साठ हजार पुत्रोंको देखा । आते हुए उन्होंने कहा - "हे देव ! आपकी जय हो, हम आपके चरणोंकी सेवा प्रकट करते हैं । आप शीघ्र हो कोई आदेश दीजिए, यदि युद्ध में सुमेरुपर्वतके बराबर भी शत्रु होगा, तो भी हम अपना पैर नहीं हटायेंगे ? इस कार्यको भी खेल-खेल में सम्मानित करेंगे ।" यह सुनकर इन्द्र के समान हँसते हुए राजा सगर ने कहा, "आदेश देनेके लिए कोई कारण नहीं है ? तुम लोग अश्वों और मतवाले हाथियोंपर चढ़कर मेरे वैभव के फलोंको चखो । चंचल वचनोंका प्रयोग मत करो। " घत्ता-"क्यों सनकते हो और आज्ञा मांगते हो। मेरे द्वारा मुक्त एक चक्रसे ही दुःसाध्य और धन-सम्पन्न मण्डल अच्छी तरह जीत लिये गये ॥ १०॥ ११ अथवा यदि तुम्हें आज अपना सुपुत्रत्व दिखाना है, तो हमारा एक धर्मकार्यं करो । चक्रवर्ती राजा भरतेश्वरने जिनमन्दिरोंका जो निर्माण करवाया था, तुम केलास पर्वत जाकर, जिनमें घण्टा, चमर और ध्वज अवलम्बित हैं ऐसे स्वर्णमय और श्रेष्ठ शिखरवाले चौबीसों जिनमन्दिरोंकी परिरक्षा करो। तुम वृक्षों, चट्टानों और जलोंका दुर्ग बनाओ जिससे दुष्ट मनुष्यों का २. A P अज्ज वि । ३. P कय देव जाणसिद्धि । ४. AP जोव । ५. AP जेवड्ड । ६. P तं सुणिवि । ७. P उत्तउ । ८. P लग्गह । १९. १. A संयत्त । २. AP दक्खवहु । ३. A वर रक्ख । ४ A जिम । Page #80 -------------------------------------------------------------------------- ________________ - ३९. १२.९ ] महाकवि पुष्पदन्त विरचित ता णिग्गय तणय पसाउ भणिवि धरैधरणक्खम उधुद्धसोंड धाइय जुवाण मुहमुक्कराव घत्ता - पविदंडें खणरुइचंडे फाडिउ खणि खोणीयलु ॥ नरसारहिं रायकुमारहिं "देवहुं दाविउँ भुयबलु ॥११॥ १२ यिचिरपवाह पिहुहु मुयंति परिभमियवारिविब्भम भमंति परिमलमिलियालिहिं गुमुगुमंति सविसई विसिविवेरइं पइसरंति गिरिकंदर दरि सर सरि भरंति उत्तुंगतरंगहिं हि मिलंति कच्छवमच्छोह समुच्छलंति पविउलजलवलयहिं चलवलंति वलइयउ ताइ कइलासु केंव जेमदंडचंड भुयदंड धुणिवि । णं मयगल मयजलगिल्लगंड | णं पलयजलय गज्जणसहाव | करिकरडगलियमঈमलु घुयंति । कमलोयरमयरंदई वैमंति । वैणयवजालो लिहिं सिमिसिमंति । फणिफुकारिहिं दरोस रंति । दिसं हलु लु जलु जलु करंति । विर्यडयर सिलायल पक्ख ंति । हंसावलि कलरव कलयलंति । कड़िय गंगाणइ खेलख ंति । वेसाइ पमत्त भुयंगु जैव । 2 ३३ १० मार्ग (आना) नष्ट हो जाये ।" तब 'जैसी आज्ञा' - कहकर वे पुत्र यमदण्डके समान प्रचण्ड अपने भुजदण्ड ठोकते हुए निकल पड़े, जैसे वे पृथ्वी धारण मदसे आर्द्र गण्डस्थलवाले मदगज हों। अपने मुँहसे गर्जनस्वभाववाले प्रलयमेघ हों । करने में सक्षम, अपनी सूंड ऊपर किये हुए, शब्द करते हुए वे युवक ऐसे दौड़े, मानो ५ घत्ता - बिजलीकी तरह प्रचण्ड वज्रदण्ड से उन्होंने एक क्षण में पृथ्वीतलको विदीर्ण कर दिया, और इस प्रकार मनुष्यश्रेष्ठ उन राजकुमारोंने देवोंके लिए अपना बाहुबल दिखा दिया ॥ ११॥ १२ अपने चिर प्रवाह विशाल मार्गको छोड़ती हुई, हाथोके गण्डस्थलोंसे गलित मदजलको धोती हुई, घूमते जलोंसे विभ्रमको धारण करती हुई, कमलोदरोंसे मकरन्दका वमन करती हुई, सौरभसे मिले हुए भ्रमरोंके द्वारा गुनगुनाती हुई, वनोंको दावाग्नियोंकी ज्वालाओंसे सिमसिमाती हुई, सांपोंके विषैले बिलोंमें प्रवेश करती हुई, नागोंके फूत्कारोंसे थोड़ा फैलती हुई, पहाड़की गुफाओं, घाटियों, सरोवरों, नदियोंको भरती हुई, दिशाओं, आकाशतल, स्थल और जलको जलमय बनाती हुई, ऊँची तरंगोंसे आकाशसे मिलती हुई, विकट शिलातलोंका प्रक्षालन करती हुई, कछुओं और मत्स्योंके समूहों को उछालती हुई, हंसावलियोंका कलरव करती हुई, विशाल जलविलयों चिल-बल करती हुई, और खल-खल करती हुई गंगा नदी आकर्षित की गयी, उसके द्वारा कैलास पर्वत उसी प्रकार घेर दिया गया, जिस प्रकार वेश्याके द्वारा प्रमत्त लम्पट घेर लिया जाता है । ५. जयदंड । ६. A वरघरणुक्खम उद्धायसोंड । ७. A जलमयगिल्लं । ८. A राय । ९. A सहाय । १०. A परियड्ढि गंगाजलु; P परियट्ठि गंगाजलु । . । १२. १. A चिरु पवाहपिहमहुँ । २. A मयजल चुवंति; P मयजलु घुयंति ५. A विसविवरइं । ६. A दिसि । ७. P जलु थलु । ९. P खलहलंति । ३. P मुयंति । Y.AP ८. A वियलयलसिलायल । ५ Page #81 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [ ३९. १२. १० महापुराण घत्ता-धवलंगइ वेढिउ गंगइ पुणु वि' मज्झु सो''भावइ ।। सुरमणहरु मंदरमहिहरु तारापंतिइ णावइ ॥१२।। फणिभवणि विलग्गउ दंडरयणु तहु सर्वे कंपिउ सयलु मुवणु । भयथरहरंत कुंडलिय णाय वणि वणयरेहिं पविमकणाय । झलझलिये जलहि द्वैलढलिय धरणि विम्हिउँ सुरिंदु कंपविउ तरणि । पडिबोहणकारणु मुणिउं तेण मणिकेउणा हि पवरामरेण । फैणिमणिपहपिहियदिणाहिवेण होइवि मायाणायाहि वेण । तिहुयणजणमरणुप्पायजेहिं गुंजारुणदारुणलोयणेहिं । जोइवि कुमार कय भूईरासि णं पुंजिय ससंविभूइरासि । तहिं कासु वि ण हवइ पलयकालु दरिसाविउ देव इंदजाल । 'अमुयाई वि मुयाई व दिट्ठ बंधु गय भीम भईरहि पुरु सचिंधु । १० ' उव्वरिय कह व ते विहिवसेण घरु पत्ता मुक्का पोरिसेण । धत्ता-घरु गंपिणु पिउ पणवेप्पिणु आसणेसु आसीणा । ___ सविसाएं विण्णि वि ताएं दिट्ठ सुठ्ठ विहाणा ॥१३॥ घत्ता-गोरे अंगोंवाली गंगानदीके द्वारा घेरा गया कैलास पर्वत मुझे ऐसा लगता है मानो देवसुन्दर मन्दराचल तारापंक्तियोंसे घिरा हुआ हो ।।१२।। वह दण्डरत्न नागभवनसे जा लगा। उसके शब्दसे सारा विश्व कांप उठा, कुण्डलाकार नाग भयसे कांप उठे, वनमें वनचरोंने शब्द करना शुरू कर दिया, समुद्र झलझला उठा, देवेन्द्र विस्मित हो उठा । सूर्य कांप गया। उस मणिकेतु प्रवर देवने इसे प्रतिबोधनका कारण समझा। जिसने अपने फणमणिको प्रभासे दिनाधिप (सूर्य) को ढंक लिया है, ऐसा मायावी नागराज बनकर, उस देवने, त्रिभुवनके लोगोंको मृत्यु उत्पन्न करनेवाले, गुंजाफलके समान लाल और भयंकर नेत्रोंसे कुमारोंको देखकर राखका ढेर बना दिया, ( उन्हें भस्म कर दिया ) मानो उसने अपने यशकी विभूतिराशि एकत्रित कर लो हो। उसमें किसीके लिए भी प्रलयकाल नहीं हुआ। क्योंकि देवने अपने इन्द्रजालका प्रदर्शन किया था। बिना मरे हुए भी भाई मरे हुए दिखाई दिये । तब भीम और भगीरथ अपने-अपने ध्वजचिह्नोंके साथ गये। भाग्यके पथसे वे दोनों किसी प्रकार बच गये थे। अपने पौरुषसे रहित वे घर पहुंचे। घत्ता-घर जाकर, अपने पिताको प्रणाम कर वे आसनोंपर बैठ गये । विषादपूर्वक पिताने देखा कि वे दोनों ही अत्यन्त दुःखी हैं ॥१३॥ १०. A मज्झि । ११. P भाइ । १३.१. A थरहरंति । २. A झलझलिउ। ३. A टलटलिय। ४. AP विभिउ । ५. AP पियउ । ६. A पडिवोहणु । ७. A P वि । ८. P फणमणि । ९. A भूय । १०. P सज्जसविहूई। ११. A कासु ण हयउ । १२. AP अमुया वि । १३. A P पुरि । १४. A उव्वरिय ते ण कह विहिवसेण । Page #82 -------------------------------------------------------------------------- ________________ --३९. १४. १३ ] महाकवि पुष्पदन्त विरचित ककेयणकिरणुब्भासणाह जोयवि सहसहं सुण्णासणाहं । बिहिं ऊणी सहि दुसंठिएण सुयदसणसोक्खुकंठिएण। मणिमयकुंडलचेचइयगंडु राएण पैलोइउं मंतितोंडु । दुइ आया इयर ण पइसरंति भणु कारणु तणुरुह किं करंति । पुत्वं चिय सुरसंकेइएण संबोहणबुद्धिविराइएण। तं णिसुणिवि मंतिं वुत्त तेण हे महिवइ महिलाहिययथेण । अस्थमैइ ण किं रवि उययभाउ उल्हाइ ण किं पज्जलिउ दीउ । ण वि णासइ किं तडि मेहसोह फुटुंति ण किं जलबुब्बुओह । थिरु होइ ण संझारायरंगु गउ आवइ णउ सरिसरतरंगु । विहडइ ण काई सुरचावदंडु किं खयहु ण वञ्चइ मणुयपिंडु। कालेण गिलियं देविंद देव पच्छण्णपउत्तिहिं कहिउ एम्व । घत्ता-ता रायहु वड्ढियसोयहु बाहजलहइं णेत्तई ॥ चलपत्तइं ओसासित्तइं णं गलंति सयवत्तई ॥१४॥ कर्केतन रत्नोंकी किरणोंसे आलोकित हजारों सूने आसनोंको देखकर भाग्यसे साठको संख्या नष्ट हो जानेसे व्याकुल चित्त, और पुत्रदर्शनके सुखके लिए उत्कण्ठित राजाने, मणिकुण्डलोंसे अलंकृत गालवाले मन्त्रीमुखकी ओर देखा ( और कहा ) कि दो ही पुत्र आये हैं, दूसरे नहीं आये हैं। कारण बताओ कि पुत्र क्या कर रहे हैं ? तब पहलेके देव ( मणिकेतु) के द्वारा पहलेसे समझाये गये और राजाको सम्बोधन देनेकी बुद्धिसे शोभित मन्त्रीने कहा-“हे महिलाओंके स्तनको चुरानेवाले राजन्, क्या उदय होनेवाले सूर्यका अस्त नहीं होता? क्या जलाया हुआ दीप शान्त नहीं होता ? मेघोंकी शोभा बिजली क्या नष्ट नहीं होती? क्या जलके बुबुदोंका समूह नहीं फूटता ? सन्ध्यारागका रंग स्थिर नहीं होता! नदी और सरोवरकी गयी हुई लहर वापस नहीं आती! क्या इन्द्रधनुष नष्ट नहीं होता? क्या मनुष्य शरीर विनाशके मार्गपर नहीं जाता? देवेन्द्र और देव महाकालके द्वारा निगल लिये जाते हैं ?" इस प्रकार प्रच्छन्न उक्तियोंसे मन्त्रीने कहा। पत्ता-तब जिसका शोक बढ़ गया है, ऐसे राजाके अश्रुजलसे गीले नेत्र इस प्रकार गल गये मानो ओससे गीले चंचल पत्तोंवाले कमल हों॥१४॥ १४.१. A जोइवि सहास सुण्णा; P अवलोइवि सुयसुण्णा । २. A°सुक्खुक्कंठिएण; P°मोहुक्कंटिएण । ३. A पलोयउ: P पलोविउ । ४. A ते महिवइ महिलहियय: Pहे महिवइ महिलहियथेण ५. A अत्थवइ । ६. P उयणभाउ । ७. A जलपुवओह but gloss जलबुद्बुद । ८. A गलिय । ९. A पच्छण्णयउत्तिहि । Page #83 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३६ महापुराण [३९. १५.१ तावेक्कु परायउ दंडपाणि कासायचीरधरु महुरवाणि । जिणवरु व णिवारियभव विहरु कुंडलियणीलभमरउलचिहुरु । सोत्तरियफुरियजण्णोववीउ रूवेण गुणेण वि अंदुतीउ । सो मंतिहिं गहियखणेहिं महिउ कुलबंभणु भणिवि नृवस्( कहिउ । ता भासइ लद्धावसरु विप्पु को पुत्तु एत्थु किर कवणु बप्पु । संसारु असारु णिरायराय कि सासय मण्णहि अब्भछाय । जिह तरुवेलिहिं परगम्मु होइ तिह गरु णारिहि अप्पउंण वेइ । जीहोवहिं जगमारणेहिं डिभहिं डंभुन्भवकारणेहिं । संसारिय सयल सणेहु लेंति केसा इव बंधणजोग्ग होंति । १० मोहें बंद्धा भैवि संसरंति पुणु पुणु हेवंति पुणु पुणु "मरंति । घत्ता-महु वित्तई पुत्तकलत्तई एम भणंतु जि णिज्जइ ॥ ''सुहं माणइ धम्मु ण याणइ जगु खयरक्खें खज्जइ ॥१५।। तब इतनेमें गेरुए वस्त्र धारण किये हुए मीठी वाणी बोलनेवाला एक दण्डी साधु वहां आया । जो जिनवरकी तरह भव्योंके कष्टोंको दूर करनेवाला था, जिसके भ्रमरकुलके समान नीले बाल कुण्डलित थे, जो उत्तरीय वस्त्रके साथ यज्ञोपवीत धारण किये हुए था। वह रूप और गुणमें अद्वितीय था। तपके लिए नियम ग्रहण करनेवाले मन्त्रियोंने उसका सम्मान किया और कुलीन ब्राह्मण समझकर राजासे कहा। तब अवसर मिलनेपर ब्राह्मण बोला- “यहाँ कोन पुत्र है, और कौन बाप है ? हे मनुष्यों के राजराज, यह संसार असार है। क्या तुम मेघोंकी छायाको शाश्वत मानते हो ? जिस प्रकार तरु लताओंके परवश हो जाता है, उसी प्रकार मनुष्य नारियोंके कारण अपनेको नहीं जान पाता। जगका नाश करनेवाली जीवकी अवस्थाओं, बच्चों और बच्चोंके जन्मकारणोंके द्वारा सभी संसारी जीव स्नेह ग्रहण करते हैं, और केशोंके समान बन्धनके योग्य हो जाते हैं। मोहसे बँधकर संसारमें परिभ्रमण करते हैं। फिर-फिर जन्म ग्रहण करते हैं और फिर-फिर मृत्युको प्राप्त होते हैं। घत्ता-'मेरा धन, मेरे पुत्र-कलत्र' इस प्रकार कहता हुआ वह ले जाया जाता है, फिर भी वह सुख मानता है, धर्म नहीं जानता। और इस प्रकार यह जग यमरूपी राक्षसके द्वारा खा लिया जाता है ॥१५॥ १५. १. A°चीरु धरु। २. A P°विहुरु । ३. A अदुईउ; P अदुईउ । ४. A P णिवस्स । ५. A डिंभुन्भव । ६. A मोहं बद्धा । ७. P जगि । ८. P संभरंति । ९. A मरंति; P भवंति । १०. A हवंति । ११. A रुणंतु । १२. सुक माणइ । Page #84 -------------------------------------------------------------------------- ________________ -३९. १६. १३] महाकवि पुष्पदन्त विरचित ३७ १६ दारिवि धरणीयलु दिढभुएहिं आणिय मंदाइणि तुह सुएहि । अहिभवणि विलग्गउ दंडरयणु णिग्गउ फणि गैरलुप्पेच्छणयणु । आरूसेप्पिणु आसीविसेण जोइय णि णंदण वइवसेण । ता चवइ सयरु गयदुरियकलिलु हाइज्जइ दिज्जइ काई सलिलु । कि एण पणासइ ईट्टसोउ वर पंचमुट्टि सिरि देमि लोउ । जहिं कहिं मि ण पेच्छमि सुहिविओउ ण हु होइ कयाइ अणिठ्ठजोउ। जहिं सयलकाल अयरामरत्तु जहिं थक्कइ अप्पउ णाणमेत्तु । तं सिउ साहं बि गिण्हें वि चरित्तु पुणु भीमकुमारु णिवेण वुत्तु । लइ वसुह ण इच्छिय तेण केम गुणवंतें परगेहिणिय जेम । ता थविवि भईरहि पुहाइरज्जि अप्पणु लग्गउ परलोयकज्जि । दढधम्महु पायंतिइ समग्गु आराहिउ भावें मोक्खमग्गु । घत्ता-सहुं भीमें णिज्जियकामें चारित्तण विहूसिउ ॥ चक्केसरु हुन जोईसरु मणिके० वि सुरु तोसिउ ॥१६॥ १६ तुम्हारे पुत्र धरतीको अपने दृढ़ बाहुओंसे खोदकर गंगा नदी ले आये। उनका दण्डरत्न नागभवनसे जा टकराया। विषसे परिपूर्ण नेत्रवाला वह नाग निकला। उसने ऋद्ध होकर यमके समान उन पुत्रोंको देखा । इसपर जिसका पाप कलंक धुल गया है ऐसा राजा सगर कहता है कि क्या स्नान किया जाये और पानी दिया जाये, क्या इससे इष्टजनका वियोग दूर हो जायेगा? अच्छा है मैं पांच मुट्ठियोंमें सिरके बाल लेकर केशलोंच करता हूँ। जहां किसी सुधीका वियोग मैं नहीं देखता। और न कभी भी अनिष्ट योग होता है, जहां सदैव अजर और अमरत्व निवास करता है । जहाँ आत्मा ज्ञानमात्र रहता है, मैं उस शिवको सिद्ध करता हूँ। मैं चारित्र ग्रहण करता हूँ।" तब राजाने कुमार भीमसे कहा कि यह धरतो तुम ले लो। परन्तु उस गुणवान्ने उसकी इच्छा नहीं की जैसे वह किसी दूसरेकी गृहिणो हो। तब भगीरथको पृथ्वीके राज्य में स्थापित कर, राजा सगर स्वयं परलोकके काममें लग गया। दृढ़धर्मा मुनिके चरणों के निकट उसने सम्पूर्ण भावसे समग्र मोक्षमार्गको आराधना की। पत्ता-कामको जीतनेवाले चारित्रसे विभूषित, और भीमके साथ वह चक्रेश्वर योगीश्वर हो गया। इससे मणिकेतु देव भी सन्तुष्ट हो गया ॥१६॥ १६.१. P गरलु दुपेच्छणयणु । २. P रूसेप्पिणु आसीविसविसेण । ३. A P तुह । ४. A दुट्ठसोउ । ५. P वरि । ६. A P सव्वकाल । ७.A P अपरामरत्तु । ८. A P साहमि । ९. A P गेण्हमि । १०.A P मणिकेत वि संतोसिउ । Page #85 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३८ ५ १० उत्तहि जेतहि पडिय पुत्त अवहरिव विव्वियगरले भ उ ते सायरि सायरेण वसु वसुमइ सीहासैंणु मुवि णियजीविये चायपरिग्गहेण ता तेहि विमुक्कड णिहिलु गंधु जाया जइ णियजणणाणुयारि दोवासपयडपासुलियगत्त उत्तीणखप्परोयरकराल जट्टपुट्ठियेवं सपव्व कडयडियजाणुकोप्परपएस कंकालरूव जगभीमवेस महापुराण १७ मायाविसमुच्छारयेविलित्त । जीवाविय कउ णिम्मलु वियप्पु । भासियसुरेण महुरक्खरेण । गड तुम्हहं पिउ पावज्ज लेवि । तुम्हई विडिय गंगागण । गड जेण महाजणु सो जि पंथु । णीरंजण थिरमँण णिन्वियारि । [ ३९.१७. १ ર सकवालमूल सुणिलीणणेत्त । दीहरणह भासुरमवालें । विच्छिण्णगाव तवतावतिव्व । उववासखीण चम्मट्टिसेस | णिज्जणणिवासि सुइसुक्कलेस | घत्ता- - दिहिपरियर पसमियमयजर जमसंजमधरणुच्छव ॥ 'बहुखमदम कुचियकरकम णावइ थलगय कच्छव ||१७|| १४ १७ वह वहां गया जहाँ माया विषकी मूर्च्छाके वेगसे लुप्त पुत्र पड़े हुए थे । उसने वैक्रियिक विषको खींचकर भस्मको जीवित कर सुन्दर शरीरमें परिणत कर दिया। वे सगर-पुत्र आदर के साथ उठ बैठे । देवने मधुरवाणीमें उनसे कहा कि धन, धरती और सिंहासन छोड़कर तुम्हारे पिता संन्यास लेकर चले गये हैं। अपने जीवनके त्यागका परिग्रह है जिसमें, ऐसी गंगा लानेके आग्रहसे तुम लोग प्रवंचित हुए । यह सुनकर उन लोगोंने भी समस्त परिग्रहका परित्याग कर दिया और उसी रास्ते पर गये, जिसपर महाजन जा चुके थे । अपने पिताका अनुकरण करनेवाले वे निरंजन, निर्विकार और स्थिरमन मुनि हो गये। जिनके शरीर के दोनों पार्श्वभागों की पसुलियाँ निकल आयो हैं, जिनके नेत्र कपालके मूल भागमें लीन हो गये हैं, जो उठे हुए खप्पर के उदरसे भयंकर हैं जिनके लम्बे नाखून और चमकता हुआ रोमजाल है, जिनके पीठके बांसको गांठें दिखाई दे रही हैं, जिनका अहंकार जा चुका है, जो तीव्र तपके तापसे सन्तप्त हैं, जिनके घुटने और हथेलियोंके प्रदेश सूख गये हैं, जो उपवाससे क्षीण हैं और जिनकी केवल चमड़ो और हड्डियाँ शेष रह गयो हैं । जो कंकालस्वरूप और जगमें भयंकररूप धारण करते हैं, एकान्तमें निवास करनेवाले जो पवित्र शुक्ललेश्यावाले हैं | धत्ता - जो धैर्य के परिग्रहसे युक्त जराको शान्त करनेवाले, यम और संयमको धारण करनेका उत्सव करनेवाले, बहुत ही क्षमा और दयावाले तथा जिन्होंने अपने हाथ-पैर संकुचित कर लिये हैं ऐसे मानो स्थलपर रहनेवाले कच्छप हैं ॥१७॥ १७. १. A P जेत्तहि वेत्तहि । २. A रसपलित्त; P रयपलित । ३. Aगरलु दप्पु गरल सप्पु । ४. APसिंहास । ५. A जीवियराय । ६. AP मायागहेण । ७. P थिर मणि । ८. A P दोपासुपयडपंसुलियं । ९. A उत्ताणुयखप्परों । १०. A P° रोमजाल । ११. A गयबंभपव्व । १२. A P विच्छिण्णगव्व । १३. A P णिज्जणि णिवासि । १४. A P पिहुखमदम । Page #86 -------------------------------------------------------------------------- ________________ -३९. १८. २३ ] सुरधणुवलए गज्जत घणे सरिवहस रिसे संवियेले मृगरेवमुहले णिवसति इसी गलकंदलए ओसापसरे रिसियगयणे णिक्कंपमणा तमछइयदिसं हिमणिग्गणे गिरिसिहर गया संतावणिहि विसति जई णिज्जियविसय पालेवि समं विद्धत्थरयं जणतोसयरो णिट्ट वियरि अयमेय वयं यि पुत्तयहो जयलच्छि महाकवि पुष्पदन्त विरचित १८ विज्जुज्जए । हयविरहिणे | धारावारिसे । पवइंतजले । वणविडवितले | विलुलंति विसी । पुणु कंदलए | पत्ते सिसिरे । वाहिरयणे । धीरा समणा । गमयंति णिसं । गिम्हागमणे | सज्झाणरया । रविकिरणसिहि । सुविसुद्धमई । इय एरियं । पुत्तेहि समं । वायं । पत्तो सयरो | णिसुणेवि पि । गयमयणमयं । वरयत्त॑यो । दाऊण महि | १८ ३९ ५ १० १५ इन्द्रधनुषसे मण्डित, विद्युत् से उज्ज्वल, विरहीजनोंको आहत करनेवाले मेघोंके गरजनेपर नदी के प्रवाह पथके समान स्थलभागको ढक लेनेवाले, धारावाहिक रूपसे जलके प्रवाहित होनेपर, पशुकुल से मुखरित वनविटपके नीचे वे मुनि रहते हैं और विषयों का नाश करते हैं। जिसके कन्दल ( अंकुर / केश ) गल चुके हैं, ऐसे मस्तक प्रदेशमें ओसके प्रसारसे युक्त शिशिरऋतुके प्राप्त होनेपर, जिसमें आकाश दिखाई देता है, ऐसे बाह्य शयनमें, धीर श्रमण निष्कम्प भावसे तमसे आच्छादित दिशाओंवाली रात्रि व्यतीत करते हैं। हिम (शीत) ऋतुके चले जानेपर और ग्रीष्म ऋतुके आगमनपर पहाड़ोंके शिखरोंपर विराजमान वे सत् ध्यानमें रत रहते हैं । सतानेवाली रविकिरणों की आगको सुविशुद्ध मतिवाले वे मुनि सहन करते हैं। विषयोंको जीतनेवाले इस प्रकारकी साधनाका पालन कर राजाजनोंको सन्तुष्ट करनेवाले सगर अपने पुत्रोंके साथ, पापका नाश करनेवाले निर्वाणको प्राप्त हुए । यह सुनकर कि पिताने कर्मोंका नाश कर दिया है, ( यह सोचकर ) अपने १८. १. A P विज्जुज्जलिए । २. AP संपिदिय ; K संविहिय but gloss संपिहित । ३. AP मगरवं । ४. AP दरसि । ५. A गिभागमणे । ६. A रई । ७. A गई । ८. AP अपमेयवयं । ९. A वरदत्तयहो; P वरपत्तयहो । २० Page #87 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४० २५ १० "आसमि गुणिद्दे धत्ता - अरितरुसिहि राउ महापुराण ताराहारावलिपविमलेहि कलहोयकलसकविलियकरेहि तपाय धोय सलिलेण सित्त हिमवंतपोमसरवरपसूय मंदार जाइसिंदूर सुपरमय रंदा बहि आमोयमिलियचलेमहुलिहेहि थोत्तेहि जईसरु धरियजोउ उप्पाइवि केवलु तिजगचक्खु घत्ता -- सो मुणिवरु अजरामरु हूयड खणि असैरीरिउ ॥ भरत्थहि णिव सत्थहि पुष्पदंतु जयकारिउ || १९|| भईरहि हिसारंभु मुएप्पिणु ॥ सरहंगहि तडि थि गंगहि जिणपावज्ज लपविणु ॥ १८ ॥ १२ १९ [ ३९.१८. २४ सतुसारखीरसायरजलेहिं । तहु पयजुयलउ सिचिड सुरेहिं । तहिं हूई सुरवरसरि पवित्त । अज्जु वि Hors तित्थभूय । अरविंदकंदकणियार एहिं । चिवि णवकुसुमकरंबएहिं । ife दण्णासाहेहि । वंदेवि देव गय सग्गलोउ । संपत्त भईरहि परममोक्खु । इय महापुराणे तिसट्ठिमहापुरिसगुणालंकारे महाकइपुप्फर्यंतविरइप महाभव्वभरहाणुमण्णिए महाकवे सयरणिव्वाणगमणं णाम एक हूणचाळीसमो परिच्छेओ समत्तो ॥ ३२॥ ॥ सेयरपरियं समत्तं ॥ पुत्र वरदत्त के लिए विजयरूपी लक्ष्मीकी सहेली धरती देकर गुणवान् गुप्तमुनिसे कामके मदसे रहित यही व्रत ग्रहण करता हूँ । घत्ता - अरिरूपी वृक्षके लिए आगके समान राजा भगीरथ हिंसा और आरम्भको छोड़कर तथा जिनदीक्षा ग्रहण कर चक्रवाकोंसे युक्त गंगानदी के तटपर स्थित हो गये ||१८|| १९ तारोंकी हारावलियोंके समान स्वच्छ, तुषारकणों सहित, क्षीरसागरके जलोंसे स्वर्णकलशसे युक्त हाथोंसे देवोंने उनके पदयुगलका अभिषेक किया। उनके चरणोंके धोये गये जलसे सींची गयी देवनदी गंगा उस समय पवित्र हो गयी । हिमवन्त सरोवरसे निकलनेवाली गंगानदीको लोग आज भी तीर्थस्वरूप मानते हैं । मन्दार, जुही, सिन्दुवार, अरविन्द, कुन्द, कनेर पुष्पोंके सुप्रचुर मकरन्दोंसे लाल नव कुसुम समूहोंसे अर्चा कर, तथा जिनमें आमोदसे चंचल मधुकर मिले हुए हैं ऐसी नासिकाको सुख देनेवाले गन्धों और स्तोत्रोंसे योगधारी योगीश्वरकी वन्दना कर देव स्वर्गलोक चले गये । त्रिलोकनयन केवलज्ञान उत्पन्न कर भगीरथ परममोक्षको प्राप्त हुए । घत्ता - वह मुनिवर एक क्षणमें अजर-अमर और अशरीरी हो गये । भरतक्षेत्रवासी राजसमूहोंने पुष्पदन्तके समान उनका जयजयकार किया ॥१९॥ इस प्रकार त्रेसठ महापुरुषोंके गुणालंकारोंसे युक्त महापुराणमें महाकवि पुष्पदन्त द्वारा विरचित एवं महाभव्य भरत द्वारा अनुमत महाकाव्यका सगरनिर्वाणगमन नामका उनतालीसवाँ परिच्छेद समाप्त हुआ ॥ ३९॥ १०. A P असमे । ११. A P गोत्तयमु गेहें । १२. A P जिणपव्वज्ज । १९. १. A महुरेहि; A महुयरेहि । २. A असरीरउ । ३. A Pomit सयरचरियं समत्तं ... Page #88 -------------------------------------------------------------------------- ________________ संधि ४० पणवेप्पिणु संभवु सासयसंभवु संभवणासणु मुणिपवरु॥ पुणु तहु केरी कह रंजियबुहसंह कहंवि सरासइ देउ वरु ॥ ध्रुवकं ।। सदयं परिरक्खियमयं चूरियअलियलयंसयं दूसियपरहणहरणयं विणिवारियपरदारयं रयणीभोयणविरमणं कयगिहिसंगपमाणयं अदयं विद्धंसियमयं । लुचियअलिअलयं सयं । पुसियबंभहरिहरणयं । परदरिसियपरदारयं । धीरं विवेविरमणं । बहुणयणिहियपमाणयं । सन्धि ४. शाश्वत है जन्म जिनका, ऐसे तथा जन्मका नाश करनेवाले मुनिप्रवर सम्भवनाथको प्रणाम कर, फिर उन्हींकी, पण्डित सभाको रंजित करनेवाली कथा कहता हूँ, हे सरस्वती देवी, मुझे वर दो। जो पशुओंकी रक्षा करनेवाले सदय हैं, जो मदको ध्वस्त करनेवाले अदय हैं, जिन्होंने असत्यके अंशको ध्वस्त कर दिया है, और भ्रमरके समान श्याम केशोंको उखाड़ दिया है, जिन्होंने दूसरेके धनके हरणको निन्दा की है, जिन्होंने ब्रह्मा, हरि और हरके नयको दूर कर दिया है। जो परस्त्रीका निवारण करनेवाले हैं, तथा जिन्होंने दूसरोंके लिए मोक्षका द्वार बताया है, जो निशा भोजनसे विरत हैं, धीर और अकम्पित मन हैं। जिन्होंने गृहस्थ जीवन में परिग्रहका परि Mss. A and P have the following stanza at the beginning of this Samdhi :-- विनयाङ्करसातवाहनादौ नृपचक्रे दिवि ( व ) मीयुषि क्रमेण । भरत तव योग्यसज्जनानामुपकारो भवति प्रसक्त एव ॥१॥ This stanza is also found at the beginning of Samdhi XXXII of this Work in certain Mss. See foot-note on page 530 of Vol I. K does not give it there or here. १.१. A P°बहसुह । २. A वीरं । ६ Page #89 -------------------------------------------------------------------------- ________________ महापुराण [४०. १.९णाणेणं अपमाणयं सँवराणं पि पमाणयं । पविहियभव्वसुरीयम णिदियसोंडसुरायमं । जं तवतावेणुग्गयं जेण वीयराउग्गयं। अणुहुत्त संसारयं णो बद्धं हरिसा रयं। दूर झियसंसारयं ण हि संसासंसारयं । देवासुरकंपावणं जं देवं कं पावणं । जयपायडियसयारयं सिद्धिपुरंधिसयारयं। कंतं तीइ अयारयं पढ़मट्टाणि अयारयं । बीएँ सरहंकारयं अरुहं णिरहंकारयं। उयरलीणसयलक्खरं मंतेसं परमक्खरं । भुवणकुमुयवणसंभवं तं वंदे हं संभवं । ओसारियअसिआरसं ''विऊणं असिआउसं। भणिमो संभवसंकहं जोणीमुहदुहसंकहं । घत्ता-तियसिंदफणिदहिं खयरणरिंदहिं जं थुम्वइ कयपंजलिहिं । तं जिणगुणकित्तणु महुं सुकइत्तणु अमिउं पियह कण्णंजलिहिं ॥१॥ माण किया है । जो अनेक नयोंसे प्रमाणको स्थापित करनेवाले हैं, जो ज्ञानसे अप्रमाण ( सीमा रहित ) हैं; और जो स्वपरको ज्ञानरूपी लक्ष्मीको प्राप्त करानेवाले हैं, जिन्होंने भव्यजनोंके लिए देवोंका आगमन करवाया है, जिन्होंने मद्यको प्रशंसा करनेवाले शास्त्रोंकी निन्दा की है, जो तपभावसे उग्र हैं और जिन्होंने वीतराग भाव उत्पन्न किया है, जिन्होंने अनन्त सुखका अनुभव किया है, जो हर्षसे पापमें लिप्त नहीं हैं, जिन्होंने संसारको छोड़ दिया है, और जो प्रशंसा या अप्रशंसामें रत नहीं हैं, जो देव और असुरोंको कपानेवाले हैं, उस देवके समान पवित्र कौन है ? जिन्होंने जगमें सदाचारको प्रकट किया है, जो सिद्धिरूपी इन्द्राणीमें सदारत हैं, जो मुक्तिरूपी कान्ताके दूतरहित स्वामी हैं, जिनके नामके प्रथम अक्षरमें 'अ' और दूसरे स्थानमें 'र' सहित हकार है ( अर्थात् अर्हत् ), जिसके भीतर समस्त अक्षर लीन हैं, जो मन्त्रेश और परम अक्षर हैं, जो भुवनरूपी कुमुदवनके लिए चन्द्रमा हैं, ऐसे उन सम्भवनाथकी मैं वन्दना करता हूँ। जिन्होंने लक्ष्मी और आयुका निवारण कर दिया है, ऐसे पंचपरमेष्ठीको प्रणाम कर जन्म दुःखको शंकाका नाश करनेवाले सम्भवनाथकी कथा कहता हूँ। __ घत्ता-देवेन्द्रों, नागेन्द्रों और विद्याधरेन्द्रोंके द्वारा जिनको हाथ जोड़कर स्तुति की जाती है, ऐसे जिनके गुणकीर्तन और मेरे सुकवित्वरूपी अमृतको कर्णरूपी अंजलियोंके द्वारा पियो ॥१॥ ३. A P add after this: देवं जं सुपमाणय; T seems to omit it. ४. P सवरे दरिसियमायमं । ५. P adds after this : सवरेवि परमायमं; T seems to omit it | ६. Pसुरामयं । ७. A पढमढाणअयारयं । ८. A सुमहियसरहंकारयं । ९. A P add after this: पाइय ( A झाइय) णिरहंकारयं, पावियसाहुक्कारयं । १०. AT ओहामिय; P ऊसारियं । ११. A भरिऊणं । Page #90 -------------------------------------------------------------------------- ________________ -४०. २. १९] महाकवि पुष्पदन्त विरचित दिणयरपईवए मेरुपुग्विल्लए तहिं विदेहे वैरे पविमलदियंतरे रायहंसुज्जलं फुल्लपंकयवणं णवकुसुमपरिमलं रुणुरुणियमहुयरं तुंगपायारयं विरइयमहुच्छवं रसियनृववारणं चिंधमालाउलं हेममयमंदिरं तहिं सुहडसाहणो वसइ सिरिसेविओ चारुरज्ज कए तिविहणिवेइणा थोरदीहरमुए सधरधरणी पया इह पढमदीवए। पसुकणधणिल्लए । सीयसरिउत्तरे। कच्छदेसंतरे। सच्छविच्छेलु जलं । पवणहल्लिरवणं। सरससुमहुरफलं । रइरमियणहयरं। गोउरदुवारयं । तुरयहिलिहिलिरवं । णीलदलतोरणं । विविहजणसंकुलं। खेमणामं पुरं। पहु विमलैंवाहणो। पणइणीणं पिओ। दीहकाले गए। तेण वरराइणा। विमलकित्तीसुए। विणिहियो संपया। २ __जिसमें सूर्यरूपी प्रदीप हैं ऐसे इस प्रथम द्वीप जम्बूद्वीपमें सुमेरुपर्वतके पूर्वमें पशु और धान्यसे सम्पन्न श्रेष्ठ विदेह क्षेत्रमें सीता नदीके उत्तर में प्रविमल दिशान्तरवाले कच्छ देशमें क्षेम नामका नगर है, जो राजहंसकी तरह उज्ज्वल और स्वच्छ उछलते हुए जलवाला है, जिसमें कमलवन खिला हुआ है, और जो पवनसे हिलनेके कारण सुन्दर है। नवकुसुमोंसे सुरभित, और सरस तथा सुमधुर फलवाला है। जिसमें मधुप गुंजन कर रहे हैं और नभचर रतिसे क्रीड़ा कर रहे हैं । जिसमें ऊँचे परकोटे हैं, जो गोपुर द्वारवाला है, जिसमें महोत्सव हो रहे हैं, अश्वोंके हिनहिनानेका शब्द हो रहा है। राजाके गज चिग्घाड़ रहे हैं, नीलपत्तोंके तोरण हैं, जो ध्वजचिह्नोंको मालाओंसे व्याप्त हैं, तरह-तरहके जनोंसे संकुल हैं और जिसमें स्वर्णनिर्मित प्रासाद हैं, ऐसे उसमें सुभटोंकी सेवासे युक्त विमलवाहन नामका राजा था। श्रीसे सेवित वह अपनी प्रणयिनियोंके लिए अत्यन्त प्रिय था। अपना सुन्दर राज्य करते हुए, उसका जब बहुत समय बीत गया, तो संसार, शरीर और कामसे विरक्त होकर उस उत्तम राजाने अपने स्थूल और लम्बी बाहुवाले विमलकीति नामक पुत्रके लिए पर्वत और धरती सहित समस्त सम्पदा सौंप दी। और असन्दिग्ध प्रभावाले स्वयंप्रभ जिनको २. १. P वसुकण । २. P विदेहे पुरे। ३. A विच्छुलजलं । ४. AP सरसमहरं फलं । ५. P तुरियं । ६. AP णिववारणं । ७. A विवलवाहणो। ८. A विवलकित्ती । ९. APT विणिया । Page #91 -------------------------------------------------------------------------- ________________ महापुराण [ ४०.२. २० जिणमसंसयपहं पणविवि सयंपहं। जायओ जइवरो णिम्मम णिरंबरो। "सहिवि तवतावणं धरिवि सुहभावणं। जिणगुणणिबंधणं मुवणयलखोहणं। चिणिवि 'सुहसंपयं धुणिवि भवभवरयं । उवसमविहूसणं करिवि संणासणं । "अवियलियसंजमो मरिवि मुणिपुंगमो। पढमगइवेयए "पढमयणिकेयए। विस्सुयसुदंसणे दुक्खविलुसणे। अहममरवइ हुओ भविययणसंथुओ। घत्ता-तेवीस अणूणई जलहिसमाणइं आउ णिबद्ध सुरवरहु ।। बिहिं रयणिहिं जुत्तउ अद्ध णिरुत्तउ तणुपरिमाणु वि भणिउं तहु ॥२॥ २९आ तेवीसवरिसंसहसहिं असइ तेत्तियहिं जि पक्खिहिं ऊससइ । वण्णे भावेण वि सुकिलउ विलुलंतहारमणिमेहलउ । णउ गेयवज्जसरकलयलउ णउ णारि ण हियवइकलमलउ । पाविट्ठ दुट्ठ जहिं णत्थि जणु जो जो दीसइ सो सो सुयणु । णाणे जाणइ सुरणरणियइ सत्तमणरयंतु जाम णियइ । तं तेत्तिउ वैदृइ णिट्ठियां जांवाउसेसु तहु णिट्ठियउं । प्रणाम कर वह निर्मम दिगम्बर यतिवर हो गये। तपकी तपन सहकर और शुभभावना धारण कर त्रिभुबनतलको क्षुब्ध करनेवाले जिनगुणोंका निबन्धन कर शुभ सम्पदाका चयन कर, भवके भय और पापको नष्ट कर, उपशमसे विभूषित संन्यास धारण कर, अविगलित संयम वह मुनिश्रेष्ठ मरकर प्रथम ग्रेवेयकके दुःखोंका नाश करनेवाले प्रथम विश्वप्रसिद्ध सुदर्शन विमानमें, भव्यजनों द्वारा संस्तुत अहमेन्द्र देवके रूपमें उत्पन्न हुआ। घत्ता-उस सुरवरके तेईस सागर प्रमाण पूरो आयु थी। ढाई हाथ ऊंचा उसके शरीरका प्रमाण था। वह भी मैंने निश्चयपूर्वक कहा ॥२॥ तैंतीस हजार वर्षमें वह भोजन करता । और उतने ही पक्षोंमें ( अर्थात् साढ़े ग्यारह हजार वर्षों में ) श्वास लेता। रंग और भावमें वह शुभ्र था। उसपर हार और मणिमेखला झूलती थी। उस प्रेवेयक विमानमें कामदेवका कोलाहल नहीं था, और न स्त्री और हृदयमें पाप था। वहां लोग नहीं थे। जो दिखाई देता था, वह सज्जन था। अवधिज्ञानसे वह सुर और मनुष्योंको जानता था। सातवें नरकके अन्त तक वह देख सकता था। जब उसका उतना समय १०. A सहइ तव । ११. AP सुहसंचयं । १२. A भवभयरयं । १३. AP अविलियं । १४. A पढमणिक्खेयए; P पढमा णिकेयए । १५. A विहरयणिहि ।। ३. १. A तेवीससहासवरिसहि: P तेवीससहसवरिसेहिं । २. A सुक्किल्लउ । ३. AP वढछ । Page #92 -------------------------------------------------------------------------- ________________ -४०. ४. १२] महाकवि पुष्पदन्त विरचित ता एत्तहि उववणि रमिर्यणेसुरि इह भरहखेत्ति सावत्थिपुरि । इक्खाउँवंसु सुविसुद्धमइ हयसद ददु णामें पुहइवइ। धणुगुणसंधियपंचमसरहु तहु घरणि सुसेण सेण सरहु । एक्कहिं दिणि णिसि पच्छिमपहरि सुहं सुत्ती देवि सवासहरि । घत्ता-सा सालंकारी सेण भडारी पइवय सोलह सुंदरई ।। महिमंडलसामिणि मंथरगामिणि अवलोयइ सिविणंतरई ॥३॥ करिणं वसहं केसरिणं लच्छि दामं चंदमिणं। झसजुय कुंभजुयं च वरं सरवरममलिणमयरहरं । हरिवीढं देविंदघरं फणिभवणं फुडमणिणियरं । विप्फुलिंगपिंगलियणहं सिहिणं जलियं दीहे सिहं । इय जोइवि पीणत्थणिया पविउँद्धा सीमंतिणिया। *सिसुमयणयणा पत्तलिया णीलुप्पलदलसामलिया। अहिणववेल्लि व कोमलिया गहियाहरणा संचलिया। करि धरिवि सविलासिणियं कलहंसी विव हंसिणियं । पत्ता कंता रायहरं सिहरोलंबियसलिलहरं । अवलोइवि पइमुहकमलं पुच्छइ सत्था सिविणहलं । णियबुद्धीइ परिग्गहियं तेण वि तिस्सा तं कहियं । जस्स वसा तेलोक्कसिरी मजणवीढं मेरुगिरी। बीत गया, और उसको आयुका निश्चित भाग शेष रह गया, तब जिसमें देवता क्रीड़ा करते हैं, ऐसे उपवनवाले भरत क्षेत्रको श्रावस्ती नगरीमें इक्ष्वाकुवंश था। उसमें विशुद्धतम बुद्धि दृढ़रथ नामका राजा था। उसकी सुषेणा नामको गृहिणी, मानो धनुषको डोरीपर पांच बाणोंका सन्धान करनेवाले कामदेवकी सेना थी। एक दिन रात्रिके अन्तिम प्रहरमें वह देवी अपने निवासगृहमें सुखसे सोयी हुई थी। महीमण्डलको स्वामिनी मन्द गतिवाली उसने स्वप्न-परम्परा देखी ॥३॥ हाथी, वृषभ, सिंह, लक्ष्मी, पुष्पमाला, चन्द्र, मत्स्ययुगल, श्रेष्ठ कुम्भयुग्म, स्वच्छ सरोवर, सूर्य, समद्र, सिहासन, देवविमान, नागभवन, स्फटमणिसमह और स्फलिंगोंसे बनानेवाली दीर्घ ज्वालाओंवाली प्रज्वलित आग। पीनस्तनोंवाली वह सीमन्तिनी यह देखकर जाग गयी। शिशुमृगनयनी दुबली पतली नीलकमलदलके समान श्यामल, अभिनवलताके समान कोमल, और आभरण धारण करनेवाली वह चली। विलाससे युक्त कलहंसीके समान वह हंसिनीको अपने हाथ में धारण कर, वह कान्ता शिखरोंसे मेघगृहोंको सहारा देनेवाले राजभवन में पहुंची। अपने पतिका मुखरूपी कमल देखकर, स्वस्थ वह, स्वप्नोंका फल पूछती है। अपनी बुद्धिसे ज्ञात कर उसने भी उनका फल उसे बता दिया कि त्रिलोक लक्ष्मी, जिसके अधीन है, सुमेरुपर्वत, ४. A रमियसरि । ५. A इक्खागुवंस । ६. A हयसयदढु । ७. A ससेण । ८. A सुहसुत्ती; P सुहें सुत्तो। ४. १. AP झसजुयलं कुंभजुयं पवरं । २. A दीयसिहं । ३. P विउद्धा । ४. P मयसिसु । ५. P रयणहरं । Page #93 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४६ १५ ५ १० अमरउलं चिर्य भिश्व उलं सो भद्दे तुह दिण्णवरो वज्जिणा धम्मकज्जं तओ पीणियं एत्थ सावत्थिरायस्स गेहे जिणो जाहि ताणं तुमं होहि तोसायरो तामयासाहिवाणाइ माट्टणं सव्वमालयं सुरयं तप्प आगया गव्भसं सोहर्णेत्थं इरी जाम छम्मास ता संपयालिंगणे फग्गुणे मासए सुकपक्खं तरे सिंधुरायारधारी सुद्देणुण्णओ णारिदेहे थिओ सुद्धधाउत्तए धम्मचंदस्स सच्चं दिमाणंदिया free माणिक्करासी पुणो घत्तिया महापुराण जस्स घरं तिजगं विडलं । होही तणओ तित्थयैरो । धत्ता - तं णिसुणिवि सुंदरि सरम हिहरदरि रोमंचिय पुलएण कि । महुसमयहु वत्तइ पोसियसोत्तइ पणइणि पियमाहविय जिह ॥४॥ ५ चिंतियं चितणिज्जं मेणे भावियं । जक्ख होही सुसेणास ईणंदणो । वासवित्ताइरिद्धीपवित्तीयरो । दवणाण वेव्वियं पट्टणं । सव्वकालंघिवं सव्वसोक्खावहं । कंति' कित्ती दिही लच्छि बुद्धी हिरी । भम्मट्ठी कया राइणो पंगणे । पंचमे रिक्खए अट्ठमीवासरे । 'पुज्जगेवज्जदेवो समोइण्णओ । वारिबिंदु व्व राईविणीपत्तए । देवदेवेण मायापिऊ वंदिया । दोस संखेहिं पक्खेहिं णिव्वत्तिया । [ ४०.४. १३ जिसका स्नानपीठ है, विशाल त्रिजग, जिसका घर है, हे कल्याणि, वरोंको देनेवाला तुम्हारा ऐसा तीर्थंकरपुत्र होगा । घत्ता - यह सुनकर कामरूपी पर्वतकी घाटी वह सुन्दरी पुलकसे रोमांचित हो उठी मानो वसन्तके कानों को पोषित करनेवाली वार्ता प्रणयिनी कोयल पुलकित हो उठी हो ॥४॥ ५ उस अवसरपर इन्द्रने चिन्तनीय कर्म की अपने मनमें चिन्ता और भावना की ओर यह धर्मकार्य यक्षसे कहा - 'हे यक्ष, श्रावस्तीके राजाके घरमें जिन भगवान् सती सुषेणाके पुत्र होंगे, तुम वहाँ जाओ और सन्तोष उत्पन्न करनेवाली गृह द्रव्य आदि मनोहर ऋद्धियां उत्पन्न करो ।' इस प्रकार आकाश के राजा ( इन्द्र ) की आज्ञासे कुबेरने रत्नोंकी वृष्टि और नगरकी रचना की । वह नगर स्वर्णनिर्मित घरों और सूर्यकान्त मणियोंकी प्रभासे युक्त था । उसमें सब कालके वृक्ष थे और वह सर्व प्रकार के सुखोंका घर था । शीघ्र ही गर्भ संशोधन करनेवाली देवियाँ, कान्ति-कीर्तिधृति - लक्ष्मी - बुद्धि और ह्री, इन्द्रको आज्ञासे वहाँ आयीं । जब छह माह शेष रह गये तब सम्पत्तियों से आलिंगित राजाके आँगन में स्वर्णवृष्टि हुई । फागुन माह के शुक्ल पक्षमें अष्टमीको पांचवें मृगशिरा नक्षत्र में गजका आकार धारण करनेवाला, सुखसे उन्नत पूर्वग्रैवेयकका देव अवतीर्ण हुआ और शुद्ध धातुवाले नारीरूप में इस प्रकार स्थित हो गया मानो कमलिनी पत्रपर जलकण हो । जिनेन्द्रकी शोभासे आनन्दित होनेवाले माता-पिता की देवदेवने वन्दना की । फिर नौ महीने तक प्रति ६. A विय; P प । ७. P तित्यहरो । ८ Pजह ५. १. A मणे जाणियं; P कज्जयं जाणियं । २. AP मावड्ढणं । ३. A सूरयंतं पहं । ४. A सोहणत्थे इरी and gloss इरी त्वरिता; T इ दूरी; PK सिरी । ५. P कित्ति कंती । ६. P पुव्वगेवज्जं । Page #94 -------------------------------------------------------------------------- ________________ -४०६.४] महाकवि पुष्पदन्त विरचित दीहरद्धीसमाणं खणेणं खणं कोडिलक्खा गया तीस जइया घणं । जित्तसत्तसए कम्मणिमुक्कए पंत्तिए बीर्य तित्थंकरे दुक्कए । कत्तिए पुण्णिमासीइ भे पंचमे सोमंजोए दुजोयावलीणिग्गमे । तइउ तइया तिणाणी समुप्पण्णओ इंदु इंदो रवी कंपिओ पण्णओ। आइया भावणा जोइसा विंतरा सायरा भासुरा कप्पवासी सुरा। अंकुसो भामिओ देहभाधारिणा चोइओ वारणो झत्ति जंभारिणा। णञ्चमाणा परे गायमाणा परे धावमाणा परे खेलमाणा परे । "सट्टहासा परे गजमाणा परे सीहसद्दा परे संखसहा परे। छाइयासारसा सारसा सासुरा ''चित्तचारेहिं पत्तेहि पत्ता सुरा । घत्ता-पुरु परियंचेप्पिणु घरु जाएप्पिणु जणणि हि देप्पिणु सिसु अवरु ।। पियरइं पुज्जेपिणु कर मउलेप्पिणु लइउ सुरिंदें तित्थयरु ।।५।। २० जिणरूवरिद्धि पेच्छंतियइ सुरवरपंतिइ गच्छंतियइ । तक्खणि तारायणु लंघियउ सुरसिहरिसिहरु आसंघियउ । पविलोइय पंडुर पंडुसिले सा खंडससंकसमाण किले। ता तहिं सईइ सई धारियउ करिकंधराउ उत्तारियउ । दिन रत्नवृष्टि की गयी। फिर जितशत्रुके पुत्र दूसरे तीर्थंकर ( अजितनाथ ) के कमसे निवृत्त होनेसे लेकर दीर्घ समुद्र प्रमाण तीस करोड़ वर्ष समय बीतनेपर कार्तिक शुक्ला पूर्णमासीके दिन मृगशिरा नक्षत्र में दुर्योगावलीसे रहित सौम्ययोगमें तीन ज्ञानधारी सम्भवनाथका जन्म हुआ। इन्द्र, इन्दु, और नागराज कांप उठे। भवनवासी, व्यन्तर, ज्योतिषदेव और भास्वर कल्पवासो देव आदरपूर्वक आये । शरीरकी कान्तिके धारक इन्द्रने अपना अंकुश घुमाया और शीघ्र अपने हाथीको प्रेरित किया। कोई नाच रहे थे, कोई गा रहे थे, कोई दौड़ रहे थे, कोई खेल रहे थे। कोई अट्टहास कर रहे थे, कोई गरज रहे थे। कोई सिंहगर्जना कर रहे थे। कोई शंख बजा रहा था। दंवोसे पृथ्वी और आकाश छा गये। उत्कृष्ट लक्ष्मीसे युक्त देवों के साथ देव नाना प्रकारकी प्रवृत्तिवाले वाहनोंके साथ आये । घत्ता-नगरकी परिक्रमा कर घर जाकर, माताको दूसरा पुत्र देकर, माता-पिताकी पूजा कर और हाथ जोड़कर जिनेन्द्र भगवान्को ले लिया गया ॥५॥ जिनेन्द्रकी रूपऋद्धि देखती हुई, देवताओंकी कतार जाती हुई, शीघ्र तारागणोंको लांघती हुई सुमेरुपर्वतके शिखर पर पहुंची। वहां सफेद पाण्डुक शिला देखी जो चन्द्रमाके खण्डके समान थो । वहां उसने इन्द्राणीके साथ उन्हें उठा लिया और हाथीके कन्धेसे उन्हें उतारा । प्रभुको ७. AP पत्तए । ८. A बीइ तित्थंकरे । ९. A सोम्मजोए। १०. A इंदु इंदो रई कि पि उप्पण्णओ; P सहसु लक्खणहं वसुअहियसंपुण्ण प्रो। ११. A देहभावारिणो; P देहसाधारिणा। १२. A जंभारिणो । १३. AP खेल्लमाणा । १४. A सद्दहासा । १५. P संखसद्दा परे पडहसद्दा परे । १६. A चित्तधारेहि; P चित्तयारेहि । ६. १. AP पंडुसिला। २. AP किला । Page #95 -------------------------------------------------------------------------- ________________ महापुराण [४०. ६. ५.हरिआसणि पहु वइसारियड इंदेण मंतु उच्चारियउ। दिण्णउं दब्भासणु णिहयमलु दसदिसु परिचित्तु सकुसुमजलु । दसदिसु सुधूवु उच्चाइयउ। दसदिसु चरुभाउ णिवेइयउ। दसदिसु थिये सुरवर कलसकर दसदिसु वित्थरिय मुइंगसर । खीरोयखीरधाराधरहिं सिंचिउ जिणिंदु सयलामरहिं । हारावलितडिफुरिएहिं किह गजंतिहिं मेहहि मेरु जिह । घत्ता-मंगलु गायतिहिं पुरउ णडंतिहिं दावियबहुरसभीवहिं । णाणाविहभासहिं थोत्तसहासहिं जगगुरु संथुउ देवहिं ॥६।। हरिणा परमेट्ठि पसाहियउ सुइथुइगिराहिं आराहियउ । सिहिणा तहु दीवउ बोहियउ जउं जंपइ हां पई साहियउ। रिंछाहिउ रिछहु ओयरिउ विणएण णएण जि संचरिउ । जडबईणा जडमणु परिहरिउ परमप्पउ णियहियवइ धरिउ । वाएण भडारउ विज्जियउ रयणेसें रयणहिं पुजियउ । इसाणे ईसु भणिवि णविउ 'सुसुहासूएं सुहाहि हविउ । सूरेण वि मोहंधारहरु सूरु जि णिज्झाइउ परमपरु। सिंहासनपर बैठाया। इन्द्रने मन्त्रका उच्चारण किया। दर्भासन रखा, और दसों दिशाओं में मलका नाश करनेवाला कुसुमोंसे सुवासित जल फेंका। दसों दिशाओंमें धूप उठा ली गयो, दसों दिशाओंमें चरुभाग निवेदित किया गया। हाथमें कलश लिये हुए देव दसों दिशाओंमें खड़े हो गये। मृदंगका स्वर दसों दिशाओं में फैल गया। क्षीरसमुद्रके क्षीरकी धाराओंको धारण करनेवाले समस्त देवोंने जिनेन्द्रका इस प्रकार अभिषेक किया, जैसे हारावलोके समान बिजलीसे भास्वर गरजते हुए मेघों द्वारा सुमेरु पर्वतका अभिषेक किया गया हो। घत्ता-मंगलगान करते हुए, सामने नृत्य करते हुए, अनेक रसभावोंका प्रदर्शन करते हुए, देवोंने अनेक प्रकारको भाषाओंवाले हजारों स्तोत्रोंसे विश्वगुरुको स्तुति की ।।६।। ७ देवेन्द्रने परमेष्ठोको अलंकृत किया। पवित्र स्तुतियोंको वाणोसे उनको आराधना की। आगके द्वारा उनका दीप प्रज्वलित किया गया। यम कहता है कि मैं तुम्हारे द्वारा जीत लिया गया हूँ। नैऋत्यदेव अपने रोछके वाहनसे उतर पड़ा। वह विनय और नयके साथ चला । जड़वादी ( वरुण) ने जड़बुद्धि छोड़ दी। उसने परमात्माको अपने हृदयमें धारण कर लिया। वायु ने आदरणीय पर पंखा झला, रत्नेशने रत्नोंसे उनकी पूजा की। ईशानने ईश कहकर नमन किया। चन्द्रमाने अमृतसे स्नान करवाया। सूर्यने भो मोहान्धकारका नाश करनेवाले शूरवीर जिनका ३. P सुकुसुम । ४. A दसदिस सुधूम; P दसदिसु सुधूमुच्वा। ५. AP सुरवर थिय । ६. A "भाविहिं; P* मावेहि । ७. A णाणाविहभासिहि: Pणाणाविहिभासेहि । ७. १. P सइथुई। २. AP जडवयणा। ३. A ससुहासूई; P सुसुहासूई । Page #96 -------------------------------------------------------------------------- ________________ -४०.८.१२] महाकवि पुष्पदन्त विरचित धरणिंदें धरणिसमुद्धरणु पत्थिउ महुं देव तुहुँ जि सरणु । इय बहुगिन्वाणहिं बंदियउ ध्रुवें संभवु संभवु सहियउ। पत्ता-पुणु पुणु पणवेप्पिणु घरु आणेप्पिणु दिण्णु सुसेणासुंदरिहि ॥ गुरुचरणइं अंचिवि सुकिउ संचिवि गउ सुरवइ सुरवरपुरिहि ॥७॥ १० कणयच्छवि सुष्टु सलक्खणउ जहिं दीसइ तहिं जि सुहावणउ । अंगउ लायण्णमहिड्डियउ चउचावसयाई पव ड्डियउ । जसु आयत्तउ सयमेव विहि सो किं वणिज्जइ रूवणिहि । जसु अंगि दुद्ध लोहिउं गणमि सो खमवंतउ किं किर भणमि । जसु गुणपरिमाणु णेय लहंवि सो सूहउ हउं किरें किं कहंवि। अच्छरणररामाणंदणहु तहु तेत्थु सुसेणाणंदणहु । कीलंतहु अमरवरेहिं सहुं भुजंतहु रायकुमारसुहूं। घरघडियारयदंडेण हय पुत्वहं पण्णारहलक्ख गय । पइरत्तउ पेच्छिवि तरुणियणु आहंडलु आयउ तहिं वि पुणु । उवणेप्पिणु नृवंइकुमारिगणु पारंभिउ रायँहु परिणयणु । पत्ता-तूरहिं वजतहिं गलगजंतहिं तियसेहिं कि ण विसेंट्ट महि ।। जिणणाहु ण्हवंतिहिं वारि वहतिहिं किं जाणहुं सोसिउ उवहि ॥८॥ ध्यान किया। धरणेन्द्रने प्रार्थना की-"हे धरतीका उद्धार करनेवाले देव, आप ही मेरे लिए शरण हैं।" इस प्रकार देवोंने उनकी वन्दना की और निश्चित रूपसे 'सम्भव-सम्भव' शब्दका उच्चारण किया। पत्ता-बार-बार प्रणाम कर और घर आकर, ( उन्होंने ) सुन्दरी सुषेणाको बालक दे दिया। गुरुके चरणोंकी वन्दना कर और पुण्यका संचय कर इन्द्र अपने स्वर्ग चला गया ॥७॥ स्वर्ण रंगवाले और लक्षणोंसे युक्त वह जहां दिखाई देते वहीं सुन्दर लगते। लावण्य और ऋद्धियोंसे सम्पन्न उनका शरीर चार सौ धनुष ऊंचा था। जिसके अधीन स्वयं विधाता हैं, उस रूपनिधिका क्या वर्णन किया जाये ? जिसके शरीरमें मैं रक्तको दूध गिनता हूँ, उनको मैं क्षमावान् किस प्रकार कहूँ? मैं जिसके गुणोंके परिमाणको नहीं पा सकता, उन्हें मैं सुभग किस प्रकार कह ? अप्सराओं, मनुष्यों और खियोंको आनन्दित करनेवाले, सुषेणादेवीके पत्र ( सम्भव ) के देवोंके साथ क्रीड़ा करते हुए, और राजकुमारका सुख भोगते हुए, घरकी घड़ोके दण्डसे आहत पन्द्रह लाख पूर्व वर्ष निकल गये। पतिमें अनुरक्त युवतीजनको देखकर, इन्द्र दुबारा आया। राजाओंकी कन्याओंका समूह देकर उनका विवाह प्रारम्भ किया गया। पत्ता-बजते हुए तूर्यो, गरजते हुए देवेन्द्रोंसे क्या धरती विशिष्ट नहीं हुई ? जिननाथका अभिषेक करते और पानी बहाते हुए क्या जाने कि समुद्र सूख गया ॥८॥ ४. A ध्रव संभव संभ3; P धुउ संभउ संभउ । ५. A वेप्पिणु । ८. १. AP महड्डियउ । २. A किं किर । ३. A रामावंदणहु । ४. A ता तेत्थु । ५. AP पेविखवि । ६.T उवणेविणु । ७. AP णाहह । ९. P विसड्ढ । Page #97 -------------------------------------------------------------------------- ________________ महापुराण भालयलइ पट्ट' चडावियर रायासणि राउ चडावियउ। चितंतहु तासु णयाणयई पालंतहु गामणयरसयई। पुव्वहं परमाउहि संचलिय चालीस चयारि लक्ख गलिय । तइयहं तहिं दियहि सुसोहणइ अच्छंतहु सुहं सणिहेलणइ । अवलोइवि गयणि विलीणु घणु थिउ महिगयणयणु विसण्णमणु । वेरग्गु पहूय जिणवरहु हरि सजव वि णेति ण सिवपुरहु । गय मत्ता महुं वि जणंति मउ पहु रह रहति मुणिधम्ममउ । चामरवाएं नृवु मोडियउ भणु कवणु ण काले तोडियउ । सिरि धरियई वारिणिवारणई पुणु होंति ण मारिणिवारणई। तहिं अवसरि लोयंतिय अइय ते विण्णवंति भत्तिइ लइय । जं इंदियसोक्खु समुज्झियउं तं चारु चारु पई बुझियउं । । धत्ता-जो पई संबोहइ सो संबोहइ सूरहु दीवउ मूढमइ । __ पई मुइवि गुंणुब्भव सामिय संभव को परियाणइ परमगइ ॥९॥ आणंदु ण हियवइ माइयउ पुणु परिबुड्ढहिं देवावलिहिं थिरदीहरहत्थगलत्थियहिं पुणु तेत्थु पुरंदरु आइयउ । आहूँय दुद्धसलिलावलिहिं । चामीयरघडपल्हत्थियहिं । उनके भालतलपर पट्ट बाँध दिया गया और राज्यासन पर राजाको बैठा दिया गया। न्याय-अन्यायको चिन्ता करते और सैकड़ों ग्राम-नगरोंका पालन करते हुए, उनकी परमायुके चालीस लाख पूर्व वर्ष और बीत गये। एक दिन, तब, अपने सुन्दर प्रासादमें सुखसे बैठे हुए उन्होंने आकाश में लुप्त होते हुए मेघको देखा। वह धरतीमें आँखें गड़ाकर उदासमन हो गया। जिनवरको अत्यन्त वैराग्य हो गया। (वे सोचते हैं कि तेजसे तेज वेगवाले भी अश्व शिवपुर नहीं ले जा सकते। मदवाले गज भी मुझमें मद उत्पन्न नहीं करते, रथ मुनिधर्ममय पथका अवरोध करनेवाले होते हैं, चामरोंको हवासे राजा मोड़ दिया जाता है, बसाओ संसारमें कालसे कोन नहीं तोड़ दिया जाता। सिरपर धारण किये गये छत्र, फिर मुल्यका निवारण करनेवाले नहीं होते। उस अवसरपर लोकान्तिक देव आये, उन्होंने भक्तिके साथ निवेदन किया, "जो आपने इन्द्रिय-सुखोंका त्याग किया है, वह आपने अच्छा किया। पत्ता-जो आपको सम्बोधित करता है, वह मूढ़मति दीपक, सूर्यको सम्बोधित करता है ? हे गुणसम्भव स्वामी, आपको छोड़कर और कौन परमगति को जान सकता है ?" ॥९॥ जिसके हृदयमें आनन्द नहीं समा सका ऐसा इन्द्र फिर आया। पुनः दूध और जलोंकी (कलश पंक्तियां ) लानेवाली बढ़ती हुई देवपंक्तियोंने अपने लम्बे स्थिर हाथोंसे गिरती हुई स्वर्ण९. १. P पट्ट । २. A णयरगामसयई। ३. A दिवसि । ४. AP सहुँ । ५. A पहूवउं । ६. AP णिवु । ७. AP गुणण्णव । १०.१. AP परितुट्टिहिं । २. A आहूउ । Page #98 -------------------------------------------------------------------------- ________________ -४०. ११. ३ ] महाकवि पुष्पदन्त विरचित संविउ विउ पोमाइयउ दुम्मो मुप्पि रज्जेगहु परमेसरु पणइणिपाणपिउ बहुखगमाणियफल साउयडं परिसेसेप्पिणु सिरिरर्मणिउरु उप्पाडिउ केसकलाउ किह सकुसुमु सभसलु सु करिवि करि किड रोसपसायणिक्खवणु वासु करेपिणु सावसरि सावत्थिहि वरियामग्गु किड घत्ता-सुररबु मंदाणिलु घणैर्वैरिसियजलु सुरहिउ मणिको डिहिं सहिउ ॥ दायार पुजिउ दुंदुहि वज्जिउ दाणपुण्णु देवहिं महिउं ॥ १०॥ ११. देतेण ण कडु चितर्विड जं संजमजोग्गड बुज्झियउं तं भुंजइ सउवीरोयणउं वत्थालंकारविराइयउ । सिद्धत्थयसिवियारूदु पहु । रखरहिं तियसहिं वहिवि णिउ । दवणु गंपि सहउँय उं । पणवेष्पिणु देवें सिद्धगुरु । भवकुरुई मूलपब्भारु जिह | सइरमर्णे वित्त मयरहरि । "रायहं सहसें सहुं क्खिवणु । ates दिणि दिrयरकरपेसेरि । "देविददत्तणिव भवणि थिउ । ११ अण्णहु का वि णिम्मविउ । दहिसप्पखीर तेल्लुझियउं । पडिसेहियद कोयणउं । ५१ ५ कलशोंकी कतारोंसे भगवान् को स्नान कराया, और वस्त्रालंकारोंसे अलंकृत कर उनकी स्तुति की । दुर्मोहको उत्पन्न करनेवाले राजरूपी ग्रहको छोड़कर सिद्धार्थं नामक शिविकामें बैठकर प्रणयिनियोंके प्राणप्रिय परमेश्वर मनुष्य, विद्याधरों और देवोंके द्वारा ले जाये गये। जिसके फलोंका स्वाद अनेक पक्षियोंके द्वारा मान्य है, ऐसे सहेतुक नन्दनवनमें जाकर देवने लक्ष्मी और स्त्रियोंका अपने चित्तमें त्यागकर तथा सिद्धगुरुको प्रणाम कर अपने केश इस प्रकार उखाड़ लिये मानो संसाररूपी वृक्षकी जड़ोंको हो उखाड़ दिया हो । पुष्पों और भ्रमरों सहित उन्हें अपने हाथमें लेकर शचीरमण ( इन्द्र ) ने क्षीरसमुद्र में फेंक दिया। उन्होंने क्रोध और प्रसादका संयम कर लिया और एक हजार राजाओंके साथ संन्यास ग्रहण कर लिया । उपवास कर पारणा बैलामें, दूसरे दिन, सूर्यको किरणोंका प्रसार होनेपर वह चर्याके लिए श्रावस्ती में गये और इन्द्रदत्त राजाके घरमें ठहरे । घत्ता - देवशब्द, मन्दपवन, सुरभित मेघोंसे बरसा हुआ जल, रत्नोंके साथ दातारकी पूजा हुई | नगाड़े बजे और देवोंने दान पुण्यका सम्मान किया ||१०|| रायहंससहसें । १६. A दाणवंतु । १० ११ (आहार) देते हुए उसने संकटको चिन्ता नहीं की, जो कि किसी दूसरेके निमित्तसे बनाया गया था, और मुनिके लिए उपयुक्त समझा गया था । दही, घी, खीर और तेलसे रहित था, १५ ३. A सो हविउ । ४. A दुम्मोह । ५. P रज्जु गहु । ६. P णरखेयारतिय सह । ७. Padds after this: आगहणमासि सियकुहुयदिणि, सिलउवरि णिहिउ उद्दयइण । ८. A रमणिय | १२. A यसरि । ० ९. A मूल पब्भारु । १०. A रोसकसायहं । ११. AP १३. P देखेंवुदत्तं । १४. A वरसि । १५. AP गज्जिउ । ११. १. A चितियउ । २. A दुक्खुक्कोहणउं । Page #99 -------------------------------------------------------------------------- ________________ महापुराण [४०.११.४गहणंति कहिं वि अहणिसु गमइ जंपइ ण किं पिसं संसमइ । विहरइ मणपज्जवणाणधरु विसमें जिणकप्पे जिणपवर । तउ एंव करतहु झीणाई चउदहवरिसई वोलीणाई। कत्तियसियपक्खि चउत्थिदिणि. अवरण्हि जम्मरिक्खि वियणि । छट्टेणुववासें णि ट्ठियहु सुविसालसालतलि संठियहु ।। गइ पढमि बीइ सुक्कुग्गमणि चउकम्मकुलक्खयसंकमणि । उप्पण्णउं केवलु केवलिहि। गयणोवडंतकुसुमंजलिहि ॥ घत्ता-तहु जाएं णाणे णेयपमाणे जे केण विण वि चिंतविय ॥ ते विवरि अहीसर महिहि महीसर सग्गि सुरिंदवि कंपविय ॥११।। खगामिणा ससामिणा। समेयया अमेयया। अमाहरा रमाहरा। मलासयं णियासयं । कुणतया थुणंतया। मुणीसरं सरो सरं। ण संधए ण विधए। ण जम्मि सा मलीमसा। रइच्छिहा कया विहा। महाजसं तमेरिसं। महाइया पराइया। ऐसा, दर्पकी उत्कण्ठाओंका निषेध करनेवाला थौवीरके भातको उन्होंने खा लिया। गहन वनमें वह कहीं भ्रमण करते हैं, वह कुछ भी नहीं बोलते, आत्माका उपशमन करते हैं, मनःपर्यय ज्ञानके धारी वह जिनप्रवर विषम जिनकल्पमें भ्रमण करते हैं। इस प्रकार तप करते हुए उनके क्षोण चौदह वर्ष बीत गये। तब कार्तिक शुक्ला चतुर्थी के दिन, जन्मकालीन मृगशिरा नक्षत्र में अपराह्न के समय, छठे उपवासके साथ, एक विशाल शाल वृक्षके नीचे बैठे हुए प्रथम और दूसरी गतिमें शुक्लध्यान उत्पन्न होनेपर चार घातिया कर्मों के कुलका क्षय कर लेनेपर, जिनके ऊपर आकाशसे कुसुम वृष्टि हो रही है ऐसे उन केवलीके लिए केवलज्ञान उत्पन्न हो गया। पत्ता-जिसका प्रमाण नहीं है, ऐसे उत्पन्न केवलज्ञानके द्वारा किसीके भी द्वारा नहीं कपाये गये, पाताल लोकके नागेश्वर, धरतीके राजा और स्वर्गके देवेन्द्र भी कम्पित हो उठे॥११॥ अपने स्वामीके साथ विद्याधर प्रचुर संख्यामें इकट्ठे हुए। अलक्ष्मीका नाश करनेवाले लक्ष्मीके धारक, अपने चित्तको मलरहित करते हुए तथा जिनपर कामदेव न तो बाणका सन्धान करता है, और न बेधता है, ऐसे मुनीश्वरकी स्तुति करते हुए, और जिन मुनीश्वरमें मलिन रति-कामनाका अन्त कर दिया गया है, महायशवाले ऐसे मुनीश्वरके पास, वे महा____३. A सं सम्ममइ । ४. A ण वि चितिय; Pण वि चितविया । ५. A वि कपिय; P वि कंपविया । १२. १. P रईछिहा। Page #100 -------------------------------------------------------------------------- ________________ - ४०. १२.३५ ] समासुरा सिमुग्गया रसुद्धुरा सुसाइया सुवत्तया संकिया सरूवया सुगंधया सकारणा ससंभवा ससंगया रयासवं याणिही अहं गया ण ते या सरायया खयं गया सदिया णिबिंदियाँ साहिओ कुकम्मरं कति जे गे परंतु मा C महाकवि पुष्पदन्त विरचित सुरासुरा । समुग्गया । मी गिरा । अणाइया । अवत्तया । सुज्झियो । अरूवया । अगंधया । अकारणा । असंभवा । असंगया । पुणो णवं । तवोविही । अहं गया । वरायया । समायया । महादिया । अनिंदिया | णिवंदिया | पबोहिओ । सुयंतरं । कुबुद्धि ते । पुरीया । ण ताण मा । my १५ २० २५ ३० आदरणीय सुन्दर सुर और असुर आये। उनके मुखसे सभी दिशाओंमें व्याप्त होनेवाली रससे परिपूर्ण यह वाणी निकली - " आप पर्यायकी अपेक्षा आदि हैं, और द्रव्यकी अपेक्षा अनादि । आप अत्यन्त व्यक्त हैं और अव्यक्त हैं, आप रससे युक्त हैं, और रससे रहित हैं, आप स्वरूपवान् हैं और अरूप हैं, आप गन्धयुक्त हैं ओर गन्धहीन हैं, आप कारणसहित हैं और अकारण हैं । आप संसारसहित हैं और संसारसे रहित हैं, ज्ञानसे युक्त होकर भी परिग्रहसे रहित हैं, कर्मोंका आश्रव होनेपर भी आप नये हैं। आप दयाकी निधि और तपका विधान करनेवाले हैं । भंगसे रहित हे देव, जो बेचारे देव आपको नमन नहीं करते वे नरकको प्राप्त होते हैं । रागसहित दूसरोंको ठगनेवाले ( मायावी कपटी ) महाद्विज क्षयको प्राप्त होते हैं । द्रव्येन्द्रियोंसे सहित, भावेन्द्रियोंसे रहित, मनुष्योंसे वंचित जो कुकर्मोंका प्रतिपादन करनेवाले शास्त्रान्तरोंको कहते हैं वे खोटी बुद्धिवाले होते हैं । जो पहाड़ों में और नगरियोंमें उन्हें पढ़ते हैं ( शास्त्रोंको पढ़ते हैं ) उन ब्राह्मणों 1 ३५ २. P adds after this: सतच्चया, अतच्चया । ३ AP संगंधया । ४. P दयामही । ५. PA णिवंदिया । ६. A omits this foot । ७. P कुकम्मदं । ८. AP गएसु वा । ९. P पुरेसु वा । १०. A पत मा । Page #101 -------------------------------------------------------------------------- ________________ महापुराण [ ४०. १२. ३६ सुसासया'' णिरंसया। सुणीरए तुहारए। अदुण्णए बुहा मए। कउन्जमा महाखमा। चरंति जे लहंति ते। परंगई। सुहं गया हयावया। णिरामया सरामया। णिरंजणा णमो जिणा। घत्ता कयमाणवखंभहिं सारसरंभहिं वेल्लीदुर्भमणिवेइयहि ॥ वरधूलीसालहिं णञ्चणसालहिं गोउरथूहहिं चेइयहिं ॥१२॥ जहिं समवसरणु सुरणिम्मविउं गुरु कंठीरवविदुरु ठविउं । जहिं सुविहावलउं विलंबिकरु अलिचुंबियफुल्लु असोयतरु । जहिं णहणिवडिउँ पसूयपयाँ आहंडलडिंडिमु मुयइ सरु । जहिं छत्तई तिणि समुन्भियई विविहई चिंधई चमरई सियई। जक्खिदमउडसिहरुद्धरित जहिं धम्मचकु आराफुरिउ । जहिं वंति गंति णचंति सैर विभैयरसपरवस थक गएँ। तहिं संणिसण्णु सो परममुणि मुणिवयणविणिग्गंड दिवझुणि । को शाश्वत और अंशरहित अर्थात् सम्पूर्ण लक्ष्मी नहीं प्राप्त होती। जो लोग तुम्हारे अत्यन्त पवित्र, दुर्नयोंसे रहित मार्गमें चलते हैं, उद्यम करनेवाले अत्यन्त क्षमाशील वे अपनी आपत्तियोंका नाश कर परमगति और सुखको प्राप्त होते हैं। जो निरामय हैं, कामदेवके रोगसे रहित ऐसे निरंजन जिनको प्रणाम करता हूँ।" पत्ता-बनाये गये मानस्तम्भों, सारसयुक्त जलों, लता-द्रुम और मणिमय वेदिकाओं, श्रेष्ठ धूलिप्राकारों, नृत्यशालाओं, गोपुर-समूहों और चैत्योंसे सहित-॥१२॥ जहाँ देवनिर्मित समवशरण था। उसमें विशाल सिंहासन रखा हुआ था। जहां कान्तिसे सहित, प्रसरित किरणोंवाला, भ्रमरोंसे चुम्बित पुष्पवाला अशोक वृक्ष था, जहां आकाशसे पुष्प समूह गिर रहा था । इन्द्रका नगाड़ा डिम-डिम वाद्य बजा रहा था। जहां तीन छत्र उत्पन्न हुए थे, विविध ध्वजचिह्न और चमर भी। जहां यक्षेन्द्रके मुकुटशिखरपर उद्धृत और आशाओंसे विस्फुरित धर्मचक्र था। जहां देवता गाते-बजाते नाच रहे थे। विस्मय रससे भरे हुए लोक स्थिर रह गये। ऐसे उस समवसरणमें वह परममुनि विराजमान थे। मुनिवरके मुखसे दिव्यध्वनि ११. A सुसंसया । १२. APT महण्णई । १३. A माणवहरखंभहिं; Komits कय । १४. P वल्ली। १३. १. A विदुर । २. AP फुल्ल । ३. णिवडिय । ४. AP°पवरु। ५. A°मउल। ६. AP सुरा। ७. A विभिय । ८. AP णरा । ९. P °विणिग्गय । Page #102 -------------------------------------------------------------------------- ________________ W ४०. १४. ११ ] झुणि साहइ जणजम्मंतरई झुणि साहइ मणुयदेव सुहईं झुण साहइ जीवरासिकुअई महाकवि पुष्पदन्त विरचित पत्ता - झुणि सुणिवि पबुद्धहं जाइविसुद्धहं णिग्गंथहं मउलियकरहूं । जाउ गयगामिहि संभवसामिहि पंचुत्तरु सउ गणइरहं ॥ १३ ॥ १४ चारुसेणु पहिलउ भेणिवि दोसहसई अवरु दिवड्दु स सयति सलक्खु सिक्खुयै मइहिं परमोहिणाणधारिहिं मियई पणार सहसई केवलिहिं सहसाई रिसिंदहं वसुसयई सउ सैंड्दु सहासईं तव समई सब सयहं समउ सयवीसइइ जाई बम्मीसरदारोह लक्खाईं तिणि रइवज्जियह सावियहं लक्ख पंच जि भेणेमि १०. झुण साहइ.. भूमुवणंतरई । झुण साहइ"रतिरियदुद्दई । झुण साहइ बंधमोक्खफलई । गणभुण मेल्लव मुणि गणेविं । पुव्वंगंधर थिउ जिणिवि मउ । एक्कूणतीस सहसइं जइहिं । छहसयई रंध सह संकियई । एक्कूणतीस पसमियकलिहिं । doaणरिद्धिर्हि कयवयई । मणपज्जवधरिहिं धरियसमई । जवाइहिं संखे करविं मइइँ | दुइलक्खई एंव भडाराहं । दहगुणिय तिणि सहसजियहं । सावयहं तिणि ते हजं मुणमि । १० १२ ५५ १० ५ निकलती है । वह ध्वनि जो जन्म-जन्मान्तरका कथन करती है, वह ध्वनि जो भू और भुवनान्तरोंका कथन करती है, ध्वनि जो मनुज और देवोंके सुखोंका कथन करती है, ध्वनि जो नरक और तिर्यंचोंके दुःखों का कथन करती है, ध्वनि जो जीवकुलराशिका कथन करती है, ध्वनि जो बन्ध और मोक्षफलोंका कथन करती है । १० धत्ता - ध्वनि सुनकर प्रबुद्ध हुए जातिसे शुद्ध निर्ग्रन्थ हाथ जोड़े हुए एक सौ पाँच गणधर गजगति से गमन करनेवाले सम्भव स्वामीके गणधर हुए ||१३| १४ उनमें चारुसेनको पहला कहकर, फिर गणप्रमुखको छोड़कर मुनियोंको गिनाता हूँ। दो हजार एक सौ पचास मदको जीतनेवाले पूर्वधारी थे । एक लाख उनतीस हजार तीन सौ शिक्षामतवाले शिक्षक मुनि थे । नौ हजार छह सौ परम अवधिज्ञानके धारी थे । पन्द्रह हजार केवलज्ञानी थे । पापको नष्ट करनेवाले उन्नीस हजार आठ सौ विक्रिया ऋद्धिके धारक मुनि थे । बारह हजार एक सौ पचास शान्तिको धारण करनेवाले मन:पर्ययज्ञानी उनकी सभा में थे । वादी मुनियोंकी संख्या मैं बारह हजार कहता हूँ । इस प्रकार कामदेवको जीतनेवाले आदरणीय दो लाख मुनि थे । रतिसे रहित तीन लाख तीस हजार आर्यिकाएँ थीं । पाँच लाख श्राविकाएँ थीं, तीन लाख श्रावक थे । उनको मैं जानता हूँ । १०. P भुवणु अणंतरई । ११. A णरयतिरियं । १४. १. P भणमि । २. A गणिवि । ३. A सिक्खुव ; P सिक्खयं । ४. AP सद्धु । ५. P सयवीमइह । ६. AP करमि संख । ७. P मइहु । ८. A जाया । ९. A दारयहं । १०. A भडारयहं । ११. AP मुणमि । १२. AP भणमि । Page #103 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ५६ महापुराण [४०.१४. १२पत्ता-अहणिसु कयसेवहं चउविहदेवहं देविहिं संख ण दीसइ ।। संखेजतिरिक्खहं इच्छियसोक्खहं धम्मु अधम्भुवि भासइ ॥१४॥ महि विहरिवि भवियतिमिरु लुहिवि संमेयहु सिहरु समारुहिवि । तहिं दोणि पक्ख तणुचाउ कित रिसिसहसें सहुं षडिमाइ थिउ । दिक्खहि लग्गिवि पुठवह तणउं . चोहवरिसूणउं लक्खु गउ। बद्धाउहि पुठवहं चित्ताई लक्खाई सहि अणुहुत्ताई। मासम्मि पहिल्लइ पक्खि सिइ छट्ठइ दिणि मज्झण्हइ ल्हसिइ । णियजम्मरिक्खि संभाइयउ अवि घाइचउक्कु वि घाइयउ । छेइलउ सुक्कज्झाणु धरिवि किरियाविच्छित्ति झत्ति करिवि । पुग्गलपरिणामहु णवणवहु गउ मुक्कउ संभवु संभवहु । ठिउ अट्ठमपुहँइहि अट्ठगुणु महुँ पसियउ णिकलु णाणतणु । सुरमुक्ककुसुमरयमहमहिउ दीवहिं गंधधूवहिं महिउ । वउ वीयरायरायहु ललिउ अग्गिदमउडमणिसिहिजलिउ । लोएहिं पवित्त पावरहिय अरुहंगभूइ सीसें गहिय । धत्ता-दिन-रात सेवा करनेवाले देवों और देवियोंकी संख्या दिखाई नहीं देती। सुखको चाहनेवाले उसमें संख्यात तिथंच थे। वह धर्म-अधर्मका कथन करते हैं ॥१४॥ धरतीपर विहार कर, भव्य लोगोंके अन्धकारको दूर कर सम्मेदशिखर पर्वतपर आरूढ़ होकर उन्होंने वहां दो पक्ष तकके लिए एक हजार मुनियोंके साथ प्रतिमायोग धारण कर लिया। दीक्षाके समयसे लेकर चौदह वर्ष कम एक लाख पूर्व वर्ष बीतनेपर अपनी बँधी हुई आयुके साठ लाख पूर्व वर्ष भोगकर छोड़ दिये। चैत्र माहके शुक्लपक्षकी छठीके दिन मध्याह्न होनेपर अपने जन्मनक्षत्र में सम्भावित चार घातिया कर्मोंका नाश कर दिया। छेदक शुक्लध्यान धारण कर, शीघ्र सूक्ष्म क्रिया विप्रतिपत्ति कर, उत्पन्न होनेवाले नये-नये पुद्गल परमाणुओंसे मुक्त होकर सम्भवनाथ मोक्ष चले गये। आठ गुणोंसे युक्त वह, आठवीं भूमि ( सिद्ध शिला) में जाकर स्थित हो गये। निष्पाप ज्ञानशरीर वह मुझपर प्रसन्न हों। देवोंके द्वारा मुक्त कुसुमांजलियोंके परागसे महकते हुए, दीपों और धूपोंसे पूजित, वीतरागराजका सुन्दर शरीर, अग्नीन्द्रोंके द्वारा अपने मुकुटको आगसे जला दिया गया। लोगोंने पवित्र, पाप रहित अहंतके शरीरकी भस्म अपने सिरपर ग्रहण की। १२. AP अहम्मु वि हासह । १५. १. A सिहरि । २. P रिसिसहसें पडिमाजोएं ठिउ । ३. A चउदह; P बारह। ४. AP वित्ताई। ५. AP अणुहुंताई । ६. P इय घाई। ७. A परिमाणहु । ८. AP पुहविहि । Page #104 -------------------------------------------------------------------------- ________________ -४०. १४. १४ ] महाकवि पुष्पदन्त विरचित घत्ता-जिणणिव्वाणुच्छवि सच्छरु सविहवि सुरवइ भरहु पणच्चिउ । गर णियेघररंगहु सिंगारंगहु पुप्फदंतणियरचिउ ॥१५॥ इय महापुराणे विसट्टिमहापुरिसणालंकारे महाकइपुप्फर्यतविरइए महामग्वमरहाणुमण्णिए महाकम्वे संभवणिब्वाणगमणं णाम चाकीसमो परिच्छेश्रो समत्तो ॥४॥ ॥ संभवचरियं समत्तं ॥ पत्ता-जिन भगवान्के निर्वाण-उत्सवमें, अप्सराओं और अपने विभावोंके साथ कान्तिमान् इन्द्र खूब नाचा । फिर पुष्पदन्त ( नक्षत्रों ) के समूहसे अचित वह शृंगारस्वरूप अपने घरकी रंगशालाके लिए चला गया ॥१५॥ इस प्रकार त्रेसठ महापुरुषोंके गुणालंकारोंसे युक्त महापुराणमें महाकवि पुष्पदन्त द्वारा विरचित एवं महामन्य भरत द्वारा अनुमत महाकाव्यका चाकीसवाँ परिच्छेद समाप्त हुआ ॥४०॥ ९. Pणियपरि रंगह वज्जियभंगह। १०. AP omit संभवचरियं समत्तं । ८ Page #105 -------------------------------------------------------------------------- ________________ संधि ४१ अहिणंदणु इंदाणंदयरु णिदिदियई णिवारउ ।। वंदारयवंदहिं वंदियउ वंदिवि संतु भडारउ ॥ध्रुवक।। असोक्खकंतारयं ण जं च कंतारयं जेणस्स सं गंगयं विइण्णमलभंगयं सुवण्णरुइरंगयं विहंसियणिरंगयं रयं परमघोरयं हयभवोहकंतारयं । ण्हवणयम्मि कं तारयं । कुणइ जस्स संग गयं । हुणइ वड्ढमाणं गयं । जसपउण्णभूरंगयं । जणियभावणारंगयं । असमसंपयावारयं। सन्धि ४१ इन्द्रको आनन्द देनेवाले निन्दित इन्द्रियोंके द्वारा निवारित देवसमूहके द्वारा वन्दित सन्त भट्टारक अभिनन्दनकी में वन्दना करता हूँ। जो दुखरूपी जलसे तारनेवाले और जन्मसमूहरूपी कान्तारको नष्ट करनेवाले हैं, जो स्वयं कान्तामें रत नहीं हैं, जिनके अभिषेककर्मका जल स्वच्छ है, गंगासे उत्पन्न और उनके शरीरसे प्राप्त जो जल लोगोंके लिए सुख उत्पन्न करता है। मलोंका घातक जो बढ़ते हुए रोगोंका नाश करनेवाला है, जिनके शरीरकी कान्ति स्वर्णके समान है, जिनके यशसे समस्त भूमिमण्डल परिपूर्ण है, जिन्होंने कामदेवको ध्वस्त कर दिया है, जिन्होंने सोलह कारण भावनाओंमें राग पैदा किया है, जो आत्मरत और परम अरोद्र हैं। जो क्रोधरूपी सम्पत्तिका निवारण करने Mss. A and P have the following stanza at the beginning of this Sarndhi: वरमकरोदपारतरविवरमहिकिरणेन्दुमण्डलं यदपि च जलधिवलयमधिलंध्य विधेस्तदनन्तरं दिशः । विगलितजलपयोदपटलद्युति कथमिदमन्यथा यशः प्रसरदमादमल्लकदनाभारत भूवि भरत सांप्रतम ॥१॥ A reads 'किरद्धिमण्डलं in the first; P reads विधिसूदनन्तरं दिशः। PrePeats the stanza at the beginning of XLVII. A gives it only here. K doee net give it here or there. १. १. AP विदहि । २. AP add a before जणस्स । ३. AP हणइ । Page #106 -------------------------------------------------------------------------- ________________ -४१. २. ७ ] महाकवि पुष्पदन्त विरचित सुजायमसरीरिणं जमीसममरश्चियं अहं तमणिंदणं भणामि तव्ववसियं aणे च मुएउ मा णा सणं इमं सुकियवास घत्ता - जिंव सुयकेवलि जिंव तियसवइ जिंव पुणु थुणउ फणीसरु ॥ ह रु जीहासह सेण विणु किं वण्णवि परमेसरु ||१|| २ सालतालतालीदुमोहए संचरंति करिमयर संतई तीई तीरि दाहिणइ पविउले वारिवाहधाराहि सित्तए छेत्तवालिणीसह संगए बेकरं बहुदुद्धगोहणे सवण्णछणे अणूसरे हिणिऊर्णेमसरीरिणं । गुणणि सेणियाहिं चियं । पणविऊण धीणंदणं । किर कह तिणा ववसियं सुहयमाणणीवाणरे । सुण पावणिण्णासणं । लहउ सम्मईसासणं । मेसह रिपुवे विदेहए । वहइ गहिर सीया महाणई । चूयचारफलघुलियर्सु विउले । मुग्गमासजैववीहिछेतेए । दिण्णकण्णसंठि कुरंगए । वच्छमहिसवसहिंदसोहणे । सरतरंत किंणरवहूसरे । ५९ १० वाले हैं, जो सुजात सिद्ध और दारिद्रयरूपी ऋणका नाश करनेवाले हैं, ईश्वर जो देवोंके द्वारा पूज्य हैं, जो गुणरूपी सीढ़ियोंसे समृद्ध हैं, ऐसे बुद्धिको बढ़ानेवाले अभिनन्दनको प्रणाम कर उनके व्यवसित ( चरित) को कहता है कि जिसकी उन्होंने चेष्टा की। जिसमें चटुल वानर हैं, और जो सुन्दर मानिनियोंके लिए पीड़ाजनक है, ऐसे संसाररूपी वनमें मनुष्य शब्दको न कहे, (चुप रहे ) तथा पापका नाश करनेवाले उस शब्दको ( कथान्तरको ) अवश्य सुने, जिसमें पुण्य ( सुकृत ) की वर्षा है, तथा सन्मतिके शासनको प्राप्त करे । १५ पत्ता - जिस प्रकार श्रुतकेवली इन्द्र, और जिस प्रकार नागेश्वर स्तुति करता है, में मनुष्य, हजारों जीभोंके बिना परमेश्वरका वैसा वर्णन कैसे कर सकता हूँ ? ॥१॥ २ I सुमेरुपर्वतके पूर्व में शाल और ताल तथा ताली वृक्षोंके समूहसे युक्त विदेह क्षेत्रमें गजों और मगरोंकी परम्परा जिसमें संचरण करती है, ऐसी गम्भीर सीता नदी बहती है । उसके विशाल दक्षिणी किनारेपर मंगलावती भूमिमण्डल ( देश ) है, जिसके आम्र और चार वृक्षोंपर विशाल पक्षिकुल आन्दोलित है, जो मेघकी धाराओंसे अभिषिक्त है । जिसमें मूंग, उड़द, जौ और धान्यके खेत हैं। जो क्षेत्रोंको रखानेवाली बालिकाओंके शब्दसे युक्त है, जिसमें हरिण कान दिये हुए बैठे हैं, अत्यधिक दूध देनेवाला गोधन जिसमें रंभा रहा है, जो बछड़ों, महिषों और वृषभेन्द्रोंसे शोभित है, जो सब प्रकारके धान्योंसे आच्छन्न और उपजाऊ है। जिसके सरोवरोंमें किन्नर वधुएँ ४. A°मसिरीरणं । ५. P गुणिणिसेणि । ६. A चटुलवाणरे; P चवलवाणरे । ७. A जिण पुणु । २. १. A पुब्वविदेहए । २. A संवरंत । ३. A ताइ । ४. P पविउले । ५. A मुग्गमाह । ६ P त् । ७. A वेकरंत बहुबुद्ध; P बुक्करं । Page #107 -------------------------------------------------------------------------- ________________ महापुराण [४१. २.८कंजपुंजरुंजंतमहुलिहे कयलिललियलवलीलयागिहे। णिसुयमहरपियमाहवीसरे पहियहिययगयविसमैसरसरे। 'उच्छवीलणुल्ललियरसजले मंगलावईभूमिमंडले। को वेटुलट्टालदुग्गम रुद्धकुद्धलुद्धारिसंगर्म । खोल्लखाइयावूढकोमलं पंचवण्णकेलिल्लिचंचलं। मणिगणंसुमालाविरोहियं कुर्वेदीहियावाविसोहियं । कणयघडियघरपंतिपिंगलं णिञ्चमेव संगीयमंगलं। अमियरायरिद्धीपपवेट्टेणं रयणसंचयं णाम पट्टण । तत्थ वसइ राया महाबलो भुयबलि व धीरो महाबलो। जस्स लच्छिकंता उरत्थले रमइ कित्तिरमणी महीयले । दीहकालमवियलेमणोरह" मुंजिऊण रज रमासुई। किं कुणामि णिचं परासुहं हो मुयामि इणमो परासुहं । माणसं दमेणं णियंतियं एम तेण सहसा विचिंतियं । घत्ता-धणवालहु बालहु णियसुयहु विरइवि पट्टणिबंधणु ॥ सो पासि विमलवाहणजिणहु जायउ राउ तवोहणु ॥२॥ तैरती हैं, जहां कमलोंके समूहपर भ्रमर गुंजन कर रहे हैं, जिसमें कदलियों और लवली लताओंके सुन्दर लतागृह हैं, जिसमें कोयलोंके मधुर स्वर सुनाई दे रहे हैं, जहां पथिकोंके हृदय कामदेवके विषम तीरोंसे आहत हैं, जिसमें गन्नोंके पेरनेसे रसरूपी जल उछल रहा है। उसमें ( मंगलावती देशमें ) रत्नसंचय नामका नगर है, जो परकोटों और गोल-गोल अट्टालिकाओंसे दुर्गम है। जिसमें क्रुद्ध और लोभी शत्रुओंका समूह अवरुद्ध हैं, जो कोटरों और खाइयोंसे व्याप्त और कोमल है, जो पांच रंगोंकी पताकाओंसे चंचल है, जो मणिगणोंकी किरणमालाओंसे सुशोभित है, और कूप और दीर्घ वापिकाओंसे सशोभित है. जो स्वर्णनिर्मित गह पंक्तियोंसे पीला है. और जिस संगीत और मंगल होते रहते हैं, जिसमें अमित राज्यवैभव बढ़ रहा है। उसमें (रत्नसंचय नगरमें) राजा महाबल नामका राजा निवास करता था, जो बाहुबलिके समान धीर और महाबली था। जिसके उरस्थलमें लक्ष्मीकान्ता रमण करती थी, और महीतल पर कोतिरूपी रमणी। लम्बे समय तक निर्विघ्न मनोरथ राज्य और रमासुखका भोग करनेके बाद एक दिन उसने सहसा विचार किया कि मैं नित्य दूसरोंके प्राणोंका घात क्यों करता हूँ ? हा, मैं इन अत्यन्त अशुभ ( कामोंको) छोड़ता हूँ। मैं अपने मनको संयमसे नियन्त्रित करता हूँ। पत्ता-अपने पुत्र बालक धनपालको पट्ट बांधकर, वह राजा विमलवाहन जिनके पास जाकर मुनि हो गया ॥२॥ ८. A°जरयरत्त । ९. P°विसमसरिसरे । १०. A उच्छपीलणु; P उच्छुपोलणुं । ११. A कोट्टबद्धलंटालदुग्गमं; P कोट्टवटुलाट्टालसंगमं । १२. P कुद्धलुदमुखारिदुग्गमं । १३. A पंचवण्णकंकेल्लि । १४. P दीविया । १५. A° पवड्ढणं । १६. A P°मविलयं । १७. A मणोहरं। १८. A 'रमाहरं । १९. P कुणोमि । २०. हो ण जामि । Page #108 -------------------------------------------------------------------------- ________________ -४१४.३] महाकवि पुष्पवन्त विरचित सो णिग्गंथु गंथु'ण समीहइ सणियउं वियरइ पावहु बीहइ । ण पसंसाइ करइ पहसिउं मुहुँ णउ केण वि प्रिंदिउ मण्णइ दुहुँ। दूसंतउ पर पिसुणु ण दूसइ हिंसंतउ मणावि णउ हिंसइ। लाहालाहइ जीवियमरणइ समु जि समणु संठिउ समचरणइ । जिणिवि कुहेउवाय णयचंडहं . तिणि तिउत्तरसँय पासंडहं । एयारह अंगई अवगाहिवि दसणु सुद्धि बुद्धि आराहिवि। बंधिवि कयसोलहकारणहलु सिरिअरहंतणारं गोत्तुज्जलु । णिहणयालि अणसणु अब्भसियउं देहखेत्तु रिसिहलिएं किसियउं । कामकोहधरणीसह खंडिवि पासहिं दिहिवइ दढयर मंडिवि । णाणसासु वड्ढारिउ चंगउं सासु मुयंतें मुक्कु णियंगउं । घत्ता-सुहमाणे मुउँ सो परमरिसि णिम्मलु णिरुवमरूंयउ॥ ... अहमिंदु अणुत्तरि धवलतणु विजयविमाणई हूयउ ॥३॥ १० जलहिसमैमिए कालि णिग्गए तम्मि सुंदरे तीसतियहिए। सुरेहं मृग्गए। हं पुरंदरे। वह निर्ग्रन्थ मुनि, परिग्रहकी इच्छा नहीं करते, धीरे-धीरे विचरण करते, और पापसे डरते । प्रशंसासे वह अपना मुख हँसता हुआ नहीं करते (प्रसन्न नहीं होते ), और किसीके द्वारा निन्दा किये जाने पर दुःख नहीं करते। दूषण लगाते हुए भी दुष्टको वह दोष नहीं देते। हिंसा करनेपर भी, जरा भी हिंसा नहीं करते। लाभ-अलाभ, जीवन और मरणमें सम, वह श्रमण समताके आचरणमें स्थित हो गये। कुहेतुवादोंको जीतकर और नयसे प्रचण्ड तीन सौ सठ पाखण्डोंको जोतकर, ग्यारह अंगोंका अवगाहन कर दर्शनशुद्धि और बुद्धिकी आराधना कर, सोलह कारण भावनाओंके फल, श्री अरहन्तके उज्ज्वल गोत्रका बन्ध कर, उन्होंने अन्तिम समय अनशनका अभ्यास किया, और देहरूपी खेतको मुनिरूपी कृषकने कर्षित किया। काम-क्रोधरूपी वृक्षोंको उखाड़कर चारों ओर धैर्यको मजबूत बागड़ लगाकर उन्होंने ज्ञानरूपी धान्य खूब बढ़ा ली, सांस छोड़ते ही उन्होंने अपने शरीरका त्याग कर दिया। पत्ता-शुभध्यानसे मरकर वह निर्मल परममुनि, और विजय नामक अनुत्तर विमानमें अनुपम रूपवाले धवलशरीर अहमेन्द्र देव हुए ॥३॥ तोन अधिक तीस अर्थात् तेंतीस सागर प्रमाण, देवरीतिसे समय बीतनेपर, उस शुभाशय ३. १. Pण गंथु । २. A P पहसियमुह । ३. A परपिसुणु ण दूसइ; P परि पिसुणु ण दोसइ । ४. A P तिणि तिसठिसयई। ५. A Pदंसण । ६. A रिसिहलि संकिसिय । ७. A मुयउ। ८. A P रूबउ । ९. Aषणत्तक । १०. P विमाणे । ४. १. A समणिए; P समसिए । २. A सुरहरं गए । Page #109 -------------------------------------------------------------------------- ________________ महापुराण [४१.४.४ थिई सुहासए आउसेसए । धरियजीवए पढमदीवए। वइरिखंडणा भरहमंडणा। अस्थि सुहयरी कोसलाउरी। रिसहकुलरुहो पुण्णससिमुहो। तहिं महीसरो णाम संवरो। तस्स इथिया साहियत्थिया। चारुहारिया सुइसरीरिया। भवणलच्छिया मउलियच्छिया। णिसिविरामए चरमजामए। पेच्छए हियं सिविणमालियं । गलियमयजलं अमरमयगलं। कुंदपंडुरं गोवई वरं। णहरदारुणं दुरयवइरिणं। बहुविलासिणी णलिणवासिणी। भमररामयं कुसुमदामयं । णयणपरिणयं सिसिरकिरणयं । णिय तिमिरयं तरुणमिहिरयं। रमणरसणयं मीणमिहुणयं । सजलकमलयं कलसजुवलयं । रमियरोयरं पंकयायरं। मयरमीयरं खीरसायरं। लच्छिसासणं हरिवरासण। हरिणिहेलणं फणिणिकेयणं। सुमणिसंगह अवि य हुयवहं। अहमेन्द्रकी थोड़ी आयु शेष रहनेपर, जीवोंको धारण करनेवाले प्रथम द्वीप (जम्बूद्वीप) में शत्रुका खण्डन करनेवाली, भारतका मण्डन, तथा शुभ करनेवाली कौशलपुरी नगरी थी। उसमें ऋषभकुलका अंकुर, पूर्व चन्द्रमाके समान मुखवाला स्वयंवर नामका राजा था। उसको सिद्ध करनेवाली (सिद्धार्था) नामकी पत्नी थी। सुन्दर पवित्र शरीरवाली उस भुवनलक्ष्मीने आंखें बन्द किये हए, रात्रिको अन्त होनेपर अन्तिम प्रहरमें सुन्दर स्वप्नमाला देखी। मद झरता हुआ ऐरावत महागज; कुन्दपुष्पके समान श्रेष्ठ वृषभरांज; नखोंसे भयंकर गजका शत्रु (सिंह); कमलोंमें निवास करनेवाली, बहुविलासिनी ( लक्ष्मी); भ्रमरोंसे सुन्दर कुसुममाला; नेत्रोंके लिए सुन्दर चन्द्र अन्धकारको नष्ट करनेवाला तरुणसूर्य; रमणकी ध्वनि करता हुआ मोनयुगल; कमल और जलसे सहित कलशयुगल, जिसमें चक्रवाक क्रीड़ा कर रहे हैं ऐसा कमलाकर, मगरोंसे भयंकर क्षीरसमुद्र, लक्ष्मीका शासन सिंहासन, देवोंका विमान और नागभवन, मणियोंका समूह और अग्नि । ३. A थिय । ४. P reads this line as : पढमदीवए धरियजीवए । ५. A P कोसलापुरी । ६. P "सरीरया। ७. A मोलियच्छिया । ८. A चरिम । ९. P reads this line as: गोवई वरं कुंदपंडुरं। १०. A कमलवासिणि । ११. A णिहिय । १२. A तरुणि । १३. P रमियखेयरं। Page #110 -------------------------------------------------------------------------- ________________ -४१. ५.११] महाकवि पुष्पदन्त विरचित घत्ता-इय दंसणणि उरुंबउ सइइ सुहसुत्ताइ णिरिक्खिउ ।। सुविहाणइ संवरणरवइहि जं जिह तं तिह अक्खिउ ॥४॥ तं णिसुणिवि जसधवलियमहियलु कहइ कंतु कंतहु सिविणयफेलु । जो तिहुवणमंगलु तिहुयणवेइ जं झायंति जोइँ गयमलमइ । सो तुह होसइ सुउ मई णायउं । णञ्चहि सुंदरि चंगउं जायउं । तहिं अवसरि दिवि सकें बुक्किउं संवरैमहिवइ मुंजउ सुक्किउ । सिरि अरहंतु देउ अवलोयउ । सिद्धत्थइ सिद्धत्थु जणेवउ । मा होजउ तहु किं पि दुगुंछिउ अहु णिहिणाह करहि हियइच्छिउँ । ता साकेयणयरु वित्थारिउ अहिणवु धणएं सव्वु सवारिउँ । फुरियपसंडिपिडु पविरइयउ जहिं दीसइ तहिं तहिं अइसइयउ । कडयम उडमंडियवरगत्तउ उयरसुद्धिपारंभणिउत्तउ । घत्ता-सोहम्मसुरिंदें पेसियउ सव्वउ पुण्णपसत्थउ । घर रायहु आयउ देवयउ मंगलदम्वविहत्थर ।।५।। पत्ता-इस प्रकार सुखसे सोयी हुई उस सतीने स्वप्न-समूह देखा। दूसरे दिन सुन्दर प्रभातमें, उसने जैसा देखा था, वेसा अपने पति राजा स्वयंवरसे कहा ॥४॥ यह सुनकर अपने यशसे महीतलको धवल कर देनेवाले कन्तने अपनी कान्तासे कहा"जो त्रिभुवनके मंगल और त्रिभुवनपति हैं, निर्मल मतिवाले योगी जिनका ध्यान करते हैं, वह तुम्हारे पुत्र होंगे, मैंने यह जान लिया है। हे सुन्दरी, तुम नाचो; यह बहुत अच्छा हुआ।" उसी अवसरपर स्वर्गमें इन्द्रने कहा कि राजा स्वयंवरको पुण्यका भोग हुआ है । देखो, वह श्री अरहन्त देवको सिद्धार्थकी तरह, सिद्धार्थासे जन्म देगा। हे कुबेर, उनके लिए कुछ भी खराब बात न हो, जाओ तुम उनकी इच्छाके अनुसार काम करो। तब उसने साकेत नगरका विस्तार किया । धनदने वहाँ सब कुछ नया कर दिया। सुन्दर स्वर्णपिण्डसे रचना की। वह जहाँ दिखाई देता वहां अतिशय सुन्दर था। उदरकी शुद्धि प्रारम्भ करनेके लिए नियुक्त कटक और मुकुटोंसे अलंकृत शरीरवाली, घत्ता-सौधर्म स्वर्गके देवों द्वारा भेजी गयों, पुण्यसे प्रशस्त मंगलद्रव्य अपने हाथोंमें लिये हए देवियां राजाके घर आयीं ॥५॥ १४. A णिरंबउ । १५. A P सुहं सुत्ताइ । १६. A संवरणिवइहि । ५.१. P हलु। २. A तिभवणवइ। ३. A जोगि। ४. A मयणायउ। ५. A P बुज्झिउं । ६. A ___ संवरणरवइ भुंजइ । ७. A अविलेव3; P अवलोउ। ८. A सक्केयणय । ९. A P समारिउ । १०. A°पिंड । ११. A°मउलमंडियं । Page #111 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ६४ महापुराण [४१.६.१ छम्मासई वसुहार वरिट्ठी थिय जिणेजणणि जाम संतुट्ठी। ता वइसाहेहु पंडरपक्खइ छट्ठीवासरि सत्तमरिक्खइ । विजयणाहु तिहुयणविक्खायउ करिरूवें सिविणंतरि आयउ । मयणविलासविसेसुप्पत्तिहि उयरि परिटिउ संवरपत्तिहि । पुणु सो णिहिवइ णिहि पसाहिइ । प्रंगेणि छडरंगावलिसोहिद। धरणीयलगेयणिहिआकरिसई णव वि मास माणिकई वरिसइ । जसससहरकरधवलियदिग्गइ संभवि संभवपासविणिग्गइ। जइयहुं सायरसरिसहुँ झीणई दहलक्खई कोडिहिं वोलीणई। तइयहुं माहमासवारसियहि 'पालेयंसुकरावलिसुसियहि । बारहेमम्मि जोइ कोमलतणु बारहअणुवेक्खाभावियमणु । णाणत्तयजाणियजगल्यउ देउ चउत्थउ जिणु संभूयउ । धत्ता-जिणजम्म' आसणथरहरणि जाणिवि कुंजरु सजिउ ॥ महि आयउ ससुरु सुराहिवइ सुरकरचमरहिं विजिउ ।।६।। M छह माह तक रत्नवृष्टि हुई । भगवान्की माता सन्तुष्ट हो गयो। वैशाख माहके शुक्लपक्षमें षष्ठीके दिन, सातवें नक्षत्र (पूनर्वसु) में, त्रिभुवनविख्यात विजयनाथ अहमेन्द्र गजरूपमें स्वप्नान्तरमें आया और कामके विलास विशेषोंको उत्पन्न करनेवाली राजा स्वयंवरकी पत्नी सिद्धार्थाके उदरमें प्रविष्ट हो गया। वह कुबेर पुनः राजाको प्रसन्न करता है, वह छह प्रकारके रंगों की रांगोलीसे शोभित घरके प्रांगणमें, धरतीतलको निधियोंको आकर्षित करनेवाले माणिक्योंकी नो माह तक वर्षा करता है। अपने यशरूपी चन्द्रमाकी किरणोंसे दिग्गजोंको धवलित करनेवाले सम्भवनाथके जन्मपाशसे मुक्त होनेपर, जब दस लाख करोड़ सागर समय बीत गया, तब माघमासके शुक्लपक्षकी चन्द्रकिरणोंसे धवल द्वादशोके दिन, बारह अनुप्रेक्षाओंसे भावितमन कोमल शरीर तीन ज्ञानोंसे विश्वस्वरूपको जाननेवाले, चौथे तीर्थकर अभिनन्दन उत्पन्न हुए। घत्ता-सिंहासन कांपनेसे जिनका जन्म जानकर देवेन्द्रने अपना हाथो सज्जित किया और देवोंके हाथोंसे चमरों द्वारा हवा किया जाता हुआ देवों सहित वह धरतीपर आया ।।६।। ६. १. A णियजणणि । २. P वयसाहहु । ३. A P पंडुरं । ४. A पवरपसाहिए। ५. A P पंगणि । ६. P धरणीयले । ७. P णवमासइं। ८. A जं ससहरकरपवलियदिग्ग; Pषवलिए दिग्गए । ९. A संभमि । १०. A P संभवपासहु णिग्गइ । ११. A पालेयंसकरावलिं; P पालेयंसुकलावलि । १२. AP बारहयम्मि । १३. A P°जम्मणि । Page #112 -------------------------------------------------------------------------- ________________ -४१.७. १३ ] महाकवि पुष्पदन्त विरचित पुरि परियचिवि पइसिवि णिवघरि कित्तिमु सिसु दिण्णउ जणणिहि करि । सयेणुकिरणकविलियपविउलणहु पोमरायपहणिहतंबिरणहु । बहुँभवकयवयणियमियणियमइ विसमविसयविसहरणहयरवइ । कमलकुलिसकलसंकियकमजुउ विरइयरइसंवरु संवरसुउ। णंद वद्ध जय देव भणेप्पिणु सुरणाहें मुणिणाहु लएप्पिणु । अंकि चडाविउ चंपयगोरउ गोरो सो तेण जि अवियारउ । जायउ जंतहु गुरु रहसुब्भडु अमरविमाणहं घणव हि संकडु। . पडिवाहणहयवाहणसेणिहि इंदें कह व मंदसंदाणिहि । वारणु चरणचार संजोईउ मंदर मंदरुइल्लु पलोइउ । जिणदेहच्छविइ अहिह वियउ गुरुयणतेएं कवणु ण खवियउ । ससिरवितारापंतिउ लंघिवि तं तहु तणउ सिहरु आसंघिवि। घत्ता-तहिं पंडुसिलायलु ससिधवलु तित्थु पसण्णु णिहालिउ ॥ अहिमंतिवि पाणि सयमहिण सीहवी? पक्खालिउ ॥७॥ नगरकी परिक्रमा देकर, एवं राजाके घरमें प्रवेश कर कृत्रिम बालक माताकी गोदमें देकर, अपने शरीरकी किरणोंको कान्तिसे विशाल आकाशको आलोकित करनेवाले, पद्मरागमणियोंको प्रभाके समान लाल नखवाले, अनेक जन्मोंमें किये गये व्रतोंसे अपनी मति नियमित करनेवाले, विषयरूपी विषधरोंके लिए गरुड़, कमल कुलिश और कलशोंसे चिह्नित चरण, रतिका संवरण करनेवाले हे स्वयंवर पुत्र, तुम बढ़ो, प्रसन्न होओ,जय हो देव, यह कहकर सुरनाथने मुनिनाथ भो ले लिया। चम्पक कुसुमकी तरह गोरे, ज्ञानरत, और अविकारी उन्हें, उसने अपनी गोदमें ले लिया। उसके जाते हुए अत्यन्त हर्ष-उल्लास हुआ। जिसमें प्रतिवाहनों और अश्ववाहन श्रेणियां हैं और जिसमें धीमे रथ चल रहे हैं, ऐसे घनपथमें देवोंके विमानोंका जमघट हो गया। इन्द्रने बड़ी कठिनाईसे अपने हाथीको प्रेरित किया और मन्दकान्ति मन्दराचलको देखा। जिनेन्द्रकी देहकान्ति से वह अत्यन्त अभिभत हो गया। गरुजनोंके तेजसे कौन क्षीणताको प्राप्त नहीं होता। चन्द्र, सूर्यऔर तारोंको पंक्तिको लांघकर, उसके उस शिखरको पाकर, घत्ता-वहां उसने चन्द्रमाके समान धवल प्रसन्न पाण्डुक शिलातलको देखा, इन्द्रने जलको अभिमन्त्रित कर सिंहासनका प्रक्षालन किया ७. १. A पुरु । २. A सयणुविकरण । ३. P°पविमल । ४. A बहुतव । ५. A P°णिवसियणियमइ । ६. A कमलकलसकुलिसंकियं । ७. A P गोरउ तेण जि सो अवियारउ । ८. A संजोयउ; P संचोइउ । ९. A पसत्थु । १०. P सीहपीढु । Page #113 -------------------------------------------------------------------------- ________________ महापुराण [ ४१.८.१ कयविहिपरियम्म छिण्णदुक्कामजम्मं संई सिरिअरहतं तम्मि औरोहिउ तं । पिवई दसदिसासु सेयभिंगारणीरं कुणइ सुरवरिंदो सिद्धमंताहियारं ॥१॥ बहदसणविसाले कक्खणक्खत्तमाले चलियचमरलीले संठियं पीलबाले। पविहरममराणीसेवियं देववंदं जिणण्हवणविसेसे वाहरामोमरिंदं ॥२॥ जलियकविलवालं भासुरालं करालं दिसि पसरियजालं धूमचिंधेण णीलं । पयपहयउरब्भं भाविणीभावियासं जिणण्हवणविसेसे वाहरामो हुयासं ॥३॥ जलयपडलकालं णिद्धणीलं व सेलं महिसमुहसमीरुड्डीण जीमूयमालं । करवलइयदंडं 'छाहिसंसत्तसंतं जिणण्हवणविसेसे वाहरामो कयंतं ॥४॥ भैसलगरलमालाकालरोमं तुरंत अरुणणयणछोहं रिछमावाहयंतं । जुवइजणियकामं ''साहिरामं करामो जिण्णहवणविसेसे णेरियं वाहरामो ।।५।। करिमयरणिविटुं हारणीहारतेयं धुर्वधवलधओहं कामिणीए समेयं ।। वरुणममरसारं माणसे संभरामो जिणण्हवणविसेसे सायरं वाहरामो ।।६।। तरुपहरणपाणि 'वौइसंदिण्णरायं सुरहिपरिमलंगं माणिणीजायरायं । जिन्होंने विधाताके परिकर्मको किया है, और पापकर्म और जन्मका नाश कर दिया है, ऐसे श्री अरहन्तको उसपर आरोहित कर दिया। दसों दिशाओंसे श्वेत भंगारपात्रोंका जल गिरता है; सुरवरेन्द्र सिद्धमन्त्रोंका अभिचार करता है। बहतसे दांतोंसे विशाल, वरत्रारूपी युक्त, चलते हुए चमरोंकी लीला धारण करनेवाले बाल ऐरावत गजपर उन्हें रख दिया। जिन भगवान्के अभिषेक-विशेषमें मैं, ( कवि पुष्पदन्त ) वज्रको धारण करनेवाले, इन्द्राणीके द्वारा सेवित, देवोंके द्वारा वन्दनीय, अमरेन्द्रको बुलाता हूँ। जिसके प्रज्वलित कपिल केश हैं, भास्वर भयंकर, दिशाओंमें जिसका जाल फैला हुआ है, धूमचिह्नोंसे नीला, अपने पैरसे मेषको आहत करनेवाला, अपनी पत्नीके द्वारा जिसका मुख देखा गया है, ऐसे अग्निदेवको मैं जिनेन्द्र के अभिषेकविशेषमें बलाता है। जो मेघपटलके समान श्याम है. शैलके समान स्निग्ध और महिषके मुखके पवनसे मेघमाला उड़ रही है, जिसके हाथमें दण्ड झुका हुआ है, अपनी भार्या, छायामें जिसका चित्त आसक्त है, ऐसे यमको मैं जिनके अभिषेक-विशेष में बुलाता हूँ। भ्रमर और गरलमालाके समान जिसके रोम काले हैं, जो लाल आंखोंकी कान्तिवाला है, रोछपर सवारी करता है, युवतीजनमें जो काम उत्पन्न करता है, ऐसे नैऋत्यको मैं अनुरागयुक्त करता हूँ और जिनेन्द्र के अभिषेक-विशेषमें उसे बुलाता हूँ। जो गजाकार मगरपर अधिष्ठित हैं, जो हार-नीहारकी तरह स्वच्छ हैं, हिलती हुई धवल ध्वज-समूहसे युक्त हैं, कामिनीसे सहित हैं, ऐसे अमरोंमें श्रेष्ठ वरुणकी मैं याद करता है और जिनेन्द्र के अभिषेक-विशेषमें उन्हें सादर बुलाता है। वृक्ष ही जिसके प्रहरण और हाथ हैं, वातप्रमी मृगीमें जिसका अनुराग है, सुरभिपरिमल जिसका शरीर है, ८. १. A°कुक्कम । २. A सयसिरि । ३. AP°अरिहंत । ४. A आराहिऊणं । ५. P खिवह । ६. A ममराणीसंजुयं देवदेवं; P°ममरेहिं सेवियं देवविदं । ७. P अग्गिवालं पहालं। ८. P°णिदणीलालिसेलं । ९. A वडइय। १०. A छाहिसंसत्तगत्तं; P छाहिसंसत्तवत्तं । ११. P कसणभसलमालाकार। १२. P साहिरामो। १३. A°मयरणिविद्धं । १४. A P धुयधवल । १५. A P वायसं। १६. P कामिणिजाय । Page #114 -------------------------------------------------------------------------- ________________ - ४१. ९.२ ] महाकवि पुष्पदन्त विरचित जिणण्हवणविसेसे वाहरामो समीरं ||७|| कर्यमयरविमाणं देहभाभासमाणं । जिवण वसेसे वाहरामो कुबेरं ||८|| वैरेंविसवसहंदुक्खित्तपायं महंतं । जिणण्हवणविसेसे वाहरामो तिक्ख ||९|| णवकुवलयमालामालियं कोंतद्दत्थं । जिणण्हवणविसेसे वाहरामो ससंकं ॥ १० ॥ २० अहिणवरविवण्णं कुम्मेयैट्ठीणि सणं । जिणण्हवणविसेसे वाहरामो फणीसं ॥११॥ घत्ता - णिय वाहणपहरणपियर मणिचिधावलिहिं विराइय || इंदे हुं इंदावाहणए लोयवाल संप्राइ ॥८॥ .२८ चडुलगमणसीलं लंघियायासपारं विमलमणिवियाणं" मंदरहीसमाणं यमघणदुक्खा कपंकावहारं सगणेर्गुणगणालं 'भोलभीमच्छिवत्तं फणिवलय के रेग्गुग्गिण्णसूलं दुरिक्खं अमयमयसरीरं कूरकंठीरवत्थं जणणयण सुकं संकेमुच्छिण्णसंकं मणिपुरियफणालं दित्तदिश्चकवालं विवरणिवास रम्मपोम्मावईसं ९ एवं पत्ते पंकयणेत्ते विस्से देवे णविऊणं दुहणासणयं सुहसासणयं दब्भासणयं ठविऊणं । ६७ जो मानिनी स्त्रियों में राग उत्पन्न करता है, जो चंचल और गमनशील है, जो आकाशको सीमाको लांघ जाता है, ऐसे समीरको में जिनेन्द्रके अभिषेक - विशेष में बुलाता हूँ। जो विमल मणियोंका जानकार है, जो उत्तर दिशाका अधिपति है, जिसका विमान मकराकृति है, जो देहकान्तिसे भास्वर है, जो अधनके दुःख और आतंककी कीचड़का अपहरण करनेवाला हैं, ऐसे धनद कुबेरको मैं जिनेन्द्र अभिषेक - विशेष में बुलाता हूँ। जो अपने गणों और गुणगुणोंका आश्रय है, जो भालपर आंखों वाला है, श्रेष्ठ वृषभके कन्धेपर जो पैर रखे हुए है, जो नागों के बलयवाले हाथकी अंगुलियों में त्रिशूल उठाये हुए है, ऐसे दुर्दर्शनीय महान् रुद्रको में जिनेन्द्रके अभिषेक-विशेष के समय बुलाता हूँ। जो अमृतमय शरीरवाला है, जो कण्ठीरव ( सिंह ) पर स्थित है, जो नवकुवलयमालासे शोभित है, जिसके हाथमें भाला है, जो जननेत्रोंके लिए अमृतजल है, चिह्न सहित तथा शंकाओं को दूर करनेवाला है, ऐसे चन्द्रको में जिनेन्द्र के अभिषेक - विशेष में बुलाता हूँ । जिसका फणसमूह मणियोंसे स्फुरित है, जिसने दिशामण्डलको प्रदीप्त किया है, जो अभिनव सूर्यके रंगा है, जो कूर्मकी हड्डियोंपर आसीन है, जिसका निवास महीविवर है, जो सुन्दर पद्मावतीका स्वामी है, ऐसे फणोशको मैं जिनवरके अभिषेक - विशेष में बुलाता हूँ । १५ घत्ता- अपने-अपने वाहन, प्रहरण, प्रिय रमणी और चिह्नोंकी पंक्तियोंके शोभित लोकपाल, इन्द्रके आह्वानपर इन्द्रके साथ आये ॥८॥ ९ इस प्रकार कमलनयन के प्राप्त होनेपर सब देवोंको नमस्कार कर दुःखनाशक सुखका शासन १७. A 'विताणं । १८. A P कणयमयविमाणं । १९. P°तंकसंकावहारं । २०. A सगुणगुणं । २१. AP भीमच्छतं । २२. A वरविसविसहृत्थं खित्तं ; P वरसियवसहपुट्ठे खित्तं । २३. A करम्भणं । २४. A मालिया कुंत हत्थं । २५. A सुक्क मुच्छिण्ण; P सक्कमुच्छिष्णं । २६. A P कुम्पट्ठी । २७. A रवण्णं । २८. A फणिदं । २९. A सहु देवाणंदएण । ३०. AP संपाइय । ९. १. P दुहुणासणयं । Page #115 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ६८ ५ १० १५ महापुराण सरगंभीरं पणकुश्चारं साहाकारं काऊण अग्घं पत्तं गंधं धूवं चरुवं दीवं दाऊणं । दुणयेतावं मिच्छागावं दुक्कियभाव महिऊणं पव्वयसरि से पर्याणियहरिसे कंचणकलसे गहिऊणं । आसासंते रवियरवंते गयणयलंते चरिऊणं भंगरउद्दे खीरसमुद्दे खिप्पं खीरं भरिऊणं । कीलालोलं गेयरवालं सुरवरमालं रइऊणं ते जलवा जियजलवाहे हत्थाइत्थं लइऊणं । सोहम्मे ईसाणेणं तियस येणेणं संहविओ । दावासं कुसुमं भूतं तेहिं जिनिंदो पुणु विओ सिगुत्तुंगं वसियकुरंगं मेरुं मोत्तुं वारिदरिं 'सोक्खर कोसलणयरिं" आगंतूर्ण पुरिसहरिं । यो गुरुपियराणं दाउँ णहयलदिण्णपया हरिसविसट्टे रईउं णट्टं देवा सग्गं झति गया । घत्ता - सज्जनहं णेहु दिहि दुत्थियहं तरुणिहि पेम्मेपहावउ । ढ़तें वढि पिसुणहं मणि संतावउ ||९|| 1 जोवणभावें देहि चडतें देहपमाणु पत्तु रणचंडहं १० घडियम काले जंतें । [ ४१.९.३ ढई तिणि सई धणुदंड | कर, दर्भासन बिछाकर, गम्भीर स्वर में ओम् के साथ स्वाहाका उच्चारण कर अर्ध-पत्र - गन्ध-धूप-त्ररु और दीप देकर, दुर्नयका सन्ताप, मिथ्यागर्व और पापभावका नाश कर, पर्वतके समान हर्षको उत्पन्न करनेवाले स्वर्णकलशोंको लेकर, उच्छ्वासोंके मध्य, सूर्य की किरणोंसे युक्त आकाशमें चल भंगिमा से भयंकर क्षीर समुद्र में शीघ्र जल भरकर, क्रीड़ासे चंचल, गीतों सुन्दर सुरवरोंकी पंक्ति रचकर, मेघों को जीतनेवाले उन कलशोंको हाथों-हाथ लेकर, सौधर्मेन्द्र, ईशानेन्द्र और देवजनों स्नान कराया तथा वस्त्र- भूषण देकर, उन्होंने जिनेन्द्रको फिर नमस्कार किया। फिर शिखरोंसे ऊंचे हरिणोंसे बसे हुए जलयुक्त घाटियोंसे युक्त सुमेरु पर्वतको छोड़कर, मनुष्योंको सुख देनेवाली अयोध्या नगरी में आकर न्यायरत उन पुरुषश्रेष्ठको माता-पिताको देकर और हर्षविशिष्ट नाट्यका अभिनय कर वे शीघ्र स्वर्ग चले गये । घत्ता - स्वामी के बढ़ने पर सज्जनोंका स्नेह, दुःस्थितों का भाग्य, युवतियों का प्रेमभाव और दुष्टों के मनमें सन्ताप बढ़ने लगा ॥९॥ १० भावसे उनकी देह बढ़ती गयो, और घड़ीके मानसे समय बीतता गया । उनके शरीर २. A दुण्णयभावं । ३. P गहिऊगं । ४. P हत्या हत्यें गहिऊणं । ५. A तियसवरेणं । ६. P संहविरं । ७. P विजं । ८. A घीरदार । ९. P सोक्खयरी । १०. P णयरी । ११. A णरणियराणं । १२. P । १३. P हपहावउ | १०. १. A देह चडतें । २. AP घडियामालें । इयं Page #116 -------------------------------------------------------------------------- ________________ -४१. ११.२] महाकवि पुष्पदन्त विरचित . सिसुकीलाइ रमियगंधव्वहं दोणि दहद्धलक्ख गय पुन्वहं । फणिसुरणरमणणयणाणंदणु जणणे हक्कारिउ अहिणंदणु । भणिउ देव किं देंवि सकित्तणु भुवणत्तयसामिहि सामित्तणु । लइ लइ रज्जु अज्जु जाएसंवि हउँ परलोयकजु थाहेसविं। तहिं अवसरि आयउ सकंदणु पुरि घरि गयणि ण माइउ सुरयणु । वाइउ सुसिरु तंति घणु पुक्खरु गायउ किं पि गेडे महुरक्खरु । पुरउ णडतें अमरणिहाएं वइयालियदिण्णासीवाएं । सायरसरिसरजलसंघाएं पुणु ण्हाणिउ कुमारु सुरराएं । हार तार जोयणवित्थिण्णी णं णहि गंगाणइ अवइण्णी। घत्ता-जलधार पडइ सिरि दुर्तरिय देउ ताइ°ण वि हम्मइ ।। भावई महुं ण्हंतु वि घडसयहिं बिंदुएंण णउ तिम्मइ ॥१०॥ ११ मउडपट्टधरु बीयविणिट्ठिउ पिउसंताणि णिओइ अहिहिउ । विणियराउ ताउ रिसि जायउ पंहु वि महिं भुजंतु सजायउ। का प्रमाण साढ़े तीन सौ प्रचण्ड धनुष हो गया। क्रीड़ामें गन्धर्वोके साथ खेलते हुए उनके साढ़े बारह लाख पूर्व वर्ष बीत गये । नागों, सुरों और मनुष्योंके मनको आनन्द देनेवाले अभिनन्दनको पिताने पुकारा और कहा, "हे देव, भुवनत्रयके स्वामीके लिए कीर्तिसहित स्वामित्व क्या दूँ, लोलो राज्य, आज मैं जाऊंगा, और मैं परलोककार्यको थाह लूंगा।" उस अवसरपर भी इन्द्र आया, और वह देवसमूह, पुर, घर तथा आकाशमें नहीं समा सका । सुषिर, तन्त्री, धन और पुष्कर वाद्य बजाये गये । और मधुर अक्षरोंमें कुछ भी मधुर गीत गाया गया। सामने नाचते हुए देवसमूह वैतालिकोंके द्वारा दिये गये आशोदिके साथ समुद्र, नदी और सरोवरोंके जलसमूहसे इन्द्रने कुमारका पुनः अभिषेक किया। हारोंकी तरह स्वच्छ एक योजन तक फैली हुई, मानो आकाशमें गंगानदी अवतीर्ण हुई हो। पत्ता-दुर्धर जलधारा उनके सिरपर पड़ती है, लेकिन देव उससे आहत नहीं होते। वह मुझे अच्छे लगते हैं कि सैकड़ों घड़ोंसे नहलाये जाते हुए भी वह एक बूंदसे भी नहीं भीगते ॥१०॥ ११ - मुकुट पट्टको धारण किये हुए, धैर्यसे युक्त वह नियोगसे पितृपरम्परामें नियुक्त हो गये । और पिता रागको नष्ट करनेवाले मुनि हो गये। प्रभु भो पत्नीके साथ धरतीका उपभोग करने - ३. A कोक्काविउ । ४. P साहेसमि। ५. A वायउ सुसरू। ६. A गेय । ७. A Pण्हाविउ । ८. A हारसुतारतोयविच्छिण्णो; P हारसुतारजोयविच्छिणी। ९. A सिरिसिहरि; PT दुद्धरिस । १०. A P तहि ण वि हम्मइ। ११. A णावइ but records ap भावइ । १२. A P घडसएण । १३. A जं बिंदुएण; P तं बिंदुएण । ११.१. A धीरविपिठिउB P पीढि णिविठ्ठउ । २. A P पहिठिउ । ३. P विणियराउ । ४. Pएह वि ___ महि भुंजंतु । Page #117 -------------------------------------------------------------------------- ________________ महापुराण [ ४१. ११.३ अच्छइ जाम सपुत्तु रक्खइ पोसइ माभीसइ जणु । गय छत्तीस लक्ख लग सहुं पुव्वहं सिरिसोक्खसमिद्धे । मुयणभाणु णहि णयणइं ढोयइ ता गंधवणयरु अवलोयइ। पेच्छइ सत्तभूमिघरसिहरई पेच्छइ जालगवक्खई पवरई। पेच्छइ धेयमालउ उल्ललियउ पेच्छइ पुत्तलियउ चित्तलियउ । पेच्छइ चंदसाल मुहसालउ पेच्छइ लेहसाल गयसालउ । पेच्छइ दाणसाल णडसालउ मणुयारोगसाल असिसालउ । पेच्छइ ह₹मग्ग च उदारइं पेच्छइ पहु आरामविहारई। इय पेच्छंतहु तक्ख णि णट्ठउ . तहिं तं पुरु पुणु तेण ण दिट्ठउ । घत्ता-णासंतें णयरें साहियउ णासु अत्थि नृर्वरिद्धिहि ॥ किं णरु रइपरवेसु परिभमइ उज्जम करइ ण सिद्धिहि ॥११॥ १२ ता लोयंतिएहिं संबोहिउ आऐणिदें ण्ह विउ पसाहिउ । उट्ठिउ सयलदेव डिडिमसरु चडिउ विचित्तहि सिवियहि जिणवरु।' णरखेयरसुरेहिं पणवेप्पिणु बाहुदंडखंधेहिं वहेप्पिणु। णिहियउ पुरबाहिरि णंदणवणि मग्गैसिरइ सिइ बारहमइ दिणि । अवरोहइ णियसंभवरिक्खइ अप्पुणु अप्पउ भूसिउ दिक्खइ । लगे । इस प्रकार जबतक वह अपने पुत्रों-परिजनके साथ रहते हैं, और लोगोंकी रक्षा-पालन करते और अभयदान देते हैं, तबतक उनके स्त्री-सुखसे समृद्ध साढ़े छत्तीस लाख पूर्व वर्ष बीत गये । एक दिन विश्वसूर्यकी आंखें आकाशकी ओर जाती हैं, वह वहां गन्धर्व नगर देखता है । वह सात भूमिवाले गृहशिखर देखता है, जालोंके विशाल गवाक्षोंको देखता है, उड़ती हुई ध्वजमालाओंको देखता है, वह चित्रित पुतलियोंको देखता है, वह चित्रशाला और मुख्यशाला देखता है। वह लेखशाला और गजशाला देखता है। दानशाला और नटशाला देखता है। बाजार मार्ग और चारद्वार देखता है, राजा आराम और विहार देखता है। इस प्रकार उसके देखते हुए हो वह नगर तत्काल नष्ट हो गया। फिर उसने उस नगरको नहीं देखा। पत्ता- नष्ट होते हुए नगरने मानो यह कहा कि नृप-ऋद्धिका भी नाश होता है। मनुष्य रतिके अधीन क्यों घूमता है। सिद्धिके लिए वह प्रयत्न क्यों नहीं करता ॥११॥ १२ तब लोकान्तिक देवोंने उन्हें सम्बोधित किया, आये हुए इन्द्रने उनका अभिषेक किया। समस्त देवोंका डिडिम स्वर उठा। जिनवर विचित्र शिविकापर चढ़ गये। प्रणाम कर मनुष्य, देव और विद्याधरोंने अपने बाहदण्डों और कन्धोंसे उसे ले जाकर नगरके बाहर नन्दनवन में रख दिया। माघ माहके शुक्लपक्षको द्वादशीके दिन अपराह्न में अपने जन्मनक्षत्रमें उन्होंने स्वयंको ५. A णयरि । ६. A धयमालाउल्लं । ७. P हट्टमग्गि । ८. A P णिवरिद्धिहि । ९. A परवसु मूढमइ उज्जम् । १२. १. A आइवि इंदें; T आयंदेण आगतेनेन्द्रेण । २. A मग्गसिरासिइ; P माहमासि सिह । Page #118 -------------------------------------------------------------------------- ________________ -४१. १३.७] __महाकवि पुष्पदन्त विरचित मण्णेप्पिणु घर गिरिवरकंदर दढमुट्ठिहिं उप्पाडिय कंदर । भावु करेवि अहप्पयरासिहि ते सक्केण पित्त पयरासिहि । दावियणि? छववासे जइ हूयउ सहुं णिवहं सहासें। मुक्कउ जीयधणासाकेयइ बीयइ दिणि पइट्ट साकेयइ। पंथु पलोयइ जंतु ण खंडइ में भे भवइ व घरि घरि हिंडइ । लहुयउं गरुयउं गेहु ण चिंतइ प्रंगणु प्राविवि पुणु विणियत्तइ । घत्ता-जहिं रज कियउ तहिं तेण पुणु दरिसिउ भिक्खविहाणउं । भयलज्जामाणमयवज्जियउं जिणवउं पेम्मसमाणउं ॥१२॥ सयम पाराविउ पंचविहु वि जयजयपभणंतिहिं अक्खयदाणु भणेप्पिणु णिग्गउ जो ण समिच्छइ विप्परियावह जेण मूलु रइवालहु छिण्णउं जेण सहियवउंणाणे भिण्णां 'णीसंगेण णिरुत्तु विहारिउ तहु देवहिं दाणुच्छवु दाविर । आयासहु कुसुमाई घिवंतिहिं । गउ वणु चरणविसेसहु लग्गउ । पहि चरंतु ण करइ इरियावहु । दाणु जेण अभयावहु दिण्णउं । अट्ठारहवरिसइंतवु चिण्णउं । पुणे वि जेण तं छट्ठ संवारिउ । दीक्षासे अलंकृत कर लिया। गिरिवरकी गुफाओंको घर मानकर उन्होंने अपनी दृढ़ मुट्टियोंसे केश उखाड़ लिये। पापोंको नाश करनेवाले उन केशोंको इन्द्रने समुद्र में फेंक दिया। निष्ठाको प्रदर्शित करनेवाले छठे उपवासके साथ एक हजार राजाओं सहित वह मुनि हो गये। जीव और धनकी आशारूपी डोरसे मुक्त वह दूसरे दिन अयोध्या नगरी गये। वह रास्ता देखते हैं जन्तुका नाश नहीं करते । भो-भो शब्द होता है, वह घर-घर परिभ्रमण करते हैं, छोटे या बड़े घरका विचार नहीं करते। प्रांगणमें जाकर फिर उसे देखते हैं। ___ पत्ता-जहां उन्होंने राज्य किया था वहां उन्होंने भिक्षाके विधानका प्रदर्शन किया। भय, लज्जा, मान और मदसे रहित जिनपद प्रेमके समान है ।।१२।। १३ इन्द्रदत्तने उन्हें पारणा करायी। जय-जय कहते, और आकाशसे फूलोंको गिराते हुए देवोंने उसके दानका पांच प्रकार महोत्सव किया। 'अक्षयदान' कहकर वह चले गये और वनमें जाकर विशेष तपश्चरणमें लग गये। जो ब्राह्मणोंके ऋचापथ (वेदमार्ग) को नहीं मानते, जो रास्ते चलते हुए ईर्या समितिका हनन नहीं करते, जिन्होंने कामदेवकी जड़को समाप्त कर दिया है, जिन्होंने सबको अभयदान दिया। जिन्होंने अपने हृदयको ज्ञानसे परिपूर्ण कर लिया और अठारह वर्ष तक लगातार तप किया, अनासंग भावसे लगातार विहार किया। फिर उन्होंने छठा उपवास ४. A P पंगणु पाइवि । ३. A भे भे विरह व, but records a p: भवइ इति पाठः । ५. A रज्जि । १३.१. Pणीसंगत्त । २. P पुणिवि । ३. A संचारिउ; P समारिउ । Page #119 -------------------------------------------------------------------------- ________________ महापुराण [ ४१. १३. ४पूर्सहु मासहु पक्खि पहोलइ चउदहमइ दिणि सिणतरुमलइ । उडुवरि सत्तमि जेणुप्पाइडं केवलणाणु तिलोउ वि जोइउ । घत्ता-सो मोहमहामहिरुहजलणु जिणवरु जियपंचिंदिउ ।। गिल्वाणहिं समउं पराइएण वाणंबलेण पेवंदिउ ॥१३।। थुणइ सुरिंदु सरइ गुण समणे तुहुं जि' देउ किं देवागमणे । तुहुं जि अणंगु अणंगहु वंछहि अणुदिणु णिकलगइ पर वंछहि । तुहुं सरूँवु किं तुह आहरणे तुहुं सुयंधु किं तुह सवलहणे । तुहुं अकामु किं तुह णारियणे तुहं अणिद्दु किं तुह वरसयणे । सुद्धिवंतु तुहुं किं तुह पहाणे दिव्वासहु किं तुह परिहाणे । तुज्झु ण वइरु ण भउ उ पहरणु तुज्झु ण रइ णउ कीलाविहरणु । तुहु जि सोम्मु सोम्में किं किज्जइ तुह छविहउ रवि काइं भणिजइ । गुणणिहि तुहुं तुह किं किर थोत्तें तो वि थुणइ जणवउ सहियत्तें। हरिकरिगिरिजलणिहिहिं समाणउ पई किं भर्णइ वराउ अयाणउ । पत्ता-ससिसूरहं सरिसउ पई परम भत्तिइ कइयणु अक्खइ ।। गयणयलहु अवरु वि तुह गुणहं पारु को वि कि पेक्खह ॥१४॥ किया, पूस माहके शुक्लपक्षको चतुर्दशोके दिन असन वृक्षके तलभागमें सातवें पुनर्वसु नक्षत्रमें उन्हें केवलज्ञान उत्पन्न हो गया और उन्होंने त्रिलोकको देख लिया। पत्ता-मोहरूपी महावृक्षके लिए आगके समान, पांचों इन्द्रियोंको जीतनेवाले जिनवरकी देवोंके साथ आकर इन्द्रने वन्दना की ॥१३॥ देवेन्द्र स्तुति करता है, अपने मनसे उनके गुणोंका स्मरण करता है कि तुम्ही देव हो, देवागमनसे क्या ? तुम स्वयं काम हो, तुम कामको क्यों चाहोगे ? तुम स्वयं ही सुन्दर हो, तुम्हें आभरणोंसे क्या; तुम स्वयं सुगन्ध हो, तुम्हें विलेपनसे क्या ? तुम स्वयं अकाम हो, तुम्हें नारीजनसे क्या? आप स्वयं निद्रारहित हैं, आपको उत्तम शयनसे क्या ? आप स्वयं शुद्धिसे युक्त हैं, आपको स्नानसे क्या ? आप दिगम्बर हैं, आपको वस्त्रोंसे क्या ? आपका न शत्रु है, न भय है और न प्रहरण है, आपमें न रति है और न क्रीडाविहार है । आप स्वयं सौम्य हैं, आपको सोम (चन्द्रमा) से क्या ? कान्तिसे आहत सूर्यको कान्तिमान् क्यों कहा जाता है ? आप गुणोंकी निधि हैं, आपको स्तोत्रोंसे क्या? फिर भी लोग, अपने मनसे तुम्हारी स्तुति करते हैं, बेचारे अज्ञानी वे आपको अश्व, गज, गिरि और जलनिधिके समान क्यों बताते हैं। घत्ता-कविजन केवल भक्तिसे आपको शशि और सूर्यके समान बताते हैं लेकिन एक आकाश और दूसरे तुम्हारे गुणोंका पार कोन पा सका है ? ||१४|| ४. A P पउसह । ५. AT पहिल्लइ । ६. A P सिणित । ७. A पंचेंदियउ । ८. A T वालबलेण: P वणवालेण । ९. A पवंदियउ। १४.१. P वि । २. A P तुहं अणंगु जो अंगु ण इच्छहि । ३. A सरूउ; P सुरूत। ४. A P अणि । ५. A सोमु सोमि किं । ६. A भणमि । ७. A गुणहं सामि पारु को लक्खद; P गुणहं सामिय पार कु लक्खह। Page #120 -------------------------------------------------------------------------- ________________ महाकवि पुष्पदन्त विरचित १५ इंदणरिंदचंदसूराउलु बहुपालिद्धय अट्ठ महाधय धम्मचक्कु अग्गइ अवइण्ण उं मोरह जेणं रद्द जसु तवेण कंपइ भूमंडलु छत्तइंदुरिया विणिवार इं मोक्सोक्खु जि जायउं फलु अवरु वि अरुहहु उत्तमसत्तहु आयासह णिass कुसुमावलि रंज अलि तर सिंथ ण मेरी दुंदुहि खणु वज्जंति ण थक्कइ दिव्वें घोसँ भुवणु वि सुज्झइ समवसरण जिणरायहु राउलु । पसुकोट्टई दक्खालिय हय गय । सुरणैररमणि छष्णउं । उलियर थिय संमुह णव गह । अवसें तासु होइ भामंडलु । चमरइं भवसीणत्तणतारई । सो असोउ किं वण्णमि चर्लदलु । आसणु सासणु तिजगपहुत्तहु । सरु भीयल भासइ ण सरावलि । णिच्छउ सामिय आण तुहारी । लो धम्म णिहुं णं कोक्कइ | अपरं परु परलोड वि बुज्झइ । घत्ता - सिरिवज्जणाहु णिवु "धुरि करिवि सोलविमलजलवाहहं ॥ तिहिं सहिय सउ संतासयहं संजायउ गणण हहं ॥ १५ ॥ - ४१. १५.१४ ] ७३ १५ इन्द्र, नरेन्द्र, चन्द्र और सूर्यसे परिपूर्ण समवसरण जिनराजका राजकुल था । आठ महाध्वज थे और छोटे-छोटे ध्वज अनेक थे । पशुओंके कोठोंमें अश्व और गज दिखाई देते थे । आगे धर्मचक्र अवतीर्ण हुआ । प्रांगण सुरों और नरोंकी रमणियोंसे भर गया। जो-जो पूर्णरथ थे, वे किसी भी प्रकार अपने दोनों हाथ जोड़कर उनके सम्मुख नवग्रहके समान स्थित थे। जिसके तपसे भूमण्डल कांप उठता है; उनके लिए अवश्य भामण्डल प्राप्त होगा । दुरितोंके आतपका निवारण करनेवाले छत्र, संसारकी थकानको दूर करनेवाले चामर होंगे। जिन्हें मोक्ष और सुखका फल प्राप्त है, उनका चंचल पत्तोंवाले अशोकके रूपमें क्या वर्णन करूँ। और भी उत्तम सत्त्ववाले श्री अरहन्तके आसन और त्रिजगकी प्रभुताके शासनका क्या वर्णन करूँ ? आकाशसे पुष्पोंकी अंजलि गिरती है, कामदेव डरता है, उनपर अपना तीरावलि नहीं छोड़ता । भ्रमर रोता है कि वह मेरी प्रत्यंचा नहीं है। हे स्वामी, यह निश्चय ही तुम्हारी आज्ञा है, दुन्दुभि बजते हुए थकती नहीं, लोगोंको धर्म सुननेके लिए मानो वह पुकार रही है, दिव्यघोष से भुवन शुद्ध होता है और स्वपर तथा परलोकको समझने लगता है । १० घत्ता - श्री वज्रनाथ ( वज्रनाभि ) को प्रमुख गणधर बनाकर, शीलरूपी विमल जलको वहन करनेवाले और शान्तचित्त एक सौ तीन गणधर हुए ॥१५॥ १५. १. A P रावलु । २. AP पंगणु । ३. P सुरवररमणिहि । ४. A ते णय रहं । ५. AP दुरियावयं । ६. A भवरोणत्तणु; P भवझोणत्तणु । ७. A P मोक्खसोक्खु । ८. AP वरदलु । ९. A कुसुमाउलि । १०. AP जइ । ११. A धरिवि धुरि । १० Page #121 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ७४ महापुराण १६ अड्डाइज्जसहस णिरणंगहं। रिसिसीहहं सिक्खियपुव्वंगह। पण्णासइ संजुत्तहं भिक्खुहुं तीससहसदोलक्खई सिक्खुहुं । अट्ठाणउवि सैयाई तिणाणिहिं । सोलह सहसई केवलणाणिहिं । एक्कुणवीससहसई विक्किरियहं संख भणमि मणपज्जवरिसियहं । सावयगुणठाणेहिं सहासहिं छहसएहिं अण्णु वि पण्णासहिं । एक्कारहसहसाई विवाइहिं रिसिहिं तिण्णि लक्खई सज्झाइहिं । तवसंजमवयतणुरुहमाइहिं संजमधरिहिं सुद्धकुलजाइहिं । भोयभूमिसमसहसई चेयहिं लक्ख तिण्णि रिदुसयई वि वेयहि । अज्जियसंख एम जाणिजइ लक्खंत्तउ सावयहं गणिज्जइ । पंचलक्ख सावियह णिरुत्तर देवहिं देविहिं माणु ण उतँउ । घत्ता-विहरतहु महि परमेसरहु धम्मु कहतेहु भन्वहं॥ अट्ठारहवरिसइं°ऊणयरु एक्कु लक्ख गउ पुत्वहं ॥१६।। १७ इय पुन्वहं पण्णास जि लक्खइं गयई ण किं पि वि धाई णियाणइ हरिणहँअविहयकरिकुंभत्थलि लंबियकरु सहुं मणिसंदोहें गणहरमुणिवरसाहियसंखई। मासैसेसि थिउ आउपमाणइ । तहिं संमेयगिरिंदवणथलि । दुण्णि पक्ख थिउ जोयणिरोहें। निष्काम पूर्वांगधारी मुनिश्रेष्ठ ढाई हजार, संयमी शिक्षक दो लाख तीस हजार पचास, अवधिज्ञानी नौ हजार आठ सौ, केवलज्ञानी सोलह हजार, विक्रिया ऋद्धिधारी उन्नीस हजार, मनःपर्ययज्ञानधारियोंको संख्या कहता हूँ, वे ग्यारह हजार छह सौ पचास हैं। वादी मुनि ग्यारह हजार, इस प्रकार श्रुत ध्यानवाले कुल तीन लाख मुनि उनके साथ थे। तप, संयम, व्रत और शरीरकी कान्तिसे युक्त शुद्ध कुल जातिवाली तथा संयम धारण करनेवाली आयिकाओंको तीन लाख तीस हजार छह सो जानो। आर्यिकाओंको संख्या इस प्रकार जानना चाहिए, श्रावकोंको तीन लाख गिना जाये । श्राविकाओंको निश्चित रूपसे पांच लाख जाना जाये। देवों और देवियों को वहां कोई गिनती नहीं थी। घत्ता-इस प्रकार धरतीपर विहार करते हुए और भव्यजनोंके लिए धर्मका कथन करते हुए परमेश्वरके अठारह वर्ष कम, एक लाख पूर्व वर्ष व्यतीत हो गये ॥१६।। १७ गणधर मुनिवरों द्वारा कहे गये एक लाख पचास हजार पूर्व वर्ष बीत गये। अन्तमें कुछ भी नहीं रहता, केवल उनकी आयुका प्रमाण एक माह शेष रह गया, जहाँ सिंहके द्वारा हाथियोंके कुम्भस्थल आहत नहीं किये जाते, ऐसे सम्मेदशिखर पर्वतपर, मुनिसमूहके साथ हाथ ऊपर कर दो १६.१. A रिसिसोसहं । २. P सयई तिण्णाणिहिं। ३. A P एयारह । ४. A omits this foot, ५. A omits this foot. ६. A विरयहिं । ७. P लक्खतइउ । ८. A P add after this : मिलिउ तिरिक्वविदु संखेज्जउ, एत्तियजणहं करिवि साहिज्जउं । ९. A P कहंतहं । १०. A वरिसहं। १७.१. A Pठाइ । २. A माससेस थिय । ३. A हरिणहअविस्य; P हरिणहयरि हय । Page #122 -------------------------------------------------------------------------- ________________ -४१. १७. १४ ] महाकवि पुष्पदन्त विरचित वइसाहहु मासहु सियछठिहि सत्तमभवि हियचंदाइट्रिहि । खंतिवयंसियाइ संमाणिउ एक्कल्लउ समाहिधरु आणिउ। णाहुचारुचारित्तु विवज्जइ णग्गउ थिउ णिल्लज्ज ण लज्जइ। किरियाभट्ठ उड्दु संचलियउ सिद्धिविलासिणीहि जिणु मिलियउ । जीवपक्खिबंदिग्गहपंजरु इंदें पुज्जिउ मुक्ककलेवरु । अग्गिकुमारहिं अग्गि विइण्णउ सर्वइ चवइ णहि जंतु सउण्णउ । चउदहभयगामरइ छंडिय अहिणंदणेण मोक्खपुरि मंडिय । गउ गउ गउ जि पडीवउं णायउ मज्झु वि होजउ तेहिं जि णिकेयउ । पत्ता-जणु आवइ जाइ ण थाइ खणु अत्थवणुग्गमु दावइ ।। महुं हियवइ भरहाणंदयरपुप्फयंतसमु भावइ ॥१७॥ इय महापुराणे तिसट्टिमहापुरिसगुणालंकारे महाकहपुप्फयंतविरइए महामेष्वमरहाणुमण्णिए महाकम्वे अहिणंदणणिग्वाणगमणं णाम एकचालीसमो परिच्छेउ समत्तो ॥४॥ ॥''अहिगंदणचरियं समतं । पक्षके योगनिरोधमें स्थित हो गये। वैशाख माहके शुक्लपक्षकी षष्ठीके दिन सातवें नक्षत्रके चन्द्रमासे युक्त होनेपर शान्तिरूपी सखीसे सम्मानित वह अकेले समाधिघरमें स्थित हो गये। सुन्दर चरितवाले स्वामीका विश्लेषण किया जाता है, वह नग्न स्थित थे एकदम लज्जाहीन, उन्हें लज्जा नहीं आती थी। स्पन्दनसे रहित नक्षत्रके समान वह ऊपर चले, और जिन भगवान् सिद्धिरूपी विलासिनीसे जा मिले। इन्द्रने जीवरूपी पक्षीके लिए वन्दीगृहके समान उनके शरीरकी पूजा की। अग्निकुमार देवोंने उसे आग दो। आकाशमें जाते हुए पुण्यात्मा इन्द्र कहता है कि चौदह भूतग्रामोंमें रति छोड़कर अभिनन्दनने मोक्षपुरीको अलंकृत किया। वह गये तो गये, फिर वापस नहीं आये। मेरी भी घर वहींपर हो । घत्ता-जीव आता है और जाता है; एक क्षण भी स्थिर नहीं रहता, केवल अस्त और उद्गम बताता है। वह मुझे भरतको आनन्द देनेवाले पुष्पदन्तके समान, हृदयमें अच्छे लगते हैं ॥१७॥ इस प्रकार ब्रेसठ महापुरुषोंके गुणालंकारोंसे युक्त महापुराणमें महाकवि पुष्पदन्त द्वारा प्रणीत और महामव्य भरत द्वारा अनुमत महाकाव्यका अभिनन्दन जिनवरका निर्वाणगमन नामका इकतालीसवाँ परिच्छेद समाप्त हुआ ॥११॥ ४. A सत्तमभवियहि चंदा । ५. A P णिल्लज्जु । ६. A उवसंचलियउ। ७. P जणु । ८. AP सक्छु; but T सवा स्वर्गपतिः । ९. A तं जि णिकेवउ; P बहिं जि णिकेयउ । १०. Pणंदयरु । ११. A P omit the line. Page #123 -------------------------------------------------------------------------- ________________ संधि ४२ पंचमगइगमणु पहु पंचगुरुहुँ पहिलारउ ॥ पंचमंतित्थयरु पणविवि पंचेसुवियारउ ॥ ध्रुवकं ॥ णिजियसवणं णिज्जियरूवं णिज्जियगंधं णिज्जियसरसं णिज्जियको णिज्जियमाणं णिज्जियमायं णिज्जियलोहं मुणियपयत्थं कयसुत्तत्थं पालियमहिम संतं सैवणं । णिरुवमरूवं। सुरहियगंधं । वज्जियसरसं। वरवक्कोह। सुहरिसमाणं । चत्तपमायं। गयसल्लोहं। भासातत्थं। जं दिव्वत्थं । घल्लियमहिमं । सन्धि ४२ पांच गुरुओंमें पहले, पांचवीं गतिमें गमन करनेवाले प्रभु (सिद्ध ) और कामका नाश करनेवाले पांचवें तीर्थंकर (सुमतिनाथ) को मैं प्रणाम करता हूँ। जो श्रवण ( कान ) को जीतनेवाले सन्त श्रमण हैं, जो बाह्य रूपको जीतकर भी अनुपम रूपवाले हैं, गन्धको जीतकर भी सुरभित गन्धवाले हैं, काम-सुखको जीतकर जिन्होंने सराग वचन छोड़ दिया है, जो क्रोधको जीतकर भी उत्तम वाक्य-समूहवाले हैं, मानको जीतकर भी जो इन्द्रके समान हैं, जिन्होंने मायाको जीत लिया है, एवं प्रमादका परित्याग कर दिया है। जो लोभको जीतनेवाले और शल्योंसे रहित हैं । प्रशस्तके ज्ञाता, निर्बाध वक्ता, दिव्यार्थवाले सूत्रोंके निर्माता, A has, at the beginning of this Samdhi, the following stanzai सोऽयं श्रीभरतः कलङ्करहितः कान्तः सुवृत्तः शुचिः सज्ज्योतिर्मणिराकरो प्लुत इवानो गुणैर्भासते । वंशो येन पवित्रतामिह महामत्रायः प्राप्तवान् (प्रापितः ?) श्रीमद्वल्लभराज-कटके यश्चाभवन्नायकः ॥ १ ॥ No other known MS of the work gives it. १.१. A P पंचम तित्थयरु । २. Pसमणं । ३. P°समणं । ४. A सुरहिसुयंधं; T सुरहिसुगंधं । ५. Aसुवतत्थं । ६. T लंघियमहिमं । Page #124 -------------------------------------------------------------------------- ________________ -४२. २.९] महाकवि पुष्पदन्त विरचित महिलाकुमई मोत्तं कुमई। इच्छियसुमई णमिउं सुमई। तस्स पवित्तं वोच्छं वित्तं। घत्ता-जिह ते लइँउ व्रउ जिह हुयउ अणुत्तरि सुरवरु ।। जिह जायउ सुमइ तिह कह मि समासइ वइयरु ॥१॥ जलवरिससीयए दीवए बीयए कुंभयेण्णेहिं णिक्खित्तमहिबीयए। भमियमत्तंडए तमपडलखंडए फुल्लतरुसंडए धोदईसंडए । तरुणणरमिहुँणपरिवड्डियसणेहए पुर्वसुरसिहरिणो हरिदिसिविदेहए । णडियबरहिणणडे सरिवरुत्तरतडे पोमरयरासिपिंजरियकुंजरघडे । दुक्खणिग्गमणरइरमणवणसिरिसही जत्थ तत्थत्थि पिहु पुक्खलावइ मही। ५ तम्मि गच्छंतसामंतभडसहयरी सेयसउहावली पंडरिंगिणि पुरी। घुसिणरससिंचिए हसियगयणंगणे मोत्तियकणंचिए प्रंगणे प्रंगणे । अमलिणा सणेलिणा जत्थ जलवाविया कुररकारंडकलहंससंसेविया । मंदिरे मंदिरे सइरेगइ गोमिणी हम्मई मद्दलो गच्चए कामिणी । महिमाका पालन करनेवाले, धरती और लक्ष्मीको छोड़नेवाले हैं। जिन्होंने महिला पृथ्वीकी बुद्धि और कुमतिको छोड़ने के लिए सुमतिको इच्छा की है, ऐसे सुमतिनाथको मैं प्रणाम करता हूँ और उनके पवित्र वृत्तान्तको कहता हूँ। पत्ता-जिस प्रकार उन्होंने व्रत लिया, जिस प्रकार वह अनुत्तर स्वर्ग विमान में उत्पन्न हुए और जिस प्रकार सुमति नामक तीर्थकर हुए, वह सारा वृत्तान्त मैं संक्षेपमें कहता हूँ ॥१॥ जो जल वर्षासे शीतल हैं तथा जिसमें घड़ोंके द्वारा धरतीमें बीज बोये जाते हैं, जिसमें अन्धकारके समूहको नष्ट करनेवाला सूर्य परिभ्रमण करता है और वृक्षसमूह खिला हुआ है, ऐसे धातकी खण्ड द्वीपके पूर्वमें सुमेरुपर्वतकी पूर्वदिशामें, जिसमें तरुण नर जोड़ोंमें स्नेह बढ़ रहा है, ऐसा विदेह क्षेत्र है । जिसमें मयूररूपी नट नृत्य करता है और जिसमें कमलोंके परागसमूहसे हस्तिघटा पिंजरित (पीली) है, सीता नदीके ऐसे उत्तर तटपर विशाल पुष्कलावती भूमि है, जो दुःखको दूर करनेवाली एवं रतिरमण करानेवाली वनलक्ष्मीकी सखी है। उसमें चलते हुए भट सामन्तोंसे सुखकर एवं श्वेत चूनोंके प्रासादोंवाली पुण्डरीकिणी नामकी नगरी है। जिसके केशर रससे सिंचित गगनांगनको हंसनेवाले मुक्ताकणोंसे अंचित आंगन-आँगनमें कमलों सहित निर्मल बावड़ियां हैं। घर-घरमें स्वैरगामिनी लक्ष्मी है। मृदंग बजाया जाता है और कामिनी नचायो जाती है। जहां ७. A लयउ वउ; P लइउ वउ । २. १. A P कुंभयणेहिए खित्त । २. A घायई । ३. A P°णरमिहुणए वढिय । ४. A हरिदिस। ५. A Pसिहरिए । ६. A सउहाउली।७. A P पंडरिकिणि । ८. A P पंगणे पंगणे । ९. A समलिणा । १०. A P कलहंसजुयसेविया । ११. A सई रमइ but gloss स्वेच्छाचारिणी । Page #125 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ७८ १० १५ १० महुसमयसंगमो उववणे उववणे वूढसिंगारए जोव्वणे णवणवे जत्थ सव्वो जणो जित्तगिव्वाणओ किंकरा बंधुणो दाणसंमाणिया मंतियं चिंतियं चारु कज्जं पुणो महापुराण घत्ता - उवसमवाणिऐण सिंचेप्पिणु किज्जइ सीयलु ॥ भोयर्तणेण पुणु पज्जलइ भीमु कामाणलु ||२|| ३ गच्छाम इच्छा इ भणिवि समु चिणिवि मोहल्लेव वल्लहहु णंदणहु "प्रायंति व्रउ लइड रामाहिरा मे दुव्वारवारणई भावेण भावेवि जित्तु जिवित्तु गुरुपुण्णु अज्जेवि रमइ वेईसवणओ आवणे आवणे । वसइ वरसरसई माणवे माणवे । तत्थ पहु अस्थि णामेण रइसेणओ । रायलच्छी चिरं तेण संमाणिया । मोक्सोक्खंकरो णत्थि रज्जे गुणो । गुरुपाय पेच्छा | जिणु थुणिवि मणु जिणिवि । देवि । तं अरुणंदणहुँ । हियवर ण विहियेउं । इट्ठे कामे । सोलह वि कारणइं । णीस वैवसेवि । जिणणारं जिणगोतु | मोहं विसज्जेवि । [ ४२.२.१० उपवन-उपवन में वसन्तका समागम है, ओर जहां कुबेर बाजार-बाजारमें रमण करता है । शृंगारित नवनवयौवन और मनुष्य - मनुष्य में जहां सरस्वती निवास करती है । जहाँ सभी मनुष्य देवोंको जीतनेवाले हैं, ऐसे उस नगर में रतिसेन नामका राजा था। जिसके अनुचर और बन्धु दानसे सम्मानित हैं, उसने बहुत राज्यलक्ष्मीको सम्मानित किया ( बहुत समय तक उसका उपभोग किया ) । फिर उसने अपने शुभ कामकी मन्त्रणा ओर चिन्तना की कि राज्य में मोक्षसुखको देनेवाला गुण नहीं है । घत्ता-उपशमरूपी जलसे सींचकर कामरूपी आगको शान्त करना चाहिए, भोगोंसे तो कामाग्नि भयंकर रूपसे प्रज्वलित हो उठती है ॥२॥ ३ 'मैं जाता हूँ । इच्छा करता हूँ । गुरुचरणोंके दर्शन करता हूँ ।' यह विचारकर, समताको पहचानकर, जिनकी स्तुति कर, मनको जीतकर, मोहनीय कर्मको छोड़कर, अपने प्रिय पुत्र अतिरथको राज्य देकर, अर्हन्नन्दनके चरणोंमें उसने व्रत ले लिया । स्त्रियोंसे सुन्दर इष्ट कामोंमें उसका मन तनिक भी विस्मित नहीं हुआ । संसारका निवारण करनेवाली सोलह कारण भावनाओंकी अपने मनसे भावना कर, मुक्त व्यवसाय कर, जिनसूत्र जिनवृत्त जिननाम जिनगोत्र भारीपुण्यका १२. AP वहसवणु पुणु । १३. AP पाणिए । १४. A P भोयत्तणेण । ३. १. P एच्छामु । २. P मही देवि । ३. A P जित्तारिसंदणहु । ४ A Padd after this: मुणिगोत्तणामासु रविकिरण घामासु । ५. AP, पायंति तउ । ६. A P विभविउ । ७. A P उबसेवि । Page #126 -------------------------------------------------------------------------- ________________ -४२. ४.५ ] महाकवि पुष्पदन्त विरचित मैंउ करिवि संणासु हुउ वइजयंतीसु । णिवसेइ कंतम्मि ते वइजयंतम्मि। कालेण दीहरह तेत्तीस सायरह। सरिसाउ माणियर्ड णियंबंध णीणियउं । पुणु तस्स सुहभाउ छम्माससेसाउ। सक्केण जाणियउ संबंधु भाणियउ। धणयस्स हेण हरिसुद्धदेहेण । इह जंबुदीवम्मि भो भरहखेत्तम्मि। चिरु वसियसयरम्मि साकेयणयरम्मि । मेहरहु पहईसु पिय मंगला तासु । 'हविही सुओ ताहं जिणु जाहिं पियराहं। पुरु करहि सोवण्णु ता झति बहुवेण्णु। घत्ता-वजहिं मरगयहिं वेरुलियहं गयणुब्भासणु । जक्खे "णिम्मविय उं कोसलपुरु पावविणासणु ॥३॥ एत्थंतरए जणमणरामे वासहरे णिसि पच्छिमजामे । मउपल्लंके णिहायंती हंसी विव कमले णिवसंती । पेच्छइ देवी सिविणयपंती तुहिणतारमुत्ताहलकंती। गयणाहं गोमंडलणाहं पिंगलचलणयणं मयणाहं। पोमं' पीणियपुहईणाहं दामं रंजियभसलसणाह। अर्जन कर, मोहका विसर्जन कर; वह संन्यासपूर्वक मरकर वैजयन्त विमानमें अहमेन्द्र हुआ। वह सुन्दर वैजयन्त विमानमें निवास करता है। तेंतीस सागर पर्यन्त उसने सरस आयुका भोग किया, और इस प्रकार अपना निबन्ध पूरा किया। फिर उसकी शुभभाववाली आयु छह माह शेष बची। इन्द्रने जान लिया। हर्षसे उद्धत है देह जिसमें, ऐसे स्नेहसे उसने धनदसे सम्बन्ध कहा-"इस जम्बूद्वीपके भरत क्षेत्रमें, जिसमें पहले सगरका निवास था ऐसे साकेत नगरमें राजा मेघरथ है। उसकी प्रिया मंगला है। उनका पुत्र जिन होगा; इसलिए तुम उनके माता-पिताके पास जाओ, नगरको स्वर्णमय बनाओ।" तब शीघ्र ही __ घत्ता-यक्षने वज़ों, मरकत मणियों-वैदूर्योसे आकाशचुम्बो पापोंका नाश करनेवाले बहुरंगे अयोध्यानगरका निर्माण किया ॥३॥ इसी बीच जनमनोंके सुन्दर निवासगृहमें रात्रिके अन्तिम प्रहरमें कोमल पलंगपर सोती हई, जैसे हंसिनी कमलोंमें निवास करती है, हिम तार और मोतियोंके समान कान्तिवाली वह देवी स्वप्नमाला देखती है । गजनाथ वृषभराज पीली और चंचल आँखोंवाला, सिंहा पृथ्वीनाथको ८. A P मुठ । ९. A P तं । १०. P णियबंधणियउ । ११. A होही । १२. A बहुपुण्णु । १३. A P णिम्मियां । ४. १. A लच्छीवियसियकमलसणाहं: Pपोमापीणिय । Page #127 -------------------------------------------------------------------------- ________________ महापुराण [ ४२. ४.६ ताराणाहं वासरणाह झसजुयलं तडिजुयलगुणाहं । कलसजुयं मंगलकुलणाहं कमलसरं कीलियकरिणाहं । तुगतरंगं तीरिणिणाहं वइसणयं च ससावयणाहं । गेहं सुवसियसुरवरणाहं अवरं पवरं थियफणिणाहं । रयणगणं विम्हियेधणणाह दीहसिहालं साहाणाहं। इय दैट्टुं पुच्छइ णियेणाह जाया अन्ज दिट्ठसिविणाहं । भो सोलहपुरिल्लगयणाहो ताणं कहसु फलं मइ गाहो। तं णिसुणिवि पभणइ णेरणाहो. होही पुत्तो तुह जगणाहो । "सवण्हं सविदसमच्चो देवो गहुसो भण्णइ मच्चो। १५ हूए हरिभणणे हिरवजे सइसरीरपक्खालणकज्जे । आया देवी हिरि सिरि कंती लच्छी बुद्धी दिहि'मइ कित्ती । धत्ता-अणवइण्णि अरुहे पहिलउ जि जाम छम्मासि ॥ __ ताम धणाहि वेण धणधारहिं नृवघरि वरिसिउं ॥४।। wwwwwwwwwwwww णीलियदिसावणइ मासम्मि सावणइ। तहिं सुद्धबीयाइ दूरं विणीयाइ। प्रसन्न करनेवाली पद्मा. ( लक्ष्मी), गनगनाते हुए भ्रमरोंसे यक्त पुष्पमाला.तारानाथ (चन्द्रमा) वासरनाथ ( सूर्य ); विद्युत्युगलकी तरह मत्स्ययुगल, मंगलकुलका स्वामी कलशयुगल; जिसमें गजनाथ क्रीड़ा कर रहे हैं, ऐसा कमलाकर, ऊंची तरंगोंवाला समुद्र, सिंहोंसे युक्त आसन (सिंहासन ), सुवसित-सुरवरोंका घर ( देवविमान ); नागलोक, कुबेरको विस्मित करनेवाला रत्नसमूह; लम्बी ज्वालाओंवाली आग। यह देखकर वह अपने स्वामीसे पूछती है कि "आज मैं स्वप्न देखनेवाली हो गयी है, अर्थात् आज मैंने स्वप्न देखे हैं, जिनमें पहला गजनाथ है, ऐसे उन स्वप्नोंका फल हे स्वामी मुझसे कहिए"। यह सुनकर राजाने कहा, "तुम्हें विश्वनाथ पुत्र होगा। सर्वज्ञ, और सर्वेन्द्रोंके द्वारा समचनीय वह देव हैं, उन्हें मत्यं नहीं कहा जाता।" इन्द्रका निरवद्य कथन पूरा होनेपर; सतीके शरीरका प्रक्षालन करनेके लिए, श्री-ह्रो-कान्ति-लक्ष्मी-बुद्धि धृति देवियां आयीं। . पत्ता-देवके अवतार लेनेके पहले जब छह माह बाकी थे, तब कुबेरने राजाके घरमें स्वर्णवृष्टि की ॥४॥ श्रावण माहमें, जब कि दिशाएं और धरती हरी थो, शुक्लपक्षकी द्वितीयाके दिन वह गर्भमें २.A णिज्जियघणणाह; P विभियधणणाहं। ३. P दिट्ठ । ४. A णिवणाहं । ५. A सिविणोहं । ६. A जे सोलहं। P जो सोलह । ७. A P°गयणाहं। ८. A Pणाहं । ९. P महिणाहो। १०. P जयणाहो। ११. P सव्वण्ह सविद । १२. A देवो णउ भण्णइ सो मच्चो; Pदेवो ण हि सो भण्णइ मच्चो। १३. AP हरिभवणे । १४. A णिरुवज्ज। १५. P सिरि हिरि। १६. P सइं। १७. P छमासिउ । १८. A Pणिवरि । Page #128 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४२. ५. २१ ] महाकवि पुष्पदन्त विरचित गब्भम्मि अवयरिउ जणीइ उरि धरिउ । सो वइजयंतेंदु पुण्णिमइ णं चंदु । कयजयरवालाइ आवेवि लीलाइ। केरधरियवीणाइ सहुँ तियससेणाइ। तं णयरु तं भवणु सा जणणि सो जणणु । अंगंतरंगत्थु वंदेवि मुंणितित्थु। गउ सयमहो तेत्थु सविमाणु तं.जेत्थु । रयणप्पहाकिट्ठि पुणु विहिय वसुविट्ठि। जक्खीकडक्खेण तूसेवि जक्खेण । ता जाव णवमास संपुण्णविहलास। केवलसिरीरिद्धि अहिणंदणे सिद्धि। हयदियहपौडीहिं णवलक्खकोडीहिं। जइया गया ताई सायरसमाणाहं । तइया महंतेण पुण्णण होतेण । चित्ताइ पिउजोइ पविमलदिसौटोई। तिण्णाणमयदिहि पंचमउ परमेहि। संभूउ सो जाम संखुहिय सुर ताम। घत्ता-णाणावाहणहिं दिसि दिसि झुल्लंतवडायहिं ।। २० आइउ अमरवइ सहुचउँविहअमरणिकायहिं ॥५॥ अवतरित हुआ और अत्यन्त विनीत माने उस वैजयन्त देवको अपने उदरमें धारण किया, जैसे पूर्णिमाने चन्द्रमाको धारण किया हो। तब इन्द्रने जय-जय शब्द करती हुई हाथमें वोणा धारण करनेवाली देवसेनाके साथ लोलापूर्वक आकर, उस नगर, उस भवन, उस माता, उस पिता और शरीरके भीतर स्थित मुनितीर्थको वन्दना को। और वह वहां चला गया जहां उसका अपना विमान था। फिर यक्षिणीके कटाक्षसे सन्तुष्ट होकर यक्षने रत्नोंकी प्रभाको आकृष्ट करनेवाली धनवृष्टि तबतक की कि जबतक विकलोंको आशा पूरी करनेवाले नौ माह नहीं हुए; जब तीर्थकर अभिनन्दनको केवल श्रीरूपी ऋद्धि सिद्ध हुई थी, तबसे नौ लाख करोड़ सागर दिवस परिपाटीके गुणित होनेपर ( बीतनेपर ); तब महान् पुण्यके योगसे चित्रा नक्षत्रमें ( माघ शुक्ला एकादशी); दसों दिशाओंका विस्तार जिसमें निर्मल है, ऐसे पितृयोगमें, तीन ज्ञानोंकी दृष्टिवाले पांचवें परमेष्ठी जब उत्पन्न हुए तो देवलोक क्षुब्ध हो उठा।। पत्ता-नाना वाहनों, दिशा-दिशामें झूलती हुई पताकाओं और चार प्रकारके अमरनिकायोंके साथ इन्द्र आया ||५|| ५. १. A जणणोउरे । २. P करि घरियं । ३. A P मुणि तेत्थु । ४. P हयदियहणाडीहिं । ५. A P पविमलदिसाहो; T दिसाभोइ दशदिशाटोपे। ६. P adds after this: एयादसिर पक्खि, सिए चंदे महारिक्खि । ७. A बहुविहअमर। Page #129 -------------------------------------------------------------------------- ________________ महापुराण [४२.६.१ पाविऊण पट्टणं गंपि रायमंदिरं बंधुचित्तविब्भमं वजपाणिणा पुणो अंकए णिवेसिओ कुंभकंठबंधरो पत्तओमरोयलं तम्मि देहमाणवो णाहओ णिरूविओ पावतावहारिणा देवएहिं हाणिओ आलयं पुणाणिओ ते जयम्मि धण्णया मंडणेहिं राइओ जोइएहिं झाइओ अप्पिओ विपर्कए वजिणा जिणेसरो संसिऊण तं णिवं देवि तिप्पयाहिणं। णिम्मिऊण णिब्भरं। अण्णबालसंकम। वंदिओ सयं जिणो। सूहवो सुहासिओ। चोइओ ससिंधुरो। पंडुरं सिलायलं। तेण दिव्वमाणेवो। भत्तएहिं भाविओ। दुद्धरासिवारिणा। पुप्फगंधमाणिओ। जेहिं सो वियाणिओ। णाणिणो संउणिया। किंणरेहिं गाइओ। अस्थिणस्थिवाइओ। माउपाणिपंकए। जीयलोयणेसरो। कोसिओ गओ दिवं। नगरको पाकर, उसकी तीन प्रदक्षिणा कर राजमन्दिर में जाकर, बन्धुओंके चित्तको विभ्रममें डालनेवाले कृत्रिम बालकका पूर्ण रूप निर्मित कर, इन्द्रने स्वयं जिनको प्रणाम किया, और सुभग सुभाषित उन्हें अपनी गोदमें ले लिया। गण्डस्थल और कण्ठसे सुन्दर अपने गजको उसने प्रेरित किया और अमरालय पाण्डुशिलापर पहुंचा। देहश्रीसे अभिनव दिव्य मानवनाथको उसने स्थापित किया। और भक्तोंने उसकी भक्ति की। देवोंने पापतापका हरण करनेवाली दुग्धराशिके जलसे स्नान कराया और पुष्पगन्धसे सम्मान किया। वे पुनः उन्हें घर ले आये, कि जिनके द्वारा वे ले जाये गये थे। जगमें वे ज्ञानी और पुण्यात्मा धन्य हैं जो अलंकारोंसे अलंकृत हैं, किन्नरोंके द्वारा जिनका गान किया जाता है, योगियोंके द्वारा जिनका ध्यान किया जाता है; जो स्याद्वादके प्रतिपादक हैं। फिर माताके निर्मल करकमलमें इन्द्रने जोवलोकके ईश्वर जिनको दे दिया। और राजाकी प्रशंसा कर इन्द्रलोकको चला गया। ६.१. A वज्जपाणिणो । २. AP'मरालयं but A corrects it to सुरालयं; gloss in K अमराचलं । ३. P सिलालयं । ४. A माणवे । ५. A माणवे । ६. A णाहए । ७. A पुणो णिओ।८ A समुण्णया; P सउण्णया। ९. A विकंपए । १०. समाउपाणिपंकए। Page #130 -------------------------------------------------------------------------- ________________ -४२.७.१२] महाकवि पुष्पदन्त विरचित घत्ता-सुरसीमंतिणिहिं थणथण्णएण वड्डारिउ ॥ सुमइसमग्घविउ पहु सुमई भणिवि हक्कारिउ ॥६।। पुग्वाण गिव्वाणकीलाइ कयसोक्ख कुमरत्तणेणेय वोलीण दहलक्ख । अइऊण ता णवर दणुयारिरायण भंभंतगंभीरभेरीणिणाएण । सिंचेवि सुईसलिलधाराणिवाएहिं संमैहि वि णवमालईपारियाएहिं । सवलहिवि कप्पूरचंदणपयारेहिं भूसेवि केऊरहारेहिं दोरेहि । कलरवतुलाकोडिकंचीकलावेहिं णच्चेवि विब्भमहिं हावेहिं भावेहिं । बद्धो सिरे पटु देवाहिदेवस्स णिविंधकामावहो णिविलेवस्स । अंधाई बहिराई धणविहवहीणाई संपीणयंतस्स काणीणदीणाई। महि भुंजमाणस्स दिव्वाइं सोक्खाइं गलियाई पुत्वाइं णवलक्खसंखाई। ता चिंतियं चिंतणिज्जं जिणिंदेण रज्जेण मह होउ भववेल्लिकंदेण । तं चयमि तउ करमि संचरमि मग्गेण विसहिंदचिण्णेण जडकसरदुग्गेण । पत्ता-गिरिकक्करि पडइ महुकारणि जिह हयकरहउ ।। रज्जरसेण तिह भणु महियलि को किर ण णिहउ ॥७॥ घत्ता-देव-सीमन्तिनियोंके द्वारा अपने दूधसे वृद्धिको प्राप्त तथा सुमतिके लिए समर्पित प्रभुको सुमति कहकर पुकारा गया ॥६॥ सुख उत्पन्न करनेवाली देवक्रीड़ाओं और कौमार्यमें उनके जब दस लाख पूर्व वर्ष बीत गये. तो इन्द्रने आकर घमते हए गम्भोर भेरी निनादके साथ पवित्र जलधाराओंकी वर्षासे अभिषेक कर, नवीन मालतो और पारिजात कुसुमोंसे पूजा कर, कपूर और तरह-तरहके चन्दनोंसे लेप कर, केयूर-हार-दोरों ओर सुन्दर बजते हुए धुंघरुओंवाली करनियोंसे अलंकृत कर, विभ्रमों हाव-भावोंसे नृत्य कर, कामको निरन्तर ध्वस्त करनेवाले निर्लेप देवाधिदेवके सिरपर पट्ट बांध दिया। अन्धे, बहिरों, धनविभवसे होनों, कन्यापुत्रों और दीनोंको प्रसन्न करते हुए, धरती और दिव्य सुखोंका भोग करते हुए, उनकी नौ लाख पूर्व वर्ष आयु बीत गयी। तब जिनेन्द्रने चिन्तनोयका विचार किया कि संसाररूपी लताका अंकुर यह राज्य मेरे लिए व्यर्थ है। उसे मैं छोड़ता हूँ, तप करता है और वृषभेन्द्र (ऋषभनाथ धवल बैल) के द्वारा स्वीकृत जड़ और गरियाल बैलोंके लिए अत्यन्त दुर्गम मार्गसे चलता हूँ। घत्ता-जैसे हत-करभ ( ऊँट ) मधुके लिए पहाड़के शिखरपर गिरता है, बताओ राज्यके रसके कारण संसारमें कौन नहीं मारा जाता? ॥७॥ ११. P T सुभइ समप्पिय and gloss in T सुमतिः समर्पिता अतिशयवती येन । १२. P सुम्मइ । ७.१. P अविऊण । २. P सिंचेवि सो सलिल । ३. A सम्मोवणिव । ४. परियाएहिं । ५. A डोरेहिं । ६. A P णिबंध' T णिबंध सातत्यम् । ७. Pणववीसलक्खाई। Page #131 -------------------------------------------------------------------------- ________________ महापुराण [ ४२.८.१ अणुभासियं तं जि लोयंति' विबुहेहिं आवेवि देवेहिं पज्जण्णपमुहेहिं । तिपुरिल्लकल्लाणविहि तेहिं संविहिउ सिवियाइ णेऊण णंदणवणे णिहिउ । मुक्काई वत्थाई भीमाई सत्थाई गहियाई सत्थाई णियधम्मसत्थाई। लुंचेवि कुंतलकलावो वि कोंतलेइ सहुं छडिओ जोग्गपत्तम्मि पविमलइ । सो देवदेवेण पित्तो समुहम्मि दुद्धबुकल्लोलमालारउहम्मि । मणपज्जउप्पण्णणाणेण सुवसिल्लु छट्टोववासत्थु णीसंगु णीसल्लु । णीसंकु णिक्कंखु णिम्मुक्कदुविहासु सियलेसु णिदोसु णीरोसु णीहासु । वइसाहसियणवमि पुठवण्हवेलाइ आलिंगिओ सामिओ दिक्खबालाइ । घत्ता-अवरहिं दियहि पुणु संसारमहण्णवतारउ । पुरवरु सउमणसु चरियाइ पइट्छु भडारउ ॥८॥ तत्थ सो पोमणामेण राएण संभाविओ भाववंतेण सत्तीइ भत्तीइ भुंजाविओ। पंचचोज्जाइं जायाइं दाणिस्स तस्सालए लोयणाहो भेमंतो वसंतो गिरिदालए। वीसवासाई घोरे गहीरे तवे संठिओ ता रओ दूसहो दुम्महो दुज्जओ णिट्ठिओ। तम्मि दिक्खावणे वायहल्लंततालीदले णिच्चलं झायमाणेण झेय' पियंगूतले । . यही बात लोकान्तिक देवोंने आकर कही। इन्द्र प्रभृति देवोंने आकर आगेकी तीसरी कल्याण विधि सम्पन्न की और शिविकासे ले जाकर उन्हें नन्दनवनमें स्थापित कर दिया। वस्त्र और भीषण शस्त्र छोड़ दिये गये, स्वधर्मको शासित करनेवाले शास्त्र ग्रहण कर लिये गये । केशकलापको उखाड़कर पुष्पमालाके साथ पवित्र योगपात्रमें डाल दिया गया । देवेन्द्रने दुग्धजलकी लहरोंकी मालासें भयंकर समुद्र में फेंक दिया। मनःपर्ययज्ञान उत्पन्न हो जानेके कारण स्ववशीभूत, अनासंग और शल्यरहित, छठे उपवासमें स्थित, निःसंग आकांक्षा-रहित, दुविधाओं से मुक्त, शुक्ल लेश्यासे युक्त, निर्दोष अक्रोध, भाषाविहीन ( मौन ) स्वामीका वैशाख माहके शुक्लपक्षकी नवमीके दिन, पूर्वाल वेलामें दीक्षा रूपी बालाने आलिंगन कर लिया। पत्ता-एक दूसरे दिन, संसाररूपी महासमुद्रसे तारनेवाले भट्टारक जिन सुमतिनाथ, सौमनस नगरमें चर्याके लिए प्रविष्ट हुए ॥८॥ वहां पद्मनाभके राजाने उन्हें पड़गाहा तथा भावोंसे भरे हुए उसने शक्ति और भक्तिसे उन्हें आहार करवाया। उस दानीके घरमें पांच आश्चर्य हुए। लोकनाथ सुमति पहाड़ोंके घरमें भ्रमण करते और निवास करते हुए वे बीस वर्षोंके घोर तपमें स्थित हो गये। और तब दुःसह, दुर्मद और दुर्जय कर्मरज नष्ट हो गया। वायुसे आन्दोलित तालीदलवाले उसी दीक्षा वनमें ८. १. P लोयंत । २. A P कुंतलइ । ३. P°कल्लोलवेलारउद्दम्मि । ९.१. हम्मालए । २. P समंतो। ३. A जायं । Page #132 -------------------------------------------------------------------------- ________________ -४२. १०.६] महाकवि पुष्पदन्त विरचित आइमे मासए चंदजोण्हं किए पक्खए बारसीए इणे पच्छिमत्थे मघारिक्खए। ५ इच्छियं णो सइत्तम्मि रायाणसंमाणसं तेण मोत्तूण भत्तं तिरत्तं च काऊण सं। मेरुधीरेण हतूण कम्मारिकूरं बलं सम्वदन्वावलोय स आसणाणं पयंपेण पायालए पण्णया कंपिया देवलोयम्मि देवा वि णिदुण्णया। माणवा माणवाणं णिवासाउ संचल्लिया वाहणोहेहिं खं ढंकियं मेइणी डोल्लिया। आगओ वित्तसत्तू ससूरो सतारो ससी जोइओ दीहणीलालिमालाजडालो रिसि। १० तिण्णि बाणासणाणं सयाई सरीरुण्णओ अंगवण्णेण सोवण्णवण्णं समावण्णओ। घत्ता-सुरवइअहिवहिहिं महिर्वइहि मि णियणियसत्तिइ ।। पारद्धउ थुणहुं सुमईसरु परमइ भत्तिइ ।।९।। १० जय देव णिप्पाब जय तुंग णिभंग जय वाम णिव्वाम जय धीरे संसारजय संत विकंत जय कंत कुकयंत णिक्कोव णित्ताव । दिव्वंग णिवंग। णिक्काम णिद्धाम। कंतारणित्थार। परमंत अरहंत । कुणयंत भयवंत । प्रियंगुलताके नीचे अपने निश्चल ध्येयका ध्यान करते हुए चैत्र माहके शुक्लपक्षकी एकादशीके दिन सूर्यके पश्चिम दिशामें स्थित होनेपर मघा नक्षत्रमें उन्होंने अपने चित्तमें राजाओंका सम्मान नहीं चाहा। भोगत्व और रतिको छोड़कर और सम्यक्त्व ग्रहण कर मेरुके समान धीर उन्होंने कर्मरूपी अरिके क्रूर बलको नष्ट कर सर्व द्रव्यका अवलोकन करनेवाले केवलज्ञानको प्राप्त कर लिया। आसनोंके प्रकम्पनसे पाताललोकमें नाग कांप उठे, देवलोकमें देव भी नींदसे उठ बैठे। मनुष्य मनुष्योंके निवाससे चल पड़े। वाहनोंसे आकाश ढक गया और धरती हिल उठी। इन्द्र आ गया, सूर्य और तारों सहित चन्द्रमा आ गया। उन्होंने लम्बी नीली अलिमालाके समान जटावाले ऋषिको देखा। उनका शरीर तीन सौ धनुष ऊंचा था। अपने शरीरके रंगमें वह तपाये गये सोनेके रंगके समान थे। ___घत्ता-सुरपतियों, नागपतियों और महीपतियोंने अपनी-अपनी शक्तिके अनुसार भक्तिपूर्वक श्रेष्ठमति सुमतीश्वरकी स्तुति शुरू की ।।९॥ १० हे निष्पाप, निष्क्रोध और निस्ताप ! आपकी जय हो। हे महान् निर्दोष दिशांग, आपकी जय हो। हे सुन्दर स्त्रीरहित निष्काम और निर्धाम, आपकी जय हो। हे धीर और संसाररूपी कान्तारसे निस्तार करनेवाले, आपकी जय हो । हे शान्त विक्रान्त परमन्त्र अरहन्त, आपकी जय हो। हे स्वामी कृतान्तके लिए अप्रिय, कुनयका अन्त करनेवाले ज्ञानवान्, आपकी जय हो। हे ४. A बारसीए दिणे; P गारसीए इणे । ५. P सइत्तं । ६. A पकंपेण । ७. P हल्लिया। ८. A P महिवइहिं णविउ णियसत्तिइ । १०.१. A णित्ताव णिक्कोव । २. P वीर। Page #133 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ८६ १० १५ २० मदासणं लच्छतं गत्तेवासं सुरुमुकसेलिविट्ठी विसिट्ठा ण सा तस्स काही समारं वियारं महापुराण णिग्गंथ सिवपंथ । अणिमित्त जगमित्त | णीय निम्मा | जय संथ मय मंथ जय दित्त तमैचत जय राय रिसिय जय णंद रुइरुंदजगद भूमिंद णित्तंद हिंद जयाह णिण्णाह मुदबुद | खयरिंद तियसिंद | भुविंददे । विवाह दुव्वाह । समयार सिंदूरसुरधित्तसियरत्तकुसुमोहक सोह जय तिक्ख दुणिरिक्खफलसाहि महुं देहि घत्ता - इय वंदिउ सुमइ जीहासयहिं सहसक्खें ॥ चउदारहिं सहिउ किउ समवसरणु ता जक्खें ॥१०॥ मंदारकणियार- | सयवत्त सुविचित्त । णिलोह णिम्मोह | तवक्खधुवसोक्ख । सुसमाहि हुं वोह | [ ४२. १०.७ ११ वरं आयवत्तत्तेयं चंदभासं । पडंती सराणीसरोलि व्व दिट्ठा । मम्मोहया ते हया जेण दूरं । स्वस्थ मदका मन्थन करनेवाले निर्ग्रन्थ शिवमार्ग, आपकी जय हो । हे प्रदीप्त अन्धकारसे व्यक्त, विश्व के अकारण मित्र, आपकी जय हो । हे राजविराज नीराग और मायासे रहित, आपकी जय हो । हे आनन्दमय कान्तिसे महान् मुखचन्द बुधेन्द्र, आपकी जय हो । हे भुजगेन्द्र भूपेन्द्र, विद्याधरेन्द्र, देवेन्द्र, नित्येन्द्र निर्द्वन्द्व, सैकड़ों मुनिवरोंसे वन्दनीय, आपकी जय हो । हे नाथरहित निर्बाध और दुर्बाध आपकी जय हो । हे समाचार ( शान्त आचारवाले ) सिन्दूर मन्दार कर्णिकार देवोंके द्वारा फेंके गये श्वेत रक्त कमलोंसे सुविचित्र कुसुमसमूहों की शोभावाले आपकी जय हो । हे तीक्ष्ण और दुर्दर्शनीय तपरूपी वृक्षकी शाश्वत सुखरूपी फलशाखावाले आपकी जय हो । आप मुझे ( कविको ) शीघ्र सुसमाधि ओर सम्बोधि प्रदान करें । घत्ता - इस प्रकार देवेन्द्रने अपनी सैकड़ों जिह्वाओंसे सुमतिकी वन्दना की। और इतने में यक्षने चार द्वारोंसे सहित समवसरणकी रचना कर दी ॥ १०॥ ११ लक्ष्मी के उच्च निवासवाला सिंहासन, चन्द्रमाको आभावाले श्रेष्ठ तीन छत्र, देवों द्वारा की गयी पुष्पवर्षा, जो कामदेव द्वारा विसर्जित तीर पंक्ति के समान दिखाई दी। लेकिन वह उनमें किसी भी प्रकारका कामका विकार उत्पन्न करनेमें असमर्थ थी । क्योंकि वे मनको उन्मादन ३. A तवतत्त । ४. A सिरिराय । ५. P णीमाय । ६. P adds after this : अणवद्द | ७. A तववेक्ख । ११. A तुंगतु । २. A आयवत्तं तयं । ३. A सेलंघविट्ठी । ४. P मणुम्मोहयंता हया । Page #134 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४२. १२.७ ] महाकवि पुष्पदन्त विरचित तवेणुभवाए बुहाणंदिरीए विहामंडलं कुंडलं गं सिरीए । णहे सुम्मए दुंदुही गजमाणो मुहालोयणेणेय विद्धत्थमाणो। अभन्यो वि देवस्स पाए णवंतो भिसं दीसए साणुकंपं चवंतो। चला चामराली मरालालिसेया सुभासाविभासाहिं गिज्जति गेया। असोयदुमो दिव्वपक्खिदरावो जगुम्मोहणो भारहीए पहावो। सुणिज्जति दवेत्थपज्जायभेया मुणिज्जति लोएहिं पंचत्थिकाया। गणिजंति कम्माइं छज्जीवकाया पवड्डंति देहीण चित्ते विवेया। १० घत्ता-पुच्छंतहु जणहु संदेहतिमिरु संणिरसइ ॥ जलि थलि णहि विवरि तं णस्थि जंण जिणु सासई ॥१२॥ १२ संउ सोलह उत्तरु गणहरह पुव्ववियाणहं मुणिवरहं। दुण्णि सहस चत्तारि सय णिच्चपउंजियजीवदय । दोणि लक्ख चउपण्ण पुणु सहस तिण्णि सय तहिं जि भणु । अवरु वि पण्णासइ सहिय एत्तिय सिक्खुव सवरहिय । ऐक्कारहसहसई परहं अत्थि तेत्थु अवहीहरहं । देवपित्तकुसुमंजलिहिं तेरहसहसई केवलिहिं। चउसयअट्ठारहसहस वेउम्वियहं सुज्झाणवस । करनेवाले उन्हें दूरसे ही नष्ट कर चुके थे। प्रभामण्डल ( भामण्डल ) ऐसा मालूम हो रहा था मानो तपसे उद्भासित, पण्डितोंको आनन्द देनेवाली लक्ष्मीका कुण्डल हो। आकाशमें बजती हुई दुन्दुभि सुनाई दे रही थी। मुखके अवलोकन मात्रसे विश्वस्त होता हुआ अभव्य भी देवके पैरोंमें नमस्कार करने लगता है. वह अनकम्पापर्वक सन्दर वाणी कहते हए दिखाई देते हैं, हंसोंकी पंक्तिके समान श्वेत चामरोंकी पंक्ति चंचल है। सुभाषाओं और विभाषाओं में गीत गाये जा रहे हैं। दिव्य पक्षीन्द्रोंके शब्दसे युक्त अशोक वृक्ष और विश्वका मोह दूर करनेवाला भारतीका प्रभाव है। द्रव्यार्थ और पर्यायार्थों के भेद सुने जा रहे हैं, लोगोंके द्वारा पंचास्तिकायोंका मनन किया जा रहा है । कर्मादि और छह प्रकारके जीवनिकायोंकी गणना की जा रही है, मनुष्योंके चित्तमें विवेक बढ़ रहा है। । घत्ता-पूछनेवाले मनुष्यका सन्देहरूपी तिमिर नष्ट हो जाता है। जल-थल-नभ और आकाशमें वह नहीं है कि जिसका जिन कथन नहीं करते ॥११॥ एक सौ सोलह गणधर थे। पूर्वोके ज्ञाता मुनिवर दो हजार चार सौ। नित्य जीवदयाका प्रयोग करनेवाले स्वपरके हितके साधक, शिक्षक दो लाख चौवन हजार तीन सौ पचास, वहां ग्यारह हजार अवधिज्ञानी थे। जिनके ऊपर देवताओंने पुष्पांजलि डाली है, ऐसे केवलज्ञानी तेरह हजार, सद्ध्यानमें लीन विक्रिया-ऋद्धिधारी अठारह हजार चार सौ। मदका नाश करनेवाले ५. A P कोंडलं। ६. A सगंधो वि। ७. P मरालाण्णिसे या । ८. P सुहासाहि भासाहिं । ९. K दिग्वत्थ but gloss द्रव्यार्थ । १०. A P भासइ । १२.१. A P सउ जिससोलह । २. A P एयारह । Page #135 -------------------------------------------------------------------------- ________________ महापुराण [ ४२. १२.८दहसहास चउरो सयई मणपंजवहहं हयमयई । तेत्तिय पुणु पण्णासजुय वाइ तासु णिप्पण्णसुय । लक्खई गुत्तिसमय गणमि सहसई अवरु तीस भणमि । सरिसइं बंभीसुंदरिहिं तहु जायज्ञ संजमधरिहिं । णिञ्चमेव हालियकरह तिणि लक्ख सावयणरह। पंचलक्ख घरचारिणिहिं णारिहिं अणुवयधारिणिडिं । विहरंतहु तहु महिठाणाई वीसवरिसपंरिहीणाई। पुर्वहं घडिमालाहयई एक्कवीसलेक्खइं गयई। कायबिसम्गे थिउ वियडि माससेसुसंमेयतडि। मासि पहिल्लइ पक्खि सिइ एयारसिदिणि दिण्णसिइ । मघणेक्खत्तें णिव्वुयउ सहुं जोइहिं णिकलु हुयउ । देविंदहिं जयकारियड पुजिवि साहुकारियउ । अट्ठगुणालंकिउ सुमइ देउ मज्झु अवियेल सुमइ । पत्ता-भरहेण अण्णहिं मि परमेसरु सो वणिज्जइ । ___ सई अमराहिवेण गुणेपुप्फयंतु जसु गिजई ॥१२॥ इय महापुराणे तिसट्टिमहापुरिसगुणालंकारे महाकइपुप्फयंतविरहए महामन्चमरहाणुमण्णिए महाकव्वे सुमइणिव्वाणगमणं णाम दुचालोसमो परिच्छेओ समतो ॥४२॥ ॥ सुमइचरियं समत्तं ॥ मनःपर्ययज्ञानी दस हजार चार सौ, श्रुतमें निष्णात वादी मुनि दस हजार चार सौ पचास । ब्राह्मी सुन्दरीके समान उनकी आर्यिकाएं तीन लाख तीस हजार थीं। नित्यप्रति हाथ जोड़े हुए श्रावक तीन लाख थे। अनुव्रत धारण करनेवाली श्राविकाएं पांच लाख थीं। धरतीके स्थानों में परिभ्रमण करते हुए उनकी बीस वर्ष कम, घटिकामालासे आहत इक्कीस लाख पूर्व वर्षे निकर गये। एक माह बाकी रहनेपर वह सम्मेदशिखरके विकट तटपर कायोत्सर्गमें स्थित हो गये । चैत्रशुक्ला ग्यारसके दिन, वह मोक्षलक्ष्मीको देनेवाले मघा नक्षत्र में दूसरे मुनियोंके साथ निर्वाणको प्राप्त हुए ( निष्पाप हुए)। देव-देवेन्द्रोंने उनका जयजयकार किया और पूजा कर साधुवाद दिया । आठ गुणोंसे अलंकृत सुमतिदेव मुझे अविकल सुमति दें। घत्ता-स्वयं देवेन्द्रके द्वारा जिनके गुणरूपी पुष्पवाले यशका गान किया जाता है, ऐसे उन परमेश्वरका भरत तथा दूसरोंके द्वारा भी वर्णन किया जाता है ॥१२॥ इस प्रकार श्रेसठ महापुरुषों के गुणालंकारों से युक्त महापुराणमें महाकवि पुष्पदन्त द्वारा विरचित तथा महामन्य मरत द्वारा अनुमत महाकाव्यका सुमतिनिर्वाणगमन नामका बयाकीसवाँ परिच्छेद समाप्त हुआ ॥४२॥ ३. P चउरो य सई। ४. A मणपज्जवयहं गयमयई; P मणपज्जवह वि हयमयई। ५.P सरसई। ६. A omits तह । ७. A परहीणाई। ८. P पुण्णाहं । ९. P एक्कपुव्वलक्खई।१०. A मासमेत्तु । ११. A एगारसि । १२. A P महणक्खत्तें। १३. A अग्गिदेहिं सक्कारियर; P अग्गिदेहि संकारियउ। १४. P देउ मज्झु विमलमह। १५. A पुप्फयंत । १६. A किज्जा । Page #136 -------------------------------------------------------------------------- ________________ संधि ४३ दपिट्ठदुट्ठपाविट्ठजगजणियभावु दावियपहु॥ कम्मदुर्गठिणिट्ठवणखमु पणवेप्पिणु पउमप्पहु ॥ध्रुवक।। णिरंतरु जो तवलच्छिणिकेउ परजिउ जेण रणे झसकेर णियोयममग्गणिओइयसीसु वियड्ढविवाइविइण्णवियारु विव जिउ जेण वियालविहारु कडीयलि मेहल णेय णिबद्ध खयासरिसित्तसरोसहुयासु भडारउ जोरुणपंकयभासु पमेलिउ जो विहिणा विविहेणे समिच्छियणिक्खंयसोक्खपयस्स दुगुंछियकर्जामयाइणयस्स गइंदखगिंदविसंकियकेउ । समुग्गउ जो कुगईखयकेउ । अपासु अवासु अणीसु रिसीसु । रयासववारु विमुक्कवियारु । सया गलकंदलु जस्स विहारु । ण कामिणि जेण सणेहणिबद्ध । सुझाणदवग्गिसिहोहहुयासु । अमिच्छअतुच्छपापियभासु । णमामि तमीसमहं तिविहेण । णइच्छियविप्पवियप्पपयस्स । भणामि समायरियं इणेयस्स । सन्धि ४३ दर्पसे भरे, दुष्ट और पापी जगमें शुभभाव उत्पन्न करनेवाले पथ-प्रदर्शक अष्टकर्मोकी गांठको नष्ट करनेमें सक्षम पद्मप्रभुको में प्रणाम करता हूँ। १ जो निरन्तर तपरूपी लक्ष्मीके निकेतन हैं, जिनका ध्वज गजेन्द्र, गरुड़ और वृषभेन्द्रसे अंकित है, जिन्होंने युद्धमें कामदेवको पराजित कर दिया है, जो कुगतिके क्षयके लिए उद्यत हैं, जिन्होंने शिष्योंको अपने आगममार्गमें नियोजित किया है, जो बन्धनरहित, गृहविहीन, अनीश, और ऋषीश्वर हैं । जिन्होंने विदग्ध विवादियोंसे विचार किया है, जो कर्मोके आस्रव-द्वारको रोकनेवाले और विकारोंसे मुक्त हैं। जिन्होंने असमयका विहार करना छोड़ दिया है, जिनका गला सदेव हारसे रहित है। जिन्होंने कटितलपर मेखला नहीं बांधी। जिनसे कामिनी स्नेहबद्ध नहीं है, जिन्होंने क्रोधरूपी ज्वालाको क्षमारूपी नदीसे शान्त कर दिया है, जिन्होंने सुध्यानरूपी दावाग्निके शिखासमूहमें इच्छाओंको होम दिया है, जो अरुण कमलोंकी कान्तिवाले हैं, जिनकी भाषा मिथ्यात्व रहित प्रचुर जनताके लिए प्रिय है, जो विविध क्रमोंसे रहित हैं, मैं उन ईशको तीन प्रकारसे प्रणाम करता हूँ। जिन्होंने विप्रोंके विकल्पोंसे युक्त ( संशयापन्न ) पदकी इच्छा नहीं की है, जिन्होंने अक्षय सुखपदकी इच्छा की है, जिन्होंने कृष्ण मृगाजिनकी निन्दा की है, मैं ऐसे इनके (पद्मप्रभुके) १.१. A समग । २. A णियागम । ३. A सयामयकंदलु । ४..A P पयासियभासु । ५. A तिविहेण । ६. A अक्खयसोक्खपयासु । ७. A पयासु । ८. P कण्हमयं अइणस्स । ९. P इणमस्स । . १२ Page #137 -------------------------------------------------------------------------- ________________ महापुराण [४३. १. १४भविस्सजिणिंद अजिंदसमीह अहो सुणि सेणियराय णिसीह । जगुत्तम गोत्तमु भासइ एंव सुणंति महोरय दाणव देव । घत्ता-धादइसंडइ दीवम्मि वरे जणगोहणसंकिण्णइ ॥ तहिं पुव्वमेरुपुत्वइ दिसइ पुज्वविदेहि रवण्णइ ॥१॥ सयामयणाहिसुगंधसमीरि । सुसीयहि सीयेहि दाहिणतीरि । सकच्छउ वच्छउ देसु विसालु मरालविहंगविहिण्णमुणालु । समीवसमीवपरिट्ठियगामु परीणवासिपऊरियकामु। फलोणयछेत्तणियत्तणरिधु 'पिओ जहिं रोसणियत्तणणिधु । तहिं पुरि अस्थि पसिद्ध सुसीम दुवारविलंबियमोत्तियदाम । दुभूमितिभूमिसमुण्णयणीड महंतफुरंतसुवण्णकवाड । सरोरुहकेसरलम्गदुरेह जिणालयचूलियचुंबियमेह । हरीमणिबद्धमणोहरमग्ग णिभोयविसेसविसेसियसग्ग । तहिं अपरजिउ णाम गरिंदु करिंदु व दाणि कुलंबरचंदु। १० रईसु व भाविणिर्दुल्लहसंगु सरासणु जेम गुणेणे वियंगु । सुन्दर चरितको कहता हूँ। उत्तम और सम्यक् चेष्टावाले हे भावी जिनेन्द्र, नृसिंह, हे श्रेणिक सुनो। विश्वमें श्रेष्ठ गोतम इस प्रकार कहते हैं और उसे नाग, दानव और देव सुनते हैं। घत्ता-धातकीखण्डद्वीपमें मनुष्यों और गोधनसे परिपूर्ण सुन्दर पूर्वविदेह, पूर्वसुमेरु पर्वतके पूर्वमें है ॥१॥ अत्यन्त शीतल सीता नदीके, कस्तूरीमृगोंसे सुगन्धित समोरवाले दक्षिण तटपर, सीमोद्यानोंसे सहित विशाल वत्स देश है, जिसमें हंसपक्षी मृणालोंको छिन्न-भिन्न कर देते हैं, जहाँ ग्राम अत्यन्त पास-पास बसे हुए हैं, जहां थके हुए प्रवासियोंको कामनाएं पूरी की जाती हैं, जो फलोंसे झुके हुए खेतोंके नियन्त्रणसे समृद्ध हैं, जहां प्रिय क्रोधके नियन्त्रणसे स्निग्ध हैं। ऐसे उस वत्स देश. में सुप्रसिद्ध सुसीमा नगरी है, जिसके द्वार-द्वारपर मोतियोंकी मालाएँ लटकी हुई हैं, जहां दो या तीन भूमियों (मंजिलों) से ऊंचे मकान हैं, खूब चमकते हुए स्वर्ण किवाड़ हैं, जहां भ्रमर कमलोंपर मड़रा रहे हैं तथा जिनमन्दिरोंके शिखर आकाशको चूम रहे हैं। जहां हरितमणियों (मरकत) मणियोंसे निबद्ध सुन्दर मार्ग हैं। मनुष्योंके भोग विशेषोंसे जो स्वर्गसे विशिष्ट हैं। ऐसी उस नगरीमें अपराजित नामका राजा था, जो करीन्द्रकी तरह दानी (मदजल और दानवाला) अपने कुलरूपी आकाशका चन्द्र था। कामदेव होकर भी जिसका संग, कामिनियोंके लिए दुर्लभ था। धनुषके समान जो गुणोंसे वक्र था, जो तेल की तरह खल (खली और दुष्ट) से रहित और स्नेहपूर्ण २. १. A"सुगंधि; P°सुयंध । २. P तीरिणि । ३. A मरालमुहग्ग । ४. A पहीण' । ५. A°पवासिय ऊरिय; P°पवासियपूरियं । ६. A पउंजहि । ७. P कुलंबरइंदु । ८. P भामिणिदुग्णयसंकु । ९. P गुणेण अवंकु । | Page #138 -------------------------------------------------------------------------- ________________ - ४३. ३.११ ] महाकवि पुष्पदन्त विरचित खेलुंझ तेल्लु व हलभोड सविग्गहु सद्दु' व लक्खणवंतु हं व समेहु णिवेसियलोउ । परंजइ संधि वियाणइ मंतु । घता - अण्णाहं दिणि तेण णराहिवेण चिंतिउं होउ पहुच्चइ ॥ जं पुरउं पमल्लइ वल्लहउं अप्पणु तं लहु मुच्चइ ॥२॥ अरे जडजीव समासमि तुज् गयासु लालसु लोहर से जणेण जणो पणविज्जइ तेंव मयंग तुरंगम किंकर कासु मित्तत्तु ण बंधु विचितिवि एंव णिरुत्तु मणेण सवित्ति धरिति णिवेइय तासु गुरु पहिया सर्व यं पणवेवि दसेक्कसुयंगवयाई धरेवि सुपासुयोयणुभक्खु गसेवि छुहा भये मेहुणु हि मुएवि ३ ण करस विहं जगि को ेविण मज्झु । निरंतरयं णियकज्जवसेण । सजीउ वि तासु णरक्खइ जेंव । फलक्खइ पक्खि व जंति दिसासु । सरीरु वि एवं विणासि दुगंधु । कोक्किउ पुत्तु सुमित्तु खणेण । धरामँरधारणु कंधरु जासु । थिओ जिणदिक्खवयक्खमु होवि । पुरायरगामसयाई चरेवि । अपंडीपसुवासि वसेवि । सणाणजलेण कलंकु धुएवि । ९१ भोगवाला था, जो आकाशके समान समेह ( मेघ और बुद्धिसे सहित ); और लोको निवेशित करनेवाला था । जो शब्दकी तरह विग्रह रहित ( संघर्ष और पदविग्रहसे मुक्त ) था, व्याकरणकी तरह सन्धिका प्रयोग करता था और मन्त्रको जानता था । १० घत्ता - दूसरे दिन राजाका सोचा पूर्ण होता है । यदि वह प्रिय नगरको छोड़ता है तो खुद भी मुक्त हो जायेगा ||२|| ३ 1 अरे जड़ जीव, मैं तुझसे कहता हूँ कि दुनिया में मैं किसीका नहीं हूँ और कोई मेरा नहीं है । लोभ रस और निरन्तर अपने-अपने कार्यके वशसे गतालस और लालची है । मनुष्य के द्वारा मनुष्यको इस प्रकार प्रणाम किया जाता है कि उसके द्वारा अपने जीव की भी रक्षा नहीं की जाती । गज, अश्व और अनुचर किसके ? फल क्षय होनेपर पक्षियोंके समान दिशान्तरोंमें चले जाते हैं । न मित्र, न कलत्र, न पुत्र और न बन्धु, यह शरीर विनाशी और दुर्गन्धयुक्त है । अपने मन में अच्छी तरह यह विचारकर उसने एक क्षण में अपने पुत्र और मित्रको पुकारा और वृत्ति सहित धरती उसे सौंप दी कि जिसके कन्धे धराका भार उठाने में समर्थ थे। गुरु पिहिताश्रवको प्रणाम कर, जिनदीक्षा और व्रतोंमें सक्षम होकर वह स्थित हो गया। ग्यारह श्रुतांग व्रतोंको धारण कर, सैकड़ों नगरों और ग्रामोंमें विचरण कर, प्रासुक भोजनका आहार ग्रहण कर, नपुंसक, स्त्री ओर पुंस्त्वकी वासनाको वश में कर, भूख, भय, मैथुन और नींदको छोड़कर ( आहार निद्रा भय और १०. खलुज्झितेल्लु व णेहलभोड; P खलुज्झिय तेलु व्व णेहलु भाउ ११. P सदु सलक्खणवंतु । ३. १. A पयासमि । २. Pण को वि । ३. P मोहरसेण । ४. A तासु वि । ५. A एम विणासि । ६. A मित्तु सुपुत्तु । ७. A घराभरधारण; P धराभर धारणु । ८. A पिहियासव णं पणवेवि । ९. A फासु । १०. A छुहामयमेहणु । Page #139 -------------------------------------------------------------------------- ________________ महापुराण [४३.३.१२सहेवि परीसह भीमुवसग्ग मुणित्तणवित्ति चिणेवि समग्गे। चएप्पिणु दुव्वहसीलवहाउ णिरिकवहूणिवभत्तकहाउ। तवेण करेवि कलेवरु खामु णिबंधिवि गोत्तु जिणेसरणामु । १५ विहंडिवि छंडिवि चंडु तिदंडु मओ पमुएवि चउठिवह पिंडु । घत्ता-अवराइउ रिसि उवरिल्लियहि णरवंदहि णिरवजहि ॥ पीइंकरणामविमाणवरि सुरु जायउ गेवज्जहिं ॥३॥ गिहीगुणठाणवएहिं विमीस . तहिं तहु आउ महोवहि वीस । सेंसंतहु अंतरु तेत्तिय पक्ख दुहत्थपमाणिय बोंदि वलक्ख । ण को वि महीयलि संणिहु जासु दिणेहिं अहंसुरणाहहु तासु । छमार्से परिहिउ आउसु जाव इणं घणवाहि पजंपइ ताव । पुरीकउसंबिवईसु मणीसु धराधरणो धरणीसु महीसु । सुसीम णियंबिणि वल्लह तस्स अखंडसुहारहसोम्ममुहस्स । भिसं भरहेसरवंसरुहस्स करेहि दिहिं णिलयं व णिवस्स । अहो णिहिणाह विहंसियसोउ पहोसइ णंदणु णंदियलोउ । तओ धणिणा पुरुपेसणरम्म विणिम्मिउं भम्मविणिम्मियहम्मु । मैथुन ), अपने ज्ञानरूपी जलसे कलंकको धोकर, भयंकर उपसर्ग और परीषह सहन कर, सम्पूर्ण रूपसे मुनीन्द्रवृत्तिको स्वीकार कर, दुर्वहशीलका नाश करनेवाली चोर, स्त्री और नृपभक्तिकी कथाओंका त्याग कर, तपसे अपने शरीरको क्षोण बनाकर, तीर्थकर प्रकृतिका बन्ध कर, प्रचण्ड त्रिदण्डको खण्डित कर और छोड़कर, तथा चार प्रकारके आहारका त्याग कर वह मृत्युको प्राप्त हुआ। पत्ता-वह अपराजित मुनि, मनुष्योंके द्वारा वन्दनीय निरवद्य ग्रेवेयक विमानोंमें-से तीसरे प्रोतकर विमानमें देव उत्पन्न हुए ॥३॥ गृहस्थोंके ग्यारह व्रतोंसे मिली हुई बीस सागर, अर्थात् इकतीस सागर प्रमाण उनकी आयु थी। उतने ही पक्षोंमें अर्थात् इकतोस पक्षों में वह सांस लेते थे। उनका शरीर दो-दो हाथ प्रमाण और शुक्ल था। जिसके समान धरतीपर कोई नहीं था। उस अहमेंद्र देवराजके कई दिनोंके बाद छह माह आयु शेष रह गयी । तब इन्द्र कुबेरसे कहता है कि "कौशाम्बी नगरीका पृथ्वीको धोखा करनेवाला मनस्वी राजा धरण है। सम्पूर्ण चन्द्रके समान सौम्य मुखवाले उसकी सुसीमा नामको प्रिय पत्नी है। वह भरतेश्वरके वंशका अंकुर है। उसके लिए हे कुबेर, तुम भाग्य और घरकी रचना करो। हे कुबेर, उनके शोकका उपहास करनेवाला और लोकको हर्ष उत्पन्न करनेवाला पुत्र होगा।" तब कुबेरने इन्द्रके आदेशसे रम्य स्वर्णप्रासाद बनाया। ११. A वसग्गि । १२. A समग्गि । १३. A P मुओ । १४. A°पोईकरणाम; P पोयंकरमाण । ४. १. A आव । २. A सुसंतह। ३. P दिवढयहत्थय । ४. A P छमास । ५. A मुणोसु । ६. A घरणोद्धरणे । ७. A तासु । ८. Aसुहायरसोम्ममुहासु । Page #140 -------------------------------------------------------------------------- ________________ -४३. ५. १४] महाकवि पुष्पदन्त विरचित घत्ता-अण्णहिं वासरि रायाणियइ णिसिविरामि उवलक्खिय ।। पासायतेलिमतलसुत्तियइ सिविणयमाल णिरिक्खिय ॥४॥ सुहाहिमसारयणीरयवण्णु गलंतमओलकवोल करिंदु खरेहिं खुरेहिं धरग्गु दलंतु विसेसविसेसु विसाण धुणंतु गिरिंदगुहाकुहरंतविणित्तु लयादललोलललावियजीहु णिसावइसेय दिसागयकंति अणेयपसूयकरंबयगुत्थु णिहित्ततमीतमु णिम्मलु चंदु पैमत्त रमत हंति तरंत महुप्पल कुंभलएसु णिसण्ण अलीरेवफुल्लियपोमरयालु णिमजणकीलणंलीण गइंदु पदंसियभीयरमीणरउद्दु पईहरपाणि झलज्झलकण्णु । णियच्छिउ जंगमु णाई धरिंदु। बलाल गेविंद बलेण खलंतु । णियच्छिउ संमुहु एंतु डरंतु । रुसारुणदारुणदूसहणेत्तु । णहालिफुरंतु णियच्छिउ सीहु । णियच्छिय लच्छि सरोवरि हंति । णियच्छित दामयजुम्मु णहत्थु । णियच्छिउ तिव्वु तवंतु दिणिंदु । णियच्छिय मच्छ चलंत वलंत । णियच्छिय कुंभ वरंभपउण्ण । विहंगसिलिंबयचक्खियणालु । णियच्छिउ तामरसायर रुंदु । णियच्छिउ वारिरउद्दु समुद्दु । १० पत्ता-दूसरे दिन रात्रिके अन्तिम प्रहर में प्रासादके अन्तिम तलमें सोते हुए रानीने स्वप्नमाला देखी ॥४॥ ५ जो सुधा, चन्द्र और शरदकालीन मेघके समान सफेद रंगका है, जिसकी सूंड़ लम्बी है, जो हिलते हुए कानोंवाला है, और जिसके कपोलभागसे मद झर रहा है ऐसा गजराज देखा, जो मानो जंगम पहाड़ हो । अपने तीव्र खुरोंसे धरतीके अग्रभागको रौंधता हुआ, बलशाली, बलसे स्खलित होता हुआ, सींग धुनता हुआ, सामने आता हुआ, गरजता हुआ विशेष वृषभेन्द्र देखा। पहाड़ोंकी गुफाओं और कुहरोंमें रहनेवाला, क्रोधसे अरुण और भयंकर नेत्रवाला लतादलके समान चंचल जीभको हिलाता हुआ, नखावलीसे भास्वर सिंह देखा। चन्द्रमाको तरह श्वेत और दिग्गजोंको कान्तिवालो लक्ष्मीको सरोवरमें स्नान करते हुए देखा। अनेक पुष्पसमूहोंसे गूंथी हुई मालाओंका युग्म आकाशमें देखा। रात्रिके अन्धकारको नष्ट करनेवाला निर्मल चन्द्र देखा। तीव्रतम तपता हुआ सूर्य देखा, प्रमत्त रमण करतो हुई, सरोवरमें तैरती हुई, चलती मुड़ती हुई मछलियां देखीं। कुम्भमालामें रखा हुआ मधु कमलोंसे ढका हुआ उत्तम जलसे परिपूर्ण घड़ा देखा, जिसमें डूबने और क्रोड़ा करनेमें गजेन्द्र लोन है, जो भ्रमरोंके शब्द और पुष्पित कमलोंके रजसे युक्त है, जिसमें हंसोंके बच्चे मृगाल खा रहे हैं, ऐसा विशाल सरोवर देखा। जो दिखाई देनेवाले ९.Aतलि सुत्तियह; Pतले सुत्तिइ । ५. १. A कवोल । २. P गइंद। ३. A P विसेसु विसेसु । ४. A P रडंतु । ५. A P गुंथु । ६. A reads this line after चक्खियणाल below. ७. A भमंतु । ८. A P दहति । ९. AP अलीरउ । १०. A कीलणसील: P कोलणणील। ११. P रसायरु। १२. A P रवदु । Page #141 -------------------------------------------------------------------------- ________________ महापुराण [४३. ५. १५.. सुहावहु सुदृ 'परिट्ठिउ इट्ट णियच्छिउ विट्ठरु सीहणिविट्ठ । णियच्छि उ अच्छरणाहविमाणु अहीसेरमंदिर मेरुसमाणु । णियच्छिउ वोमदिसाणणभासि पहाइ अणूण मणीण य रासि । पवित्तु पलित्तु घिएण व सित्तु महंतु जलंतु णहग्गि मिलंतु । णियच्छिउ चिच्चि णरच्चियदेहु पहायइ गंपि णराहिवगेहु । घत्ता-णियदइयहु देविड वजरि जं जिह दसणु दिट्ठउं ।। ___ तुह होसइ तणुरुहु परमजिणु तेण ताहि फलु सिहउं ।।५।। २० ६ पुरंदरणारि हिरी धवलच्छि सिरि दिहि कंति पराइय लच्छि । पसाहिउ सोहिउ सीमहि गब्भु रिदुत्तिउ वुट्टउ हेमवरंभु। हिमागमि संगमि माहि पण्णि णहे दहदिव्वलयम्मि पसण्णि । असेयहि छट्ठिहि रत्तिविरामि ससंकदिवायरसंगि सकामि । इहाहिवरूवधरो वलिरेहि थिओ मुणिणाहु समा- रिदेहि । मुयंग णरामर मंदिरु आय रिहुच्छिण उच्छवि सुक्कियमाय । दहट्ट जि पक्ख सिणा दुहहार घरंगणि पाडिय कब्बुरधार । गए सुमईसि महद्धिसमेहिं असीदहकोडिसहासपमेहिं । समायइ कत्तिइ कंदवियोइ अचंदिणतेरसि तट्टेयजोइ। भीषण मत्स्योंसे रौद्र है ऐसे जलसे भयंकर समुद्र देखा । सुखावह सुन्दर अच्छी तरह स्थापित सिंहासन देखा। देवोंका विमान देखा, और मेरुके समान नागराजका लोक देखा । आकाश और दिशाओंमें चमकती हुई प्रभासे अत्युत्तम मणियों की राशि देखी। पवित्र प्रदीप्त घोसे सिंचित महान् आकाशसे मिलती हुई अग्नि देखी, प्रभातमें मनुष्योंके द्वारा पूजित राजाके घर जाकर पत्ता-देवीने अपने पतिसे जिस प्रकार स्वप्नदर्शन किया था वैसा कहा। उसने उसे फल बताते हुए कहा कि उसका पुत्र परम जिन होगा ॥५॥ इन्द्रको नारियां धवल आँखोंवाली ह्री-श्री-धृति-कान्ति और लक्ष्मी आयों और स्वामीके गर्भका प्रसाधन तथा शोधन किया । छह माह तक स्वर्णवर्षा हुई। फिर हिमागमवाले माघ माहके कृष्णपक्षमें षष्ठीके दिन जब कि दिशाचक्र निर्मल था, रात्रिके अन्तमें चन्द्र और सूर्यके सकाम गमें गजरूपमें त्रिबलिसे शीभित अपनी माताकी देहमें भगवान स्थित हो गये। नाग, मनुष्य और देव उनके घर आये। और इन्द्रके साथ उत्सव में उन्होंने मायाको खण्डित कर दिया। कुबेरने अठारह पक्षों तक लगातार गृहप्रांगणमें दुःखको दूर करनेवाली स्वर्णवृष्टि की । सुमतिनाथके बाद महाऋद्धियोंसे परिपूर्ण नब्बे हजार करोड़ सागर बीत जानेपर कार्तिक माहके कृष्णपक्षको १३. A P पणिट्ठियदुटु । १४. A P अहीसरगेहु गिरिदसमाणु । १५. A पलित्तु पवित्तु पिएण; ___P पदीवि पलित्तु धिएण । १६. A णहग्गमित । ६. Aणारिहिं धो धवलच्छि । २. A उडुत्तिउ । ३. A P°संगमिकामि । ४. A सुंकिय । ५. A मह मद्धिसमेहिं । ६. A तट्टियं । Page #142 -------------------------------------------------------------------------- ________________ - ४३. ७. ८ ] महाकवि पुष्पदन्त विरचित हुआ परमेसु सुहाई जणंतु पुणाइड जीय जिनिंद भणंतु पुरं पणवेवि णिवासि विसेवि जिर्णम्महि हत्थ परो सिसु देवि पवज्जियढेकु कमक्कमियंक ओ गहमंडलु लंधिवि तांव पत्ता - तहिं मेरुसिंग संणिहिउ जिणु पाणिउ सुरयणु आणइ || कल्हारपिहियघड सहसकरु सई पुलोमिपिड पहाणइ ||६|| वियाणिवि हाणिवि न्हाणविहीर पणेचिवि अग्गइ बालु चलेहिं समप्पिड मायहि पंकयणेत्तु गयामय भोइ सवासपएसु वहु सक्कंवि तासु कयाई सरासणयाहं संरीरपमाणु समं णरडिंभयणेण रमेवि वयंकस मंकित सुण्णचउक्क असंखसहासु महामहवंतु । हं तुरएहिं गएहिं पिहंतु । सुहीहियवंतरि भक्ति करेवि । जगतयणाहु णवेवि लएवि । णिओइड वारणु चल्लिउ सक्कु । सिलाइ सिंचणमे इणि जांव । ७ पुणो अवयारु करेवि महीइ । सुरेहि गुणालकुलेहिं । सुलक्खणव जण रंजियगत्तु । पवडिउ तायहरम्मि जिणेसु । सद्ध णिउत्तई दोणि सयाई । रुईइ विरेहइ णं णवभाणु । इसीसमपुव्वहं लक्ख गमेवि । इपि दिहि पमाणु पटुक्क । ९५ १० तेरस के दिन त्वष्ट्रायोगमें परमेश्वर सुखोंको उत्पन्न करते हुए उत्पन्न हुए । असंख्य देव और पांच कल्याणकार्य को करनेवाला इन्द्र फिर आया, 'हे जिनेन्द्र जीवित रहो' यह कहते हुए और गजों तथा अश्वोंसे आकाशको आच्छादित करते हुए, फिर प्रणाम कर और घर में स्थापित कर, बन्धुजनोंके हृदय के भीतर भक्ति कर जिनमाताके हाथमें दूसरा शिशु देकर, त्रिलोकनाथको प्रणाम कर और लेकर, जिसपर ढक्का बज रहा है, और जो सूर्यका अतिक्रमण करनेवाला है, ऐसे गजको उसने प्रेरित किया, और इन्द्र चला । ग्रहमण्डलका उल्लंघन करता हुआ वह वहाँ पहुँचा जहाँ जिन भगवान्की अभिषेकभूमि पाण्डुशिला थी । धत्ता - उस सुमेरु पर्वतपर जिन भगवान्‌को स्थापित कर दिया गया । सुरसमूह जल लाता है, कमलों से आच्छादित घड़े जिसके हजार हाथों में हैं ऐसा इन्द्र उनका अभिषेक करता है ||६|| ७ १५ जानकर और स्नानविधिसे स्नान कराकर पुन: धरतीपर अवतरण कर, बालकके आगे नृत्य और स्तुति कर गुणाल कुलके देवोंने लक्षणों और सूक्ष्मव्यंजनोंसे शोभित शरीर कमलनयन बालक माता के लिए सौंप दिया। देव अपने-अपने घर चले गये। जिनेश अपने पिताके घर में बढ़ने लगे । उनकी लीलाओंका में वर्णन नहीं कर सकता। उनके शरीरका प्रमाण ढाई सो धनुष ऊँचा था । कान्तिमें वह ऐसे शोभित थे मानो नवसूर्य हों । इस प्रकार मानव बालकोंके साथ रमण करते हुए, उनके सात लाख पचास हजार पूर्व समय बीत गया। इतने दिनोंका मान (प्रमाण) पूरा ७. AT सुहासु । ८ APT जिणंबहि । ९. A ढक्क । १०. A कमक्कमियंकु । ७. १. A P read a as b and basa २. A P बाहुबलेहि । ३ AP गुणाण । ४. A P° विज । ५. Aण वण्णहं सक्कमि; P ण वण्णवि सक्कमि । ६. AP सरीरु पमाणु । Page #143 -------------------------------------------------------------------------- ________________ महापुराण [४३.७.९तओ तहिं पत्तु सयं सयमण्णु कुमार णिवेसिउ रज्जि पसण्णु । १० दु एक्कु जि बिद्य पंच जि देहि पुणो वि सिसुत्तरसंख गणेहि । पत्ता-इय पुव्वकालु पुहईसरहु गउ सुहुँ सिरि माणंतहु । विण्णवियउ ता किंकरणरिण कर मउलिवि पणवेवि तहु ॥७॥ णराहिव दीहरपासणिरुद्ध करीसरु वारिणिबंधणि बंधु'। समुण्णयकुंभु णहग्गविलग्गु धराहिव जाणविं तुम्हहुं जोग्गु । तओ परिचिंतिउं दिव्वणिवेण पमग्गियकेवलणाणसिवेण । ण विझसरीजलकील मणोज्ज ण सल्लइपल्लवभोज्ज ण सेज्ज । ण कंदल मिट्ठ ण कोमलवेणु ण मग्गविलग्गिरबालकरेणु । करेणुरई करताडणु णत्थि सफासवसेण विडं बिउ हत्थि । दढंकुसघट्टणु फासणिरोहु सहेइ वराउ वियंभियमोहु । ण एक्कु इहिंदु मए इह उत्तु अहो जणु दुक्कियदेह णि खुत्त । ण णिग्गइ जग्गइ कि पि ण मृदु सिरिमयणिपरत्वसु दु । १० अहं पि हु मोहिउ किं परु मोक्खु दुमाणवु चम्मविणिम्मिउ रुक्खु । विणासिरु जाणिवि पेच्छमि लोउ विरप्पमि तो विण मुंजमि भोउ । असासउं रज्जु असुंदरु अंतिण इच्छमि अच्छमि गंपि वर्णति । होनेपर, तब फिर वहां इन्द्र स्वयं आया और प्रसन्न कुमारको राज्यमें प्रतिष्ठित किया। फिर दो और एकके ऊपर पांच बिन्दु दो और तब शैशवके बादकी संख्या गिनो। पत्ता-इतने वर्ष पूर्व ( इक्कीस लाख पूर्व वर्ष) वर्ष लक्ष्मीका सुख मानते हए राजाके निकल गये तो अनुचर मनुष्यने हाथ जोड़कर प्रणाम करते हुए राजासे निवेदन किया ॥७॥ हे नराधिप, जो लम्बे पाशसे निरुद्ध था, हाथियोंके आलान में बंधा हुआ था और जिसका कुम्भस्थल समुन्नत था, ऐसा वह महागज आकाशके अग्रभागसे जा लगा है (मर गया है)। अब तुम्हारे योग्य बातको मैं जानता हूँ। तब जिसने केवलज्ञान और शिवकी याचना की है, ऐसे दिव्य राजाने विचार किया-"विन्ध्या नदी (नर्मदा) की जल-क्रीड़ा सुन्दर नहीं है, शल्यकी लताके पल्लवों को भोजन और सेज भी ठीक नहीं हैं, न कन्दल मीठे हैं और न कोमल वेणु । न मार्गमें लगी हुई बाल करेणु अच्छी है, अब उसमें हथिनीका प्रेम और सूंडसे प्रताड़न नहीं है। स्पर्शके वशीभूत होकर हाथी विडम्बनामें पड़ गया है । बढ़ रहा है मोह जिसका, ऐसा यह बेचारा गज दृढ़ अंकुशोंका संघर्षण एवं स्पर्शका निरोध सहन करता है, मैं यह कहता हूँ कि अकेला गजेन्द्र नहीं, आश्चर्य है लोग भी पापोंकी कीचड़में फंसे हुए हैं। मूर्खजन न निकलता है और न थोड़ा भी जागता है। मर्ख लक्ष्मीके मद और निहाके वशीभत है। अरे में भी तो मोहित ई. श्रेष्ठ मोक्ष क्या? खोटा मनुष्य चर्मसे निर्मित और रूखा है। लोकको विनश्वर जानता हूँ और देखता हूँ। तो भी विरक्त नहीं होता, और भोग भोगता हूँ। राज्य अशाश्वत है और अन्तमें सुन्दर नहीं होता। मैं इसे नहीं चाहता । वनमें जाकर रहता हूँ।" ७. P पंच जि बिदुय । ८. P चयारि । ९. Aणरिणा । ८.१. A P बद्ध । २. A दिव्वु । ३. A पासणिरोह। ४. A Pढ़ । ५. A विरप्पवि । Page #144 -------------------------------------------------------------------------- ________________ -४३. ९. १३ ] महाकवि पुष्पदन्त विरचित पत्ता-तावायहिं लहुं लोयंतियहिं णाहहु वयणु समैत्थिउ । ___ अंबरु धावंतहिं दणुयरिहिं चित्तचीरु णावइ थिउ ।।८।। गिरि व्व जलागमणे जलएहिं सुरेहिं पहू ण्हविओ कुलएहिं । समच्चिउ लोयगुरू कुडहिं थुओ दुवईवयणुक्कुडएहिं । सुवण्णमयाइ णरच्छिपियाइ महिंदणियाइ गओ सिवियाइ। वणंतर चारु पहुजियचारु । सकंकणु हारु पमोल्लिवि दोरु । खमाविउ लोउ सिरे कउ लोउ मवण्णवपोउ विसुद्धतिजोउ । करेप्पिणु छठु वि सुठ्ठ वरिछु पदिट्ठसइठु समासियणिछ। समढममासि जेगंतपयासि घणागमणासि हिमालपवासि । दिणे असियम्मि सुतेरसियम्मि दिणेसरि जाम दुयालसियम्मि । विणिग्गउ हत्थु पहूइय चित्त अलंकिय तहिणि संजमत्त । सुयाइं मुणेवि रयाई धुणेवि महन्वय लेवि थिओ रिसि होवि । समं सकिवाहं सहासु णिवाहं तवंकिउ ताहं ण मच्छरु जाहं । घत्ता-वारहविहतवणिवाहणहि धम्मैजोयपरिरक्खहि ॥ पउमप्पहु वड्ढमाणणयरि देउ पइट्ठउ भिक्खहि ॥९॥ घत्ता-तब लौकान्तिक देवोंने आकर प्रभुके वचनोंका समर्थन किया। आकाश में दौड़ते हुए देवदानवोंने जैसे अपने चित्तरूपी चीरको स्थिर कर लिया ॥८॥ जिस प्रकार वर्षाकाल आनेपर मेघोंके द्वारा गिरि अभिषिक्त होता है, उसी प्रकार देवोंने घडोसे प्रभका अभिषेक किया। कटक पुष्पोंसे लोकगरुकी समचंना की। दुव वचनों (द्विपदी वचनों) से उत्कट (गोतों) से स्तुति की। लोगोंके नेत्रोंके लिए सुन्दर, स्वर्णमयी इन्द्रके द्वारा ले जायी गयी शिविकाके द्वारा वह, जिसमें चार पुष्प खिले हुए हैं, ऐसे सुन्दर वनमें गये। अपना कंगन हार डोर छोड़कर लोगोंसे क्षमा मांगकर, सिरका केश लोंचकर, संसाररूपी समुद्रके जहाज तीन योगोंसे विशुद्ध, छठा उपवास कर, श्रेष्ठ वरिष्ठ, अपने हितके द्रष्टा, चारित्रसे आश्रय लेनेवाले वह, आठवें माह ( कार्तिक माह ) जबकि विश्वको प्रकाशित करनेवाला सूर्य, मेघोंके आगमनका नाश करता हुआ, शीतलताका प्रवेश कराता है, कृष्ण पक्षको त्रयोदशोके दिन, सूर्य दो पहर ढल चकता है. चित्रा और हस्त नक्षत्र उगे हए थे, तब वह संयमको यात्रासे शोभित हए। श्रतका अध्ययन कर, पापोंका नाश कर महाव्रत ग्रहण कर और महामनि होकर स्थित हो गये। उनके साथ समान करुणावाले एक हजार ऐसे राजाओंने भी अपनेको तपसे अंकित किया कि जिनमें ईर्ष्या नहीं थी। पत्ता-बारह प्रकारके तपोंके निर्वाहके लिए, और धर्मयोगको रक्षाके लिए, पद्मप्रभु स्वामी आहारके लिए वर्धमान नगरीमें प्रविष्ट हुए ।।९।। ६. A P समत्थियउ । ९.१. A सुवण्णमियाइ । २. A P जगत्तपयासि । ३. A संजमजुत्त । ४. A णिवाहणउ । ५. A धम्मु । ६. P जोइपरिक्खहि । ७. A पयट्ठउ । १३ Page #145 -------------------------------------------------------------------------- ________________ महापुराण [४३. १०.१ १० णमोत्थु भणेवि गहीररवेण | घरं णिउ सो ससियत्तणिवेण । तिणा तहु णिम्मैलु भोयणु दिण्णु मुणिंदणिहालणि संचिउ पुण्णु । णिहेलणि उग्गय अन्मुय पंच अहासवदारई रुभिबि पंच। गओ रिसि घोसिवि अक्खयदाणु हुँबंधुसु वरिसु णिच्चसमाणु । पमाय कसाय विसाय हरंतु छमास विहिंडिउँ वित्त चरंतु । विहूयतमोमयमंदकलंकि चइत्तंछणम्मि पण्णससंकि । सुचित्तहि चित्तइ चिंतविमुक्क दढं मणि पूरिखं बीयर सुक्कु । परंदिसमासिइ वासरराइ उँइण्णउ केवलणाणु विराइ । णियासणचालणचालियसग्गु विमाणपऊरियवारियमग्गु । १० समागउ झत्ति पवाहियपीलु बिडोउ सभिच्चु सचिधु सलीलु । घत्ता-दह भावण वेतर अटुविह जोइस पंचविहाइय ॥ __ सोलह विह कप्पणिवासिसुर जिणु णवंति गुणराइय ॥१०॥ णमो अरिहंत णमो अरिहंत णमो दयवंत णमो दयवंत णमो विसयंत णमो विसयंत । णमोत्थु अभंत भयंत भवंत । १० 'नमस्कार हो' गम्भीर ध्वनिमें यह कहकर सोमदत्त उन्हें अपने घर ले गया। उसने उन्हें निर्मल भोजन दिया और इस प्रकार मुनीन्द्रदर्शनसे पुण्यका संचय किया। उसके घरमें पांच आश्चर्य प्रकट हुए। पांच पापास्रवोंके द्वारको रोककर, महामुनि, 'अक्षयदान' कहकर चले गये । अच्छे बन्धु या शत्रुके प्रति नित्य समानरूपसे रहनेवाले प्रमादों, कषायों और विषादोंको दूर करते हुए और मुनिवृत्तिका आचरण करते हुए उनके छह माह बीत गये। जिसने तमोमय मृगलांछनको नष्ट कर दिया है ऐसी पूर्णचन्द्रमावाली चैत्रशुक्ला पूर्णिमाके दिन, चित्रा नक्षत्र में, चिन्तासे मुक्त अपने सुचित्तमें दूसरा शुक्लध्यान पूरा कर लिया। और जब सूर्य पश्चिम दिशामें पहुंच रहा था उन विरागीको केवलज्ञान उत्पन्न हो गया। अपने आसनोंके डिगनेसे स्वर्ग चलायमान हो गया। आकाशमार्ग विमानोंसे भर गया। अपने हाथीको प्रेरित कर, अपने भृत्यों, पताकाओं और लीलाओंके साथ शीघ्र इन्द्र आ गया। पत्ता-दस प्रकारके भवनवासी, आठ प्रकारके व्यन्तर, पांच प्रकारके ज्योतिष और सोलह प्रकारके कल्पवासी देव गुणोंसे विराजित जिनको नमस्कार करते हैं ॥१०॥ कर्मरूपी शत्रुओंका घात करनेवाले आपको नमस्कार, अर्हन्नाथ आपको नमस्कार, विषयों का अन्त करनेवाले आपको नमस्कार, विषय (वस्तु) को अन्तिम सीमा तक जाननेवाले आपको नमस्कार, दयायुक्त आपको नमस्कार, अदयाको नष्ट करनेवाले आपको नमस्कार, अभ्रान्त भदन्त १०.१. A ससिदत्त । २. A भोयणु णिम्मलु । ३. A णिग्गय । ४. A P सबंधु । ५. A सवेरि । ६. P सुभिच्च । ७. A विहंडिउ । ८. Pउप्पण्णउं । ९. P ताव । ११.१. A P अरहंत । २. A णमोत्थु भयंत । Page #146 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४३. १२. ४ ] महाकवि पुष्पदन्त विरचित णमो बुहराम णमोहविराम णमो गुणथाम णमोमियथाम । णमो गिरिधीर णमो गयसीर णमो हयमार णमो धुवमार। णमो णियमाल सुपंकयमाल कैयंघिसुसील महाकरिलील। फलाइं गसंतु जलाई रसंतु दलाई वसंतु वणम्मि वसंतु। ण जे तवसीह अहो मुणिसीह परत्तसिरीह णिरीस णिरीह । तुमं सुमरंति भवेसु मरंति ण ते सुहि होति मँगेसु हि होति । पणासियसासयसंपयमूलु महं तुह धम्मसिरीपडिकूलु । कुसंगु कुलिंगु कुसामि कुदेउ कुपत्ति कुमित्तु म जम्मि विहोउ । वियंभउ णाणविलोयणसत्ति सुणिञ्चल होउ तुहुप्परि भत्ति । पत्ता-णिवाणभूमिवररमणिसिरिचूडामणि पइं वणेमि ॥ जडु कव्वापिसाएं विडियउ अप्पउ हँउं तणु मण्णमि ।।११।। १२. थुणेप्पिणु एम गुणोहु जिणेसु - तओ तियसेहिं कओ तहु वासु । चउदिसु उम्भिय सोहिय खंभ चउद्दिसु सारसरावसरंभ। चउद्दिसु दारइं गोउरयाई चउद्दिसु चेइयमंदिरयाई। चउद्दिसु पायववेल्लिहराई चउदिसु थूहई दिवघराई। (मुनि) और ज्ञानवान आपको जय हो। पण्डितोंके लिए आपको नमस्कार, अघोंका नाश करनेवाले आपको नमस्कार हो, गुणोंके घर आपको नमस्कार, हे अनन्तवीर्य आपको नमस्कार । गिरिकी तरह गम्भीर और हल रहित आपको नमस्कार, कामको जीतनेवाले आपको नमस्कार, ध्रुव लक्ष्मीदायक आपको नमस्कार, नियम सहित आपको नमस्कार, कमलोंकी मालासे शोभित आपको नमस्कार, जिन्होंने सुशील मुनियोंको अपने चरणों में नत किया है ऐसे महागजकी लोला करनेवाले आपको नमस्कार । जो तपस्वी फल खाते हैं, जल पीते हैं, दलोंमें रहते हैं, वनमें निवास करते हैं, ऐसे तपस्वीश्रेष्ठ भी, यदि हे निरीह निरोश मुनीश्वर, तुम्हें स्मरण नहीं करते, तो वे जन्म-जन्मान्तरोंमें मरते हैं, वे पण्डित भी नहीं होते, पशुओंमें उनका जन्म नहीं होता। जिन्होंने शाश्वत सम्पत्की जड़को नष्ट कर दिया है और जो धर्मरूपी लक्ष्मोके प्रतिकूल है, ऐसा कुसंग कुलिंग कुस्वामी कुदेव कुपत्नी कुमित्र मेरा, किसी भी जन्ममें न हो। मेरी ज्ञानसे देखनेकी शक्ति बढ़े (विकसित हो), तुम्हारे ऊपर मेरी भक्ति निश्चल हो। ___ पत्ता-निर्वाणभूमिरूपी श्रेष्ठ रमणीके सिरके चूड़ामणि हे देव, मैं तुम्हारा वर्णन करता हूँ। काव्यरूपी पिशाचसे प्रताड़ित में जड़ स्वयं तिनकेके बराबर समझता हूँ ॥११॥ १२ इस प्रकार गुणोंके समूह जिनकी वन्दना कर, उस समय देवोंने उनके निवासकी रचना की। चारों दिशाओं में खम्भे स्थापित कर दिये गये। चारों ओर सारसोंके शब्दसे युक्त जल था। चारों ओर दरवाजे और गोपुर थे। चारों दिशाओंमें चैत्य और मन्दिर थे। चारों ओर वृक्ष और ३. P कलंपिं । ४. A मिगेसु; P मगेसु । ५. A °सिरचूलामणि । ६. A मण्णमि । ७. A तणु हउँ । १२.१. Pदाविय। २. A वेल्लिवणाइ। ३. A दिन्वयराइं। Page #147 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १०० महापुराण [४३. १२.५चउद्दिसु दीसइ सम्मुहुँ देउ चउहिसु आसणु सीहसमेउ । चउदिसु भावलउब्भवु तेउ चउद्दिसु पल्लवरत्तु असोउ। चउद्दिसु छत्तई पंडुरयाई चउद्दिसु सुभई चामरयाई। चउद्दिसु अट्ठमहाधयपंति चउदिसु पुप्फचयाई पडंति । चउहिस दुंदुहिसह घडंति चउद्दिसु इंदतृयाउ णडंति । १० असेसहं भासविसेसहं खाणि चउद्दिसु तस्स वियंभइ वाणि । घत्ता-तच्चाई सत्त दह धम्मविहि णव पयत्थ छहर्दवई ॥ आहासइ परमप्पउ जणहु सवैई भूयइं भगवई ॥१२॥ १३ खएक्कु पुणेक्कु गणेसवराह दुसुण्णइं तिण्णि दु पुत्वधराई । तिबिंदुय रंध रिऊयदुयजुत्त जिणिंदहु एत्तिय सिक्खपउत्त । सहास दसेव य ओहिजुयाहं दुवालस ते च्चिय सम्ववियाहं । सहासई सोलह अट्ठसयाई विउवणरिद्धिरिसिंदहं ताई। महामणपज्जयणाणधराहं धुवं तिसयंकिउ सउ जि सयाहं। सहासहं उप्परि रंधसमाह खजुम्मु सडंकु वि वाइवराहं। सहासई वीस पयोणिहि लक्ख वियाणहि संजमधारिणिसंख। वयस्थघरत्थहं तासु तिलक्ख अणुव्वेयणारिहिं पंच जि लक्ख । लतागृह थे, चारों ओर स्तम्भ तथा दिव्य घर थे। चारों दिशाओंके सामने देव थे, चारों तरफ सिंहासन थे। चारों ओर भामण्डलोंसे उत्पन्न तेज था, चारों ओर पल्लवोंसे आरक्त अशोक वृक्ष थे। चारों ओर सफेद छत्र थे, चारों ओर दोनों हाथोंमें चामर थे। चारों ओर आठ ध्वजपंक्तियां थीं। चारों दिशाओं में पुष्प-समूहकी वर्षा हो रही थी। चारों दिशाओंमें दुन्दभि शब्दकी रचना हो रही थी। चारों ओर इन्द्राणियां नृत्य कर रही थीं। समस्त भाषाओंकी खदान उनको वाणी चारों दिशाओं में फैल रही थी। घत्ता-सात तत्त्व, दस प्रकारका धर्म, नौ पदार्थों और छह द्रव्योंका कथन वह सबके लिए करते हैं। उस अवसरपर सभी लोक भव्य हो गये ॥१२॥ एक सौ दस उनके गणधर थे। दो हजार तीन सौ पूर्वधारी थे। जिनेन्द्रके दो लाख उनहत्तर हजार शिक्षक कहे गये हैं। दस हजार अवधिज्ञानी. बारह हजार केवलज्ञानी, विक्रियऋद्धिके धारक मुनीन्द्र सोलह हजार आठ सौ; मनःपर्ययज्ञानी दस हजार तीन सो, नौ हजार छह सौ श्रेष्ठवादी थे। चार लाख बीस हजार संयम धारण करनेवाली आर्यिकाएं हैं। व्रती गृहस्थ तीन लाख थे। अणुव्रत धारण करनेवाली श्राविकाएं पांच लाख थीं। संख्यात तिथंच थे और देव ७. A धम्मविह। ८. P छदवई। ४. P जक्खकरे। ५. A P इंदतियाउ। ६. A तासु। ९. A सम्बभूइभूयई भवइ । १३. १. A सिक्खय उत्त । २. A P अणुव्वयपारिहि । Page #148 -------------------------------------------------------------------------- ________________ - ४३. १४. ८ ] महाकवि पुष्पदन्त विरचित तिरिक्ख ससंख सुरा वि असंख समासिवि धम्मु पसियदुक्खु महग्गमि फग्गुणपक्खि सुकिहि सणास तिदेह विमुक्कु ण कर्णे ण पीठ ण लोहिउ सुक्कु ण पुंसुण संदुण भण्णइ इत्थि हुआ परमेसरु अट्टगुणड्दु सिहिद सिरोमणिमुक्कसिहीहिं घत्ता - संमेयहु सिरि समारुहिवि मासमेत्तु थिउ जोएं ॥ जिणु अंतिम झाणु पराइयउ सहुं मुणिवरसंघाएं ॥१३॥ सिवि सिद्धणिसीहियथत्ति गओ विहारि समीरवद्देण पणासिवि राईरईसुहकख । छमासविहीण पुव्वहं लक्खु । १४ सेचित्तचउत्थितिथिही अवरहि । जगग्गधैरित्ति जाइवि थक्कु । ण लावु तासु ण चत्थि गुरुक्कु । फुरंत केवलबोह्गभत्थि । सरीरु सलक्खणु तक्खणि दड्छु । समच्चणवंदणहोमविहीहि । पहिं णिओइड कुंजरु झत्ति सुरण व अविभाणुमहेण । १०१ असंख्य थे । रातकी रतिके सुखकी आंकाक्षाका त्याग करनेवाले, धर्मका आश्रय लेनेवाले और दुःखका ध्वंस करनेवाले उनका छह माह कम एक लाख पूर्व समय बीत गया । १४ १० घत्ता — सम्मेद शिखरपर चढ़कर वह एक माह तक योग में स्थित रहे । मुनिबर समूह के साथ वह अन्तिम शुक्ल ध्यानपर पहुँचे ||१३|| ५. माघ माह बीतने पर फागुनके कृष्णपक्ष चतुर्थीके दिन अपराह्न के समय चित्रा नक्षत्र में ज्ञानस्वरूप, तीन प्रकारकी देहोंसे विमुक्त वह जाकर विश्वके अग्रभागमें स्थित हो गये । जहाँ वह न कृष्ण थे और न पीत । न लाल और न शुक्ल । न उनमें लाघव था और न गुरुता । न वह पुल्लिंग थे और न नपुंसक । और न स्त्री कहे जाते थे । वह अपने प्रकाशमान केवलज्ञानमें स्थित थे । वह आठ गुणोंसे समृद्ध परमेश्वर हो गये । लक्षण सहित उनका शरीर समर्चन, वन्दन और होमको विधियोंसे युक्त अग्निकुमार देवोंके मुकुटमणिकी ज्वालाओंसे तत्काल दग्ध हो गया। सिद्धरूपी नृसिहों में स्थिति पानेवाले उनको नमस्कार कर इन्द्रने अपने पैरसे ऐरावतको प्रेरित किया, और चला गया। दूसरे देव भी सूर्य-चन्द्रमा के समान तेजवाले विमानोंपर बैठकर चले गये । ३. A सुसंख । ४. A रायरईसुह; P णारिरईसुहं । ५. A पहंसियं । ६. A सिहरु । १४. १. A महुग्गमि । २. A सुचित्त । ३ AP जगग्गघरित्तिहि । ४. A किण्ह । ५. Aण पुंसउ संकुण । ६. A बोधगभत्थि । ७. A समंचिषि । Page #149 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [४३. १४.९ महापुराण घत्ता-महुँ तूसउ भैरहभग्वणमिउ पउमप्पहुँ णिहयावइ ।। तिजगिंदहु केरउ एम जसु पुप्फयंतु को पावइ ॥१४॥ इय महापुराणे तिसट्टिमहापुरिसाणालंकारे महाकहपुप्फयतविरइए महामन्वमरहाणुमण्णिए महाकग्वे पउमप्पहणिग्वाणगमणं णाम तियाळीसमो परिच्छे ओं समत्तो ॥४॥ ॥"पउमप्पहचरियं समत्तं ॥ पत्ता-भरत भव्यके द्वारा प्रणम्य, आपत्तियोंका नाश करनेवाले पचप्रभु मुझपर प्रसन्न हों, सूर्य-चन्द्रके समान त्रिजगेन्द्र का यश इस प्रकार कोन पा सकता है ? ॥१४॥ इस प्रकार श्रेसठ महापुरुषोंके गुणालंकारोंसे युक्त महापुराणमें महाकवि पुष्पदन्त द्वारा विरचित एवं महामव्य मरत द्वारा अनुमत महाकाव्यमें पनप्रम निर्माण-गमन नामक तेताकीसवाँ परिच्छेद समाप्त हुआ ॥६॥ ८. A P भब्वभरह। ९. A पउमप्प3; 1 परमप्पह । १०. A P omit the line, Page #150 -------------------------------------------------------------------------- ________________ संधि ४४ अगहिय असिपासह गयदप्पासहु पासाइयवम्महजयहु ॥ तोडियपसुपासहु णविवि सुपासहु पासियपासंडियणयहु ॥ध्रवक। णिरायसं महाजसं णिरंजसं समंजसं। अमोसयं णिरंजणं सुवच्छलं णिरंजणं। पुरं गुरु णिरास तैवोणिहं णिरास। असंगयं णिरंवरं मयप्पमाणियंवरं। अमंदिरं गैयालय वियक्खणं णयालयं । मुणीसरं णिरामयं समोसहं णिरामयं । अलं कुलेण उत्तम सणाणएण णित्तमं । जिणोहि वेसु सत्तम णमंसिऊण सत्तम। जयाहियं जईहियं भणामि तस्स ईहियं। घत्ता-णररयणकरंडइ धौदइसंडइ पुम्वविदेहि पुवगिरिहि ॥ हिमजललवसीयहि उत्तरि सीयहि कच्छउ देसु महासरिहि ॥१॥ सन्धि ४४ जिन्होंने आशाके पाशको ग्रहण नहीं किया, जिनका दर्प और आशा जा चुकी है, जिन्होंने कामदेवको विजयको नियन्त्रित कर लिया है, जिन्होंने जीवके बन्धनोंको तोड़ दिया है, जिन्होंने पाखण्डियोंके नयका खण्डन कर दिया है, ऐसे सुपार्श्वनाथको मैं प्रणाम करता हूँ। जो रागसुखसे रहित हैं, जो परमार्थस्वरूप, कुटिलतासे रहित, अमृषावादी, निरंजन, सुवत्सल, अपाप, महान् हितोपदेष्टा, आस्रवसे रहित, तपोनिधि, अपरिग्रही, दिगम्बर, ज्ञानसे आकाशको आच्छादित करनेवाले, गृहविहीन, पहाड़ोंमें भ्रमण करनेवाले, विचक्षण नययुक्त मुनीश्वर नीरोग उपशमरूपी औषधिसे युक्त, स्त्रीसे रहित, समर्थकुलसे उत्तम, केवलज्ञानसे अज्ञानतमको दूर करनेवाले, जिनाधियोंमें सातिशय सबसे अधिक प्रशस्त, जगके अधिपति और यतियोंके द्वारा काम्य हैं, ऐसे सुपाश्वनाथको प्रणाम कर उनकी चेष्टा ( चरित ) को कहता हूँ। घत्ता-जो महापुरुषरूपी रत्नोंके लिए पिटारीके समान हैं ऐसे धातकीखण्डके पूर्वविदेहके पूर्वविदेह पर्वतकी हिमकणोंसे शीतल सीता नदीके उत्तर में कच्छ देश है ।।१॥ १.१. P महायसं। २. A परं; P पुरं। ३. A P तवोणिहि । ४. A णियालयं। ५.P reads a as band basa. ६. A धाय । ७. A उत्तरसीयहि । Page #151 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १०४ महापुराण [ ४४.२.१ . तेत्थु सत्तभूयलसउहयलहि चूलाकलसलिहियेवोमयलहि । पाणियपूरियपविमलपरिह हि कोट्टालयणञ्चियबरिहहि । णाणावणतरुकीलियखयरिहि णंदिसेणु पहु खेमाणयरिहि । महि भुंजेवि सुइरु णिवेई लच्छिभारु णियतणयहु ढोइउ । धणवइणामहु णामसमाणहु णरवम्मीसहु विकुसुमबाणहु । अरहंतहु सिरिणंदणसामिहि पासि लइउ वउ सिवपयगामिहि । एयारह अंगई अवगाहि वि अप्प सीलगुणेहिं पसाहिवि । पावपडलपसरणु आउंचिवि तित्थयरत्त पुण्णु संसंचिवि । दीहु कालु तवु तिव्वु तवेप्पिणु हियवउ जिणकमकमलि थवेप्पिणु । पाणिदियसंजमु अविराहिवि आराहणभयवइ आराहि वि । चउविहु पच्चक्खाणु लएप्पिणु णंदिसेणु मुणिणाहु मरेप्पिणु । घत्ता-मज्झिमगेवजहि संभवसेजहि चंदकंदसंणिहरुइरु । . भद्दामरमंदिरि णयणाणंदिरि संजायउ''अहमिदु सुरु ।।२।। २ उसमें क्षेमपुरी नगरी है जिसमें सातभूमियोंवाले सोधतल हैं, जो अपने शिखरकलशोंसे आकाशतलको छूती है, जिसकी परिखाएं निर्मल पानीसे भरी हुई हैं, जिसके परकोटों और अट्टालिकाओंपर मयूरोंके नृत्य हो रहे हैं, जिसके नाना प्रकारके वृक्षोंपर विद्यारियां क्रोड़ा कर रही हैं ऐसी उस नगरीमें राजा नन्दिषेण निवास करता था, जो बहुत समय तक लक्ष्मीको उपभोग करनेके बाद विरक्त हो गया। उसने लक्ष्मीका भार सार्थक नामवाले अपने पुत्र धनपतिको सौंप दिया, और स्वयं नर ब्रह्मेश्वर कामदेवसे रहित, अरहन्त शिवपदगामी श्रीनन्दन स्वामीके पास व्रत ग्रहण कर लिया । ग्यारह अंगोंका अवगाहन करते हुए, स्वयंको शीलगुणोंसे विभूषित करते हुए, पापपटलके प्रसारको संकोच करते हुए, तीर्थकर प्रकृतिके पुण्यका संचय कर, दीर्घ समय तक लम्बा तप कर हृदयको जिनके चरणकमलोंमें स्थापित करते हुए, प्राणों और इन्द्रियोंके संयमको अवधारित करते हुए, भगवतीकी आराधना कर, चार प्रकारका प्रत्याख्यान कर, नन्दिषेण मुनिनाथ मृत्युको प्राप्त होकर ___घत्ता-मध्यम ग्रेवेयकके नेत्रोंके लिए आनन्ददायक, भद्रामर विमानके उत्पत्ति शिला सम्पुटपर चन्द्रमा और कुन्दके समान कान्तिवाला अहमेन्द्र देव उत्पन्न हुआ ॥२॥ २.१. P तत्य । २. A°णिहियं । ३. P बरहिहि । ४. P णिवेइयउ । ५. A P विक्कमठाणहु । ६. P अरिहंतहु । ७. A अलुचिवि । ८. A तित्थयरत्त पुणु; P तित्ययरत्तु गोत्तु । ९. P आराहणा। १०. A P संणिहु । ११. P अहिमिंदु । Page #152 -------------------------------------------------------------------------- ________________ -४४. ३. १४ ] महाकवि पुष्पदन्त विरचित १०५ दुरयणितणु लोयणइं अणिदेई आउ वि सत्तावीससमुद्दई । तेत्तिऐहिं सो वरिससहासहि भुंजइ अणु णियमणविण्णासहि । अक्खिउ भिक्खुवरेहिं जियक्खहिं णीससइ जि तेत्तियहिं जि पक्खहिं । कालें तं तहु आउ विणिहिट काले तिहुयणि किं पि ण संठिउ । उडुमासाउसु थक्कउ जइयहुं अक्खइ सुरवइ धणयहु तइयहुँ । जंबुदीवि बहुदीवणिवासइ भारहवरिसइ कासीदेसइ । सरयसलिलहरससहरसियगिहि वाणारसिपुरि सुरेपुरसंणिहि । परमारिसरिसहण्णवजायउ सुपइट्ठउ णामें महिरायउ । तासु अत्थि पृय प्राणपियारी पुहइसेण णामेण भडारी। ताहं बिहिं मि होसइ तित्थंकर देवदेउ जिणु पावखयंकरु । ताहं बिहिं मि करि तुहु जं जोग्गउ पट्टणु भर्वणु भोयसुहं चंगउं । ता जक्खें तं तेम समारिउ रयणविचित्तु णयरु वित्थारिउ । घत्ता-तुंगियहि विरामइ पच्छिमजामइ वालमराललीलगइइ ।। मणिमंचइ सुत्तिइ ढंकियणेत्तइ दीसइ सिविणावलि सइइ ॥३॥ www दो हाथ ऊंचा शरीर, नींदरहित नेत्र, सत्ताईस सागर आयु, इतने ही हजार वर्ष में अपने मनके अनुसार वह भोजन करता है। इन्द्रियोंको जीतनेवाले मुनिवरोंने कहा है कि वह सत्ताईस हजार वर्षों में साँस लेता है। समयके साथ उसकी भी आयु समाप्त हो गयी। समयके साथ त्रिभुवनमें कुछ भी स्थित नहीं रहता । जब उसकी आयु छह माह शेष रह गयी, तब इन्द्रने कुबेरसे कहा, "अनेक द्वीपोंके निवासस्थान जम्बूद्वीपके भारतवर्ष में काशी देश है, उसमें शरद् मेघ और चन्द्रमाको शोभाके समान घरोंवाली वाराणसी नगरी इन्द्रपुरीके समान है। उसमें परम ऋषि ऋषभनाथकी कुलपरम्परामें उत्पन्न सुप्रतिष्ठ नामका राजा था। पृथ्वीसेना उसकी प्राणप्यारी पत्नी थी। उन दोनोंके तीर्थकरका जन्म होगा, देवोंके देव और पापोंका नाश करनेवाले। उनके लिए जैसा योग्य समझो वैसा सुन्दर नगर, भवन और भोगसुख पैदा करो।" कुबेरने उसी प्रकार रचना कर दी, रत्नोंसे विचित्र नगरकी रचना कर दी। पत्ता-रातका अन्त होनेपर-अन्तिम प्रहर होनेपर बालहंसिनीके समान लीलागतिवाली उस सतीने मणिमय मंचपर आंखों बन्द कर सोते हुए स्वप्नावली देखी ॥३॥ ३.१. A P अणिदई। २. P तेत्तीयहि जि सु । ३. A छम्मासाउसु । ४. A P °दीवणिवेस। ५. A सुरपुरि । ६. A सुरिसह णयजायउ । ७. A P पिय पाण। ८. A भोयभवणु सुहं । Page #153 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १०६ महापुराण [ ४४. ४.१ दीसइ पीणपाणि दीसइ सरु मुयंतु उच्छाणउ । दीसइ भंगुरु णहरुक्केरउ कंठीरवु करिकुंभविसारउ। दीसइ दिग्गयवरसिंचिय चल दीसइ सुसुमर्णमाल सपरिमल । दीसइ जोउसु जोण्हावासउ दीसइ उग्गेमंतु णहि पूसउ। दीसइ पाढीणहं मिहेणुल्लउ दीसइ ससलिलु कुडॅजुयलुल्लउ । दीसइ वियसिउ बंभहरायरु दीसइ सरिवइ सरयरभीयरु। दीसइ पीढु सीहरूवालड दीसइ घंटारवु तियसालउ। दीसइ गेयमुहलु विसहरघरु दीसइ रयणरासि पसरियकरु । दीसइ जायवेउ जालाहरु इय जोइवि जाइवि रायहु घर । घत्ता-जं जिह मणलालिलं णिसिहि णिहालिउं तं तिह दइयहुभासियउं । तेण वि तहि तुढे पत्थिवजेठे सिविणयफलु उवएसियउं ॥४॥ होही सुंदरि तुह सुउ तेहउ जासु कित्ति लोयंतु पधावइ बारहपक्ख जांव ससिवासह सोच्चठाण गहयण सुहदिहिहि को वि ण दीसइ जगि जें जेहउ । णाणु अलोयंतु वि दरिसावइ । भूरिचंदु णिवडिउ आयासहु । भहवयहु मासहु सियछट्ठिहि। स्थूल सूंडवाला ऐरावत हाथी देखा, आवाज करता हुआ बैल, नखोंके समूहवाला, भंगुरगजोंके गण्डस्थलोंको विदीर्ण करनेवाला सिंह देखा, दिग्गजोंसे अभिषिक्त लक्ष्मी दिखाई दी, परिमल सहित सुमनमाला दिखाई दो, ज्योत्स्नाका घर चन्द्रमा दिखाई दिया, आकाशमें उगता हुआ सूर्य दिखाई दिया, मत्स्योंका युगल दिखाई दिया, जलसे भरा हुआ कुम्भयुगल दिखाई दिया, खिला हुआ सरोवर दिखाई दिया, जलचरोंसे भयंकर समुद्र दिखाई दिया, सिंहासनपीठ दिखाई दिया, गतिमुखर नागलोक दिखाई दिया, किरणोंके प्रसारसे मुक्त समुद्र दिखाई दिया, ज्वालाओंको धारण करनेवाली आग दिखाई दी, यह देखकर और राजाके घर जाकर धत्ता-रात्रिमें मनको सुन्दर लगनेवाला जो जैसा देखा था, वह उस प्रकार अपने पतिको बताया। उस ज्येष्ठ राजाने भी सन्तुष्ट होकर स्वप्नफलका कथन किया ॥४॥ .. हे सुन्दरी, तुम्हारा ऐसा पुत्र होगा, जैसा इस संसारमें कोई नहीं है, जिसकी कीर्ति लोकान्त तक जायेगी, जिनका ज्ञान अलोकान्त तक को प्रकट करता है । जब बारह पक्ष ( अर्थात् छह माह ) शेष रह गये, तो चन्द्रमाके निवास घर ( आकाश ) से स्वर्णवृष्टि हुई। भाद्रपद शुक्ल ४. १. A P सुरथूणउ; K सुरपूणउ and notes ap: पूर्णो वा पाठः। २. A सर । ३. P वियडदाढु सिविणयकंठीरउ । ४. A P सुमणसमाल । ५. A उग्गवंतु। ६. A जुयलुल्लउं । ७. A कुंभमिहु णल्ल। ८. P सीहरुइरालउ । ९.P मणलाल। १०. P भासि। ११. A Pउवएसि । ५. १. A जं जगि जेहउ; P जगि जं जेहउ । Page #154 -------------------------------------------------------------------------- ________________ -४४. ६.१० ] महाकवि पुष्पदन्त विरचित वड्ढ़तेण विसाहारिक्खें सुमुहुत्तेणुप्पाइयसोक्खें। गयरूवें विम्हावियसिढिहि हुउ गब्भावयारु परमेट्ठिहि । घर आवेप्पिणु खणि सुत्तामें गुरु गुरुयणु अंचिउ जसरामें। गठ देवाहिउ देवावासह पय वंदैवि भावे देवेसहु । पत्ता-णरणाहहु केरइ हरिसजणेरइ णव मासइं तूसवियजणु ॥ जंबुण्णयधारहिं दुहमलहारहिं घरि वुट्टउ वइसवणु घणु ॥५॥ ६ जयडिंडिमि दंडेण समाहइ णिव्वुइ पउमप्पहि पउमाहइ । सायरसमहं पमाणे लइयह णवसहासकोडिहिं गय जइयहं । कालपमाणे संखहि आयउ। तइयहुं तहिं वइसाहहु जायउ। पसवणु देवहु जाई सुहासिइ बारसिवासरि जेट्ठाभूसिई। सामरु सच्छरु सधउ सवारंणु पुणु संप्राइउ सो हरिवाहणु। अम्महि अवरु डिंभु संजोइवि णिउ हरिणा जगगुरु उच्चाइवि । सिंचिउ सुरगिरिसिरि सुररायहि मुहवियलियसिवणिवसंघायहिं । सुहतणुपासु सुपासु पकोक्किउ . सयमहु थोत्तु करंतउ संकिउ । पुजिवि वंदिवि णिउ सणिकेयहु पहु करपंकइ णिहियउ तायहु । देउ पियंगुपसवसरिसप्पहु दोधणुसयपमाणु माणावहु । षष्ठीके दिन विशाखा नक्षत्रके बढ़नेपर सुख उत्पन्न करनेवाले शुभमुहूर्तमें जिन्होंने सृष्टिको विस्मयमें डाल दिया है, ऐसे परमेष्ठीका गजरूपमें अवतार हुआ। यशसे सुन्दर इन्द्रने एक क्षणमें आकर श्रेष्ठजन गुरुकी पूजा की। भावपूर्वक देवेशके पैरोंकी वन्दना कर देवेन्द्र अपने देवगृह चला गया। घत्ता-हर्ष उत्पन्न करनेवाले राजाके घरमें नौ माहतक जिसने जनोंको सन्तुष्ट किया है ऐसा कुबेररूपी मेघ, दुखमलको हरण करनेवाली स्वर्णधाराओंसे बरसा ।।५।। ६ विजयरूपी दुन्दुभिके उण्डेसे आहत होनेपर, रक्तकमलके समान आभावाले पद्मनाथके निर्वाण प्राप्त करनेपर जब नौ हजार करोड़ सागर प्रमाण समय बीत गया तथा कालप्रमाणमें एक शंख हुआ तब विशाखा नक्षत्रका उदय हुआ। जेठ शुक्ल द्वादशीके दिन अग्निमित्र नामक शुभयोगमें देवका जन्म होनेपर देवेन्द्र अपने देवों, अप्सराओं, ध्वजों और गजोंके साथ फिर वहां पहुँचा। माताको दूसरा मायावी बालक देकर, इन्द्रके द्वारा विश्वगुरुको ऊँचा कर, ले जाया गया। शब्दों (स्तुति वचनों) के साथ, जो जलघट छोड़ रहे हैं ऐसे देवेन्द्रोंने सुमेरुपर्वतपर उनका अभिषेक किया। दोनों पार्श्वभाग सुन्दर होनेसे उन्हें सुपावं कहा गया। स्तुति करते हुए इन्द्र शंकामें पड़ गया। पूजा और वन्दनाके बाद, उन्हें ( सुपार्श्व को ) अपने घर ले जाया गया, और उन्हें पिताके हाथमें रख दिया गया । सुपाश्वदेव प्रियंगु पुष्पके समान आभावाले थे, मानका नाशक उनका शरीर दो सो धनुष प्रमाण था। २. A P विभाविय । ३. A वंदिवि; P वंदिय । ४. P वइसवणघण । ६. १. P डंडेण । २. A चंदसुहासिइ। ३. A जेठ्ठपभूसिह । ४. सवाहण। ५. A P संपाइउ । ६. P सणिकेवह। Page #155 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १०८ महापुराण [ ४४. ६.११ घत्ता-जे णाहतणुत्तणु गय दिव्वत्तणु ते तेत्तिय परिमाणु भणु ॥ जें तेणे समाण रूवपहाणउ अण्णु ण दीसइ को वि जणु ॥६।। खेलंतहु दरिसियसिसुलीलहु पंचलक्ख पुज्वहं गय बालहु । णाहु सुणासीरें खीरोहें । पुणु ण्हेवियउ पुवुत्तपवाहे। रायलच्छिदेविइ अवरुंडिउ थिउ णरवइ गर्यसत्तिइ मंडिउ । तित्ति ण पूरइ भोयहं दिव्वहं चउदहलक्ख जांव गय पुत्वहं । तावेकहिं दिणि उडुपल्लट्टउ । पेच्छिवि णाहू समग्गि पयउ। काले कालु वि जेण गिलिज्जइ तेण किं ण माणुसु कवलिज्जइ। जांवि थावि पावज लएप्पिणु तो भणंति सुर रिसि पणवेप्पिणु । एम बुहाहिव तुज्झु जि छज्जइ अण्णु ण एहँउ जगि पडिवज्जइ । घत्ता-जणु तिट्ठइ छित्तउ भमइ पमत्तउ पावइ जम्मि जम्मि मरणु । पई मुइवि भडारा तिहुयेणसारा एंव हणइ को जमकरणु ॥७॥ पुणु पाईणबरिहि संपत्तउ . जिणु कल्लणण्हाणि अहि सित्तउ । विहिउ तेणे लहुं सिवियारोहण दुक्ख सहेउयंकु णामें वणु । पत्ता-स्वामीके शरीर में जितने परमाणु थे वे उतने ही थे इसीलिए उनके-जैसा रूपप्रधान कोई दूसरा आदमी नहीं था ॥ ६ ॥ ७ खेलते और शिशु-क्रीड़ाओंका प्रदर्शन करते हुए शिशुके पांच लाख वर्ष बीत गये । स्वामी. का इन्द्रने फिरसे पूर्वोक्त जलप्रवाह और दूधसे अभिषेक किया, राज्यलक्ष्मी देवीने आलिंगन किया, न्यायको शक्तिसे अलंकृत यह राजा बने। चौदह लाख वर्ष पूर्व समय बीतनेपर भी जब भोगोंसे तृप्ति नहीं हुई, तब एक दिन टूटता तारा देखकर, स्वामी अपने मार्ग प्रवृत्त हुए, जिस कालके द्वारा काल ( नक्षत्र जो समयका प्रतीक है) नष्ट होता है, तो क्या उससे मनुष्य कवलित नहीं होगा। लो मैं जाता हूँ और प्रव्रज्या लेकर स्थित होता हूँ। इतनेमें लोकान्तिक देवोंने आकर प्रणाम किया और कहा-'हे पण्डितोंमें श्रेष्ठ, यह तुम्हें ही शोभा देता है। विश्वमें दूसरा व्यक्ति इसे स्वीकार नहीं कर सकता।' घत्ता-मनुष्य तृष्णासे व्याकुल और प्रमत्त होकर घूमता है, और जन्म-जन्ममें मृत्युको प्राप्त होता है। हे त्रिभुवनश्रेष्ठ आदरणीय, तुम्हें छोड़कर दूसरा कोन यमकरणका नाश कर सकता है ? ॥ ७॥ इन्द्र फिरसे आया और दीक्षाकल्याण-स्नानमें उनका अभिषेक किया। शीघ्र उन्होंने ७. A जो णाह। ८. A तो तेत्तिय; P तेत्तिओ जि । ९. A जेण समाणउB P तं तेण समाणउं । ७.१. खेल्लंतह । २. P सुणासिरेहिं । ३. A पहावियउ। ४. A णिवसत्तिइ। ५. P ताम भणहि सुर । ६. A एह । ७. A तेहउ । ८. A P जम्मजरामरणु । ९. P सुरवरसारा । ८.१. T records ap: दाणवरिउवइ इति पाठेऽपि इन्द्रः । २. A तेहिं । Page #156 -------------------------------------------------------------------------- ________________ - ४४.९.१] करते जे मासहु पक्खि त्रलक्खइ खत्तियदहस एहिं संजुत्ते छुट्ठववासु करिवि कयकिरियहु त्थु महिंददत्तणरराएं तहु घरि तियसणिघोस णिणायई ववरिस छउत्थु हवेष्पिणु पुणु सवणि मूलि सरीसहु महाकवि पुष्पदन्त विरचित 2 णाणावाणवलइयपायउ घत्ता - उट्टंतपर्यंतहिं पुरउ णडंतहिं णविउ णाहु पंजलियेरेहि || हु पे धुणंति रिसि अमर सविसहर एक्क जि फलु जइ भत्ति समुज्जल तो अच्छउ परंतु थुइलक्खई कह सक्कु फणिराउ सरासइ जइ तो किं वायइ वण्णइ जडु वासिदिवसि संभव रिक्खइ । लइ दिक्ख भुवणुत्तमसत्तें । सोमखेड पुरवरु गउ चरियहु । पाराविउ णवेवि अणुराएं । पंचच्छेरयाई संजायई । अच्छउ जिणु णिकपु चरेपणुं । पंचमु उ णाणु तिजगीसहु । देवलोउ णीसेसु वि आयउ । अहिहिं पुणु पंचविहहिं सोले विहहिं वि सुरवरहिं ||८|| ९ माणुस अम्हारिस वि णिरक्खर । लई पुणु हियवसा णउ निम्मल । पाव मुहवायामें दुक्खई । तुह गुणरासिहि छेउ ण दीसइ । जलहिमणि कि आणिज्जइ घडु । ५ शिविका में आरोहण किया, और वह सहेतुक नामके वनमें पहुँचे । ज्येष्ठ शुक्ल द्वादशीके दिन विशाखा नक्षत्र में, भुवनमें सर्वश्रेष्ठ सत्ववाले उन्होंने एक हजार क्षत्रियोंके साथ दीक्षा ग्रहण कर ली । छठा उपवास कर कृतक्रिया चर्याके लिए वह सोमखेट नगरमें गये। वहां राजा महेन्द्रदत्तने प्रेमसे प्रणाम कर उन्हें आहार कराया। उसके घरमें देवोंके द्वारा किये गये घोष-निनादोंके साथ पांच आश्चर्य उत्पन्न हुए । नो वर्ष तक वह छद्मस्थ अवस्थामें रहे । जिनचर्याका आचरण जिन भगवान् ने किया। फिर सहेतुक वनमें शिरीष वृक्षके नीचे त्रिजगके स्वामीको पांचवां ज्ञान ( केवलज्ञान ) उत्पन्न हुआ । नाना वाहनोंपर अपने पैरों को मोड़ते हुए समस्त देवलोक वहाँ आया । धत्ता - इस प्रकार आठ प्रकार, पाँच प्रकार और सोलह प्रकारके उठते-पड़ते और नाट्य देवोंने अंजलियोंसे सामने से देवको नमस्कार किया ॥ ८ ॥ १०९ १० ९ ऋषि, अमर, नाग और हम जैसे भी निरक्षर मनुष्य आपकी जो स्तुति करते हैं, इसका एक ही फल है कि यदि समुज्ज्वल भक्ति उत्पन्न हो, यदि वह निर्मल भक्ति हृदयमें नहीं आती, तो तुम लाखों स्तुतियाँ पढ़ते रहो, मुखके व्यायामसे केवल कष्ट ही प्राप्त करोगे । इन्द्र, नागराज और सरस्वती कहे, फिर तुम्हारी गुणराशिका यदि अन्त नहीं दीखता, तो जड़ कवि क्या बांचता ओर ३. P बारिसिदिवसि । ४. A संभवरिक्ख; P सुसंभवरिक्वइ । ५. A णिग्घोसणिणाएं । ६. A पंचच्छरियता संजायई । ७. A P छम्मत्थु । ८. A वहेष्विणु । ९. Padds after this: फग्गुणि four पक्खि छट्ठियदिणि, * भे विसाहि पच्छिम समुहद्द दिणि । १०. A P सिरीसह । ११. P अंजलि - कहि । १२. A विहहिं सुरवर हि; P विहहि वि सुरवरेहिं । ९. १. A संधुणंति । २. AP जइ । ३. A तो । ४. AP कहइ । ५. AP जलहिमाणु । Page #157 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ११० महापुराण देव तुहारी हयदुहवेल्लिहि भत्ति मूलु आसिद्धि सुहेल्लिहि । अट्ठ वि पाडिहेर थिय जांवहि समवसरणि आसीणउ तांवहि । भासइ धम्म भडारउ जेहउ भासहुं सक्कइ को वि ण तेहर। पालइ को वि कहिं मि जइ सूरउ णासइ णिहहि जणु विवरेरउ । घत्ता-पाणिवह पमेल्लह अलि म बोल्लह दव्वु परायउ मा हरह ।। परदार म माणह धणु परिमाणहं रयणिहि भोयणु परिहरह ॥९॥ १० एंव भणिवि संबोहिय मणहर पंचणवइ संजाया गणहर । 'बिणि सहस भासिय तीसुत्तर अंगसपुर्वधारि तहु मुणिवर । 'बिणि लक्ख चालीससहासई चउसहसई णवसयई विमीसई। अवर वि वीस जि सिक्खुय साहिय जे णोरंजणेण णिवाहिय । णव जि सहासई ओहि विबोहहं सहसेयारह पंचमबोहह। संयई तिण्णि सहसई पण्णारह विक्किरियालहं रिसिहि सुहीरह। सोत्तसैमाणसहासपमाणहं पण्णासुत्तरु सउ मणजाणहं । वसुसहसई रिदुसयई विवाइहिं सुद्धसुरूवदेसकुलजाइहिं । लक्खइं तिणि तीससहसालई विरयह णारिहिं लुचियालइं। १० सागारहं वि लक्खु गुणगुत्तिहि वयंगुणियाई ताई तप्पत्तिहिं । वर्णन करता है ? समुद्र मापनेके लिए क्या घड़ा लाया जाता है ? हे देव, दुःखरूपी लताका हनन करनेवाली सुखरूपी लताका, सिद्धिपर्यन्त मूल तुम्हारी भक्ति ही है । जैसे ही आठ प्रातिहार्योंकी स्थापना हुई वैसे ही, वह समवसरणमें विराजमान हो गये। आदरणीय वह जिस प्रकार धर्मका कथन करते हैं, उस प्रकारका कथन दूसरा कोई नहीं कर सकता। कहीं यदि कोई सूर हो तो वह पालन कर सकता है ? निष्ठासे विपरीत मनुष्य नाशको प्राप्त होता है। घत्ता-प्राणियोंका वध छोड़ो, झूठ मत बोलो, दूसरेके धनका अपहरण मत करो, परस्त्रीको मत मानो, धनका परिसीमन करो, रात्रिमें भोजनका परिहार करो ॥ ९॥ इस प्रकार कहकर उन्होंने सम्बोधित किया। उनके पंचानबें सुन्दर गणधर हुए। अंगधारी मुनिवर दो हजार तीस थे। शिक्षक दो लाख चौवालीस हजार नौ सो बीस कि जिनका निरंजन (तीर्थकर ) ने संसारसे उद्धार किया। अवधिज्ञानी नौ हजार; केवलज्ञानी; पन्द्रह हजार तीन सौ सुधीर, विक्रिया-ऋद्धिके धारक थे। मनःपर्ययज्ञानी नौ हजार एक सौ पचास । शुद्ध स्वरूप, देशकालमें उत्पन्न हुए वादी मुनि आठ हजार छह सो। तीन लाख तीस हजार केश लोंच करनेवाली आर्यिकाएँ थीं। तीन लाख श्रावक और पांच लाख श्राविकाएँ। ६. A आसुद्धि । ७. A कहि मि को वि । ८. AP पाणिवहु । ९. P परदार । १०. P परियाणह । १०.१. A दोण्णि । २. A अंगसुपुव्वधारि; P अंगपुत्रधारिय। ३. A ओहिबिमोहहं। ४. P सयाई। ५. P सुधीरहं । ६. P समारण । ७. A विरइयणारिहिं । ८. P लुचियकुरुलहिं । ९. A वयगण्णियाई। हविभाहत । सान सवार Page #158 -------------------------------------------------------------------------- ________________ -४४. ११.११ ] महाकवि पुष्पदन्त विरचित पत्ता-तियसेहिं असंखहि संखतिरिक्खहिं सहुं दुच्चरियई खंडिवि ॥ णववरिसविहीणउ जयविजयाणउ पुव्वलक्ख महि हिंडिवि ॥१०॥ महियमहिउ महमहियाणगड सहुँ सीसेहिं समाहिवसंगउ । संमेयहु जाइवि गिरिधीरउ तीस दियह थिउ मुक्कसरीरउ । फग्गुणमासि कालेपक्खंतरि साणुराहि सुहसत्तमिवासरि। सूरुग्गमि बुदेवहं देवें णिकिरियत्तु पत्तु विणु खेवें। णिट्ठिउ अट्ठमवंसुह पढुक्कउ गउ सुपासु पासेहिं विमुक्कार । चंदणकद्दमेण पव्वालिय पउँलोमीसें मालेहि मालिय । दिण्णी मउडाणलजालोलिय चिञ्चिकुमार तणु पज्जालिय । वंदिवि भर्प पावणिण्णासउ णायणाहु गउ णायावासउ। णायारूढउ कहइ णयंगहं पवणवरुणवइसवणपयंगह। घत्ता-जहिं भरह जिणेसहु णाणु सुपासहु पसरइ देवहु केवलिहिं ॥ तहिं वाइ ण वायउ ण तमु ण तेयउ पुप्फेदंतकिरणावलिहि ॥११॥ इय महापुराणे तिसहिमहापुरिसगुणालंकारे महाकइपुष्फयंतविरइए महामव्वभरहाणुमण्णिए महाकन्वे सुपासणिवाणगमणं णाम चउयालीसमो परिच्छेओ समत्तो ॥१४॥ ॥"सुपासचरियं समत्तं ॥ घत्ता-असंख्यात देवों और संख्यात तियंचोंके साथ दुश्चरितोंका खण्डन कर, नो वर्ष कम, जय-विजय करनेवाले एक लाख पूर्व वर्ष धरतीपर विहार कर ॥१०॥ पूज्योंके पूज्य, तेजसे कामका मथन करनेवाले, समाधि लीन, शिष्योंके साथ, पहाड़की तरह धीर सम्मेद शिखरपर जाकर वह तीस दिन तक मुक्त शरीर रहकर फागुन माहके कृष्णपक्षमें शुभ सप्तमोके दिन अनुराधा नक्षत्रमें सूर्योदय वेलामें अनेक देवोंके देवने बिना किसी विलम्बके निष्क्रियत्व ( मुक्ति ) को प्राप्त कर लिया। निष्ठावान् वह आठवीं भूमिमें पहुंच गये, सुपाश्वं पाशके बन्धनोंसे मुक्त हो गये। उनके शरीरको चन्दनसे प्रलिप्त किया गया, इन्द्रके द्वारा मालाओंसे लपेटा गया, अग्निकुमार देवने मुकुटानल ज्वाला दी और शरीर प्रज्वलित कर दिया गया। उनकी, पापका नाश करनेवाली भस्मकी वन्दनाकर इन्द्र अपने निवासके लिए चला गया। अपने ऐरावत नागपर आरूढ़ वह नत शरीर पवन, वरुण, वैश्रवण और सूर्य आदि देवोंसे कह पत्ता-कि जहां सूर्य-चन्द्रके समान किरणावलिवाले भरतजिनेश और केवली देव सुपार्श्वका ज्ञान प्रसरित होता है वहां न वादी है और न प्रतिवादी, न तम है और न तेज ॥११॥ इस प्रकार ब्रेसठ महापुरुषोंके गुणालंकारोंसे युक्त महापुराणमें महाकवि पुष्पदन्त द्वारा विरचित महामण्य भरत द्वारा अनुमत महाकाव्यका सुपार्श्व निर्वाणगमन नामका चवालीसवाँ परिच्छेद समाप्त हुआ ॥४॥ १०. P मंडिवि । ११.१. A P दिवह । २. P कालि पक्खंतरि । ३. A अमिवसुह। ४.A P पोलोमीसें । ५. A मालह मालिय। ६. P मणिमउहाणलेण जालोलिय । ७. P चच्चिकुमारिहि । ८. A भव्य । ९. AP पुष्फयंत । १०. A सुपासजिणणिव्वाण । ११. A Pomit this line, Page #159 -------------------------------------------------------------------------- ________________ संधि ४५ णित्तेइयोरिवंदह पणविवि कुबलयचंदहु वयणचंद जियचंदहु ।। चंदप्पहहु जिणिंदहु ॥ध्रुवक।। णियंगरस्सीहिं तमं विणीयं कयं कयत्थं किर जेण णिचं अतुच्छलच्छीहलकप्पभूयं दयावरं पालियसव्वभूयं ण जं पियालीविरहे विसण्णं विसुद्धभावं विगयप्पमायं णिहीसरं जं महियंतरायं १० पबुद्धदुक्कम्मविवायवीलं सुयंगउत्तीहि जयं विणीयं णमंति जं देववई वि णिचं । उदारचित्तं गुणपत्तभूयं । गिराहिं संबोहियरैक्खभूयं । मुँणि महंतं विमलं विसण्णं । परं परेसं परिझीणमायं । परजियाणंतदुरंतरायं। विइण्णदुव्वाइविवायवीलं । सन्धि ४५ __ शत्रुसमूहको निस्तेज करनेवाले तथा मुखचन्द्रसे चन्द्रमाको पराजित करनेवाले पृथ्वीमण्डलके चन्द्रप्रभु जिनेन्द्रको मैं प्रणाम करता हूँ। जिन्होंने अपने शरीरकी किरणोंसे अन्धकारका विनाश किया है, और शोभन द्वादशांग श्रुत की उक्तियोंसे जगको विनीत और कृतार्थ किया है, जिन्हें देवेन्द्र प्रतिदिन नमस्कार करते हैं, जो महान् लक्ष्मीरूपी फलके लिए कल्पवृक्षके समान हैं, जो उदारचित्त और गुणोंके पात्रीभूत हैं, दयावर सब प्राणियोंके पालनकर्ता, अपनी वाणीसे भूतपिशाचोंको सम्बोधित करनेवाले जो प्रिय सखीके विरहमें विषण्ण नहीं होते, जो पवित्र संज्ञाशुन्य महान् मुनि हैं, जो विशद्धभाव और प्रमाद रहित हैं, जो श्रेष्ठ विश्वस्वामी और माया रहित हैं, निधियोंके ईश्वर, अन्तरायोंका नाश करनेवाले, अनन्त दुरन्त रागोंको जीतनेवाले, दुष्पाक कर्मकी संवेदनासे सजग, जो दुष्ट वादियोंको A has, at the beginning of this Samdhi, the following stanza: वापीकूपतडागजैनवसतीस्त्यक्त्वेह यत्कारितं भव्यश्रीभरतेन सुन्दरधिया जैनं सुराणां (पुराणं) महत् । तत्कृत्वा प्लवमुत्तमं रविकृतिः (?) संसारवार्धेः सुखं कोन्यत् (?) स्रसहसो (?) स्ति कस्य हृदयं तं वन्दितुं नेहते ॥१॥ This stanza is not found in any other known MS, of the work. १.१. A अरविंदह; P अरिविंदह । २. A दयायरं। ३. A संबोहियसव्वभूयं; T records ap सब भूयमिति पाठे सर्वभूकं सर्वभूमिकम् । ४. P मुणीमहंतं । ५. A P परिखीण । ६. A दुवायविवायं । Page #160 -------------------------------------------------------------------------- ________________ -४५. २. १० ] महाकवि पुष्पदन्त विरचित सुचतचंगवियारणासं सदित्तियाभक्खरभावहारं पुरंदेरालोयणजोग्गगत्तं णिवारियप्प वह सेलपायं खर्गिद देविंद मुणिदधेयं भणामि तस्सेव पुणो पुराणं घत्ता - अमलइ अत्थरसालइ अगसिंगारवियारणासं । भवोहसंर्भूइभयावहारं । समुज्झियाहम्मदुपं कगत्तं । फणिचूडामणिघपायं । नमामि चंदरपणामधेयं । गणेसगीयं पवरं पुराणं । वयणणवुप्पलमालइ ॥ अट्ठमु जिणवरु पुज्जमि पडेसे पुण्णु आवज्जमि ||१|| २ भूभाइ सुसहिल्लि । पुक्खरवरद्धमि । विल्लमंदरहु | पच्छिमविदेहम | देसे सुगंधमि । सिरपुरवरे विs | णामेण सिरिसेगु । करिवरहु णं करिणि । चितवइ थिरबाहु | को देउ संभरमि । उत्तरोलि दीवे सिद्धम जलभरियकंदरहु सुरलोय सोहम्म araणसमिद्धम्मि छक्खंडधरणिवइ उद्भूरिरेणु सिरिकंत तहु घरिणि सुरहिउ णरणाहु किं करमि कहिं चरमि ११३ १५. १० विशेष पीड़ा देनेवाले हैं, जिनका मुख सुसत्य और तत्त्वसे उपलक्षित है, जो कामशृंगार के विचारोंका नाश करनेवाले हैं, जो अपनी दीप्तिसे सूर्यप्रभाका अपहरण करनेवाले हैं, जिनका शरीर इन्द्रके लिए दर्शनीय है, जिन्होंने अधर्मके दुष्पंकका गतं छोड़ दिया है, जिन्होंने आत्मज्ञानके लिए पर्वतसे नीचे गिरनेका विरोध किया है, जिनके चरण नागराजके चूड़ामणिसे घिसे जाते हैं, जो खगेन्द्रों, देवेन्द्रों और मानवेन्द्रोंके द्वारा ध्येय हैं- मैं ऐसे चन्द्रप्रभ स्वामीको नमस्कार करता हूँ और फिर उन्हींका पुराण कहता हूँ जो कि पहले गणधरोंके द्वारा कहा गया था । ५ घत्ता - स्वच्छ अर्थोंसे रसाल वचनरूपी नवकमलोंकी मालासे आठवें जिनवरकी में पूजा करता हूँ और प्रचुर पुण्यका उपार्जन करता हूँ || १ || २ मानुषोत्तर पर्वतसे सुशोभित सुखद भूभागवाले प्रसिद्ध पुष्कर द्वीपमें, जिसकी गुफाएँ जलसे पूरित हैं ऐसे पूर्व मन्दराचलके पश्चिम विदेहमें धनकणसे समृद्ध सुगन्धि देशके श्रीपुर नगर में छह खण्ड धरतीका अधिपति, शत्रुओंकी धूल उड़ानेवाला राजा श्रीषेण था । श्रीकान्ता उसकी गृहिणी थी, मानो करिवरकी हथिनी हो । पुत्रसे हीन स्थिरबाहु राजा विचार ७. AT भाविहारं । ८ A संभूइयभावहारं । ९. A पुरंदरोलोयण जोगगत्तं; P पुरंदरालोयणजोयतं । १०. चिट्ठायं । ११. A P पवरं । २. १. A P मणसुत्तरोइल्लि । १५ Page #161 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ११४ महापुराण [ ४५. २. ११ को देइ मह पुत्तु गुणरयणसंजुत्तु। ता भणइ सुपुरोहु जइ महसि सुयलाहु। तो कुणसु सहहेउ जिणणाहअहिसेउ । धम्माणुराएण तं सुणिवि राएण। जरमरणभयहरहं पडिमाउ जिणवरहं । रयणेहिं रइयाउ कलहोयमइयाउ। मंतेहिं थवियाउ खीरेहिं हवियाउ। सेंसुहं सुयंतीइ महिरायपत्तीइ। सिविणम्मि सुहईइ छेयम्मि राईइ। करि सीहु सिरि चंदु दिट्ठो विहारुंदु। घत्ता-वरपुत्तासइ लइयहु अक्खिउ जाइवि दइयहु । तेण वि तहु परियाणिउं दंसणफलु वक्खाणिउं ॥२॥ सजणगणमणपयणियपणउ तुह सुंदरि होसइ पियतणउ । कइवयदियहहिं वेल्लि व लैलिउ । लायण्णबहलजलविच्छैलिउ । वउ देविहि गब्भालंकरिउं ओलक्खिवि देहचिंधु तुरिउ । कंचुइहिं परिंदहु वज्जरिउ तहु हियवउं हरिसे विप्फुरिउं । ५ संतोस देविहि पासि गउ णं वणगणियारिहि मत्तगउ । करता है-क्या करूं, कहां जाऊँ ? किस देव की आराधना करूं, कौन मुझे गुणरत्नसे युक्त पुत्र देगा ? तब सुपुरोहितने कहा कि यदि तुम पुत्र-लाभ चाहते हो तो शुभके हेतु जिननाथका अभिषेक करो। यह सुनकर राजाने धर्मके अनुरागसे जरा और मरणके भयका अपहरण करनेवाले जिनवरोंकी रत्नोंसे रचित स्वर्णमयी प्रतिमाएं बनवायीं। मन्त्रोंसे उनकी स्थापना की और दूधसे अभिषेक कराया। महीराजकी सुभगा पत्नीने सुखपूर्वक सोते हुए, रात्रिके अन्तिम भागमें हाथी सिंह, लक्ष्मी और प्रभासे बहुल चन्द्रमा देखा। घत्ता-उसने जाकर श्रेष्ठ पुत्रको आशासे पतिसे कहा । उसने भी उसे बताया और स्वप्नदर्शनके फलकी व्याख्या की ॥२॥ हे सुन्दरी, तुम्हारे सज्जनसमूहके मनमें प्रणय उत्पन्न करनेवाला प्रिय पुत्र होगा। कुछ ही दिनोंमें देवीका लताके समान सुन्दर लावण्यके अत्यधिक जलसे विच्छुरित शरीर, गर्भसे अलंकृत हो गया। शरीरके चिह्नको देखकर कंचुकीने जाकर राजासे कहा । उसका हृदय हर्षसे विस्फुरित हो गया। सन्तोषके साथ वह देवीके पास गया, मानो वनहथिनीके पास मतवाला गज गया हो। उसके २. AP सुसुहं सुवंतीइ। ३. A सुसईइ । ४. P पच्छम्मि। ५. A चंडु and gloss सूर्यः । ६. A विहोरुंडु and gloss चन्द्रः । ७. A सिविणयफलु । ३. १. A सज्जणगुणगणपयणियपणउ; P सज्जणजणमणपयणिउ पणउ । २. AP होसइ सुदरि । ३. A ललिय । ४. A°विच्छलिय । ५. P देहि चिधु । ६. A पासु । Page #162 -------------------------------------------------------------------------- ________________ -४५. ४. ७ ] महाकवि पुष्पदन्त विरचित पेच्छिवि कसणाणणु थणजुयलु सालसुयंगड गयगइपसरु ras "णिय मंदिर गंपि थि सुखै दुलहु वल्लहु सज्जणहं णश्चिज्जइ गिज्जइ महुरैसरु काहुं दीण दुत्थियह ર घत्ता - तूर दिस हम्मइ कण्णि वि पडिउ ण सुम्मइ ॥ णारीणेचणपेल्लिय वसुमइ णावइ हल्लिय ॥३॥ विष्णाणें सण्णाणे घडियउ सवियहं सयहं आवडिउ जणीजणेणई जोयंति मुहं ता इट्ठउं दिट्ठडं उ रहिउँ अरहंतहु संतहु आगमणु मयभावु गावु खणि परियलिउ समसरणु समवसरणंतु गउ पेच्छिवि मुहमंडलु दरधवलु । पेच्छिवि पिय संभासिवि सुसंरु । णवमासहि जणिय "प्राणप्रिउ । कुलमंडणू खंडण दुज्जणहं । "डु वज्जइ दिज्जइ धणणियरु । frefore किणिहु पंथियहं १५ ४ । हिजणमणि णवजोव्वाणि चडियउ । "सो इंदु व चंदु व हि वडिउ । अच्छंति तेण सहुं जांव सुहुं । सुइसी वणवालें कहिउं । कयतावहु पावहु णिग्गमणु । लहुं णरवइ सुरवइ जिह चलिउ । पहु विविध जियमयरधउ । ११५ स्तनयुगलको श्याममुख देखकर और मुखमण्डलको कुछ सफेद देखकर, अलसाये अंगों और गजगतिका प्रसार देखकर, प्रियासे सुन्दर स्वरमें बात कर राजा अपने प्रासादमें जाकर स्थित हो गया। नौ माह में प्रणयिनीने प्राणप्रिय पुत्रको जन्म दिया । वह दुर्लभ पुत्र सज्जनोंका वल्लभ (प्रिय) था, कुलमण्डन और दुर्जनोंका खण्डन करनेवाला था । मधुर स्वर में गाया-नाचा जाने लगा । घण्टा बजने लगा, धनसमूह दिया जाने लगा - कानीनों, दीनों, दुःखितों, धनरहितों, कृपणों और पथिकों को । १० धत्ता- तुयोंके शब्दोंसे दिशाएं आहत हो उठीं। कानमें पड़ा हुआ भी शब्द सुनाई नहीं देता । नारियोंके नृत्य से प्रेरित जेसे धरती हिल उठी ||३|| ४ विज्ञान और सम्यक्ज्ञानसे रचित, जनमनका हरण करनेवाला वह नवयौवन में आरूढ़ हो गया । चन्द्रमाके समान मुखवाले अपने लोगों में आकर वह ऐसा लगता था जैसे इन्द्र या चन्द्रमा आकाशमें चढ़ गया हो। माता-पिता जबतक सुखसे उसका मुख देखते हुए रहते हैं तबतक वनपालने जो इष्ट दर्शन किया था, उससे वह रह नहीं सका । उस सुविशील नामक वनपालने वह कह दिया - अरहन्त सन्तका आगमन और सन्तापदायक पापका निर्गमन । एक क्षण में राजाका मदभाव और गर्व चला गया । शीघ्र ही वह राजा इन्द्रकी तरह चला । उपशमके स्थानपर ७. A वरषवलु; P छुहषवलु । ८ A गइगय पसरु; P गउ गयपसरु । ९. A ससुरु । १०. A मंदिरु । ११. AP पण पिउ । १२. AP सो दुल्लहु । १३. P महुरयरु । १४. AP पडु । १५. P पत्थियहं । P adds after this: सिरिसम्मणिरूविउ णामु तसु, सुहलक्खणु जणवइ लद्धजसु । १६. A तूररवहं । १७. P वडिउ । १८. K चचणपडिपेल्लिय । ४. १. P सो इंदु चंदु णं वडिउ । २. P जणणु वि । ३. K विवहउ । Page #163 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ११६ १० १५ ५ जिणु वं दिवि णिदिवि अप्पण सिरिसेर्णे सेर्णे पल्लविय महियासि णिवासि सिरिप्पहहु तबु गहियरं मँहियउं दुच्चरिउं एतहि दणु णंदणु जणहु आसादि रूढि णंदीसरइ उववासिउ तोसि सुयसुइहिं घत्ता - अट्टरउद्दहिं चत्तउ थि अत्थाणि १: महापुराण जांवच्छेइ पेच्छइ जलिये दिस विहिविरैलिय वियलिय उक्क किह तं पेच्छिवि परिच्छिवि सयलु तिणयहु पणयहु लच्छि सहि fuse ghe fro लइड ब्रेड राहिउ णं णहयलि ताराहिउ ||४|| तें पिसुणिउं णिसुणिउं तिहुयणउं । सिरिसम्मइ सिरिसम्म थविय । णि रुइगइछाइयरविरहहु । "चे चिरु णिरुणिम्मच्छरउ । अंतु दुकिरहु | ११ छस सिहरि "मणहरि वासरइ । स सदिहिहिं "ससुहिहिं सुहमइहिं । धम्मझाणसंजुत्तउ ॥ [ ४५. ४. ८ ५ ता कामिणिचूडामणिसरिस | सुहरु सररुह मयरंदु जिह | संचियमलु चंचलु भुवणयलु । अहिअल्लिय चल्लिय दिण्ण महि | सिरु मुंडिडं दंडिडं तेण वउ । समवसरण के लिए चला । विविध ध्वजवाले राजाने मकरध्वज (कामदेव) को जीतनेवाले जिनकी वन्दना कर अपनी निन्दा की। उसने जो कहा वह त्रिभुवनने सुना । श्रीषेणने सेना छोड़ दी और लक्ष्मी श्रीशर्मा पुत्रको सौंप दी। अपनी कान्ति और गतिसे जिन्होंने सूर्यके रथको आच्छादित कर लिया है ऐसे श्रीप्रभ ( श्रीपद्म ) के आशाओंका नाश करनेवाले निवासपर जाकर उसने तप ग्रहण कर लिया और दुश्चरितका नाश किया । उसकी पुरानी चेष्टाएँ मत्सरभावसे बिलकुल रहित हो गयीं । यहाँ लोगों की वृद्धि करनेवाले उस पुत्रने पापोंका अन्त करते हुए, आषाढ़ माह के प्रसिद्ध नन्दीश्वर में पूर्णिमाके सुन्दर दिन, धैर्यं सम्पन्न ओर शुभमतिवाले सुहृदोंके साथ उपवास किया और सन्तुष्ट हुआ । घत्ता - आठ रौद्रध्यानोंसे दूर और धर्मध्यानसे संयुक्त वह राजा दरबारमें बैठा हुआ ऐसा मालूम होता मानो नभतलमें चन्द्रमा हो ॥४॥ ५ जब वह बैठा हुआ था तो जलती हुई दिशा देखता है । कामिनीके चूड़ामणिकी तरह आकाश में फेंकी गयी उल्का उसे ऐसी दिखाई दी जैसे चन्द्ररूपी कमलका पराग हो । उसे देखकर संचित मल चंचल समस्त भुवनतलको छोड़कर अपने प्रणत पुत्रको अहित करनेवाली लक्ष्मीरूपी सखी त्याग दी और धरती दे दी। अपने पिताके गुरु नगर में स्थिर व्रत लिया, सिर मुड़ा लिया, ४. A सेणय मेल्लविय । ५. A सिरिसमइ सिरिवम्मइ । ६. Preads ७. P महिउं । ८. उव्वेढि चिरु णिम्मच्छरिउ । ९. AP छणससहरि । ११. A. सुमुहि हि सुहमईहि; P मंतिहि सुहमइहि । १२. P अत्थाणेण । ५. १ A जामच्छइ; P जावच्छइ । २. A जडिय । ३. P वियलिय विरलिय । ४. P परियच्छवि । ५. A पुरहि; P गुरुहि । ६. A वठ; P तउ । as b and b as a १०. A मणहरवासरइ । Page #164 -------------------------------------------------------------------------- ________________ -४५. ६. ६ ] महाकवि पुष्पदन्त विरचित सहरिहि सिरिसिहँ रिहि हरिवि रइ कयकलुसणास संणासगइ । सवियपि कप्पि सोहम्मवरि एकोहिसुहणिहिआउधरि । सिरिवहि सिरिवं हि विलुलियचमरु सिरिहरु मणहरु जायउ अमरु । "एसज्जु पुज्जु तहु अट्ठगुणु सुहवत्त सत्तकरमवियतणु । विहवदहं अहहं सहस दुइ वटुंति जंति जइ मुत्ति तइ । णीसासु मासु पूरिवि मुयइ भावइ सेवइ काएं''जुयइ । घत्ता-तहु तहिं पंकयत्तहु कीलंतहु कीलंतहु ॥ आउ पईहु वि पर्यलिउ कालें को वण कवलिउ ॥५।। अवर वि णररविपहवत्ति जहिं बहुजीवइ बीयई दीवि तहिं । मोरयभीमोरयसंगरहु इसुकारहु सारहु गिरिवरहु । पुत्वासइ वासइ भारहइ सियभाणुभाणुकरभारहइ । णंदंतपैगांवगांवगहिरि इलतिलइ अलयइ विसयवरि । संपयहि पयहि णिच्चु जि पियहि णिदुंगेज्झहि उज्झहि णयरियहि । णिव्वट्टिउ लोट्टिउ कूरमइ अजियंजउ दुज्जउ मणुयमइ । और शरीरको दण्डित किया। सिंहों सहित श्रीपर्वत शिखरपर रतिका नाश कर, जिसमें कालुष्यका नाश कर दिया गया है, ऐसी संन्यास गति रचकर वह एक सागर आयु और सुखकी निधि धारण करनेवाले सौधर्म स्वर्गके श्रीसम्पन्न श्रीप्रभ विमानमें, जिसपर चमर ढोरे जा रहे हैं, ऐसा श्रीधर नामका सुन्दर देव हुआ। उसका आठ गुना पूज्य ऐश्वर्य था। उसका सात हाथोंसे मापा गया शरीर सुखका पात्र था। वैभवसे गोले दो हजार वर्ष जब बीत जाते हैं, तब उसका भोजन होता है, एक माहमें सांस लेकर छोड़ता है। उसे स्त्री अच्छी लगती है, और शरीरसे उसका सेवन करता है ? पत्ता-वहां क्रीड़ा करते-करते कमलनेत्र उसका लम्बा समय निकल गया। समयके द्वारा कोन कवलित नहीं होता? ॥५॥ मनुष्य रूपी सूर्यको प्रभावाले अनेक जीवोंसे युक्त दूसरे धातकीखण्ड द्वीपमें जिसमें मयूर और भयंकर सांपोंका युद्ध होता है, ऐसे श्रेष्ठ इष्वाकार पर्वतकी पूर्व दिशामें सूर्य और चन्द्रमाकी किरणोंसे आलोकित भारतवर्षके आनन्द करते हए प्रचुर गांवोंसे गम्भीर पृथ्वीमें श्रेष्ठ अलका क्षेत्रमें सम्पत्तियों और प्रजाओंसे प्रिय मनुष्योंके द्वारा अग्राह्य अयोध्या नगरीमें अत्यन्त भ्रष्ट ७. AP सुरसिहरिहे । ८. A जुम्मोवहिं । ९. A सुरगिहि । १०. A सिरिहरु। ११. A एसज्ज पुज्ज । १२. A कायवि जुवह। १३. P सहं अच्छर। १४..A पयडिट । १५. A काले को वि ण कवलिउB P कालें को णउ कउलिस। ६. १. A अवर विणर रवि पवहंति जहिः P अमर वि णरवर विहरंति हिं। २. A दीवइ बीड । ३. A सुइकारहु । ४. AP पगामगाम । ५. A णिरु गिज्झहि but णिदुगेज्झहि in margin | ६. AP अजयंज। Page #165 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ११८ महापुराण तहु मंदिर णंदिरि णिम्मलिणि सुंदरि इंदिदिरि णं णलिणि । मुक्कमलकमलदलणयणजय सुहेजलरहल्लि णववेल्लिभुय । तृयसिरमणि गुणमणिणिवहखणि सरसेणाजियसेणा रमणि । सुपसुत्त पुत्तसंणिहियमइ सा सिविणय सुविणिय णियइ सइ । घत्ता-सीहु हत्थि ससि दिणयरु पुण्णकलसु पंकयसरु ॥ सिरि वसहिंदु पमत्तउ संखु दाहिणावत्तउ ॥६॥ दिट्ठउ सिद्धउ सुहिमोणियइ णियकतहु कतहु राणियइ । फलु विलसिउं भासिउं तेण तहि दिसवलेए विमलइ थियइ णहि । तहि गब्भि अब्भि णं चंदमउ थिउ सिरिहरु सिरिहरु सच्चमउ । उप्पण्णउ धण्णउ पुण्णणिहि तरु धरणिहि अरणिहि णाई सिहि । जं जाणिउं भाणि जेण जहिं वड्ढ़ते संतें तेण तहिं।। णयरिद्धिइ बुद्धिइ लक्खियां णिहिलत्थु वि सत्थु वि सिक्खियउं । मायइ पियवायइ गुणसहिउं णियणामु सधामु तासु णिहि। सवियक्कउ थकउ तरुणिरेउ णवजोव्वणि णं' वणि महुसमउ । क्रूरमति अजितंजय नामका दुर्जेय ( मनुजमति ) राजा था। आनन्द देनेवाले उसके घरमें निर्मल सुन्दरी गृहिणी थी मानो कमलिनीमें लक्ष्मी हो । वह निर्मल कमलके समान आंखों वाली सौन्दर्यके जलकी लहर नवलताके समान बाहुबली, स्त्रियोंमें शिरोमणि, गुणरूपी मणिसमूहकी खदान, और कामदेवको सेना अजितसेना नामकी स्त्री थी। पुत्रमें अत्यन्त बुद्धि रखनेवाली, अत्यन्त प्रगाढ़ रूपसे सोयी हुई, सुविनीता वह सती स्वप्न देखती है। घता-सिंह, हाथी, चन्द्रमा, दिनकर, पूर्णकलश, कमल, सरोवर, लक्ष्मी, प्रमत्त वृषभेन्द्र और दक्षिणावर्त शंख ॥धा सुधियोंके द्वारा मान्य रानीने जो देखा, वह अपने प्रिय पतिसे कहा। उसने उससे उसका विलसित फल कहा । दिशा मण्डल और आकाशके निर्मल होनेपर उसके गर्भ में, बादलोंमें चन्द्रमा के समान, लक्ष्मीधारक श्रीधर स्थित हो गया। पुण्य निधि और धन्य वह इस प्रकार उससे उत्पन्न हआ जैसे धरती पर वक्ष और लकडीसे आग उत्पन्न हई हो। वद्धिको प्राप्त होते हए उसने जहां जो जाना वह कहा। नय-ऋद्धि और बुद्धिसे वह उपलक्षित हो गया, निखिलार्थ शास्त्र भी उसने सीख लिये। प्रिय बोलनेवाली मां ने गुण सहित अपना नाम और घर उसे सौंप दिया ( अजितसेन उसका नाम था ) नवयौवन में वह विचारग्रस्त और तरुणीरत हो गया मानो वनमें ७. A णंदिरि मंदिरि । ८.A सुक्क । ९. A सुयजलहरणि णिववेल्लिभुय; Pसुहजलवहुल्लि । १०. AP तियसिर । ११. A सविणय सिविणय; P सुविणय सिविणय । १२. AP संखु वि दाहिणवत्तउ । ७.१ सुहमाणियइ। २. A दिसिवलयइ विमलि थियम्मि णहि; P दिसवलइ विमलि थियम्मिहि । ३. AP omit थिउ । ४. A उप्पण्णउ वण्ण उ सच्चणिहि; P उप्पण्णहु घण्णहु पुण्णणिहि। ५. A तरुणियउ । ६. AP वणि णं । Page #166 -------------------------------------------------------------------------- ________________ -४५. ८. ११ ] महाकवि पुष्पदन्त विरचित ता राएं ताएं तालघणु गंपिणु गयसोउ असोयवणु। दुहहरु सिरिहरु जिणु सेवियउ भर्वपासु सुदूर विहावियउ । घत्ता-चितइ महिपरमेसर एंवहिं धम्महु अवसरु ।।। कण्णहु णियडइ घुलियई मरणु कहति व पलियइं ॥७॥ सो अजियसेणु वेणु व धरहि अहिथविउ ण्ह विउ ढोइयकरैहि । रिसिसिक्खहि दिक्खहि लग्गु किह पिउ हयकलि केवलि हुयउ जिह । एत्तहि जयजत्तहि जोत्तियहु णिक्खत्तियखत्तियसोत्तियहु । तसियक्कु चक्क तहु हुयउ घरि रुइपुंजु कंजु ण कंजसरि । जणजोणिहि खोणिहि साहियइं। चडई छक्खंडई साहियइं। णवणिहि मणदिहिउप्पायणई रयणई चेयणइं अचेयणई। चउदह दहंगभोएंण सहुं घर एंति देति चिंतविउं लहु । कयदमु अरिदमु णामें समणु मासोबवासि धणरासितणु । जो मण्णइ वण्णइ जिणचरिउं जें सुत्तु सुर्जुत्तु समुद्धरिउ । घरु पत्तु पत्तु तें जोइयउ अणवज्जु भोजु संप्राइयउँ । णवपुण्णई णवणवभावणइ ते बद्धई णिद्धई कर्यपणइ। वसन्तका समय हो। तब पिता राजाने शोकसे रहित होकर ताल वृक्षोंसे सघन अशोक वनमें जाकर दुःखका हरण करनेवाले श्रीधर जिनकी सेवा की और अत्यन्त दूरवर्ती भवरूपी बन्धनको देख लिया। घत्ता-धरतीका वह राजा विचार करता है कि इस समय, अब धर्मका अवसर है। कानोंके निकट व्याप्त सफेदी मानो मृत्युका कथन कर रही है ॥७॥ उसने उस अजितसेनको कर देनेवाली धरती पर वेणुके समान स्थापित कर दिया और अभिषेक किया और मुनिकी शिक्षासे युक्त दीक्षामें वह इस प्रकार लग गया कि पापको नष्ट करनेवाले पिता केवलज्ञानी हो गये। इधर विजय-यात्रामें लगे हुए तथा जिसने क्षत्रियों और ब्राह्मणोंको क्षत्र रहित कर दिया है ऐसे उस राजा अजितसेनको सूर्यको त्रस्त करनेवाला चक्र, इस प्रकार उत्पन्न हुआ मानो कमलोंके सरोवरमें कान्तिका समूह उत्पन्न हुआ हो। उसने मनुष्योंकी योनि प्रचण्ड छह खण्ड भूमि सिद्ध कर ली। नव निधियां, मनके भाग्यको उत्पन्न करनेवाले चेतन अचेतन चौदह रत्न, दशांगभोगोंके साथ घर आते हैं और वह जिसकी चिन्ता करता है, वे वह शीघ्र प्रदान करते हैं । शान्तमन एक मासका उपवास करनेवाले और तृणके समान शरीरवाले अरिंदम नामक श्रमण, जो जिनचरितको मानते हैं और उसका वर्णन करते हैं, तथा जिन्होंने यक्तियक्त सूत्रोंका उद्धार किया है घर आये । राजाने उन्हें देखा और उन्हें अनवद्य आहार दिया। प्रणतिपूर्वक नव-नव भावनासे उसने स्निग्ध नये-नये पुण्योंका बंध किया। जिन्होंने दिशा ७. A तालहिं तालघणु । ८. AP भवयारु । ९ A सदूरु । ८.१. A घेण व घरह । २. A करह। ३. P रज्जसरि । ४. P भोएहिं । ५. A गुणरासितणु । ६. P सजुत्त । ७. A P संपाइ । ८.P णवपुण्णय । ९. P कयविणइ । . Page #167 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १२० महापुराण [४५. ८.१२ गुणवंतह संतह महरिसिहिं आदंसियसंसियसुहदिसिहि । "महिवंटयणिकंटयवइहि पंचब्भुय तहु हुय णरवइहि । घत्ता-चक्कवट्टिसिरिलीलइ. एंव तासु गयकालइ । दिट्ठर जिणु तरुणीलइ मणहरणामवणालइ ।।८॥ सुहावह रविप्पहं थिरं पियं णिवाइणा महाणिणा मुएवि सं कयं तवं णिरासयं अदोसयं अरोसयं विहट्टियं चलं खलं मैंओ मुणी अणप्पए बुहत्थुए विहंकरे समाणए गईवहं। गुणप्पहं। सुवं सुयं । सराइणा। पुणो तिणा। रईविसं। गयासवं । अहिंसंयं। अमोसयं । अतोसयं। पलोट्टियं । मणोमलं । हुओ गुणी। सुकप्पए। स अच्चुए। सुहंकरे। विमाणए। दिखायी और सूचित की है, ऐसे गुणवान् और सन्त महर्षियोंके द्वारा मही और पत्तनोंके निष्कंटक स्वामी उस राजाके लिए पांच आश्चर्य उत्पन्न किये गये। घत्ता-इस प्रकार चक्रवर्तीकी श्रीलोलासे उसका समय निकलता चला गया। उसने वृक्षोंसे हरेभरे मनहर वनालयमें जिनके दर्शन किये ।।८।। सुख प्राप्त करानेवाले, गतियोंके नाशक, सूर्यके समान प्रभावाले गुणोंके मार्ग, स्थिर स्थित, उन्हें राजाने प्रेमके साथ सुना और फिर चक्रवर्तीने गतिके अधोन सुख छोड़कर आस्रव रहित, आश्रयहीन अहिंसक अदोष मृषा शून्य अक्रोध, दोष रहित तप किया और चंचल दुष्ट मनोबल को नष्ट कर दिया। वह मुनि मर गये और वह गुणी महान विभासे युक्त शुभंकर सम्माननीय अच्युत विमानमें अच्युतेन्द्र हुआ। १०. A महिवट्टयणिक्कंटयवइहो; Pमहिवद्रयणिकटियमहिहि। ११. A णरवइहो। १२. P तरुलीलइ। ९. १. A omits अहिंसयं । २. A सतोसयं । ३. A वलं। ४. A मुओ। ५. P हओ। ६. A P सुअच्चुए। Page #168 -------------------------------------------------------------------------- ________________ - ४५. १०.१६ ] महाकवि पुष्पवन्त विरचित पत्ता - आउमाणु हयणिद्दई तेत्तियवास सहा सहि ससेइ सो पत्त सतकंठरेहओ अमरसरोम केसओ अमोहबोहसंणिही किर्डेको डिमंडिओ अधूविओ सुगंधओ सहाव जायभूणो विचित्तचारुचेलओ जहिं जहिं विजोइओ गुणेहिं सो अदुज्जसो मणेण चिंतियं जहिं कवाड वेइअंतरे कुलायलावलीव जलतरण्णपावए तहिं पिसीयतीरिणी दधचंद तहु बावीससमुद्दई ॥ भुंजइ मणविण्णासहि ||९|| १० दुवीस पक्खमेत्तए । तिहत्थमेत्तदेहओ | सकसुक्कलेसओ । हूतमभावही | अपाढओ वि पंडिओ । अहोय सिद्धिओ । hi तिकिंकिणीसओ । ललंत फुल्ल मालओ | हि तर्हि विराइओ । अणालसो अतामसो । खणेण गच्छ तहिं । असंखदीवसायरे । रमेइ गंधमायणे । दुज्जयमि दीव | णिदाइ डाइहारिणी | asम्म तीइ दाहिणे । १२१ १० धत्ता - उसकी आयु, निद्रासे रहित बाईस सागर प्रमाण थी । उतने ही हजार वर्षों ( बाईस हजार वर्षों ) में वह मनसे कल्पित आहार ग्रहण करता ॥९॥ १५ १० बाईस पक्षोंको यात्रावाले समय में वह साँस लेता । उसके कण्ठकी रेखा शोभित थी । उसका शरीर तीन हाथ प्रमाण था । मूँछ और केशोंसे रहित वह चन्द्रमा के समान निर्मल शुक्ल लेश्यावाला था । तमप्रभा नामक नरक तक अवधिज्ञानसे युक्त था । जो किरीटकोटिसे मण्डित था, बिना पढ़ाये हुए भी पण्डित था। बिना घूपके ही जो सुगन्धित था। बिना स्नानके भी स्निग्ध था, स्वभाव ही से उसे आभूषण उत्पन्न हुए थे, जो किंकिणियोंके मधुर स्वरसे युक्त था, विचित्र सुन्दर वस्त्रोंसे सहित था, झूलती हुई सुन्दर मालाओंसे युक्त था, वह जहां-जहां भी देखा गया, वहाँवहाँ सुन्दर था । गुणों के कारण अपयशसे रहित, अनालस और तामसिक प्रवृत्ति रहित था । मनसे जहां चाहता था, वहाँ एक क्षण में पहुँच जाता था। वह कपाटवेदी और वेदीवाले असंख्य द्वीप सागरों, कुलाचलोंके पंक्तिवनों और गन्धमादन पर्वतपर रमण करता। जिसमें रत्नोंकी ज्वाला प्रज्वलित है, ऐसे दूसरे द्वीपमें ग्रीष्मकी जलनका हरण करनेवाली सीता नदी है, जिसमें १०. १ AP पमेत्तत् । २. A P अमंसु । ३. P पहुत्तमप्पां । ४ A किरीडिकोडिं । ५. AP अण्हाणिओ । ६. AP कणंत । ७. AP डाङ्घारिणी । ८. P गयंद । १६ Page #169 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १२२ महापुराण [४५.१०.१७ विलासवाससंतई धरित्ति मंगलावई। पुरं तहिं घरुच्चयं विहाइ वत्थुसंचयं । घत्ता-सूहउ कामसमाणउ कणयप्पहु तहिं राणउ ॥ कणयमाल तहु गेहिणि णं जेलहिहि जलवाहिणि ॥१०॥ ११ तओ सो सुवत्तो जिणिंदस्स भत्तो। चुओ देवणाहो हुओ पोमणाहो। सुओ तीई दिव्वो अगवो सुभत्वो। सरूंवेण मारो बलेणं समीरो। पयावेण सूरो धणेणं कुबेरो। गईए विसिंदो जॅईए णिसिंदो। मईए महल्लो गुणीणं पहिल्लो। रमाए सुरिंदो खमाए मुणिंदो। पिऊ तुट्ठचित्तो स पुत्तेण जुत्तो। गओ रिद्वरुक्खं सरुद्दक्खंदक्खं । . णहालग्गतालं फलालं लयालं। भमंतालिसामं मणोहारिणाम। वणं तं पइट्ठो सयासि?णिट्ठो। तहिं तेण दिट्ठो मुणीणं वरिट्ठो। गजों द्वारा चन्दन घर्षित है उसके ऐसे तटपर विलासपूर्ण गृहों की पंक्तिवाली मंगलावती नामकी भूमि है। उसमें घरोंसे ऊंचा वस्तु संचय नामका नगर शोभित है। पत्ता-उसमें सुन्दर कामदेवके समान कनकप्रभ नामका राजा था। कनकमाला उसकी गृहिणी थी, मानो समुद्रकी नदी हो ॥१०॥ तब वह सुमुख जिनभक्त देवेन्द्रनाथ च्युत होकर उससे पद्मनाथ नामक पुत्र हुआ जो दिव्य गर्वरहित, सुन्दर और भव्य था । जो स्वरूपमें कामदेव, बलमें समीर, प्रतापमें शूर, धनमें कुबेर, गतिमें वृषभराज, ज्योतिमें चन्द्रमा, मतिमें श्रेष्ठ, गुणियोंमें पहला, लक्ष्मीमें देवेश, और क्षमामें मुनीन्द्र था । सन्तुष्ट चित्त पिता पुत्रके साथ मनोहर नामके वनमें गया, जिसमें समृद्ध वृक्ष थे, जो रुद्राक्ष और द्राक्षा वृक्षोंसे युक्त था। जिसमें ताल वृक्ष आकाशको छू रहे थे। जो फलों और लताओंसे युक्त था और भ्रमण करते हुए भ्रमरोंसे श्यामल था। उसने वनमें प्रवेश किया। वहीं उसने श्रेष्ठ अनुष्ठानसे युक्त तथा मुनियोंमें वरिष्ठ एक मुनिको देखा। ९. A जलणिहि । ११.१. Pउमणाहो। २. A तेए दिव्वो। ३. AP सुरूवेण । ४. P रुईणं सुचंदो। ५. A रिद्धिरुवं । ६. A सुरो दक्खदक्खं । ७. P भमंतालिमालं; P adds after this : मरालीमरालं, सुच्छाइसामं । ८.T सिद्धणिट्ठी उत्तमानुष्ठानः। Page #170 -------------------------------------------------------------------------- ________________ -४५. १२. ११ ] __महाकवि पुष्पदन्त विरचित घत्ता-तहु धुवसिर्वपुरगामिहि णरवइ सिरिहरसामिहि ।। जम्मभवणसमभग्गउ दिढु कमकमलेहिं लग्गउ ॥११॥ १२ णिवदारणि मारणि साईणिय णियतणयहु पणयहु मेइणिय । लहु ढोयवि जोयवि सुयमइउ कणयप्पहु दप्पहु पावइउ । पडिवण्णउं सुण्णउं तेण वणु चलसंदणु णंदणु गउ भवणु। सोमप्पह सुप्पह तासु पृर्य किं अक्खमि पेक्खमि णाई सूये। जिरवण्णु सुवण्णु ताहं तणउ लद्धण्णइ भण्णइ किं म[उ। ससिअक्कचकचंचलपयहिं दियहेहिं रहेहिं व संगयहिं । सई सासणि आसणि थियउ जहिं पहसियमुहु तणुरुहु थैविउ तहिं । विण्णविवि विवि ओलग्गियउ सिरियरु सिरिहरु मग्गियउ । णिग्गंथहु पंथहु खणु ण चुउ सो पोमप्पहुँ रिसिणाहु हुउ । घत्ता-सयलहं जीवह मित्तउ हेमधूलिसमचित्तउ ।। णियदेहे वि णिरीहउ वणि णिवसइ मुणिसीह उ ॥१२॥ पत्ता-जन्मभवके श्रमको नष्ट करनेवाला वह राजा शाश्वत शिवपुरके गामी उन श्रीधर स्वामीके चरणोंमें पूरी दृढ़तासे लग गया ॥११॥ नृपदारिणी, मारिणी, शाकिनी, भेदिनी आदि विद्याएं और धरती अपने प्रिय पुत्रको देकर, शुभमति दर्पको आहत करनेवाला वह कनकप्रभ प्रजित हो गया। उसने शून्य वन स्वीकार कर लिया। चंचल है रथ जिसका ऐसा पुत्र अपने घर गया। चन्द्रमाके समान कान्तिवाली सुप्रभा उसकी प्रिया थी। उसका क्या वर्णन करूं। मैं उसे पुष्पमालाके समान देखता हूँ। स्वर्णनाभ उन दोनोंका पुत्र था जो मनुष्योंमें सुन्दर था। उन्नति प्राप्त करनेपर (बड़े होनेपर ) उसे मनुष्य क्या कहा जाये ? जिनके चन्द्रमा और सूर्यरूपी चक्र पैर हैं ऐसे दिनरूपी रथोंके निकल जानेपर, जहाँ राजा स्वयं शासन और सिंहासनपर स्थित था, वहां उसने प्रहसित मुख अपने पूत्रको स्थापित कर दिया। विनय और प्रणाम कर उसने सेवा की, श्रीलक्ष्मीके कर्ता पद्मनाभ श्रीधरसे व्रतकी याचना की। निर्ग्रन्थ पथसे वह एक क्षण च्युत नहीं हुआ। इस प्रकार वह पद्मनाभ मुनि हो गये। पत्ता-वह समस्त जीवोंके मित्र थे, स्वर्ण और धूलमें समान चित्त रखनेवाले थे। अपने ही शरीरके प्रति निरीह वह मुनिसिंह वनमें निवास करने लगे ॥१२॥ ९.P पुरिगामिहि । १०P जम्ममरणसम । ११. कमलहो लग्गउ। १२. १. P णिवमारणि । २. मारणि । ३. A सइरिणिय । ४. AP पिय। ५. AP सिय । ६. A णाहत णउ । ७. P मणउ । ८. A थियउ; P णिहिउ । ९. A णविउ । १०.AP व सिरिहरू । ११. P खणिण कउ । १२. A पोमणाह; Pपउमणाहु। Page #171 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १२४ ५ १० महापुराण १३ एयारह मणहरकहियाई मयदवणं तवणें तवियाई उहोम काम विद्दावणउ तहु लीणेउ झीणड रयपैसरु णामल्लउं भल्लउं जाणियउ आराहिवि साहिवि संतमइ अववग्गहु सग्गहु मज्झि जइ उच्छण्णछिष्णमिच्छत्तर्गहि तिगुणियदह तिजलहि आउहरि तेत्तीसवास सहसंतरिउ करमेत्तु गत्तु विच्छुरियदिसुं अविहंग अंगईं गहियाई । तुंग अग खवियाई । सुहसीलहं सोलह भावणउँ । लइ लद्धरं बद्ध तित्थयरु | परिछेहु छेयहु आणियउ । जीविर्ड संप्राविउँ दिव्वगइ | निव्वाणठाण संबद्धरइ । संपुण्णपुण्णफलभुत्तिव हि । तसंखपक्खणीसासयरि । आहारु चारु जहिं अवयरिङ । जहिं णिहिल धवलु जणु णं सुजसु घत्ता - तहिं सियंगु सुच्छायड वइजयंति सो जायउ ॥ जं पेक्खिवि पेहेंहीणी भरह पुप्फदंताणी ॥ १३॥ इय महापुराणे विसट्टि महापुरिसगुणालंकारे महाकइपुप्फयंतविरइए महामन्त्र मरहाणुमणिए महाकब्वे पउमणाहवइजयंत संभवो णाम 'पंचचाकोसमो परिच्छे प्रो समत्तो ॥ ४५॥ 93 ० [ ४५.१३.१ ५. १३ केवलज्ञानियों द्वारा प्रतिपादित अविकल ग्यारह अंग उसने स्वीकार कर लिये । मदको सन्तप्त करनेवाले तपमें उन्होंने उसके ऊंचे आठों अंगोंको नष्ट कर दिया । उद्दाम कामको नष्ट करनेवाली शुभशील सोलह कारण भावनाओंका ध्यान किया। उनका रतिप्रसार लोन और क्षीण हो गया, तो उन्होंने तीर्थंकरत्वका बन्ध कर लिया और उसे पा लिया । श्रेष्ठ नामप्रकृतिको जान लिया और उत्तम पुरुषकी आयुका बन्ध कर लिया । शान्तमति वह आराधना और साधना कर दिव्यगति और जीवनको प्राप्त हुआ। जिसने निर्वाणके स्थान में अपनो रति बाँधी है ऐसे वह मुनि अवग्रह स्वर्ग में ( वैजयन्त विमान में ) उत्पन्न हुए । जहाँ मिथ्यात्वरूप ग्रह नष्ट हो गया है और जो सम्पूर्ण पुण्यफलकी भुक्तिको वहन करता है, जहां तैंतीस सागर प्रमाण आयु होती है, तेंतीस पक्षों में श्वास लिया जाता है, और तैंतीस हजार वर्ष में जहाँ सुन्दर आहार किया जाता है । जहाँ दिशाओंको विच्छुरित करनेवाला एक हाथ प्रमाण शरीर होता है और जहाँ मनुष्य मानो यशके समान सब ओरसे धवल होता है । 1 घत्ता -- वहाँ उस वैजयन्त विमान में सुन्दर कान्तिवाला वह श्वेतांग देव हुआ, जिसे देखकर पुष्पदन्त ( सूर्य-चन्द्र ) की भार्या ( प्रभा ) प्रभासे हीन हो गयी ||१३|| इस प्रकार त्रेसठ महापुरुषोंके गुणालंकारोंसे युक्त महापुराणमें महाकवि पुष्पदन्त द्वारा विरचित और महामण्य भरत द्वारा अनुमत महाकाव्यका पद्मनामवैजयन्त उत्पत्ति नाम का पैतालीसवाँ परिच्छेद समाप्त हुआ ॥ ४५ ॥ १३. १. A T मणहरणिहियाई । २. Pomits this foot. । ३. A°सीलउ | ४ A Padd after this : भावेप्णुि सिववहदावणउ । ५. P झीणउ लोणउ । ६. P रहपसरु । ७. A P संपाविउ | ८. AP उच्छिष्ण । ९. A °गिहे but gloss ग्रहे । १०. A P वित्थरियदिसु । ११. A णंदजसु । १२. A पहाणी । १३. P पंचालीसमो । Page #172 -------------------------------------------------------------------------- ________________ संधि ४६ तहु देवहु तेत्तीसंबुणिहिपरिमियाउ पुणु णिहिउ ।। काले कलियउ तं तेत्तिउ वि छम्मासंतु परिट्ठिउ ॥ध्रुवक।। तइयहुं सहसच्छि सहासवाहु अक्खइ जक्खहु सोहम्मणाहु । भो जक्ख जक्ख सयदलदलक्ख परिपालियवसुहणिहाणलक्ख । इह जंबुदीवि भरहंतरालि चंदउरि पउरि धणकैणजणालि । धरसेणु महासेणक्खु णिवह जं लंधिवि उवरिण रवि वि तवइ । सोहगें तिहुयणहिययलीण गमणेण हंसि घोसेण वीण । सियसरलतरलणयणहिं कुरंगि लक्खण णामें लक्खणहरंगि। तहु पणइणि णं ससहरहु कंति णं मुणिवरणाहहु लग्ग खंति । अट्ठमउ दयास रिमहिहरिंदु एयहु घरि होसइ जिणवरिंदु । सयणासणु भूसणु असणु वसणु कुरि पुरवरु सुंदर दलहि वसणु । घत्ता-ता भूरिचंदमउ चंदउरु चंदमुहिण तं विरइयउ ।। धणदेवीभत्तारेण खणि मोत्तियरयणहिं खइयउ ॥१।। सन्धि ४६ उस देवकी तेंतीस सागर परिमित आयु फिर समाप्त हो गयी। वह उतनी आयु भी कालके द्वारा कवलित कर ली गयी । केवल छह माह आयु शेष रही। तब हजार आँखों और बाहुओंवाला सौधर्मेन्द्र यक्षसे कहता है-"कमलके समान आंखोंवाले, और जिसने वसुधाके लाखों खजानोंकी रक्षा की है ऐसे हे यक्ष, इस जम्बूद्वीपके भरत क्षेत्रके भीतर धन-जन और अन्नसे परिपूर्ण प्रवर चन्द्रपुरमें सेनाको धारण करनेवाला महासेन नामका राजा है, उसे लाँधकर; उसके ऊपर सूर्य भी नहीं तपता। उसकी लक्षणोंको धारण करनेवाली लक्ष्मणा नामकी पत्नी है, जो सोभाग्यसे त्रिभुवनके हृदयोंमें लीन है, जो गमनमें हंस और बोलने में वीणा के समान है, जो अपने श्वेत और चंचल नयनोंसे हरिणी है। उसकी वह प्रणयिनी ऐसी थी मानो चन्द्रमाकी कान्ति हो, या मानो मुनिवरके लिए क्षांति लगी हो। दयारूपी नदीके लिए महीधरेन्द्र के समान आठवें जिनेन्द्र इनके घर जन्म लेंगे। इसलिए शयनासन, भूषण, अशन, वसन और नगरको सुन्दर बनाओ, सब कष्टोंको दूर कर दो।" पत्ता-तब चन्द्रमुख और लक्ष्मी देवीके स्वामी कुबेरने शीघ्र ही स्वर्णमय नगरकी रचना की और उसे एक क्षणमें मोतियों तथा रत्नोंसे विजड़ित कर दिया ॥१॥ १.१. A P कवलिउ । २. A सहसत्ति but gloss सहस्रपाक इन्द्रः। ३. A धणकयजणालि । ४. A वरसेणु । ५. A P सुदरु दलियवसणु । ६. P भूरिचंदसुहचंदउ । ७. A चंदमुहेणं विरयउ । Page #173 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १२६ महापुराण [ ४६. २.१ समविउलवाहियालीणिवेसु अवितुहट्टटिंटॉपएसु। वियसियवणपरिमलमहमहंतु । चलचंचरीयकुलगुमुगुमंतु । जिणवरघरघंटाटणटणंतु कामिणिकरकंकणखणखणत् । माणिककरावलिजलजलंतु सिहरग्गधयावलिललललंतु । ससिमणिणिज्झरजलझलझलंतु मग्गावलग्गह रिहि लिहिलंतु । करिचरणसंखलाखलखलंतु रवियंतहुयासणधगधगंतु । वहुमंदिरमंडियजिगिजिगंतु सद्दलदलतोरणचलचलंतु । गंभीरतूररवरसमसंतु तरुगयवसंतु णिच्चु जि वसंतु। कालायरुधूवियणायरंगु णाणारंगावलिलिहियरंगु । घत्ता-सा सुंदरि पियमणहारिणिय सुरहियगंधई मालइ ॥ 'सुहं सुत्त विरामि विहावरिहि सिविणयमाल णिहालइ ।।२।। गलियदाणचलजललवलोलिरभिंगयं पेच्छइ विसालच्छि पमत्तमयंगयं । इट्ठगिद्वितणुफंसणकंटइयंगयं वसहममलथलकमलपसाहियसिंगयं । जिसमें अश्वोंके सम और विस्तीर्ण क्रीडाप्रदेश हैं, तथा सम्पुष्ट बाजार और द्यूतप्रदेश हैं। जो विकसित वनके परिमलोंसे महक रहा है और चंचल भ्रमरोंके कुलसे गुनगुना रहा है। जिसमें जिनवरके मन्दिरोंके घण्टोंकी टन-टन ध्वनि तथा कामिनियोंके कंगनोंकी खन-खन ध्वनि हो रही है, जो माणिक्योंकी किरणावलीसे प्रज्वलित है और शिखरोंके अग्रभागकी ध्वजाओंसे चंचल है। जो चन्द्रकान्त मणियोंके निझरोंके जलसे चमक रहा है। मार्गपर चलते हुए अश्वोंसे आन्दोलित है तथा हाथियोंके पैरोंकी श्रृंखलाओंसे झल-सा रहा है, सूर्यकान्त मणियोंकी ज्वालासे धकधक करता हुआ, अनेक प्रासादोंकी शोभासे चमकता हुआ जो गीले पत्तोंके तोरणोंसे चंचल है, गम्भीर तूर्योसे शब्द करता हुआ जो तरुणजनोंसे अधिष्ठित है और जिसमें वृक्षों में नित्य वसन्त स्थित रहता है। जिसके प्रांगण कालागुरुके धुएंसे युक्त तथा नाना प्रकारकी रांगोलियोंसे लिखित हैं। पत्ता-सुरभित गन्धसे मालतीके समान अपने प्रियके मनका हरण करनेवाली, सुखसे सोती हुई वह रात्रिका अन्त होने पर स्वप्नावली देखती है ।।२।। वह विशालाक्षी स्वयं देखती है-जिसके झरते हुए चंचल मदजलके कक्षोंपर चंचल भ्रमर मंडरा रहे हैं ऐसे प्रमत्त महागजको; जिसका शरीर प्रिय गौके शरीरके संस्पर्शसे रोमांचित है, २. १. P समु जेत्थु वाहि । २. 'टेंटापवेसु । ३. P°चरणह संखला । ४. AP रविअंत । ५. A°मंडणं । ६. A समसमंतु। ७. A सुरहिगंध णं मालइ; P सुरहियगंध स मालह। ८. A सुहसुत्ति; P सुहें सुत्त । Page #174 -------------------------------------------------------------------------- ________________ - ४६. ३. २२ महाकवि पुष्पदन्त विरचित तिक्खणक्खणिद्दोरियमारियकुंज रं रत्तलित्तमुत्ताहले मंडिय केसरं । सीह मुहावाणिग्गयदाढयं इट्ठगंध से लिंधक रंब कोसयं गोमणि च दिसकुंजर सिंचणरूढयं । || दामजमलमलिमालासह परिपोसयं । पुण्यं विहुं जामिणिकामिणिदपणं उग्यं इणं पीणिय पंकइणीवणं । मणिमणिकीलणलं पड चारुहारिकल्लाणघरं घडेसं पुढं । हंसचंचुपुडेंखुडियभिसं भिसिणीहरं सेयसलिलवेला गहिरं रयणायरं । कुलिस हर केसरिकिसोरधरियासणं अवि य पायसासणजसस्स णं सासणं । इंदधामविंद इस्स णिहेलणं झत्ति दित्तजालासयछित्तणहंगणं रयणपुंज मरुणं सुसिहातमहालणं । १२७ ५ १० १५ हुयवहं च सेई पेच्छइ जालियकाणणं । और जिसके सींग स्थलकमलों (गुलाबपुष्पों ) से प्रसाधित हैं, ऐसे वृषभको; जिसने अपने तीखे नखोंसे हाथियों को फाड़कर मार डाला है; जिसकी अयाल रक्तसे रंजित मोतियोंसे शोभित है, जिसकी लम्बी दाढ़ें निकली हुई हैं ऐसे सिंहको; दिग्गजोंके द्वारा किये गये अभिषेकसे प्रसिद्ध लक्ष्मीको प्रिय गन्धवाले शैलिन्ध्र पुष्पोंके समूहको जिसमें स्थान है, और जो भ्रमरमालाकी सभासे परिपोषित हैं ऐसे पुष्पमाला युग्मको; भामिनीरूपी कामिनीके लिए दर्पण के समान पूर्णचन्द्र को कमलिनी वनको प्रसन्न करनेवाले उगते हुए सूर्यको प्रचुर जलक्रीड़ाके लम्पट मीन युगलको, सुन्दरताको धारण करनेवाले और कल्याणके घर कलशयुगलको; जिसमें हंसिनियोंके चंचुपुटोंसे कमलिनियां काटी गयी हैं, ऐसा कमलिनीगृह अर्थात् सरोवरको; श्वेत मलिलके तटोंसे गम्भीर समुद्रको; वज्र के समान नखोंवाले किशोरसिंहके द्वारा धारण किये गये आसन ( सिंहासन ) को; और भी जो इन्द्र यशके मानो शासन हो, ऐसे इन्द्रके विमानको; नागराजके भवनको; अपनी अरुण किरणोंकी ज्वालासे अन्धकारका प्रक्षालन करनेवाले रत्नसमूहको; और शीघ्र ही अपनी सैकड़ों प्रदीप्त ज्वालाओंसे आकाशके आँगनको आच्छादित करनेवाली और वनोंको भस्म करनेवाली आग को । २० ३. १. P विद्दारि । २. P मुत्ताहलमाला मंडियं । ३ AP सुहावालुयं । ४. AP रंबियं । ५. AT घडघडं । ६. A फुडखुडियं । ७. A इंदधामं वरउरवइणिहेलणं । A तमहारणं । ९. P दित्ति - जाला । १०. A हुयवहस्स जं सा पेच्छइ; P हुयवहं च सा पेच्छइ । Page #175 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १२८ महापुराण धत्ता-इय पेक्खिवि रायहु राणियइ संतोसे आहासिउ ॥ तेण वि तहु मंगलदसणहु फलु पणइणिहि पयासिउ ॥३॥ सुओ देवि होही तुहं तित्थणाहो असामण्णसंपत्तिवित्तीसणाहो । दिही आगया देवया पंकयच्छी .हिरी कंति कित्ति सिरी बुद्धि लच्छी। णिहीसेण गेहम्मि छम्मासकालं णिहित्तं सुवण्णं सुवण्णं पहालं । चइत्तस्स पक्खंतरे चंदिमिल्ले सुहोहायरे वासरे पंच मिल्ले । रिसी पोमणाहो चुओ सोहमिंदो थिओ गम्भवासे पुलोमारिवंदो। सुपासाहिवे णिव्वुए संगएहिं समुछाणहो रंधकोडीसएहिं । णहाजक्खणिक्खित्तमाणिकरहिं पउण्णेहिं मासेहिं रामकएहिं । तओ पूसमासे पडतम्मि सीए सुहे सक्कजोयम्मि एयारसीए । पहूओ पहू पुण्णपाहोहमेहो जगाणं गुरू लक्खणुप्पत्तिगेहो। १. सपायालमग्गं सतारक्कसकं खणे कंपियं झत्ति तेलोकचक्कं । घत्ता-परतेउ ण कत्थइ विप्फुरइ अंधारउ णउ रेहइ ।। जम्मणु उग्गमणु वि मुवणयलि जिणदिणणाहह सोहइ ॥४॥ ___ पत्ता-यह देखकर रानीने राजासे सन्तोषपूर्वक कहा। उसने भी अपनी प्रणयिनीसे मंगल स्वप्न देखनेके फलका कथन किया ॥३॥ हे देवी, तुम्हारा असामान्य सम्पत्तियों और प्रवृत्तियोंका स्वामी तीर्थकर पुत्र होगा। कमल नेत्रोंवाली धृति, ह्री, कान्ति, कीर्ति, श्री, वृद्धि और लक्ष्मी देवियां आ गयीं। कुबेरने उसके घरमें छह माह तक प्रभासे युक्त सुन्दर रंगके स्वर्णकी वर्षा की। चेत्रशुक्ल शुभयोगोंके आकर, पांचवींके दिन ऋषि पद्मनाथ सौधर्म इन्द्रच्युत हुआ और इन्द्रके द्वारा संस्तुत वह गर्भवासमें आकर स्थित हो गया। सुपार्श्वनाथके निर्वाण प्राप्त करनेके नौ करोड़ सागर समय बीतनेपर, जिनमें यक्षके द्वारा आकाशसे रत्नोंकी वर्षा की गयी है ऐसे नौ माह सम्पूर्ण होनेपर, पूष माहमें शुक्लपक्षकी एकादशीके दिन शुभ इन्द्रयोग और ज्येष्ठा नक्षत्रमें पुण्यरूपी जलोंके मेघ, विश्वगुरु लक्षणोंकी उत्पत्तिके घर प्रभु उत्पन्न हुए। पातालमार्गसे लेकर तारों, सूर्य और इन्द्र के साथ एक क्षणमें त्रिलोकचक्र कांप उठा। धत्ता-कहीं पर भी दूसरेका तेज नहीं चमकता था और न अन्धकार ही कहीं शोभित था; जिनरूपी दिननाथ (सूर्य) का जन्म और उदय शोभित होता है ॥४॥ ११. पणइणिहो। ४.१. P असावण्ण। २. A णिहत्तं। . A चंदमिल्ले । ४. A पुणोमारिवंदो। ५. A सुपसाहिए । ६. P पुण्णयंभोहमहो । ७. P जयाणं । ८. P सपायालसग्गं सतारं ससक्कं । Page #176 -------------------------------------------------------------------------- ________________ -४६. ५.१३ 1 महाकवि पुष्पदन्त विरचित १२९ सहसा जायउ सुरलोयखोहु वीणारवु चल्लिउ किंणरोहु । उच्छाहें रक्खस किलिकिलंति वैटुंतई भूयई णहि मिलंति । किंपुरिस के वि किं किं भणंति सद्दिट्टिदेव पुच्छिवि मुणंति । रयवंत महोरय फुप्फुयंति गंधव्व गेयसरु सँई मुयंति । अणिबद्ध पिसायउ लइ चवंति दसदिसई जक्ख रयण घिवंति । ससहरैरवितेएं महि ण्हवंति तार तारत्तणु पक्खवंति । दुग्गह गहचरियई णिक्खवंति जय णंद वड्ड सामिय चवंति । णक्खत्तई णवणक्खत्तमहिउ वंदहुं चलियाई वियाररहिउ । दाविय णियपंति पइण्णएहिं सासेहि वं चासपइण्णएहिं । णहवडणविवरमुहणिग्गेमेहिं दिसिविदिसामग्गसमागमेहिं । संगलियई मिलियई सुरउलाई भावणमाभरियई जलथलाई । घत्ता-अइरावयकुंभविइण्णकरु पत्तउ जियपरसेणहु । पुरुहूयउ पुरपासहिं भमिवि घरि पइहु महसेणहु ।।५।। शीघ्र ही देवलोकमें क्षोभ मच गया। वोगाके स्वरवाला किन्नर लोक चला। उत्साहसे राक्षस किलकारियां भरते हैं, बढ़ते हुए भूत आकाशमें मिलते हैं। कितने ही किंपुरुष किं कि का उच्चारण करते हैं, अच्छी दृष्टिवाले देव पूछकर विचार करते हैं, वेगशील महोरग फूत्कार करते हैं, गन्धर्व अपने गोत स्वर स्वयं छेड़ने लगते हैं ? पिशाच अनिबद्ध बोलते हैं, दसों दिशाओंमें यक्ष रत्नोंकी वर्षा करते हैं। चन्द्रमा और सूर्यको प्रभासे पृथ्वी अभिषेक करती है, तारागण भी अपना तारापन प्रदर्शित करते हैं ? खोटे ग्रह अपनी गृहचर्याका त्याग कर देते हैं, और वे 'हे स्वामी, जय हो, आप वृद्धिको प्राप्त हों, आप प्रसन्न हों,' यह कहते हैं। नक्षत्र भी नव नक्षत्रोंसे पूजित और विकार रहित की वन्दना करनेके लिए चले । नागोंने अपनी पंक्तिका प्रदर्शन किया, जैसे क्षेत्र हल रेखासे निबद्ध धान्योंकी पंक्ति हो, आकाश पतनके विवर मुखोंके निर्गमों और दिशा विदिशा मार्गों के समागमनोंसे देवकुल मिलकर चले। भवनवासी देवोंको आभासे जल और स्थल आलोकित हो उठे। _पत्ता-जिसने ऐरावतके गण्डस्थलपर हाथ फैला रखा है ऐसा इन्द्र, वहां आया और नगर की चारों ओर परिक्रमा देकर, शत्रुसेना को जीतनेवाले राजा महासेनके घरमें उसने प्रवेश किया।॥५॥ ५. १. सुरलोइ खोह । २. A वगंतइ । ३. P पुप्फुयंति । ४. P सयं । ५. A तेय महि; P तेयई महि । ६. P ताराउ। ७. AP वद्ध। ८. A व वासपइण्णएहिं P व वण्णपयण्णएहिं । ९. A"णिग्गएहि । १०. संवलियई। ११. P भाभारिय जल । १७ Page #177 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १3० महापुराण [४६.६.१ तओ तेण छम्मेण णिच्छम्मयाए . परं डिभयं दिण्णय अम्मैयाए । तडालग्गतारावलीमेहलालं ससिंगप्पहापिंगदिश्चककूलं। रमंतच्छराणेउरारावरम्म । दिसादीसमाणुद्धजेणिंदहम्मं । फर्णिदाणियापायरायावलितं अदिटेकलंबत किंकिल्लिवत्तं । लयामंडवासीणविजाहरिंदं । तुरंगासणासत्तकीलापुलिंदं । दरीचंदणामोयलग्गाहिकण्णं मओमत्तमायंगदंतग्गभिण्णं । गुहाकिंणरीकिंणरालत्तगेयं । सपायंतणिक्खित्तचंदक्कतेयं । णिओ सुंदरं मंदरं देवदेवो तहिं तेहिं सो णाणणिकंपभावो। पविच्छिण्णकुंभेहिं कुंभीसगामी तिलोयंतवासीहिं तेलोकसामी। गुणुप्पण्णणेहेहि णिण्णटुणेहो अकूवारखीरेहि खीराहदेहो । जिणिंदो जियारी जयंभोयमित्तो फणिंदेहिं इंदेहिं चंदेहिं सित्तो। घत्ता-तं दुद्ध पडतर जिणतणुहि कंतिई पयडु ण होतउ ॥ णं अमिउं ससंकहु वियेलियउं दिह महिहि धावंतउं ॥६॥ उस अवसरपर उस मायावी इन्द्रने (भगवान् की) निष्कपट माँके लिए दूसरा बालक दिया और वह ज्ञानभावसे निष्कम्प उस देवदेवको सुन्दर मन्दराचल पर्वत पर ले गया, जो (मन्दराचल) तटपर लगी हुई तारावलीसे युक्त है, अपने ही शिखरोंकी प्रभासे जिसके दिग्मण्डलोंके तट पीले हैं, जो रमण करती हुई अप्सराओंके शब्दसे रमणीय हैं, जिसकी दिशाओंमें ऊंचे-ऊंचे जिन मन्दिर दिखाई देते हैं, जो पद्मावतीके चरणरागसे (चरण लालिमासे) लिप्त हैं, जो अदृष्ट और एक पर एक अवलम्बित अशोकपत्रोंसे युक्त हैं, जिसके लता मण्डपों में विद्याधरेन्द्र बैठे हुए हैं, जिसमें घोड़ोंके उरासनोंपर आसक्त क्रीड़ा-पुलिन्द हैं। जिसमें नागकन्याएं घाटोके चन्दनोंके आमोदमें लगी हुई हैं, जो मतवाले गजोंके दांतोंके अग्रभागोंसे विदीर्ण हैं, जिसमें किन्नर और किन्नरियां गीतोंका आलाप कर रहे हैं, जिसने सूर्य और चन्द्रमाको अपने चरणोंके नीचे डाल रखा है। कुंभीसगामी (गजगामी) का अविच्छिन्न कुम्भों (घड़ों) के द्वारा, त्रिलोक स्वामीका त्रिलोकके अन्तमें निवास करनेवाले देवोंके द्वारा स्नेहका नाश करनेवालेका गुणोंमें उत्पन्न स्नेह करनेवालोंके द्वारा दूधको आभाके समान देहवाले जिनेन्द्रका. समदक्षीरोंके द्वारा, शत्रओंको जीतनेवाले विजयरूपी कमलके सूर्य श्री जिनेन्द्रका, नागेन्द्रों, इन्द्रों और चन्द्रोंके द्वारा, अभिषेक किया गया। पत्ता-गिरता हुआ वह दूध जिनवरके शरीरकी कान्तिसे प्रगट नहीं होता हुआ, ऐसा मालूम हो रहा था मानो चन्द्रमासे विगलित अमृत धरतीपर दौड़ रहा हो ॥६॥ ६. १. P अंबयाए । २. A°मेहलीलं; P मेहजालं । ३. AP दिच्चकवालं । ४. AP ककेल्लि । ५. A °णासंत । ६. A°लग्गाहिकिण्णं । ७. P मयमत्तं । ८. P कति । ९. P वियलिउ । Page #178 -------------------------------------------------------------------------- ________________ -४६. ७. १६ ] महाकवि पुष्पवन्त विरचित ७ वासं भूसं चरुयं दीवं । काउं पुज्जं सत्थे दिट्ठ | तं गहिऊणं भयैवं भद्दं । णाणत्तयणपुष्पसमुहं तं पच्छंता तं पणवंता चंदउरं मणितोरणेदारं उवैसमवेल्लीवासारतं सोहम्मीसाणा देवेसा बाणासणदिवड्ढसयैतुंगो उप्पाइयखाइयसम्मत्तो दो लक्खा पुत्राणं छिण्णा एस तस्स तरुणत्तणकालो तत्थ वि जायं देवागमणं वइसवणाणि वसुसंदोहे " छड्ढ लक्ख पुवाणं झीणा तं गायंता तं णचंता । आया देवा रायागारं । जणणीहत्थे दाऊणं तं । पत्ता सग्गं णाणावेसा । सेयंगो णं सेयपयंगो । इक्खाऊ कासव णिवगोत्तो । पण्णासँड्ढसहासाउण्णा । पच्छा हूओ मेइणिवालो । पारीवारवारिघडण्हवणं । भोए भुजंतस्स "ससोहे | अरिहसंखपुण्वंगविलीणा । घत्ता - अण्णहिं दिणि दप्पणयलि वयणु जोतें तें दिट्ठरं ॥ जेथे दड्ढ संसारसुहि हियउल्लडं उठिवट्ठरं ||७|| दिव्वं गंधं पुष्कं धूवं दारं सव्वं सेवाि १३१ ५ १० ७ इष्ट दिव्य गन्ध पुष्प धूप वस्त्र भूषा चरु और दीप सबके लिए इष्ट जिन भगवान्‌को देकर और शास्त्रमें निर्दिष्ट पूजा कर, और ज्ञानत्रयरूपी सघन जलके समुद्र सबके लिए भद्र उन्हें लेकर, उनको देखते हुए उनको प्रणाम करते हुए, उनको गाते हुए और नृत्य करते हुए देवता लोग, मणियोंके तोरणद्वारवाले चन्द्रपुर में राज्य प्रासादमें आये । उपशमरूपी लताके लिए वर्षा ऋतुके समान उन्हें माताके हाथमें देकर सौधर्म ईशान स्वर्गोंके नाना वेशवाले देवेश अपने-अपने स्वर्ग चले गये । उनका शरीर डेढ़ सौ धनुष ऊँचा था मानो श्वेत अंगोंवाला चन्द्रमा हो । उन्हें क्षायिक सम्यक्त्व उत्पन्न हो गया है, ऐसे वह इक्ष्वाकुवंशीय और कश्यपगोत्रीय थे । जब उनकी दो लाख और पच्चीस हजार पूर्व आयु बीत गयी, तो यह उनका यौवनकाल था । इसके बाद वह पृथ्वीके राजा बने। वहाँ पर भी देवोंका आगमन हुआ और समुद्रके जलघटोंसे अभिषेक किया गया । जिसमें कुबेर के द्वारा घनसमूह लाया गया है ऐसे शोभायुक्त भोगको भोगते हुए उनका छह लाख पचास हजार चौबीस पूर्व समय बीत गया । १५ घत्ता - एक दूसरे दिन, “दर्पणतलमें मुखको देखते हुए उन्होंने ऐसा कुछ देखा कि जिससे दग्ध संसार सुखों में उनका मन विरक्त हो गया ||७|| ७. १. AP चरुवं । २. A इटुं सिट्ठ; P ट्ठिं सिद्धं । ३ A सव्वं भद्दं । ४ A तोरणवारं । ५. P तवसमं । ६. P सतुंगो । ७. AP पण्णा सहसहासा । ८. AP हूयउ । ९. P पारावारि वारि । १०. Pसंदोहं । ११. P ससोहं । १२. A जेणित्थु दट्ठ संसारसुहि । Page #179 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १३२ महापुराण [४६. ८.१ आवेप्पिणु पंजलिहत्थएहिं दूराउ पणामियमत्थएहिं। पंचमगइसंमुहूं मउज्झुणीहिं __ पडिसौरिउ आईडलमुणीहि । मुहपयलमाणधारासिवेहि अहि सिंचिउ विहु अजुणणिवेहिं । कल्लाणाहरणविहूसियंगु पैरदिण्णदाणु णं वरमयंगु । वरचंदु सणंदणु णिहिउ रजि तहिं कालइ सुरहयविविहव जि । सिवकंखइ पहु सिवियहि चैंडिण्णु संवत्तुवणंतरि समैवइण्णु । दयविच्छिण्णीगरुईणिसीहि पूसम्मि कसणएयारसीहि । अणुराहाणक्खत्तावयारि . णिण्णेहत्तणु जुंजिउ सरीरि। गिल्लूरियि मंदिरमोहवासु लुचिवि घल्लिउ सिरकेर्सवासु । णिक्खंतु लेवि छट्ठोववासु सुहं पावइयउ रायहं सहासु। तहुं को वि ण मित्त ण को वि वेसु मज्झत्थु महत्थु विसुद्धलेसु । दंडग्गविलंबियचेलमयरि अवरहि दिणि पइसइ गलिणणयरि । घत्ता-उ करयलि पत्तलि पत्तु ण वि णउ पइ णे उरघोसणु ॥ ___णउ भूरिभूइ भुरकुंडियउ णउ 'मैसिरेहाभूसणु ॥८॥ AAAAVAN हाथ जोड़े हुए दूरसे प्रणामके लिए मस्तिष्कको झुकाते हुए, कोमल स्वरवाले श्रेष्ठ इन्द्रोंने उन्हें प्रोत्साहन दिया। जिनके मुखसे धाराजल निकल रहे हैं ऐसे धारा कलशोंसे अभिषेक किया गया। कल्याणके आभूषणोंसे विभूषित-अंग वह ऐसे मालूम होते थे मानो परदिण्णदान (दूसरोंको जिसने दान, या मदजल दिया हो ऐसा) मातंग (महागज) हो। उसने अपने पुत्र वरचन्द्रको राज्यमें स्थापित किया। देवों द्वारा बजाये गये विविध वाद्योंके उस कालमें मोक्षको आकांक्षासे प्रभु शिविकापर चढ़े और सर्वतु वनके भीतर अवतीर्ण हुए। पूस माहको, दया (कल्याण दीक्षा) से विस्तीर्ण, कृष्ण एकादशी की रात्रिमें अनुराधा नक्षत्रका अवतार होनेपर, वह शरीरसे स्नेहहीन हो गये, अर्थात् उन्होंने दीक्षा ग्रहण कर ली। घरके मोह और वर्षों को दूर कर तथा सिरके बालोंको उखाड़कर फेंक दिया। छठा उपवास करते हुए और संन्यास लेते हुए एक हजार राजा भी सुखपूर्वक संन्यासी हो गये। उनका न तो कोई मित्र था और न कोई द्वेष्य । वह मध्यस्थ महार्थ और विशुद्ध लेश्यावाले थे। दूसरे दिन, जिसमें दण्डोंके अग्रभागमें वस्त्रध्वज लगे हुए हैं, ऐसे नलिन नामक नगरमें वह प्रवेश करते हैं। ___घत्ता-न करतलमें पत्तल, न पात्र है और न पैरोंमें धुंघरुओंकी ध्वनि है, न प्रचुर भस्म है और न अकुटिल भौंहें हैं और न श्मश्रुरेखाका भूषण है ।।८।। ८.१. A पणाविय । २. A पडिवारिउ । ३. P परिदिण्ण । ४. P चडंतु। ५. A संपत्तु । ६.P समयवंतु। ७. P मोहपासु। ८.AP सिरि केसपासु । ९. A सह। १०. P तहु मित्त अमित्तु ण को वि देसु । ११. Pण वि। १२. APJउ कुंडियउ। १३. A ससिरेहा । Page #180 -------------------------------------------------------------------------- ________________ -४६. १०.२] महाकवि पुष्पदन्त विरचित हुंकारु ण मुयइ ण देहि भणइ णउ सण्णइ णउ गंधव्वु झुणइ । परमेसरु पंचायारसारु दक्खवइ वीर भिक्खावयारु । जा छुडु जि भवणप्रंगणु पइठु ता सोमयत्तराएण दिछ । कर मउलिवि करेवि उरुत्तरीउ संचि पुण्णंकुरपवरबीउ। काएं वयणे सुद्धे मणेण आहारदाणु तहु दिण्णु तेण। दुंदुहिसरु सुरसर पुप्फविट्ठि घणु वैरिसिउ हूई रयणविहि। तहिं चोजई पंच समुग्गयाई पालंतु संतु संतई वयाई। थिउ तिण्ण मास छम्मत्थु ताव णायावणिरहतलु पत्तु जांव । फग्गुणि दिणि सत्तमि किण्हवक्खि अवरहइ तहिं णिक्खवणरिक्खि । छट्टेणुववासें केवलक्खु उप्पाइउं णाणु विवजियक्खु ।। घत्ता-कल्लाणि चउत्थइ जइवइहि सुरयणु दिसहिं ण माइउ ॥ अहिरामें अहिणवभत्तिवसु अहिहु अहीसरु आइउ ॥९॥ लोयालोयविलोयणणाणं सिरिणाहं ससहरकंतं पयडियदंतं कंकालं थुणइ मियंको अक्को सक्को मुणिणाहं । हत्थे' मूलं. खंडकवालं करवालं । ९ न हुंकार करते हैं, और न यह कहते हैं कि 'दो'। न क्लान्त होते हैं, न गन्धर्व गाते हैं, फिर भी पाँच प्रकारके आचारोंमें श्रेष्ठ वीर परमेश्वर (चन्दप्रभु) भिक्षाके अवतारको दिखाते हैं । जैसे ही वह शीघ्र घरके आंगनमें प्रवेश करते हैं, वैसे ही राजा सोमदत्तने उन्हें देख लिया, हाथ जोड़कर और उत्तरीयको उरपर करते हुए उसने पुण्यरूपी अंकुरोंके प्रवर बीज इकट्ठे कर लिये। शुद्ध मन-वचन-कायसे उनके लिए उसने आहार दान दिया। दुन्दुभिस्वर, देवोंका साधुवाद, पुष्पवृष्टि धन बरसा और रत्नोंकी वर्षा हुई । इस प्रकार वहां पांच आश्चर्य प्रकट हुए। शान्त व्रतोंका परिपालन करते हुए जब वह छद्मस्थ तीन माह स्थित रहे तो वह नागवृक्षको तलभूमिपर पहुंचे । फागुन माहके कृष्णपक्षको सप्तमीके दिन, अपराल में अनुराधा नक्षत्रमें छठे उपवासके द्वारा उन्हें इन्द्रियोंसे रहित केवल नामका ज्ञान केवलज्ञान प्राप्त हो गया। पत्ता-उन यतिवरके चौथे कल्याणमें देवता लोग दिशाओं में नहीं समा सके। सौन्दर्यसे अभिनव भक्तिके वशीभूत होकर नागराज भी पृथ्वीको लक्ष्य करके आया ।।९।। चन्द्र, सूर्य और इन्द्र लोकालोकका अवलोकन करनेवाले ज्ञानसे युक्त लक्ष्मीके पति मुनिनाथ (तीर्थकर) की स्तुति करते हैं, 'जो चन्द्रमाके समान कान्तिवाले हैं, जिनके दांत प्रकट हैं, जो ९.१. A reads a as band basa.। २. AP पंगण । ३. A सोमदत्त । ४. A कर मउलि करेविणु रंतरिउ; P कर मउलिकरेविणु उत्तरीउ । ५. A सिंचिउ। ६. AP पुण्णंकूरु। ७. AP वरिसिवि । ८.A उप्पायउं; Pउप्पण्णउं । ९. A अहह । १०.१ A हत्थे संडं फूलकवंडं करवालं । Page #181 -------------------------------------------------------------------------- ________________ थुिया। १५ १३४ महापुराण [४६. १०.३___ कडिहि रवाला किंकिणिमाला झणेझणिया पासे रामा मुंद्धा सामा घणथणिया। मईरावाणं मिटुं खाणं मृगमासं दाढाचंडं कुद्धं तोंडं जणतासं । ५ पेयावासो रक्खसभीसो णियठाणं . चित्तविचित्तं रम्मं चर्म परिहाणं । एसो वेसो देवे जाणं धम्माणं हाणी उज्झियसुत्तो हिंसाजुत्तो रयखाणी। जे संरगायणवायणणचणलद्धरसा वामच्छीणं रत्ता मत्ता कामवसा। कट्ठा दुट्ठी णिट्ठाणट्ठा णायच्या महमिच्छेणं महत संसरमाणो''भवभमभग्गो मुत्तदुहो भो चंदप्पह दरिसियसुप्पहे तुह विमुहो। १० पई ण मुणंतो पई ण थुणंतो कयमाओ आसो मेसो"महिसो हंसो हं जाओ। छिंदण भिंदण कप्पण पउलण घयतलणं पत्तो तिरिए पुणरवि णरए णिहलणं । परघरवास परकयगासं कंखंतो णीरसपिंडं तिलखलखंडं भक्खंतो । परलच्छीओ धवलच्छीओ सलहंतो अलहंतो णियहंतो दीणो हं होंतो । कउलवियके जोइणिचक्के रइधरणी लोयणगामिय हा मई रमिया परघरिणी । घत्ता-मई "विप्पे होइवि आसि भवि पसु मारिवि पलु भुत्त ।। गंडयहु 'हँड्ड हरिणयहु अइणु देव पवित्तु पवुत्तउं ॥१०॥ अस्थियोंसे युक्त हैं, जिनके हाथमें त्रिशूल है, खण्डित कपाल और तलवार है, कमरमें शब्दयुक्त झनझन करती हुई किंकिणीमाला है, पासमें सघन स्तनों की मुग्धा श्यामा है, मदिरापान है, पशुमांसका मीठा खाना है, जो दाढ़ोंसे प्रचण्ड, क्रुद्ध भूखवाले और जनोंको त्रस्त करनेवाले हैं, राक्षसोंसे भयंकर मरघट जिनका अपना निवास है। चित्र-विचित्र सुन्दर चर्म जिनका परिधान है। जिनका इस प्रकारका रूप है, ऐसे देवके ज्ञान में धर्मको हानि है । शास्त्रविहीन, हिंसासे सहित वह पापकी खान हैं । जो स्वरोंके गाने-बजाने और नाचने में रस प्राप्त करते हैं और कामके वशी होकर सुन्दरियोंमें रत और मत्त हैं, जो कठोर दृष्ट, निष्ठासे भ्रष्ट न्यायसे च्युत हैं, बुद्धिहीन मिथ्यादृष्टिके द्वारा उनकी भी स्तुति की जाती है। संसार में परिभ्रमण करनेवाला भवभ्रमणसे भग्न, दुःखको भोगनेवाला वह, सुपथके प्रदर्शक हे चन्द्रप्रभ, तुमसे विमुख है। वह तुम्हें नहीं मानता है, तुम्हारी स्तुति नहीं करता है, माया करनेवाला वह, मैं अश्व-मेष-महिष और हंस हुआ हूँ। छेदा जाना, भेदा जाना, काटा जाना, पकाया जाना, घीमें तला जाना (इन्हें) तिर्यंचगतिमें प्राप्त करता है, फिर नरकमें वह दला जाता है। दूसरेके घरमें निवास, दूसरेका दिया भोजन चाहता हुआ, नीरस आहार तिलखलके खण्डोंको खाता हुआ दूसरेकी धवल आंखोंवाली स्त्रीकी प्रशंसा करता हुआ, नहीं पाकर अपनी हत्या करता हुआ मैं दीन हुआ हूँ। चार्वाकोंके एक भेद योगिनीचक्रमें अफसोस है कि मैंने रतिकी भूमि देखी और परस्त्रीका रमण किया। पत्ता-मैंने विप्र होकर, जन्ममें पशु मारकर मांसका भक्षण किया हुआ है। गेंडे की हड्डियों और हरिणोंके चर्मको हे देव, मैंने पवित्र कहा है ॥१०॥ २. A शणिझुणिया। ३. A सुद्धा। ४. P महरापाणं। ५. AP मिगमासं । ६. AP omit हाणी। ७. AP रयखाणं । ८. AP सुरगायण । ९. AP तुद्रा। १०. A णिहाणट्रा। ११. AP भवभय । १२. Aसुहपय; P"सुहपह। १३. AP हंसो महिसो। १४. P कयपरगासं । १५. A खडखंडं। १६. A रघरिणी । १७. विप्पह होइवि । १८. AP हडु हरिणह अयणु । भूत हा Page #182 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४६. १२. ३ ] महाकवि पुष्पवन्त विरचित १३५ णिद्धम्महं मासाहारियाहं रसलोलहं णियपरवेइरियाहं । तुहुं देव ण होसि सुसामि जाहं अजिणु वि अजिणहं चुकइ ण ताहं । महयालइ गाइ वि जासु वज्झ हो हो किं वेएं तेण मज्झ । एंव हि सुदयावर तुहुं जि सरणु तुह पायमूलि महुं होउ मरणु। बलदेवहं अग्गइ देहि तिण्णि तहु गणहर सुंयहर सहस दोण्णि । जे परमविराय वसंति रण्णि ते तहु मुणिसिक्खुव लक्ख दोण्णि । णहु सहसई पुणु चउरो सयाई सिक्खंति सत्थु गुरुसम्मयाई । अहँसहसइं सावहिलोयणाई अट्ठारहर्संहस णिरंजणाहं । ते चोइस विकिरियागुणीहिं वसुसहसई मणपजवमुणीहिं । घत्ता-पिंडीदुमु चमरइं दिव्वझुणि कुसुमवरिसु सियछत्तई ।। भामंडलु दुंदुहि सुरवरहिं जिणचिंधाई णिउत्तई ॥११॥ भयसहसई छसय विवाइयाहं छलहेउजाइकुलघाइयाहं । भणु असीयसहासई तिण्णि लक्ख संजमधारिणिहिं वहति दिक्ख । सावयह लक्ख गुत्तीसमाण ते अणुवयणारिहिं वयपमाण । हे देव, जो धर्महीन, मांसाहारी, रसलोलुप स्वपरके शत्रु हैं, आप उनके स्वामी नहीं हैं। जिन भगवान्से रहित जिन्होंने मृगचर्म नहीं छोड़ा, उनके आप स्वामी नहीं हैं। यज्ञमें जिसके लिए गाय वध्य है, हो-हो ! उस वेदसे मुझे क्या करना। हे सुदयावर, इस समय तुम्हीं मेरीशरण हो, तुम्ह रणोंके मलमें मेरी मत्य हो। उनके तेरानबे गणधर थे, दो हजार पूर्वधारी थे, जो परम विरक्त और वनमें निवास करते थे, ऐसे उनके दो लाख चार सौ शिक्षक मुनि थे जो गुरुसम्मत शास्त्रोंकी शिक्षा देते थे। आठ हजार अवधिज्ञानी थे। निर्विकार केवलज्ञानी ( आठ हजार सहित अट्ठारह हजार अर्थात् १० हजार) दस हजार, विक्रिया-ऋद्धिके धारक मुनि चौदह हजार, और मनःपयेय-ज्ञानी आठ हजार थे। - पत्ता-अशोक वृक्ष, चामर, दिव्यध्वनि, पुष्पवर्षा, श्वेतछत्र, भामण्डल, दुन्दुभि जिनवरके ये चिह्न देवताओं द्वारा कहे गये हैं ।।११।। छल जाति हेतु समूह का खण्डन करनेवाले सात हजार छह सौ वादी मुनि थे। तीन लाख अस्सी हजार संयम को धारण करनेवाली आर्यिकाएं दीक्षाको धारण करती हैं, तीन लाख श्रावक ११.१. P मंसाहार। २. P परवेरियाहं। ३. AP सुदयावरु। ४. A omits portion from सुयधर down to मुणि in 66; K writes it in marg। ५. A दहसहसई। ६. A adds after this; चउसहस ताह पुवंधराह। ७. A दोसहसई। ८. P जाणिय दहसहस । ९. P ते चउदस । १०. Aरिदुसयइ सुविक्किरिया । १२. १ A तासु; K तासु but corrects it to छसय । २. P जाउ। ३. A चरुरासीसहसई। ४. P तेहिं अणुवय । Page #183 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १३६ महापुराण [४६. १२. ४देवहं देविहिं णउ छेउ अस्थि तेलोकसूरु केवलगभत्थि। चउवीसंह पुत्वंगहं विहीणु अण्णु वि मासहिं तिहिं मुणहि झीणु । वसुमइ विहरिवि तेणेक्कु पुवु संबोहि वि मणुयसमूहु भन्नु । संमेयहु सिहरु समारुहेवि थिउ जोउ मासु पेरंतु लेवि । णामइंगोत्तइं वेयणिययाई आउट्ठिदिसरिसई लहु कयाई। कम्मइयतेयउयारियाई . तिणि वि अंगई ओसारियाई। घत्ता-सियपक्खहु फग्गुणसत्तमिहि परमविसुद्धिइ रिद्धउ ॥ जेट्ठहि णिट्ठियेमलु बहुरिसिहिं सहुं चंदप्पहु सिद्धउ ।।१२।। १३ जाहस्स णिवाणि तूराइं वज्जति थोत्ताई किज्जति दीणाई संजंति चंदणई सीयलई जिणतणुहि धिप्पंति अग्गिद पणमंति दीवोहँ दिज्जंति। पंचमइ कल्लाणि। मंगलई गिज्जंति । दाणाई दिज्जंति । दुरियाई खिज्जति । सुरहियई परिमलई। घुसिणेण 'सिप्पंति । मउँडोह दिप्पंति । wwwwwwwwwww थे। अणुव्रतों का पालन करनेवाली नारियां (आर्यिकाएं) पांच लाख थीं। देवों और देवियोंका अन्त नहीं था। केवलज्ञानरूपी किरणवाले त्रैलोक्य सूर्य जिन चौबीस पूर्वांगोंसे रहित और भी तीन माह कम समझो। एक पूर्व तक धरतोपर विहार कर और भव्य मनुष्यसमूहकोसम्बोधित कर सम्मेदशिखरपर आरोहण कर एक माह पर्यन्तका योग लेकर, नाम-गोत्र वन्दनीय को आयुके समान स्थितिवाला कर, औदारिक-तैजस और कार्मण तीनों शरीरोंको उन्होंने हटा दिया। पत्ता-फागुन माह के शुक्लपक्षकी सप्तमोके दिन परम विशुद्ध ज्येष्ठा नक्षत्रमें मलको नाश करनेवाले चन्द्रप्रभु अनेक मुनियोंके साथ सिद्ध हो गये ॥१२॥ १३ स्वामीके पांचवें कल्याण निर्वाण होनेपर नगाड़े बजते हैं। मंगल गीत गाये जाते हैं, स्तोत्र रचे जाते हैं, दान दिया जाता है, दोन सुखको प्राप्त हो जाते हैं, दुरित नष्ट हो जाते हैं, शीतल चन्दन और सुरभित परिमल जिनके शरीरपर डाले जाते हैं, केशरसे उसका लेप किया जाता है, अग्नीन्द्र ५. AP देविउ । ६. AP चउबीसई पुव्वंगहं । P अउदारियाई । ८. विसिद्धिइ । ९. A णिट्ठिवि । १३. १. A णाणस्स णिव्वाण । २. AP सज्जंति । ३. वंदणई। ४. A सुरहीअइंधणईं; P सुरहियई इंध गई। ५. A खोणियहि धिप्पंति । ६. AP लिप्पंति । ७. A मुणि हुववहं दंति; P मणिहयवहं देंति । ८. AP omit दीवोह दिज्जति । Page #184 -------------------------------------------------------------------------- ________________ -४६. १३.१९ ] धूवोहधूमेण महुयररविलाई घल्लंति देविद जीहासहासेहि देवीउ णचंति 'विऊण तं तित्थु जिहे गुणकहाकारि सग्गं सलीलेण "ससिकं तितेण ૧૪ महाकवि पुष्पदन्त विरचित घत्ता - इये भरहखेत्तणरय दियहु जगचं दुज्जयचंदहु || किं १८ " णाणाविहोएणे' । पंजलिहिं फुल्लाई । वणंति णाद | विब्भमविलासेहिं । सिद्धं समश्चंति । सो सयलु सुरसत्थु । पत्तो पुलोमारि । करिणा मयालेण । रसंतेण । १५ धीरं पुप्फवंतु ह जडु करमि चंदप्पहहु जिणिदहु ||१३|| इय महापुराणे तिसट्टि महापुरिसगुणालंकारे महाकइपुष्पयंतविरइए महामन्वमरहाणुमणिए महाकवे चंदप्पणिष्वाणगमणं णाम छायाळीसमो परिच्छेओ समत्तो ॥ ४ ॥ ॥ चंदर्हचरियं समत्तं ॥ इस प्रकार त्रेसठ महापुरुषोंके गुणालंकारोंसे युक्त महापुराणमें महाकवि पुष्पदन्त द्वारा विरचित और महामव्य भरत द्वारा अनुमत महाकाव्यका चन्द्रप्रभ निर्वाणगमन नामक छियाकीसवाँ परिच्छेद समाप्त हुआ ॥४६॥ १३७ प्रणाम करते हैं, उनके मुकुटसमूह प्रज्वलित होते हैं, दीपके समूह दिये जाते हैं, धूप समूहके धुएँ और विशिष्ट भोगोंके साथ देवेन्द्र अपने हाथोंकी अंजलियोंसे, भ्रमरके शब्दोंसे युक्त पुष्प बरसाते हैं । नागेन्द्र अपनी हजारों जीभोंसे स्तुति करते हैं, देवियां विभ्रम विलासों के साथ नृत्य करती हैं तथा देवकी समर्चा करती हैं। वह समस्त सुरसमूह उस तीर्थंकी वन्दना कर उसी प्रकार स्वर्गको गया जिस प्रकार इन्द्र लीलावाले मदालस चन्द्रकान्तिके समान दांतवाले धोरे-धीरे गरजते हुए हाथी के साथ स्वर्गं गया । १० घत्ता - जो यहाँ भरतक्षेत्र के लोगोंके लिए दिवस और विश्वरूपी कुमुदके लिए चन्द्र हैं ऐसे चन्द्रप्रभ जिनेन्द्रके वर्णनमें जड़ कवि पुष्पदन्त क्या करे ? ॥१३॥ १५ ९. A धूमोहणीलाउ । ११. AP णिग्गंति जालाउ । ११. AP add aftar this : णिरसियअणंगाई, उज्झंति. अंगाई | १२. AP णमिऊण तं वेत्थु । १३. AP जिणं । १४. A ससिकंतदंतेण । १५. A वीरं । १६. A इह । १७. AP भरहखेत्ति पर । १८. किम । १९. AP omit this line I १८ Page #185 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ५ १० सुविहिं सुविहिपेयासणं भुवणणलिणवणदिणयरं होखित्ततारं सुहामो सासं पदिट्ठ दिसासुं अरीणं अगम्मं हयं जेण कम्मं गयासाविहाणं सुरिंदहिधीरो पयोगहीरो दहीगाइगो कारुण्णभावो कुसिद्धंतवारो जो मोहभंतो संधि ४७ सयमहवंदियसासणं ॥ वंदे णवमं जिणवरं ॥ ध्रुवकं ॥ १ सवण्णेण तारं । सया जस्स सासं । रिसिं रक्खियासुं । मोण गं मं । जगे जस्स कम्मं । णिहाणं विहाणं । सभत्ताण धीरो । अकंतंगहीरो । अमोहो विगोai | भाव । सुदितवारो । ण जम्मोहवतो । संधि ४७ सुविधिका प्रकाशन करनेवाले, इन्द्रके द्वारा जिनका शासन वन्दनीय है ऐसे भुवनरूपी कमलवनके लिए दिवाकर नौवें तीर्थंकर सुविधि ( पुष्पदन्त ) को में नमस्कार करता हूँ । १ जिन्होंने अपने नखोंसे आकाशके तारोंको तिरस्कृत कर दिया है, जो अपने वर्णंसे स्वच्छ हैं, जिनके श्वास सुख और आमोदमय हैं, जिनका मुख सदेव शोभामय है, जिन्होंने दिशामुखोंको उपदिष्ट किया है, जो प्राणियोंके प्राणोंकी रक्षा करनेवाले हैं, जिन्होंने शत्रुओंके लिए अगम्य भूमि और लक्ष्मी छोड़कर कर्मोंका नाश किया है, विश्वमें जिनका काम (नाम) है। जिनका विधान और धर्मोपदेश विधान फल की इच्छासे रहित है । जो सुमेरुपर्वतकी तरह गम्भीर हैं, जो अपने भक्तोंके लिए बुद्धि देते हैं, जो समुद्रकी तरह गम्भीर हैं, जो शरीरसे स्त्रीका त्याग कर देनेवाले महादेव हैं। जो धृतिरूपी गायकी रक्षा करनेवाले गोप (विष्णु) हैं। मोह और गवंसे रहित हैं; जो कारुण्य भावसे युक्त हैं, जो लोगोंको पदार्थका स्वरूप बतानेवाले हैं, खोटे सिद्धान्तोंका निवारण करनेवाले और अनन्त स्वरूपोंका अन्त देखनेवाले हैं। जो मोहसे भ्रान्त नहीं हैं और न जन्मके P gives, at the beginning of this Samdhi, the stanza: for which see note on page 45 A and K do not give it. १. १. PT सुविहियसासणं । २. P. वंदिवि । ३. A हुषिखत्ततारं । ४. A अगोवो । ५. P सुसिद्धंतपारो । Page #186 -------------------------------------------------------------------------- ________________ -४७ २.८ ] महाकवि पुष्पदन्त विरचित मोयणं तं । जिणा पुप्फयं तं । दयाधम्मँछित्तं । मामो अनंतं जिणं पुप्फयंतं हत्थे छित्त सया जस्स सीलं पासे संतो महीदणमारो घत्ता - तहु वरचरियविसेसयं मेल्लह मोह विडंबणं दीवि खरंसुदीवि कुसुमियतरु पुव्वविदेहि तासु मंथरगड् णवलवंग पल्लवसुरहियजले खयरी सिणिघुसिणरसपीयल तडवरविडविपडियणोणाहल देहूँ णिलोल माणसूयर उल जिणपडिमा इव सार्वयसंगिण उत्तर तीर ताहि हयखलवइ बुहाणं सुसीलं । खणेण इसतो | कओ जेण मारो। आयण्णह महिमासयं ॥ अथिरं घर घरिणी धणं ॥ १ ॥ २ पुक्खरद्धि पुवामरमहिहरु । णीरगहिर सी सीयाणइ । मज्जमाण गज्जिरवर मर्येगल । गुरुतरंग घोलिरम हुलिह चल । कीलियमहिसं वंदहयणाहल | पक्खितुंडपत्रिइंडियसयदल | किं वणिज्जइ दिव्वतरंगिणि । अस्थि भूमि णामे पुक्खलवइ । १३९ १५ २० युक्त हैं, ऐसे रतिका मोचन करनेवाले अनन्त जिन पुष्पदन्तको में नमस्कार करता हूँ । जिन्होंने कामदेवको अपने हाथसे नहीं छुआ। जिनका शील सदैव दयाभावसे स्पृष्ट है और पण्डितोंके लिए सुशील (व्रतों) का प्रकाशन करनेवाला है। धरतीपर प्राणियोंको मृत्यु देनेवाले विद्यमान कामदेवको जिन्होंने एक क्षण में नष्ट बाणोंवाला बना दिया । ५ घत्ता - ऐसे उन पुष्पदन्तके सैकड़ों महिमावाले श्रेष्ठ चरित्र विशेषको सुनो। मोहकी विडम्बना अस्थिर घर-गृहिणी और घरको छोड़ो || १ || २ सूर्यको तीव्र किरणोंसे दीप्त पुष्करार्ध द्वीपमें कुसुमित वृक्षोंवाला पूर्वं सुमेरुपर्वत है । उसके पूर्वविदेह में मन्थरगतिवाली जलसे गम्भीर शीतल शीतोदा नदी है। जिसका जल नवलवंगोंके पल्लवोंसे सुरभित है, जिसमें नहाते हुए और गर्जित शब्दवाले मैगल हाथी हैं, जो विद्याधरियोंके स्तनोंके केशररससे पीली है, जो बड़ी-बड़ी लहरोंपर व्याप्त भ्रमरोंसे चंचल है, जिसमें तटवर्ती वृक्षोंके नाना फल गिरे हुए हैं, जिसमें भैंससमूह, अश्व और भील क्रीड़ा कर रहे हैं, जिसमें शूकर-कुल कीचड़ से खेल रहा है, जिसमें पक्षिसमूहके द्वारा कमल खण्डित कर दिये गये हैं, जो जिन प्रतिमाके समान सावयसंगिनी (श्रावक संगिनी, श्वापद संगिनी) है, ऐसी उस दिव्य नदीका क्या वर्णन किया जाये । उसके उत्तर तटपर खल राजाओंका नाश करनेवाली पुष्कलावती नामकी भूमि है । ६. A छिण्णं । ७. छिण्णं । ८. A घरणी । o २. १. AP सीयल | २. A जले; P°जलु । ३. P गज्जियं । ४. A ° मयगले; P मयगलु । ५. A 'पलियं । ६. AP महिसविद । ७. A दहिणीलो ं । ८. सिंगिणि । ९. A उत्तरतीरे । Page #187 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १४० १० ५ १० पुरि णहसिरि व भमालाकंतिहि राउ महापउमड परमाणणु धत्ता - करतरवारिवियारिया विडिय सूर वर्णगया परियाणिय णिव अत्थाणत्थहु आपणु अक्ख वणवालें तं णिणिवि सो रइयरहंत हु वंद वंद णिज्जु जो बंदहुं जिह जिह तेर्णे देउ णिज्झाइउ भिचलोउ दूसणु परलोयहु णारि मारि भीसण ते दिट्ठी पुत्तहु बालकमलदलणेत्तहु मुक्कडं घरु बहुदुक्खहं भंडरं घत्ता - सुयरंतो जिणपुंगमं पालइ मुक्कणियंगउ महापुराण पंडु ""पुंडरिंकिणि घरपंतिहि । परमविलोयणु पउमामाणणु । जेण रिऊ संघारिया । णासिवि भीरु वणं गया ||२|| ३ एकहिं दिणि तहु अत्थाणत्थहु । नृ ऋणु भूसिउं तिहुवणवालें । दहन्ति गउ अरहंतहु । इंदचंदणाईंदणरंदहुँ । तिह तिह सो णिव्वेड पराइउ । भोड गणित सरिसउ फणिभोयहु । हियवs विसयविरन्ति पइट्ठी । देवि धैरत्ति झत्ति धणयन्त्तहु । लइ उ संसारतरंडउं । इसि प्रीणिंदियसंजमं ॥ सुयएयारह अंगउ ||३॥ उसमें गृहपंक्तियोंसे सफेद पुण्डरीकिणी पुरी नक्षत्रमाला की कान्तिसे आकाशलक्ष्मीकी तरह जान पड़ती है, उसमें कमलके समान आँख, हाथ और मुखवाला महापद्म नामका राजा था । घत्ता - जिसके द्वारा हाथकी तलवारसे विदारित और संहारित शूरवीर शत्रु घायल होकर गिर पड़े और भागकर वनमें चले गये ||२॥ [ ४७.२.९ ३ अर्थ - अनर्थको जाननेवाले उस राजाके दरबार में आकर एक दिन वनपालने कहा, "हे राजन्, वन तीन कालकी शोभासे विभूषित हो गया है ।" यह सुनकर वह कामदेवका अन्त करनेवाले अरहन्तको वन्दनाभक्ति करने के लिए गया । इन्द्र, चन्द्र, नागेन्द्र और नरेन्द्रोंके समूहके द्वारा वन्दनीय उनकी उसने वन्दना की । जैसे-जैसे उस राजाने देवका ध्यान किया, वैसे-वैसे वह निर्वेदको प्राप्त हो गया । (उसने सोचा कि भृत्यलोग परलोकके लिए दूषण हैं, उसने भोगोंको नागके फनकी तरह समझा, उसने नारीको भीषण मारीके रूपमें देखा, उसके हृदयमें विषयोंके प्रति विरक्ति प्रवेश कर गयी । बालकमलके समान आँखोंवाले अपने पुत्र धनवत्तको शीघ्र धरती देकर अनेक दुःखोंके पात्र घरका परित्याग कर दिया, और संसारसे तारनेवाले व्रतको स्वीकार कर लिया । घत्ता - जिनश्रेष्ठका स्मरण करते हुए वह मुनि प्राण और इन्द्रियोंके संयम और कामदेवसे रहित एकादश श्रुतांगों का पालन करते हैं ॥३॥ १०. A पुंडरिगिणि । ३. १. AP णिव । २. AP तं णिसुणेवि रद्दयं । ३ A वंदणभत्ति । ४. P देउ तेण । ५. P परित्ति उत्ति । ६. AP वउ । ७. A सुमरंतो जिणपुंगवं; P सुमरंत हो जिणपुंगमं । ८. AP पाणिि । Page #188 -------------------------------------------------------------------------- ________________ - ४७.५.३] महाकवि पुष्पदन्त विरचित णारीचिंतणु णे करइ दंसणु गंधु मल्ल सरु उपायणु तं परिच्छु जहिं रोसहु भाविवि भावणाउ नयजुत्तिउ कम् अहम् णिणु णिसिद्धउं संणासणेण जोईसरु अड्ढाईज्जहत्थतणु सुंदरु सासु सुणिह दर्शमासहि ओहिणामणा परिक्खइ कार्ले कालाणणु संप्रावि धत्ता - दिण्णविवक्खासंकयं सुहलिय सुहमाणियसिवं जंबुदीवि रविदीवयदरिसइ धरियपरमहिवइबंदिहि कासवगोत्तहु गुत्तस संकहु ४ संभाणु उ करफंसणु । णउ अइमत्तपाणेरसभोयणु । होइ सूइ माणाइयदो सहु । दंसणसुद्धिविणयसंपत्तिउ । तित्थयरत्तगोत तें बद्धरं । जायउ प्राणैयकपि सुरेसरु । वीससमुहमाणजीवियधरु | भुंजइ वीसहिं वरिस सहासहिं । धूम पह महि जांव णिरिक्खइ । थिइ छम्माससेसि तहु जीविइ । मुहसोहाजिय पंकयं ॥ भणइ कुलिसि दविणाहि ||४|| ५ भरहें मुत्तइ भारहवरिसइ । भरियहि यरिहि काळंदिहि | वइरिरणंगणि वज्जिय संकहु । १४१ ५ ४ वह न तो नारीका चिन्तन करते और न दर्शन । न भाषण और न हाथ से संस्पर्श, न राग को उत्पन्न करनेवाले गन्धमाल्य ओर स्वर, और न प्राणोंको अत्यन्त मत्त बनानेवाले रसभोजन । उस वस्तुका परित्याग कर देते, जिससे मानादि दोषों और क्रोधकी उत्पत्ति होती । दर्शनविशुद्धि, विनय सम्पन्नता आदि नययुक्त भावनाओंका चिन्तन कर, कर्म-अधर्म और निदानका निषेध कर उन्होंने तीर्थंकर गोत्रका बन्ध कर लिया। संन्यासमरणसे मरकर वह योगीश्वर प्राणतस्वर्गमें सुरेश्वर हुए। साढ़े तीन हाथका सुन्दर शरीर । बीस सागर प्रमाण जीवको धारण करनेवाला, सुखनिधि वह दस माह में सांस छोड़ता और बीस हजार वर्षमें भोजन करता । वह अवधिज्ञानके द्वारा घूमप्रभ नरक पर्यन्त भूमिको जानता । समयके साथ कालकी अवधि समाप्त होनेपर तथा उसका जीवन छह माह शेष रह जानेपर । १० घत्ता - शत्रुपक्षको शंका उत्पन्न करनेवाले, तथा अपने मुखकमलोंको जीतनेवाले सुफलित सुख और शिवको माननेवाले कुबेरसे इन्द्रने कहा ||४|| ५ जिसमें सूर्यरूपी दीपक दिखाई देता है ऐसे जम्बूद्वीपमें भरतके द्वारा भुक्त भारतवर्ष में, जहाँ बलपूर्वक राजारूपी वन्दियोंको पकड़ रखा है, ऐसी आदमियोंसे संकुल काकन्दी नगरीका, ४. १. P करइण । २. पाणु रसं । ३. P वासु । ४. Aणियाणि । ५. AP पाणयकवि । ६. A अद्धाहियतिहत्य; P आहट्ट जि हत्थ । ७. Pमाणु । ८. P सुहीणिहि । ९. A दसमासहि । १०. P ओहिणाणमाणेण । ११. AP संपाविइ । ५. १. P मंड । Page #189 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १४२ ५ १० ५ जूरहि मुत्ताहलमंडियसुग्गीवहु वासवकुलिस व मज्झे खामहि विद्धंसियदुद्धरमण सिय सरु हं तुहुं करि चंगरं पुरु घरु सुहदंसणु णिम्मिड णर्यरु काई वणिज्जइ भाबिंबु तर्हि पर कि सीसइ घत्ता -- पयगयरंगविहंतियं' ढंक जत्थ वहुल्लिया कज्जलु यणि देंति हरिणीलहु दंतपंति से सितकरोहें भइ धरिणि सहियउ सरलच्छउ जोयवि घरि मोतियरंगावलि उत्तु णणिहिउं नियच्छइ महापुराण इक्खाउहु रायहु सुग्गीवहु । जसरामहि देवि हि जयरामहि । होसइ देउ णर्वमतित्थं करु । . चितिय सयल मणोरह पूरहि । ताजक्खेण दुक्ख विद्धंसणु । जहि मँणि किरणविरोहें भिज्जइ । ते रयणि ण वासरु दीसइ । पोमरायमणिपंतियं ॥ किं सा चंदगहिल्लिया ||५|| ६ आरूसइ किरणावलि कालहु । दप्पणयलि ण नियंति समोहें । वह दसण ण धोयविं णिच्छउ । अवर ण बंधेइ गलि हारावलि । मरगयदित्ति मयच्छि दुर्गुछइ । कश्यपगोत्रीय शशांकगुप्त नामक, शत्रुओंके प्रांगण में आशंकाओंसे रहित, गुप्तशशांक, जिसका कण्ठ मुक्कामालाओंसे शोभित है, ऐसे इक्ष्वाकुवंशके राजा सुग्रीवकी वज्रायुधकी तरह मध्यमें क्षीण तथा यशसे रमणीय जयरामा नामकी देवीसे, कामदेवके दुर्धर्ष बाणोंको नष्ट करनेवाले नौवें तीर्थंकरका जन्म होगा । जाओ तुम शीघ्र दुश्मनोंको सताओ और चिन्तित समस्त मनोरथोंको पूरा करो । देखने में शुभ सुन्दर नगर बनाओ। तब कुबेरने दुखोंका नाश करनेवाले नगरकी रचना की । उसका क्या वर्णन किया जाये ? जहाँ मणिकिरणोंके विरोधसे सूर्यबिम्बका तिरस्कार किया जाता है वहाँ दूसरेके विषय में क्या कहा जाये ? तेजके द्वारा वहाँ न रात जान पड़ती है, और न दिन । [ ४७.५.४ घत्ता - चरणों में लगे हुए राग (लालिमा) को नष्ट करनेवाली पद्मरागमणियोंकी पंक्तिको जहाँ वधू आच्छादित कर देती है, क्या वह चन्द्रमाके द्वारा अभिभूत है ? ( क्या चन्द्रमारूपी ग्रह उसे लग गया है ? ) ॥५॥ ६ कोई आंखों में काजल लगाती हुई, हरिनील और काले मणियोंकी किरणावलीपर क्रुद्ध हो उठती है । वह चन्द्रकान्तमणि किरणसमूह से दन्तपंक्तिको दर्पणतलमें अपनी भ्रान्तिके कारण नहीं देखती । वह गृहिणी, सरल आंखोंवाली सखीसे कहती है कि इस समय में निश्चयपूर्वक दांत नहीं घोऊंगी। एक और नारी घरमें मोतियोंकी रंगावली देखकर अपने गलेमें हारावली नहीं बांधती | अपने स्थापित नीले नेत्रोंको नहीं देख पाती और वह मृगनयनी मरकतमणिकी २. A णव । ३. P दूरहि । ४. P तहु घरि घणय मणोरह । ५. A पुरवद । ६. P का जयरु । ७. A माणिक्ककिरणविहि । ८. AP वित्तियं । ६. १. A ससिअंत ; P ससिकं । २. P. बद्धइ । ३. A णोलणेत्तु णं । Page #190 -------------------------------------------------------------------------- ________________ -४७.७.६] महाकवि पुष्पदन्त विरचित कक्केयणकुड्यलइ पेच्छिवि मुंज मुंज णियभासइ पुच्छिवि । दिण्णउ मुहबिबाहरतंबइ सिसुणा कूरकवलु पंडिबिंबइ। अण्णु वि रंगंतउ सुत्तट्ठिउ थणइ थण्णरसगहणुकंठिउ । मणिमहियलगयतणु पेडिमुल्लउ दोमायउं चिंतइ डिंभुल्लउ । जं घरसिहराहयणहभायउ कणयघडिउ पुरु पीयलछायउ । णिच्चु जि अमुणियसंझारायउ सुरहिसुसीयलँदाहिणवायउ । घत्ता-तहिं रयणंसुकरालइ सोवंती सयणालइ॥ अम्माएवि महासइ पेच्छइ सिविणयमंतइ ॥६॥ णायं णाइल्लं णायारिं णाणाफुल्लं मालाजमलं जायेयजुम्म सिरिणिवजुम्म पालंतुग्र्गेयवेलावारं पीढं चामीयरसेहीरं दीहमऊहं रयणसमूह णारायणियं णरमणहारिं। णिसियरयं णेसरयं विमलं । पोमसरं पोमासियपोमं । पारं पंडुरपाणियफारं। णाइहरं णाइंदागारं। णिद्धं णिचूमं हुयवाहं । दीप्तिको निन्दा करती है । नीलरत्नकी भित्तिको देखकर अपनी भाषा (शिशुभाषा ) में 'खाओ खाओं' पूछकर बच्चेने मुखके बिम्बाधरसे ताम्र प्रतिबिम्बको भातका कोर दे दिया । एक और सोकर उठा हुआ बालक, खेलते-खेलते मां का दूध पीनेकी उत्कण्ठासे चिल्लाता है। लेकिन मणि-महीतलमें प्रतिबिम्बित तनुको देखकर भूल गया, और बालक सोचता है कि दो माताएं हैं। जो अपने गृहशिखरोंसे आकाशभागको आहत करता है, स्वर्णनिर्मित और पीली कान्तिवाला है, जो प्रतिदिन सन्ध्यारागको नहीं जानता, और जिसमें सुरभित शीतल और दक्षिण पवन बहता है। पत्ता-ऐसे उस नगरमें रत्नकिरणोंसे मिश्रित शयनतलमें सोती हुई महासती अम्बादेवी स्वप्न-परम्पराको देखती है ।।६।। गज, बैल, मनुष्योंके लिए सुन्दर लक्ष्मी, नाना पुष्पोंकी दो मालाएं, विमल चन्द्रमा और सर्य, मत्स्ययग, लक्ष्मीसे यक्त कम्भयगल, लक्ष्मीसे अधिष्ठित कमलोंका सरोवर-जिसका तटसमूह बांधोंके बाहर निकला हुआ है और जिसके पानीका विस्तार सफेद है, ऐसा समुद्र; सोनेके सिंहोंका पोठ ( सिंहासन ); स्वर्गविमान और नागभवन, लम्बो किरणोंवाला रत्नसमूह, स्निग्ध और निर्धूम अग्नि। ४. P परिबिंबइ । ५. A मणिमहिगयतणु णिरु पडिभुल्लउ; P मणिमहिगयतणु परिबिंबुल्लर । ६. AP सुसीयलु । ७. AP रम्माए वि । ७. १. P णायल्लं । २. A°जुवलं। ३. AT जलयरजुम्मं । ४. AP पालतुंगयवेलावारं ( P धारं )। ५. Pणायहरं। ६. A adds after this : ऊइयपंचवीयं एवहं। ७. A adds after this: जालामालाडियदिसोहं। | Page #191 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १४४ १० १५ धत्ता - इय वर्रसिविणयमालियं पइणो तीए सिट्ठेयं दयाभावजुत्तो हले होहि दीसो परस्सोवयारी तओ तम्मि काले तिलोयस्स पुज्जा मई कंति बुद्धी ससिंगारभारा गुणुत्तालभावा तुलाको डिपाया दिही दीहरच्छी पवण्णा णिवासं कया गभसुद्धी सो पहि रिऊमासमे अमंदो णिवंदो ७ घत्ता - फग्गुणमासे पत्तए णवमीदियहि पवित्तए महापुराण जयरामाइ णिहालियं ॥ ते वि फलमुट्ठियं ॥७॥ 'तुमं चारुपुत्तो । अणीसो मुणीसो । जिणो णिज्जियारी । महातू रंगेले | सँई का वि लज्जा । सिरी संति सिद्धी । पघोलंतहारा । सकंचीकलावा | विणंगराया | परा का वि लच्छी । जिणंबाह पासं । इमोहिं महिद्धी । हिरणं पट्टो | घरे समेरं । ओ प्राणदो | पक्खे ससियरदित्तए || देव मूलणखत ||८| घत्ता - इस प्रकार जयरामाने स्वप्नमालिका देखी। उसने पति से कहा। उन्होंने भी उसके फलका कथन किया ||७|| [ ४७.७.७ कि तुम्हारा दयासे युक्त सुन्दर पुत्र होगा। हे हला, अनीश, मुनीश, दूसरोंका कल्याणकारी, शत्रुओं का नाश करनेवाले जिन; तब उस समय कि जब महातुर्य बज रहा था, त्रिलोककी पूजनीय सती कोई लज्जा, (हो), कान्ति, मति ( बुद्धि ), सिद्ध होती हुई श्री, शृंगारके भारसे दबी हुई, हारको आन्दोलित करती हुई लक्ष्मी, गुणोंसे ऊंचे भाववाली कांची कलापसे युक्त, पैरोंसे घुंघरू पहने हुए अंगराग विकीर्ण करती हुई लम्बी आंखोंवाली कोई श्रेष्ठ लक्ष्मी जिननाथके निवासस्थान पर पहुँचीं । इनके द्वारा महान् ऋद्धिवाली गर्भशुद्धि की गयी। छह माहकी अपनी मर्यादा तक कुबेरने प्रसन्नता से धनको वर्षा की । अमन्द मनवन्दनीय प्राणत इन्द्र- च्युत हुआ और । धत्ता - फागुन माह के कृष्णपक्षको नवमीके दिन मूलनक्षत्र में ||८|| ८. A वरि । ९. A सिट्टियं । १०. A दिट्टियं । ८. १. AP तुहं । २. तूरराले । ३. A सुई कावि; P सयं कावि । ४. P जिणंबाय । ५. P सुबण्णेण वुट्टो । ६. A रमंतो समेरं । ७. P णिमंदो । ८. AP पाणइंदो । ९. A देउ । Page #192 -------------------------------------------------------------------------- ________________ -४७. ९. १५] महाकवि पुष्पदन्त विरचित १४५ जिणो णारिदेहे थिओ दिव्वणाणो सुरिंदाण वंदेहिं वंदिज्जमाणो । णिहीकुंभहत्था पणच्चंति जक्खा वरिट्ठा सुवण्णं दहढेव पक्खा। पमोत्तूण संसारवित्थारदुग्गं पवण्णम्मि चंदप्पहे मोक्खमग्गं । समुदाण कोडीण सीरीसमाणं सुसुण्णं गयं एत्तियं कालमाणं । तओ मग्गसीसे णिसीसंसुसेएं पहिल्ले.दिणे जायओ जायसेएँ । जिणिंदस्स जम्मे जियाराइवग्गो ससको असेसो वि सोहम्मसग्गो । ण सामाइ खे खीणपावो महप्पो विमाणेहिं जाणेहिं ईसाणकप्पो । साईकुमारो स माहिंदणामो विलंबंतसोहंतमंदारदामो। समं बंभणाहेण बंभुत्तरेसो णहुड्डीणगिवाणसोहाविसेसो। चलो चल्लिओ लंतवो लच्छिधामो असतॄण काविट्ठवो तुट्ठिकामो। ससुक्को महासुकदेवग्गगामी सयारो सहारो सहस्सारसामी। समुद्धाइओ आणओ प्राणइंदो जगुद्धारणो आरणो अच्चुइंदो। ससी वासरीसो रहुब्बद्धकेऊ बुहो अंगिरारो सणी राहु केऊ । दियंतं गयाणंदभेरीणिणाया पुरि 'प्राइया सामराणं णिहाया। णिवो वंदिओ तेहिं कार्कदिवालो' करे ढोइओ कित्तिमो को वि बालो। १५ देवेन्द्रोंके समूहके द्वारा वन्दनीय देव जिन नारीदेहमें आकर स्थित हए। निधिकलश अपने हाथमें लेकर यक्ष नृत्य किया और अठारह पक्षों तक धनकी वर्षा की। संसारके विस्तार दुर्गको छोड़कर चन्द्रप्रभ स्वामीके मोक्षमार्गमें प्रवृत्त होनेपर, नब्बे करोड़ सागर पर्यन्त समय बीतनेपर मार्गशीर्ष शुक्लपक्षकी प्रतिपदाके दिन जिनेन्द्रके जन्ममें, शत्रुवर्गका विजेता, इन्द्र सहित समस्त सौधर्म स्वर्ग आकाशमें नहीं समा सका। निष्पाप और माहात्म्यवाला ईशान स्वर्ग विमानों और यानोंसे, जो लटकती हुई मन्दारपुष्प मालाओंसे शोभित है, ऐसे सानत्कुमार और महेन्द्र स्वर्ग, ब्रह्म स्वर्गके इन्द्रके साथ ब्रह्मोत्तर स्वर्गका इन्द्र (कि जिसकी आकाशमें उड़ते हुए देवोंसे शोभा विशेष है ) लक्ष्मीसे युक्त चंचल लान्तव स्वर्ग तथा बिना किसी कपट भावसे सन्तुष्ट काम कापिष्ट स्वर्ग चल पड़ा । शुक्र वर्गके साथ महाशुक्र स्वर्गका अग्रगामी देव (इन्द्र), सतार स्वर्ग और हारसहित सहस्रार स्वर्गका स्वामी आनत और प्राणत स्वर्ग दौड़ पड़ा, विश्वको धारण करनेवाला आरण और अच्युत स्वर्ग भी। चन्द्रमा, सूर्य, जिसके रथ पर पताका बंधी हुई है ऐसा बुध, बृहस्पति, शनि, राहु और केतु आये । आनन्दभेरीके निनाद दिशाओंमें फैल गये । लोकपालोंके समूह उस नगरीमें पहुंचे। उन्होंने काकन्दी नगरका पालन करनेवाले उस राजाको नमस्कार ९.१. AP ससुण्णं । २. A सुसेओ। ३. A जायसे ओ। ४. AP संमाइ। ५. P सणाईकुमारो। ६. AP विलोलंतसोहंत । ७. AP'देवक्क । ८. AP पाणइंदो। ९.P वासरेसो। १०.AP पाया। ११. AP काकिदिवालो। Page #193 -------------------------------------------------------------------------- ________________ महापुराण [ ४७. ९. १६असामण्णलायण्णभारम्मयाए जणेऊण भंति मणे अम्मयाए । तिणाणी तिसुद्धो सुलेसासहावो णिओ मंदरं देवदेवेहिं देवो। घत्ता-पंडुसिलोवरि हाणियं पूयाविहिसंमाणियं ॥ "विऊणं अरहंतयं "पुप्फदंतभयवंतयं ॥९॥ ते सुरवर लंघिवि गयणंतर ते लेप्पिणु पडिआया तं पुरु । जणणिहि करयलि णिहियउ जैइवइ गउ आणंदु पणञ्चिवि सुरवइ । काले जंतें वड्डिउ सायरु वड्ढिउ णं सिर्यपक्खइ सायरु । वढिउ सुकइहि कव्वालाउ व वढिउ सुमुणिहिं णाणसहाउ व । वढिउ उवसमवेल्लिहि कंदु व वढिउ अभैयकलहिं णवयंदु व । वढिउ धम्मदिवाडहु तेउ व वढिउ भवमयरहरहु सेउ व ! कुंदुज्जलतणु अईसयभूयउ बाणासणसउ तुंगु पहूयउ। सिसुलीलाइ पओसियदिव्वहं गय पण्णाससहस तहु पुरवहं । पच्छइ पत्तुं पायसासणु सई उच्छउ किं सीसइ मणुएं मई। जं चितंतउ सुरगुरु गुप्पइ । तहिं महं मइ णउ कि पि विसप्पइ। लक्खणलक्खियवरतणुलट्ठिहि पट्टबंधु जाइउ परमेट्ठिहि । किया, और उसके हाथमें कोई भी कृत्रिम बालक दे दिया। असामान्य लावण्यके भारसे युक्त माताके मनमें भ्रान्ति उत्पन्न कर तीन ज्ञानधारी तथा मन-वचन-कायसे शुद्ध शुभलेश्याके स्वभाववाले देवदेवको देवेन्द्रोंके द्वारा मन्दराचल ले जाया गया। पत्ता-पाण्डुकशिलाके ऊपर अभिषिक्त पूजाविधिसे सम्मानित सूर्य और चन्द्रमाकी आभावाले अरहन्तको नमस्कार कर-९। १० सुरवर आकाशको पार करते हुए उन्हें वापस लेकर उस नगर आये । यतिपति जननिधि जिनको हथेलीपर रखकर तथा आनन्दसे नृत्य कर इन्द्र वापस चला गया। समय बीतनेपर वह आदरपूर्वक बढ़ने लगे मानो शुक्ल पक्षमें सागर बढ़ रहा हो। वह सुकविके काव्यालापकी तरह बड़े हो गये, सुमुनिके ज्ञानस्वभावकी तरह बड़े हो गये, उपशमको लताके अंकुरकी तरह बड़े हो गये, अमलकलाओंसे चन्द्रमाके समान बड़े हो गये । सूर्यके तेजके समान वह बड़े हो गये, संसाररूपी समुद्रके सेतुके समान बड़े हो गये, स्वर्णकी तरह अत्यन्त उज्ज्वल, उनका शरीर सौ धनुष प्रमाण ऊंचा और प्रचुर था। इस प्रकार बालक्रीड़ामें उनके देवोंको सन्तुष्ट करनेवाले पचास हजार पूर्व वर्ष बीत गये। उसके बाद इन्द्र स्वयं आया। उस उत्सवका मुझ मनुष्यके द्वारा क्या वर्णन किया जाये। जिसके वर्णनमें स्वयं बृहस्पति व्याकुल हो उठता है, उसमें मेरी मति बिलकुल भी नहीं चलती। लाखों लक्षणोंसे युक्त शरीरलतावाले परमेष्ठीके लिए पट्ट बांध दिया गया। १२. P असावाण । १३. A भंती। १४. A तिणाणी तिलेसो तिसुद्धो सुहावो । १५. AP णमिऊणं । १६. AP पुप्फयंत । १०. १. P जयवइ । २. AP सियवक्खइ । ३. A अमयकलिहिं । ४. Pणवचंदु व । ५. A धम्मु दयादह भेउ व; P धम्मदिवायरतेउ व । ६. P अइसंभूयउ । ७. P परतणु । ८. AP जायउ । Page #194 -------------------------------------------------------------------------- ________________ - ४७.११.११ ] महाकवि पुष्पदन्त विरचित घत्ता - माणंतहु सिरियंगेहूं अट्ठवीसेपुंव्वंगई ॥ पुहुं पुणु सविलास पण्णासेव सेहोसई ॥१०॥ तेत्थु तासु वोलीणई जइयहुं तं जोइवि जिणणाहु वियक्कइ जणण मरणपरिट्टण लक्खणु जं जं कोई वि णयणहिं दीसइ afro सog भणु कह रद्द कीरइ वइसारु इंधणतणपवणें भोएं इंदियतित्ति ण पूरइ इय चिंतंतु णाहु संभाषिउ चारु चारु पईं जिणवर जाणिउं धत्ता-ता धयवीईराइयं पुंडरीयमालाधरं ११ उक्क पडती दिट्ठी तइयहुं । कहि कोइ वि चुक्कइ । उतिजगु परिणव पॅडिक्खणु । उक्का इव तं तं खणि णासइ । तो विचित्तु विसयासइ हीरइ । ण समइ कंडु णक्खकंडुयेणें । बइ दुट्ठ तिट्ठ मइ जूरइ । अमरमुणीसरेहिं बोल्लाविड । सासयवित्तिहिं हियवर आणिउं । . विलपत्तपच्छाइयं ॥ सोहई गयणंगणसरं ॥११॥ १४७ पत्ता - राज्यश्रीके अंगों को मानते हुए उनके पचास हजार पूर्वं और अट्ठाईस पूर्वांग समय विलासपूर्वक बीत गया || १० || १० ११ जब उनका इतना समय बीत गया, तो उन्होंने एक उल्काको गिरते हुए देखा । उसे देखकर जिननाथ विचार करते हैं-यमसे युद्ध करते हुए कोई नहीं बचता, जनन-मरण और परिवर्तनके लक्षणवाला यह त्रिलोक प्रतिक्षण बदलता रहता है । नेत्रोंसे जो-जो कुछ भी दिखाई देता है, उल्काके समान वह एक क्षण में नष्ट हो जाता है, जहां सब कुछ अस्थिर है, बताओ वहाँ कहाँ रति की जाये। फिर हृदय विषयको आशाके द्वारा अपहृत किया जाता है। आग ईन्धनस्वरूप शरीर और हवासे, और खाज नाखूनोंसे खुजलानेसे नष्ट नहीं होती । भोगसे इन्द्रिय तृप्ति नहीं होती । दुष्ट तृष्णा बढ़ती है और मति पीड़ित होती है । इस प्रकार विचार करते हुए स्वामीकी सम्भावना कर अमरमुनीश्वरों (लौकान्तिक देवों) ने आकर कहा - हे जिनवर ! आपने सुन्दर जाना और शाश्वत वृत्तियोंसे अपनेको अनुशासित किया । घत्ता -- तब इतने में ध्वजरूपी तरंगोंसे शोभित, विपुल पात्रों ( पत्तों वाहनों) से आच्छादित पुण्डरीकों ( कमलों और छत्रों ) की माला धारण करनेवाला आकाश प्रांगणरूपी सरोवर शोभित हो उठा ||११|| ९. A सिरिअंगयं । १०. A पुग्वंगयं । ११. A सहस्सई ११. १. A कालहू कालि ण वि को चुक्कई । २. Aमर परि । ३. A परिक्खणु । ४. A कायमि यहं । ५. A कंडमणें । ६. A वोलाविउ । Page #195 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १४८ ५ १० सुरवरकर यलपयहूं तूरइं वि वि भावे तित्थं करु feod दुगुल्लयाई परिप्पिणु सुमइहि रज्जु समप्पिवि राणउ गड पडतणाणाखयरामर मायसिरि मासि सिसिरहु भरि कुडिलकेस णिक्कुडिलें लुंचिवि जाइवि अमर पवरमयरालइ छट्टु वासु पयासु करेपिणु घत्ता - वित्थारियतवसिहि सिहं उझियर इसकपर्यं अवरहिं वासरि संतकसायड सइयरु मुणिभिक्खहि दुक्क उ तहु तहि उप्पण्णउं अच्छेरउ महापुराण १२ खीर महणवि भरियई खीरई । घणवा घणेण णं महिहरु । परम सिद्धसंतहि णवेष्पिणु । सूरप्पहसिवियहि आसीणउ । वियसि पुष्कर पुप्फवणं तरि । सिर्यैपाडिवर वरुणदिसि दिणयरि । लिय ते तियसिंदें अंचिवि । जयकारिउ विज्जाहरमालइ । थिउ नृवसैहसँ सहुं तउ लेपिणु । ससरीरे वि हु णिप्पिहं ॥ पडिवण्णं जिणकप्पयं ॥ १२ ॥ १३ हासकासजैसस सिसुच्छायउ । पुप्फमित्तरायडु घरि थक्कउ । पंचपयारु मणोरहगारउ । [ ४७. १२.१ १२ देववरोंके हाथोंसे नगाड़े बज उठे । क्षीर समुद्रसे जल भरा जाने लगा । इन्द्रने नमन किया, तीर्थंकरका भावसे अभिषेक किया, मानो मेघने महीधरका अभिषेक किया हो । दिवा वस्त्र पहनाकर, परम सिद्ध सन्ततिको प्रणाम कर, सुमतिको राज्य समर्पित कर राजा सूर्यप्रभा शित्रिकामें बैठ गये । नृत्य करते हुए नाना विद्याधर और देव विकसित पुष्पोंसे युक्त पुष्पवन में पहुँचे । वहाँ मार्गशीर्ष शुक्लपक्षको प्रतिपदा के दिन, सूर्यके पश्चिम दिशा में पहुँचनेपर अपने घुँघराले बालों को उन्होंने निष्कपट भावोंसे उखाड़ डाला । इन्द्रने पूजा कर उन्हें क्षीरसागर में फेंक दिया। विद्याधर समूहने जय-जयकार किया। छठा उपवास कर, एक हजार राजाओंके साथ तप ग्रहण कर स्थित हो गये । घत्ता - जिसमें तपरूपी अग्नि विस्तारित की गयी है, जो अपने ही शरीर में निष्प्रभ है, जिसमें रतिकी संरचनाका परित्याग कर दिया गया है, ऐसे जिनाचरणको उन्होंने स्वीकार कर लिया ||१२|| १३ एक दूसरे दिन हास्य, काश, यश और चन्द्रमाके समान कान्तिवाले शान्तकषाय वह शैलनगर में मुनिचर्या के लिए पहुंचे। वहाँ पुष्यमित्र राजाके घर ठहर गये। वहां उसे पाँच सुन्दर १२. १. A महणवं । २. APT° दुगूलयाई । ३. A मायसिरमासि; P मागसिरि मासि । ४. A पडिवए; P पडिवाए । ५. P णिकुडिल्लें । ६. AP णिवसह सें । १३. १. Pस । २. AP सयलणयरु । ३. P मणोहरं । Page #196 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४७. १४. ७] महाकवि पुष्पदन्त विरचित चउवरिसई गलियई छम्मत्थहु णायरुक्खतलि मुणियपयत्थहु । कत्तियमासि विसुद्धहि बीयहि दिवसक्खइ गिल्वाणपगीयहि । लोयालोयपलोयणदीवउ जायउ देवहु अप्पसहावउ । केवलणाणु सो जि लइ भण्णइ अण्णे जीवहु कहिं परमुण्णइ । जं बुद्धे सुण्ण जि पयासिउं जं विप्पेण बंभु णिहेसिउं। जं कउँलें अंबरु आहासिउं जं सइवेण सिवत्तु समासिउं । जं केविलें णिकिरिउं णिउत्तर णिग्गुणु णिच्चविसुधु अकेत्तउं । जं सुरगुरुणा णत्थि पउत्तउं जं अणंतु अच्छइ अविहत्तउं । तं खं देवे सुसिरु विसिट्टउ अप्पाणाउ विहिण्णउं दिट्ठउ । पत्ता-एयाणेयविवाइणा पुर्पदंतजिणजोइणा ।। जेउं कुसुमपिसकयं हि णिहियं तेलोकयं ॥१३।। .4.4.44. १४ इंदेण जलणेण वरुणेण पवणेण । फणिणा कुबेरेण चंदेण सूरेण । दसदिसिहिं आएण सुरवरणिहारण । थोत्तं पढ़तेण थुर जिणवरो तेण । तुहुं धोयरइरेणु __ तुहुँ कामदुहघेणु । तुहं बंधु हयदप्पु तह माय तुहं बप्पु । जे दुह पाविट्ठ णिकिट्ट जेड धिट्ठ। आश्चर्य उत्पन्न हुए। जब चार वर्षे बीत गये, तो नागवृक्षके नीचे, पदार्थोंको जाननेवाले छद्मस्थ देवको कार्तिक मासकी देवोंके द्वारा प्रगीत द्वितीयाके दिनका अन्त होनेपर लोकालोकके अवलोकनका दीप आत्मस्वभाव प्राप्त हो गया। लो, उसीको केवलज्ञान कहा जाता है, किसी दूसरे ज्ञानके द्वारा परम उन्नति कहाँ ? जिसे बुद्धने शून्य प्रकाशित किया है, जिसे ब्राह्मणने ब्रह्मके रूप में विशेष कथन किया है, जिस कोलने ( मीमांसक ) स्वर्ग कहा है, जिसे शैवने शिवत्व कहा है, जिसे कपिल ( सांख्य ) ने निष्क्रिय, निर्गुण, नित्य विशुद्ध और अकर्ता कहा है, जिसे चार्वाकने नास्ति (नहीं है) कहा है, और जो अनन्त और अविभक्त (अखण्डित) है, देवने उस अन्तःशून्य विशिष्ट अपनेको पृथक् करके देख लिया। पत्ता-एकानेक विवादी पुष्पदन्त जिनयोगीने ( इस प्रकार ) सारे संसारको कामरूपी पिशाचको जीतनेके लिए रास्तेपर लगा दिया ॥१३॥ १४ इन्द्र, अग्नि, वरुण, पवन, नागराज, कुबेर, चन्द्र, सूर्य और दसों दिशाओंसे आये सुरवरसमूहने स्तोत्र पढ़ते हुए जिनवरकी स्तुति की-"तुमने रतिरूपी रेणुको धो लिया है, तुम कामरूपी धनु हो, तुम हतदर्प बन्धु हो, तुम मां हो, तुम बाप हो। जो दुष्ट, पापिष्ठ, निकृष्ट, जड़ और ढीठ ४. AP कवलें । ५. A संखें । ६. P अक्कत्त। ७. A अप्पाणाउ विभिण्णउं; P अप्पसहावें जाएं। ८. AP पुप्फयंत । ९. P पहि णीयं । १४. १. P adds after This : जमदिसिकुमारेण; णेरहयभावेण । २. P जण घेछ। Page #197 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १५० १० १५ ५ समवसरण जिणु संठिउ जावेहि पण्ण रहसय वज्जियसंग एकलक्खु सहुं पंचावण्णहि सिक्खुयाहिं निम्महिय रईसह सत्तसहस केवलणाणालहं भयसहास वयसय मणपज्जय वईतंडियपश्चत्तरदाइहिं महापुराण उम्मग्ग वर्द्धति अलियं पयंपंति परवहु णिहाळंति लोहे भजंति रोसेस वति जे मासु भक्खंति मूढा ण वंदति संचरइ जणु छम्मु बहुजण जलसे उ धत्ता - मिच्छा परिणामग्गहे निवडतं ण उवेक्खियं घोति । कामेण कंपंति । पारद्धि खेलति । परहणुण वर्ज्जति । खग्गाई कति | ते पण पेक्खति । णिचं पि णिति । पई मुइवि कहिं धम्भु । पई मुवि को देउ । लग्गं घणतमदुब्वैद्दे । जगडिंभं पई रक्खियं || १४ || [ ४७. १४. ८ १५ अट्ठासी हुय गणहर तांवहिं । परमरिसिहिं जाणियपुव्वं गहं । सहसहिं पंचसई संपणहि । अट्ठसहस चउसय ओहीसहं । तेरह सहसई विकिरियालहं । णाणधारि दोसासय दुज्जय । रिदुसहसई रिदुसयई विवाइहिं । उन्मार्गपर चलते हैं, मधु और मद्य खाते हैं, झूठ बोलते हैं, कामसे काँपते हैं, परवधूको देखते हैं, शिकार खेलते हैं, लोभसे भग्न होते हैं, परधनको नहीं छोड़ते, क्रोधसे भड़कते हैं, तलवारें निकाल लेते हैं और जो मांस खाते हैं वे तुम्हें नहीं देख सकते । मूर्ख तुम्हारी वन्दना नहीं करते, नित्य तुम्हारी निन्दा करते हैं, जन क्षमा धारण करता है, आपको छोड़कर कहाँ धर्म है, संसाररूपी जल के लिए सेतु हो, तुम्हें छोड़कर कौन देव हो ? घत्ता - मिथ्या परिणामका जिसमें आग्रह है ऐसे घनतमरूपी दुष्पथमें लगे हुए, गिरते हुए विश्वरूपी बालककी तुमने उपेक्षा नहीं की, उसकी रक्षा की ॥१४॥ १५ जैसे हो जिनवर समवसरण में विराजमान हुए, तो उनके अठासी गणधर हुए। परिग्रहसे रहित पूर्वांगों को जाननेवाले पन्द्रह सौ परममुनि, एक लाख पचपन हजार पाँच सौ शिक्षक थे । कामदेवको नष्ट करनेवाले आठ हजार चार सो अवधिज्ञानी थे । केवलज्ञानके धारी सात हजार थे, विक्रियाऋद्धि धारक तेरह हजार थे, सात हजार पाँच सौ मन:पर्ययज्ञानके धारक थे । 1 ३. P खेल्लंति । ४. Preads a as b and b as a l ५. A जणछम्मु; P जहि छम्मू । ६. P दुप्पट्टे । ७. A णिवडंतउ | १५.१. Padds after this : एए मुणि संजाया तावहि, इंदचंदविसहरमणहर । २. P अट्ठासीस जाया गणधर । ३. AP सिक्खुवाहं । ४. AP बयतंडिय | Page #198 -------------------------------------------------------------------------- ________________ न्त विरचित -४७. १६.८] सहुं असीइसहसई हिरवजहं दोणि लक्ख पालियघरधम्महं अमरच्छरउलाई गयसंखई इय एत्तियलोएं संजुत्तहु महि विहरंतहु धम्मु केहंतहु अट्ठवीसपुव्वंगविहीणउ घत्ता-मासमेत्तु मुणिगणजुओ लंबियपाणि मणोहरे लक्खई तिणि पउत्तई अजहं। मणुयह मणुइहिं पंच सुसोम्महं । तिरियई पुणु कहियाई ससंखई। भुवणत्तयराईवयमित्तहु । पुप्फंदंतदेवहु अरहंतहु। पुत्वहं एक्कु लक्खु तेहिं झीणउं । फणिदेवासुरणरथुओ ।। थिउ संमेयमहीहरे ॥१५।। आउसमाणई णामइं गोत्तई करिवि वेयणीयाइं णिहित्तई। दंडकवाडरुजगजगपूरई विरइवि मुक्कई तिण्णि सरीरई। तेजेइओरालियकम्मइयई जॉइं विमुक्कई पुणु वि ण लइयई । उव्वेल्लिवि कड्ढिवि आउँचिवि जीवपएस सयलघण संचिति । चउसमयंतयालु थिउ देहइ भहवए सुक्कट्ठमिदियहइ। अवरणहइ सहुँ मुणिहिं सहासें सिद्धउ जिणु जणजयजयघोसें। पुजिय तणु चविहहिं सुरिंदहिं वंदिउ इंदपडिंदणरिंदहिं । गइ देवाहिदेवि अववग्गहु गउ सुरयणु णीसेसु वि सग्गहु । वितण्डावादियोंको प्रत्युत्तर देनेवाले वादी मुनि छह हजार छह सौ, तीन लाख अस्सी हजार निरवद्य आर्यिकाएं थों, दो लाख गृहस्थ धर्मका पालन करनेवाले श्रावक थे और सुसौम्या पांच लाख श्राविकाएँ थीं। अमरों और अप्सराओंका कुल असंख्यात था परन्तु तिथंच ससंख्य कहे गये हैं। इस प्रकार इन लोगोंसे संयुक्त तथा भुवनत्रयरूपी कमलके लिए सूर्यके समान अरहन्त पुष्पदन्तको धरतीपर विहार और धर्मोपदेशका कथन करते हुए अट्ठाईस पूर्वांग रहित एक लाख य बीत गया। पत्ता-मुनिसमूहसे सहित, नागदेव और असुरोंसे संस्तुत हाथ ऊंचा किये हुए वह सुन्दर सम्मेद शिखर पर्वतपर स्थित हो गये ॥१५॥ आयुकर्म, नाम, गोत्र और वेदनीय कर्मका उन्होंने नाश कर दिया और दण्ड, कपाट, प्रतर और लोकपूरणको रचना कर उन्होंने तीनों शरीर छोड़ दिये । जब उन्होंने तेजस, औदारिक और कामण शरीरको छोड़ दिया तो उन्हें दुबारा ग्रहण नहीं किया। एकत्रित, आकर्षित और संकोचित कर समस्त सघन जीवप्रदेशोंको संचित कर चार समयके अन्तराल (दण्ड, कपाट, प्रतर और लोकपूरण) तक, देहमें स्थित रहकर, भाद्रपदके शुक्लपक्षके उत्कृष्ट अष्टमीके दिन अपराल में एक हजार मुनियोंके साथ, लोगोंके जयघोष के साथ जिन सिद्ध हो गये। चार प्रकारके देवेन्द्रोंने उनके शरीरकी पूजा को । इन्द्र-प्रतीन्द्र-नरेन्द्रोंने वन्दना की। देवाधिदेवके मोक्ष जानेपर समस्त देवसमूह भी स्वर्ग चला गया। ५. A करतहुँ । ६. AP पुष्फयंत । ७. A तहो झोणउं; P परिखीणउं । ८. A मासमेत । १६. १. P णामयं । २. A दंडकवालरुजगजग; P दंडकवाडपयरजग । ३. P तेजोरालियअरुकम्म । ४. A जोयविमुक्कई; P जाएवि मुक्कई । ५. AP सिहि दिण्ण सिहिदहिं । Page #199 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १५२ [४७. १६.९ महापुराण घत्ता-जिह भरहस्स समीरिओ रिसहेणंगयवयरिओ॥ तिह मई तुह कहिओ इमो पुप्पँदंतजिणपुंगमो ॥१६॥ १० इय महापुराणे तिसट्ठिमहापुरिसगुणाकारे महाकइपुष्फयंतविरइए महामग्वमरहाणुमण्णिए महाकग्वे पुप्पँदंतणिब्वाणगमणो णाम सत्तचालीसमो परिच्छेभो समसो ॥७॥ ॥जिणेपुप्फयंतचरियं समत्तं ॥ धत्ता-जिस प्रकार ऋषभनाथने कामके शत्रु भरतसे कहा था, उसी प्रकार जिनवर श्रेष्ठ पुष्पदन्तका यह चरित मैंने तुमसे कहा ॥१६॥ इस प्रकार ब्रेसठ महापुरुषों के गुणालंकारोंसे युक्त महापुराणमें महाकवि पुष्पदन्त द्वारा विरचित और महामण्य भरत द्वारा अनुमत महाकाव्यका पुष्पदन्त निर्वाणगमन नामका सैंतालीसवाँ परिच्छेद समाप्त हुभा ॥४॥ ६. P भरहहो । ७. A पुप्फयंत । ८. P सत्तयालीसमो । ९. AP omit the line | Page #200 -------------------------------------------------------------------------- ________________ संधि ४८ आउच्छणदच्छ सेच्छिणियच्छियधम्मपह || सेणिराय सीयलणाहहु तणिय कह || ध्रुवकं ॥ १ जो परिपालियतिरयणो तिक्खं वारिदुब्वहं तो परमागम कण कमलको साहओ जो पहियासवदारओ णासियणिश्यायारओ अमुणियवणिय यल्लओ जस्स पसइ जइयो जेव तेव उग्गयगयं तं वीच्छं पूइयं तइ वि खलं खइ तावयं एत्थ सहं सीसया पयजुयपाडियसुरयणो । जस्स वयं परदुव्वहं । जेण कओ परमागमो । अविणस्सरसिरिसाहओ । णग्गो णिग्घरदारओ । पोसियपंचायारओ । जो दाइ अल्लल्लओ । वसहहिं णिज्जेंs यणो । धरियं जीवेणंगयं । गंध मल्ल विहिपूइयं । होइ ण हो चत्तावयं । जस्तै कुणति ण सीसया । ५ सन्धि ४८ श्री गौतम स्वामी कहते हैं— पूछने में चतुर तथा धर्मकी प्रभाको अपनी आँखोंसे देखनेवाले श्रेणिकराजा, तुम शीतलनाथकी कथा सुनो । १ जो तीन रत्नों (सम्यक् दर्शन, ज्ञान और चारित्र) का पालन करनेवाले हैं, जिनके चरणोंमें सुर समूह प्रणत है, जिनका व्रत तीव्र तथा दुष्पापका निवारण करनेवाला है, तथा दूसरोंके लिए कठिन है, जो अत्यन्त सन्तुष्ट हैं, और श्रेष्ठ लक्ष्मीके कारण हैं, जिन्होंने परमागमोंकी रचना की है, जो स्वर्णकमलकी कणिकाके समान हैं, जो अविनश्वर श्रीकी साधना करनेवाले हैं, जिन्होंने आस्रवके द्वारको ढक दिया है, जो वस्त्रहीन और गृहद्वारसे रहित हैं, जिन्होंने नीच आचरणका नाश कर दिया है, जिन्होंने पांच आचारोंका परिपालन किया है, जिन्होंने स्त्रियोंके कटाक्षों की उपेक्षा की है, तथा जो दयासे अत्यन्त आर्द्र हैं, जिनसे यति जन अत्यन्त आलोकित होते हैं, जिस प्रकार वृषभेन्द्रों द्वारा शकट ढोया जाता है, उसी प्रकार जीवोंके द्वारा रोगोंसे युक्त शरीर ढोया जाता है, जो बीभत्स और दुर्गन्धयुक्त है, गन्धमाल्य विधिसे पवित्र होते हुए भी जो दुष्ट, नश्वर और सन्तापदायक है, जो आपत्तियोंसे रहित नहीं है ऐसे शरीर में जिसके शिष्य रति नहीं करते, १० १. १. AP सच्छणियच् । A पालि । २. A कणयकलस । ३. वणियापल्लओ । ४. A पयास; Pय भास । ५. A णिज्जिययणो; P णिज्जइअणो । ६. A जत्थ । २० Page #201 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १५४ १५ २० ५ जं दट्टु सक्काण वियँसइ ससहरराहह्यं जो वणवासि वसी यलं जस्स पसाया सीयलं उत्तुंगकोलखंडियकसेरु तहु पुण्वविदेह वहइ विमल खर दंडसंडदलछइयणीर दरिसियपयंडसोंडाललील जुज्झतचडुलकरिमयर णिलय जलपक्खालियतेंड़साहिसा ह दाहिणइ घण्णसं छैण्णसीम जसस सिधवलियदिश्चकवालु महापुराण महसमयम्मि व काणणं । कमलं पिव रविभाहयं । वयणं चंदणसीयलं । हवइ विवि तं सीयलं । वत्ता - गुणभद्दगुणीहि जो संथुङ गुणगर्रुयगइ || दहम जिणणाहु हे वि थुणविं सो दिव्वजइ ||१|| २ पुक्खरवरदीवर पुव्वमेरु । us कीलमाणकारंडजुयल । डिंडीर पिंडपंडुरियतीर | लोलंतथूलकल्लोलमाल | परिभमियगहीरावत्तवलय । णामेण सीय सीयल सगाह । वयं ताहि संठिय सुसीम । तहि यरिहि णरवइ पुहइपालु । जिन्हें देखकर देवेन्द्रका मुख उसी प्रकार विकसित हो जाता है, जिस प्रकार वसन्तकाल के आनेपर कानन, और सूर्यकी प्रभासे आहत होकर कमल खिल जाता है, जो वनमें निवास करते हैं, आत्मा के वशीभूत हैं, जिनके वचन चन्द्रमाके समान शीतल हैं, जिन्हें नमस्कार कर मनुष्य शान्त हो जाता है [ ४८.१.१५ घत्ता - गुणभद्र जो आचार्यके गुणसे संस्तुत हैं, जो गुणोंसे महान् गतिशील हैं, ऐसे उन दसवें जिननाथ दिव्ययति शीतलनाथको मैं प्रणाम करता हूँ || १ || २ जहाँ उन्नत सुअर जड़ोंको खण्डित करते हैं, पुष्करद्वीप में ऐसा पूर्वं सुमेरु पर्वत है । उसके पूर्वविदेह में पवित्र सीता नामकी नदी बहती है, जिसमें हंसयुगल क्रीड़ा करता है, जिसका जल कमलसमूहसे आच्छादित है, फेनोंके समूहसे जिसके तट धवल हैं, जिसमें प्रचण्ड जलगजों की क्रीड़ा दिखाई देती है, जिसमें चंचल स्थूल लहरोंकी माला है, जो लड़ते हुए गजों और मगरोंका घर है, जिसमें गम्भीर जलावर्तोंके समूह परिभ्रमित हैं, जिसके तटवर्ती वृक्षोंकी शाखाओंको जलोंसे प्रक्षालित कर दिया है, और जो ग्राहोंसे युक्त है, ऐसी उस सीता नदीके दक्षिण तटपर धान्योंसे आच्छादित ऐसी सुसीमा नामकी नगरी स्थित है । उस नगरीका यशरूपी चन्द्रसे ७. A विहस । ८ AP गुणगरुवमइ । ९. P हउं थुणामि सो । २. १. A उत्तंग ; P उत्तुंगु । २. P तडि साहिसाह । ३. A Page #202 -------------------------------------------------------------------------- ________________ -४८. २. २३ ] महाकवि पुष्पदन्त विरचित परिहातियतिवलिइ जणियसोह दावियरोमावलिअंकुरोह । घणथणहल कोंतलभसलसाम ___ कयपत्तावलि अहिजणियराम । पियविडविवेढणभासकाम कोमलिय सरस संदिण्णकाम । णं पवरअणंगहु तणिय वेल्लि णं तासु जि केरी हत्थभल्लिं । सूहव सारंगसिलिंबयच्छि तहु वल्लह देवि वसंतलच्छि । सा सुललियंगि पंचत्तु पत्त णीसासविवज्जिय पिहियणेत्त । अवलोयवि चिंतइ सामिसालु णिप्फलु मोहंधडं मोहजालु । मुय मेरी पिय पयडीकेएहिं हसइ व दसणेहि णिसिक्किएहिं । तोडेप्पिणु णिब्भरु णेहवासु अकहति ढुक्क परजम्मवासु । अप्पणिय एह मइं भणिय काई इह परियणसयणइं जाई जाई । संचियणियकम्मवसंगयाई जाहिंति एंव सव्वाइं ताई। एक्के मई जाएवउ णियाणि तो वरमइ जुंजमि अरुहणाणि । जं अच्छिवि पुणु वि विणासभाउ तं मुञ्चइ एंव भणेवि राउ । पत्ता-करु देति विहेय कुंभिणि व्व तोसियजणहु ॥ कुंभिणि ढोएवि चंदणणामहु णंदणहु ॥२॥ दिग्मण्डलको आलोकित करनेवाला पृथ्वीपाल नामका राजा था। उसकी मृगशावककी आंखोंके समान आँखोंवाली वसन्तलक्ष्मी नामकी प्रिया थो, जो परिखात्रय ( तीन खाइयों) के समान त्रिवलिसे शोभावाली थी, जो रोमावलीके अंकुरसमूहवाली थी, जो सघन स्थनरूपी फलोंसे युक्त थी, जो कुन्तलरूपी भ्रमरोंसे सुन्दर थी, की गयी पत्र-रचनावलीसे जो अत्यन्त सौन्दर्य उत्पन्न करनेवाली थी। जिसमें प्रियरूपी वक्षको घेरनेकी उत्कृष्ट शोभा और इच्छा थी, जो अत्यन्त कोमल, सरस और कामनाओंको पूर्ति करनेवाली थी ऐसी जो मानो प्रवर कामदेवकी लता है, जो मानो उसीके हाथको मल्लिका है, लेकिन सुन्दर अंगोंवाली वह मृत्युको प्राप्त हो गयी, निःश्वाससे रहित उसकी आँखें बन्द हो गयीं। उसे देखकर वह स्वामीश्रेष्ठ विचार करता है कि मोहसे अन्धोंका मोहजाल व्यर्थ है, मेरी मरी हुई प्रिया क्रोडाशून्य निकले हुए दांतोंसे जैसे हंस रही है, अपने परिपूर्ण स्नेहपाशको तोड़कर जेसे वह कुछ भी नहीं कहती हुई दूसरे जन्मवासमें पहुंच गयी है। मैंने इसे अपनी क्यों कहा? यहाँ जितने भी स्वजन और परिजन हैं, वे सब अपने संचित कर्मके वशीभूत होकर जायेंगे। जब अन्तमें मैं अकेला जाऊंगा, तो अच्छा है कि मैं अरहन्तके श्रेष्ठज्ञानमें अपनेको नियुक्त करूं। और जो विनाशभाव है उसे छोड़ देना चाहिए, यह कहकर वह राजा• पत्ता-कर ( सूंड और कर ) देती हुई हथिनीके समान पृथ्वी लोगोंको सन्तुष्ट करनेवाले अपने चन्दन नामक पुत्रको देकर ( वह )---॥२॥ ४. A विरइयणायरणरमणणिरोहु । ५. A°अंकुरोहु । ६. P°कुंतल । ७. P कयवत्तावलि । ८. A वेढणब्भास; P°वेडढ्णु। ९. A पयडीकिएहि । १०. A°णिवकम्म। ११. A विणासु भाउ; P विणासिभाउ । १२. चंदणणामें। Page #203 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १५६ ५ १० महापुराण ३ आणंद महामुणिपायमूलि । विसइ गिरिवरकुहरंतरालि | विडीउ ण भुंजइ जइ वैसिल्लु । णवकोडिविसुद्ध बंभचेरु । परिहरइ दोसु रिसि भोयणेसु । उच्चारखेलपस्सव करणि । संजमभारालंकरियखंधु । मुणिवरु जायउ संसारकूलि सीद्धरोमु गयसीहरोलि गुलुं सप्पि दुधु तेरंगु तेल्लु पार्लेइ पारत्ति मेरुधीरु उवरणगेहणिणिक्खेवणेसु जोयइ तसथावर मग्गचरणि तं जंपइ जेण ण पावबंधु तकरिविति णिमुक्कको मु आराहण भयवइ संभरेवि माणिक्ककडयचेंचइयबाहु वावीसस मुद्देपेमाणियाउ तं तत्रणांमु । सो अवसणु कयणिरसणु मरेवि । संजायड आरणि अमरणाहु | तिरयणिसरीरु वण्णेण सेउ । घत्ता-तहु पक्ख दुवीस अवहिये सासहु परिगणिय || तइवरिससहास आहारंतरु मुणिभणिय ||३|| [ ४८.३.१ ३ संसारके तटस्वरूप आनन्द महामुनिके चरणमूलमें जाकर मुनि हो गया । ठण्ड से जिसके खड़े हो गये हैं ऐसा वह गज और सिंहोंके शब्दोंवाले गिरिवरके कुहरोंके भीतर निवास करता है, गुड़-घी-दूध-दही-तेल तथा विकृतियां, मधु-मांस मद्य और नवनीत आदि वस्तुओंको आत्मवश वह यति नहीं खाता । मोक्षार्थी और सुमेरुपर्वतके समान धीर वह नो प्रकारसे विशुद्ध ब्रह्मचर्य का पालन करता है । उपकरणों के ग्रहण करने और निक्षेपण तथा भोजन में वह मुनि दोषोंका परिहार करता है । मार्गकी चर्यामें बोलने, थूकने और प्रस्रवण करनेमें त्रस-स्थावरको देखकर चलता है, इस प्रकार बोलता है जिससे पापबन्ध नहीं होता । संयमके भारके लिए जो समर्थ आधारस्तम्भ है | कामसे मुक्त वह तीव्र तप तपकर, तीर्थंकर नामप्रकृतिका बन्ध कर भगवती अराधना कर दिगम्बर वह निराहार मरकर, जिसके बाहु माणिक्यके केयूरोंसे शोभित हैं ? आरण स्वर्ग ऐसा इन्द्र हुआ । उसकी आयु बाईस सागर प्रमाण थी, तीन हाथ उसका शरीर था, और उसका वर्ण श्वेत था । घत्ता - बाईस पक्ष में वह श्वास लेता था और बाईस हजार वर्ष में आहार ग्रहण करता था जैसा मुनियोंके द्वारा कहा गया है ||३|| 1 ३. १. A सीहु व्व रोमयं । २. P गुडु । ३. A नेरंगु and gloss दधि; T रंगु दधि । ४. रसल्लु । ५. A पारइ पारतउ । ६. A गहण । ७. P पसवणकरणि । ८. A तित्थु णिमुक्कं । ९. AP काउं । १०. APाउं । ११. Pमाणु आउ । १२. A सरीर । १३. AP अविहिय । Page #204 -------------------------------------------------------------------------- ________________ -४८. ४. १५ ] महाकवि पुष्पदन्त विरचित १५७ णिरुवमसुहसंपावणखणेण रमणीरमणु वि सारइ मणेण । सो कहिं वि ण मेल्लइ सुक्कलेस जिणु पणवइ गेण्हइ चरणसेस । परियाणइ पेच्छइ तमपहंतु अट्ठगुणसारु महिमा महंतु। उदुमाससेसि जीवियपमाणि, आघोसइ सयमहु उर्दूविमाणि । भो गुज्झय बुज्झहि भमियसरहि किं बहुएं जंबूदीर्वैभरहि । मलययदुमसुरहिउ मलयदेसु जहिं णरहिं परिट्ठिउ अमरवेसु । रइकइयवकीलाकोच्छराउ जहिं कामिणीउ णं अच्छराउ। जहिं कामधेणुणिह गोहणाई जहिं कप्परक्झेरिद्धई वणाई। जहिं णिश्चमेव मंगलणिणदु तहिं पुरवरु णामें रायभद्दु । रणरंगतुंगमायंगसीहु दढरहु णरिंदु जयजयसिरीहु । मुहयंदोहामियरंदचंद महएवि तासु णामें सुणंद । विसहरवंदारयवंदवंदु एयह गंदणु होसइ. जिणिंदु। जज्जाहि तावं तुहुं करहि तेव संभवइ णयंरु घरु दिव्वु जेंव । घत्ता-ता वइसवणेण तं पट्टणु कंचगु° घडिउं ॥ मणिकिरणकरालु सग्गखंडु णावइ पडिउं ॥४॥ १५ अनुपम सुखकी संप्राप्तिके क्षणवाले मनसे वह स्त्रीरमण करता है, वह अपनी शुक्ल-लेश्याका कभीका परित्याग कर चुका है, जिनको प्रणाम करता है और उनके चरणरूपी अक्षतोंको ग्रहण करता है। तमप्रभा नरक तक वह देखता है और जानता है, आठ गुणोंसे युक्त और महिमामें महान् । उसके जीवन प्राणके छह माह शेष रहनेपर इन्द्र अपने ऋतु विमानमें कहता है-"हे कुबेर, जिसमें श्वापद परिभ्रमण करते हैं ऐसे जम्बूद्वीपके भरतक्षेत्रमें मलयवृक्षोंसे सुरभित मलयदेश है। जहां मनुष्योंने अमररूप बना रखा है। रतिकी केतवक्रीड़ामें दक्ष स्त्रियाँ ऐसी मालूम होती हैं, मानो अप्सराएं हों । जहाँ गोधन कामधेनुके समान हैं। जहां वन कल्पवृक्षोंसे सम्पन्न हैं। जहां मंगल शब्द प्रतिदिन होते हैं, वहां राजभद्र नामका नगर है। उसमें युद्धके रंगमें ऊँचे गज और सिंहोंके समान तथा विजयलक्ष्मीके इच्छुक दृढ़रथ नामका राजा था। उसकी अपने मुखचन्द्रसे विशालचन्द्रको तिरस्कृत करनेवाली सुनन्दा नामकी महादेवी थी। नागराजों और देवोंके समूहके द्वारा वन्दनीय जिनेन्द्र, इनके पुत्र होंगे। तुम जाओ और वहाँ इस प्रकार करो कि जिससे दिव्य घर और नगर उत्पन्न हो जायें। ___घत्ता-तब कुबेरने स्वर्णमय नगरकी रचना की, जैसे मणिकिरणोंसे उन्नत स्वर्गखण्ड गिर पड़ा हो ॥४॥ ४. १. A°रमण । २. AP उडुमास। ३. AP उडुविमाणि । ४. P जंबूदीवि भरहि । ५. AP मलयद्दम । ६. A कप्परुक्खणिदई । ७. मुहइंदो । ८. P ताहं । ९. A णवरु । १.. AP कंचणघडिउं । Page #205 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १५ महापुराण [४८. ५.१ जहिं दीसइ तहिं सोवण्णभवणु जहिं दीसइ तहिं वणेसुरहिपवणु । जहिं दीसइ तहिं हरिणीलणीलु जहिं दीसइ तहिं वररमणिलीलु। जहिं दीसइ तहिं मंडQ विचित्तु जहिं दीसइ तहिं घुसिणावलित्त । जहिं दीसइ तहिं मुत्तावलिल्लु जहिं दीसइ तहिं णवतोरणिल्लु। जहिं दीसइ तहिं कप्पूररेणु जहिं दीसइ तहिं गज्जियकरेणु । जहिं दीसइ तहिं थियकामधेणु जहिं दीसइ तहिं वजंतवेणु । जहिं दीसइ तहिं वीणारवालु जहिं दीसइ तहिं अलिउलवमालु । जहिं दीसइ तहि चलचिधुचवलु। जहिं दीसइ तहिं ससियंतधवलु । जहिं दीसइ तहिं विविहुच्छवोहु जहिं दीसइ तहिं कयरच्छसोह। जहिं दीसइ तहिं णञ्चियमऊरु जहिं दीसइ तहिं सिरिविवफारु । घत्ता-जहिं दीसइ तेत्थु पुरवरु जणमणु रावइ ।। पिययमहि सरीरु जिह तिह चंगउं भावइ ॥५॥ तहिं विजयणंदिरेणिवणिहेलणे सुंदरे। णयंगि सियणेत्तिया रयणमंचए सुत्तिया । णिएइ छ उओएरी सिविणए ईमे सुंदरी। जहाँ दिखाई देता है वहाँ स्वर्णभवन है, जहां दिखाई देता है वहां वनका सुरभित पवन है। जहां दिखाई देता है हरे और नील मणियोंसे नील है, जहां दिखाई देता है वहां उत्तमस्त्रियोंकी लीला है, जहां दिखाई देता है वहाँ विचित्र मण्डप है, जहाँ दिखाई देता है वहीं केशरसे विलिप्त है, जहां दिखाई देता है, वहाँ मुक्तावलियां हैं, जहां दिखाई देता है वहां नव तोरण हैं, जहां दिखाई देता है कपूर की धूल है, जहां दिखाई देता है गरजते हुए हाथी हैं, जहां दिखाई देता है, वहां स्थित कामधेनुएँ हैं। जहां दिखाई देता है वहाँ बजते हुए वेणु हैं, जहां दिखाई देता है वीणाके शब्दका निनाद है, जहां दिखाई देता है वहां भ्रमरकुल कलकल है, जहां दिखाई देता है वहां चंचल चिंधोंसे चपल है। जहाँ दिखाई देता है, वहां चन्द्रकान्तकी धवलता है। जहां दिखाई देता है वहां विविध उत्सवोंका समूह है । जहाँ दिखाई देता है, वहां की गयो रथ्या शोभा (मार्ग शोभा) है । जहाँ दिखाई देता है, वहाँ नाचते हुए मयूर हैं। जहाँ दिखाई देता है, वहाँ श्री और वैभवका विस्तार है। पत्ता-जहां दिखाई देता है, वहां वह नगर जनमन-रंजन करता है। जिस प्रकार प्रियतमाका शरीर अच्छा लगता है, उसी प्रकार वह नगर अच्छा लगता है ।।५।। वहां विजयसे आनन्दित होनेवाले राजाके सुन्दर भवन में रत्नमंचपर सोती हुई, नतांगी और श्वेतनेत्रवाली कृशोदरी वह सुन्दरी स्वप्न में यह देखती है, जो मदजल झर रहा है और जिसपर ५. १. AP णव । २. P adds after this : जहिं दोसइ तहि खेयरह कीलु, जहिं दीसइ तहिं सुरव रहि मेल । ३. A मंडव । ४. P चलचिधु चवलु । ५. AP सिरिविविहफारु । ६.१. AP विजयमंदिरे । २. A छ उओवरी; P तुच्छओयरी । ३. AP इमं । Page #206 -------------------------------------------------------------------------- ________________ - ४८. ७.६ ] महाकवि पुष्पदन्त विरचित गयं गलियमयजलं विसं रसियपेसलं करालणहभइरवं कुसेसयणिवासिणि पसूयसयमालियं बिहुँ विहियजामिण झसाण जुयलं चलं सरोरुह सरोवरं दर्प पुरंदरणिणं महारयणरासियं भमियभिंगकोलाहलं । खरखुरग्गखयभूयलं । कयरवं च कंठीरवं । 'सिरिमुविंदसीमंतिर्ण । भमरपंतियाकालियं । खरयरं खचूडामणिं । कुडजुयं ससंकामलं । जस्स छत्तत्तयं वह दात्तिणं मणिमयर कुंडलो घिविवि णवकुवलयं सोहं हो देवदेवो जिणो मयरमंदिरं गज्जिरं । रणचित्तियं पीढयं । भवणमुज्जलं भावणं । धत्ता - इय पेच्छिवि ताए रायहु गंपि "समासियउं ॥ सिवियफलु" तेण कंतहि कंतें भासिउं ||६|| ११ ७ सिणिमुरुसिहुब्भासियं । जस्स लोयत्तयं । कुइ गुणकित्तणं । जस्स आहंडलो । . णवइ कमकमलयं । चंडि होही सुहो । खं तपोमणिइणो । १५९ १० १५ मँडराते हुए भ्रमरोंका कोलाहल हो रहा है, ऐसा मदगज, गर्जना में बड़ा चतुर और तीव्र खुरोंके अग्रभागसे भूतल खोदता वृषभ, विशाल नखोंसे भयंकर, शब्द करता हुआ सिंह, विष्णुकी पत्नी और कमलमें निवास करनेवाली लक्ष्मी, भ्रमरपंक्तिसे शोभित पुष्पमालाएँ, रात्रिको करनेवाला चन्द्रमा, आकाशका चूड़ामणि सूर्य, मत्स्योंका चंचल युग्म; चन्द्रमाकी तरह स्वच्छ कुम्भयुग्म, कमलोंका सरोवर, गरजता हुआ समुद्र; सिहोंपर आरूढ़, रत्ननिर्मित आसन ( सिंहासन ), इन्द्रका निकेतन, उज्ज्वल भावन-भवन ? ( यहाँ नाग लोकका उल्लेख नहीं है ); महारत्नराशि और प्रचुर ज्वालाओंसे भास्वर अग्नि । ५ घत्ता - यह देखकर उसने जाकर राजासे निवेदन किया। उसने भी अपनी कान्ताको स्वप्नोंका फल बताया ||६|| ७ हे सुन्दरी, जिनके तीन छत्र हैं, तथा त्रिलोक जिनका दासत्व वहन करता है और गुण कीर्तन करता है, मणिमय मकराकृति कुण्डलोंवाला इन्द्र, नवकमल अर्पित कर जिनके चरणकमलों की वन्दना करता है, ऐसे वह शुभ देव देव, शान्तिरूपी कमलिनी के लिए सूर्य, जिन तुम्हारे पुत्र होंगे । बुद्धि कान्ति श्री लक्ष्मी कीर्ति हो, गर्भशोधन करनेवाली देवांगनाएँ आयीं, मत्तगजगामिनी ४. Pfणवासिणी । ५. A सिरि उविंद । ६. P सीमंतिनी । ७. AP भवर । ८. A मयंदसुरं ; P मदसि । ९. AP रयणणिम्मियं । १०. P समासिउं । ११. AP सिविनयं । Page #207 -------------------------------------------------------------------------- ________________ महापुराण [ ४८.७.७बुद्धि कंती सिरी लच्छिकित्ती हेरी। गब्भसुद्धीयरी अमरवरसुंदरी। मत्तगयगामिणी राइणो सौमिणी। ताहिं संसेविया तित्थणाहंबिया। दुक्खपक्खक्खया हेमवुट्टी कया। वित्तएणं सयं जाव छम्मासयं । आइमासंतरे किण्हपक्खंतरे। अट्ठमीवासरे रविकिरणभासुरे। रिक्खए रूढए उत्तरासाढए। माउयासंगओ गब्भवासं गओ। तत्थ जंभारिणा वेरिसंघारिणा। मण्णिऊणं पई पुंज्जियं दंपर्छ। सोत्तकोडीसमे वारिहीणं गमे। णाणविद्धंसंयं पल्लचोत्थंसयं। संजमे संमए णटुए धम्मए। पुप्फदंतंतरे माहमासे वरे। छीणमालंछणे बारसिल्ले दिणे। गंददेवीसुओ विस्सजोए हुओ। तांव संतोसिओ आगओ कोसिओ। अग्गि वाऊ'सही दंडधारोवही। रिंछवाहो परो वारुणासामरो। पोमसंखाहिवो सूलपाणी भवो। चमर वइरोयणो भाणु मयलंछणो। सयल देवा खणे तूसमाणा मणे। आगया तं पुरं राइणो मंदिरं। राजाको स्वामिनी तीर्थंकरको माताको उन्होंने सेवा की । कुबेरने स्वयं दुखपक्षका नाश करनेवाली स्वर्णवृष्टि छह माह तक को। चैत्र माहके कृष्णपक्षके सूर्यकी किरणोंसे आलोकित अष्टमीके दिन उत्तराषाढ़ नक्षत्रके रूढ़ होनेपर, वह माताके उदरमें गर्भवासको प्राप्त हुए। उस अवसरपर शत्रुओं का संहार करनेवाले इन्द्रने स्वामीको मानकर दृढ़रथ दपतिकी पूजा की। नौ करोड़ प्रमाण सागर, समय बीतनेपर, तथा पल्यके चौथाई भाग तक (जन्मके पूर्व) ज्ञानका विध्वंस, संयम और सम्यक्त्व और धर्मका नाश होनेपर पुष्पदन्तके बाद माघ कृष्ण द्वादशीके दिन उत्तराषाढ़ नक्षत्रके विश्वयोगमें नन्दादेवीको पुत्रकी उत्पत्ति हुई। इन्द्र अत्यन्त सन्तुष्ट होकर आया, अग्नि वायु और इन्द्रसे भयभीत यम रीछपर सवार एक और देव, वारुण सामर कुबेर शूलपाणि शिव चामर वैरोचन सूर्य और चन्द्र आदि सभी देवता मनमें सन्तुष्ट होकर, राजाके उस घर आये। ७.१. A कित्ति । २. A कति । ३. AP हिरी । ४. P भामिणी। ५. A कण्हपखंतरे । ६. AP पई। ७. AP पुज्जिओ दंपई। ८. A विद्धंसियं । ९. A संयमे । १०. A छोलमालंछणे but records a pin second hand : झीणमयलं छणं इति वा पाठः । ११. सिहो । १२. A विही । १३. A वारुणो सामरो। १४. A आगयं तं पुरं। Page #208 -------------------------------------------------------------------------- ________________ -४८.८.१७] महाकवि पुष्पवन्त विरचित घत्ता-उत्तुंगु सुर्वसु कणयच्छवि गहमालियउ॥ जिणमेरु सुरेहिं मेरुगिरिहि संचालियउ ॥७॥ तम्मि सेलसिंगए पंडुपत्थरंग्गए। वंदिओजसंसिओ वजिणा णिवेसिओ। धम्मतित्थरायओ दुक्खतोयपोयओ। सीयलेण सीयलो वारिणा गुणामलो। सिंचिओ महुच्छवे देवदुंदुहीरवे। देह दित्तिपिंगलं सव्वलोयमंगलं। णीयबालकंदलं चारु सच्छविच्छेलं। रायहंसमाणियं जाइ हाणवाणियं। दिव्ववाससुंदरे मंदरस्स कंदरे। कक्करे विलंबियं चंचरीयचुंबियं। किंणरेहिं वंदियं दाणवाहिणंदियं । संचुयं लयाहरे णायसुंदरीसिरे। भगतोंडमंडणं पावपंकखंडणं। झ त्ति धावमाणयं धोयदंतिदाणयं। सित्तखेयरीवरं अक्खकीलियाहरं। पत्ता-जं एंव वहंतु भरइ सिहरिविवरंतरई ॥ तं जिगण्हाणंबु हणउ भवियजम्मंतरई ॥८॥ पत्ता-जो ऊंचा है, सुवंशवाला और स्वर्ण आभावाला है, ग्रहोंसे घिरा हुआ है, ऐसे जिनश्रेष्ठको देवेन्द्रोंने सुमेरुपर्वतके लिए संचालित किया ॥७॥ wwwwwwwwwwwwwwww wwwwwwwwwwwwwwwwww वहां शैल शिखरके पाण्डुकशिलाके अप्रभागपर, यशसे अंकित वन्दनीय जिनवरको इन्द्रने स्थापित कर दिया। देवताओंके नगाड़ोंकी ध्वनियोंसे युक्त महोत्सवमें धर्म तीर्थराज दुखरूपी जलके लिए जहाज स्वरूप शीतलनाथका शीतलजलसे अभिषेक किया गया। शरीरकी कान्तिसे पीला, सब लोगोंके लिए मंगलप्रद, जिसके द्वारा. नव अंकर ले जा रहे हैं. ऐसा सन्दर स्वच्छ और विच्छुरित तथा राजहंसोंसे सम्मानित, दिव्यवासोंसे सुन्दर, ऐसा महाभिषेकजल गिरि कन्दराओंमें विलीन हो गया । भ्रमरोंके द्वारा चुम्बित, किन्नरोंके द्वारा वन्दनीय दानवोंके द्वारा अभिनन्दनीय लतागृहोंमें नागसुन्दरियोंके सिरोंपर च्युत, भग्नमुखोंके लिए अलंकार स्वरूप, पापरूपी कीचड़को काटनेवाला, शीघ्र दौड़ता हुआ, हाथियोंके मदजलोंको धोनेवाला, विद्याधरियोंके वरोंको अभिषिक्त करनेवाला इन्द्रियोंका क्रीड़ा घर। ___घत्ता-जब इस प्रकार वह अभिषेक जल भरत क्षेत्र और पहाड़ोंके विवरोंमें बहता है तो वह सैकड़ों होनेवाले जन्मान्तरोंको नष्ट कर देता है ॥८॥ ८. १. A पत्यरंगए । २. P वंदिर । ३. A भविच्छलं । ४. A ण्हवणपाणिय; P हवणवाणियं । ५. A संथुयं । ६. A जक्खि; P जक्खं; T अक्ख । ७. A जिणवरहाणंबु । Page #209 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १६२ ५ ܐ १५ तं सई हेट्ठामुहुं जइ वि जाइ सक्केण करिवि अहिसेयभदु महापुराण हिउ मह विहि पाणिपोमि वं दिवि कुमारु भावे तिणाणि जाउ जुवाणु देवाहिदेउ जसु एक्कु वि देहावयउ णत्थि किं जिहु अण्णु उवमाणु को वि मच्छवि संगरभीसणाई पुन्वहं तरुणत्तें परिवडंति करिव सहविमाणावाहणेण अहिसचिव देवहु पट्टु बद्ध महिमा पुग्वहं गयाई तेणेहिं दिणिकीलावणंति ९ तो विभव इ । आणि जिणपुंग रायभदु । णं इंदिदिरुपप्फुल्लपोमि । ग सग्गावासहु कुलिसपाणि । कि वण्णमि रूर्वे मयर केउ । मेहु वज्जिइ केंव हत्थि । इय जंप घिमिइ तो वि । तणुमाणें नवइ सरासणाई | जा पंचवीसहसाईं जंति । वावेपणु हरिवाहणेण । सोवि बद्धु I पणास सहास णिग्गयाई । कीलंतें नवकमलोयरंति । घत्ता-खरदंडकरंडि पिंडियतणु करलालियउ । " सिरिताविच्छु मुड छच्चरणु णिहालियउ ||९|| ९ यद्यपि वह स्वयं नीचा मुख करके जाता है, फिर भी भवों को ऊपरसे ऊपर ले जाता है । अभिषेक कल्याण करनेके बाद इन्द्र उन्हें राजभद्र नगर ले आया । उन्हें महादेवीके करकमलमें इस प्रकार दे दिया, मानो खिले हुए कमलपर भ्रमर हो। तीन ज्ञानके धारी कुमारकी वन्दना कर इन्द्र अपने निवास स्वर्गं चला गया । देवाधिदेव युवक हो गये, रूपमें कामदेव के समान उनका क्या वर्णन करूँ परन्तु कामको एक भी शरीरावयव नहीं है । मेषसे हाथीकी तुलना किस प्रकार की जाये ? क्या जिनका कोई दूसरा उपमान है ? फिर भी धृष्टमति कविजन तब भी उपमान कहता है, स्वर्णके समान कान्तिवाले वह शरीरके मानसे युद्ध में भयंकर नब्बे धनुष के बराबर थे | तरुणाई में जब पच्चीस हजार पूर्व वर्ष बीत गये, तो हाथी, बेल और विमानोंको वाहन बनानेवाले इन्द्रने आकर - अभिषेक कर उन्हें राजपट्ट बांध दिया । वह स्वयं भी भारी स्नेहमें बँध गये । इस प्रकार धरतीका उपभोग करते हुए उनके पचास हजार वर्ष बीत गये । एक दिन कोड़ावनमें क्रीड़ा करते हुए कमलके भीतर उन्होंने - [ ४८.९.१ घत्ता - कमल कोश में करसे लालित और गोल शरीर मरा हुआ भ्रमर देखा मानो तमाल वृक्षका पुष्प हो ||९|| ९. १. AP भवियाई । २. P° पुंगवु । ३. A मसयहु । ४. A सहसाई होंति । ५. A विवाणावाहणेण । ६. A मार्णेतहु । ७. A हयाई । ८. P ताणे कहि । ९. A तं सिरि । Page #210 -------------------------------------------------------------------------- ________________ -४८. १०. १४ ] महाकवि पुष्पदन्त विरचित १६३ जं दिह' मओ महुयरु सणालि मयरंदालुद्धउ आरणालि । ता चिंतइ जिणु सिरिरसवसाहं . अलिविहि होसइ अम्हारिसाहं । हो धिगिधिगत्थु धणु घरु कलत्तु जणु सयल मोहमइराइ मत्तु । खणि णञ्चइ खणि गायइ सरेहिं खणि रोवइ उरु ताडइ करेहिं । खणि णिद्धणु खणि विहवत्ति थाइ उत्ताणाणणु गम्वेण जाइ। हउं सुकइ सुहडु हउं चाइ भोइ हउं सूहउ हउं णिप्फण्णजोइ । हउं चंगउ एंव भैणंतु मरइ जोणीमुहेसु संसरइ सरइ। जहिं जहिं उप्पज्जइ तहिं जि बंधु अण्णाणछण्णु णउ णियइ अंधु । सहुंजाइ ण परियणसयणसत्थु संसारिणे कासु वि को वि एत्थु । भासंतई संजयसम्मयाई ता पत्तई सुरवरगुरुसयाई। अणुकूलिउ तेहिं तिलोयणाहु तांवाइउ सामरु अमरणाहु । तें ण्हवणु करिवि पहु महिउ जेंव हउं जडु कइ किंकिर कहमि तेंव । घत्ता-णियगोत्तहियत्तु पुणु पुणु हियवइ भावियः ॥ ___ संताणि सडिंभु णरणाहेण णिरूवियउ ॥१०॥ १० जब उन्होंने नाल सहित कमलमें मकरन्द (पराग ) के लोभी भ्रमरको मरा हुआ देखा तो जिन सोचने लगे, लक्ष्मीरूपी रसके लोभी हम लोगोंकी भी भ्रमर जैसी हालत होगी। हो-हो, धन, स्त्रो और घरको धिक्कार, समस्तजन मोहरूपी मदिरासे मतवाला हो रहा है। वह (जनसमूह) क्षणमें नाचने लगता है, क्षणमें स्वरोंसे गाने लगता है, क्षणमें रोता है और हाथोंसे अपने उरको पीटने लगता है । क्षणमें दरिद्र हो जाता है, और क्षणमें वैभवमें स्थित होकर अपने सिर ऊँचा कर गर्वसे चलता है। मैं सुकवि हूँ, मैं सुभट हूँ, मैं त्यागी हूँ, मैं भोगी हूँ। मैं सुभग हूँ, मैं योगी हूँ। मैं अच्छा हूँ, यह कहता हुआ मृत्युको प्राप्त होता है, और योनिके मुखोंमें रतिपूर्वक भ्रमण करता है। जहां-जहां उत्पन्न होता है, वहां-वहां बन्धको प्राप्त होता है, अज्ञानसे आच्छादित वह अन्धा कुछ नहीं देखता। परिजन और स्वजनका समूह साथ नहीं जाता। संसारमें यहां कोई किसीका नहीं है । तब संयम और सम्यक्त्वकी घोषणा करते हुए लोकान्तिक देव वहाँ आये। उन्होंने त्रिलोकनाथको तपके लिए अनुकूलित किया। इतनेमें देवोंके साथ देवेन्द्र आ गया। उसने अभिषेक कर प्रभुकी जिस प्रकार पूजा की मैं जड़कवि उसका किस प्रकार वर्णन करूं। पत्ता-अपने गोत्रके हितका उन्होंने मनमें बार-बार विचार किया, और नरनाथने कुलपरम्परामें अपने पुत्रको स्थापित कर दिया ॥१०॥ १०.१. A दिउ महुयरु मउ सणालि; P मुउ सुणालि । २. A उत्ताणणु जणु गव्वेण जाइ; P खणि उत्ताण णाणु गव्वेण । ३. AP णिप्पण्णु । ४. Aभणंति । ५. AP ण कोइ वि कासु एत्थु । ६. A संजयसंयमाई; P संजयसंगमाई । ७. A किर कह कहमि । Page #211 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १६४ महापुराण [ ४८.११.१११ सुकंकहि सिवियहि च डिवि चलिउ सुरयणु जयजय पभणंतु मिलिउ । ओइण्णु सहेउयवणि महंतु चरियावरणई कम्मई खवंतु । माहम्मि मासि तिमिरेण कालि बारहमइ दिणि जायेइ वियालि। छटोववासु सड्डइ करेवि सहुँ रायसहासें दिक्ख लेवि । अवरहि दिणि णहयललग्गसिहरु भिक्खाइ पइट्ट अरिहणयरु । णउ एयहु हियवउ सुण्णघडिउ उ भक्खइ पलै णियपत्तपडिउ । णउ परिहइ चीवरु रंगरिधु वहु का वि भणइ उ देहि णारि । घत्ता-उधरइ पिणाउ णउ फणिकंकणु फुरियकरु ।। हुंकारु ण देइ णउ उच्चारइ गेयसरु ॥११॥ १२ णर णडइ ण दावइ ढकसदु बहु का वि भणइ उ एहु रुद्दु । सुरवहुरएण रझ्याई जाई वयणाई णथि चत्तारि ताई। णउ कहइ वेउ पसुहणणडंभु वहु का वि भणइ उ एहु बंभु । वहु का वि भणइ णेउ चक्रपाणि ण पउंजइ दाणवप्राणहाणि । णारायणु एहु ण होइ माइ जाणमि विक्खायउ भुवणभाइ। ५ शुक नामकी शिविकामें चढ़कर वह चले। सुरजन जय-जय कहते हुए इकट्ठे हो गये। चारित्रावरणी कर्मोंका नाश करते हुए वह महान् सहेतुक उद्यान में उतरे। माघ कृष्ण द्वादशीके दिन, सन्ध्याकालमें श्रद्धासे छठा उपवास कर एक हजार राजाओंके साथ दीक्षा लेकर दूसरे दिन जिसके अग्र शिखर आकाशसे लगे हुए हैं, ऐसे अरिष्टनगरमें भिक्षाके लिए गये। ( उन्हें देखकर कोई वधू कहती है )-कि इनका हृदय शून्यसे निर्मित नहीं है, ( यह शून्यवादी नहीं हैं ), यह अपने पात्रमें पड़े हुए पल ( मांस ) को नहीं खाते। रंगसे समृद्ध यह चीवर नहीं पहनते हैं ? कोई ती है कि यह बद्ध नहीं हैं। इनके पास तलवार नहीं है, यह कंकाल धारण करनेवाले नहीं हैं, न इनके हाथमें कपाल है और न शरीरमें स्त्री है। घत्ता-यह पिनाक धारण नहीं करते, न नागोंका कंकण और स्फुरित हाथ है ? यह न हुंकार देते हैं और न गोतस्वरका उच्चारण करते हैं ? ॥११॥ वधू कह न नृत्य करते हैं और ढक्का शब्दका प्रदर्शन करते हैं। कोई वधू कहती है कि यह रुद्र नहीं है। सुरवधू ( तिलोत्तमा अप्सरा )के द्वारा जिनकी रचना की गयी है, ऐसे वे चार मुख इनके नहीं हैं, पशुवधके अहंकारवाले वेदोंका कथन भी यह नहीं करते। कोई वधू कहती है कि यह ब्रह्मा नहीं हैं। कोई वधू कहती है कि यह चक्रपाणि (विष्णु) नहीं हैं क्योंकि यह दानवोंके प्राणोंकी हानिका प्रयोग नहीं करते हैं, हे मां, यह नारायण नहीं हैं, मैं इन्हें विख्यात विश्वबन्धु जानती ११.१. AP सुक्कक्कइ । २. A ओयण्ण; P अवइण्णु । ३. P बारहवइ । ४. A जायउ। ५. P सदइ। ६. P फलु । ७. A णियपत्ति पडिउ । ८. A °रिदु । १२. १. P गहु । २. AP पाणहाणि । ३. AP जाणिवि । Page #212 -------------------------------------------------------------------------- ________________ - ४८. १३.८] महाकवि पुष्पदन्त विरचित अरहंतु भडारउ दोसमुक्कु अब्भागयवित्तिवियाणएण agar भोपायविही नृसिरि कुसुमाई णिवाइयाई वासुरयणु करइ थोत्तु इतुहुं गोवाणियारिचंडु जप कुडिलत्तणु मुक्कु ईस जइतुहुं संसारहु णिरु विरत्तु जर तुहुं मुक्क संगग्ग हेण जइ ई विद्धंसिउ सयलु कामु जइतुहुं सामिय संजमपयासि तु णाहासियई ण जइ पडंति घरेंप्रंगणि प्रगणि जाव दुक्कु । ता विवि पुणव्वसुराणएण । नृवं संपीणि अक्खयणिहीइ | सुरणिर्यरहिं तुरई वाइयाई । धत्ता - संवच्छर तिणि छम्मत्थु जें महि हिंडियउ ॥ विल्लहु तलि देउ घाइचउक्कै छड्डियउ ||१२|| १३ संभरइ विरुद्ध जिणचरितु | तो काई णत्थि करि तुज्झ दंडु | तो कई तुहारा कुडिल केस । तो कि ते इहु अहरु रत्तु । तो कि तुह तिजगपरिग्गहेण । तो किंतु संपर्णं कामु । तो किंमु कमल उवरि देसि । तो किं एयई चमरई पडंति । १६५ हूँ । इतने में दोषोंसे मुक्त भट्टारक अरहन्त घरोंके आँगन- आँगन में पहुँचे । तब अभ्यागतको वृत्तिके जानकार राजा पुनर्वसुने प्रणाम कर प्रासुक विधिसे उन्हें भोजन कराया । राजा अक्षय निधिसे प्रसन्न हो गया । राजाके सिरपर कुसुम गिर गये । देवोंके द्वारा तूर्य ( नगाड़े ) बजाये गये । 1 १० धत्ता - तीन वर्ष तक वह छद्मस्थ भावसे धरती पर घूमे फिर बेल वृक्षके नीचे स्वामी वह चार घातिया कर्मोंके द्वारा छोड़ दिये गये ||१२|| १३ तब देवसमूह आकर स्तुति करता है और विरुद्धरूप में (विरोधाभास शैली) जिनचरित्रका स्मरण करता है, "यदि तुम अपने शत्रुके लिए प्रचण्ड (कर्मरूपी शत्रुके लिए प्रचण्ड ) गोपाल (ग्वाला, इन्द्रियों के संयमके पालक) हो, तो तुम्हारे हाथमें दण्ड क्यों नहीं है ? हे ईश, यदि तुमने कुटिलताको छोड़ दिया है, तो तुम्हारे केश कुटिल क्यों हैं । यदि तुम संसारसे एकदम विरक्त हो, तो तुम्हारे अधर अधिक रक्त क्यों हैं ? यदि तुम परिग्रहके आग्रहसे मुक्त हो तो तुम्हें तीनों लोकोंके परिग्रहसे क्या ? यदि तुमने समस्त कामको ध्वस्त कर दिया है, तो तुम सम्पन्न काम क्यों हो ? हे स्वामी, यदि तुम संयमका प्रकाशन करनेवाले हो तो कमलोंके ऊपर अपने पैर क्यों रखते हो ? हे नाथ, यदि तुम्हारे आश्रित लोगोंका पतन नहीं होता है, तो ये चमर तुम्हारे ऊपर क्यों ४. AP रायहु घरपंगणि जाव ढुक्कु । ५. AP फासूयं । ६. AP णिव । ७. AP णिवं । ८. A ° । ९. A वेल्लिहि तलि । १३. १. P has before it : उप्पायउ केवलु जयपयक्खि, पूसह चउदसि पढमिल्लपक्खि । २. A गोवाल | ४. AP पई । ५. A तो पुणु किं तुह । ६. AP संपुण्णकामु । ३. A P तेरउ अहरग्गु रत्तु । ७. A कम । Page #213 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १६६ महापुराण [४८. १३. ९जे पई जि रउद्दई दूसियाई , तो आसणि किं सीहई थियाई । १० जइ रयणई तुह तिण्णि वि पियाई तो तुहुं किर णिरलंकारु काई। घत्ता-थेणत्तु णिसिधु जइ तुहे तो कंकेल्लितरु ॥ अच्छरकरसोह हरइ काई कयदलपसरु ॥१३॥ १४ तुहुं माणुसु मुवणि पसिधु जइ वि माणवियपयइ तुह णत्थि तइ वि । जइ कासु वि पई णउ दंडु कहिउ तो कि छत्तत्तइ फुरइ अहिउ । जइ रूसहि तुहुं सरमग्गणाहं। तो किं ण देव कुसुमच्चणाहं । जइ वारिउ पई परि घाउ एंतु तो किं हैम्मइ दुंदुहि रसंतु। जइ पई छड्डिय मंडलहु तत्ति तो किं पुणु भामंडलपवित्ति। कहिं एक्कदेसरहु तुह महेस कहिं बहुजणभासइ मिलिय भास । ण वियाणविं तेरउ दिव्वचार सोहम्माहिवइ सणैक्कुमारु । इय वंदिवि वेण्णि वि संणिविट्ठ देवेण सिट्ठि णीसेस दिट्ठ। घत्ता-एयासी तासु जाया जाणियधम्मविहि ॥ गणहर गणणाह गुरुयण गुरुमाणिक्कणिहि ॥१४|| पड़ते हैं ? यदि रौद्र लोग तुम्हारे द्वारा दूषित कर दिये गये हैं, तो फिर तुम्हारे आसनमें सिंह क्यों हैं। यदि तुम्हें तीन (सम्यग्दर्शन, ज्ञान और चारित्र) प्रिय हैं, तो तुम अत्यन्त निरलंकार क्यों हो? घत्ता-यदि तुमने चोरीका निषेध किया है तो तुम्हारा अशोक वृक्ष अपने पत्ते फैलाकर अप्सराओंकी शोभाका अपहरण क्यों करता है ॥१३॥ १० __ यद्यपि तुम विश्वमें प्रसिद्ध मनुष्य हो, फिर तुम्हारी प्रकृति मानवीय प्रकृति नहीं है। यदि तुमने विश्वमें किसीके लिए दण्ड नहीं कहा, तुम्हारे छत्रत्रयमें वह अधिक क्यों चमकता है ? यदि तुम कामदेवके बाणोंसे अप्रसन्न होते हो, तो हे देव, पुष्पोंकी पूजासे तुम अप्रसन्न क्यों नहीं होते हो ? यदि तुमने दूसरेपर आघात करना मना कर दिया है तो बजते हुए नगाड़ोंपर आघात क्यों किया जाता है ? यदि तुमने मण्डलों ( देशों) में तृप्तिका परित्याग कर दिया है तो फिर तुममें भामण्डलोंकी प्रवृत्ति क्यों है ? एक देश में उत्पन्न होनेवाले महेश, तुम कहाँ, और बहुजनोंकी भाषासे मिली हुई तुम्हारी भाषा कहां? हम तुम्हारे दिव्य आचरणको नहीं जानते।" सौधर्म और सानत्कुमार स्वर्गोंके इन्द्र, इस प्रकार वन्दना कर दोनों बैठ गये। देव (शीतलनाथ) ने समस्त सृष्टिका कथन किया। ___घत्ता-उनके धर्मविधिको जाननेवाले और गुरुरूपी माणिक्य निधिवाले महान् इक्यासी गणोंके स्वामी गणधर हुए ॥१४॥ ८. A जइ; P जं। ९. A P तो तुह । १४.१. A माणसु । २. A P देंतु । ३. A हम्मद किं । ४. A एक्कदेस तुहु तुह महेस; P एक्कदेस सुहं तुहं महेस । ५. A कि बहुजणभासइ; P कि बहुजणभासहि । ६. A P सणंकुमारु । Page #214 -------------------------------------------------------------------------- ________________ -४८. १५. १५ ] महाकवि पुष्पदन्त विरचित १५ महरिसिहिं महाचरणायराह चउदहसय पुव्वंगाहराई। एक्कूणसट्ठिसहसई सयाई दुइ सिक्खहुं सिक्खोवहि रयाई । भयसहसइं दोसय सावहीहिं पुणु सत्तसहासई केवलीहिं । बारहसहसई वेउव्वियाह इच्छियई सरूवई होति जाहं । पंचेवं ताई णयसयजुयाई मणपजयवंतहं संथुयाई। सयसत्तपमाणुजोइया तहु पंचसहासई वाइयाहं । इय एक्कु लक्खु जायउ जईहिं लक्खाई तिण्णि वरसंजईहिं । सावयह लक्ख दो सुहमईहिं चत्तारि लक्ख जहिं सावईहिं । तेहिं देवहं बुझिय केण संख संखेज तिरिय हयसंककंख । भाभासुरु भव्वंभोयभाणु सहुँ एत्तिएहिं महि विहरमाणु । सो पुठ्वसहासई पंचवीस अतिवरिसई उम्मोहेवि सीस । संमेयसेलि हल्लंततालि सहुँ भिक्खुसँहासें हरिणवालि । सतवप्पहावपरिवियलियासु थिउ देहविसग्गे एक्कु मासु । घत्ता-आसोइ पवणि पुवासाढसिर्यहमिहि ।। अवरोह इ सिधु थिउ मेई णियहि अट्ठमिहि ॥१५॥ महान् आचरणको धारण करनेवाले और पूर्वांगधारी महर्षि चौदह सौ थे। शिक्षा-विधिमें रत शिक्षक उनसठ हजार दो सो, अवधिज्ञानी सात हजार दो सौ, केवलज्ञानी सात हजार, इच्छित रूप धारण करनेवाले विक्रिया ऋद्धि-धारक बारह हजार, मनःपर्ययज्ञानके धारक सात हजार पांच सौ, वादी मुनि पांच हजार सात सौ थे। इस प्रकार एक लाख मुनि थे। श्रेष्ठ संयमवाली आर्यिकाएं तीन लाख थीं। दो लाख श्रावक और चार लाख श्राविकाएँ थीं। वहां देवोंकी संख्या कोन जान सका । शंका और आकांक्षासे रहित तिथंच संख्यात थे। प्रभासे भास्वर और भव्यरूपी कमलोंके लिए सूर्यके समान जिन, इन लोगोंके साथ धरतीपर विहार करते हुए, तीन वर्ष कम, एक हजार पचीस वर्ष पूर्व तक मिथ्यादृष्टि शिष्योंको सम्बोधित कर, आन्दोलित ताल वृक्षोंवाले, और मृगोंका पालन करनेवाले वे सम्मेदशिखर पर्वतपर पहुंचे। एक हजार मुनिके साथ, अपने तपके प्रभावसे आशाओंको गलानेवाले वह, एक माहके लिए प्रतिमायोगमें स्थित हो गये। ____ धत्ता-आश्विन शुक्ला अष्टमीके दिन पूर्वाषाढ़ नक्षत्रमें अपरालके समय वे आठवीं भूमि (सिद्धशिला) में जाकर स्थित हो गये ॥१५॥ १५.१. AP पुग्वंगायराहं । २. A सिक्खावह थियाई; P सिक्खावहि रियाई । ३. A बारहसयाई। ४. A पंचेव ताई णवसंजुयाई; P सत्तेव ताई वयसंजुयाई। ५. A reads aas band basa। ६. A उम्मोहिय वि सीस । ७. A भिक्खसहासें । ८. A सियछट्टिमिहि । ९. A मेइणियइ । Page #215 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १६८ महापुराण [४८. १६.१ वजट्ठितुलाघणघडियगेहु सिहिदेवहिं दड्ढउ देवदेहु । अवरेक्कहिं फुल्ल ई घल्लियाई अण्णहिं कवई उठवेल्लियाई। अवरेक्कहिं किउ जयेणंदघोसु अण्णहिं णचिउं मणणयणतोसु । अवरेकहिं थुउ संसारहारि अण्णहिं हये झल्लरि पडह भेरि । अवरेक्कहिं पैणमिउ मोक्खगामि अण्णहिं वंदिय जिर्णसिद्धभूमि । अण्णहि अण्णण्णई साहियाई वाहणई मेहवहि वाहियाई। गय णियणिलयहु सुर विहवफार जिणगुणकहरंजियहिययसार । गयणयलि चैरंति चवंति एव जगि कम्मबंधु को महई एंव। पत्ता-णिक्किरिउ करिवि मणवयणंगई परिहरिवि ॥ थिउ सीयलसामि मोक्खमहापुरि पइसरिवि ।।१६।। १७ पसियउ परमेसरु परमसमणु अम्हेहं वि तहिं जि संभवउ गमणु । पुणु अक्खइ गणहरु सेणियासु सम्मत्तरयणरुइसे णियासु। गयलेसि परिट्ठिइ णाणसेसि णिव्वाणु पराइउ सीयलेसि । तित्थंति तासु विच्छिण्णधम्मु पसरिउ जणवइ रयमइलु कम्मु । विणु वत्तारयसोयारएहिं भव्वेहिं भवण्णवतारएहि । ५ वज्रर्षभनाराच संहननसे गठित शरीरवाले देवके देहको अग्निकुमार देवोंने जला दिया। कुछ देवोंने फूलों की वर्षा की, कुछ और देवोंने काव्योंका उच्चारण किया। कुछ और देवोंने 'जय' और 'बढ़ो'का घोष किया । कुछ और देवोंने मन और नेत्रोंको आनन्द देनेवाला नृत्य किया। कुछ और देवोंने संसारका नाश करनेवाले उनकी स्तुति की। कुछ और देवोंने झल्लरी, पटह और नगाड़ोंको बजाया। कुछ और देवोंने मोक्षगामी उन्हें प्रणाम किया, कुछ और देवोंने जिनसिद्ध भूमिको वन्दना की। दूसरोंने दूसरोंसे कुछ-कुछ कहा और आकाशपथमें वाहनोंको चलाया । वैभवके विस्तारसे युक्त तथा जिनके गुण-कथनसे अपने हृदयको रंजित करनेवाले देव अपने-अपने विमानोंमें चले गये। वे आकाशतल में चलते हैं और कहते हैं कि विश्वमें कोन इस प्रकार कर्मोका नाश करता है। __ पत्ता-मन, वचन और शरीरको छोड़कर और निष्क्रिय होकर शीतल स्वामी मोक्षरूपी महानगरीमें प्रवेश करके स्थित हो गये ॥१६॥ परमेश्वर परमश्रमण प्रसन्न हों कि जिससे हमारा भी वहां गमन सम्भव हो। पुनः गौतम गणधर सम्यक्त्वरूपी रत्नकी कान्तिपरम्परावाले राजा श्रेणिकसे कहते हैं."लेश्यासे रहित.ज्ञानशेष शीतलनाथके निर्वाण प्राप्त कर लेने पर उनके तीर्थके अन्तमें वक्ताओं, श्रोताओं और संसार रूपी समुद्रसे तारनेवाले भव्योंके बिना, धर्मसे विच्छिन्न और पापसे मलिन कर्म फैल गया। जो १६. १. AP जयणंदिघोसु । २. A झल्लरि हय पडह । ३. AP कय बहुविहविहूइ । ४. AP जिणदेहभूइ । ५. AP चडंति । ६. A मुय।। १७.१. A परमसरणु । २. A अम्हई । ३. AP भवंतर। Page #216 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १६९ -४७. १८.१०] महाकवि पुष्पदन्त विरचित पुरगामणयरसोहाणिवेसि मलययसुरहिइ तहिं मलयदेसि । पडिवक्खलक्खसंजणियतासु भहिलपुरि सिरिभद्दावयासु । काले जंतें कुलगयणचंदु घणरहु णामें जायउ णरिंदु । णीहारसरिसजसविमलकंति तह सञ्चकित्ति णामेण मंति। अत्थाणमज्झि उवविट्ठ राय एकहिं दिणि दाणालाव जाय । घत्ता-आहासइ रुद्दु भूरिसम्म जिणधम्मचुउ ।। सालायणमुंडु णामें अण्णु वि जासु सुउ ॥१७॥ १८ गोदाणभूमिदाणंतराई कच्चोलई थालई मणहराई। सोचण्णई रयणई अंबराई फलछेत्तई धवलहरई पुराई। हये गय रहवर पीणत्थणीउ कण्णा कलवीणालाविणीउ । वरदब्भपवित्तंकियकराह जो देइ णरेस दिएसराहं । सो कणयविमाणहिं विण्हुलोउ संप्रावइ माणइ दिव्वु भोउ । तं णिसुणवि पभणइ सञ्चकित्ति कहिं कामुउ कहिं परलोयवित्ति। कहिं किंबहु कहिं अंबयफलाई कहिं खरयरसिल कहिं सयदलाई। कहिं खीरु महुरु कहिं राइयाउ बंभणमईउ कुविवेइयाउ । मग्गई मंचउ वरभूमि हेमु । मग्गइ कुमारि मुंजइ सकामु । मुइ डिभइ उयरु हणंतु रडइ अण्णाणिउ भवसंसारि पडइ। पुरों, गांवों और नगरोंकी शोभाका निवेश है तथा मलयज सुरभिसे युक्त है, ऐसे मलय देशके भद्रिलपुर नगरमें लाखों प्रतिपक्षोंको संत्रासे उत्पन्न करनेवाली लक्ष्मी और कल्याणका घर, अपने कूलरूपी गगनका चन्द्रमा घनरथ नामका राजा हआ। उसका, नीहारके समान यश और विमलकान्ति वाला सत्यकोति नामक नया मन्त्री हुआ। एक दिन जब राजा अपने दरबारमें बैठा हुआ था, उसकी दानके बारेमें बातचीत हुई। घत्ता-जिन धर्मसे च्युत रोद्रभाव धारण करनेवाला भूरिशर्मा, और उसका शालायन मुण्ड नामका पुत्र, कहता है ।।१७| १८. गोदान भूमिदानादि, पानपात्र, सुन्दर थालियां, स्वणे, रत्न और वस्त्र, फल, क्षेत्र, धवल गृह और पुर, अश्व गज रथवर पीनस्तनी वीणाको तरह सुन्दर आलाप करनेवाली कन्याएँ, जो अपने श्रेष्ठ दर्भमुद्रिकासे अंकित हाथोंसे, हे राजन् ! ब्राह्मणेश्वरोंको देता है, वह स्वर्णविमानोंसे विष्णुलोक जाता है और दिव्य भोगका आनन्द लेता है । यह सुनकर सत्यकीर्ति कहता है-'कहाँ कामुक, और कहाँ परलोक वृत्ति ? कहां नीम और कहां आम्रके फल ? कहाँ कठिन शिला, और कहां कमलदल ? कहां सुन्दर खोर, और कहाँ राजिका? ब्राह्मणकी बुद्धि खोटे विवेकसे भरी हुई है । वह मंच, वरभूमि और सोना मांगता है, वह कुमारी मांगता है, और सकाम भोग करता है। पुत्रके मरने पर पेट पीटता हुआ रोता है और इस प्रकार अज्ञानी संसारमें भ्रमण करता है। ४. AP तासु । १८.१. P गय हय । २. A लावणीउ । ३. AP णरेसु । ४. AP संपावह। ५. AP मग्गइ धरु मंचउ - भूमि हेमु। २२ Page #217 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [४८. १८.११ महापुराण धत्ता-भक्खइ मृर्गमासु सुज्झइ पिपलफंसणिण ॥ णिउ णरयहु लोउ णिग्घिणभणसासणिण ॥१८॥ अण्णाणिणि पसु पुण्णेण रहिय बंधणताडणदुक्खेण गहिय । जा गाइ चरंति अमेझु खाइ सा किं संफासें सुद्धि देई। पाणिउ तणुसंगें होइ मुत्तु सोत्तिय तं वुच्चइ किह पवितु । कयप्राणिवग्गणिप्राणियाइ किं एयेइ धुत्तकहाणियाए। जइ देइ देउ तो होउ चाइ कुच्छियदाणे सग्गहु ण जाइ। दिजइ सुपत्तु जाणिवि सणोणु सुय भेसहु अभयाहारदाणु । भाविजइ जीवदयालु भाउ । पुजिजइ सामिउ वीयराउ । णियमिज्जइ कुवहि चरंतु चित्तु । वजिजइ परैधणु परकलत्तु । __घत्ता-जसु दिण्णइ दाणि होइ महंतु अणंतु फलु ।। तं उत्तमु पत्तु पर्णवंतहं परियलइ मलु ॥१९॥ २० जे वज्जियपुत्तकलत्तणेह दुद्धरमलपडलविलित्तदेह । अपरिग्गह जे गिरिगहणणिलय भयलोहमोहमयमाणविलय । जे णिवडिय भवुद्धरणलील उवसग्गपरीसहसहणसील । पत्ता-वह पशुका मांस खाता है और पीपल वृक्षको छूनेसे अपनेको शुद्ध करता है । निर्दय ब्राह्मण-शासनके द्वारा लोग नरकमें ले जाये जाते हैं ? ॥१८॥ वह मात्र अज्ञानी और पुण्यसे रहित है। बन्धन ताड़न और दुःखसे गृहीत है। जो गाय जब चरती है तो अभक्ष्य खाती है, वह स्पर्शसे शुद्धि कैसे दे सकती है, शरीरके संगसे पानी मूत बन जाता है, फिर ब्राह्मण उसे ( मूतको ) पवित्र कैसे कहता है ? जिसमें प्राणीवर्गको निष्प्राण किया जाता है ऐसी इस धूर्तकथासे क्या ? यदि देव देता है, तो त्यागसे क्या? खोटे दानसे वह स्वर्ग नहीं जा सकता? ज्ञानपूर्वक सुपात्रको जानकर शास्त्र औषधि अभय और आहारदान देना चाहिए। जीवोंके प्रति दयाभावकी भावना करनी चाहिए। बीतराग स्वामीकी पूजा करनी चाहिए । कुपथमें जाते हुए मनको रोकना चाहिए। परधन और पर-स्त्रीका त्याग करना चाहिए। घत्ता-जिसको दान देनेसे महान् और अनन्त फल होता है, ऐसे उत्तम पात्रको प्रणाम करनेवालोंका मल दूर हो जाता है ।।१९।। २० जो पुत्र और कलत्रके स्नेहसे रहित हैं, जो दुर्धर मल पटलसे अलिप्त देह हैं, परिग्रहसे रहित जो गहन गिरिरूपी घरवाले हैं, भय लोभ मोह मद और मानको नष्ट करनेवाले हैं, जो संसारमें गिरे हुए भव्योंका उद्धारलीला वाले हैं, उपसर्ग और परीसहको सहन करनेवाले हैं, जो ६. AP मिगमासु । ७. AP पिप्पल । १९.१. A अण्णाणि । २. A होइ । ३. AP कयपाणिवग्गणिप्पाणियाइ। ४. A एणइ। ५. A सुणाण । ६. A परहणु । ७. पणवंतहु । Page #218 -------------------------------------------------------------------------- ________________ - ४८. २१.५ ] महाकवि पुष्पदन्त विरचित जे अरिबंधवहुं मिसमसहाव दिज्जइ जोग्गउ आहारु ताह सत्थेण णाणु अण्णेण भोडे अभयोसहिं परियलइ रोउ ता सालायण मुंडेण उत्त . विणु आगमेण किं तुहुं पमाणु पडिउत्तरु दिण्णउं सावएण अम्हारडं सासणु णत्थि बप्प राहु पैप तु सुई उ णिग्गंथ णिरंजण मुक्कगावे | मज्झणि पट्टहं मुणिवराहं । फलु दाणसूरु नृव लहइ लोउ । ण कया विणिहालइ दुक्खजोडें । दावहि तेरडं सिद्धंतसुत्तु । माणवु पायडमाणव समाणु । इह सीयल पर मेसें गएण । जं रुच्च तं तुहुं चवहि विप्प । दावहि दियवरदावियगईउ । घत्ता-ता कुणयरएण विप्पें जिणमड णिरसियउं ॥ आणिवि रायहु दरिसियउं ||२०|| सई विरइवि क २१ देही संदेहबुद्धीउ जणिऊण । णिद्धम्ममग्गम्मि कम्मेण णिहियाईं । वढं सुविचित्तमिच्छत्तभावाई | पयलंतमहुसोमवाणाहिलासा | उड़कर गाई किविणाई दिट्ठाई । रइयाई ललियाई कव्वाई भणिऊण तवासराओ तर्हि दुट्ठहिययाई गुरुदेव पडिकूलणुप्पण्णगावाई कयपियर मिसगसिय पै सुपे सिगासाई गोदाणभूदाणदढबद्धतिट्ठाई १७१ ५ १० शत्रु और मित्रमें समान स्वभाववाले हैं, निर्ग्रन्थ निरंजन और गर्वसे मुक्त हैं, मध्याह्नमें आये हुए ऐसे मुनियोंको योग्य आहार देना चाहिए। शास्त्रसे ज्ञान होता है, और अन्नसे भोग होता है । हे राजन्, दानशूर व्यक्ति संसार में फल पाता है । अभय और औषधियोंसे रोग नष्ट होता है । और कभी भी वह दुःखका योग नहीं देखता । इसपर शालायन मुण्ड बोला- तुम अपना सिद्धान्त सूत्र बताओ, आगमके बिना तुम्हारा क्या प्रमाण ? मनुष्य तो प्राकृत मानवके समान है । तब उस श्रावकने प्रत्युत्तर दिया, परमेश्वर शीतलनाथके मोक्ष चले जाने पर हे सुभट, हमारा शासन नहीं है, हे विप्र, इसलिए तुम्हें जो कहना हो वह कहो । तब राजा घनरथ कहता है - जिसमें द्विजवरों की श्रेष्ठ गति बतायी गयी है, तुम अपने ऐसे शास्त्र बताओ । घत्ता - तब कुनयमें रत उसने जिनमतका निरसन किया। स्वयं काव्यकी रचना कर ओर लाकर उसने राजाको दिखा दिया ||२०|| ५ २१ रचे हुए सुन्दर काव्य कहकर, शरीरधारियोंमें सन्देह उत्पन्न कर उस दिनसे वहाँ दुष्ट हृदय कर्मके द्वारा धर्मंहीनमार्ग में लगा दिये गये । गुरुदेवको प्रतिकूल करने में जिन्हें अंहकार उत्पन्न हो गया है, जिनके सुविचित्र मिध्यात्वभाव बढ़ रहे हैं, पितरोंके बहाने किये गये यज्ञमें जिन्होंने पशुओं की मांसपेशियोंको खाया है । जिनमें मधु और सोमपान करनेकी इच्छा तीव्रतम २०. १. AP गलियगाव । २. P पवणु; P adds after thes : वलतुलिडं णाई तेलोक्कभवणु । ३. AP णिव । ४. Padds: पच्चेलिउ पावइ सरसु भोउ । ५. AP पपई । २१. १. A देहेण । २. A देवगुरुकूलणुप्पणगव्वाइं; P देवगुरुपडिकूलणुप्पण्णगावाई । ३. A अयमासगा साईं । ४. A पयडंत । ५. P सोमपाणां । ६. A उट्टियं । ७. AP घट्ठाई । Page #219 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १७२ महापुराण [ ४८.२१.६ गुणवंतणिंदिरई णियकुलमयंधाइं दुग्गंधरसभरियणवदेहरंधाई। मयहर्चट्टिरइं पाणियसउच्चाई हिंसाइ घडियाई पन्भट्ठसच्चाई। धरियक्खसुत्ताई मृगेचम्मभूसाई पालासदंडाई कासायवासाई। धणधरणिधरपणइणीमोहमूढाई छक्कम्मगंभीरजरकूवछूढाई । 'दुग्धोदृदुप्पोसपोसणपयट्टाई सुयसत्थवित्थारविलसियमरट्टाई। आसमयावेसपसरियविडंबाई जीवंति दीणाई बंभणकुटंबाई। घत्ता-गयसीयलदेवि भरहि जाय परपत्तविहि ॥ संपीणई विप्पु पुप्फदंत पणवंत सिहि ॥२१॥ इय महापुराणे तिसटिमहापुरिसगुणालंकारे महाकइपुष्फर्यतविरइए महामन्बमरहाणुमजिए महाकव्वे सीयकणाहणिग्वाणगमणं णाम अट्टयोलीसमो परिच्छेओ समत्तो ॥४८॥ ॥ सीयलणाहचरियं समत्त ॥ है। गोदान और भूदानमें जिनकी तृष्णाएँ बंधी हुई हैं। जो करका अगला भाग आये हुए कृपण की तरह दिखाई देते हैं, गुणवानोंकी निन्दा करनेवाले तथा अपने कुलके लिए जो मदान्ध हैं। जिनकी नवदेह दुर्गन्ध रससे भरित है। मृगकी हड्डियोंको चाटनेवाले, पानीसे पवित्र होनेवाले, हिंसासे रचित, सत्यसे भ्रष्ट, अक्षसूत्र धारण करनेवाले, मृगचर्मसे भूषित, पलाश दण्ड धारण करनेवाले, और गेरुए वस्त्र पहिननेवाले, धन भूमि घर और प्रणयिनीके मोहसे मूढ़ छह कर्म रूपी गम्भीर पुराने कूपमें पड़े हुए, मधु और मांसके पोषणमें लगे हुए-श्रुत शास्त्रोंके विस्तारमें विलसित अहंकारवाले ब्रह्मचारी गहस्थ वानप्रस्थ और यतिके रूप में जो लोकको प्र वाले हैं, ऐसे दोन ब्राह्मण-कुल जीवित रहते हैं। पत्ता-शीतलनाथके निर्वाण प्राप्त कर लेने पर भरतक्षेत्रमें दूसरे पात्रोंकी विधि फैल गयी ( पुष्पदंत कवि कहता है ) कि आगको प्रणाम करता हुआ विप्र प्रसन्न होता है ॥२॥ इस प्रकार त्रेसठ महापुरुषों के गुणालंकारोंसे युक्त महापुराणमें महाकवि पुष्पदन्त द्वारा विरचित महामन्य भरत द्वारा अनुमत महाकाव्यका शीतलनाथ निर्वाण गमन नाम का अडताकीसवाँ परिच्छेद समाप्त हुभा ॥१८॥ ८. A मयहुंडचंडिरइं; P मयहड्डचड्डिरई। ९. A मयचम्म'; P मिगचम्म । १०. A दुग्घट्टदुघोस । ११. AP आसवमयावेस । १२. A अकृतालीसमो । १३. AP omit the line | Page #220 -------------------------------------------------------------------------- ________________ संधि ४९ दहमउ गुरु मई तुह कहिउ देउ मोक्खमाणससरहंसु ।। अवरु वि सुणि सेणिय भणमि एयारहमउ जिणु सेयंसु ॥ध्रुवक।। जासु ण मुक्का मारें मग्गण जेण ण खंडणु किउ चारित्तहु जो ण वडिउ संसारसमुद्दइ अकयइ णिचइ पडिमारूवइ जो णाणे पेक्खइ णीसेसु वि जो सुक्कियमहियम्महु विसहरु जेण राउ मेल्लविय मुयंगय भालि ण दिजइ जसु तिल उल्लउ जो जाणइ जीवहं गुण मग्गण । तवपन्भार णिञ्चारित्तहु । मुहिउ जेण तिलोउ समुद्दइ। जासु ण रमइ दिवि तृयरूवइ । पयजुयलइ णिवडइ जसु सेसु वि। जो पंचिंदियविसहरविसहरु । जासु ण पत्तावलि वि मुयंगय । जो अप्पणु तिहुयणि तिल उल्लउ । सन्धि ४९ (श्री गौतम गणधर कहते हैं)-"मैंने तुम्हें दसवें गुरु ( तीर्थकर ) शीतलनाथके विषयमें बताया कि जो मोक्षरूपी मानसरोवरके हंस हैं। हे श्रेणिक, और भी सुनो-मैं ग्यारहवें श्रेयांस जिनका कथन करता हूं।" जिसपर कामदेवने अपने तीर नहीं छोड़े, जो जीवके गुणस्थानों और मार्गणाओंको जानता है। जिसने चारित्रका खण्डन नहीं किया, तपके प्रभावसे जो शत्रुभावसे रहित हैं, जो संसाररूपी समुद्रमें नहीं गिरते, जिसने अपनी मुद्रासे त्रिलोकको मुद्रित किया है। जिसकी दृष्टि, अकृत्रिम नित्य प्रतिमारूप और स्त्रीरूपमें रमण नहीं करती, जो ज्ञानके द्वारा सब कुछ देख लेते हैं, जिनके चरण युगलमें शेष संसार पड़ता है, जो पुण्यरूपी वृक्षके लिए मेघ हैं और पांच इन्द्रियरूपी विषधरों के विषका अपहरण करनेवाले हैं, जिन्होंने रागरूपी विट को छोड़ दिया है, जिसपर टेढ़ी पत्रावली A has, at the beginning of this Samdhi, the following stanza : सया सन्तो वेसो भूसणं सुद्धसीलं सुसंतुटुं चित्तं सम्बजीवेसु मेत्ती। मुहे दिव्या वाणी चारुचारित्तभारो अहो खण्डस्सेसो केण पुण्णेण जाओ॥१॥ This stanza is found in P at the beginning of Samdhi L. K does not give it anywhere । १. १. AP सुणु । २. APT तियरूवइ । ३. P adds after this : दुरविमुक्कउ बंधविसेसु वि, सममणु बहुधणेसु णीसेसु वि. । ४. A महिजम्महु । Page #221 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १७४ महापुराण [४९. १.११जो परिहइ ण कयाइ वि कंकणु णउ फंसइ सञ्चित्त के कणु । णिच्चेलक जेण पडिवण्णउं । जइ वि चीरु चंगउं पडिवण्णउं । तो वि र्ण परिहइ जो णिण्णेहलु' जो ढोयइ णरि णिरु णिण्णे हलु । तहु देवहु संचियसेयंसहु पयजुयलउ वंदिवि सेयंसहु । घत्ता-पुणु अक्खमि तहु तणिय कह कित्ति वियंभउ मह जगगेहि ।। पुक्खरवरदीवंतरइ सुरदिसि मेरुहि पुश्वविदेहि ॥१॥ सालतमालतालतरुसंकडि सीयतरंगिणिपवरुत्तरतडि । कच्छउ देसु देससिरिसंकुलु वियसियकमलकोसरयपरिमल । कलववडियकलेविं कयकलयलु दुमफुल्लासियफुल्लंधुयचलु । तहिं खेमउरु काई वणिजइ जहिं पिययमु पणएं कलहिज्जइ । सरु वायरंणि गवर संधिज्जइ तणु विरहेण ण वाहिइ झिजइ । णहवणु ण वणु जेत्थु भडभंडणि केसगहणु बिंबाहरचुंबणि । अत्थसमप्पणि जहिं पयविग्गहु जइयणि णउ सावजपरिग्गहु । जहिं णिण्णासिय परमंडलवइ पासबद्ध णं घरमंडलवइ । भी नहीं है, जिसके भालपर तिलक नहीं दिया जाता, जो स्वयं त्रिभुवनमें तिलक स्वरूप हैं, जो कभी भी कंकण नहीं पहनते, जिनका अपना चित्त जल और बीजका स्पर्श नहीं करता, जिन्होंने अचेलकत्व (अपरिग्रहत्व) स्वीकार कर लिया है, यद्यपि वस्त्र पटी ( रेशमी वस्त्र ) के समान रंगवाला है, तब भी वह नहीं पहनते। जो स्नेह रहित हैं, फिर भी निम्न ऊंच मनुष्यको (स्वर्गादि) फल देते हैं, कल्याणका संचय करनेवाले देव श्रेयांसके चरणोंकी वन्दना कर। घत्ता-फिर मैं उनकी कथा कहता हूँ कि जिससे विश्वरूपी घरमें मेरी कीर्ति फैले। पुष्करवर द्वीपकी पूर्व दिशामें सुमेरुपर्वतके पूर्व विदेह में ॥१॥ सीता नदीके साल तमाल और ताड़ वृक्षोंसे परिपूर्ण विशालतटपर, देश-लक्ष्मीसे व्याप्त कच्छ देश है, जिसमें विकसित कमल-कोशोंका रजमल है। धान्य विशेषके वृक्षोंपर बैठे हुए गौरेयापक्षियोंका कलकल स्वर हो रहा है, जो वृक्षोंके फूलोंपर बैठे हुए भ्रमरोंसे चंचल हैं। उसमें क्षेमपुर नगर है। उसका क्या वर्णन किया जाय, जहाँ प्रियतमसे प्रणयमें ही कलह किया जाता है (अन्यत्र कलह नहीं है)। जहां व्याकरणमें ही सर (स्वर और सर ) का संधान किया जाता है, अन्यत्र सरोंका संधान नहीं किया जाता; जहाँ विरहसे ही शरीर कृश होता है, रोगसे नहीं; जहां नखोंके व्रण ही हैं, योद्धाओंकी भिड़न्तमें जहां व्रण नहीं होते। विम्बाधरोंके चूमने ही में जहां केशग्रहण होता है, अन्यत्र केशग्रहण नहीं होता है। जहां अर्थों और पदवाक्योंके समर्पण (सम्पादन) में पद विग्रह (पदोंका विग्रह, प्रजाका विग्रह) होता है, अन्यत्र आर्थिक लेन-देनमें प्रजाका झगड़ा नहीं होता, जहां जैनोंमें सावध परिग्रह नहीं होता, जहां शत्रुमण्डलके राजा इस प्रकार ५. AP सचित्तउं । ६. AP तो णवि । ७. A जइ णिण्णेहलु । २.१. A देससरिसंकुल । २. A कलेवि; P कलंबि । ३. P ण पर। ४. A जइयणि तउ सावज्जपरिग्गह; P णउ परअत्थहरणि कयविग्गहु । ५. P णित्तासिय । | Page #222 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १७५ -४९. ३. १० ] महाकवि पुष्पदन्त विरचित जहिं चोरारिमारिदालिब इं पासंडाइं वि णत्थि रउद्दई। तहिं राणउ णलिणालयमाणणु णलिणप्पहु णामें णलिणाणणु । घत्ता-भयभीयई महिणिवडियई जीये देव सविणउ जंपंति ॥ जासु पयावें तावियइं परणरणाहसयई कंपंति ॥२॥ कलयलंतचलकलकोइलगणि तावण्णहिं दिणि सहसंबयवणि । पेच्छिवि जिणु अणंतु वणवाले विण्णत्तउ सिरेगयभुयडालें । तहु तहिं तवसिहिहुयवम्मीसरु गुणदेवहं भवदेवहं ईसरु । परमप्पउ पसण्ण परमेसरु आयउ देउँ धम्मचक्केसरु । तं णिसुणेवि तेण तित्थंकर जाइवि वंदिउ दुरियखयंकरु । बुज्झिवि धम्मु अहिंसालक्खणु चिंतिवि बंधमोक्खविहिलक्खणु। देवि सुपुत्तु महिहिं परिरक्खणु सई रिसि हूयउ राउ वियक्खणु । चरणमूलि जइवरहु अणंतहु चरइ मग्गि दुग्गमि अरहंतहु । घत्ता-णीलकिण्हलेसउ मुयइ काउलेस दूरें वजंतु ।। सुक्कलेस मुणिवरु धरइ भीमें तवतावें खिज्जंतु ।।३।। संत्रस्त और पाशबद्ध हैं, मानो घरके कुत्ते हों। जहाँ चोर शत्रु मारी और दारिद्रय और भयंकर पाखण्डी नहीं हैं। उसमें लक्ष्मीको भोग करनेवाला और कमलके समान मुखवाला नलिनप्रभु नामका राजा था। पत्ता-जिसके प्रतापसे सन्तप्त होकर, सैकड़ों शत्रुराजा काँप उठते और भयभीत होकर धरतीपर गिरकर 'हे देव आपकी जय हो, विनयके साथ यह कहते हैं ॥२॥ इतनेमें एक दिन, जिसमें चंचल कोकिल-समूह कलकल कर रहा है, ऐसे सहस्राम्ब नामक वनमें अनन्त जिनको देखकर, वनपालने अपनी भुजारूपी डालें सिरसे लगाते हुए, उससे निवेदन किया, "हे देव ( उद्यानमें ) तपकी आगमें कामदेवको नष्ट करनेवाले गुणदेवों और विश्वदेवोंके ईश्वर परमात्मा प्रसन्न परमेश्वर और धर्मचक्रेश्वर देव आये हुए हैं." यह सुनकर, उसने जाकर पापोंका नाश करनेवाले तीर्थकरकी वन्दना की। तथा अहिंसा लक्षणवाले धर्मको समझकर एवं बन्ध और मोक्षकी विधि तथा लक्षणका विचार कर, अपने पुत्रको भूमिके रक्षण का भार सौंपकर, वह विचक्षण राजा स्वयं ऋषि हो गया। वह, मुनिवर अनन्तनाथके चरणमूलमें दुर्गम चर्यामार्गमें विचरण करने लगा। घत्ता-वह कृष्ण और नोल लेश्या छोड़ देता है, कायक्लेशका दूरसे परित्याग करता है। वह मुनिवर शुक्ल लेश्या धारण करता है और भीम तपतापमें वह अपनेको क्षीण करता है ।।३।। ६. A जीव । ३. १. A तावण्णयदिणि । २. A सिरि गय । ३. AP पसण्णु । ४. AP देव । ५. AP मुयाउ । .. Page #223 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १७६ महापुराण [ ४९. ४.१ मंदरधीर वीरु दिहिपरियरु इथिअत्थनृवथेणकहतरु । ण भणइ ण सुणइ णिप्रि णीरउ एयारहवरंगसिरिधारउ । कोहु लोहु माणु वि मुसुमूरइ .. मायाभावु होतु संचूरइ । चक्खुसोत्तरसफासणघाणइं जिणइ हणइ दुक्लियसंताणई। विहुणिवि घिवइ णिई सहुं पणएं अप्प भूसइ रिसि रिसिविणएं । ण सरइ पुत्वकालेरइकीलणु ण करइ दंतपंतिपक्खालणु । णहखंडणु सरूवपरिपुंछणु करयलवट्टि सरीरणियच्छणु । हसणु भसणु भूभंगु ससंसणु पाणिणंटु परगुणविद्धंसणु । साहिलासु सवियारउ दसणु णियडणिसणहरिणसंफंसणु । १० णक्खछोडि तणुमोडि ण इच्छइ परमसाहु लिहियेउ इव अच्छा घत्ता-बंधिवि तित्थयरत्त तहिं दंसणसद्धिा तोडिवि भंति ।। अच्चुइ पुप्फुत्तरणिलइ जायउ सुरवरु ससहरकंति ॥४॥ आउ दुवीससमुद्दपमाणई कोले गिलियई दुकपमाणई। तहु छम्मासु परिट्ठिउ जइयहुँ अक्खइ जक्खहु सुरवइ तइयहुँ । जंबुदीवि भरहि सीहउरइ धणकणजणगोहणगुणपउरइ । धैर्य ही जिनका परिग्रह है ऐसी मंदराचलके समान धीर वीर निस्पृह एवं निष्पाप वह, स्रो भोजन नृप और चौर्य कथाको न सुनते हैं और न कहते हैं, ग्यारह श्रेष्ठ श्रुतांगोंकी शोभाको धारण करनेवाले वह, क्रोध लोभ और मानको भी नष्ट कर देते हैं, चक्षु श्रोत्र जिह्वा स्पर्श और प्राण इन्द्रियोंको जीत लेते हैं, और पापकी शृंखलाको नष्ट कर देते हैं। प्रणयके साथ, वह निद्राको भी नष्ट कर देते हैं, और वह मुनि ऋषिकी विनयसे स्वयंको विभूषित करते हैं, वह पूर्वकालकी रतिक्रोडाकी याद नहीं करते, और न दन्तपंक्तिका प्रक्षालन करते हैं, नखोंका खण्डन, अपने स्वरूपका मार्जन, करतल रूपी वर्तिकासे शरीरको देखना, हंसना बोलना, भ्रूभंग करना श्वास लेना, हाथ हिलाना, परगुणोंका नाश करना, अभिलाषापूर्वक और विकारके साथ देखना, निकट बैठे हरिणोंका स्पर्श करना, नख छोटे करना, शरीर मोड़ना, वह नहीं चाहते । परम साधु चित्रलिखितकी तरह, स्थित रहते हैं। पत्ता-वहाँ, दर्शन विशुद्धिसे भ्रान्तिको नष्ट कर और तीर्थकर प्रकृतिका बंधकर, अच्युत स्वर्गके पुष्पोत्तर विमानमें वह चन्द्रमाकी कान्तिवाले देव हो गये ॥४॥ उसकी आयु बाईस सागर पर्यन्त थी। समयके साथ नष्ट होने पर उसका भी अन्त आ पहुंचा। जब उसके छह माह शेष रह गये, तब इन्द्र कुबेरसे कहता है, 'जम्बूद्वीपके भरतक्षेत्र में ४. १. A इत्थिअत्तिणिव and gloss अत्ति भोज्यं; P इथिअत्यणिव । २. A P णिप्पिड । ३. AP मोहु । ४. P णिद्दे । ५. A पुव्वकालि। ६. P परिपेच्छणु । ७. A पाणिणिह। ८. Aणिसष्णहं हरिणहं फंसण; P"णिसण्णहं णवि संफंसणु । ९. P लिहिउ इव । ५. १. AP°समाणई । २. A कालि । Page #224 -------------------------------------------------------------------------- ________________ -४९. ६.८ ] महाकवि पुष्पदन्त विरचित आइदेवकुलसंतइजाय उ दादेवि तासु घरसामिणि तरु ओहामियदिणयरु ता तुरितुहुं करि भल्लारजं धणएं पुरु पविणिम्मिउं तेहउं वि णाम राणड विक्खायउ । कामसुहंकरि णं सुरकामिणि । एयह दोहं वि होसइ जिणवरु । रयणरंतु जयरु चउदार । महिं वण्णहुं जाइ ण जेहउँ । घत्ता-ताणज्जइ दिणु णिश्च जहिं जा सरेवरि कमलई वियसंति ॥ वरमणिकिरणहि ततडिय उग्गय रवियर णउ दीसंति ||५|| ६ तहिं सणालइ 'सिरिअसइयइ पुण्णचंद सोहिय मुहयंद‍ अविश्यगलिय दाणधारालउ वालसिहाककुखुर मणहरु कुडिलणहरु भइरवरुंजेणरवु कण्णतामहुलि विदेहिं मालाजुयलु भिंगँपियकेसरु कलस जुलु णवकमलु सकोमलु पच्छिमरयणिहि णिद्दधेइयइ । सिविणपति अवलोइय णंदइ । भमियसिलिम्मु होलिसोंडालउ | सउरहेउ रुइरंजियससहरु । गिरिगुहणीहरंतु कंठीरवु । सिरि सरि सिंचिज्जंति करिंदहिं । सिमंड भारु णेसरु । मणमिणुं जलकीला चंचलु | धन जन कण और गोधन और गुणोंसे प्रचुर सिंहपुर में, आदिदेवकी कुल परम्परामें उत्पन्न विष्णु नामका विख्यात राजा है । उसकी गृहस्वामिनी नन्दादेवी है । काममें शुभंकर वह सुरकामिनीकी तरह है । अपने तेजसे दिनकरको तिरस्कृत करनेवाले जिनवर इन दोनोंके पुत्र होंगे । इसलिए तुम शीघ्र रत्नोंसे चमकता हुआ चारद्वारों वाला नगर बनाओ । कुबेरने इस प्रकारके नगरकी रचना की कि जिसका मनुष्योंके द्वारा वर्णन नहीं किया जा सका । ३. AP संतर जाउ । ४. A पुरु विणिम्मिउ । ५. A संरवरकमलई । ६. १. A णिरु अइसइयइ । २. AP णिङ्घइ । ३. A सिविणयतइ; T तइ पंक्तिः । ५. A भइरवभंजणरउ | ६. A वंदहि । ७. A भिंगु पयं । ८. A मंडलु १०. A मी जुलु । २३ १७७ घत्ता - जहाँ सरोवर में नित्य ही कमल खिलते हैं इसलिए दिन जान नहीं पड़ता, श्रेष्ठ मणिकिरणों से मिश्रित ऊगी हुई भी सूर्यकिरणें दिखायी नहीं देतीं ||५|| ६ वहाँ श्री से अतिशय भरपूर रात्रिके अन्तिम प्रहर में शयनतलपर नींदमें सोयी हुई नंदादेवी स्वप्नमाला देखती है । अविरत झरती हुई मदधारासे युक्त और भ्रमण करती हुई भ्रमरपंक्तिवाला महागज, पूँछ गलकम्बल ककुद और खुरोंसे सुन्दर और कान्तिसे चन्द्रमाको रंजित करनेवाला वृषभ, कुटिल नख और भयंकर गर्जन शब्दवाला पहाड़की गुफासे निकलता हुआ सिंह, अपने कानोंके तालोंसे मधुकर समूहको आहत करते हुए गजेन्द्रों द्वारा सिर पर अभिषिक्त श्री; भ्रमर और पोली केशरसे युक्त मालायुगल, लक्ष्मी ? और रात्रिका मण्डन (चन्द्रमा), भास्वर सूर्य, कोमल नवकमलोंसे सहित कलशयुगल, जलक्रीड़ासे चंचल मोनयुगल, सरोवर, समुद्र, १० ४. AP अविरल । ९. AP कलसजमल । Page #225 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १७८ १० ५ १० महापुराण देवालउ फणिभवणु फणीसणु । सरु सररासि चारुसीहासणु माणिको मोहमालाले डे सिहि हयलि जलंतु चलजालउ । घत्ता - एंव णिहालिवि चंदमुहि चंदकति सुहृदंसणपंति || जाइवि भासह भूवइहि सुंदरि सुविहाणइ विहसंति ||६|| महिवर मेहघोसु णिञ्चप्फलु जसु आणइ हरि अच्छइ गच्छइ जो परु अप्परं परहु पयासइ सासयसोक्खसरोरुहछप्पर तेरइ गब्भइ अब्भउ होसइ वुट्टु कुवेरु' देव वणिहिहरु कंतिकित्तिसिरिहिरिदिहिबुद्धिउ आयउ जाउ जर्णैउच्छाहर चित्तसुरासुरपंकयविट्टिहि संवणि सुरिक्ख पच्छिमरतिहि जक्खणिहित्तइ दुक्खणिवारइ ७ कहइ महासइहि सिवियफलु । जो सयरायरु लोउ नियच्छइ । जासु दो तिलमेत्तु ण दीसइ । सो अरहंतु संतु परमप्पर । ता रोमंचिय णच्चिय सा सइ । जा छम्मास तांबे चामीयरु । देवि देवहि कितणुसुद्धिउ । सग्गज संचु अच्चयणाहउ | जे मास हि छट्टिहि । थिउ उयरंतरि पत्थिवपत्तिहि । पुनवमास सित्तु वसुहारइ । [ ४९.६.९ सुन्दर सिंहासन, देवलोक, नागराजका नागलोक, मयूखमालासे युक्त माणिक्य-समूह, चंचल ज्वालाओं वाली आकाशमें जलती हुई आग । घत्ता - चन्द्रमुखी और चन्द्रमाके समान कान्तिवाली और शुभ दन्तपंक्तिवाली वह यह देखकर, दूसरे दिन सबेरे जाकर हँसती हुई उन्हें राजाको बताती है ॥६॥ ७ मेघ के समान ध्वनिवाले निश्चल राजा उस महासतीको स्वप्नोंका फल बताते हैं कि जिसकी आज्ञा से इन्द्र बैठता और चलता है; जो सचराचर लोक देख लेते हैं, श्रेष्ठ जो स्वपरका प्रकाशन करते हैं, जिसके तिलके बराबर भी दोष दिखाई नहीं देता, जो शाश्वत मोक्षरूपी सरोवर के भ्रमर हैं वह अरहंत सन्त परमेश्वर तुम्हारे गर्भसे बालक होंगे। तब वह सती रोमांचित होकर नाच उठी । जब छह माह रह गये, तो नवनिधियोंको धारण करनेवाले कुबेरने स्वर्णवृष्टि की। देवीको शरीर शुद्धि करनेवाली कान्ति, कीर्ति, श्री, ह्री, धृति और बुद्धि आदि देवियाँ आयीं। लोगों में उत्साह फैल गया । अच्युत स्वर्गके स्वामी वह स्वर्गसे च्युत हुए। ज्येष्ठमाह के कृष्णपक्ष में जिसने सुरासुरोंमें कमलवृष्टि की है ऐसी छठीके दिन, श्रवण नक्षत्रमें रात्रिके अन्तिम प्रहरमें राजाकी पत्नीके उदरमें वे स्थित हो गये । यक्षके द्वारा की गयी दुःखका निवारण करने वाली धनकी धाराने फिर नौ माह तक सिंचन किया। ११. A सिंहास । १२. A मोहु मालालउ । ७. १. A कुबेरदेउ । २. A जाम । ३ AP कयं । ४ AP जणि उच्छाउ । ५. A कण्हयछट्टिहि । ६. A सवणसुरिषखइ । ७. AP णवमासु । Page #226 -------------------------------------------------------------------------- ________________ -४९. ९.३ ] महाकवि पुष्पदन्त विरचित घत्ता—छावट्ठिलक्खछव्वीसहिं वि वरिससहासहि रिद्धउ ॥ सायरस छडिवि कोडि गय थक्कर पुणु पल्लेद्धउ ॥७॥ ८ इहुं वट्टइणिogs सीयलि इहुं तिहिं णाहिं संजुत्तउ गुणियारहमे वासरि विहे जोइ उप्पण्णउ जोइउ आपणु भत्ति तरुणीलहु सिहर कुहर थियखगरामालहु णिहियर पावर्डेलणिण्णासणि उत्त मंत विहि सयल करेष्पिणु सुरपेल्लिउ णं डोल्लई मंदरु अलिझंकार सरलई सदलई कमलि कमल आसीणई हंसई उ अरुहधम्मु धरणीयलि । पुव्वजम्मि भावियरयणत्तउ । चिमेव खिज्जंतइ ससहरि । मायइ तारहिं णयणहिं जोइउ । मेलविरइतारामालहु | अमरवरेसें णिउ सुरसेलहु । "पंडुसिलायलि पंचासाणि । खीरं भोणिहिखीरु एप्पिणु । घत्ता - सायकुंभमयकुंभकर एंति गयणि णचंति णवंति ॥ खीरवारिधारासयहिं देवदेउ भावेण ण्हवंति ||८|| ९ कलसहं सहसई लेइ पुरुंदरु | कलसि कलसि संणिहियई कमलई । हंसई कयकलसरणिग्घोसई । १७९ घत्ता - जब सौ सागर और छियासठ लाख छब्बीस हजार वर्ष कम एक सागर प्रमाण समय बीत गया, और जब आधापल्य समय रह गया ॥ ७॥ १० ८ कि जब शीतलनाथ निर्वाणको प्राप्त हुए थे और अर्हतधर्म धरतीतल पर नष्ट हो गया था । तब तीन ज्ञान से युक्त पूर्व जन्ममें रत्नत्रयको भावना करनेवाले योगी श्रेयांस फागुन माह के कृष्ण पक्ष की एकादशी के दिन कि जब चन्द्रमा प्रतिदिन क्षोण होता जा रहा था, विष्णु योगमें उत्पन्न हुए। उन्हें माँ ने अपनी उज्ज्वल आँखोंसे देखा । भक्तिसे आकर इन्द्र उन्हें वृक्षोंसे नीले, जिसकी मेखला तारावलियोंसे शोभित है, जिसके शिखर-कुहरों में विद्याधर स्त्रियाँ स्थित हैं, ऐसे सुमेरुपर्वतकी पापपटलको नष्ट करनेवाली पाण्डुकशिलाके सिंहासनपर उन्हें रख दिया । उक्त समस्त मन्त्रविधि पूरी कर, और क्षीरसमुद्रका जल लेकर । घत्ता - स्वर्णमय घड़े हाथ में लिये हुए देव आते हैं, आकाशमें नाचते और प्रणाम करते हैं, क्षीर जलकी सैकड़ों धाराओंसे भावपूर्वक देवदेवका अभिषेक करते हैं ॥ ८॥ ९ देवोंसे प्रेरित मन्दराचल मानो डगमगा उठता है; इन्द्र हजारों कलशोंको लेता है, प्रत्येक कलशपर भ्रमरोंसे झंकृत सरल और सदल कमल रखे हुए हैं, कमल-कमलपर हंस बैठे हुए हैं, हंस ८. A सिट्टउ; P सिद्धउ । ९. A पुण्णटूउ | ८. १. A फग्गुणश्यारहमइ । २. AP विण्डुजोध; T विण्डुजोए ज्येष्ठानक्षत्रे । ३ AP वलय । ४. A पापडलु । ५. A पंडसिलायलि । ६. A मंगलु सासणि । ९. १. P डोल | Page #227 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १८० ५ १० ५ जे कलसर ते किरे वम्महसर वम्महसरवरेहि जणु दारिउ जिणु सिसु मयणहु अज्जु वि संक करइ कामु धणुगुणकार बहुएं सेयंसेण णिउत्तउ आणिवि णयरु समप्पिड माय हि पण वेष्पिणु दुक्कियघणपवणहु काले जंतें वत्थुपैमा उ धत्ता एकवीसलक्खईं बालतें पुणु पुज्जिर पोलोमीकंर्ते रज्जु करंतहु कामरसद्दहं एहउ अवसरु जायउ जइयहुँ दिट्ठउ तंबिरपल्लवु चूयउ सो णं जालहिं जलइ णिरारिउ महापुराण - हेमच्छविहि भडारहु तासु अँसीइसरा सण म्हार विविणरामर । जणवण हियवइ जिणु धारिउ । तेण जि रइ थणजुयलु ण ढंकइ । पसरइ अच्छरउलहं वियारउ । समण सेयंसु पउत्तर । तणयालोयणवियसियछायहि । गयउ पुलोमै पणुणियभवणहु । वडिउ पुरि तइलोक्कहु राणउ । दिट्ठउ 'तं णेय रहति ॥ गणहर तणुपरिमाणु कहति ||१९|| जं १० घल्लियाई वरिसह खेळंतें । किउ रज्जाहिसेउ गुणवंतें । दोचालीस लक्ख गलियदहं । णा कीवणि तर्हि तइयहुँ । मयणहुयासहु बीउ हूयउ । विरहीय तें ताविउ मारिउ । भी कलस्वर में निर्घोष कर रहे हैं, उनके जो सुन्दर स्वर थे वे मानो कामदेव के तीर थे, जो मर्मका भेदन करनेवाले और मनुष्य और देवोंको विदारित करनेवाले थे। जब कामदेव के तीरोंने लोगोंको विदीर्ण कर दिया तो उन्होंने जिनको अपने हृदय में धारण कर लिया। जिनदेव बालक हैं, तब भी कामदेव आज ही शंकित है, इसी कारण रति अपने स्तनयुगलको नहीं ढकती । कामदेव अपने धनुषकी डोरीकी टंकार करता है, उससे अप्सराकुलमें विकार फैल जाता है । अनेक कल्याणोंसे नियुक्त प्रभुको इन्द्रने श्रेयांस कहा । नगर में लाकर उसने, उन्हें पुत्रको देखनेसे जिनकी कान्ति विकसित हो गयी है, ऐसी मां को सौंप दिया । पापरूपी बादलोंके लिए पवन उनको प्रणाम कर इन्द्र अपने विमानमें चला गया । समय बीतनेपर, उपमानसे रहित त्रिलोकके राजा वह नगर में बड़े हो गये । घत्ता - आदरणीय उनको स्वर्णछविको जिसने देखा वह रह नहीं सका । गणधर उनके शरीरका प्रमाण अस्सी धनुष प्रमाण बताते हैं ॥९॥ [ ४९.९.४ १० खेल-खेल में उनकी बाल्यावस्थाकी इक्कीस लाख वर्ष आयु बीत गयी । फिर देवेन्द्र उनकी वन्दना को और गुणवान् उसने उनका राज्याभिषेक किया । राज्य करते हुए, कामरससे आर्द्र उनके बयालीस लाख वर्ष बीत गये । जब उनका यह अवसर आया तो स्वामीने क्रीड़ावनमें लाल-लाल पल्लवोंका आम्रवृक्ष इस प्रकार देखा, मानो वह कामरूपी अग्निका बीज हो । वह मानो ज्वालामोंसे जल रहा था, इसी कारण उसने विरहीजनको सन्तप्त और आहत ५. AP वत्थुवमाणउ; २. A किल ते; P ते किल । ३. वि । ४. P पुलोमविणु । Tवत्थु अम्मोउ । ६. P तं तें अरहंतें । ७. P असीसरासणई । ८. P कहतें । १०. १. AP पणवंतें । २. AP णा की लंतें वणि तइयहु । Page #228 -------------------------------------------------------------------------- ________________ महाकवि पुष्पदन्त विरचित णं वसंत पहु पड़हउ वज्जइ । महरु म पिविणं गायइ । अम्हारडं वणु अण्णु जि दीसइ । पल्लवियडं कुसुमोलिहिं भरियउं । ही सयलहु लोयहु परिणइ । परिणामहु जडु जीउ ण चुक्कइ । निष्परिणाम सिद्ध परमेट्ठी ॥ हो हो अथिरेण महुं णिच्चल तेत्थु णिरंभिवि दिट्ठी ||१०|| घत्ता - जगु परिणा में दूसियउ -४९. ११. ८ ] पुणु कोइ कलस गज्जइ रुरुतु अप्पाणु ण चेयइ ता परमेसर मणि मीमंसइ काले कंटेंइयडं अंकुरियरं फलिडं फलावलीहिं णं पणवइ परिणेमंतु जगु णिविसु ण थक्कइ ता संपत्त तेत्थु सुरवरगुरु सो आइंडलु तं सुरमंडलु आय पुणु व हवणु किउं देवहु विमेलें सिवियाजाणं णिग्गउ फग्गुणि कसणि एयार सिदियहइ सवणरिक्खि उवस मियकसायल वासवेण रिसि जायउ दरिंदें एंतु पडिच्छिउ ११ तेहि तुरिउ पडिबोहिउ जगगुरु । तं अच्छरउलु मणिमय कुंडलु । निट्ठियचरियावरण विलेवहु । हुमणोहरु णंदणवणु गड | दियाहिवि अवरासासँगइ | भूवैइ मुक्कभूइभूभायउ । सिद्धत्थर पुरु भिक्खहि आयउ । सुद्धपिंड तहु तेण पयच्छिउ । १८१ किया था । फिर कोयल कलकल शब्दमें गरज उठती है मानो वसन्त राजा अपना नगाड़ा बजा रहे हैं। भ्रमर गुनगुन करता हुआ, स्वयं नहीं चेतता, मानो वह मधु पीकर गा रहा है, तब परमेश्वर अपने मनमें विचार करते हैं कि हमारा वन तो आज दूसरा दिखाई दे रहा है। यह कालसे कंटकित और अंकुरित पल्लवित और पुष्पपंक्तियोंसे भरा हुआ है और फलकी कतारोंसे लदा हुआ मानो झुकता है, यही समस्त लोककी परिणति है । परिणमन करता हुआ यह विश्व एक क्षणके लिए नहीं रुकता और परिणामसे यह जड़ जीव एक पलके लिए नहीं चूकता । १० धत्ता - यह विश्व परिणामसे दूषित हैं केवल सिद्ध परमेष्ठी परिणामसे रहित हैं । यह अस्थिरता रहे रहे, मैं अपनी निश्चल दृष्टिको वहीं अवरुद्ध करूंगा ||१०| ११ तब इतने लोकान्तिक देव वहाँ आ गये । उन्होंने तुरन्त वहां विश्वगुरुको सम्बोधित किया । वही इन्द्र, वह सुरसमूह, वह मणिमय कुण्डलवाला अप्सरा कुल, वहीं आया । चारित्रावरण कर्मके अवलेपको नष्ट करनेवाले देवका फिर अभिषेक किया गया । पवित्र शिविकायान में बैठकर देव निकले और स्वामी सुन्दर नन्दन वनमें पहुँचे । फागुन माह के कृष्णपक्षकी एकादशी के दिन, सूर्यके पश्चिम दिशा में प्रवेश करनेपर श्रवण नक्षत्र में, जो ऐश्वर्य और धरतीके भावसे मुक्त हैं, ऐसे वह उपशान्तकषाय राजा दो उपवासोंके साथ मुनि हो गये । वह सिद्धार्थ नगर में आहारके लिये गये । ३. AP पिएइ । ४. P कंटइयउं कुरियउं । ५. A परिणवंतु । ६. AP परमेट्ठिहि । ७. A होही । ८. A णिच्चल तेसु णिरुभिवि दिट्ठिहि; P णिच्चलत्तेसु णिसंभिवि दिट्ठिहि । ११. १. Aवरणु । २. AP विमल । ३. A भूयई । ww Page #229 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १८२ १० ५ दुइ वरिस विहरेपणु महियलि माहहु मासहु णिच्चंदइ दिणि अवरण्हइ तिरत्तसंजुत्तहु महापुराण घत्ता—संभूयउं केवलु तहु विमलु णाणु तेर्णं तेलोक्कु विदिट्ठ ॥ पत्तउ सामरु अमरवइ जिणु थुणंतु महु भावइ धिट्ठे ॥ ११ ॥ 4 १२ तुहु जि देउ तुह णवइ पुरंदरु तुग्गु तुह बीहइ दियरु तु गहीरु वरुणा दिउ तु रयतरुसिहि सिहिणा सेविउ तुह पायग्गहिं वाउ विलग्गड तुहुं जमपासवसेण ण बद्धउ तुहुं जि कालु कालहु कालुत्तरु सव्वु वि जाणसि पेच्छसि जेण जि पुठिवल्लइ वणि तुंबुरुतरुतलि । छेइल्लइ सवणइ मयलंछणि । अचलियपत्तलपविउलणेत्तहु | तुहुं थिरु तुह पीढुल्ल मंदेरु । कंतिबंतु तुहुं तुह ससि किंकरु । तुहुं अणिणिहि धणएं वंदिउ । तु जि मंतिमंतीसह भाविउ । तो वि तु पहु बाएं भग्गड । जमु तुह सेवाविहिपडिबद्धउ । तुहुं विवाइ वाइहिं दिण्णुत्तरु । तुहुं जि स सव्वाहिउ तेण जि । घत्ता - अट्ठपाडिहेरयसहिउ अट्टमहाधयपंतिसमेउ ॥ समवसरणि थिउ परमजिणु कहइ समत्थैपयत्थहं भेउ || १२|| [ ४९. ११.९ १० नन्द राजाने उन्हें आते हुए देखा, उसने उन्हें विशुद्ध आहार दिया, दो वर्ष तक धरतीपर बिहार कर पूर्वोक वन में तुम्बरु वृक्षके नीचे माघ कृष्ण अमावास्याके दिन, अपराह्न में श्रवण नक्षत्रमें तीन रातके उपवाससे युक्त एवं अविचलित पलक विशाल नेत्रवाले । घत्ता - उन्हें विमल केवलज्ञान उत्पन्न हो गया। उससे उन्होंने तीनों लोकों को देख लिया । इन्द्र देवों सहित आया । जिनकी स्तुति करता हुआ वह ढीठ मुझे ( कवि को) अच्छा लगता है ||११|| १२ देव तुम्हीं हो, तुम्हें इन्द्र नमस्कार करता है, तुम स्थिर हो, तुम्हारा पीठ मन्दराचल है । तुम तपसे उग्र हो, तुमसे दिनकर डरता है, तुम कान्तिवान् हो, चन्द्रमा तुम्हारा किंकर है । वरुण के द्वारा आनन्दित तुम वरुण हो, तुम पापरूपी वृक्षोंके लिए अग्नि और अग्निके द्वारा सेवित हो, तुम्हीं बृहस्पति हो, और वृहस्पतियोंके द्वारा भावित हो, वायु तुम्हारे पैरोंसे लगी हुई है, हे देव तब भी तुम वाए (वायु और वाद) से भग्न नहीं होते; तुम यमरूपी पाशसे आबद्ध नहीं हो, यम तुम्हारी सेवाविधिके लिए प्रतिबद्ध है, तुम्हीं कालके लिए काल हो और कालसे श्रेष्ठ हो, वादियोंके लिए उत्तर देनेवाले तुम विवादी हो, जिस कारणसे तुम सबको जानते और देखते हो, इसी कारण तुम सब, और सबसे अधिक हो । घत्ता - आठ प्रातिहार्योंसे युक्त आठ महाध्वजपंक्तियोंसे सहित, समवसरण में स्थित परम जिन समस्त पदार्थों के भेदोंका कथन करते हैं ॥१२॥ ४. A omits तेण । ५. A बिट्टु । १२. १. P मंदिरु । २. A तवग्गु; P तवंगु । ३ AP मंतु । ४. AP पहु तुहुं । ५. A समत्थु । Page #230 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४९. १४. २ ] महाकवि पुष्पदन्त विरचित १३ / तां सद्विसत्तरह गणहर । तेरहसयई धरियपुव्वं गहं । दुई संजुत्तई सिक्खुहुँ । तेत्तिय भणु मणपज्जवणाणहं । केवलचक्खुणिहाणवतहूं । पंच विवाइहिं बहुणयभरिंयहं । संजमचारिणीहिं वरणारिहिं । दो लक्खई सावयहं पयासइ । माणमणिणीहि मणहारिहिं । सहुं संखाइ जिणिदें अक्खिय | बहिं वरिसहिं विरहियई ससोक्खई । महि विहरिवि अरहंत विहूइइ । लंबियकरयलु एक्क जि मासु । परिहरिवि अवरु वि संठिउ मुणिहिं सहासु ॥१३॥ १४ कुंथूपमुह पयणावियसुरवर रिसिहिं विणासियघोराणंगह अदालई जि सहासई भिक्खुहुँ छहसहास अवहीपॅरियाणहूं ते श्चिय पंचसयाहिय संतह एयारहसहास वैइकिरियह दुम्ह म्हमारिहिं एक्कु लक्खु वीसेव सहासई चलक्खई देसव्वअधारिहिं अमर असंख तिरिक्ख णिरिक्खिय एकवीस तर्हि वरिसहूं लक्खई सुरवइरइयइ जण सुहसूइइ घत्ता - गिरिसंमेयहु मेहलहि जि सोहि त जीवेपिणु कयतिहुयणहरि सह पहु सावणपुण्णवहि जणिहि जिणु चउरासीलक्खई वरिसहं । चंदि परिट्ठि गंपि धणिट्ठहि । १८३ ५ १३ जो सुरवरोंके द्वारा प्रणम्य हैं ऐसे कुंथु प्रमुख, उनके सत्तर गणधर थे, घोर कामदेवका नाश करनेवाले पूर्वांगोंको धारण करनेवाले तेरह सौ मुनि थे, अड़तालीस हजार दो सौ शिक्षक मुनि थे, अवधिज्ञानी छह हजार थे और इतने ही अर्थात् छह हजार मन:पर्ययज्ञानी थे, केवलज्ञानरूपी आँख से देखनेवाले केवलज्ञानी छह हजार पांच सौ थे । विक्रिया ऋद्धिको धारण करनेवाले ग्यारह हजार मुनि थे । पाँच हजार बहुनयधारक वादी मुनि थे । प्रगट दुर्मद कामदेवका नाश करनेवाली संयमधारण करनेवाली आर्यिकाएँ एक लाख बीस हजार थीं। दो लाख श्रावक थे । देशव्रत धारण करनेवाली मनुष्योंके द्वारा मान्य सुन्दर श्राविकाएँ चार लाख थीं । देव असंख्य थे और तिर्यंच संख्यात थे, ऐसा जिनेन्द्रने कथन किया है । दो वर्ष कम एक लाख इक्कीस वर्ष तक सुखपूर्वक, इन्द्रके द्वारा रचित जनके शुभ की सूचक अरहन्त की विभूति के साथ धरतीपर विचरण कर । । १० घत्ता - सम्मेदशिखरके कटिबन्धपर हाथ लम्बे कर एक माह के लिए जिस प्रकार वह, उसी प्रकार दूसरे एक हजार मुनि अपने शरीरका परित्याग कर प्रतिमायोग में स्थित हो गये || १३॥ १४ त्रिभुवनको हर्ष उत्पन्न करनेवाले चौरासी लाख वर्ष तक जीवित रहकर, श्रेयांस जिन, श्रावण शुक्ला को लोगोंको आनन्द देनेवाली पूर्णिमाके दिन चन्द्रके धनिष्ठा नक्षत्र में स्थित होनेपर, १३. १. A अडदालसहास भिक्खुयाहं । २. A दुइसइसंजुत्तई । ३ AP परिमाणहं । ४. A केवलिचवखु । ५. A वैकिरियह; P विकिरियहं । ६. A धम्महं वम्मह । ७. AP संजमधारिणीहि । ८. A समक्खई । Page #231 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १४ महापुराण [४९. १४.३णिवुउ कम्मपडलपरिमुक्कर अट्ठमु धरणिवीदु खणि दुकउ । देहपुज किये दससयणेत्तें करपंजलिघल्लियसयवत्तें। कलु विरसंतिहिं भंभाभेरिहिं णच्चंतिहिं गोरिहिं गंधारिहि । उठवै सिरंभतिलोत्तमणारिहिं सुरकामिणिहिं विइण्णवियारहिं । तुंबुरुणारयझुणिझंकारहिं तहिं पणवंतहिं जलणकुमारहिं । णोणाविहपुप्फाई व चित्तई सीयलचंदणजलेण व सित्तई । दिण्णई दीवधूव अपमाणई णीलीकयअमरंगणजाणहिं । दीर्दू धमु जो गयणि व लग्गउ णाई हुयासकलंकु विणिग्गउ । जिर्णतणुसेवइ पंकु पणासइ सच्चउं भासइ माय सरासइ । णविवि णिसिद्धिं भत्तिअणुराएं जंतें जंपिउ सुरसंघाएं । घत्ता-भरहि पण?उ उद्धरिउ विणिवारेप्पिणु कुसमयकम् ।। सेयंसें बहुसेययरु कुंदपुप्फदंतें जिणधम्मु ॥१४॥ इय महापुराणे विसट्टिमहापुरिसगुणालंकारे महाकपुप्फयंतविरहए महामव्वमरहाणुमण्णिए __ महाकच्चे सेयंसणिवाणगमणं णाम एक्णपण्णासमो परिच्छेओ समत्तो ॥१९॥ ॥सेयंसजिणचरियं समत्तं ॥ कर्मपटलसे परिमुक्त वह निवृत्त हो गये। एक क्षणमें आठवीं भूमि पर जा पहुंचे। अपने हाथोंसे जिसने शतपत्र फेंके हैं, ऐसे इन्द्रने उनकी देह पूजा की। सरस बजते हुए, भंभा भेरी आदि वाद्यों के साथ, नाचती हुई गोरी गांधारी उर्वशी रंभा तिलोत्तमा आदि स्त्रियोंको विकार-उत्पन्न करनेवाली कामिनियों, तुम्बर और नारद को ध्वनियोंकी झंकारोंके साथ, वहां प्रणाम करते हुए अग्निकुमार देवोंके द्वारा पुष्पांजलियां डाली गयीं ओर शीतल चन्दनसे सिक्त, आकाशके प्रांगण में स्थित यानोंको नीला बनानेवाली दीप-धूप दी गयी। दोपका धुंआ आकाशमें इस प्रकार लग गया, जैसा आगका कलंक निकल गया हो। माता सरस्वती ठीक ही कहती हैं कि जिनवरके शरीरकी सेवा करनेसे पंक नष्ट हो जाता है, भक्तिके अनुरागसे मनुष्यकी सिद्धिको प्रणाम कर, जाते हुए सुरसमूहने उक्त बात कही। घत्ता-खोटे सिद्धान्त और आचरणका निवारण कर, भरतक्षेत्रमें नष्टप्राय बहुश्रेयस्कर जिनधर्मका कुन्द पुष्पके समान दांतोंवाले श्रेयांस जिनने उद्धार किया ॥१४॥ इस प्रकार नसठ महापुरुषोंके गुणालंकारोंसे युक्त महापुराणमें महाकवि पुष्पदन्त द्वारा विरचित एवं महाभब्य भरत द्वारा अनुमत महाकाव्य का श्रेयोस निर्वाग-गमन नामक उनचासवाँ परिच्छेद समाप्त हुआ ॥१९॥ १४. १. A णिव्वुई । २. P किय । ३. A उब्भसरंभ । ४. AP सिहि संधुक्किय । ५. AP omit this line and the following | ६. AP add after this : चित्तई चंदणवंदणकट्ठई; जलियई णाहहु अंगई दिट्ठई। ७. AP णीलु धूम गयणंगणि लग्गउ । ८. A P जिणु तणु। ९. A णिसिहि । १०. AP omit this line 1 Page #232 -------------------------------------------------------------------------- ________________ संधि ५० तहिं सेयंसहु तित्थि देढमुयबलदप्पिटुहं ।। णिसुणहि सेणियराय रणु हयकंठतिविठ्ठह ॥ ध्रुवकं ।। इह जंबूदीवि वरभरहखेत्ति मयमत्तमहिसजुवियमद्दि गोउलपयधाराधायपहिइ पिच्चंतधण्णसंछण्णसीमि चवलालिचंदणामोयवति । गज्जंतगामगोवालसहि । माणयमंथियथद्धदहिइ। णिरु णियडणियडसंकिण्णगामि । सन्धि ५० "हे श्रेणिकराज, तुम श्री श्रेयांसके तीर्थकालमें अपने दृढ़ बाहुबलसे गर्वीले अश्वनीव और त्रिपृष्ठका युद्ध सुनो।" जम्बूद्वीपके भरत क्षेत्रमें मगध देश है जो चंचल भ्रमरोंके समान चन्दनवृक्षोंके आमोदसे युक्त है, जो मदमत्त भैंसोंके युद्धसे विमर्दित है, जो गरजते हुए ग्रामगोपालोंके शब्दोंसे युक्त है, जहां गोकुलोंकी दुग्धधारासे पथिक जन सन्तुष्ट हैं, जिसमें मथानीसे गाढ़ा दही मथा जा रहा है, जिसको सीमाएं पके हुए धान्योंसे आच्छादित हैं, जहां गांव पास-पास बसे हुए हैं, जिसमें जो रखानेवाली Mss. A and P have the following stanza at the beginning of this Samdhi : भास्वानेककलावतोऽस्य च भवेद्यन्नाम तन्मङ्गलं सर्वस्यापि गुरुर्बुधः कविरयं चक्रे अयं च क्रमः । राहुः केतुरयं द्विषामिति दधत्साम्यं ग्रहाणां प्रभुः संप्रत्योदयमातनोति भरतः सर्वस्य तेजोधिकः ॥१॥ Kdoes not give it anywhere. In addition, P has also सया सन्तो वेसो भूसणं सुद्धसीलं etc. which in A is found at the beginning of IL for which see page 130. In addition, P has जगं रम्म हम्मं दीवओ चन्दबिम्बं for which see page 165 of Vol. I. In addition, P has the following stanza: दीनानाथधनं सदाबहजनं प्रोत्फुल्लवल्लीवनं मान्याखेटपुरं पुरंदरपुरीलीलाहरं सुन्दरम् । धारानाथनरेन्द्रकोपशिखिना दग्धं विदग्धप्रियं क्वेदानी वसतिं करिष्यति पुनः श्रीपुष्पदन्तः कविः ॥१॥ A gives this stanza at the beginning of LII. K does not give it anywhere १.१. AP दिढभुय । २. AP चललवलि । ३. AP°जुज्झणविमद्दि । ४. AP मंथाणामथिइ थडढ्दहिह । ५. A णियलणियल। Page #233 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १८६ महापुराण [५०.१.७ जववालिणिरवमोहियकुरंगि णवगंधसालिणिवडियविहंगि । सरिसरवरजलकल्लोलमालि सयदलणिलीणभसैलउलणीलि । वसुमइमहिलासोहाणिवेसि । कयुदुग्गहणिग्गहि मगहदेसि । रायगिहणयरि पहु विस्सभूइ तहु लहुयउ भाइ विसाहभइ । पढमहु जइणी मृगणयण भज्ज बीयहु लक्खण णामें मणोजे। पइरमियइ जइणिइ विस्सणं दि जणियउ लक्खणइ विसाहणंदि । सुय जाया बेण्णि वि णवजुवाण अच्छंति जाम सुहं मुंजमाण । ता राएं ससियेरंधवलदेहु गयणयलि पलोइउ सरयमेहु । घत्ता-णं खलमित्तसणेहु सो सहसत्ति विलीणउ । डहु संसारु भणंतु चित्ति चवक्किउ राणउ ॥१॥ १५ जंपडू पहु जिणगुण संभरंतु सत्तंगरजसिरि परिहरंतु । जिह णट्ठउ पर्वणे एहु मेह। णासेसइ तिह कालेण देहु । होसंति सिढिलै संधिप्पएस होसंति हंसहिमवण्ण केस । होसंति णयण सुहिरूवभंत होसंति हत्थ णित्थामवंत । ५ होसंति सुणिव्ववसाय पाय , मुहकुहरहु णिग्गेसँइ ण वाय । (कृषक बालिका ) के शब्दसे हरिण मुग्ध हैं, जिसमें नवगन्धसे युक्त धान्योंपर पक्षी गिर रहे हैं, जो नदियों और सरोवरोंकी लहरोंसे युक्त है, जो कमलोंमें व्याप्त भ्रमरकुलसे श्याम है, जो वसुमतीरूपी महिलाकी शोभाका घर है, तथा जो दुष्टोंका निग्रह करनेवाला है, ऐसे मगध देशको राजगृह नगरीमें राजा विश्वभूति और उसका छोटा भाई विशाखभूति हैं। पहले की कमलनयनी जेनी पत्नी थी। दूसरे की लक्ष्मणा नामकी सुन्दर स्त्री थी। पतिके द्वारा रमण की गयी पहली जैनी पत्नीने विश्वनन्दीको जन्म दिया, जब कि दूसरी लक्ष्मणाने विशाखनन्दीको। दोनोंके वयुवक हो गये। वे सुखपूर्वक भोग करते हुए रह रहे थे कि राजाने आकाशतल में चन्द्रमाके समान सफेद शरीर शरद् मेघ देखा। घत्ता-वह शीघ्र ही इस प्रकार विलीन हो गया, मानो खलजनका स्नेह हो, इस संसारको आग लगे-यह कहता हुआ राजा अपने मनमें चौंक गया ॥१॥ . जिन भगवान्के गुणोंका स्मरण करता हुआ और सप्तांग राज्यश्रीका परिहार करता हुआ वह कहता है कि "जिस प्रकार पवनसे यह मेघ नष्ट हो गया, उसी प्रकार समयके साथ यह शरीर नाशको प्राप्त होगा। जोड़ोंके प्रदेश ढोले हो जायेंगे और बाल हंस तथा हिमकी तरह सफेद हो जायेंगे। नेत्र सुहृदोंके रूपको देखने में भ्रान्ति करेंगे। हाथ शक्तिसे रहित हो जायेंगे। पैर व्यवसायसे रहित होंगे। मुखरूपी कुहरसे वाणी नहीं निकलेगी। हे भाई, तुम राज करो, मैंने (यह) तुम्हें ६. A भसलोलिणीलि । ७. AP मिगणयण । ८. P भज्जा। ९. P मणोज्जा। १०. A संचियधवलदेहु । ११. A पलोयउ । १२. P°सिणेह । १३. A चित्त चमक्किउ । २.१. AP जिम । २. P पमणे । ३. A सिथिलि । ४. A णिगेसइ । Page #234 -------------------------------------------------------------------------- ________________ -५०.३.९] महाकवि पुष्पदन्त विरचित तुहं करहि रज्जु मई दिण्णु भाय . रक्खेजसु णियकुलकित्तिछाय। ता थिउ संताणि विसाहभूइ णिग्गेिवि गउ काणणु विस्सभूइ। महि विहवसारु जरतणु गणेवि जोईसरु सिरिहरु गुरु थुणेवि । सहुं भव्वणरिंदहं तिहिं सएहिं थिउ अप्पउ महि वि महन्वएहिं । सो विस्सणंदि जुवराउ जाउ । पत्ता-गंदणवणि कीलंतु हर्णइ मुणालें घरिणिउ ॥ पसरियदीहकरग्गु मत्तउ णं करि करिणिउ ॥२॥ NS विसाहभई सुराकीलंतु हणइ मुणाल रणिउ ॥२॥ काहि वि मयरंदे करइ तिलउ । ___ काहि वि वेल्लीहरि देइ णिलउ । क वि सिंचिये जलगंडूसएण कवि जोयइ णवजोव्वणमएण। काहि वि कामु व कुसुमोहु घिवइ कवि पणयकुविय अणुणंतु णवइ । काहि वि करैलीलाकमलु हरइ कवि लेवि सरोवरणीरि तरइ । छाइयससिसूरमऊहमालि । काहि वि ल्हिक्काइ णीलइ तमालि । दोसइ काइ वि कररुह फुरतु काइ वि करि धरियउ दर हसंतु। पारोहइ क वि दोलायमाण अवलोइय वडजक्खिणिसमाण । कवि बंधिवि मोत्तियदामएण हय कुवलएण कयकामएण। साहाररसिल्लई कणयवत्तु काहि वि तरुपल्लवु दिण्णु रत्तु । दिया, तुम अपने कुल की कीतिछाया रखना।" विशाखभूति उसको राज्य परम्परामें बैठ गया। विश्वभूति घरसे निकलकर वनमें चला गया। धरती और वैभव श्रेष्ठको जीर्ण तृणकी तरह समझ हयोगीश्वर श्रीधर गरुकी स्तति कर सैकडों भव्य राजाओंके साथ अपनेको महावतोंसे विभूषित कर स्थित हो गया। इधर विशाखभूति सुन्दर राजा हो गया तथा विश्वनन्दो युवराज हो गया।" पत्ता-नन्दनवनमें क्रीड़ा करते हुए कभी वह पत्नीको मृणालसे मारता है, मानो मदमत्त गज अपनी फैली हुई सूड़से हथिनीको मार रहा हो ॥२॥ कभी मकरन्दसे तिलक करता, कभी लतागृहमें उसे बैठाता, कभी जलके कुल्लेसे उसे सींचता, कभी नवयोवनके मदसे उसे देखता, कभी कामके समान कुसुमके फूलोंको उसपर डालता, कभी प्रणयसे कुपित उसे मनाता हुआ नमस्कार करता। कभी लीला कमलका हरण करता, और कभी उसे लेकर सरोवरके तीरको पार करता। कभी, जिसने सूर्य और चन्द्रमाकी किरणोंको आच्छादित कर लिया है ऐसे नीले तमाल वनमें छिप जाता है, कभी उसकी चमकती हुई अंगुलियां दिखाई देती हैं, कभी हाथसे पकड़कर कुछ मुसकराता है, कभी वह वटके प्रारोहों पर झूलती है, और वटवृक्षकी यक्षिणीके समान दिखाई देती है, कभी काम कर लेनेके बाद, मोतीकी मालासे बांधकर कुवलयसे आहत करता है। कभी सहकारके रससे आई कमलपत्र और कभी लाल वृक्षपत्र देता है। ५. A णिग्गवि । ६. A ठिउ । ७. A रज्जेहि विसाहभूई सराउ; P एत्तहि विसाहभूई सुराउ । ८. P हण्णइ । ९. AP करि णं । ३. १. A काहि मि । २. AP सिंचह। ३. AP जोहय । ४. A करि लीला। ५. AP लेइ । Page #235 -------------------------------------------------------------------------- ________________ महापुराण [५०.३.१० घत्ता-णं वणि लिणि दुरेहु अच्छइ णिच्च पइट्ठउ ।। इय सो तेत्थु रवंतु लक्खणजाएं दिट्ठउ ॥३।। ४ तओ तं णियच्छेवि राएंगएणं वणुस्साहिलासं गहीरं गएणं । घरं गंपि सो गोमिणीमाणणेणं पिऊ पत्थिओ पुण्णचंदाणणेणं । सया चायसंतोसियाणेयवंदी जहिं कीलए णिचसो विस्सणंदी। वेणं देहि तं मज्झ रायाहिराया महामंतिसेणावईवंदपाया। ण देमि त्ति मा जंप णिभिण्णकण्णं अहं देव गच्छामि देसंतमण्णं । णरिंदेण उत्तं वणं देमि णणं तुमं जाहि मा पुत्त उव्विग्गठाणं । दुमते रमतो मयच्छीण मारो पुणो तेण कोकाविओ सो कुमारो। खणेणेय पत्तो समित्तो णवंतो पिवेण संबोहिओ णायवंतो। महं भाउणा णेहवासेण दिण्णं तुमं पत्थिवो तुज्झ रज रवण्णं । कुलीणा तुमं चेय मण्णंति सामि तुम थाहि सीहासणे भुंज भूमि । अहं जामि पच्चंतवासाइं घेत्तं बलुद्दामथामें रिऊ पुत्त हंतं । तओ जंपियं तेण तं मज्झ पुज्जो तुमं देव तायाउ आराहणिज्जो । थिराणं कराणं पयासेमि सत्तिं अहं जामि गेण्हामि कूरारिवित्तिं । पत्ता-मानो वनमें कमलिनी और भ्रमर नित्य रूपसे प्रवेश करके स्थित हों । इस प्रकार रमण करते हुए उन्हें लक्ष्मणाके पुत्र विशाखनन्दीने देखा ॥३॥ उस समयं उस राजपुत्रको देखकर उसके मनमें वनकी गम्भीर अभिलाषा उत्पन्न हो गयी। घर जाकर लक्ष्मीके द्वारा मान्य और पूर्ण चन्द्रमाके समान मुखवाले कुमारने अपने पितासे प्रार्थना की, "जिसने अपने त्यागसे अनेक चारणोंको सन्तुष्ट किया है, ऐसा विश्वनन्दो जहां नित्य क्रीड़ा करता है, महामन्त्री और सेनापतिके द्वारा वन्दनीय चरण हे राजाधिराज, वह उपवन मुझे दीजिए, 'मैं नहीं देता हूँ', कानोंको भेदन करनेवाला ऐसा मत कहो ( नहीं तो) हे देव मैं देशान्तर चला जाऊँगा।" राजाने कहा, "मैं निश्चित रूपसे वन दूंगा। हे पुत्र, तुम खेद जनक स्थानको मत जाओ।" फिर उसने, मृगनयनियोंके लिए कामदेवके समान, क्रीड़ा करते हुए कुमारको खोटे विचार से बुलाया। एक क्षणमें अपने मित्रके साथ उपस्थित प्रणाम करते हुए न्यायवान उस पुत्रसे चाचाने कहा, "भाईके द्वारा स्नेहके कारण दिया गया यह सुन्दर राज्य तुम्हारा है । तुम राजा हो । कुलीन लोग तुम्हींको राजा मानते हैं। तुम सिंहासनपर बैठो और धरतीका भोग करो। मैं सीमान्तके निवासियोंको पकड़नेके लिए और सेनाकी उद्दाम शक्तिसे, हे पुत्र, शत्रुका नाश करनेके लिए जाता हूँ।" तब उस कुमारने उससे कहा, "तुम मेरे पूज्य हो। हे देव, तुम तातके द्वारा आराधनीय थे। मैं अपने स्थिर हाथोंकी शक्ति प्रकाशित करूंगा, में जाता हूँ और क्रूर राजाओंकी वृत्ति ग्रहण करता हूँ।" ६. A णलिणदुरेहु । ७. P णिच्चु । ४.१. A माणिणीमाणणेणं । २. A वणे देहि। ३. A वरं देवि गुणं। ४. AP सिंहासणे । ५. A रिलं पुत्त । Page #236 -------------------------------------------------------------------------- ________________ -५०. ५. १४ ] महाकवि पुष्पदन्त विरचित घत्ता-एंव भणेवि कुमारु अप्पउं विणएं भूसिवि ॥ गउ पच्चंतनृवाहं उवरि जांव आरूसिवि ॥४॥ ता पहुणा पणयविमद्दणासु दिण्णउं गंदणवणु णंदणासु । पइसरहुं ण देंतु कयंतलीलु तेमारिउ सुहिउज्जाणवालु । संगाममहोवहिभीममयरु आयण्णिवि पडियाइयउ इयरु । दट्ठाहरधु रत्तंतणेत्तु भासइ आरूसिवि जइणिपुत्तु। अईसंधिवि महुं वणु लइउं जेंव थिरु एंवहिं भायर थाहि तेंव । वीसासिवि किं हम्मइ पसुत्तु किं पित्तिएण ववसिउं अजुत्तु । लक्खणहि सूणु भयभावडिउ तं पेच्छिवि दुठु कविट्ठि चडिउ । महिवलयविसट्टणतडयडंतु भजंतहिं मूलहिं कडयतु । विवरंतसप्पोंभलललंतु उडुंतहिं पक्खिहिं चलवलंतु । उत्तुंगु अहंगु सुदुण्णिरिक्खु उम्मूलिउ रिउणा समउं रुक्खु । अच्छोडइ किर महिवीढि जांव णासंतु दिट्ठ पडिवक्खु तव । भडु पवणगमणु मग्गाणुलग्गु धरणासइ चलपसरियकरग्गु । घत्ता-पुणरवि दुग्गु भणेवि आसंघिवि थिउ वइरिउ । तेण मुट्ठिघाएण खंभु सिलामउ चूरिउ ॥५॥ घत्ता-कुमार इस प्रकार कहकर और अपनेको विनयसे भूषित कर, जबतक सीमान्त राजाओंपर क्रुद्ध होकर गया ।।४।। तबतक राजाने प्रणयका नाश करनेवाले अपने पुत्रको नन्दनवन दे दिया। नन्दनवनमें प्रवेश नहीं देनेवाले तथा यमके समान लोलावाले सुधी उद्यानपालको उसने मार डाला । (इतनेमें) संग्रामरूपी समुद्रका भयंकर मगर दूसरा (विश्वनन्दी) यह सुनकर वापस आ गया। अपने आधे ओठ चबाता हुआ लाल-लाल आंखोंवाले जैनी पुत्र (विश्वनन्दो) क्रोधमें आकर कहता है कि जिस प्रकार कपट करके तुमने मेरा वन ले लिया है, हे भाई, वैसे ही तुम इस समय स्थिर हो जाओ। विश्वास देकर क्या सोते हुए आदमोको मारना चाहिए, चाचाने यह अनुचित काम कैसे किया ? लक्ष्मणाके पूत्रको भयके भावसे कम्पित देखकर वह दृष्ट कपित्थ वक्षपर चढ गया। धर ध्वस्त होनेसे तड़तड़ करता हुआ, टूटती हुई शाखाओंसे कड़कड़ करता हुआ, बिलोंके भीतरके सांपोंको चोभल (?) ( केंचुल ) से विलसित, उड़ते हुए पक्षियोंसे चंचल, ऊँचा अखण्ड और अत्यन्त दुर्दर्शनीय वृक्षको उसने शत्रु सहित उखाड़ दिया। जबतक वह उसे धरतीपर पछाड़ता है तबतक उसे शत्रु भागता हुआ दिखाई दिया। वह वीर भी पवनगतिसे उसको पकड़ने की आशासे हाथमें फैली हुई चंचल तलवार लिये हुए मार्ग में उसका पीछा किया। पत्ता-फिर भी दुर्ग समझकर, शत्रु उसका ( शिलाका ) सहारा लेकर बैठ गया। उसने मुट्ठीके आघातसे उस शिलातलको चूर-चूर कर दिया ॥५॥ ६. AP°णिवाहं । ५. १. AP देति । २. A ता मारिउ । ३. AP दाहरोट । ४. A अहिसंधिवि । ५. A तडयलंतु । ६. A चोभल । ७. A उत्तंग । Page #237 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १९० महापुराण [५०.६.१.. ५ पुणु दलिइ खंभि परिगलियमाणु वेणु मेल्लिवि हरिणु व धावमाणु । णीसासेवेयवढियकिलेसु णीसत्थहत्थ णिम्मुक्ककेसु । अवलोइवि भाइ पलायमाणु करुणारसि थक्कउ सुहडभाणु । पभणइ मा णासहि आउ आउ तहिं अवसरि पत्तउ तहिं जि राउ। 'जुवरायहु कहइ विसाहभइ लइ लइ सुंदर तेरी विहूइ । इहु जाउ जाउ किं आयएण किं कुच्छियपुत्तें जायएण । सिलफोडणमुयमाहप्पदप्प अइसंधिओ सि महुँ खमहि बप्प । जइणिंद दिक्ख महं सरणु अन्जु परिपालहि तुहं अप्पणउ रज्जु । घत्ता-बंधववेइरकरीहि णिविण्णउ नृवैरिद्धिहि ।। पुत्त पडिच्छहि पट्ट हैउं लग्गमि तवसिद्धिहि ॥६॥ खग्गे मेहें किं णिज्जलेण । मेहें 'कामें किं णिहवेण कन्वें णडेण किं णीरसेण दवें भवें कि णिव्वएण तोणे कणिसें किं णिक्कणेण तरुणा सरेण किं णिप्फलेण । मुणिणा कुलेण कि णित्तवेण । रजे भोजे किं परवसेण । धम्में राएं किं णिहएण । चावें पुरिसें किं णिग्गुणेण । ५ खम्भेके टूटनेपर, वन छोड़कर गलितमान हरिणके समान दौड़ते हुए, निःश्वासके वेगसे जिसका क्लेश बढ़ रहा है, ऐसे शस्त्ररहित हाथवाले और मुक्तकेश भागते हुए भाई को देखकर वह सुभटसूर्य करुणा रसमें डूब गया। वह कहता है-हे भाई, मत भागो, आओ-आओ। उसी अवसरपर वहां राजा आया। विशाखभूति युवराजसे कहता है-“हे सुन्दर, तुम अपना ऐश्वर्य ले लो, यह पुत्र पुत्र क्यों हुआ? इस कुत्सित पुत्रके होनेसे क्या । शिला फोड़नेवालोभुजाओंके दर्पवाले हे सुभट, क्षमा करो, तुम्हारे साथ कपट किया। आज मुझे जेन दीक्षा शरण है । तुम अपने राज्यका पालन करो।" पत्ता-इस प्रकार भाइयों में शत्रुता उत्पन्न करानेवाली राजाको ऋद्धिसे वह विरक्त हो गया। हे पुत्र, मैं तपसिद्धिके मार्गमें लगूंगा ॥६॥ बिना पानीके मेघ और खड्गसे क्या? निष्फल (फल और फलक ) से रहित वृक्ष और फलसे क्या? द्रवण (क्षरण ) रहित मेघ और कामसे क्या? तपसे रहित मुनि अथवा कुलसे क्या ? नीरस काव्य अथवा नटसे क्या ? परवश राज्य अथवा भोजनसे क्या ? निर्वय ( व्यय और व्रतसे रहित ) द्रव्य अथवा भव्यसे क्या? णिक्कण ( अन्न और बाणसे रहित) बल और तरकस ६. १. A घणु । २. AP णीसासु । ३. AP हत्थु । ४. A रसथक्क उ । ५. वइरकरीहे णिविण्ण उ । ६. AP णिवरिद्धिहि । ७. K हह । ७.१. A पेन्में; P पेमें। २. P omits किं । Vain Education International Page #238 -------------------------------------------------------------------------- ________________ - ५०.८.६ ] महाकवि पुष्पवन्त विरचित हउँ णिग्गुणु अवरु वि मज्झु तण वियसिय पंकयसंणि मुद्देण हो जोठवणेण हो उववणेण हो पट्टणेण सुहवट्टणेण यहिं जहिं संभवइ वइरु म जण दिण्णी तुझु पुहुइ मई पुणु जाएव कहिं वि तेत्थु घत्ता - तं णिसुणिवि राएण जइ वि चित्ति अवहेरिउ ।। तो वि परायइ कज्जि पुत्तु रजि वइसारिउ ||७| 'इस बहु विसाहणंदि संसूरि पर्णेवि पवित्त चिरु कालु चरेपिणु चारु चरणु उपणु महासुकाहिहाणि सहभूयभूरिभूसाविहाणि परमंडलवइवाहिणिहि छइउ कवडे जेहिं तुह भग्गु पणउ । पडिजंपिडं जइणीतणुरुद्देण । हो परियणेण हो हो धणेण । हो सीमंतिणिण घट्टणेण । पित्तिय तहिं ण वसमि हउं वि सुइरु | जो चइ सो तुहुं करहि नृवइ । णिवसंति दियंबर विझि जेत्थु । ८ सविसाहभूइ गउ विस्सदि । दोहिं वि पडिवण्णउं रिसिचरितु | किड पित्तिएण संणासमरणु । मणिमयविमाणि धयधुव्वमाणि । सोलहसमुद्दजीवियपमाणि । एतहि वि रायगिहणयरु लंइउ । १९१ से क्या ? निर्गुण (गुण और डोरीसे रहित) चाप (धनुष) और पुरुष से क्या ? एक तो में निर्गुण हूँ, दूसरे कपट के कारण मेरा स्नेह तुमसे भंग हो गया है। तब कमलके समान, जिसका मुखकमल खिला हुआ है, ऐसे उस जैनीपुत्रने प्रत्युत्तर दिया, "योवन रहे, उपवन रहे, परिजन रहे, धन रहे, नगर रहे, सुखवर्तन रहे, सीमन्तिनियोंके स्तनोंका संघर्ष रहे कि जिससे स्वजनोंके साथ वेर उत्पन्न होता है, हे चाचा, मैं वहाँ अधिक समय नहीं रहूँगा । मेरे पिताने तुम्हें धरती प्रदान की है, तुम्हें जो अच्छा लगे तुम उसे करो, मैं तो अब वहीं जाऊँगा कि जहाँ विन्ध्याचल में दिगम्बर मुनि निवास करते हैं । १० धत्ता - यह सुनकर राजाने यद्यपि अपने मनमें इसकी उपेक्षा की तो भी कार्य आ पड़नेपर उसने पुत्रको राज्य में बैठा दिया || ७ || ८ विशाखनन्दी राज्य में बैठा । विश्वनन्दी विशाखभूति सहित चला गया। सम्भूति मुनिको प्रणाम कर दोनोंने मुनिचरित ग्रहण कर लिया। बहुत समय तक सुन्दर चरित्रका पालन कर चाचाने संन्यासमरण किया। वह ध्वजोंसे कम्पित महाशुक्र नामक मणिमय विमान में उत्पन्न हुआ। अनेक भूषा-विधान उसे साथ-साथ उत्पन्न हुए। उसकी आयुका प्रमाण सोलह सागर पर्यन्त था । शत्रुमण्डल के राजाकी सेनाके द्वारा आच्छादित राजगृह नगर भी यहाँ ले लिया गया । ३. A कवडेण जेण । ४. A° संमुहमुहेण । ५. Pथणथडण | ६. A महु सयणहि जं संभवइ वइरु । ७. AP णिवइ । ८. १. A वहसणे; P वइसेणइ । २. A पणवेवि चित्तु । Page #239 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १९२ महापुराण [५०.८.७लक्खणणंदणु हयसिरिविलासु थिउ महुरहि जाइवि कयणिवासु । अणवरयबुद्धिसंधियमणेण जीवइ कासु वि मंतित्तणेण । घत्ता-एत्थु ण किज्जइ दप्पु लच्छि ण कासु वि सासँय ॥ जे गय गयखंघेहिं ते पुणु पायहिं गये ॥८॥ मुणि विस्सणंदि ता तहिं जि कालि मज्झण्हवेलि खरकिरणजालि । कयपक्खमासदीहोववासु कंकालसेसु गयरुहिरमासु । तं पुरवरु सो चरियहि पइट्ट अहिणवपसूयगिट्ठिइ णिहट्छ । णिट्ठाणिट्ठिउ जइवरवरिट्ट णिवडंतु तेण पिसुणेण दिव। वेसासउहयलि परिट्ठिएण ___ बहुजम्मणमरणुक्कंठिएण। उवहसिउ साहु पत्थिवचरेण पई रुक्खे खंभ भग्गा करेण । चिरु एंवहिं गाइविह ट्टियंगु । पडिओ सि विहंडियमाणसिंगु । णिग्गुण णिग्घिण दुजण सगाव सि मज्झ पावेण पाव । पत्ता-तं णिसुणिवि सवणेणे बद्धउ रोसणियाणउं । आगामिणि भवि तुज्झु हसियहु करमि समाणउं ।।९।। नष्ट हो चुका है श्रोविलास जिसका ऐसा लक्ष्मणाका पुत्र मथुरा में घर बनाकर रहने लगा। जिसमें अनवरत बुद्धिके सन्धानमें मन रहता है, ऐसा किसीका मन्त्रित्व करते हुए वह जीवित रहता है । घत्ता-इस संसारमें घमण्ड नहीं करना चाहिए क्योंकि लक्ष्मी किसीके पास शाश्वत नहीं रहती। जो कभी हाथोके कन्धों पर चलते हैं, वे फिर पैरों चलते हैं ॥८॥ जिन्होंने एक पखवाड़ेका लम्बा उपवास किया है, जो कंकालशेष हैं, जिनका रुधिर और मांस जा चुका है ऐसे मुनि विश्वनन्दो, उसी समय सूर्यको प्रखर किरणोंसे युक्त मध्याह्न वेलामें उस नगरमें चर्याके लिए प्रविष्ट हुए। उन्हें नयो प्रसूतवतो गायने गिरा दिया। तपस्यासे क्षीण उन मुनिवरको वेश्याके सौधतलपर बैठे हुए उस दुष्टने गिरते हुए देखा । अनेक जन्म और मरणोंके लिए उत्सुक उसने साधुका उपहास किया कि भूतकालमें राजाके रूप में तुमने हाथसे वृक्ष और खम्भोंको नष्ट किया था। इस समय गायके द्वारा विखण्डित शरीर और खण्डित गर्वशिखर तुम पड़े हुए हो । हे निर्गुण, निपिन, दुर्जन, सगर्व पाप, तुम मेरे पापसे नष्ट हुए हो। घत्ता-यह सुनकर श्रमणने क्रोधसे यह निदान किया कि आगामी भवमें मैं तुम्हारी हंसीका समान फल बताऊँगा ||९|| ३. A णंदण। ४. P सासया। ५. A P ते पुणुरवि । ६. P गया । ९.१. AP णिहिछ । २. रंक खंभ । ३. AP समणेण । Page #240 -------------------------------------------------------------------------- ________________ -५०. ११. ४] महाकवि पुष्पदन्त विरचित १९३ १० कयपञ्चक्खाणपयासणेण तांवहिं वि मरिवि संणासणेण । जहिं तायभाउ जायउ अदीणु एहु वि दूसहतवचरणखीणु । तहिं देहमइ कप्पि मणोहिरामि दहछहजलणिहिबद्धाउधामि । उप्पण्णउ सल्लेहियंतरंगु कम्मेण ण किज्जइ कासु भंगु । ते बिणि वि सुरवर बद्धणेह ते बिण्णि वि लायण्णंबुमेह । ते बिगिण वि णिच्चु जि सह वसंति ते बिणि वि तारतुसारकंति । ते बिणि विगं तिव्वंसजोय ते बिणि वि कयकीलाविणोय । ते बिणि वि दिवि अच्छंति जांव ऍत्तहि वि अवरु संभवइ तांव । णिवेएं लइउ विसाहणंदि जिणतवतावे तावेवि बोंदि । माणिक्कमऊहोहामियकि संभूयउ सो वि महंतसुकि । घत्ता-एयह दोहं वि ताहं देवहं वियलियह रिसइं॥ थकउ आउपमाणु जइयहुँ कइवयवरिसइं ॥१०॥ तइयहं वेयड्डारूढियाहि अलयाणयरिहि पहु मोरगीउ देव वि रणरंगि तसंति जासु जो चिरु विसाहणंदि त्ति भणिउ विज्जोहर उत्तरसेढियाहि । थिरथोरबाहु सद्लगीउ । णीलंजणपह महएवि तासु । सो ताइ पुत्तु हरिगीउ जणिउ । १० प्रत्याख्यानका प्रकाशन करनेवाले संन्याससे मृत्युको प्राप्त होकर, जहां उसका अदीन चाचा उत्पन्न हुआ था, असह्य तपश्चरणसे क्षीण वह भी शल्यको अपने मनमें धारण कर सोलह सागर आयु प्रमाणवाले सुन्दर सोलहवें स्वर्गमें उत्पन्न हुआ। कर्मके द्वारा किसका नाश नहीं किया जाता। वे दोनों ही देव एक दूसरेके प्रति स्नेहसे प्रतिबद्ध थे। वे दोनों ही लावण्यरूपी जलके मेघ थे। वे दोनों ही प्रतिदिन साथ रहते थे। वे दोनों ही स्वच्छ तुषारकी तरह कान्तिवाले थे। वे दोनों ही सूर्य-चन्द्रमाके समान थे। वे दोनों ही क्रीड़ा विनोद करनेवाले थे। वे दोनों जबतक स्वर्गमें थे, यहाँ भी तबतक दूसरी घटना हो गयी। विशाखनन्दोको वैराग्य हो गया। वह भी जिनवरके तपतापसे तपकर माणिक्यको किरणोंके समूहसे सूर्यको तिरस्कृत करनेवाले महाशुक्र स्वर्गमें देव हुआ। घत्ता-इतनेमें इन दोनों देवोंका भी विगलित है हर्ष जिनमें ऐसे कई वर्षोंका आयु प्रमाण रह गया ॥१०॥ ११ विजया नामसे प्रसिद्ध विद्याधरोंकी उत्तरश्रेणिको अलकापुरी नगरीमें स्थिर और स्थूल बाहु तथा सिंहके समान गरदनवाला मयूरग्रोव नामका राजा हुआ। जिससे युदमें देव भी त्रस्त रहते हैं, ऐसे उसकी नीलांजन प्रभा नामकी महादेवी थी। जो पहले विशाखनन्दी कहा गया था, १०. १. AP दहमि कप्पि सुमणों । २. A सल्लहयंतरंगु । ३. AP एत्तह वि । ११.१. P वेज्जाहर। २५ Page #241 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १९४ महापुराण [५०. ११. ५जाएण तेण णवजोवणेण करलालियसिरिरामाथणेण । पडिवक्खलक्खवलदुम्महेणे । अहिवलयणिलयकंपावणेण चंदकबिंबभीसावणेण । खरिदविंदकंदावणेण भूगोयरपुरसंतावणेण । सरणागयजणपविपंजरेण करिणा इव दाणोलियकरेण । १० काणीणदीणकुलदिहिकरेण .. सुहवत्तणजियमणसियसरेण । पत्ता-आसग्गीवें तेण रिउ हय हरिणा इव करि ।। __ असिधारइ तासिवि गहिय तिखंड वसुंधरि ॥११॥ १२ उग्गयपयावरवियरकरालु वसुमइ मुंजंतु पईहु कालु । विद्धंसियवरसुहडावलेवु परिवडिउ सो पडिवासुए । तित्थयरपवित्तियतित्थणिरहि ता पविउलजंबूदीवभरहि । बहुरमणिरमणसंपण्णविसइ परिपालियधम्मि सुरम्मि विसइ। पोयणपुरु सुरपुरसोहहारि तहिं वसइ णराहिउ दंडधारि। मुवणेकसीहु सम्वोवयारि णामेण पयावइ णिज्जियारि । तह पढमदेवि जयवइ पसण्ण णं विवरविणिग्गय णायकण्ण । अण्णेक चारु वित्थिण्णरमण मृगेणयण मृगावइ मंदगमण । दोहिं वि दीविय महि तिमिरजूर णिसि सिविणइ दिट्ठा चंदसूर । वह उसका अश्वग्रीव नामसे पुत्र उत्पन्न हुआ जिसने अपने हाथसे लक्ष्मीरूपी रामाके स्तनोंका लालन किया है। जो प्रतिपक्ष लक्षसेनाका नाश करनेवाला है, जो पृथ्वीवलयरूपी घरको कंपानेवाला है, जो सूर्य-चन्द्रके बिम्बके समान भीषण है, जो विद्याधर राजाओंको रुलानेवाला है, जो मनुष्योंके नगरोंको सन्त्रास देनेवाला है, शरणागत मनुष्योंके लिए जो वज्रपंजरके समान है, जो हाथीके समान दानसे (मदजल और दान ) आकर ( गोली सूंड़ अथवा हाथ ) है, जो कन्यापुत्रों और दीनकुलोंके लिए भाग्यविधाता है, जिसने अपने शुभ आचरणसे कामदेवके तीरोंको जीत लिया है। पत्ता-ऐसे उस अश्वग्रीवने उसी प्रकार शत्रुको नष्ट कर दिया है जिस प्रकार सिंह हाथी को नष्ट कर देता है। उसने अपनी तलवारको धारसे सन्त्रस्त कर त्रिखण्ड धरती ले ली ।।११।। १२ उद्गत प्रताप जो सूर्य किरणोंकी तरह भयंकर है ऐसा वह लम्बे काल तक धरतीका भोग करता हुआ तथा श्रेष्ठ सुभटोंके अहंकारको नष्ट करनेवाला वह प्रतिवासुदेव बन गया। तब तीर्थंकरोंके द्वारा प्रवर्तित तीर्थोसे जो पवित्र है.ऐसे विशाल जम्बद्रीपमें भरत क्षेत्र है अनेक स्त्री-पुरुष विषयोंसे परिपूर्ण हैं, और जिसने धर्मका परिपालन किया है, ऐसे सुन्दर देशमें सुरपुरकी शोभाको धारण करनेवाला पोदनपुर नगर है । उसमें दण्डको धारण करनेवाला, भुवनका एकमात्र सिंह सबका उपकार करनेवाला और शत्रुविजेता प्रजापति नामका राजा था। उसकी प्रथम पत्नी प्रसन्न जयवती थी, जो मानो विवरसे निकली हुई नागकन्या थी। एक और दूसरी २. AP add after this : पलयाणलजालादुस्सहेण । ३. A करिणा विय । १२. १. AP जा वड्ढिउ । २. AP मिगणयण मिगा । Page #242 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ५०.१२. १६] महाकवि पुष्पदन्त विरचित .. णिवडवि अणुहुंजियसुहसयाउ ते दो वि देव देवासयाउ । पित्तियभत्तिजय बद्धपणय संजाया सुंदर ताहं तणय । जइवइहि जाउ हिमैसियसरीरु बलेंहद्दु बालु णं छहहीरु । णारित्तणगुणघडियहि सईहि हुउ कण्हु जि कण्हु मृगावईहि । जयवंतु एक्कु तहिं विजउ गणिर्ड बीयउ पुणु विठु तिविठु भणिउ । घत्ता-बेण्णि वि सह खेलंति भुयबलदूसिय दिग्गय ॥ भरह दियंतपयासि "पुष्फदंत णं उग्गय ॥१२॥ इय महापुराणे तिसटिमहापुरिसणालंकारे महाकइपुप्फयंतविरहए महामग्वमरहाणुमण्णिए महाकम्वे बल एववासुदेवउप्पत्ती णाम पगासमो परिच्छे भो समत्तो ॥५०॥ अत्यन्त सुन्दर मृगनयनी, मन्दगामिनी सुन्दर मुगावती थी। दोनों ही मानो धरतीपर अन्धकारको नष्ट करनेवाली दीपिकाएं थीं। उन्होंने रात्रिमें स्वप्न में सूर्यको देखा। जहां सैकड़ों सुखोंका भोग किया है ऐसे देवाश्रयसे वे दोनों प्रणयबद्ध देव (चाचा और भतीजे) उनके सुन्दर पुत्र हुए। जयवतीके हिमके समान सफेद शरीरवाला बालक बलभद्र हुआ जो मानो बालचन्द्र था। तथा नारीत्वके गुणसमूहसे घटित सती मृगावतीसे कृष्ण कृष्ण हुए (श्याम वासुदेव हुए)। जयसे युक्त एकको वहाँ विजय कहा गया और दूसरेको विष्णु त्रिपृष्ठ । धत्ता-अपने बाहुबलसे दिग्गजोंको दूषित करनेवाले वे दोनों साथ-साथ खेलते थे, वे ऐसे लगते थे मानो दिगन्तको प्रकाशित करनेवाला नक्षत्रसमूह उत्पन्न हुआ हो ॥१२॥ इस प्रकार श्रेसठ महापुरुषोंके गुणालंकारोंसे युक्त महापुराणमें महाकवि पुष्पदन्त द्वारा विरचित एवं महामव्य भरत द्वारा अनुमत महाकाव्यका बलदेव वासुदेव उत्पत्ति नाम का पचासवाँ परिच्छेद समाप्त हमा॥५०॥ ३. A हिमसयं । ४. AP बलएउ। ५. A छुद्धहीर; P छुड्डु हीरु। ६. AP मिगावईहि । ७. P विज्जत । ८. A भणि । ९. A गणित । १.. P भूसिय । ११. AP पुप्फयंत । Page #243 -------------------------------------------------------------------------- ________________ संधि ५१ माणुसई गिलंतु भुयबलविकमसारें। पंचाणणु भीमु मारिउ रायकुमारें ॥ध्रुवक। पायणिवायपणावियमहियल पविमलकमलालंकियउरयल। पंकयकुलिसकलसलक्खणधर रायहंससेविये णं सुरसर । पोरिसपवररयणरयणायर सम वढिय ते बिण्णि वि भायर । जायासीधणुतणु गुणमणिणिहि . असिजालोकरालखलकुलसिहि । धवल कसण सविणयपीणियजण णावइ सरयसमय सावणषण । कायकतिधवलियकालियणह णं गंगाणइ जणा जलवह । तेहिं बिहिहिं सो सहइ महीसेरु । बिहिं पक्खहिं गं पुण्णिमवासरु । जांवच्छइ हरिवीढि णिसण्णउ देसमहंतउ ता अवइण्णउ । . सोपभणइचंगउ पालियपय भो णिवमउडकोडिलालियपय । सन्धि ५१ बाहुबलके पराक्रममें श्रेष्ठ राजकुमार (छोटे भाई) ने मनुष्योंको खानेवाले (आदमखोर) भयंकर सिंहको मार दिया। पैरोंके निपातसे जिन्होंने धरतीको हिला दिया है, जिनका उरतल पवित्र कमलोंसे अलंकृत है, जो कमल वज्र और कलशके लक्षणोंको धारण करनेवाले हैं, जो मानो मानसरोवरकी तरह, राजहंसों (श्रेष्ठ राजाओं, श्रेष्ठ हंसोंसे सेवित हैं) जो पौरुष रूपी श्रेष्ठ रत्नोंके समुद्र हैं, ऐसे वे दोनों बड़े भाई साथ-साथ बढ़ने लगे (बड़े होने लगे)। अस्सी धनुष प्रमाण शरीरवाले वे दोनों गुणसमूहके निधि थे। अपनी तलवाररूपी ज्वालासे वे, शत्रुकुलके लिए अग्निके समान थे। अपनी विनयसे लोगोंको प्रसन्न करनेवाले गोरे और श्याम, वे दोनों जैसे क्रमशः शरद् और श्रावण समयके मेघ थे। अपने शरीर की कान्तिसे आकाशको धवल और श्याम बनानेवाले वे मानो गंगा नदी और यमुना नदीके जलपथ थे। उन दोनोंसे वह राजा ऐसा शोभित था मानो दो पक्षों (शुक्ल, कृष्णपक्ष) से युक्त पूर्णिमाका दिन हो। जब वह सिंहासनपर बैठा हआ था कि एक मन्त्री उसके पास आया। वह बोला-“हे प्रजापालक, सब कुछ ठीक है, राजाओंके करोड़ों मुकुटोंसे लालितचरण हे देव, A has, at the beginning of this Samdhi the stanza जगं रम्म हम्मं etc. for which see foot-note on page 139. P and K do not give this stanza here. १. १. AP°पणामिय । २. AP णं सेविय सरवर । ३. A असिधाराकराल । ४. A जवणा । ५. AP बिहिं मि। ६. A महीहरु । Page #244 -------------------------------------------------------------------------- ________________ -५१.२.१० ] महाकवि पुष्पदन्त विरचित सेहीरउ रुंजंतुं पदुर्कइ कंदमाणु खगभयवेविरमणु तं णिसुणिवि पडिलवइ पयावइ पालइ जो गोवालु गाई इमली जो उ रक्खइ जो मालारु वेल्लि णउ पोसइ जो कइ ण करइ मणहारिणि कह जो जइ संजमेजन्त ण याणइ जो पहु पयहि पीड णउ फेडइ संतु सी सई मारवि एंव भणेवि लेवि असि दारुणु ता पंजलियरु विजउ पजपेई दे आए देव हउं गच्छमि माणुसु चित्तालिहिण चुकेइ । देवदेव खद्धउ सयलु वि जणु । भो भो मंति चारु तेरी मइ । धत्ता -जो ण करइ राउ पयहि रक्ख सो केहउ ॥ खण णासिवि जाए संझाराएं जेहउ || १॥ २ सो जीवंतु दुद्ध णणिहालइ । रोक्सो केहिं किर चक्खइ । सो फुल फलु केंव लहेसइ । सोच कर अपइ वह । सो जग्गउ णग्गत्तणु माणइ । सो अपणु अप्पाणडं पाडइ । देसहु पडिय मारि णीसारविं । जाउ रिंदु कोवारुणु ।" पई कुद्वेण ताय 'जं कंपइ । अज्जु मइंदहु पलउ नियच्छमि । १९७ १५ १० एक गरजता हुआ सिंह आता है, जो चित्रलिखित मनुष्यों तकको नहीं छोड़ता । विनाशके भयसे कांपते हुए मनवाले और रोते हुए सब लोगों को, हे देवदेव, उसने खा डाला है ।" यह सुनकर राजा प्रजापति कहता है - "हे मन्त्री, तुम्हारी बुद्धि सुन्दर है ।" ५ घत्ता - " क्योंकि जो प्रजाकी रक्षा नहीं करता, वह राजा शीघ्र उसी प्रकार नष्ट हो जाता है कि जिस प्रकार संध्या राग नष्ट हो जाता है ॥१॥ २ जो गोपाल गायका पालन नहीं करता, वह जोते जी उसका दूध नहीं देख सकता, अपनी प्रिय पत्नीकी जो रक्षा नहीं करता, वह सुरति क्रोड़ाका सुख कहाँ पा सकता है ? जो मालाकार ( माली ) लताका पोषण नहीं करता वह सुन्दर फूल और फल किस प्रकार पा सकता है, जो कवि सुन्दर कथा नहीं करता वह विचार करता हुआ भी अपनी हत्या करता है । जो मुनि संयम की मात्रा नहीं जानता, वह नंगा है, और नग्नत्वको ही सब कुछ मानता है। जो राजा प्रजाकी वेदना नष्ट नहीं करता वह अपनेसे अपनी हत्या करता है, इसलिए मैं स्वयं जाता हूँ और गरजते हुए सिंहको स्वयं मारता हूँ । देशमें आयी हुई मारीको बाहर निकालता हूँ। यह कहकर और भयंकर तलवार लेकर क्रोधसे लाल-लाल राजा जब तक उठा, तबतक अंजली जोड़कर विजय बोला, "हे राजन्, आपके क्रुद्ध होनेसे जग कांप जायेगा ? आदेश दीजिए देव, में जाता हूँ ? ७. भुंजंतु । ८. P पढुक्कउ । ९. P चुक्कउ | २. १. P गोवि । २. AP कर कहि । ३. P मालाया । ४. P सफुल्लु । ५. A अप्पम्बह; P अप्पावह । ६. A संजमु जुत्ति; P संजमजत्ति । ७. A फेडइ । ८. A सो वि रसंतु । ९. A. पपई । १०. AP जमु । Page #245 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १९८ महापुराण [५१. २. ११पेसिउ जणणे चल्लिउ हलहरु ते सहुं चलिउ भाइ दामोयरु। णरकवालकंकालणिरंतर पत्ता केसरिगिरिकुहरंतरु । घत्ता-भडरोलहु सीह कुंदच्छवि उद्धाइउ ।। __ भाइहिं आवंतु णं कयंतजसु जोईये ।।२।। तिक्खणक्खणिक्खवियमयगलो पयविलग्गमुत्ताहलुजलो। रत्तसित्तकेसरसडालओ सिसुमियंकदाढाकरालओ। महिसमणुयपलकवलभोयणो सिहिफुलिंगपिंगलविलोयणो । कुडिललुलियलंगूलचिंधओ णासगहियपडिसुहडगंधओ। कंठरावणिहलियदिक्करी एरिसो सरोसेण केसरी। बहुबलक्खमियवीरविक्कम जांव देह किर सीरिणो कर्म । तांव तेण लहुएण भाइणा लोयजीवदाणेकदाइणा। विसतमालकालिंदिकंतिणों करेंजुवं पि वामेण पाणिणा। मयंवइस्स धरियं बला बलं बैलिविरोहिणो कस्स मंगलं । १० उच्छलंतदंतावलीसियं । दाहिणेण हत्थेण णिहयं । ताडिओ मुहे पाडिओ हरी संसिओ महीसेहिं सो हरी। माहवेण कयणिवविदोहेओ दड्ढदेहिदेहघिवो हँओ। आज मैं सिंहका प्रलय देखूगा।" पिताके द्वारा प्रेषित बलभद्र चला, उसके साथ भाई दामोदर चला । मनुष्योंके कपाल और हड्डियोंसे परिपूर्ण, सिंह की पर्वत गुफामें वे लोग पहुंचे। घत्ता-स्वर्णके समान कान्तिवाला सिंह योद्धाओंके हल्लेसे दौड़ा। दोनों भाइयोंने उसे आते हुए यम-भय की तरह देखा ||२|| जिसने अपने तीखे नखोंसे मदगजोंको आहत किया है, जो झरते हुए मोतियोंसे उज्ज्वल है, जो लाल और श्वेत अयालसे युक्त है, बालचन्द्रके समान दाढ़ोंसे जो भयंकर है, महिष और मनुष्योंके मांसका जिसका भोजन है, आगके स्फुलिंगके समान जिसके नेत्र पीले हैं, जो टेढ़ी और चंचल पूंछको पताकावाला है, जो प्रतिसुभट (शत्रु ) की गन्ध अपनी नाकसे ग्रहण करनेवाला है, अपने कण्ठके शब्दसे जिसने दिग्गजका शब्द नष्ट कर दिया है, इस प्रकारका वह सिंह क्रोधपूर्वक बहुबलसे वीरोंके पराक्रमको आक्रान्त करनेवाला जबतक श्रीबलभद्रके ऊपर पैर दे तबतक लोक जीवनदान में एक मात्र दानी तथा विष तमाल और यमुनाके समान कान्तिवाले उस छोटे भाईने उस सिंहके दोनों पैर और अयाल बलपूर्वक पकड़ लिये । बलवानसे विरोध करनेवाले किसका भला हुआ है ? उछलती हुई दन्तावलीकी सफेदीको उसने दायें हाथसे दलित कर दिया। मुखमें आहत किया। सिंह पीड़ित हो उठा। राजाओंने वासुदेवकी प्रशंसा की। इस प्रकार माधव, ने, जिसने राजासे विद्रोह किया है ऐसे दग्ध देहीके देह स्वरूप उस वृक्षको आहत कर दिया। ११. A कयंतजमु; P कयंतु जसु । १२. P जोविउ । ३. १. AP बहुबलक्कमियं । २. AP add after this : बाहुदंडबलतुलिय (A तुडिय ) दंतिणा, कररुहंसुपविरइयसुवलयं, वामएण चल (A वल) चरणजुयलयं, सुहडसंगरुन्बूढमाणिणा । ३. AP करजुयं । ४. A मइवइस्स । ५. AP बलविरोहिणो। ६. AP विदोहओ । ७. A हो । | Page #246 -------------------------------------------------------------------------- ________________ -५१. ४. १४ ] महाकवि पुष्पदन्त विरचित घत्ता-जो पयसंताउ पलयसिहि व्व पलित्तउ ।। सो णिहँउ मयारि लोहियसलिले सित्तउ ॥३॥ करतलप्पचूरियदुग्घोट्टइ णियबलु कसिवि सीहकसवट्टइ। सुरसीमंतिणिकामुक्कोयणु लहिवि विजयलच्छिहि अवलोयणु । आया ते तं पुणरवि पोयणु णं ससहर दिणयर गयणंगणु । पयहिं पडतैवऊहिय ताएं दोणि मेह गं संझाराएं । पुणु आउच्छिउ दाणववइरिउँ किह केसरिकिसोरु पई मारिउ । तं णिसुणेवि तेण अवगणिउं णाविउं सीसु ण अप्पउ वण्णिउ । गरुयउ सगुणपसंसइ लज्जइ ऊणउ गुणथुइमइरइ मज्जइ। एंव ताहं बुहुसंपयसारा जंति दियह सुमणोरहगारा। तांवेकहिं दिणि परमणहारउ कंचणवेत्तपाणि पडिहारउ । कहइ गरिंदहु विणु आयासे ___ आयउ एक्कु पुरिसु आयासे ।। कंठयकडयमउडकुंडलघरु ___ण वियाणमि किं सुरु किं णहयरु । वारवार महुं वयणु णिरिक्खइ तुह कर्मकमलालोयणु कंखइ । घत्ता-जइ अवसरु अत्थि ता सो पइसारिजइ ॥ __ 'जं भासइ किं पि तं णरेस णिसुणिज्जइ ।।४।। घत्ता-प्रजाका सन्तापकारी जो प्रलयकी अग्निकी तरह प्रज्वलित था वह मारा गया सिंह रक्तरूपी जलसे सिक्त हो उठा ॥३॥ हथेलीके प्रहारसे हाथीके चूर कर लेनेपर, सिंहरूपी कसौटीपर अपना बल कसकर, देवबालाओंको कामोत्कण्ठा उत्पन्न करनेवाला विजयलक्ष्मीका उत्पन्न कटाक्ष प्राप्त कर वे दोनों पोदनपर नगर आ गये, मानो आकाशमें सूर्य और चन्द्रमा आ गये हों। पैरोंपर गिरते हुए उन दोनोंका पिताने आलिंगन किया, मानो सन्ध्यारागने मेघका आलिंगन किया हो। फिर उसने दानवराजके शत्रुसे पूछा कि तुमने सिंहके बच्चेको किस प्रकार मारा। यह सुनकर उसने उसकी उपेक्षा की, उसने सिर झुका दिया परन्तु अपना वर्णन नहीं किया । महान् या भारी आदमी अपनी गुण-प्रशंसासे लज्जित होता है, छोटा आदमी गुणस्तुतिको मदिरासे मतवाला हो जाता है। इस प्रकार प्रचुर सम्पत्तिसे श्रेष्ठ तथा सुन्दर मनोरथोंसे परिपूर्ण उनके दिन बीतने लगे। इतने में एक दिन दूसरेके मनका हरण करनेवाला हाथमें स्वर्णदण्ड लिये हुए प्रतिहारी राजासे कहता है कि बिना किसी आयासके एक आदमी आकाशमागंसे आया है। कण्ठा-कटक मुकूट और कुण्डल धारण किये हुए है, में नहीं जानता कि कोई नभचर है या देव । बार-बार मेरा मुख देखता है, और तुम्हारे चरणकमलको देखनेकी इच्छा करता है। ___ घत्ता-यदि अवसर हो तो उसे प्रवेश दिया जाये, और वह जो कुछ भी कहता है, हे नरेश, उसे सुना जाये ॥४॥ ८. AP णिहय । ४. १. A°दुघोट्टह। २. A सजयलच्छिहि । ३. A पडत विजोहिय; P पडंत विगूहिय; T अवगूहिय ___ आलिङ्गितौ । ४. AP°वेरिउ । ५. A पसंसण लज्जइ । ६. करकमला । ७. P तो। Page #247 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २०० महापुराण महिणाहेण उत्तु पइसारहि पुरिसु संसामिकजरहसारहि । ता कणइल्ले आणिवि दाविउ .. खयरु णवंतु अउवु विहाविउ । तहु पणवंतहुं णियडउ आसणु दरिसिउं मणिगणकिरणुष्भासणु । इठ्ठ भणिवि जाणिउं मुहराएं पृयवयणहिं संभासिउराएं। कहिं होतउ सुंदरणिक्केयउ। को तुहुँ कह सु कासु किं आयउ । अक्खइ विर्ययरु पालियखोणिहि । रुप्पयगिरिवरदाहिणसेणिहि । णमिकुलणहयलवलयहु णेसरु रिद्धिइणं सयमेव सुरेसरु। . . रहणेउरपुरवरपरमेसरु । देव जलेणजडि णाम खगेसरु । वाउवेय पिययम लीलागइ अक्ककित्ति तणुरुहुणं रइवइ । धूय सयंपह कि वणिज्जइ मुहससिजोण्हइ चंदु वि खिजइ। घत्ता-थणहारें भग्गु जाहि मज्झु किसु सोहइ ॥ णहपंतिपहाइ तारापंति ण रेहइ ॥५॥ करकमेयलई कुमारिहि रत्तई णाहिहि जइ गंभीरिम दीसह भालव१ पटु व रइरायहु ताहं कुमारसहासई रत्तई। ते मुणिहिं वि गंभीरम्व णासइ । चिहुरकुडिलकोडिल्लु व आयहु । महीनाथने कहा कि अपने स्वामीके कार्यरूपी रथका निर्वाह करनेवाले उस पुरुषको भीतर प्रवेश दो। तब प्रतिहारीने उसे बुलाकर दिखाया। प्रणाम करता हुआ वह विद्याधर सुन्दर दिखाई देता था। प्रणाम करते हुए उसे मणिकिरण-समूहसे आलोकित आसन पास ही दिखाया गया। इष्ट समझकर उसने मुखके भावसे जान लिया। राजाने प्रिय शब्दोंमें उससे बातचीत की कि तुम्हारा सुन्दर घर कहां है, तुम कौन हो, किसके हो। यहाँ क्यों आये ? विद्याधर कहता है कि धरतीका पालन करनेवाले विजयाधं पर्वतकी दक्षिण श्रेणीमें हे देव, ज्वलनजटी नामका राजा है, जो नमिकुलके आकाशमण्डलका सूर्य है, ऋद्धिमें जो मानो स्वयं इन्द्र है और रथनूपुर नगरका परमेश्वर है। लोलापूर्वक चलनेवाली उसकी वायुवेगा नामकी प्रियतमा है। और पुत्र अर्ककीति है जो मानो कामदेव है। उसकी कन्या स्वयंप्रभाका क्या वर्णन किया जाये ? वह अपने मुखरूपी चन्द्रमाको ज्योत्स्नासे जो चन्द्रमाको भी खिन्न कर देती है।। घत्ता-स्तनभारसे भग्न जिसका दुबला पतला मध्यभाग नखपंक्तिप्रभासे इस प्रकार शोभित है, मानो तारापति शोभित हो ।।५।। कुमारीके कररूपी कमल रक्त (लाल) हैं। उनसे हजारों कुमार अनुरक्त हैं। उसकी नाभिमें जो गम्भीरता दिखाई देतो है, उससे मुनियोंकी भी गम्भीरता नष्ट हो जाती है। उसका ५.१. AP सुसामि । २. AP पियवयहिं । ३. P कासु कहसु कहिं । ४. A वइयरु । ५. A जडणजडि । ६. AP थणभारें। ६.१. AP कमलयई । २. AP तहि । ३. AP गंभीरिम । ४. A भालबद्ध पट्ठ व; P भालवटु वटु व । Page #248 -------------------------------------------------------------------------- ________________ -५१.७.५] महाकवि पुष्पदन्त विरचित सुरणरविसहरहिययवियारा णयण विसिह णं तासु जि केरा। जाहि रूवसिरि णे परपराइय सा फुल्लंति वेल्लि जिह जोइय । ताएं धीय बीय णं चंदें वोल्लि सज्जणणयणाणंदें । दुम्मयमलकलंकपक्खालणि मंतिहिं अग्गइ मंतिणिहेलणि । भो संभिण्ण णिसुयजोइससुय भणु भणु कासु घरिणि होसइ सुय । भणु भणु भव मज्झु भवियम्वई पई दिट्ठाई अणेयइ दिवई । देहदित्तिणित्तेइयचंदई केवलणाणधरई रिसिवंदई। ता संभिण्णे भणि णिसामहि मई चिरु पुच्छिये संजय सावहि । दाहिणभरहि सुरम्मइ मंडलि घरसिहरालिंगियरविमंडलि । घत्ता-पोयणपुरि राउ जसु जसु देवहिं गिज्जइ ॥ पालियसम्मत्तु जो जिणणय पडिवज्जइ ॥६॥ १० चिरु पुरुएवहु दिग्गयगामिहि जो बाहुबलि पुत्तु जगसामिहि । भरहु जेण मुयदंडहिं भामिउ जो जायउ पंचमगइगामि । पुरिसपरंपराहि तहु जायउ । णाम पयावइ जो विक्खायउ । जयवइ तासु देवि गरुयारी । अवर मृगावइ प्राणपियारी। अचल पबलभुयतोलियगुरुगिरि ताहं बिहिं वि जाया हलहर हरि । भालपट्ट कामदेवका पट्ट है। उसके बालोंका कुटिल कौटिल्य भी इसीका है। सुर-नर और विषधरोंके हृदयका विदारण करनेवाले उसके नेत्र भी कामदेवके ही तीर हैं। जिसको रूपलक्ष्मी दूसरों के द्वारा पराजित नहीं है, वह खिली हुई लताके समान देखी जाती है, पितासे पुत्री ऐसी लगती है जैसे चन्द्रमासे द्वितीया । सज्जनोंके नेत्रोंको आनन्द देनेवाले राजाने दुर्मद-मल-कलंकका प्रक्षालन करनेवाले मन्त्रणाघरमें मन्त्रियोंसे कहा, "हे ज्योतिषशास्त्रका अध्ययन करनेवाले संभिन्न ( मन्त्री ), बताओ-बताओ यह कन्या किसकी गृहिणी होगी। हे भव्य, तुम मेरा भवितव्य बताओ, तुमने अनेक दिव्य शरीरकी कान्तिसे चन्द्रमाको कान्तिहीन कर देनेवाले केवलज्ञानधारी ऋषिसमूह देखे हैं।" तब संभिन्न मन्त्रीने कहा "सुनाता हूँ, मैंने बहुत पहले संजय नामक अवधिज्ञानी मुनिसे पूछा था। (और उन्होंने कहा था), दक्षिण भरतक्षेत्रके सुन्दर देशमें जिसमें कि गृहशिखरोंसे सूर्यमण्डल आलिंगित है, घत्ता-पोदनपुर नगरमें राजा है, जिसका यश देवोंके द्वारा गाया जाता है। सम्यक्त्वका पालन करनेवाला जो जिननयको स्वीकार करता है ॥६॥ ७ प्राचीन समयमें पुरुदेवके दिग्गजगामी विश्वस्वामो (ऋषभदेव) का जो बाहुबलिदेव पुत्र था, जिसके द्वारा भरतदेव अपने भुजदण्डोंके द्वारा घुमा दिया गया था, और जो मोक्षगामी हुए थे, उसीकी पुरुष परम्परामें उत्पन्न प्रजापतिके नामसे विख्यात राजा है। जयवती उसकी बड़ी पत्नी है और दूसरी प्राणप्यारी मृगावती है । उन दोनोंसे, अपने प्रबल बाहुओंसे मन्दराचल ५. A णवर पराइय। ६. A णिसुणि जोइससुय; P णिसुणि जोइयसुय । ७. A णित्तेयई। ८. A धरियरिसि । ९. AP पुच्छिउ । ७.१ AP°सामिउ । २. A जइवय । ३. AP मिगावइ पाण । Page #249 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २०२ [ ५१.७.६ महापुराण विजय तिविट्ठ णाम णिहुरकर समरभारकिणकसणियकंधर। एहु तुरंगगेलु रिउ तहु केरउ आसि विसाहणं हि विवरेरउ । एत्थुप्पण्णउ पुण्णविवाएं मारेवउ मृगर्वइयहि जाएं। भुयहिं कोडिसिल संचालेवी । वसुह तिखंड तेण पालेवी। परियणसयणहं तुहि जणेवी अण्णु तुहारी सुय परिणेवी। उहयसेढिविज्जाहरराएं पई होएवढ तासु पसाएं । एंव देव हियवइ संचारिउ संभिण्णे संबंधु वियारिउ । घत्ता-ता महुँ णाहेण बंधुसिणेहु° गवेसिउ॥ . हउं णामें इंदु तुम्हहं दूयउं पेसिउ ॥७॥ अवरु वि पहु तेरउं पहुठाणउं अम्हार पाइक्कणिवाणउं । रिसहहु कच्छमहाकच्छाहिव जिह भरहहु णेषिविणमि खगाहिव । तिह सिहिजडि रविकित्ति तुहारा । जिव सुहि जिंव पुणु पेसणगारा । तं णिसुणिवि णरवइ रोमंचिउ आणंदें परिवार पणञ्चिउ । ५ सीरिं पुण्णे सव्व पोमाइय हरिणा णियभुयदंड पलोइय । पुणु सो दूयउ पहुणा पुजिय तेण वि तक्खणेण गैउं सजिउ । को तौलनेवाले और अचल बलभद्र और नारायण उत्पन्न हुए हैं। विजय और त्रिपृष्ठ नामके वे कठोरकर और समरभार उठानेके कारण श्याम कन्धेवाले हैं । यह अश्वग्रीव तुम्हारा शत्रु है; जो विपरीत करनेवाला विशाखनन्दी था। अपने पुण्यके विपाकसे वह यहां उत्पन्न हुआ है, जो मृगावतीके पुत्र (त्रिपृष्ठ ) के द्वारा मारा जायेगा। वह अपने बाहुओंसे कोटिशिलाका संचालन करेगा, और उसके द्वारा त्रिखण्ड धरतीका पालन किया जायेगा। वह परिजन और स्वजनोंको सन्तोष देगा और तुम्हारी पुत्रीसे विवाह करेगा। उसके प्रसादसे तुम दोनों श्रेणियोंके विद्याधर राजा होगे।" इस प्रकार देवके हृदयमें यह संचारित किया, और फिर संभिन्नने सम्बन्धका विचार किया। __ घत्ता-तब मेरे स्वामीने बन्धुके स्नेहको खोज की और मैं इन्दु नामका दूत तुम्हारे पास भेजा गया ॥७॥ और भी हे प्रभु, तुम्हारा प्रभुस्थान है और हमारा पाइक्क (पदाति सेवक ) के रूपमें निर्माण ( रचना ) है । जिस प्रकार ऋषभनाथके कच्छ और महाकच्छ राजा थे, जिस प्रकार भरतके नमि और विनमि विद्याधर राजा थे, उसी प्रकार ज्वलनजडी और अर्ककीर्ति तुम्हारे हैं। जिस प्रकार वे सज्जन हैं उसी प्रकार आज्ञा करनेवाले हैं। यह सुनकर राजा रोमांचित हो गया। आनन्दसे परिवार नाच उठा । बलभद्रने सबकी प्रशंसा की। नारायण (त्रिपृष्ठ ) ने अपने भुजदण्डको देखा। राजाने उस दूतका आदर सत्कार किया। और उसने भी तत्काल अपने जाने ४. A णिट्टर। ५. A°भारकसणंकियकंधर । ६. A तुरंगकंछु। ७. A omits रिउ । ८. AP मिगवइयहि । ९. AP उभय । १०. AP °सणेहु । ८.१. AP णमि । २. A पुण्णसत्ति; P पुण्ण सत्त । ३. A ग3; P गमु । Page #250 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २०३ -४१. ९. १२] महाकवि पुष्पदन्त विरचित भूगोयरहुं गयणु कहिं गोयरु इय चिंतिवि णरणाहिं सायरु । संताणागयपणयपयासउ तासु जि हत्थि दिण्णु संदेसउ । घत्ता-खेंग सुर सिझंति कामधेणु घरि दुब्भइ ।। जं दूरु दुसज्झु तं जगि पुण्णे लब्भइ ॥८॥ इंदद्यवयणई आयण्णिवि बंधुसणेहु सहियवइ मण्णिवि । सहुं तणएं तणयाइ पसण्णइ अहिणवमुग्गमणोहरवण्णइ । उद्धचलंतचमरवित्थारें। विहवगहीरें सहुँ परिवारें। ओसारियरवियरसंताणहिं आवेप्पिणु विमाणपाणहिं । महुरसवसरुणुरुंटियमहुयरि कीरकुररसिहिपियमाहविसरि । मंदमंदमायंदावलिघणि पोयणपुरबाहिरणंदणवणि । जायवेयजडि एकहिं वासरि थिउ विजापहावविरइयधरि । जिणपयपंकयपणवियसीसहु इंदें जाइवि कहिउं महीसहु । आयउ इट्ट सुट्ठ उत्कंठिउ तं णिसणिवि सह सयहिं ण संठिउ। पहु मंडलियणिसे विउ चल्लिउ इयरेण वि खगदप्पु पमेल्लिउ । अवरोप्परहुं बे वि गय संमुह णाइ तरंगिणिणाह सुहारुह । मिलिय बे वि दीहरपसरियकर बेणि वि सज्जण णं दिसकंजर । की तैयारी की। मनुष्यों के लिए आकाश किस प्रकार गम्य हो सकता है, यह विचार कर राजा प्रजापतिने सादर परम्परासे आगत प्रणयको प्रकाशित करनेवाला सन्देश उसके हाथमें दिया। घत्ता-विद्याधर और देव सिंह हो जाते हैं कामधेनु घरमें दुही जाती है, जो दूर और असाध्य है, वह विश्वमें पुण्यसे पाया जा सकता है ॥८॥ इन्दु दूतके वचन सुनकर और अपने हृदयमें बन्धुके स्नेहको मानकर, अपने पुत्र और प्रसन्न अभिनव मृगके समान वर्णवाली कन्याके साथ जिसके ऊपर चलते हुए चमरोंका विस्तार है, ऐसे वैभवसे गम्भीर परिवारके साथ, जिन्होंने सूर्यको किरणपरम्पराको हटा दिया है ऐसे विमान और जंपानोंके द्वारा आकर, ज्वलनजटी विद्याधर, एक दिन, जिसमें मधुरसके वशसे मधुकर गुनगुन कर रहे हैं, जिसमें कीर कुरर मयूर और कोकिलोंका स्वर है, जो मन्द-मन्द आम्रवृक्षावलीसे सघन है, और जिसमें विद्याके प्रभावसे घर बना लिये गये हैं, ऐसे पोदनपुरके बाहर नन्दनवनमें ठहर गया। जिसने जिनपद-कमलोंमें अपना सिर नत किया है, ऐसे राजा प्रजापतिसे जाकर इन्दु दूतने कहा कि ( तुम्हारा ) इष्ट अत्यन्त उत्कण्ठित होकर आया है । यह सुनकर, वह अपने पुत्रोंके साथ संस्थित नहीं रहा। अपनी मण्डलीसे सेवित राजा चला। दूसरेने भी अपना विद्याधर होनेका अहंकार छोड़ दिया। वे दोनों, एक दूसरेके सामने गये, मानो समुद्र और चन्द्रमा हों। अपने दोनों लम्बे हाथ फैलाकर वे मिले। वे दोनों ही सज्जन थे मानो दिग्गज हों। ४. P खग्ग सुर। ९१. A°मग्गमणोहर । २. A रुणुरुंटियमहुवरि; P रणुरुटियं । ३. A णिसुणि स। Page #251 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २०४ महापुराण [५१.९.१३ घत्ता-णियजणणविइण्णु परियाणिवि भूभंगउं ॥ . रायहु रविकित्ति णविउ पणाविवि अंगउं ॥९॥ हरिबलेहि ससुरउ जयकारिउ तेण सिणेहसाहि वडारिउ । मुयभूसणकरमंजरिपिंगिडे सालउ गाढंगाढ आलिंगिउ ।। हरिसंसुयजलेहिं संसित्तउ सयल णिसण्ण सुमंतु पउत्तउ । दिणयरु तवइ खवइ जिणु कम्मई वम्महु सल्लइ वाणहिं वम्मई। सायरु गिलइ सयलसरिसोत्तई ससहरु पीणइ जणवयणेत्तई । भंजणसत्ति महंत समीरहु वलु अइअतुलु तिविट्ठकुमारहु । एत्थु ण किं पि बप्प कोऊहलु णहँ चवेडचप्पियकुंजरकुलु। एंव सीहु को करहिं णिपीलइ कोडिसिलायलु जइ संचालइ । तो जाणहुँ होसइ पुण्णाहिउ हरि हरिबंदियणाणिहिं साहिउ । आसग्गीवजीवउड्डावणु ध्रुवु माणेसइ तरुणिहि जोव्वणु। घत्ता-महियर खयरिंद एहु मंतु विरएप्पिणु ।। जहिं तं सिर्लरण्णु तहिं गय कण्हु लएप्पिणु ॥१०॥ ___घत्ता-अपने पिताके द्वारा किये भ्रूभंगको जानकर अर्ककीर्तिने राजाको प्रणाम कर अपना सिर झुका लिया ॥९॥ १० १० नारायणकी सेनाने ससुरका जय-जयकार किया। उससे उनका स्नेहरूपी वृक्ष बढ़ गया। बाहुओंके आभूषणोंकी किरण-मंजरीसे पीले सालेका प्रगाढ़ आलिंगन कर लिया। हर्ष के आसुओंके जलसे सींचे गये सब लोग बैठ गये । ( यह ) सुमन्त्र कहा गया कि दिनकर तपता है, जिन कर्मका नाश करते हैं, कामदेव, बाणोंसे मर्मको छेदता है। समुद्र, समस्त नदियोंके स्रोतोंको अपने में समो लेता है । चन्द्रमा जनपदके नेत्रोंको प्रसन्न करता है। पवनमें बहुत बड़ी भंजन शक्ति है, त्रिपृष्ठ कुमारमें अतुल बल है, हे सुभट, इसमें जरा भी कुतूहलकी बात नहीं। अपने नखोंकी चपेटसे गजकुलको चोपनेवाले सिंहको कौन अपने हाथोंसे निष्पीडित कर सकता है ? यदि यह कोटिशिलातलको संचालित कर सकते हैं, तो हम लोग जानेंगे कि इन्द्रके द्वारा वन्दित ज्ञानियोंके द्वारा कथित नारायण पुण्याधिक होंगे। अश्वग्रीवके जीवको उड़ानेवाले यह निश्चयसे तरुणीके यौवन मानेंगे? घत्ता-मनुष्य और विद्याधर यह मन्त्र रचकर, जहां वह शिलारत्न था वहाँ नारायणको लेकर गये ॥१०॥ १०.१.AP सणेह । २. A पिंगउ । ३. AP गाढु गाढु । ४. तहो चवेड । ५. AP तो । ६. APणाणहिं। ७. AP धुवु । ८. P सिलरम्म । Page #252 -------------------------------------------------------------------------- ________________ -५१. १२. २ ] महाकवि पुष्पदन्त विरचित २०५ ११ णिद्ध अद्धजोयणवित्थिण्णी णाणावणतरुवरसंछण्णी । जिणपयसेवा इव फलेभाइणि बहुमुणिलक्खमोक्खसुहदाइणि । पुण्ण पवित्त पावखयगारी दीसइ सिल णं सिद्धिभडारी। कहिं वि दंतिदंतग्गहिं खंडिय सीहणहरचुयमोत्तियमंडिय । कहिं वि पलिप्पइ जालावलणे किडिदाढाणिहसणरुहजलणे । कहिं वि जक्खिपयघुसिणं लिप्पैइ चंदकंतजलधारइ धुप्पइ । कहिं वि णीलगलणियरहिं णीलिय वर्णयवधूमंधारें मइलिय । कहिं वि फुरइ घणतिमिरविमुक्कहिं । सप्पफडाकडप्पमाणिकहिं । कहिं वि भमियमृगणाहिमओहें सुरहिय सेविय भमरसमूहें। कहिं वि वियंभिय सइसहगारव किंणरगेयवेणवीणारवं। सा परियंचेप्पिणु अंचेप्पिणु ___ सिद्धसेस राएहिं लएप्पिणु । घत्ता-पुणु भणिउ अणंतु पेक्खहुं सिल उण्णावहि ॥ हयकंठकयंतु होसि ण होसि वदावहि ॥११॥ १२ ता सिल उच्चायंतहु कण्हहु पवरकरिकरायारहिं बाहहिं दुजणदेह वियारणतण्हहु । पाहाणुट्ठियभूसणरेहहिं । स्निग्ध आधे योजन विस्तीर्ण, तरह-तरहके वनवृक्षोंसे आच्छन्न, जिनपदकी सेवाके समान फलकी भाजन, अनेक लाखों मुनियोंको मोक्ष-सुख देनेवाली। पुण्यसे पवित्र और पापका क्षय करनेवाली । वह शिला ऐसी दिखाई देती है मानो सिद्धिरूपी भट्टारिका हो। कहींपर वह हाथियोंके दांतोंके अग्रभागसे खण्डित थी, कहींपर सिंहोंके नखोंसे च्युत मोतियोंसे अलंकृत थी। कहींपर ज्वालाके जलनेसे प्रज्वलित थी, कहींपर सुअरकी दाढ़ोंके संघर्षणसे उत्पन्न ज्वालासे, कहींपर यक्षिणीके पैरोंकी केशरसे रंजित है, और चन्द्रकान्त मणिको जलधारासे धुली हुई है, कहींपर मयूरोंके समूहसे नीली, और दावाग्निके धुएंसे काली। कहींपर सघन अन्धकारसे मुक्त, सर्पके फनसमूहके माणिक्योंसे चमकती है। कहींपर घूमते हुए कस्तूरीमृगके मदसमूहसे सुरभित है और भ्रमर समूहसे सेवित है, कहींपर पवित्रता, सुख और गौरव फैल रहा है और किन्नरोंके द्वारा गाये वेणु और वीणाके शब्द हैं। उसकी परिक्रमा और पूजा कर और राजाओंके द्वारा अक्षत लेकर घत्ता-नारायणसे फिर कहा गया हम देखें, तुम शिला उठाओ और बताओ कि वह अश्वग्रीवके लिए यम होगी या नहीं होगी? ॥११॥ जिसे दुर्जन देहके विदारणको तृष्णा है, ऐसे तथा शिलाको उठाते हुए कृष्णकी, प्रवर गजको सूंडके समान तथा पत्थरपर लिखी गयी भूषण-रेखाओंवाली बाहुओंसे हरिण उरतलपर गिर पड़े। ११.१ AP अजोयणं । २. A फलुभाविणि; P फलभाविणि । ३. AP°जलणें । ४. A लिंपइ । ५. A णीलमणिणियरहिं । ६. P वणदव। ७. AP मृगणाहि। ८. AP सुरहिपसेविय । ९. A°गारउ । १०. वीणारउ । ११. A उच्चावहि; P ओचावहि । १२. A दावइ । Page #253 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २०६ ५ १० ५ उरयलि विडियाईं सारंगई पंतिणिबद्ध केसिण अरुणई दिgs णायउलाई चलंतई गेरुवाणिडं वियलिउं रत्त हंस पंति मंडलि धावइ भमरामेलउ णीलउ लोलइ दलियई मलियइं वेल्लीभवणई कीला सुरणिउरुवई घत्ता उचाइ सिल सोहइ तहु करि जं चालिय सिल सिरिरमणी सें संथु अवरु पयावइ राएं संथुर लंगलहररवि कित्तिर्हि वहिं तुहुं जि देव महिराणउ महापुराण - उदंडकरेहि सिल कण्हें उच्चाइ ॥ पडिसत्तुधरित्ति हरिवि णाई दक्खालिय ||१२|| १३ दसदिसि वहिवि गयाइं विहंगई । णं रिडका मिणिकंठाहरणईं । णं अरिअंतई लंबलंलंतई । हिराइ वइरिहि णिग्गंत । पडिभडट्ठिमाला इव भावइ । रोसहुयासधूमु णं घोलइ । णावइ खलयणपट्टणभवणई । णिग्गयाई णं सत्तुकुडुंबई | [ ५१.१२.३ अट्ठमभूमि व भुवणत्तय सिरि । तं सो संधु जल जडीसें । बहुविधाएं । संधु सुरणरविसहरपतिहि । पुरि जगि णत्थि समाणउ । तु विहंग डरकर दसों दिशाओंमें भाग गये । पंक्तिबद्ध काले और लाल वे ऐसे मालूम होते थे मानो शत्रुकामिनियोंके कण्ठाभरण हों । चलते हुए नागकुल ऐसे दिखाई दिये, मानो शत्रुओंकी चंचल आंतें हों। गिरता हुआ लाल-लाल गेरूका जल ऐसा मालूम होता है मानो शत्रुका निकलता हुआ खून हो । हंसों की कतार आकाशमण्डलमें उड़ती है मानो शत्रु योद्धाओं की अस्थिमाला हो, नीला भ्रमरसमूह इस प्रकार मँडराता है, मानो क्रोधरूपी आगका धुआं व्याप्त हो रहा हो । लताभवन चूर्ण-चूर्ण होकर मैले हो गये, मानो दुष्टजनोंके नगर और भवन हों । क्रीड़ासुरोंके समूह इस प्रकार नष्ट हो गये मानी शत्रुओंके कुटुम्ब निकल पड़े हों । घत्ता - कृष्णने अपने ऊँचे हाथोंसे शिलाको उठा लिया जैसे उसने प्रतिशत्रुकी धरतीका हरण कर दिखाया हो ॥ १२ ॥ १३ उठायी गयी शिला उसके हाथमें ऐसी दिखाई देती है जैसे भुवनत्रयके सिरपर मोक्षभूमि हो । जब लक्ष्मीरूपी रमणीके पति नारायणने शिलाको चलायमान कर दिया तो ज्वलनजटीने उनकी स्तुति की, बलभद्र और सूर्यके समान कीर्तिवाली सुर-नर और विषधरोंकी पंक्तिने स्तुति की - "हे देव, इस समय तुम्हीं पृथ्वीके राजा हो, जगमें तुम्हारे समान दूसरा पुरुष नहीं है, तुम पुरुषोत्तम हो, तुम धरतीको धारण करनेवाले हो, गिरते हुए भाइयों के लिए तुम आधारस्तम्भ हो, १२. १. AP किसिणई । २. AP वाणि । ३ AP हिरु । ४. णावइ । ५. AP उडड्ड । ६. AP कच्चा लिय । १३. १. APविसहर पंतिहि । Page #254 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २०७ -५१. १४.८] महाकवि पुष्पदन्त विरचित तुडं पुरुसोत्तमु तुहुं धरणीहरु णिवडंतहं बंधहुं लग्गणतरु । तुहुँ इक्खाउसवरधयवडु तुह पडिमल्ल पत्थि तिहुवणि भडु । साहु साहु तुह सोहइ विक्कमु अण्णहु एहउ कासु परक्कमु । एम भणंतहं घोसगहीरइं कउ कलयलु दिण्णई जयतूरई। परिमलबहलई वण्णविचित्तई अमरहिं पंजलिकुसुमई पित्तई। चंडहिं भुयदंडहिं पडिपेल्लय पुणु सिल माहवेण तहिं घल्लिय । मालालंकिइ मउडि पसत्थइ कालभवित्ति णाइ रिउमत्थइ। घत्ता-खगमहिवइणाह वणु मेल्लिवि पडिआइय ॥ हरिबलसंजुत्त पोयणणयरु पराइय ।।१३।। १४ अहिवंदिय दहिअक्खयसेसह पुरि पइसंतहं ताह गरेसहं । मंदिरि मंदिरि मंगलकलयलु णञ्चइ कामिणि घुम्मइ मद्देलु । मंदिरि मंदिरि छडरंगावलि बज्झइ तोरणु चित्तधयावलि । मंदिरि मंदिरि कलस सउप्पल णिहिय वयणविलुलियपल्लवदल । ता तहिं जंपइ पुरणारीयणु सुहयालोयणपयडियघणथणु । का वि भणइ इहु राउ पयावइ एहु खगाहिउ रहणेउरवइ। का वि भणइ इ सो संकरिसणु हलहरु हलि अँकरंतु वि करिसणु । का वि भणइ इहु सो णारायणु जेण संयंपहाहि हित्तउं मणु । तुम इक्ष्वाकुकुलके श्रेष्ठ ध्वजपट हो, तुम्हारे समान प्रतिभट त्रिभुवनमें नहीं है । साधु-साधु, तुम्हें पराक्रम शोभा देता है। और दूसरे किसका ऐसा पराक्रम हो सकता है ?" इस प्रकार कहते हुए उनका कलकल शब्द होने लगा, गम्भीर घोषतूर्य बजा दिये गये। परिमलोंसे प्रचुर रंगबिरंगी कुसुमांजलियां देवों द्वारा छोड़ी गयीं। प्रचण्ड बाहुदण्डों द्वारा प्रेरित उस शिलाको माधव (त्रिपृष्ठने) वहीं इस प्रकार रख दिया, मानो मालासे अंकित मुकुट और प्रशस्त शत्रु मस्तकपर मानो कालभवितव्यता हो। घत्ता-विद्याधरों और मनुष्योंके राजा वन छोड़कर वापस आ गये और त्रिपृष्ठकी सेनासे संयुक्त वे पोदनपुर पहुंचे ।।१३।। दही, अक्षत और निर्माल्यसे नगर में प्रवेश करते हुए उन नरेशोंकी अभिवन्दना की गयी। घर-घर में मंगल कलकल होने लगता है। कामिनी नृत्य करती है। मृदंग बज उठता है। घर-घरमें षरंगावली होने लगती है, तोरण और रंगबिरंगी ध्वजमाला बांधी जाने लगती है। घर-घरमें, जिनके मुखपर पल्लवदल मदित हैं, ऐसे कमल सहित कलश रख दिये गये हैं। तब वहां, सुन्दरके अवलोकनमें जिसके सघन स्तन प्रकट हुए हैं, ऐसा पुरनारीजन कहता है। कोई कहती है कि यह राजा प्रजापति है। यह विद्याधर राजा रथनूपुरका स्वामी है, कोई कहती है, हे सखी, यह वह हलधर (बलभद्र) है जो कर्षण नहीं करते हुए भी हलधर (किसान) हैं । कोई कहती है कि यह वह २. A इक्खाकवंस; P इक्खाववंस । ३. A परिक्कमु । ४. °कियमउडपसत्थइ । १४. १. A पुरपयसंतह; P पुरि पयसंतहं । २. A मंदलु । ३. AP पहु। ४. AP अकरंतउ करिसणु । ५. P सयंपयाहि। Page #255 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २०८ १० ५ १० जे सिलाय दीसइ रूवें वम्महु जेहउ हि संचालिउ बिहिं बि विवाहु तेहि पारद्धउ खंभि खंभि पज्जलियपईवहिं पवणुद्धूयचिंधपब्भारहिं वज्जंतहिं पडुपडहहिं संखह कामिणिकरयलघल्लियसेसहि वियसियसयदलसरलदलच्छे परिणिय सुंदरेण सा सुंदरि राउ मऊरगीवणिवतणुरुहु अद्धचकि चक्कंकियकरयलु भणि तेण महिकामिणिमाणैणु देव तुरंगगीव बुहणिरेसिडं महापुराण जेण जसेण गोत्तु उज्जालिउ । पइ पुण्णहिं जइ लब्भइ एहउ । पत्ता - तं पुरु पइसिवि विरइयपणयपसायहिं || वडारि णेहु खगवइमहिवइरायहिं ॥ १४ ॥ [ ५१.१४.९ १५ कर मंडड रयेणं सुसिणिद्धउ । लंबियमोत्तियदामकलावहिं । मरगयमालातोरणदारहिं | णाणावाइतेहिं असंखहि । दियवरदेव दिण्णआसीसहिं । मियसुविच्छलेन सिरिवच्छै । गठ चरु जहि णिवसइ जगकेसरि । खयरमउडचुंबिय पयसररुहु | दृढभुयजुयअं दोलियपरवलु । भुणवर्णतवासिपंचाणणु । णिसुणि णिसुणि सिहिजडिणा बिलसिउँ । नारायण है कि जिसने स्वयंप्रभाके मनका हरण कर लिया है । जिसने शिलातलको आकाशमें घुमा दिया, जिसने अपने यशसे गोत्रको उज्ज्वल किया, जो रूपमें कामदेवके समान है, यदि पुण्योंसे इस प्रकारका पति पा लिया जाये । घत्ता - उस नगर में प्रवेश कर जिन्होंने प्रणय प्रसार किया है ऐसे विद्याधर- राजा और मनुष्य- राजामें बहुत बड़ा स्नेह हो गया ॥ १४॥ १५ उन दोनोंने विवाह प्रारम्भ किया । उन्होंने रत्नकिरणोंसे स्निग्ध मण्डपकी रचना की । खम्भे खम्भेपर प्रज्वलित प्रदीपों लटकती हुई मुक्कामालाओंके समूहों, हवासे उड़ती हुई ध्वजके प्रभारों, मरकत मालाओंके तोरणद्वारों, बजते हुए पडुपटहों-शंखों और असंख्य नाना वाद्यों, कामिनियोंके करतलों द्वारा डाले गये निर्माल्यों, द्विजवर देवोंके द्वारा दिये गये आशीर्वादोंके साथ, जिनकी आँखें विकसित कमलके समान सरल हैं ऐसे, तथा अपने सुधीजनोंके प्रति वत्सल सुन्दर नारायणने उस सुन्दरीसे विवाह कर लिया और दूत वहाँ गया जहाँ विश्वकेशरी, मयूरग्रीव राजाका पुत्र, जिसके चरणकमल विद्याधरोंके मुकुटोंसे चुम्बित हैं, ऐसा चक्रसे अंकित करतलवाला और दृढ़ बाहुबल से शत्रुसेनाको आन्दोलित करनेवाला अर्धं चक्रवर्ती राजा ( अश्वग्रीव ) रहता था । भूमिरूपी स्त्रीके द्वारा मान्य और संसाररूपी वनके भीतर निवास करनेवाले उससे उसने कहा, "हे देव अश्वग्रीव, ज्वलनजटोकी पण्डितोंके द्वारा निरस्त चेष्टा सुनिए। आप जैसे विद्याधर राजाको १५. १. A रयणं सुसमिद्धउ; P रयणसुसमिद्धउ । २. AP परणिय | ३. A माणण । ४. A पंचाणण । ५. P तुहुं णिरसिउ । Page #256 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २०९ -५१. १६. ११ ] महाकवि पुष्पदन्त विरचित पई णहयरणरणाहु पमाइवि पोयणपुरवइपुत्तहु जाइवि। सामण्णहु वियलियगुणणियरहु कण्णारयणु दिण्णु भूमियरहु । पत्ता-अह सो सामण्णु भणहुं ग जाइ खगाहिव ।। जें मारिउ सीहु चालिय सिल वसिकय णिव ।।१५।। तं णिसुणिवि णरणाहु विरुद्ध उ णं केसरि गयगंधविलुद्धउ । धगधगधगधगंतु चंचलसिहु घयधाराहिं सित्त णं हुयवहु । रत्तणेत्तरुइरावियदसदिसु पुप्फयंतु णं फणि आसीविसु । णं जै तिहुयणगिलणकयायरु परैसिरिहर असिवरपसरियकरु । चवइ सरोसु भिउडिर्भडभीसणु करतलप्पताडियरयणासणु । अजु जलणजडि मारिवि संगरि घिवमि कयंतवयणविवरंतरि । सहं जांवाएं देवि दिसाबलि मुक्खइ भग्गउ धवू पावउ कलि । तहिं अवसरि पालियनवसासणु। रायसहासहिं मग्गिउ पेसणु । ते णउ पेसई सइं संचल्लिउ पहु हरिमस्समंतिं'' बोल्लिउ । जो मयवइजीविउ उद्दालइ कोडिसिलायलु जो संचालइ। सो सामण्णु ण होइ निरुत्तउं तुम्हहुं अप्पणु जाहु ण जुत्तउं । छोड़कर तथा जाकर पोदनपुर नगरके राजाके अत्यन्त सामान्य, गुणसमूहसे रहित, पुत्रको मनुष्य होते हुए भी कन्यारत्न दे दिया।" पत्ता-अथवा उस सामान्यका हे राजन्, वर्णन नहीं किया जा सकता कि जिसने सिंहको मार डाला, शिलाको चला दिया और राजाको अपने वशमें कर लिया ।।१५।। ___ यह सुनकर नरनाथ ( अश्वग्रीव ) विरुद्ध हो उठा मानो हाथी की गन्धका लोभी सिंह हो, धक-धक-धक जलती हुई चंचल शिखावाली, घृत धाराओंसे सींची गयी मानो आग हो, लाल-लाल नेत्रोंको कान्तिसे दसों दिशाओंको रंजित करनेवाला आशीविष, पुष्पके समान दांतवाला मानो नाग हो, जो मानो त्रिभुवनको निगलने में आदर रखनेवाला, दूसरेकी श्रीका अपहरण करनेवाला, असिवरसे हाथ फैलाये हुए यम हो। वह क्रोधमें आकर भौंहोंसे भटोंके लिए भयंकर हाथके प्रहारसे सिंहासनको प्रताड़ित करनेवाला वह कहता है कि मैं आज युद्ध में ज्वलन जटीको मारकर, यमके मुखविवरके भीतर डाल दूंगा और दामादके साथ उसको दिशाबलि दूंगा। भूखसे नष्ट यम तृप्ति प्राप्त कर लेगा। उस अवसरपर नृपशासनका पालन करनेवाले उससे हजारों राजाओंने आज्ञा मांगी। परन्तु उसने नहीं भेजा, वह स्वयं चला । हरिश्मश्रु मन्त्रीने उससे कहा कि जो सिंहके जीवका नाश करता है, जो कोटिशिलाको चलाता है, वह निश्चय ही सामान्य व्यक्ति नहीं है। इसलिए तुम्हें स्वयं जाना उचित नहीं है। ६. AP पोयणपुरिवइ । ७. P omits ण । १६. १. AP रत्तणेत्तु । २. AP जमु । ३. A°सिरहर । ४. AP भि उडिभयं । ५. P मयणासणु । ६. AP कयंतदंतविवरंतरि । ७. AP जामाएं । ८. A धव; P धउ । ९. AP णिवसासणु । १०. AP पेसिय । ११. P हरिमंसुसुमंतिहिं बोलिउ; P गरिमस्ससुमंतिहिं बोलिउ । २७ Page #257 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २१० महापुराण [५१. १६.१२ धत्ता-हयकंठे उत्तु विउस ण कि पि विवाएं । ___ किं सूरहु को वि वहिमु दीसइ तेएं ॥१६॥ १७ मझु वि पोसिउं को जगि सूरउ को महिवइ वरवीरवियारउ । रयणमाल बद्धी मंडलगलि हउं अवगण्णिउ जाइवि महियलि । जेण कण्ण दिण्णी भूगमणहं सो पइसरउ सरणु सिहिपवणहं । सो पइसरउ सरणु देविंदहु सो पइसरउ सरणु धरणिंदहु । सो हउं कैड्ढिवि अज्जु जि फाडमि वइवसपुरवरपंथें धाडमि । सवणायण्णियपावरसहें। सिल चालिज्जइ किं ण बलहें । सीहु सीहु सोंडें सोसिज्जा एयहिं साहसेहि लजिज्जइ । तरुणीमग्गणचाडुयवंतें किं वेहाविउ सो वरइत्तें। मणिकुंडलमंडियगंडयलई दोहं वि तोडमि रणि सिरकमलई । एंव चवेवि धीरु हुंकारिवि णिग्गंउ मंतिमंतु अवहेरिवि । संदाणियविमाणपरिवाडिहिं परिवारिउ विज्जाहरकोडिहिं। ओरंजंतिहिं आहवभेरिहिं जुयखैइ णाइ रसंतिहिं मारिहिं । णं सायरु मज्जायविमुक्कर महिहरमेहल रुभिवि थक्कउ । पत्ता-अश्वग्रोव बोला, हे विद्वान्, विवादमें कुछ भी नहीं है, क्या तेजमें कोई भी सूर्यसे बड़ा दिखाई देता है ॥१६॥ . १० १७ मेरी तुलनामें संसारमें कोन बड़ा है ? कौन राजा वरवीरोंका विदारण करनेवाला है ? कुत्तेके गले में रत्नोंकी माला बांध दी गई, और मेरी उपेक्षा की गयी। धरतीतलपर जाकर जिसने भूमिपर चलनेवालोंके लिए कन्या दी है, वह आज पवन और आगमें प्रवेश करे, वह देवेन्द्रकी शरणमें जाये, वह धरणेन्द्रको शरणमें प्रवेश करे, उसे मैं खींचकर आज ही फाड़ डालूंगा और यमपुरके मार्गपर भेज दूंगा। जिसने अपने कानोंमें प्रावृट-शब्द सुना है ऐसे बेलके द्वारा शिलाका संचालन क्यों न किया जाये ? सीह और सोधु (सिंह और मद्य ) का शोषण शौंड ( मद्यप और गज ) के द्वारा किया जाता है, इन साहसोंके द्वारा लज्जा आती है, युवती मांगनेके लिए चापलूसी करनेवाले वरदत्तने इस प्रकारको गर्जना क्यों की? जिसके गण्डतल मणिकुण्डलोंसे मण्डित हैं, ऐसे दोनों सिर-कमलोंको तोडू गा। यह कहकर और हुंकारकर वह धीर मन्त्रीके मन्त्रकी अवहेलना करके गया। प्रदर्शन किया गया है विमानोंकी परम्पराका जिसमें ऐसी विद्याधरोंकी श्रेणियोंके द्वारा वह घेर लिया गया। बजते हुए युद्धके नगाड़ोंके साथ, युगक्षयमें जैसे बजती हुई मारियोंके साथ मानो समद्र मर्यादाहीन हो उठा हो। और मानो महीधरकी मेखलाको रुद्ध कर बैठ गया हो। १७. १. AP पासि । २. P को वि जगि। ३. A कडमि । ४. AP°विवाण । ५. A जुगखह । Page #258 -------------------------------------------------------------------------- ________________ -५१. १७. १५ ] महाकवि पुष्पदन्त विरचित पत्ता-इह दाहिणभरहि वणि जलंततणुसारइ ॥ आवासिउं सेण्णु पुप्फदंतकरवारइ ॥१७॥ इय महापुराणे तिसट्टिमहापुरिसगुणालंकारे महामवमरहाणुमण्णिए महाकइपुप्फयंतविरइए महाकम्बे सिविट्ठसिंघमारणकोडिसिलुच्चायणं णाम एकवण्णासमो परिच्छेओ समत्तो ॥५॥ घत्ता-इस प्रकार दक्षिण भरतक्षेत्रके वनमें जिसमें कि तृणसमूह जल गया है, तथा सूर्यचन्द्रमाकी किरणोंको रोकनेवाले वनमें उसने सैन्यको ठहरा दिया ॥१७॥ इस प्रकार श्रेसठ महापुरुषों के गुणालंकारोंसे युक्त महापुराणमें महाकवि पुष्पदन्त द्वारा विरचित एवं महामव्य मरत द्वारा अनुमत महाकाव्य का त्रिपृष्ठके द्वारा सिंहमारण और कोटिशिला उत्तालन नामक इक्यावनवाँ परिच्छेद समाप्त हुआ ॥५॥ ६. A जलतणकणसार; P जलवणकणसारह। णाम। ७. AP कोडिसिलासंचालणं तिविटुविवाहकल्लाणं Page #259 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ५ १० संधि ५२ दलियारिंदकरि रूसिवि हरि खगकुलभवणपईवहु || चिरभववइरवसु आलद्धमिसु भिडिउ गंपि हयगीवहु ॥ध्रुवकं ॥ १ दुबई - खुहियखदिविदे किंकरर व गज्जियगंध सिंधुरो ॥ जावतिखंडखोणिपरमेसरु चल्लिउ तुरयकंधरो ॥ भूगोयरवइघर व सियखयरि । सहज डिहि सि जाइवि चरेण । तुज्झुपरि आउ चक्कवट्टि । जं एव समासिउ चारणेण । अम्हहिं हुं सुतसीहु ब्रेणिउ । धणुलंगूलउ सरणहरवंतु । मंतिज्जइ एवहिं सो ज्जि मंतु । ता सस्सुरण सहसति उत्तु । तावेत्तहि पोयणणामणयरि पण वियसिरेण मउलियकरेण २४ भो' ares frरु अण्णोयवहि आरु कण्णाकारणेण सुणिवि पयावइ तेण भणिउ सो एवहिं बलमहंतु असिजीहापल्लव उलललंतु वसमइ जेण सो कूरचित्तु सन्धि ५२ शत्रुगजों का नाश करनेवाले नारायण और बलभद्र पूर्वभवके वैरके वशीभूत होकर और बहाना पाकर क्रोधपूर्वक विद्याधरकुल वलयके प्रदीप अश्वग्रीवसे जाकर भिड़ गये। पत्ता - क्षुब्ध विद्याधरेन्द्र-समूह के अनुचरोंके शब्दसे जिसका गन्धहाथी गर्जित है, ऐसा त्रिखण्ड धरतीका स्वामी अश्वग्रीव जबतक चला १ तबतक यहाँ जिसमें मानवराजाके घर विद्याधर बसे हुए हैं, ऐसे पोदनपुर नगर में सिरसे प्रणाम करते हुए और हाथ जोड़कर दूतने ज्वलनजटीसे जाकर कहा - "हे विद्याधरराज, अत्यन्त अन्यायी चक्रवर्ती राजा तुम्हारे ऊपर आया है । कन्या के कारण वह तुमसे क्षुब्ध है ।" जब दूतने इस प्रकार संक्षेपमें कथन किया। उसने (ज्वलनजटीने) प्रजावतीसे कहा कि "हमने सुखसे सोते हुए सिंहको घायल कर दिया है, बलसे महान् इस समय धनुष जिसकी पूँछ है और जो तीररूपी नखोंसे युक्त है, ऐसा वह अपनी तलवाररूपी जिह्वाको लपलपाता हुआ उठ खड़ा हुआ है, इस समय वही मन्त्र करना चाहिए जिससे क्रूरचित्त वह शान्त हो जाये। आग वहीं A gives, at the beginning of this Samdhi, the stanza aaaa etc. for which see page 139. P gives it at L, K does not give it anywhere. १. १. AP॰बंई । २. AP धुरो । ६. A आवइ । ७. A तं णिसुणि । ३ AP घरि वसि । ४ A सो खगवइ । ५. अण्णायवत्ति । ८. A सुहि । ९. A धुणिउ; P वणिउ । १०. A सुम्मए । Page #260 -------------------------------------------------------------------------- ________________ - ५२. २.१० ] महाकवि पुष्पदन्त विरचित तइ जलइ जलणु जइ णत्थि वारि भो आणइ मरणु पहाणवरु पहु लहु दीसइ जुंजेवि सामु ११ जइ णत्थि संति तो पडइ मारि । 'भो एत्थु ण णिज्जइ कालु सुइरु | ता विहसिवि भासइ पढममु । 13 घत्ता - सज्जणु उवसमइ खलु किं खमइ बोल्लंतहुं सुइमिट्ठरं । घिउ हुर्येवह मिलिडं जललवजलिडं बप्प किं ण पई दिट्ठरं ||१|| २ दुबई - मित्ततिविट्ठि रुट्ठि गिरिधीर वि एंति ण वइरिणो रणं ॥ किं विसति दंति हरिणाहिवखरकर रुह वियारणं ॥ इहुं अहिवलयविलंब माण मई जाणिलं तइयहुँ कहिं वि कालि तोडेसइ हयकंधरहु सीसु को हालाहलु जीहाइ कलइ को गणि जंतु अहिमयरु खलइ को कालु कयंत माणु मलइ को फणिवर्णमणिणियरु हरइ को भंडइस महुं भायरेण वणि उच्चाइय सिल इलसमाण । देवहुं पेक्खंत भडवमालि । रत्तच्छिवत्तुं भूभंगभीसु । को करयलेण हरिकुलिसु दलइ । को णियबलेण धरणियलु तुलइ । को जलणि णिहित्तु वि णाहिं जलइ । को पडिय विज्जु सीसेण धरइ । त जंप मंत सायरेण । २१३ १० जलती है जहां पानी नहीं होता, जहाँ शान्ति नहीं होती तो वहाँ आपत्ति आती है, प्रधानका वैर, मृत्युको लाता है, अरे यहाँ बहुत समय नहीं बिताना चाहिए। हे प्रभु, मिलने से शीघ्र साम दिखाई देगा ।" (यह सुनकर ) तब प्रथम राम ( बलभद्र विजय ) ने हँसकर कहा १५ घत्ता —- सज्जन शान्त होता है, कानोंको मीठा लगनेवाला बोलनेपर भी क्या दुष्ट क्षमा करता है ? हे सुभट, आगसे मिला हुआ ( जलता हुआ ) और जलकणोंसे मिला हुआ घी क्या तुमने नहीं देखा ? ॥१॥ २ हे मित्र, त्रिपुष्ठके क्रुद्ध होनेपर भी पहाड़की तरह धीर वैरी रण में नहीं आते । सिंहके द्वारा तीखे नखोंसे विदारणका क्या गज उपहास करते हैं ? जब सर्पमण्डलसे अवलम्बित पृथ्वी जैसी शिलाको उसने उठाया था, तभी मैंने जान लिया था कि देवोंके देखते हुए, योद्धाओंके कोलाहल के बीच किसी भी समय वह अश्वग्रोवके लाल-लाल आंखोंवाले तथा भ्रभंगसे भयंकर सिरको तोड़ेगा ? विषको जीभसे कोन छूता है ? करतलसे इन्द्रके वज्रको कौन चूर-चूर कर सकता है; आकाशमें जाते हुए सूर्यको कौन स्खलित कर सकता है ? कोन अपनी शक्तिसे पृथ्वीको तौल सकता है ? कौन काल और यमके मानको मैला कर सकता है ? कौन आगमें रखे जानेपर भी, नहीं जलता ? नागराजके फनके मणिसमूहका अपहरण कौन कर सकता है ? गिरती हुई बिजलीको कौन धारण कर सकता है ? मेरे भाईके साथ कौन युद्ध कर सकता है ? तब सागर मन्त्री बोला - "हे बलभद्र और चन्द्रमाके समान कान्तिवाले, आपने जैसा जो जाना है, उसमें जरा भी ११. AP घुउ | १२. A पढमु रामु । १३. A बोल्लंतहो । १४. A हृववहमिलिउ; P हुयवहि मिलिउ | २. १. A ॰बिलंबमाणे । २. A समाणे । ३ AP हि । ४. AP रतच्छिवंतु। ५. A कुडिस । ६. A फणिवइफणिमणु । ७. AP तो । ८. A मंतें सायरेण । Page #261 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २१४ महापुराण [ ५२. २. ११भो सीराउह तुहिणयरकंति जं पई जाणिउँ तिह तं ण भंति । लइ तो वि देव किजइ परिक्ख उवइसहु कुमारहु मंतसिक्ख । बीयक्खराई मणि संभरंतु आसीणु सत्तरत्तें तुरंतु । जइ साहइ विज्जादेवयाउ । तो करइ परई मरणावयाउ । विज्जासाहणविहिभेयभिण्णु ता ससुरएण उवएसु दिण्णु । थिउ झाणारूढउ हलि उविंदु सत्तमदिणि कंपाविउ फणिंदु । पत्ता-विज्जाजोइणिउ वरदाइणिउ हरिरामहुँ पणवंतिउ ॥ रिउजमदूइयउ खणि आइयउ देहु णियमु पभणंतिउ ॥२॥ १५ दुवई-गारुडविज पुज्ज संसाहिय हरिणा भुवणखोहिणी ।। अवर महंतसत्तसंचूरणि पंवर वि णाम रोहिणी ॥ खग्गैथंभणी बलणिसुभेणी। गयणचारिणी तिमिरकारिणी। सीहवाहिणी वइरिमोहणी । वेयगामिणी दिव्वकामिणी। विवरवासिणी णायवासिणी। जलणवरिसिणी सलिलसोसणी। धरणिदारणी कुडिलमारणी। बंधमोयणी विविहरूविणी। मुक्ककोंतला लोहसंखला। छइयदसदिसी कालरक्खसी। भ्रान्ति नहीं। तब भी हे देव, लो, परीक्षा कर लीजिए; कुमारके लिए मन्त्रशिक्षाका उपदेश दीजिए; वह तुरन्त सात रात तक बैठकर बीजाक्षरोंका ध्यान करता हुआ यदि विद्यादेवियाँ सिद्ध कर लेता है, तो वह दूसरोंके लिए मरणरूपी आपत्ति कर सकता है।" तब ससुरने विद्यासाधनकी विधिके रहस्यसे परिपूर्ण उपदेश उसे दिया। बलभद्र और नारायण ध्यानमें लीन होकर बैठ गये । सातवें दिन नागराज कम्पायमान हो उठा। पत्ता-वर देनेवाली विद्यारूपी योगिनियां बलभद्र और नारायण (विजय और त्रिपृष्ठ) को प्रणाम करती हुई शत्रुके लिए यमदूतीकी तरह, 'आदेश दो' कहती हुई आयीं ॥२॥ नारायणने संसारको क्षुब्ध करनेवाली पूज्य गारुडविद्या सिद्ध कर ली। एक और दूसरी महान् शत्रुको चूर करनेवाली रोहिणी नामको महान् विद्या सिद्ध कर ली। खड्गस्तम्भिनी, वननिशुभिनी; आकाशगामिनी, अन्धकारकारिणी, सिंहवाहिनी, वैरीमोहिनी, वेगगामिनी, दिव्यकामिनी, विवरवासिनी, नागवासिनी, ज्वलनवर्षिणी, सलिलशोषिणी, भूमिविदारिणी, कुटिलमारिणी, बन्धमोचनी, विविधरूपिणी, मुक्तकुन्तला, लोहशृंखला, दसदिशा-आच्छादिनी, ९. AP सत्तरत्तिउ । १० A हरिरायहो । ११. P दूइओ। ३. १. A पुंज । २. A सयल महंत सत्त; P सयलमहंतु सत्त। ३. AP अवर वि । ४. APथंभिणी । ५. AP°णिसुंभिणी । ६. AP°सोसिणी । ७. P°दारिणी । ८.AP विविहकुंतला। , Page #262 -------------------------------------------------------------------------- ________________ -५२. ४.९] महाकवि पुष्पदन्त विरचित वयणपेसला विजयमंगला। रिक्खमालिणी तिक्खसूलिणी। चंदमउलिणी सिद्धवालिणी। पिंगलोयणा धुणियफणिफणा। थेरि थुरुहुरी घोरघोसिरी । भीरुभेसिरी पलयदंसिरी। इय सणामहं दिण्णकामहं। घत्ता-पंच समागयई विजह सयई दक्खवंति सवसित्तणु ॥ तोसियवासवहं बलकेसवहं घरि करंति दासित्तणु ॥३॥ दुवई-विज्जागमणमुणिइ हरिपोरिसि पसरियसिरिविलासए ॥ णिहय पयाणभेरि जगभइरव वियलिइ सयेणसंसए । विज्जाहरमहिहरणाह बे वि जलैणजडि पयावइ धुरि करेवि । चलियई सेण्णई रिउरणमणाई बलएववासुएवहं तणाई। णहु कंपइ कंपंतहिं धएहिं महि हल्लइ गच्छंतहिं गएहिं । रह चिकवंत चल चिक्करंति पडिवक्खमरणु णं वज्जरंति । जाएं हरिखुरधूलीरएण धूसरिउ सूरु दूरंगएण। भडरोले सुत्तट्टिड कयंतु छत्तहिं संछण्णउं दहदियंतु । जोइय जणेण परवीरजूर सोमुग्गदेह णं चंद सूर। कालराक्षसी, वचनपेशला, विजयमंगला, ऋक्षमालिनी, तीक्ष्णशूलिनी, चन्द्राच्छादिनी, सिद्धपालिनी, पिंगलोचना, फणीफणध्वननी, स्थविरा, स्थूलधरा, घोरघोषिणी, भीरुभीषिणी, प्रलयदर्शिनी इन नामोंवाली और कामनाओंको प्रदान करनेवालीं पत्ता-एक सो पांच विद्याएं अपनी अधीनता उसके लिए दिखाती हैं। और इन्द्रोंको सन्तुष्ट करनेवाले बलभद्र और नारायणके घर दासता करती हैं ।।३।। विद्याओंके आगमनसे नारायणका पौरुष ज्ञात होनेपर तथा लक्ष्मीका विलास फैलनेपर और स्वजनोंका संशय दूर होनेपर विश्वभयंकर प्रयाण-भेरी बजा दी गयी। दोनों विद्याधरराजा और महीधरराजा ज्वलनजटी और प्रजापतिको आगे कर शत्रुसे युद्ध करनेका मन रखनेवाली बलदेव और वासदेवकी सेनाएं चलीं। कांपती हई ध्वजाओंसे आकाश काँप उठता है. गजोंके चलनेपर धरती कांप उठती है। रथके चिक्कार करनेपर धरती चीत्कार कर उठती है, मानो शत्रुपक्षकी मृत्युको घोषित कर रहे हों। दूर तक गयी हुई, घोड़ोंके खुरोंकी धूलिरजसे सूर्य धूसरित हो गया। योद्धाओंके शब्दसे सोया हुआ यम उठ बैठा। दसों दिशाएं छत्रोंसे आच्छन्न हो गयीं। शत्रुवीरोंको सतानेवाले उन्हें लोगोंने इस प्रकार देखा, मानो सौम्य और उग्रदेहवाले चन्द्र-सूर्य हों; ९. AP°घोसिणी । १०. A विज्जई सयई । ४. १. P°गमणु मुणिइ । २. A सइणसंसए । ३. A जहणजडि । ४. P घर । Page #263 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २१६ १० १५ ५ १० महापुराण अट्टहास बहलंघयार गच्छंत वारणारूढ देह झल्लरिमुइंगकाहलरवेण कुसुमियपियालकक्कोलएलि णं उवसमरस सिंगारैभार । हलहर हरि णं सियअसियमेह । दियहेहिं गंपि सर्वरुच्छवेण । तहिं थक्क संदणावत्तसेलि । घत्ता - पवणचलंतियहिं धयपंतियहिं णहु णं उप्परि घुलियउं ॥ चियनृणडिहिं पिहुपडकुडिहिं खोणीयलु चित्तलिय ||४|| [ ५२.४.१० ५ दुवई - चिंचिणिचारचूयेचव चंपयचंदणबद्धकुंजरे ॥ frs डिबलि तुरंगहि लिहिलिरवे सयडावत्तगिरिवरे ॥ जोएवि सिविरु णवघणसरेहि विष्णविउ णवेष्पिणु चरणेरहिं । अरिपुरवरघरसं दिण्णडाहु विज्जाहर भूयरभूमिणाहु | आढत्तर जिणु व महसरेहिं आढत्तर आहंडलु णरेहिं । आढत्तर खज्जोएहि भागु आढत्तर तरुणियरें किसाणु । आढत्तर केसर जंबुर हिं आढत्तउ जैरं जीवियचुएहिं । आढत्तउ गयवरु गद्दहेहिं आढत्त मंतु गहिं । आढत्तर रइवइ कैइय वेहि आढत मोक्खु वि जडतवेहिं । भो देवदेव संधियस रेहिं आढत्तर तुहुं णियकिंकरेहिं | अट्टहास और सघन अन्धकार हों, मानो शान्तरस और शृंगारभार हो, चलते हुए गजों पर आरूढ शरीर बलभद्र और नारायण ऐसे मालूम होते हैं, मानो सफेद और काले मेघ हों । झल्लरी मृदंग और काहलोंके शब्दोंसे और युद्धके उत्साह के साथ कुछ दिनों तक चलकर वे, जिसमें प्रियाल अशोक और एला वृक्ष खिले हुए हैं, ऐसे स्यंदनावर्त पर्वतपर वे ठहर गये । पत्ता - हवा से चलती हुई ध्वजपंक्तियोंसे मानो ऊपर आकाश घूम उठा और नीचे नाचती हुई राजनर्तकियों और विशाल पटकुटियोंसे धरतीतल रंग-विरंगा हो उठा ॥४॥ ५ जिसमें, चिचिणी चार आम्र धी चम्पक और चन्दन वृक्षोंसे हाथी बँधे हुए हैं और घोड़ोंके हिनहिनाने का शब्द हो रहा है, ऐसे शकटावर्त पहाड़पर शत्रुसेना ठहर गयी । नवघनके समान स्त्ररवाले चर मनुष्योंने शिविर देखकर, प्रणामकर राजासे निवेदन किया - " जिसने शत्रु नगरोंके घरोंको आग लगा दी है और जो विद्याधर मनुष्यों की भूमियोंके स्वामी हैं, ऐसे हे देवदेव, कामदेव के बाणोंने जिनवरको आक्रान्त किया है, मनुष्योंने इन्द्रको आक्रान्त किया है, जुगनुओंने सूर्यको आक्रान्त किया है, तरुसमूहने आगको आक्रान्त किया है, सियारोंने सिंहको आक्रान्त किया है, जीवनसे च्युत लोगोंने यमको आक्रान्त किया है, गधोंने गजवरको आक्रान्त किया है, ग्रहोंने मन्त्रके उद्गमको आक्रान्त किया है, कपटोंने कामदेवको आक्रान्त कर लिया है, जड़तपस्वियोंने मोक्षको आक्रान्त किया है, जिन्होंने अपने तीरोंका सन्धान कर लिया है ऐसे अपने ही अनुचरोंने तुम्हें ५. A सिंगारहार । ६. P समह । ७. AP वर्णाडि । ५. १. A चारुचूयघव ; Pचारचूयय । २. A पडिबलतुरंग । ३. AP जमु । ४. A पत्तंग । ५. AP कइवएहि । ६. P जडभवेहि । • Page #264 -------------------------------------------------------------------------- ________________ -५२. ६.१० ] महाकवि पुष्पदन्त विरचित सहुं णंदणेण चंदाहिचिंधु । आरु सुट्टु खयकालवेसु । अण्णु वि जो दिट्ठउ पीयवासु । देव वि संकाइ णवंति जासु । खलयणमलणु देवयाउ साहेपिणु ॥ वलइयधणुवलय णं खयजलय थिय महिहरि आवेष्पिणु ||५|| ६ रहणेउरवइ णरवइ सबंधु अण्क्कु पयावइ पोयणेसु अक्कु मुसलि तहिं कसणवासु किं अक्खमि पहुसामत्थु तासु घत्ता - णिसुणिवि तुह चलणु दुवई - चवइ खर्गिदचंदु करवालविहंडियतुरय करिसिरे ॥ रत्ततरंतमत्तरयणीयरि णिणविं रिडं रणाइरे ॥ ता कहइ मंति णामें विहाउ जइ आणलंघणु कउ तेहिं एहउ आयारु णराहिवाह सो दूयउ जो भासापवीणु सो दूय उ जो अँहिमाणि दाणि सो दूयउ जो गंभीरु धीरु सो दूयउ जो परचित्तलक्खु सो दूयउ जो बुज्झियविसेसु जगभि एवहिं तुहुं जि ताउ । सुय दिण्ण पडिच्छिय पत्थिवेहिं । पेसिज्जउ दूयउ को वि ताहं । सो ' दूयउ जो पंडिउ अदीणु । सो दूर जो मिमहुरवाणि । सो दूर जो जयवंतु सूरु । सो दूर जो पोसियसपक्खु । सो जो सुविसिटुवेसु । २१७ १० आक्रान्त किया है । रथनूपुरका स्वामी अपना बन्धु राजा ( ज्वलनजटी ), तथा पुत्रके साथ, चन्द्रमाके समान उज्ज्वल सर्पध्वजवाला एक दूसरा पोदनपुरका स्वामी प्रजापति क्षयकाल के रूप में तुमपर अत्यन्त क्रुद्ध है। एक ओर विजय बलभद्र नीलवस्त्रोंवाला है और दूसरा जो पीले वस्त्रोंवाला दिखाई देता है, मैं उसकी प्रभुसामर्थ्यका क्या वर्णन करूँ ? देव भी शंकासे उसे नमन करते हैं । १५ घत्ता- तुम्हारे दुष्टजनों का मर्दन करनेवाले प्रस्थानको सुनकर, विद्यादेवियोंको सिद्ध कर, जिन्होंने धनुष की प्रत्यंचाओं को तान लिया है, ऐसे वे, मानो क्षयकालके मेघोंके समान पर्वतपर आकर ठहर गये हैं ॥५॥ ६ तब विद्याधर राजा कहता है, 'जिसमें घोड़ों और हाथियोंके सिर तलवारसे खण्डित होते हैं, तथा रक्त में निशाचर तैरते हैं, ऐसे युद्धप्रांगण में, मैं शत्रुको मारूंगा ।" इसपर विधाता नामका मन्त्री कहता है, "इस समय विश्वरूपी बालकके तुम पिता हो, यदि उन राजाओंने आज्ञाका उल्लंघन किया है और दी हुई कन्याको स्वीकार कर लिया है, तो महाधिपोंका यही आचार है कि उनके पास कोई दूत भेजा जाये । दूत वह है जो भाषा में प्रवीण हो, वह दूत है जो विद्वान् और अदीन हो, वह दूत है जो स्वाभिमानी और दानी है, वह दूत है जो मधुर वाणी बोलनेवाला है, वह दूत है जो गम्भीर और धीर है, वह दूत है जो नीतिवान् और शूर है । वह दूत है जो दूसरेके मनका ज्ञाता है, वह दूत है जो अपने पक्षका समर्थन करनेवाला है, वह दूत है जो विशेषको ७. A चंदाहचिधु; T चंदाहबिबु चन्द्रनागबिंबा: । ८. A मारुतु । ६. १. A खगिदचंडु । २. A हिणिवि । ३. A मियमडुरवाणि । ४. A अभिमाणि दाणि । ५. A सारु । ६. A सुविसुद्ध । २८ Page #265 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २१८ महापुराण [ ५२.६.११ सो दूयट जो कयसंधिणामु सो दूयउ जो दज्जरियसामु । सो दूयउ जो णिहिट्ठमंतु सो दूयउ जो कुलजाइवंतु । सो दूयउ जो उवइँट्टदंडु सो दूयउ जो संगामचंडु। सो दूयउ जो रिउहिययसूलु सो दूयउ पेसिउ रयणचलु । णिवसंतगरुयखंधाररोलु तं गच्छिवि गिरिगहणंतरालु पणवेवि तेणे पालियविसिछु ___ अत्थाणि णिविठु तिविठु दिछु । पत्ता-दूएं वज्जरिउं पहु विप्फुरिउ दिव्वपुरिसगुंणजाणउ । गुणिगहणुज्जि तुहुं अणुहुँजि सुहं पेक्खु णवेप्पिणु राणउ ।।६।। दुवई-जा मैग्गिय णिवेण खगसुंदरि सा तुह होइ सामिणी ।। देवि खमंसणिज सा कामहि किं कामंध कामिणी ।। मा रस काउ चप्पिवि कवाल भक्खंतु म गिद्ध भडंतजाल । मा सरसयणीयलि.सुयउ ताउ मा पोयणपुरवरु खयहु जाउ । मा उट्टउ रहचूरणणिहाउ भज्जंतु म चामरछत्तकेउ । दीसउ मा सयणहं मरणेहेउ रसवससमुहकंकालसेउ । मा रुहिरु कालवेयालु पियउ मा सूरकित्ति जमकरण णियड । मा करउ मृगावइ पुत्तदुक्खु मा छिज्जेउ हलहरेकप्परुक्खु । जाननेवाला है, वह दूत है जो विशिष्ट वेशवाला है, वह दूत है जो सन्धान करना जानता है, वह दूत है जो 'साम'का कथन करनेवाला है, वह दूत है जिसने दण्डका उपदेश दिया हो, वह दूत है जो कुलीन और जातिवाला हो, वह दूत है जो युद्ध में प्रचण्ड हो, वह दूत है जो शत्रुके लिए हृदयका कांटा हो । ऐसा वह रत्नचूड़ नामका दूत भेजा गया। जिसमें निवास करते हुए स्कन्धावारका भयंकर शब्द है, ऐसे उस गिरिके गहन अन्तरालमें जाकर, उसने प्रजाका पालन करनेवाले दरबारमें आसनपर बैठे हुए त्रिपृष्ठको देखा। धत्ता-दूतने कहा-“हे प्रभु, विकसित दिव्य पुरुषके गुणगणके ज्ञाता गुणी व्यक्तिको ग्रहण करने में ओजस्वी तुम सुखका भोग करो और प्रणाम कर राजासे मिल लो ॥६॥ और जो राजा (अश्वनीव) ने विद्याधर सुन्दरी मांगी है, वह तुम्हारी स्वामिनी होती है। जो देवी तुम्हारे द्वारा नमन करने योग्य है, उस स्त्रीको हे कामान्ध तू क्यों चाहता है ? तुम्हारे सिरपर बैठकर न बोले, योद्धाओंके आंतोंके जालको गीध न खायें, तुम्हारे पिता तीरोंके शयनीयतलपर न सोयें, पोदनपुर नगर क्षयको प्राप्त न हो, रथोंके चूर्ण होनेका शब्द न हो, चमर-छत्र और ध्वज नष्ट न हों, स्वजनोंके मरणका कारण रस और मज्जाके समुद्र में कंकाल सेतु दिखाई न दे, कालरूपी बेताल रुधिर न पियें, शूरकी कीतिको यमके अनुचर न देखें। मृगावती पुत्रके दुःख ७. P उवइट्टइंदु । ८. P संगामि चंडु । ९. A ते वि । १०. A°पुरिसु । ११. AP गुणिगहणिज्जु । ७.१. A मग्गिय खगेण णिवसुंदरि। २. AP मरणभेउ। ३.A संगरसमुद्द। ४. AP मिगाव । ५. A छिज्जइ । ६. AP हलहरु । Page #266 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ५२. ८. १०] महाकवि पुष्पदन्त विरचित पहृदोहबहलधूमोहमलिणि जलणजडि पडउ मा पलयजलणि । रायहु ढोयहि सा तुहु कुमारि मा हक्कारहि णियगोत्तमारि घत्ता-जाणियणयणिवहु कयवइरिवहु मंतबलु वि जो बुज्झइ ॥ जेण तिखंडधर जिय ससुरणर तेण समउं को जुज्झइ ॥७॥ दुवई-म करि कुमार किं पिरोसुब्भडवयणे बलिसमप्पणं ॥ ___करगयकणेयवलयपविलोयणि हो कि णियहि दप्पणं ॥ तं सणिवि भणि विदरसवेण भो चारु चारु भासिउं णिवेण । अण्णाणु हीणु मज्जायचत्तु । मग्गंतु ण लज्जइ परकलत्तु । भरहहु लग्गिवि रिद्धीसमिद्ध रायर्तणु कुलि अम्हहं पसिद्ध । सो घेई पुर्ण जायउ विहिवसेण विणडिउ परणारीरइरसेण । संताणागय महुं तणिय धरणि कि णक्खत्तें जइ तवइ तरणि । दप्पिटु दुहु नृवणायभट्टु मरु मारिवि घिवमि तुरंगकंठु। तं णिसुणिवि दूएं वुत्तु एंव पाउसि कालंबिणि रसइ जेव। किं वरिसइ मुवणु भरंति तेव। बोल्लंतु ण संकहि वप्प केंव ।। को न करे, बलभद्रका कल्पवृक्ष नष्ट न हो, स्वामी द्रोहके प्रचुर अन्धकारके समूहसे मलिन प्रलयाग्निमें ज्वलनजटी न पड़े, इसलिए वह कुमारी तुम राजाके लिए दे दो, अपने गोत्रके लिए तुम आपत्तिका आह्वान मत करो।" घत्ता-जिसने नयसमूहको जान लिया है, जिसने शत्रुका वध किया है और जो मन्त्रबलको भी जानता है, जिसने तीन खण्ड धरती जीत ली है, देवों और मनुष्यों सहित, उससे युद्ध कौन कर सकता है ॥७॥ "हे कुमार, क्रोधसे उद्भट मुखवाले उसके लिए बलि समर्पण मत करो, हाथमें स्थित कनकवलयको देख लेनेपर तुम दर्पण क्या ले जाते हो?" यह सुनकर बलभद्रने कहा-"अरे, राजाने बहुत सुन्दर कहा । अज्ञानी नीच और मर्यादाहीन उसे, परस्त्रीको मांगते हुए, लज्जा नहीं आती। भरतसे लेकर ऋद्धिसे समृद्ध राज्यत्व हमारे कुलमें ही प्रसिद्ध रहा है। विधिके विधानसे, परनारीके रतिरसके कारण प्रवंचित वह (अश्वग्रोव ) फिर उत्पन्न हआ है। कलपरम्परासे हमारी है । जबतक सूर्य तपता है, नक्षत्रोंसे क्या? दर्पिष्ठ दुष्ट और नप न्यायसे भ्रष्ट अश्वग्रीवको में मारकर फेंक दूंगा।" यह सुनकर दूतने इस प्रकार कहा, “पावस ऋतुमें जिस प्रकार कादम्बिनी ( मेघमाला) गरजती है, क्या वह उसी प्रकार बरसकर विश्वको भर देती है। हे सुभट, तुम्हें बोलते हुए संकोच क्यों नहीं हो रहा है ? ७. AP तुहं सा । ८. A धरा। ८. १. A रोसुक्कडवयणावलिसमप्पणं; P रोसु भडवयणि । २. P कणगवलयं । ३. A विठुरसवेण । ४. A रयणत्तयकूलि । ५. AP पई, but K घई and gloss पादपूरणार्थे । ६. AP जायउ पुण । ७. AP णिवणाय । Page #267 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २२० महापुराण [ ५२. ८. ११घत्ता-अग्गइ घणर्थणिहिं सीमंतिणिहि रणु बोल्लंतहुं चंगउं ॥ अच्छउ असि अवरु पहुकरपहरु तुह ण सहई ललियंगउं ॥८॥ दुवई-भासइ विस्ससेणु भो जाहि म जंपहि चप्फलं जणे ।। __तुह पइणो महं पि दीसेसइ बाहुबलं रणंगणे ॥ तं णिसुणिवि दूयउ गउ तुरंतु कोवग्गिजालमालाफुरंतु । हयगीवहु कहइ अहीणमाणु परमेसर रिउ पोरिसणिहाणु । अहिणवविसट्टकंदोडणेत्तु ण समप्पइ तं परिणिउं कलत्तु । संधाणु ण इच्छइ गरुडकेउ दीसइ भीसणु णं धूमकेउ । जिह सक्कइ तिह विज्जाबलेहिं भिडु मुसलहिं सूलहिं सव्वलेहिं । ता पभणइ पहु पीडियकिवाणु एवहिं हउं सोहमि जुज्झमाणु । किंकर णिहणंतहं णत्थि छाय मा को वि भणेसइ हय वराय । अविहेयविहंडणि कवणु दोसु उग्घोसहु लहुँ रणरहसघोसु । दुहमदर्गुदप्पविमणेण एत्तहि वि मृगांवइणंदणेण । अवलोयहुं अवलोयणिय विज पेसिय खंगपुंगव वंदणिज । भडथडगयघडरहेसंपउण्णु आइय जोइवि पडिवक्खसेण्णु । १० पत्ता-सघन स्तनोंवाली स्त्रियोंके सम्मुख युद्ध बोलते हुए अच्छा लगता है, तलवार रहे, स्वामीके कर का प्रहार तुम्हारा सुन्दर शरीर नहीं सहन कर सकता" ||८|| तब त्रिपृष्ठने कहा, "अरे तू जा, लोगोंको चपलता की बात मत कर । तुम्हारे राजा और मेरा बाहबल युद्धके आँगनमें दिखाई देगा।" यह सुनकर दूत क्रोधकी ज्वालमालासे तमतमाता हुआ तुरन्त गया। वह अश्वग्रीवसे कहता है कि शत्रु अधिक मानी और पौरुषका निधान है। अभिनव विकसित कमलके समान नेत्रोंवाला वह, उस अपनी विवाहिता पत्नीको समर्पित नहीं करता। वह गरुडध्वजी सन्धि नहीं चाहता। वह भीषण दिखाई देता है, मानो धूमकेतु हो। जिस तरह सम्भव हो, उस प्रकार विद्याबलों, मूसलों, शूलों और सब्बलोंसे लड़िए । तब अपनी तलवारको पीड़ित करता हुआ राजा कहता है कि इस समय में युद्ध करता हुआ शोभित होता हूँ। अनुचरोंको मारने में कोई यश नहीं है, कोई यह नहीं कहे कि दीनहीनोंको मार दिया गया। अविनीतोंको मारने में कोई दोष नहीं। शीघ्र ही यद्धका हर्षवर्धक घोष करो। दर्दम दानवोंके दर्पको कुचलनेवाले मृगावतीके पुत्रने भी यहांपर, विद्याधर श्रेष्ठोंके द्वारा वन्दनीय अवलोकिनी विद्याको देखनेके लिए प्रेषित किया। भडघटा, गजघटा और रथोंसे सम्पूर्ण प्रतिपक्ष सैन्य को देखनेके लिए वह आयो। ८. Aथणिहे । ९. A सीमंतिणिहे । १०. AP सहेइ । ९. १. AP वीससेणु हो । २. P°दणुहप्प । ३. AP मिगावई। ४. P खगपुंगम । ५. AP°रहहयपउण्णु । Page #268 -------------------------------------------------------------------------- ________________ - ५२.१०.१४ ] महाकवि पुष्पदन्त विरचित घन्ता - कुण्हहु देवयहिं पुण्णागयहिं गुणपणामसंपणेउं ॥ सँत्ति अमोहमुह तूस वियसुहि धणु सारंगु विइण्णउं ॥ ९ ॥ १० to वि गय हयगय दिण्ण तासु बलएवहु लंगलु मुसलु चारु दसैँदिसवहधाइय किरणजाल कंचणकवयंकित धवलदेहु गुर्णेविसरास धरिउ केंव सेयई चिंधई उपरि चलति छत्तई णं जयजसस सिपयाई धरियई पाइकहिं पंडुराई दीहरदाढा वडाणणेहिं पक्खरिय सत्ति हिलिहिलिहिलंत हणु हणु भणत मच्छर विमीस रणतूरसहासई तोडियाई दुवई - आणिवि सुरवरेहिं चिरु रक्खिउ मंगलझुणिणिणाइओ || _tors पंचणु कोत्थुहमणि असि हरिणो णिवेइओ ॥ कोमुइ णामें दामोयरासु । गय चंदिमे णामें हथियारु । दिण्णी उरि घोलइ रयणमाल । णं संज्ञाराएं सरयमेहु । मुट्ठ माइ सुकन्तु जैव । णं कित्तिवेल्लिपल्लव ललंति । णं गोमिणिपोमिणिपंकयाइं । विणिवारिय दिवसाहिवकराई । रहवर कडूढि पंचाणणेहिं । कैयसारिसेज्ज गय गुलुगुलंत । संणद्ध सुहड पण वियहलीस | कुलगिरिवरसिहर पाडियाई । घत्ता - पुण्यसे आयी हुई देवियोंने सन्तुष्ट करनेवाली अमोघमुखी शक्ति कृष्ण २२१ १५ १० प्रत्यंचाके नमनसे युक्त बलवान् धनुष और सज्जनोंको ( नारायण त्रिपुष्ठ ) को प्रदान की ||९|| १० देवोंने चिरकालसे सुरक्षित तथा मंगल ध्वनिसे निनादित पांचजन्य शंख, कौस्तुभ मणि और तलवार नारायणके लिए निवेदित की। और भी गदा, हाथी, घोड़े और कौमुदी नामका शस्त्र उन दामोदरके लिए दिया। जिसकी किरणोंका जाल दसों दिशाओं में फैल रहा है ऐसी दी हुई रत्नमाला उनके उरपर पड़ी हुई है। सोनेके कवचसे अंकित धवल शरीर वह ऐसे मालूम होते हैं, मानो सन्ध्यारागसे शरद् मेघ शोभित हो । प्रत्यंचासे झुका हुआ धनुष उन्होंने इस प्रकार रखा, मानो जैसे मुट्ठीसे सुकलत्रको माप लिया हो । श्वेत चिह्न उनके ऊपर चलते हैं, मानो कीर्तिरूपी लताके पत्ते शोभित हों । जययशरूपी चन्द्र के स्थानभूत छत्र ऐसे मालूम होते हैं मानो पृथ्वीरूपी लक्ष्मीके कमल हों; सूर्यकी किरणोंका निवारण करनेवाले उन सफेद छत्रोंको अनुचरोंने उठा लिया। लम्बी दाढ़ोंसे विकट मुखवाले सिहोंने रथवरोंको खींच लिया । कवच पहने हुए सप्ताश्व हिनहिना उठे, पर्याणसे सज्जित गज चिग्घाड़ने लगे । मत्सरसे भरे हुए और 'मारो-मारो' कहते हुए तथा जिन्होंने बलभद्रको प्रणाम किया है, ऐसे योद्धा तैयार होने लगे । युद्धके हजारों नगाड़े बजाये जाने लगे तथा कुलगिरियोंके शिखर टूटकर गिरने लगे । ६. AP संपूण्ण । ७. AP सत्तियमोहमुहि । १०. १. A हयरह दिष्ण । २. AP चंदियणा में । ३. A दहृदिहहवघाहिये ; P दहदिसिवहृषाइय । ४. P गुणमि । ५. AP कय सज्ज सारि । ६. P वाडियाई । Page #269 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २२२ १५ ५ १० दुवई - थक्को धयवडम्मि पक्खुग्गयपवणुड्डु वियपडिणिवो ॥ चलचंचेले चुंचुंबिय चंद घरो खगाहिवो ॥ संणद्धु पयावइ दोहबाहु उच्चारिविजिणवरणाममंतु हु वह जडि हुयवहफुरणतिब्बु पहरण लेंतु रणदारुणाई संचोइड कुंजरु गज्जमाणु "निश्चिचंचें रोमंचरण भडुको विण खग्गहु देइ हत्थु भडुको विण लावइ घुसिणु अंगि महापुराण घत्ता - गेज्जावलिमुहालि रुंजियभसलि अरिकरिंदपसरियकरि ॥ अविश्यगलियमइ हरि मत्तगइ चडिउ सीहु णं महिहरि ॥ १०॥ ११ [ ५२. १०. १५ असितडिहरु णं खयसलिलवाहु । संणाहुइ मणि जिगिजिगंतु । तरुहु भुयबलगहियगव्वु । दिव्वई वायव्वें वारुणाई । ore गेण्es दिण्णउं देहताणु | कंपाविय रिड. कंपियधएण | परपहरणहरैणि सया समत्थु । रास तणु रिरुहरु अंगि । धत्ता - हरिसें को वि णरु थिरथोरकरु धर्णुहरु जं जं णावइ ॥ पीडिउं कडयडेइ मोडिवि पडइ तं तं थावेहुँ णावइ ||११|| घत्ता - जो गलेके आभूषणसे मुखर है, जिसपर भ्रमर गूंज रहे हैं, शत्रु गजवरपर जिसकी सूँड़ प्रसारित है, जिससे अविरत मदजल गिर रहा है; ऐसे मत्त गजपर नारायण त्रिपृष्ठ चढ़ गया मानो सिंह पहाड़ पर चढ़ गया हो ||१०|| ११ जिसके पंखोंसे उत्पन्न पवनसे शत्रुनृप उड़ चुके हैं, जिसने अपने चंचल मुखसे सूर्य और चन्द्रमाके विमानों को छू लिया है, ऐसा गरुड़ ध्वजपटपर स्थित हो गया । दीर्घ बाँहोंवाला प्रजापति तैयार होने लगा मानो तलवाररूपी बिजली धारण करनेवाला प्रलय मेघ हो । जिनवरके नामरूपी मन्त्रका मनमें उच्चारण कर जिगजिगाता हुआ ( चमकता हुआ ) कवच ले लिया । अग्नि स्फुरण समान तीव्र ज्वलनजटी, अपने बाहुबल में गर्व रखनेवाले उसके पुत्र अर्ककीर्तिने युद्ध में दारुण दिव्य वायव्य और वरुण, अस्त्र ले लिये । उसने गरजते हुए हाथीको प्रेरित किया । उसने दिया गया देहत्राण ( कवच ) नहीं पहना । नित्य ऊँचे रहनेवाले रोमांच और कांपते हुए ध्वजसे उसने शत्रुको कँपा दिया । कोई योद्धा तलवारपर हाथ नहीं देता, क्यों वह शत्रुके हथियार छीनने में सदा समर्थ रहता है । कोई सुभट अपने शरीरपर केशर नहीं लगाता, वह युद्ध में शत्रुके खून से अपने शरीरको रंजित करेगा । घत्ता - कोई मनुष्य हर्षसे धनुषको धारण करनेवाले अपने स्थिर और स्थूल हाथको जिसजिसपर धनुष झुकाता है वह पीड़ित होकर कड़कड़ कर उठता है, टूटकर गिर पड़ता है, वह शक्ति सहन नहीं कर पाता ॥११॥ ७. A रंजियभसलि । ८ AP अविरल । o ११. १. AP॰चंचेलचंचुचुंबियं । २. A चंद करो । ३. A उच्चाइवि । ४. AP वायव्वई । ५. A णिच्चेच्चुंचे रोमं ; P णिच्चिच्च सररोमं T णिच्चिच्च निरन्तरम् । ६. AP हरण सया । ७. AP लावेसइ । ८. P धणहरु । ९. A कडयलइ । १०. P थामह । Page #270 -------------------------------------------------------------------------- ________________ -५२. १२.१६ ] महाकवि पुष्पदन्त विरचित २२३ १२ दुवई-विहसिवि सुहडु भणइ लइ गच्छमि दारियकरिवरिंदहो । काई सरासणेण किं खग्ग महुँ रणवणि मइंदहो । भडु को वि भणइ जइ जाइ जीउ तो जाउ थाउ छुडु पहुपयाउ। भडु को वि भणइ रिउं एंतु चंडू मई अज्जु करेवंउ खंडखंडु । भडु को वि भणइ पविलंबियंति मई हिंदोलेवे दंतिदंति । भडु को वि भणइ हलि देइ हाणु सुइदेहें दिजइ प्राणदाणु । भडु को वि भणइ किं करहि हासु णिग्गवि सिरेण रिणु पत्थिवासु । भडु को वि भणइ जइ मुंडु पडइ तो महुं रुडु जि रिउ हणवि णडइ । भडु पियहि सरसु वज्जरइ कामि हउं रणदिक्खिउ सरु मोक्खगामि । भड को वि भणइ असिधेणुयाहिं । जसदुधु लेमि णरसंथुयाहिं। भडु को वि भणइ हलि छिण्णु जइ वि महुँ पाउ पडइ रिउसरहुं तइ वि । भडु को वि सरासणदोसु हरइ सरपत्तई उज्जुय करिवि धरइ । भड़ को वि बद्धतोणीरजुयलु । णं गरुंडसमुद्घयपक्खपडलु । को वि भणइ कलहंसवाणि महुं तुहुं जि सक्खि सोहग्गखाणि । घत्ता-परबल अभिडिवि रिउसिरु खुडिवि जइ ण देमि रायहु सिरि ॥ १५ तो दुक्कियहरणु जिणतवचरणु चरविं घोरु पइसिवि गिरि ।।१२।। कोई सुभट हंसकर कहता है कि लो, मैं जाता हूँ। जिसने करिवरेन्द्रोंको विदारित किया है, ऐसे मुझ मृगेन्द्रको युद्धरूपी वनमें धनुष और तलवारसे क्या ? कोई योद्धा कहता है कि यदि जीव जाता है तो जाये, यदि प्रभुका प्रताप स्थिर रहता है। कोई सुभट कहता है, मैं आज आते हुए प्रचण्ड शत्रुको खण्ड-खण्ड कर दूंगा। कोई सुभट कहता है कि जिसमें आंतें लटक रही हैं, ऐसे हाथोके दांतपर मैं झूलूंगा। कोई सुभट कहता है-हे सखी, जल्दी स्नान दो। मैं पवित्र शरीरसे प्राणदान दूंगा? कोई सुभट कहता है कि तुम हँसी क्यों करती हो, मैं अपने सिरसे राजाके ऋणका शोधन करूंगा। कोई सुभट कहता है कि यदि मेरा सिर गिर जाता है, तो मेरा धड़ ही शत्रुको मारकर नाचेगा। कोई कामी सुभट अपनी प्रियासे यह सरस बात कहता है कि मैं युद्ध में दीक्षित मोक्षगामी सर ( स्मर और तीर ) हूँ। कोई सुभट कहता है कि मैं लोगों के द्वारा संस्तुत असि रूपी धेनुका (छुरी ) से यशरूपी दूध लूंगा। कोई सुभट कहता है कि हे सखी, यदि मैं छिन्न भी हो जाता हूँ तब भी मेरा पैर शत्रुके सम्मुख पड़ेगा। कोई सुभट अपने धनुषका दोष दूर करता है, और तीरोंके पत्रोंको सीधा करके धारण करता है। बांध लिया है तूणीरयुगल जिसने, ऐसा कोई सुभट ऐसा जान पड़ता है, मानो गरुड़को दोनों पक्षपटल निकल आये हों। कोई योद्धा कहता है कि हे कलहंसके समान बोलनेवाली और सोभाग्यको खान, तुम मेरी गवाह हो। पत्ता-शत्रुसेनासे भिड़कर, शत्रुशिर काटकर यदि मैं राजाकी लक्ष्मी नहीं देता, तो मैं घोर वनमें प्रवेश कर पापको हरण करनेवाले जिनवरका तपश्चरण करूंगा ॥१२॥ . १२. १. P करेव्वउ । २. P हिंदोलिव्वउ । ३. A P सुइदेहई। ४. A P पाणदाणु । ५. A P तुडु। ६. A सरिसु । ७. A P रिउसमुहं । ८. A P गरुडु । Page #271 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २२४ महापुराण [५२. १३.१ दुवई-लुहि लोयणाई मुद्धि मा रोवहि हलि भत्तारवच्छले । बंधवि तुह हयारिकरिमोत्तियकंठिय कंठकंदले ।। पंडिविट्टविट्टणि वाहणाहं संणझंतहं बिहिं साहणाहं । वहु कासु वि देइ ण दहियतिलउ अहिलसइ वइरिरुहिरेण तिलउ । वहु कासु वि घिवइ ण अक्खयाउ खलेवइ करिमोत्तियअक्खयाउ । वहु कासु वि करइ ण धूवधूमु मग्गइ पडिसुहडमसाणधुमु । वहुकासु वि णप्पइ कुसुममाल इच्छइ लैलंति पिसुणंतमाल । वहु कासु वि ण थवइ हस्थि हत्थु तुह लग्गउ गर्यघडणारिहत्थु । वहु को वि ण झुणइ सुमंगलाई आवेक्खइ अरिसिरमंगलाई । वहु कासु वि णउ दावइ पईवु भो कंत तुहुं जि कुलहरपईवु । वहु कासु वि पारंभइ ण णट्ट संचिंतइ सत्तुकबंधणट्ट । वहु का वि ण जोयइ कि सिरीइ पिययमु जोएवउ जयसिरीइ । धत्ता-वहु पभणइ भणमि हउं पई गणमि तो तुडं महुँ थण पेनहि ॥ भग्गइ णिययबलि जइ भडतुमुलि खग्गु लेवि रिउ पेल्लहि ॥१३॥ दुवई-वालालुंचि करिवि जुज्मेजसु विसरिसवीरगोंदले ॥ अरिकरिदंतमुसलि पउ देप्पिणु देजसु कुंभमंडले ।। हे मुग्धे, आँखें पोंछ लो, रोओ मत । हे पतिप्रिया सखी, मैं मारे गये शत्रुगजके मोतियोंकी कण्ठमाला तुम्हारे गलेमें बांधूगा ? इस प्रकार वासुदेव और प्रतिवासुदेवका निर्वाह करनेवाली तैयार होती हुई सेनाओंमें-से वधू किसीको दहीका तिलक नहीं देती, वह शत्रुके रक्तसे तिलककी इच्छा करती है । वधू किसीके ऊपर अक्षत नहीं डालती, वह गजमुक्तारूपी अक्षतोंकी अभिलाषा करती है, वधू किसीके लिए धूपका धुआं नहीं करती, वह शत्रु सुभटोंके मरघटका धुआं मांगती है। वधू किसीके लिए सुमनमाला अर्पित नहीं करती, वह दुष्टोंको आंतोंकी झूलती हुई माला चाहती है। कोई वधू मंगलोंका उच्चारण नहीं करती, वह शत्रुओंके सिररूपी मंगलोंकी अपेक्षा करती है। वधू किसीको दीपक नहीं दिखाती ( वह कहती है ) हे स्वामी, तुम्ही कुलघरके प्रदीप हो। किसीकी वधू नृत्य प्रारम्भ नहीं करती, वह शत्रुके धड़के नृत्यकी चिन्ता करती है। कोई वधू देखती तक नहीं है कि श्रीसे क्या ? प्रियतम विजयलक्ष्मोके द्वारा देखा जायेगा? धत्ता-वधू कहती है कि अपनी सेना नष्ट होनेपर यदि तुम सैनिकोंकी भीड़में तलवार लेकर शत्रुको पीड़ित करते हो, तो मैं कहती हूँ कि मैं तुम्हें मानती हूँ और तुम मेरे स्तनोंको पीड़ित कर सकते हो ॥१३॥ १४ असामान्य वीरोंके उस युद्ध में तुम खूब भिड़कर युद्ध करना। शत्रुगजके दांतरूपी मूसलपर १३. १. पडिविधु । २. AP कंख but Kखलवइ and gloss अभिलषति । ३. A ललंत । ४. A गयघडि । ५. AP कासु वि ण कुणइ मंगलाई। Page #272 -------------------------------------------------------------------------- ________________ -५२. १५.२] महाकवि पुष्पदन्त विरचित कुंजरघडघल्लियमुहवडाई वंसग्गविलंबियधयवडाइं। कुंकुमचंदणचच्चियमुयाई परिहियमणिकंचणकंचुयाई। करलुहियगहियबहुपहरणाई णियसामिकजि णिच्छयमणाई। काणीणदीणढोइयधणाई भडकलयलबहिरियतिहुवणाई। विलुलंतचित्तणेत्तंचलाई अहिणंदियकलसजलुप्पलाई। चलचरणचारचालियधराई डोल्लावियगिरिविवरंतराइं। ढलहलियधुलियवरविसहराई भयतसिररसियघणवणयराई। झलझ लियवलियसायरजलाई जलजलियकालकोवाणलाई। पयहयरयछइयणहंतराई अणलक्खियहिमयरदिणयराइं। करिवाहणाइं सपैसाहणाई हरिहरिगीवाहिवसाहणाई। आयई अण्णण्णहु संमुहाई असिदाढालई णं जंतूमुहाई। घत्ता-संचोइयगयई वाहियहयई रणरसहरिसविसट्टई ॥ दूरुझियभयई उब्भियधयई बे वि बलई अभिट्टई ॥१४॥ दुवई-बेण्णि वि दुद्धराइं दुणिरिक्खई कयणियपहुपणामई ॥ __ कण्णाहरणकरणरणलग्गई जयसिरिगहणकामई॥ पैर देकर कुम्भमण्डलपर पैर रखना। जिसमें हस्तिघटापर मुखपट डाल दिये गये हैं मानो बांसोंके अग्रभागपर ध्वजपट अवलम्बित हैं, भुजाएँ केशर और चन्दनसे अंचित हैं, जिन्होंने मणियों और सोनेके कंचुक पहन रखे हैं, जिन्होंने साफ किये हुए बहुत-से हथियार हाथमें ले रखे हैं, अपने स्वामीके कार्यमें जो निश्चितमन हैं, जिनमें कानीनों और दीनोंको धन दिया गया है, जिन्होंने योद्धाओं की कलकल ध्वनिसे त्रिभुवनको बहरा कर दिया है, जिनमें चित और नेत्रांचल उपदित हैं, और कलश जल तथा कमल अभिनन्दित हैं, चंचल चरणोंके संचरणसे धरती चलायमान कर दी गयी है, पहाड़ोंके विवरान्तोंको हिला दिया गया है, जिनमें बड़े-बड़े सांप गिरकर चक्राकार घूम रहे हैं, भयसे त्रस्त घनवनचर चिल्ला रहे हैं, समुद्रका जल झलझलाकर मुड़ रहा है, कालरूपी कोपाग्नि प्रज्वलित है ठी है. पैरोंसे आहत धलसे आकाशका भाग आच्छादित है और जिसमें सर्य और चन्द्रमा दिखाई नहीं दे रहे हैं, जिनमें प्रसाधनोंसे सहित हाथियोंके वाहन हैं, ऐसे नारायण और अश्वग्रीव राजाके सैन्य एक दूसरेके आमने-सामने आ गये जो मानो तलवाररूपी दाढ़ोंसे यममुखों के समान थे। पत्ता-गज चला दिये गये, अश्व हाँक दिये गये, उत्साह और हर्षसे विशिष्ट, भयको दूरसे ही मुक्त ध्वज ऊपर उठाये हुए दोनों सैन्य आपसमें भिड़ गये ॥१४॥ १५ दोनों ही दुर्धर दुर्दर्शनीय और अपने स्वामीको प्रणाम करनेवाले थे, कन्याके अपहरण १४. १. A°कज्जणिच्छय । २. AP हलहलिय । ३. AP भयरसियतसियं । ४. AP°चलियं । ५. P __सुपसाहणाई। ६. P आयहिं । ७. AP'दाढा इव । ८. AP जममुहाई। १५. १. AP°रणि लग्गई। २९ Page #273 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २२६ महापुराण [५२. १५.३णरचरणचारचारियगयाई हरिखरखुरवडणुग्गयरयाई । अभिडिय सुहड गय कायराई रवपूरियदिसगयणंतराई। वावल्लभल्लैझससल्लियाई सोणियजलधारारेल्लियाई । . लुलियतकोतभिण्णोयराई करवालखलणखणखणसराई। चलमुकचक्कदारियउराई लउडीहयचूरियरहधुराई। णिवडतछत्तधयचामराई नृवकॅडयमउडमणिपिंजराई । कयखगविमाणसंघट्टणाई किंकिणिमालादलवट्टणाई। विजाहरविज्जावारणाई सरपूरियमारियवारणाई। जंपाणकवाडविहट्टणाई मंडलियमाणणिल्लोट्टणाई। घत्ता-दिण्णालिंगणई कयतणुवणई दंतपंतिदट्ठोटुई ॥ लुचियकोंतलेइं बिण्णि वि बलई जिह मिहुणई तिह दिट्ठइं ॥१५॥ दुवई-तो हरिगीवरायसेणावइ धूमै सिहो पधाइओ। सिरिहरिमस्सुवीरसहिउ हरिसेणे जगे ण माइओ॥ तेण घाइयं महिणिवाइयं । विलुलियतयं पडियदंतयं । पहरजज्जरं लग्गभयजरं। करनेके युद्ध में लगे हुए, और विजयश्रीको पानेकी कामनावाले थे। जिसमें मनुष्योंके चरणोंके संचारसे गज चलाये जा रहे हैं, जिसमें घोड़ोंके तीव्र खुरोंके पतनसे धूल उड़ रही है। सुभट आपसमें भिड गये, और कायर भाग गये। शब्दोंसे दिशाएँ और गगनांतर भर गये। जो वावल्ल. भाले और झसोंसे पीड़ित हैं, रक्तरूपी जलधाराओंसे सराबोर हैं, जिनमें आंतें कटी हुई हैं, और भालोंसे पेट फाड़ दिये गये हैं, लाठियोंके प्रहारोंसे रथधुराएँ चकनाचूर कर दी गयी हैं, जिनमें छत्रध्वज और चमरोंका पतन हो रहा है, जो राजाओंके कटक और मुकुटमणियोंसे पीले हैं, जो विद्याधर विमानोंसे टकरानेवाले हैं, जिनमें किकिणियां और मालाएँ चकनाचूर हो रही हैं। विद्याधरोंके द्वारा विद्याओंका निवारण किया जा रहा है, तीरोंसे पूरित महागज मारे जा रहे हैं, जंपाणोंके किवाड़ नष्ट कर दिये गये हैं, और माण्डलीक राजाओंका मान नष्ट हो रहा है। घत्ता-जिन्होंने एक दूसरेको आलिंगन दिया है. एक दुसरेके शरीरोंपर घाव किये हैं, जो दांतोंकी पंक्तियोंसे अपने ओंठ चबा रहे हैं, बाल नोंच रहे हैं, ऐसे दोनों सैन्य उसी प्रकार लड़ रहे हैं जिस प्रकार मिथुन ॥१५॥ १६ तब राजा अश्वग्रीवका सेनापति धूमशिख दौड़ा। श्रीहरिश्मश्रु नामक वीरसे सहित वह हर्षके कारण संसारमें नहीं समा सका । उसने आघात किया । धरतीपर गिरा दिया, आँखें छिन्न २. P°खुरखणणु । ३. A°भल्लसरसल्लियाई; P°भल्लरससल्लियाई। ४. A °कंतभिण्णो'। ५. A वरमुषकं । ६. P लउडिययचूरीरह। ७. AP णिवं । ८. A विज्जाकारणई । ९. AP°कुंत । १६. १. A ता हयगीव; P तो हयगीवं । २. A घूमसिहोवधाइओ। ३. A P°मस्सुवीररससहिउ । ४. A हरिसें जगे ण माइओ। Page #274 -------------------------------------------------------------------------- ________________ -५२. १६. २६ ] महाकवि पुष्पदन्त विरचित दारिओयरं छिण्णगलछिरं। रत्ततंविरं चम्मलंबिरं। विहिविणिंदिरं कलुणकंदिरं। चित्तचामरं तुट्टपक्ख रं। फुट्टमहलं मुक्ककोंतलं । विहुरवेंभलं णिग्गयं बलं । बद्धमच्छर तोसियच्छरं। कडुयजंपिरं धीरँकपिरं। रुंडणच्चिरं कुंतखंचिरं। भडवियारणं कुंभिदारणं । भिडियवारणं सिरणिलूरणं । सुहडकलयलं गहियहुलहुलं । चम्मभिदिरं गत्तछिंदिरं। कवयसंजुयं णियवि संजुयं । सुरपसंसिरं धुणियेगयसिरं। भग्गरहवरं पडियहयवरं। खग्गखणेखणं दारुणं रेणं । पक्खिसंकुलं रक्खसाउलं। १ छिण्णछत्तयं । घत्ता-माहवबलवइणा कयरणरइणा णिययसेण्णु साहारिउं । कुलु विहिविणडियउं दिसिविहडियउं पुत्तेण व उद्धारि ॥१६॥ भिन्न हो गयीं। दांत गिर पड़े ( टूट गये ) । लोग प्रहारसे जर्जर हो उठे, भयज्वरसे पीड़ित पेट फाड़ दिया गया; गले और सिर काट दिये गये। रक्तसे लाल हो उठे, चर्म लटक गये, विधिको निन्दा करने लगे, करुण विलाप होने लगा, चमर फेंक दिये गये, कवच टूटने लगे, मृदङ्ग फूल गये केश बिखर गये कसे विहल सैन्य निकल पडा। ईर्ष्या करनेवाला. अप्सर करनेवाला, कटु बोलनेवाला, धैर्यको कंपानेवाला, धड़ोंको नचानेवाला, भालोंको खींचनेवाला, योद्धाओंका विदारक, हाथियोंको विदीर्ण करनेवाला, गजोंसे लड़नेवाला, सिरोंको काटनेवाला, सुभटोंके कलकलसे युक्त, शूलोंको हाथों में लेनेवाला, चर्मका भेदन करनेवाला, शरीरको छेदनेवाला, कवचसे सहित, देवोंसे प्रशंसित, छिन्न गज सिरवाला, भग्नरथवरोंवाला, घिरे हुए अश्ववरों सहित, तलवारोंसे खनखनाता हुआ, पक्षियोंसे संकुल, राक्षसोंसे आकुल, गजदंतोंसे युक्त छिन्नछत्र दारुण रण देखकर। पत्ता-युद्ध से रति करनेवाले माधवके सेनापतिने अपने सैन्यको ढांढस बंधाया, जैसे भाग्यसे प्रवंचित और दिशाओंमें विभक्त कुटुम्बका पुत्र ने उद्धार किया हो ।।१६।। दंतिदंतयं ५. P वम्मलंबिरं। ६. P भिग्गयं । A K write in margin the portion beginning with बद्धमच्छरं down to छिण्णछत्तयं । ७. P धीरु कपिरं। ८. P कुंतयंचिरं। ९. A धुणिवि गयसि। १०. AP°रभरं। ११. A भग्गखणखणं: P खग्गसणसणं। १२. Pघणं । १३. P देंतिदंतयं । १४. A छिण्णछिण्णय; P adds विहरविंभलं, भग्गयं च (ब?) लं। , Page #275 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २२८ महापुराण [५२. १७.१ दुवई-भीमपरक्कमेण भीमेण वि णासियभीमवईरिणा ॥ पञ्चारिय भिडंत भड बेण्णि वि सुरवहुहिययहारिणा ॥ हरिमस्स काई पई मंतु दिठु ___किं मगिउ परतृयरयणु इछ । हक्कारिउ किं णियप्राणणासु एवहि पइसेसहु सरणु कासु। कुद्धइ तिविढि भुवणेकसीहि तडितरलदीहकरवालजीहि । ता धूमसिह भासिउ सरोसु घरदासि हरंतहुं कवणु दोसु । पहिलउं पहुणा मुत्ती मणेण पच्छइ तुम्हहुँ दिण्णी अणेण । सिहिजडिणा सामिविरोहणेण किं एएं जडसंबोहणेण । दरिसावमि तुह जमरायथत्ति लइ पहरु पहरु जइ अस्थि सत्ति । ताबे वि लग्ग ते सेण्णणाह बेणि वि सुरकरिकरसरिसबाह। बेणि वि चालियदिञ्चकवाल बेणि वि जयकारियसामिसाल । बेण्णि वि उग्गामियचावदंड बेणि वि आमेल्जियकुलिसकंड। बाणेहिं बाण णहयलि खलंति तेण्णिहसणरुह हुयवह जलंति । पुणु भीमें मुक्कठ अद्धयंदु धूमसिहहु णं अट्ठमउ चंदु । रिउदेहमेहि सो पइसरंतु दिट्ठउ सुहिणयणहु तमु करंतु । घत्ता-मारिवि धूमसिह खयकालणिह खणि हरिमस्सु णिहत्त।। णवर करंतु कलि भड देंतु बलि असणिघोसु संपत्तउ ॥१७॥ १५ १७ भीम पराक्रमवाले, तथा भयंकर शत्रुओंको नष्ट करनेवाले, तथा सुरवधुओंके हृदयका अपहरण करनेवाले भीमने लड़ते हुए दोनों सुभटोंको पुकारा, "हे हरिश्मश्रु, तुमने यह कौन-सा मन्त्र देखा? तुमने इष्ट परस्त्रीरत्न क्यों मांगा? अपने प्राणोंके नाथको तुमने क्यों पुकारा ? इस समय तुम, भुवनके एकमात्र सिंह, बिजलीके समान लम्बी करवालरूपी जीभवाले त्रिपृष्ठके क्रुद्ध होनेपर किसकी शरणमें जाओगे?" तब धूमशिखने गुस्से में आकर कहा, कि गृहदासीके अपहरणमें क्या दोष ? पहले राजाने इसका मनचाहा उपभोग किया। फिर उसने यह तुम्हें प्रदान की। स्वामी विरोधी ज्वलनजटीके द्वारा इस मूर्खतापूर्ण सम्बोधनसे क्या? मैं तुम्हें यमराजकी स्थिरता दिखाऊंगा, यदि तुममें शक्ति हो तो शीघ्न प्रहार करो," तब दोनों सेनापति आपसमें लड़ गये। वे दोनों ही हाथीकी सूंड़के समान बाहुवाले थे, वे दोनों ही दिक्चक्ररूपी मण्डलको चलानेवाले थे, दोनों अपने स्वामी श्रेष्ठकी जय बोल रहे थे; दोनोंने ही अपने चापदण्ड उठा लिये थे, दोनों ही वज्रतीर छोड़ रहे थे। आकाशमें तीरोंसे तीर स्खलित हो रहे थे, उनके संघर्षणसे उत्पन्न आग जल रही थी, फिर भीमने अपना अर्धेदु तीर फेंका, जो मानो धूमशिखके लिए आठवां चन्द्र हो, शत्रुके शरीरको मेधामें प्रवेश करता हुआ वह, सुधीजनोंके नेत्रोंमें अन्धकार उत्पन्न कर रहा था। घत्ता-धमशिखको मारकर, एक क्षणमें क्षयकालके समान हरिश्मश्रको आहत कर दिया। तब केवल अशनिवेग युद्ध करता हुआ और सुभटोंकी दिशा बलि देता हुआ वहां पहुँचा ॥१७॥ १७. १. A वइरिणो । २. A हारिणो । ३. A P हरिमस्सु । ४. A P परतियं । ५. A P पाणणासु । ६. A तरङ । ७. A हणंतहं । ८. A P पहिली पहुणा । ९.A तं णिहसिवि पर हुववह । १०. AP णिहित्तउ। | Page #276 -------------------------------------------------------------------------- ________________ -५२. १८. १९ ] महाकवि पुष्पदन्त विरचित १८ दुवई-सो जियसत्तु णाम धरणीसें जममुहकुहरि ढोइओ ॥ सरविसहरणिरुधु वरपरिमैलु चंदणतरु व जोइओ॥ तओ कंपणेसो समुप्पण्णरोसो। महेणं महतो णहंतं पिहंतो। कराइड्डेचावो महाभीमभावो। सदप्पं चवंतो सरोहं सवंतो। धए णिल्लुणंतो गइंदे हणंतो। हए कप्परतो गरे चप्परंतो। जवेणं चरंतो रणे वावरतो। परं णिकिवेणं जएणं णिवेणं। खुरुप्पेण भिण्णो कयंतस्स दिण्णो। जयस्सावलुद्धो जमो णं विरुद्धो। रउद्दारिमहो पहू खेयरिंदो। पियारत्तचित्तो सयं झ त्ति पत्तो। मरुद्धयचिंधो सतोणीरखंधो। दिसालग्गकित्ती तहिं अक्ककित्ती। थिओ अंतराले भडाणं वमाले। घत्ता-तेण ससामियहु गयगामियहु रूसिवि दिण्णउ उत्तरु ।। देव पराइयहि कारणि तृयहि किं आढत्तउ संगरु ॥१८॥ भूमिके स्वामीने जितशत्रु उसे यमके मुखरूपी कुहरमें डाल दिया। सररूपी विषधरोंसे निरुद्ध, श्रेष्ठ परिमलवाला वह चन्दन वृक्षके समान दिखाई दिया। उस समय उत्पन्न हुआ है क्रोध जिसे ऐसा इन्द्रसे भी महान अकम्पन नामका राजा आकाशको आच्छादित करता हुआ, हाथमें धनुष खींचता हुआ महाभयंकर भाववाला, सदएँ बोलता हुआ, तीरसमूह गिराता हुआ, ध्वजोंको काटता हुआ, हाथियोंको मारता हुआ, अश्वोंको काटता हुआ, मनुष्योंको पराजित करता हुआ, वेगसे चलता हुआ, युद्ध में व्यापार करता हुआ (आया)। परन्तु उसे जय नामक कठोर राजाने खुरपेसे काट डाला और यमको दे दिया। मानो यशका लोभी यम ही विरुद्ध हो उठा हो । भयंकर शत्रुओंका मर्दन करनेवाला राजा, प्रियामें अनुरक्त चित्त विद्याधरेन्द्र राजा (अश्वग्रीव ) स्वयं शीघ्र पहुंचा। तब जिसका ध्वजचिह्न हवामें उड़ रहा है, जिसके कन्धे तूणीर सहित हैं, जिसको कीर्ति दिशाओंसे जा लगी है, ऐसा अर्ककीर्ति वहां योद्धाओंके कोलाहलपूर्ण अन्तरालमें स्थित हो गया। पत्ता-उसने गजगामी अपने स्वामीको उत्तर दिया कि हे देव, परायी स्त्रीके कारण आपने युद्ध क्यों प्रारम्भ किया ? ॥१८॥ १८.१.A P°णिरुद्ध । २. A परिमल । ३. AP कराहल । ४. AP सरोसंवतो। ५. A this foot. | ६. P जमो णाविरुद्धो। ७. P सतोणीरकंधो। ८. AP तियहे । Page #277 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २३० महापुराण [५२. १९. १ १९ दुवई-लजिज्जइ रणेण णित्तेएं दुज्जसमलिणकारिणा ।। ओसरु जाहि राय किं एएं पुरिसगुणोहहारिणा ॥ ता भणिउ समरभरधुरभुएण णीलंजणपहदेवीसुएण। रे अक्ककित्ति गुरुसिक्खवंतु लजहि ण केंव विप्पिउ चवंतु । तुह ताएं अवरु वि पई सदप्प जं आणालंघणु कयउं बप्प । तहु लग्गउ हउं णियपरिहवासु सस तेरी पुणु मणु हरइ कासु। ता रविकित्ति दीवियदियंते सुपिसक्क मुक्क धगधगधगंत । खगणाहहु खंडिउ चावदंडु गुणवंतु तो वि किउ खंडेखंडु। अण्णेक्कु सरासणु झ त्ति लेवि राएण तासु बोणे हणेधि । चूडामणि पाडिउ विप्फुरंतु णं णहयलि णिवडिउ रवि तवंतु । मारुयचलंतचलमयरकेउ तावंतरि थक्कउ कार्मदेउ। बंधंतु ठाण संधंतु बाणु तेणक्ककित्ति मारिजमाणु । रक्खियउ पयावइराणएण धणुवेय विवेयवियाणएण। केसरिणा णं तासिउँ'कुरंगु किउ पाराउट्ठउ ते अणंगु। ससिसेहरेण पहु पोयणेसु मेहें पच्छाइउ णं दिणेसु। अंतरि पइसिवि तिणयणु तिसूलि सिहिजडिणा णिजिउ चंदमउलि । १५ सासर ०० अपयश और मलिनताके कारणभूत, तेज रहित युद्धसे तुम्हें लज्जित होना चाहिए । हे राजन्, तुम हट जाओ। पुरुषके गुणसमूहका अपहरण करनेवाले इस युद्ध से क्या ? तब यह सुनकर, युद्धका भार उठानेमें समर्थभुज नीलांजना और प्रभादेवीके पुत्रने कहा, "हे महान् शिक्षावाले अर्ककीति, प्रिय बोलनेवाले तुम्हें लज्जा क्यों नहीं आती? हे सुभट, तुम्हारे पिता और तुमने जो घमण्डपूर्वक आज्ञाका उल्लंघन किया है, उससे अपने पराभवसे आहत हुआ हूँ। तुम्हारी किसका मन अपहरण करती है। तब अर्केकोतिने दिशाओंको दीपित करनेवाले धकधक करते हुए तीर छोड़े।" उसने विद्याधर राजाके धनुषको खण्डित कर दिया। गुणवान् (डोरो सहित ) भी उसके टुकड़े-टुकड़े कर दिये। तब राजाने शीघ्र एक और धनुष ले लिया, और तीरसे आहत कर चमकता हुआ चूडामणि इस प्रकार गिरा दिया, मानो आकाशतलमें तपता हुआ सूर्य हो। जिसका हवासे चलता हुआ चंचल मकरध्वज है, ऐसा कामदेव इतने में बीचमें आकर स्थित हो गया । लक्ष्य बांधता हुआ, सरसन्धान करता हुआ, उसके द्वारा मारा जाता हुआ अकीर्ति धनुर्वेदके विवेकको जाननेवाले प्रजापति राजाके द्वारा ऐसे बचा लिया गया, मानो सिंहके द्वारा त्रस्त हरिण बचा लिया गया हो। उसने कामदेवको पराङ्मुख कर दिया। चन्द्रशेखरने पोदनपुर राजाको उसी प्रकार घेर लिया जिस प्रकार मेघने सूर्यको आच्छादित कर लिया हो। ज्वलनजटीने भीतर प्रवेश कर त्रिनयन त्रिशलधारी चन्द्रशेखरको जीत लिया। १९. १. AP°धुरभुएण । २. A°दियंति । ३. Aधगंति । ४. AP खंड खंडु । ५. AP बाणेहि हणेवि । - ६. A णहयलणिवडिठ । ७. A reads a as b and b as a । ८. AP कामएउ । ९. A बंधंतु तोणु । १०.P पारिज्जमाणु । ११. AP णासिउ। १२. A थिउ पारद्धिउ गाउ अणंगु । Page #278 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २३१ -५२.२०.१८] महाकवि पुष्पदन्त विरचित घत्ता-किंकर हयगलहु पालियछलहु कोवें कहिं वि ण माइउ ॥ - णामें णीलरहु णं कूरगहु अवरु खयरु उद्धाइउ ॥१९॥ दुवई-पभणइ चावपाणि रे सिहिजडि जं पई दुक्कयं कयं ।। तं हयगीवदेवपयपंकयदोहफलं समागयं॥ हो कि बोल्लमि मारमि घल्ल मि । एंव चवेप्पिणु भुय विहुणेप्पिणु। आउहु दावई धावइ पावइ। किंकरि किंकरि कुंजरि कुंजरि। खरखुरखयधरि हरिवरि हरिवरि। णयणाणंदणि संदणि संदणि । चप्पिवि लग्गइ रंगइ णिग्गइ। थामें वग्गइ भंडणु मग्गइ। पइसइ दूसइ रुजैइ रूसइ । हिंसइ तासइ दीसइ णासइ। दुक्का हक्क कोक्का थक्कइ। रिउं पञ्चार चूरइ जूरइ। खलइ णिवारइ दारइमारइ। करिकरचंडिहिं लालापिंडिहिं। दंतादंतिहिं कोताकोतिहिं। णरकिलिविंडिहिं। घत्ता-तब छलका कपट करनेवाले अश्वग्रीवका ( एक और ) अनुचर क्रोधसे कहीं नहीं जा सका । नामसे नीलरथ वह मानो क्रूरग्रह हो, एक और विद्याधर दौड़ा ॥१९|| २० हाथमें धनुष लिये हुए वह कहता है-“हे ज्वलनजटी, तूने जो पाप किया है, अश्वग्रीव देवके चरणकमलोंके द्रोहका वह फल तेरे पास आ गया है । अरे में बोलता क्या हूँ, मैं मारता हूँ, फेंकता हूँ," यह कहकर अपने बाहु ठोंककर वह आयुध दिखाता है, दौड़ता है, उछलता है। अनुचर अनुचरपर, गज गजपर, तीव्र खुरोंसे क्षय धारण करनेवाले अश्ववर अश्ववरपर। नेत्रोंके लिए आनन्ददायक स्यन्दन स्यन्दनपर । चाँप कर लगता है, चलता है, निकलता है, स्थेयसे क्रुद्ध होता है, युद्ध मांगता है, प्रवेश करता है, दूषित करता है, गरजता है, रूठता है, हिंसा करता है, त्रस्त करता है, दिखाई देता है, छिप जाता है, कठिन काम करता है, हकारता है, पुकारता है, ठहरता है. शत्रको ललकारता है. चर-चर करता है, पीड़ित करता है, स्खोलत करता निवारण करता है, विदीर्ण करता है, मारता है, हाथीकी सूंड़के -समान प्रचण्ड, गजमुखोंके अग्रिमकाष्ठों, दांतों, १३. A किंकर। २०.१. AP दुक्कियं । २. AP मारिवि । ३. A भंजइ । ४. A णायभुवदंडहिं । ५. A किलिवंदिहिं । ६. AP add after this: दंडादंडिहिं। Page #279 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २३२ महापुराण [५२. २०. १९केसाकेसि हिं पासपासिहि। उवलाउवलिहिं मुसलामुसलिहिं । इय सो जुज्झिउ भीमुह उज्झिउ । दुंदुहिसहे ता बलहहें। अरि हकारिउ दइवें पेरिउ। सो वि पराइउ चावविराइउ । णं णवजलहरु विद्धउ हलहरु। तेण उरत्थलि उट्ठियकलयलि। कंपियणियबलि हरिसियपरबलि । बाहुसहाएं जयवइजाएं। सीरें ताडिउ उद्ध जि फाडिउ । णीलरहाहिवि हइँ कइ जयरवि । घत्ता-णाणाणहयरहिं संधियसरहिं सहयहिं सगयहिं सरहहिं ।। वेढिउ जिन्वहरु दूसहपसरु बलु चित्तंगयपमुहहिं ॥२०॥ दुवई-मायासाहणाहं मयवंतहं माणियपहुपसायहं ।। एकें हलहरेण रणि जित्तई सत्तसयाई रायहं ॥ सुयरिवि पहुदिण्णी तुप्पंधार केण वि विसहिय रिउखग्गधार । सिरु छिण्ण णिग्गय रत्तधार गय एंव बप्प धाराइ धार । केण वि सैंयरिवि पहुअग्गेविंडु इच्छिउ पडंतु णियमासपिंडु। केण वि सुर्यरिवि पहुचीरु रम्मु मण्णिउ लंबंतु सदेहचम्मु । भालों, मनुष्यकी भुजाओं-भुजाओं ( मह किलिविंडिहिं ), बालों-बालों, नागपाशों-नागपाशों, उपलउपलों, मूसल-मूसलोंसे, भयरहितमुख वह नीलरथ इस प्रकार लड़ा। दुन्दुभि-शब्दसे बलभद्रने शत्रुको ललकारा । देवसे प्रेरित और धनुषसे शोभित वह भी आ गया। उसने हलधरको उरस्थलमें विद्ध कर दिया, जैसे नवजलधर हो । कल-कल होने लगा। अपनी सेना कांप उठी । शत्रुसेना हर्षित हो उठी। तब जिसकी बाहु सहायक हैं, ऐसे जयावतीके पुत्रने हलसे ताड़ित कर उसे आधा फाड़ दिया। इस प्रकार नीलरथाधिपके आहत होनेपर और जय शब्द करनेपर पत्ता-अपने सरोंका सन्धान किये हुए अश्वों, गजों और रथोंके साथ चित्रांगद प्रमुख नाना विद्याधरोंने असह्य प्रसारवाले सैन्य और बलभद्रको घेर लिया ॥२०॥ अकेले बलभद्रने मायावी सेनावाले, अहंकारी प्रभुका प्रसाद माननेवाले सात सौ राजाओं को युद्ध में जीत लिया। प्रभुके द्वारा दी गयो घोकी धाराकी याद कर किसीने शत्रुकी खड्गधाराको सहन कर लिया। सिर छिन्न हो गया। रक्तकी धारा बह निकली। कितने ही बेचारे भट धारा-धारामें ही चले गये। किसीने प्रभुके प्रथम आहारपिण्डको समझकर गिरते हुए अपने ही ७. A भीउहउज्झिउ । ८. A सयलहिं । ९. A चलचित्तंगयं । २१. १. P°साहणेहिं । २. A सुमरिवि; P सुअरिवि । ३. A रुप्पधार । ४. A सुअरिउ; P सुअरिवि । ५. AP°अग्गपिंडु । ६. A सुमरिवि; P सुअरिवि । * Page #280 -------------------------------------------------------------------------- ________________ --५२. २२. ६ ] महाकवि पुष्पबन्त विरचित २३३ केण वि सुयरिवि पहुदिण्णु गाउं छडि णियजीवियभूयगाउं । केण वि सुयरिवि पहुचामराई सलहियई पक्खिपक्खंतराई । पहुसुकियभरहु वंकेवि वयणु केण वि पडिवण्णउं बाणसयणु । केण वि सुयरिवि पहुछत्तछाहि आसंघिय घणसरपुंखछाहि । केण वि"सुमरिवि पत्थिवपसाउ चक्खिउ अरिवीरपहारसाउ । केण वि सुयरिवि पहुपालियाई मयगलकुंभयलई"फालियाई । दुव्वारवइरिमग्गणविहत्तु भल्लार धीर रायरत्तु । कासु वि रणमंदिरसामिणीइ । हियवउ लइयउं सिवकामिणीइ । घत्ता-कासु वि सिरकमलु ओटुउँडैदलु गिद्ध सचंचुइ चालइ॥ __ परितोसियजणहु महिवइरिणहु णं मोल्लवणु णिहालइ ॥२१॥ . २२ . दुवई-ता सहस त्ति पत्तु हरिकंधरु पभणइ तसियवासवो ॥ भो भो कहसु कहसु कहिं अच्छइ सो महु वहरि केसवो।। ता उत्तु कण्हेण भो मेइणीराय सोहं रिऊ केसवो एहि णिण्णाय । जाणिजए अज्ज दोण्हं पि रूसेवि को हणइ सिरु लुणइ रणरंगि पइसेवि। कुद्धेण सिरिकुमुइणीपुण्णयंदेण अलयाउरीसेण खेयरणरिंदेण । संगामरामारइच्छाणि उत्तेण तं सुणिवि पडिलविउं सिहिगीवपुत्तेण । मांसबिन्दुकी इच्छा को। किसोने सुन्दर प्रभु वस्त्रकी चिन्ता कर लटकते हुए अपने ही देहचर्मको बहत माना। किसीने स्वामीके द्वारा दिये गये गांवकी याद कर अपने जीवन और इन्द्रियोंका गांव छोड़ दिया। किसीने स्वामीके चमरोंकी याद कर पक्षियों के पक्षान्तरोंकी सराहना की। प्रभुके पुण्यसे भरे हुए मुखको टेढ़ा कर किसीने बाणोंका शयन स्वीकार कर लिया। किसीने स्वामीकी छत्रच्छायाकी याद कर सघन तोरोंकी पुंख-छायाका आश्रय ले लिया। किसीने राजाके प्रसादकी याद कर शत्रुके वीर प्रहारके स्वादको चख लिया। किसीने प्रभुके द्वारा पालित और स्फारित मैगल गजोंके कुम्भस्थलोंकी याद कर दुनिवार शत्रुके तीरोंसे विभक्त राजामें अनुरक्त धैर्यको अच्छा समझा। किसीके हृदयको रणरूपी मन्दिरको स्वामिनी शिवा(शृगालिनी)रूपी कामिनीने ले लिय पत्ता-किसीके सिररूपो कमल और ओष्ठपुटरूपी दलको गीध अपनी चोंचसे चालित करता है, मानो जनोंको परितोषित करनेवाले राजाके ऋणके मूल्यको देख रहा है ॥२१॥ wwwwwwwwwwww २२ तब सहसा अश्वग्रीव वहां पहुंचता है, और इन्द्रको सतानेवाला वह कहता है कि और बताओ-बताओ, वह-वह मेरा दुश्मन नारायण कहां है ? तब नारायणने कहा, 'हे पृथ्वीराज, वह में तुम्हारा शत्रु केशव हूँ। हे न्यायहीन, आज यह जाना जायेगा कि हम दोनों के रूठनेपर कोन युद्धरंगमें प्रवेश कर मारता है और सिर काटता है ?' तब लक्ष्मीरूपी कुमुदिनीके पूर्ण चन्द्र अलकापुरीके स्वामी विद्याधरराजा, संग्रामरूपी स्त्रीसे रमणको इच्छा रखनेवाले मयूरग्रोवके ७. A गार; P गामु । ८. A उडिउ । ९. A गाउ; P°गामु । १०. A सुअरिउ; P सुअरिवि । ११. A पालियाई। १२. A°सामिणीहिं । १३. A कामिणोहिं। १४. A उट्ठउलदलु । २२. १. AP पुण्ण इंदेण । Page #281 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २३४ महापुराण [५२. २२.७ कण्णामुहालोयसुहदिण्णराएण भग्गो सि कि मित्त वरइत्तवाएण । रत्तो सि कि मूढ गयणयरबालाहि ओसरसु मा पडसु खग्गग्गिजालाहि । णवकंदकालिंदिभसलउलकालेण कोवारुणच्छेण भंगुरियभालेण । जम्मंतराबद्धबइराणुयंधेण पडिउत्तु पडिकण्हु चलगरुलचिंधेण । परदविणपरधरणिपरघरिणिकंखाइ णडिओ सि पाविट्ठ किं चोरसिक्खाइ । एवं पजंपंत कंपवियैमहिवट्ठ करिदंतपरिहँट्ठभुयदंडसुपवट्ठ । दप्पिट्ट णिरु रुह दट्ठोट्ठ भडजेट्ठ ते बे वि अभिट्ठ वईकुंठहयकंठ । ते बे वि मणिमउडकुंडलसुसोहिल्ल ते बे वि कोदंडमंडलविलासिल्ल । ते बे वि णं सीह लंबवियलंगूल ते बे वि णं लग्ग रंजंत सदूल । ते बे वि विसविसम ते बे वितडितरल ते बे वि मरुचवल ते बे वि कुलधवल । घत्ता-बेणि वि दाणणिहि सिरितोसविहि मयपरवस उज्झियभय ।। बेण्णि वि दीहकर गंभीरसर रणि लग्गे'णं दिग्गय ।।२२।। २३ दुवई-बेणि वि अच्छरच्छिविच्छोहणियच्छियबद्धमच्छरा ॥ बेणि विणं जलंतपलयाणल बेणि वि णं सणिच्छरा॥ यमुना पुत्र (अश्वग्रीव ) ने कहा कि हे मित्र, जिसमें कन्याके मुखालोकसे शुभ राग दिया गया है, ऐसी अभिनव वरकी बातसे क्या तुम भग्न हो गये हो? हे मूर्ख, विद्याधर बालामें तुम क्यों अनुरक्त हुए, तुम हट जाओ, तुम खड्गरूपी आगकी ज्वालामें मत पड़ो। (इसपर) श्रावण में और भ्रमरकुलके समान कृष्ण, तथा क्रोधसे अरुण आंखोंवाले, टेढ़े भालवाले, तथा जन्मान्तरके बँधे हुए बैरके अनुबन्धसे युक्त और चंचल गरुडध्वजवाले नारायण त्रिपृष्ठने प्रतिकृष्ण (अश्वग्रीव)से कहा-"दूसरेके धन-धरती और स्त्रीको आकांक्षा है जिसमें, ऐसी चोरशिक्षा द्वारा हे पापिष्ठ, तू क्यों प्रतारित है ?" यह कहते हुए और महीपृष्ठको कपाते हुए हाथोके दांतोंसे संघर्षित भुजदण्डोंसे प्रबल दर्पसे भरे हुए अत्यन्त क्रुद्ध, ओठ चबाते हुए योद्धाओं में बड़े वे दोनों प्रतिनारायण अश्वग्रीवसे भिड़ गये। वे दोनों ही मणिमय मुकुट और कुण्डलोंसे शोभित थे, वे दोनों ही धनुषमण्डलसे विलास करनेवाले थे। वे दोनों ही मानो लम्बो पंछवाले सिंह थे। वे दोनों ही इस प्रकार युद्ध में लग गये मानो गरजते हुए सिंह हों, वे दोनों विषसे विषम और बिजलीको तरह तरल थे, वे दोनों ही कुलधवल थे। ' घत्ता-वे दोनों ही दानको निधि, श्री और सन्तोषके विधाता, मदके वशीभूत और भयसे रहित थे। वे दोनों ही लम्बे हाथवाले गम्भीरस्वर रणमें इस प्रकार भिड़ गये मानो दिग्गज हों ॥२२॥ २३ वे दोनों ही देवांगनाओंके नेत्रोंकी चपलताको देखनेके लिए ईर्ष्या धारण करनेवाले थे। वे २. A कण्हो महा । ३. P गयणयलबालाहि । ४. AP °णुबंधेण। ५. A पडिलविउ । ६. कंपश्य महिपट्ट । ७. A पविहट्ठ। ८. P वइकुंत। ९. A रूजंतसद्दल । १०. A दोहरकर । ११. A लग्ग णं । २३. १. P°विच्छोहा णियच्छिय । Page #282 -------------------------------------------------------------------------- ________________ - ५२. २४.५] महाकवि पुष्पदन्त विरचित रिउणा ण णिविउ कण्हेण पट्टविउ। जहिं सप्पु तहिं गरुलु जहिं अग्गि तहिं सलिलु । जहिं सिहरि तहिं कुलिखें जहिं तुरउ तहिं महिसु। जहिं विडवि तहिं जलणु जहिं मेहु तहिं पवणु। जहिं रत्ति तहिं दियहु जहिं सीहु तहिं सरहु । जहिं कालु सोंडालु तहिं कुडिलुं दाढालु । केसरि पवित्थरइ णहरेहिं उत्थरइ। जहिं भीमु वेयालु तहिं मंतु असरालु। मुंजेवि कोवेण गोविंददेवेण। रिउणो णिहित्ताउ विज्जाउ जित्ताउ। . जुझेवि भूवेहिं पडिवक्खरूवेहिं । घत्ता-बहुरूविणिए सुरकामिणिए खगवइ भणिउ ण सक्कमि ।। हलहरसिरिहरहं पहरणकरहं माणु मलंतु चवक्कमि ॥२३॥ २४ __ महुं णियबाहुदडायरसावज व धगधगंति । ५ दुवई-जंपिउं हयगलेण किं केण वि तिहुयणि धीरु हीरए ।। महुँ णियबाहुदंडथिरसहयर पई किर काई कीरए । तेणेव भणेप्पिण मुक्क सत्ति मेहें चलविजु व धगधगात । गयणयलि एंति उरयलि घुलंति चल पलयकालजाल व जलंति । विप्फुरिय धरिय दामोयरेण संकेयागय णारि व गरेण । दोनों ही जलती हुई प्रलयाग्नि थे। वे दोनों ही मानो शनिश्चर थे। नारायण त्रिपृष्ठने जो तीर प्रेषित किया, शत्रु उसे नष्ट नहीं कर सका । जहां सांप है, वहां विष है, जहाँ आग है, वहाँ जल है, जहां पर्वत है, वहां वज्र है, जहाँ अश्व है, वहां महिष है, जहां वृक्ष है, वहां आग है, जहाँ मेघ है, वहां पवन है, जहां रात है, वहां दिन है, जहाँ सिंह है, वहां श्वापद है, जहाँ मतवाला कृष्णगज है, वहां क्रूर दाढ़ोंवाला सिंह फैलता है और नखोंसे उछलता है। जहाँ भीम वेताल है वहां विशाल मन्त्र है । क्रोधसे युक्त गोविन्ददेव (त्रिपृष्ठ ) ने शत्रुके द्वारा फेंकी गयी विद्याको, प्रतिपक्षरूप ( अश्वनीवरूप) राजाओंसे युद्ध कर जीत लिया। पत्ता-देवविद्या बहुरूपिणीने विद्याधर राजासे कहा कि हाथमें अस्त्र लेनेवाले बलभद्र और नारायण (विजय और त्रिपृष्ठ ) का मैं कुछ नहीं कर सकती, उनका मान मर्दन करते हुए चौंकती हूँ ॥२३॥ अश्वनीवने कहा, "क्या त्रिभुवन में किसीके द्वारा धैर्यका अपहरण किया जा सकता है, मेरे बाहुरूपी दण्डको स्थिर सहचरी तुम्हारे द्वारा यह क्या किया जा रहा है ?" उसने यह कहकर शक्ति छोड़ी जो मेघके द्वारा चंचल बिजलीकी तरह धकधक करती हुई, आकाशतलमें आती हुई उरतलपर व्याप्त होती हुई, चंचल प्रलयकालकी ज्वालाकी तरह जलती हुई, विस्फुरित वह, २. A कुडिसु । ३. A कोलु। ४. AP कुडिल । ५. A मंति। ६. A जॅझेवि; P जं जं वि । ७. P has पुणु before बहु । ८. AP मलंति चम । २४. १. P°सहयरए अवरि काई । २. AP पडति । ३. AP°जालेव पडंति। Page #283 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २३६ महापुराण [ ५२. २४. ६चंदणचच्चियकुसुमंचियंगु परिमलमिलंतगुमुगुमियभिंगु। उग्गमिउ णाई जेगखइ खयक पुणु पडिवक्खें करि लेवि चक्कु । बोल्लियउ पयावइपुत्तु एम्व एवहिं पई णउ रक्खंति देव । गोवालबाल अविवेयभाव ' दे देहि कण्ण मा मरहि पाव। इय भणिवि तेण घल्लिउ रहंगु तं पेक्खिवि केण ण दिण्णु भंगु । तं देवि पयाहिण पहेयतासु चडियउ दाहिणकरि केसवासु । गहगहियदिवायरलील वहइ णं हरिसुहमहिरुहकुसुमु सहइ। आयासहु णिव डिउ पुप्फवासु रिउ कहि पबोल्लिउ सो सहासु । संभरु तुहुं जिणवरणाहचरणु अहवा लँइ महुं पइसरहि सरणु । ता भणइ सुहडु रणरंगदुकु । हउं मण्णमि एउं कुलालचक्कु । घत्ता-पई पुणु मणि गणि चंगउ भणि भिक्खागयहु ससंकह ।। तिव्वछुहामहणु गरुयउं गहणु तिलखलखंडु वि रंकहु ॥२४॥ १५ दुवई-अज्ज वि सिसुमयच्छि महु अप्पिवि करि घणपणइसंधणं । मा पावहि कुमार तरुणत्तणि ताडणमरणबंधणं ॥ असहतेणं रिउणा दिण्णं ससवणसूलं दुश्वयणं । काउं वयणं डसियाहरयं भूभंगुरतंबिरणयणं । दामोदरके द्वारा उसी प्रकार पकड़ ली गयी, जिस प्रकार संकेतसे आयी हुई स्त्री मनुष्यके द्वारा पकड़ ली जाती है। तब शत्रुने हाथमें चक्र उठा लिया, जो चन्दनसे चचित और फूलोंसे अचित था, जिसके सौरभसे मिलकर भ्रमर गुनगुना रहे थे, जो ऐसा लगता जैसे विश्वके क्षयके लिए प्रलय सूर्य हो । और उसने प्रजापतिके पुत्रसे कहा-"इस समय देव भी तुम्हारी रक्षा नहीं कर सकते । हे अविचारशील गोपाल बालक, कन्या दे दे, हे पाप, स्वयं मत मर।" यह कहकर उसने चक्र छोड़ दिया। उसे देखकर किसने खण्डन नहीं दिया ( कोन आहत नहीं हुआ ), वह चक्र त्रासको आहत करनेवाले केशव (त्रिपृष्ठ) के हाथपर प्रदक्षिणा देकर चढ़ गया। वह राहुसे ग्रस्त सूर्यको लीलाको धारण करता है, मानो नारायणके सुखरूपो कल्पवृक्षके कुसुमकी तरह शोभित है, आकाशसे पुष्पवर्षा हुई । कृष्ण ( त्रिपृष्ठ )ने हंसीपूर्वक शत्रु ( अश्वग्रीव ) से कहा, तुम या तो जिनवरनाथके चरणोंका स्मरण करो, अथवा लो मेरो शरणमें आओ। तब युद्ध उत्साहसे भरा हुआ वह सुभट कहता है, मैं इसे कुम्हारका चक्र मानता हूँ। घत्ता-तुमने इसे मणि समझ लिया, ठीक ही कहा है कि भिक्षाके लिए आये हुए सशंक दरिद्र व्यक्तिके लिए भूखका नाश करनेवाला तिलखलका टुकड़ा भी भारी और दुर्लभ होता है ॥२४॥ २५ आज भी तुम शिशुमृगनयनी मुझे सौंपकर प्रगाढ़ स्नेह सन्धि कर लो। हे कुमार, तुम तारुण्य (यौवन) में ताडन-मरण और बन्धनको प्राप्त मत करो। इस प्रकार शत्रुके द्वारा दिये गये, ४. A जुगखयखयंकु; P जुगखइ खयक्कु । ५. A जाव । ६. A पहयरासु; P पहपयासु । ७. A लहु । २५. १. AP पणयसंघणं । Page #284 -------------------------------------------------------------------------- ________________ -५२. २५. २२] महाकवि पुष्पदन्त विरचित २३७ हरिणा दित्तं चित्तं चकं सहसाराधाराजलियं हयगलगलकंदलयं दलियं वहलं कीलालं गलियं । कुंडलकिरणं फुरियकवोलं के कुंभिणिवलयइ पडियं णं सरसं तामरसं सदलं कालमरालाहिवखुडियं । कामिणिकारणि कलहसमत्तो परणरकरसरहयगत्तो आसग्गीवो वियलियजीवो सत्तमणरयं तं पत्तो। णहयरविसहरमहिमणुएहिं सामि भणेप्पिणु संगहिओ जयजयरवरिउ मुवणेहिं हरि हलहरसहिओ महिओ। हिंडिवि दाहिणभरहतिखंडे णरवइ सवसं कोण णिओ मागहदेवो वरतणुणामो अवि य पहासो तेण जिओ। दिणयरकित्ति हुयवहजडिणा हलिणा तस्स पयावइणा वद्धो पट्टो विउले भाले मंगलविलसियजणरइणा । परपयावाकंपियमुवणो असिवरदूसियरमई णियकुल कुवलयकुवलयबंधू जाओ कण्हो चकवई । उहसेढीणं रोयं काउं जलणजडिं ससुरं खयरं आओ गुरुयणपंणवियसीसो पुणरवि तं पोयणणयरं। घत्ता-लइ दीसह पवरु एउ वि अवरु णिच्छयणियमणिउत्तरं ॥ इह सुपुरिसचरित्रं बहुगुणभरि जगि आढत्त समत्तउं ।।२५।। अपने कानोंके लिए त्रिशूलके समान दुर्वचनोंको सहन नहीं करते हुए, तथा अपना मुख दंशिताधरों एवं भौंहोंसे भंगुर और लाल आंखोंवाला कर नारायण दीप्त हजारों आराओंकी धाराओंसे प्रज्वलित चक्र छोड़ दिया। अश्वग्रीवका गला और कपाल कट गया। प्रचर रक्त बह गया। कुण्डलकी किरणोंवाला स्फुरित कपोलवाला उसका मस्तक भूमण्डलपर इस प्रकार गिर पड़ा मानो कालरूपी हंसराजके द्वारा तोड़ा गया सदल सरस रक्तकमल हो । स्त्रीके लिए कलहसे मतवाला, शत्रु मनुष्यके हाथके चक्रसे आहत, नष्टजीव अश्वग्रीव सातवें नरक गया। विद्याधरों, नागों और मनुष्योंने स्वामी कहकर उस (त्रिपृष्ठ ) को स्वीकार कर किया। विश्वोंने जयजय शब्दसे पूरित तथा बलभद्र सहित हरिकी पूजा को । दक्षिण भरतखण्ड में भ्रमण कर उसने किस राजाको अपने वशमें नहीं किया ? वरतनु नामका मागधदेव और प्रभासको भी उसने जीत लिया। दिनकरके समान कीर्तिवाले ज्वलनजटी, बलभद्र और प्रजापति तथा जिसमें मंगलके कारण लोगोंकी विलसित है ऐसे अर्ककीतिने उसके विशाल भालपर पट्ट बांध दिया। जिसके प्रचुर प्रतापसे भुवन प्रकम्पित है, जिसके असिवरसे क्रूरमति दूषित कर दिया है, जो अपने कुलरूपी कुमुद और पृथ्वीमण्डलका बन्धु है, ऐसा वह त्रिपृष्ठ चक्रवर्ती हो गया। अपने ससुर विद्याधर ज्वलनजटीको विजयाकी दोनों श्रेणियोंका राजा बनाकर गुरुजनोंके प्रति अपना सिर झुकानेवाला वह फिर उस पोदननगर पहुंचा। पत्ता-लो यह दूसरी बात भी महान दिखाई देती है कि निश्चयरूपसे अपने मनमें कहा गया बहुगुणोंसे भरित जगमें आदृत सुपुरुष-चरित समाप्त हो गया ॥२५॥ २. A पित्तं दित्तं चित्तं। ३. P कलहु। ४. A गरए तं पत्तो। ५. AP पूरिय। ६. A पवरं । ७. A कुरगई; P कूरमई। ८. AP णियकुलणहयल । ९. A राउ काउं । १०. A पणमियं । Page #285 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २३८ महापुराण . [५२. २६. १ २६ दुवई-मणहरभद्दलक्खणायारहं णहयललग्गकुंभहं । दोचालीसलक्ख मायंगहं अरिकरिवरणिसुंभहं ।। तेत्तिय रह रणभरजोत्तियाउ पायालहु कोडिउ तेत्तियाउ। जलथलगयणंतरजंगमाहं जेवकोडिउ जाइतुरंगमाहं । जंभारिपीलुलीलागईउ महएविउ अट्ठ महासईउ। णिरु पीणपीवरुण्णयथणीहिं सोलह सहास सीमंतिणीहिं । सोलह सहास देसंतराह सोलह सहास णाडयवराहं। सोलह सहास धरि पत्थिवाह सोलह सहास खेडाहिवाहं । तह णव सहास मेच्छाहिवाहं पण्णास सहस दोणामुहाई। चठवीस सहस वरपट्टणाह सत्तेव सहस संवाहणाहं । छत्तीस सहस साहिय पुराह वसुसमसहास जक्खामराह । पञ्चंतणिवासहं णिवइ णयेई पण्णास णिलत्तई तिण्णि सयई। गिरितरुजलवाहिणिसंगमाई चउदह वणदुग्गई दुग्गमाई । गामहं कोडिउ अडदाल जासु किं अक्खमि संपय वप्प तासु । जा णाम सयंपह इट्ठणारि जा णहयरणाहहु हुइय मारि ।। घत्ता-तहि परमेसरिहि रइरससरिहि हरिणा हरिसरवण्णा ।। पहिलउ सिरिविजउ बीयउ विजउ तणय दोण्णि उप्पण्णा ॥२६।। १५ जो सुन्दर भद्रलक्षण धारण करनेवाले हैं, जिनके कुम्भस्थल आकाशतलसे लगते हैं, और जो शत्रुगजोंका नाश करनेवाले हैं, ऐसे दो लाख चालीस हजार हाथी उसके पास थे। उतने ही युद्धभारमें जोते हुए रथ थे। पैदल सैनिक भी उतने ही करोड़ थे। जल, थल और आकाशमें चलनेवाले नौ करोड़ घोड़े थे। ऐरावतकी चालकी तरह चलनेवाली आठ महासती देवियां थीं। अत्यन्त स्थूल और उन्नत स्तनोंवाली सोलह हजार स्त्रियाँ थीं। सोलह हजार देशान्तर, सोलह हजार नाटकवर, सोलह हजार गृह पार्थिव ? सोलह खेडाधिपति, नौ हजार म्लेच्छ राजा, पचास हजार द्रोणमुख, चौबीस हजार उत्तम पट्टन, सात हजार संवाहन, छत्तीस हजार और यक्ष अमरोंके आठ हजार नगर कहे गये हैं। तीन सौ पचास सोमान्त राजा उसके प्रति नत थे। गिरितरुओं और नदियोंसे युक्त चौदह दुर्गम वन दुर्ग थे। जिसके पास एक करोड़ अड़तालीस गांव थे, मैं अकिंचन कवि उसका क्या वर्णन करूं? जो उसकी स्वयंप्रभा नामको प्रिय पत्नी थो, वह विद्याधरोंके लिए मारी सिद्ध हुई। ___ पत्ता-रतिरूपी रसकी नदी उस परमेश्वरीसे हर्षसे सुन्दर हरि ( त्रिपृष्ठ ) को दो पुत्र उत्पन्न हुए-पहला श्रीविजय और दूसरा विजय ।।२६।। २६. १. A णहयरग्ग। २. A णव भणिय: जाई । ३. P णडणयवराहं । ४. AP तहो । ५. A णिवइ णियई । ६. A°संगमाहं । ७. दुग्गमाहं । Page #286 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २३९ -५२. २७. १५ ] महाकवि पुष्पदन्त विरचित २७ दुवई-ता सिहिजडि सपुत्तु परिपुच्छिवि हरि हलहर पयावई ।। __ गउ रहणेउरम्मि दढं जिणगुणसुमरणसमियदुम्मई ।।। सो तहिं ए एत्थु वसंत जांव बहुकालहिं णेहणरु ढुक्कु तांव । सो पुच्छिउ हरिताएण कुसलु सुहुं अच्छइ जिणपयपोमभसलु । असहायसहेजड सञ्चसंधु खयराहिउ गुणि महु परमबंधु । तं सुणिवि तेण खयरेण उत्तु मेल्लिवि खगणिवचक्केसरत्तु । थिरु धरिवि पंचपरमेट्ठिसेव महिवइ ससुरउ पावइउ देव । एयई वयणई आयण्णियाई सजणचरियई मणि मण्णियाई। ता एण सहहि संसं णियाई इंदियसुहाई अवगणियाई । सणएण पयावइपत्थिवेण आउच्छिय तणुरुह बे वि तेण । अगुहुत्तउं इच्छिउं पुत्तसोक्खु एंव हिं संसाहमि परममोक्खु । लइ जामि रण] पावज लेमि वयसंजर्मभारहु खंधु देमि । हरिहलहरमउडणिरुद्धपाउ पत्थिउ थिउ केंव वि णाहिं ताउ । णिम्मुकमाणमायामएहिं णरणाहहं सहुं सत्तहिं सएहिं । परिसेसिवि मंदिरमोहवासु वउ लइउं पासि पिहियासवासु। तब ज्वलनजटी अपने पुत्र नारायण, बलभद्र और प्रजापतिसे पूछकर, जिनके गुणोंके स्मरणसे जिसकी दुर्मति शान्त हो गयी है, ऐसा वह राजा अपने रथनूपुर नगर चला गया। जब वह वहां और ये यहां इस प्रकार रह रहे थे तो बहुत समयके बाद एक विद्याधर वहां आया । नारायणके पिताने उससे कुशल समाचार पूछा कि जिनवरके चरणकमलोंका भ्रमर असहायोंकी सहायता करनेवाला, सत्यप्रतिज्ञ, गुणी विद्याधर राजा मेरा श्रेष्ठ बन्धु सुखसे तो है। यह सुनकर उस विद्याधरने कहा कि विद्याधरराज और चक्रेश्वरत्व छोड़कर पंचपरमेष्ठोकी स्थिर सेवा स्वीकार कर वह ससुर राजा हे देव, प्रवजित हो गये हैं। राजाने ये वचन सुने और सज्जनके चरित्रोंको उसने माना। उसने सभामें इसकी प्रशंसा की तथा इन्द्रिय सुखोंकी निन्दा की। उस न्यायशील राजा प्रजापतिने अपने दोनों पुत्रोंसे पूछा कि मैंने इच्छित पुत्रसुखका अनुभव कर लिया है, इसे समय अब परम सुखकी साधना करूंगा। लो मैं प्रव्रज्या लेकर वनमें जाता हूँ। तथा व्रत और संयमके भारको में अपना कन्धा दूंगा। बलभद्र और नारायणके मुकुटोंसे जिसके पैर अवरुद्ध हैं, ऐसा वह राजा और पिता किसी भी प्रकार रुका नहीं। मान-माया और मदसे रहित सात सौ राजाओंके साथ घरके मोहवासका परित्याग कर उसने पिहिताश्रव मुनिके पास व्रत ग्रहण कर लिया। २७. १. AP णहयरु । २. A सुह अच्छ।। ३. A रणि । ४. AP संजमु । Page #287 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २४० महापुराण [ ५२. २७. १६घत्ता-थिउ परिहरिवि जणु पयसेवि वणु णिश्चमेव णिच्चलमइ ॥ अट्ठ वि णिद्धणिवि' कम्मई जिणिवि गउ सिवपयहु पयावइ ॥२७॥ २८ दुवई-एत्तहि णिसियविसमअसिधारातासियणरवरिंदहो । __ चरासीदि लक्ख गय वरिसह तहिं पुरवरि उविंदहो। दीहासीचावपमाणगत्तु अण्णहिं दिणि भोयसुहें अतित्तु । णिद्धम्मचित्तु णिल्लुत्तणाणु वड्ढंतमहंतरउद्दझाणु। जिह सुत्तउ तेंव जि कण्हलेसु मुउ कण्हु जमा किर को मैं वेसु । उप्पणउ तमतमपहि तमोहि पंचविहदीहदूसहदुहोहि। तेत्तीससमुहपमाणु आउ पंचसयसरासणतुंगकार। जायउ णारउ णारयहं गम्मु भणु केवणु ण मारइ भीमकम्मु । सई रुयइ सयपह कंत कंत अतुलबल देव हयगलकयंत । उछुट्ठि णिहालहि सुहिमुहाई दीहइ णिदइ सुत्तो सि काई। बलएवहु धाहारुण्णएण लोय वि रुयंति कारुण्णएण । णिसुणेवि साहुवयणामयाई णिज्झाइवि जिणपयपंकयाई। पियविरहें हुयवह पइसरंति वारेवि सयंपह अणुमरंति । घत्ता-लोगोंका परित्याग कर निश्चल और निश्चित मति वनमें प्रवेश कर प्रजापति आठों ही कर्मोको नष्ट कर और जीतकर शिवपदको प्राप्त हुआ ॥२७॥ १० २८ यहाँपर पैनी और विषम असिधारासे जिसने नरवर राजाओंको त्रस्त किया है, ऐसे उस उपेन्द्र त्रिपृष्ठके उस नगरमें चौरासी लाख वर्ष बीत गये । उसके शरीरका प्रमाण अस्सी धनुष था। एक दिन वह भोगसुखसे अतृप्त हो उठा, धर्मसे रहित चित्त और ज्ञानसे लुप्त उसका रौद्रध्यान निरन्तर बढ़ रहा था। जैसे ही वह सोया वेसे ही कृष्णलेश्यावाला वह कृष्ण (नारायण त्रिपुष्ठ) मर गया। यमका द्वेष्य कौन नहीं होता। वह पांच प्रकारके दीर्घ दुखोंके समूह अन्धकारसे भरे तमतमप्रभा नगरमें उत्पन्न हुआ। उसको आयु तैंतीस सागर प्रमाण थी। पांच सौ धनुष प्रमाण ऊँचा उसका शरीर था। नारकियोंके लिए गम्य वह नारकी हुआ। बताओ भीमकर्म किसको नहीं मारता । स्वयंप्रभा स्वयं, "प्रिय-प्रिय' कहकर रोती है कि हे अतुलबल देव, अश्वग्रीव ! उठोउठो सुधीजनोंके मुखोंको देखो, तुम लम्बी नींदमें क्यों सोये हुए हो? बलभद्रके दहाड़ मारकर रोनेसे करुणाके कारण लोग भी रो पड़ते हैं। फिर साधु वचनामृतको सुनकर जिनवरके चरणकमलोंका ध्यान कर प्रिय विरहके कारण आगमें प्रवेश करती हुई तथा अनुशरण ( पतिके बाद ५. AP पइसरिवि वणु। ६. A णिविवि । २८. १. AP चउरासी वि। २. AP वडंतरउद्दमहंतझाणि । ३. P को ण दोसु । ४. A विहपंचदीह ५. AP केम ण मारह । ६. A संख्यह। ७.P पियविरहएं। Page #288 -------------------------------------------------------------------------- ________________ -५२. २८. १७ ] महाकवि पुष्पदन्त विरचित सिरिविजयहु बंधिवि रायपट्ट वणु रायसहासहिं सहुँ पयट्ट । गुरु करिवि महारिसि कणयकुंभु तर चिण्णउ सीरिं रईणिसुंभु । पत्ता-गउ मोक्खहु विजउ जिर्णधम्मघउ तेएं भरहु भडारउ ।। सोसियमोहरसु मुवणंतजसु पुप्फयंतसरवारउ ।।२८।। इय महापुराणे तिसट्टिमहापुरिसगुणालंकारे महामञ्चमरहाणुमण्णिए महाकपुप्फयंतविरहए महाकम्चे विजयतिविट्ठहयगीवकहंतरं णाम दुवण्णासमो परिच्छे ओ समतो ॥५२॥ मरण) करती हुई स्वयंप्रभाको मनाकर, श्रीविजयको राजपट्ट बांधकर, एक हजार राजाओंके साथ वह वनमें चला गया। रतिका नाश करनेवाले महाऋषि कनककुम्भको अपना गुरु बनाकर बलभद्रने तप ले लिया। पत्ता-जिनधर्म दृढ़ तेजसे नक्षत्रोंको ढकनेवाला, आदरणीय मोहरसका शोषण करने. वाला, भुवनकी सीमाओं तक यशवाला, कामदेवके बाणोंका नाश करनेवाला विजय मोक्षके लिए गया ॥२८॥ इस प्रकार वेसठ महापुरुषों के गुणालंकारोंसे युक्त महापुराणमें महाकवि पुष्पदन्त __ द्वारा विरचित एवं महामव्य मरत द्वारा अनुमत इस महाकाव्यका बावनवाँ परिच्छेद समाप्त हुआ ॥५२॥ ८. A सीरें। ९. AP रयणिसंभु । १०. A जिणधम्मरमओ। Page #289 -------------------------------------------------------------------------- ________________ संधि ५३ पणविवि देवहु णेयंतणिउंजियदिहिहि ॥ वासवपुज्जहु सिरिवासुपुज्जपरमेट्ठिहि ॥ ध्रुवकं । जो कल्लाणसयालओ हरिणवंदपहुआसणो कणयरकविलणिवारणो दुविहकम्मकयणिज्जरो जो णिण्णासियभयजरो जेस्स अणंतं वीरियं जो ण महइ दियवइरियं सुत्तं जस्स ण मंसए अरइयरइणिवाणओ बारहमो तित्थंकरो जो जम्मबुहिपोयओ बुज्झियवत्थुवियप्पयं भणिमो तस्स महाकह मायाभावसयालओ। कुणयकुडंगहुयासणो। अजुणवारिणिवारणो। सुहयावयवो णिज्जरो। दाणालो जिणकुंजरो। अवि ण हणइ णियवइरियं । मज्जे जेण ण ईरियं । पाए जस्स णमंसए। _सकेऊ णिवाणओ। पणयाणं तित्थंकरो। वसिकयह रिकरिपोयओ। तं णमिउं परमप्पयं। चिण्णं तेण तवं कह। सन्धि ५३ . जिनकी दृष्टि एकान्तमें नियुक्त नहीं है, और जो इन्द्रके द्वारा पूज्य हैं, ऐसे श्री वासुपूज्य देवको मैं प्रणाम करता हूँ। जो कल्याण परम्पराओं के शोभन घर हैं, जिनमें मायाभाव सदाके लिए लय हो गया है, जिनके आसनमें सिंह है. कनयरूपी वक्षोंके लिए जो अग्नि हैं, जो कणयर और कपिलका निवारण करनेवाले और श्वेत छत्रको धारण करनेवाले हैं, जिन्होंने दो प्रकारके कर्मोंकी निर्जरा की है, जो सुन्दर शरीरावयववाले और जरासे रहित हैं, जिन्होंने भयरूपी ज्वरका नाश कर दिया है, जो दानके घर और श्रेष्ठ जिन हैं, जिनके पास अनन्तवीर्य है, फिर भी जो अपने शत्रुका हनन नहीं करते, जो ब्राह्मणोंके वेदोंका सम्मान नहीं करते, जिनका सिद्धान्त न मदिरामें है और न मांसमें, जिसने रतिसुखकी रचना नहीं की है, जो बाण रहित है, ऐसा कामदेव जिनके चरणोंमें नमस्कार करता है, जो प्रणतोंके लिए तीर्थ बनानेवाले हैं, जो बारहवें तीर्थकर हैं, जो जन्मरूपी समुद्रके लिए जहाज हैं, जिन्होंने अश्व-गजादिके समूहको वशमें कर लिया है, जिन्होंने पदार्थोंके भेदको १. १. भवजरो । २. AP जस्साणंतं । ३. A णिहणइ । ४. AP झसकेओ । Page #290 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २४३ -५३. २. १३ ] महाकवि पुष्पदन्त विरचित कुलबलजाईसामयं मोत्तुं जम्मं सामयं । काउं देहं खामयं जिह लद्धं मोक्खामयं । घत्ता-तिह हउं भासमि सुणि सेणिय किं सिरिगावें ।। जिणगुणचिंतइ चंडालु वि मुच्चइ पावें ॥ १॥ पुक्खरवरदीवद्धए मणुउत्तरगिरिरुद्धए। तडउग्गयसुरदारुणो इंददिसासियमेरुणो। पुष्वविदेहे जणरुई पीणियखगलसंतई। तत्थ वारिमंथरगई सीया णाम महाणई । पायवसुरहिसमीरए तीए दाहिणतीरए। संतोसियणरवरमई वरदेसो वच्छावई। घरसिरकयणहसाइयं उच्छवपडहणिणाइयं । धुयधयमालाराइयं रयणउरं रयणाइयं । तहिं राओ पउमुत्तरो जो सीलेण जगुत्तरो। देवी तस्स मयच्छिया णामेणं धणलच्छिया। दोण्हं जणियाणंगओ दीहो कालो णिग्गओ। तलतमालतालीघणे आसीणो पुरउववणे । सत्तुमित्तसमचित्तओ अरुहो तित्थपवत्तओ। समझ लिया है, ऐसे उन परमात्माको मैं नमस्कार करता हूँ। उनकी महाकथाको मैं कहता हूं कि किस प्रकार उन्होंने तप स्वीकार किया। किस प्रकार कुल-बल-जाति और लक्ष्मीके मद और व्याधिसहित जन्मको छोड़कर और शरीरको कृश बनाकर मोक्षरूपी अमृत उन्होंने प्राप्त किया। घता- उस प्रकार मैं कहता हूँ, हे श्रेणिक ! लक्ष्मीके गर्वसे क्या, जिनके गुणोंका चिन्तन करनेसे चाण्डाल भी पापसे मुक्त होता है ॥१॥ मानुषोत्तर पवंतसे अवरुद्ध पुष्करार्ध द्वीप है। जिसके तटपर देवदारु वृक्ष उगे हुए हैं ऐसे पूर्वदिशामें आश्रित पूर्वमेरुके पूर्व विदेहमें लोगोंको अच्छी लगनेवाली, पक्षिकुलकी परम्पराको सन्तुष्ट करनेवाली, जलसे मन्द-मन्द बहनेवाली सीता नामकी नदी है। उसके वृक्षोंसे सुरभित पवनवाले, दक्षिण तीरपर नरश्रेष्ठोंकी मतिको सन्तुष्ट करनेवाला वत्सकावती देश है। उसमें रत्नपुर नामका नगर है, जो गहरूपी सिरोंसे आकाशका आस्वाद करनेवाला है, जिसमें उत्सव नगाड़ोंका शब्द हो रहा है, जो हिलती हुई पताकाओंसे शोभित है और रत्नोंसे विजटित है। उसमें पद्मोर नामका राजा था जो शीलमें विश्वमें श्रेष्ठ था। मृगके समान नेत्रवाली उसकी धनलक्ष्मी नामकी देवी थी। कामदेवको जाननेवाले उनका बहुत-सा समय बीत गया। तल, तमाल और ताली वृक्षोंसे सघन नगर-उपवनमें विराजमान, शत्रु और मित्रमें समान चित्त रखनेवाले तीर्थ२. १ A जणरई । २. A खगउडसंतई । ३. AP तेत्थु । ४. P तहिं मि राउ पउमुत्तरो। Page #291 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [५३. २. १४ महापुराण धम्मस लिलसिंचियधरो महिओ तेण जुयधरो। मुणिओ वत्थुविभेयओ उप्पण्णउ णिवेयओ। दाउं परिपालियखमं धणमित्तस्स कुलकम। सह णिवेहिं साहियमणो सममण्णियतणकंचणो। जाओ राओ मुणिवरो गिरिगहणे लंबियकरो। चरइ तवं सो जेरिसं को किर वण्णइ तेरिसं। घत्ता-णिरु णिपिहमइ परमेसर पंथहु लग्गउ ।। जिह देहे रिसि चित्तेण वि तिह सो जग्गउ ।। २॥ २० १० माणसे असक्कयाई पंच पंच एक्कयाई। बुज्झिउं सुयंगयाई ताविउ णियंगयाइं। इंदियाइं पीडिऊण दुक्कियाइं साडिऊण। अज्जिऊण चारु चित्तु तित्थणाहणामु गोत्तु । भाविऊण संतणाणु झाइऊण धम्मझाणु। उज्झिऊण खाणु पाणु तेण मुकुझ त्ति पाणु । णिग्गओ सरीरयाउ णं रईसरीरयाउ। जम्मसायरे पडंतु दुक्खविब्भमे घडंतु। चंदकंतकंतिमुक्ति जायओ महंतसुकि। सोलसण्णवप्पमाउ पोमलेसु सुब्भतेउ। प्रवर्तक धर्मरूपी जलसे धरतीको सिंचित करनेवाले अरहन्त युगन्धरकी उसने पूजा की। पदार्थके भेदको उसने समझा। उसे निर्वेद उत्पन्न हो गया। जिसमें पृथ्वीका परिपालन किया जाता है, ऐसी कुलपरम्परा ( कुलराज्य ) अपने पुत्र (धनमित्र ) को देकर, राजाओंके साथ अपने मनको साधते हुए, तृण और स्वर्णको समान मानते हुए वह राजा मुनिवर हो गया। गहन वनमें अपने हाथ लम्बे कर वह जिस प्रकारके तपका आचरण करता है, उसका वैसा वर्णन कौन कर सकता है ? घत्ता-अत्यन्त निस्पृह-मति वह परमेश्वर अपने मार्गपर लग गये। जिस प्रकार वह शरीरसे ऋषि ( नंगे ) थे उसी प्रकार मनसे भी ॥२॥ अचिन्तित पाँच पापों और इन्द्रियोंको एक किया। श्रुतांगोंको समझा। अपने अंगोंको सन्तप्त किया। इन्द्रियोंको पीड़ित कर, दुष्कृतोंको नष्ट कर, सुन्दर विचित्र तीर्थकर नामका गोत्र अजित कर, अपने मनमें ज्ञानको भावना कर, धर्मध्यानका ध्यान कर, खान-पान छोड़कर उसने शीघ्र प्राणोंका त्याग कर दिया। शरीरसे इस प्रकार निकला मानो रतिरूपी नदीके वेगसे निकला हो। जन्मरूपी सागरमें पड़ता हुआ, दुःखोंके विलासमें होता हुआ, चन्द्रकान्तकी कान्तिके समान सफेद महाशुक्र विमानमें उत्पन्न हुआ। सोलह सागर प्रमाण आयुवाले उसकी पद्मलेश्या थी, और वह ५. A देहेण । ३. १ A ताविओ। Page #292 -------------------------------------------------------------------------- ________________ - ५३. ४. १३ ] हारदार सोहमाणु अट्ठअट्ठपक्सासु चोत्थभूयलंत लक्खु - सोलह सहसहं गय वरिसहं एक्कसु मुंजइ || जो सो सुरवरु बुहियवरं किं णउ रंजइ ॥३॥ ४ घन्ता महाकवि पुष्पदन्त विरचित लेसमासजीवियम्मि जक्खणाहु भासुरेण जंबुदीवि भाणुभासि दोक्खलक्खलोट्टणम्म अत्थि दव्वपुज्जराउ तस्स पत्ति कामवित्ति ता होईदिदियारि जाहि देव सोक्खजुत्ति णिम्मियं पुरं वरेहिं कंजछण्णवावियाहिं फुलैर्गुछवच्छ तीरिणीतला एहिं हटिंचरेहिं अट्ठअद्धहत्थमाणु । पुण्णचंद संणिहासु | सद्दजायकामसोक्खु । दिव्व पुंगमे थियम्मि । बोल्लिओ सुरेसरेण । भारहम्मि अंगदेसि । चंपणापट्टणम | सत्तुसीसदिण्णपाठ । वल्लहा जयावइ त्ति । अंगओ अहम्महारि । ता धणाहिवेण क्षत्ति । मोत्तिएहिं कब्बुरेहि | दीहियाहिं खाइयाहि । कूवएहिं कच्छएहिं । चित्तदारभायएहिं | गामगोहदुच्चरेहिं | २४५ १५ शुभ्र तेजवाला था । हार-डोरसे शोभित चार हाथ प्रमाण शरीर, आठ-आठ पक्षमें श्वास लेनेवाला और पूर्णचन्द्रके समान मुखवाला। चौथी नरकभूमिके अन्त तक देखनेवाला ( अवधिज्ञानसे ); उसे शब्दमात्र से कामसुख मिल जाता था । १० घत्ता - जो, जब सोलह हजार वर्ष निकल जाते तो एक बार भोजन करता, वह देववर पण्डितोंके हृदयका रंजन क्यों नहीं करता ? ॥३॥ ४ जब दिव्यशरीरमें स्थित उसका छह माह जीवन शेष रह गया, तो भास्वर देवेन्द्रनाथने यक्षनाथसे कहा कि 'सूर्यसे प्रकाशित जम्बूद्वीपके भारतमें अंगदेशके लाखों दुःखोंको नष्ट करनेवाले चम्पा नामक नगर में शत्रुओंके सिरपर पैर रखनेवाला वसुपूज्य नामका राजा है, उसकी पत्नी ( प्रिया ) जयावती कामवृत्ति है । उन दोनोंके इन्द्रियोंका शत्रु और अधर्मका हरण करनेवाला पुत्र होगा । इसलिए सुखयुक्तिवाले हे देव, तुम जाओ ।' तब कुबेरने शीघ्र जाकर श्रेष्ठ चित्र-विचित्र मोतियोंसे नगरकी रचना की । कमलोंसे आच्छादित वापियों, लम्बी-लम्बी खाइयों, फूलोंके गुच्छेवाले वृक्षों, कूपों, कच्छों (कछारों), नदियों, तालाबों, चित्रित द्वारभागों, बाजारों, द्यूतगृहों, चौराहों, ग्राम्य २. Paar | ४. १. जंबुदीवभाणुभासि । २. A होहि इंदियारि; P होहिदिदियारि । ३. A देहि सोक्ख । ४. AP फुलगोच्छ । Page #293 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [५३.४.१४ महापुराण दीहरत्थमग्गएहिं वोममग्गलग्गएहि । धूवगंधसुंदरेहिं सत्तभूमिमंदिरेहिं । घत्ता-एहउ सोहइ जं पुरु तहिं घरि सुहं सुत्तइ । सिविणयसंतइ पविलोइय पंकयणेत्तइ ।। ४ ॥ हत्थि दाणवारिवारत्तमत्तछप्पओ गोवई विसाणघायभग्गसालिवप्पओ। केसरी मयंधगंधकुंभिकुंभदारणोणक्खजोण्हियामिलंतमोत्तियंसुवारणो। हंसकामिणीहिं सेवियारविंदवासिरी । पुंडरीयवामणेहिं सिंचिया महासिरी। पारियायपोमपोभलं परायसंभुयं मत्तभिंगसंगयं ललंतमालियाजुयं । णासियंधयारओ वरो विहावरीवई कंजबंधवो सरम्मि दिण्णपोमिणीरई। पेमै भला चला णिरंतरं वियारिणो कीलमाणया महासरंतरे विसारिणो । वारिवारपूरियं सरोरुहेहिं अंचियं कुंभजुम्मयं पवित्तचंदणेण चच्चियं । पंकयायरो चलंतलच्छिणेउरारवोणीरघुम्मिरो तरंगभंगुरो महण्णवो। सीहेमंडियासणं रणंतकिंकिणीसरं इंदमंदिरं वरं महाफणीसिणो घरं । १० पुंजओ मणीण दित्तिरंजियावणीयलो धूमचत्तओ पलित्तओ सिहाचलोणलो। प्रमुखोंके लिए चलनेमें कठिन लम्बी गलियों और मार्गों और आकाशमार्गसे लगे हुए धूप-गन्धसे सुन्दर सातभूमिवाले घरोंसे घत्ता-वह नगर शोभित था। वहां घरमें सुखसे सोती हुई कमलनयनी जयावती स्वप्नमाला देखती है। ॥४॥ मदजल के प्रवाहमें अनुरक्त मत्त भ्रमर जिसपर हैं, ऐसा हाथी जिसने सोंगोंके आघातसे क्षेत्रखण्डको खोद डाला है, ऐसा गोपति (बैल); मदान्ध गन्ध गजके कुम्भस्थलका विदारण करनेवाला तथा नखोंकी ज्योतिसे मिलती हुई मोतियोंकी किरणोंका निवारण करनेवाला सिंह, हंसिनियोंके द्वारा सेवित, कमलोंमें निवास करनेवाली, पुण्डरीक और वामन दिग्गजोंके द्वारा अभिषिक्त महालक्ष्मी; पारिजात और कमलोंसे मिश्रित, परागकी भूमि, मतवाले भ्रमरोंसे युक्त विलसित पुष्पमाला युग्म; जिसने अन्धकारका नाश किया है ऐसा श्रेष्ठ चन्द्रमा, सरोवरमें जिसने कमलिंनियोंको कान्ति दी है ऐसा कमलबन्धु (सूर्य); प्रेमसे विह्वल, चंचल निरन्तर विचरण करनेवाली क्रीड़ा करती हुई महासरोवरमें मछलियां; जलसमूहसे पूरित, कमलोंसे अंचित, पवित्र चन्दनसे चर्चित कुम्भयुगल; जिसमें चलती हुई लक्ष्मीके नूपुरोंका शब्द हो रहा है ऐसा सरोवर तरंगोंसे भंगर और जलसे आलोडित समद्रा सिंहोंसे अलंकृत आसन ( सिंहासन ); जिसमें किकिणियोंका स्वर है ऐसा इन्द्रविमान और महानागका श्रेष्ठ घर। जिसने अपनी दीप्तिसे अवनीतलको रंजित किया है ऐसा मणियोंका समूह; धूमसे रहित, शिखाओंसे चंचल प्रदीप्त आग। ५. AP वोमधामलग्गएहिं । ६. A सुहि सुत्तइ । ५. १. A°रंतमत्त । २. A हिमाहिवो णिसावई। ३. A पिंमविभला। ४. AP तारवारिपूरियं । ५. A सीवी ढियं रणंत । Page #294 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २४७ -५३.७.३] महाकवि पुष्पदन्त विरचित धत्ता-सिविणय जोइवि देविइ णियणाहह भासिउं । तेण वि तप्फलु णिञ्चप्फलु तहि उवएसिउं ॥५॥ णाणचक्खुणा जो णिरिक्खए जो जयं असेसं पि रक्खए। पोसए पिए दुव्वसामिए सुंदरी हले मज्झखामिए । सो तुमम्मि होही जिणेसरो भवजीवराईवणेसरो।। सक्कपेसिया देविया सिरी कति कित्ति बुद्धी सई हिरी। . आगया घरं देहसोहणं ताहिं तम्मि तिस्सा कयं घणं । तिण्णि तिणि मासे धणी वसो वुट्ठओ सुर्वण्णंभपाउसो । मेहजाललीलापयासए पावणम्मि आसाढमासए । छ?ए दिणे किण्हपक्खए तित्थणाहसंखम्मि रिक्खए। चरणकमलजुयणवियपण्णओ गब्भकंजकोसे णिसण्णओ। पुणु पयत्थसममासमेरओ णिच्च सवइ कणयं कुबेरओ । धत्ता-चउसंखाहिइ जलणिहिपण्णासइ ढलियइ ॥ पल्लहु तिजइ भायम्मि धम्मि परिगलियइ ॥६॥ गइ सेयंसइ मासइ फग्गुणि कंपियतिहुवणि सिवसरहंसइ । पक्खइ तमघणि । चउदहामि दिणि। पत्ता-स्वप्नों को देखकर देवीने अपने स्वामीसे कहा और उसने भी उसे उसका नित्यफलवाला-फल बताया ॥५॥ जो ज्ञानरूपी आँखसे देखते हैं, जो अशेष जगकी रक्षा करते हैं, हे दुबकी तरह श्यामांगी, कृशोदरी सुन्दरी, पोषण देनेवाली प्रिये, ऐसे वह भव्य जीवरूपी कमलोंके सूर्य जिनेश्वर तुममें उत्पन्न होंगे। इन्द्रके द्वारा प्रेषित देवियां श्री, कान्ति, कीर्ति, बुद्धि, सती और ह्री घर आयीं, और उन्होंने उसका उसी समय खुब देह शोधन किया। मेघजालकी लीलाको प्रकाशित करनेवाले, पवित्र आषाढ़ माहके कृष्णपक्षके छठोके दिन, चौबीसवें शतभिषा नक्षत्रमें जिनके चरणकमल युगलको नाग प्रणाम करता है, ऐसे वह गर्भरूपी कमलकोशमें स्थित हो गये। फिरसे कुबेरने नौ माहकी अवधि तक नित्य धनकी वर्षा की। पत्ता-यौवन सागर समय बीतनेपर, अन्तिम पल्यके तीसरे सागरमें धर्मका उच्छेद होने पर-॥६॥ . शिवरूपी सरोवरके हंस श्रेयांसके चले जानेपर, फागुन माहके कृष्णपक्षमें, जिसमें त्रिभुवन ६. A तं फलु णिच्चफलु । ६. १. A सुवणंबुपाउसो । २. A कण्हपक्खए । ७. १. P सिवभर। For Private & Personal use only Page #295 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [५३.७.४ महापुराण दुरियविओयइ वारुणजोयइ। उप्पण्णो इणु बारहमो जिणु। हरिसोल्लियमणु पत्तो सुरयणु । चंपापुरेवरं णविऊणं घेरं। णिज्जियसयदलि जणणीकरयलि। बुद्धिणिसुंभयं मायाडिंभयं। गहिऊणं पहुं रइभिसिणीविहुँ। सक्केणं तउ कं मणिउं गउ। लग्गणमेरुणो सिहरं मेरुणो। गंतुं गयेमलि पंडुसिलायलि । घत्ता-णाहु थवेप्पिणु जियतारहारणीहारहिं । ण्ह विउ सुरिंदहिं घडवियलियचंदिरधारहिं ॥७॥ पुजिवि वंदिवि तिजगगुरुणिवराणियहि खेयर विसहर सुरेरमणिसंमाणियहि । तणयालोयणतुट्ठियहि तुच्छोयरिहि आणिवि देउ समप्पियउ करि मायरिहि। इंदें रुंदाणंदवसु तिह णच्चियउं जिह महिचलणे फणिउलु विभियकुंचियउं। पणविवि परमं परमपरं णहि चलियधओ सहुं परिवार सग्गवई सुरलोउ गओ। ५ अण्णहु पासि ण सत्थविही कत्थइ सुणइ सव्वउ कलउ सलक्खणउ अप्पणु मुणइ । कम्पित है, ऐसे चतुर्दशीके दिन, पापसे विमुक्त चारणयोगमें बारहवें जिनवर ( सूर्य ) उत्पन्न हुए। हर्षसे उल्लसित मन देवसमूह वहां पहुंचा, और चम्पापुर वर तथा घरको प्रणाम कर कमलकुलको जीतनेवाले जननीके करतलमें, बुद्धिको भ्रममें डालनेवाले मायावी बालकको रखकर, रतिरूपी कमलिनीके लिए सूर्य प्रभुको लेकर, इन्द्र 'कु' कहकर गजको प्रेरित कर आकाशको छूनेवाले सुमेरु पर्वतके शिखरपर जानेके लिए चला । मलरहित पाण्डुक शिलातलपर पत्ता-स्वामीको स्थापित कर, स्वच्छ हार और नीहारोंको जीतनेवाली घड़ोंसे गिरती हुई चांदनीके समान धाराओंसे सुरेन्द्रोंने उनका अभिषेक किया ॥७॥ उनकी पूजा और वन्दना कर; त्रिजगके श्रेष्ठ राजाको रानी, विद्याधर, विषधर और देवस्त्रियोंके द्वारा सम्माननीय पत्रको देखकर सन्तुष्ट होनेवाली कृशोदरी माताके हाथमें लाकर देवको दे दिया। इन्द्रने विशाल आनन्दके वशीभूत होकर इस प्रकार नृत्य किया, कि जिससे धरती कांपनेके कारण नागकुल विस्मयसे संकुचित हो गया। परमश्रेष्ठ जिनको प्रणाम कर, चंचलध्वज स्वर्गपति ( इन्द्र ) अपने परिवारके साथ इन्द्रलोक चला गया। वह किसी दूसरेके पास कहीं भी २. A पुरवरे । ३. A घरे । ४. A तं भणिओ; P कुं भणियो। ५. A गयगले । ६. A has ता before णाहु। ८. १. A सुररमणो'; सुरवररमणी । २. A छउओयरिहि; P तुच्छओयरिहि । ३. AP विभय । ४. A णहचलिय । Page #296 -------------------------------------------------------------------------- ________________ -५३. ९.८] महाकवि पुष्पदन्त विरचित २४९ वरिसि विसुद्धबुद्धिसहिइ हयदुट्ठमइ सावयसीलि परिट्ठियउ गन्भट्ठमइ । काले वेड्ढंतहु गुणेहिं जाणियमणुहि जायइ माणु सरासणई सत्तरि तणुहि । कुंअरतें परमेसरहो कोलाणिरय अट्ठारह संवच्छरह तहु लक्ख गर्यं । घत्ता-णवघुसिणछवि करणुज्झियणाणपहायरु ॥ णिव कुलमहिहरे उम्गेउ णं बालदिवायरु ॥ ८॥ एक्कहिं दिणि णिव्वेयउ भासइ तउ करमि जेण पुणु वि संसारि असारिणे संसरमि। लोयंतियसुरवंदहिं लहु संबोहियउ माणवदाणवदेवहिं ण्ह विवि पसाहियउ । फुल्लियफलियमहीरुहरंजियसडयणहु - सिवियाजाणारूढउ गउ मणहरवणहु । कयचउत्थु मज्झत्थु महत्थु महंतमइ मणपज्जवपरियाणियमा[समणविगइ । फैग्गुणि कसणि चउद्दसिदिणि विरएं लइउ संयभिसहइ सायण्हइ सो सई पावइउ। ५ तेण समउं संसारह णिग्विण्णइं वरई सयइं णिवहं पावइयइं छहछाहत्तरई । तिक्खु चरित्तु चरंते पाउ गलत्थियउं मोहसमुदु रउद्दु सुदुंम्महु मंथियउ । कामहु पंच वि चंडई कंडई खंडियइं इंदियदुटुकुडुंबई मुणिणा दंडियई। शास्त्रविधि नहीं सुनते, लक्षण सहित समस्त कलाओंका स्वयं विचार करते हैं । गर्भसे आठवें वर्ष में विशुद्ध शुद्ध बुद्धिसे सहित, दुष्ट बुद्धिका नाश करनेवाले वह श्रावकधर्ममें दीक्षित हुए। समयके साथ गुणोंसे बढ़ते हुए, मनःपर्ययज्ञानको जाननेवाला उनका शरीर सत्तर धनुषके मानका हो गया। उन परमेश्वरके कौमार्यमें क्रीड़ामें रत अठारह लाख वर्ष बीत गये। पत्ता-नवकेशरके समान छविवाले, तथा इन्द्रियोंसे रहित ज्ञानरूपी सूर्यवाले वह, हे राजन् ( श्रेणिक ), कुलरूपी पर्वतपर मानो बाल दिवाकरके रूपमें उत्पन्न हुए ॥८॥ एक दिन विरक्त होकर वह कहते हैं कि मैं तप करूंगा जिससे मैं इस असार संसारमें संसरण न करूं। लोकान्तिक देवोंने तत्काल सम्बोधित किया और मानवों तथा दानव देवोंने अभिषेक कर उनका प्रसाधन किया। शिविकायानपर आरूढ़ होकर जहां पुष्पित और फलित वृक्षोंपर गुंजन करते हुए भ्रमर हैं, ऐसे मनोहर उद्यानमें वह गये। जिन्होंने मनःपर्ययज्ञानसे मनुष्य और श्रमणकी चेष्टाओंको जान लिया है, ऐसे महार्थ मध्यस्थ और महामति, एक उपवास कर फागुन माहके कृष्णा चतुर्दशीके दिन, विरक्तिसे परिपूर्ण, उन्होंने सायंकाल शतभिषा नक्षत्र में प्रव्रज्या ले ली। उनके साथ संसारसे विरक्त छह सौ छिहत्तर राजाओने दोक्षा ग्रहण कर ली। तीव्र तपका आचरण करते हुए उन्होंने पापको नष्ट कर दिया, और अत्यन्त दुर्मद भयंकर मोहसमुद्रका मन्थन कर डाला। कामके पांचों प्रचण्ड तीरोंको उन्होंने नष्ट कर दिया। मुनिने दुष्ट ५. A वटुंतें । ६. A कुमरत्तें; P कुवरत्तै । ७. AP °णिरया। ८. AP गया। ९. A णं उग्गउ । ९. १. A ण पइसरमि । २. A सिवियाजाणइ रूढ उ । ३. P माणविगह । ४. A फग्गुणकसणच उद्दसिदिण। ___५. AP सविसाहइ । ६. A चरई । ७. A छाहंतर। ८. A सुसंमुह । ९. P°कुटुंबई । Page #297 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २५० १० ५ १० महापुराण चंग सुत्तु धरेष्पिणु मणपुरवरु थविडं विससायहं चोर कुहिणिउ दूसियउ [ ५३.९.९ दिहिपाया एप्पिणु रिउबले' विद्दविरं । रयणत्तयभाभारें लोड पयासियर । घत्ता - बीयइ वासरि पइसरिवि महाणयरंतरि ॥ भिक्खहि कारण परिभमइ जईसरु घरि घरि ॥ ९ ॥ १० आवंतु भडारउ भावियउ तहु मंदिर सहसा वित्थरिडं थिउ एक्कु वरि रिसि तिव्वतवि fuद्धाडियमाडियमोहरइ माहम्मि सुद्धबीयहि बलिउ उववासिएण वासरि गमिइ पुठिवल्लइ वणि चवर्चूय चलि णियगोमिणिगारव संखरव महिविवर गयण वण सग्ग घर विज्जाहर आइय कुसुमकर सुंदरराएं पारावियड । पंचविg वियंभिरं अच्छरिडं । गिल्लूरिभवसंभव विभवि । सहरि विसाइणक्खत्तगइ | घणघाइचक्कु विणिद्द लिउ । दिver वारुणदिसि संकमिइ । उपाय णाणु के बतलि । घंटारव हरिरव पडहरव । हि घाई आइय बहु अमर । भूगोयर कंपाविय सधर । घत्ता - तं परमप्पडं ललियक्खरलर्द्धवि से सहि ॥ वंदइ सुरवइ णाणाविहयोत्तसहासहि ||१०| इन्द्रियरूपी कुटुम्बको दण्डित किया तथा अच्छी तरह सोते हुए मनरूपी पुरवरको पकड़कर स्थापित किया । धैर्यंरूपी प्राकारकी रचना कर शत्रुबलको खण्डित किया। विषयकषायरूपी चोरोंकी गलीको दूषित कर दिया, रत्नत्रयकी प्रभाके भारसे लोकको प्रकाशित कर दिया । घत्ता - दूसरे दिन महानगरके भीतर प्रवेश कर वह यतीश्वर आहार के लिए घर-घर परिभ्रमण करते हैं ॥९॥ १० सुन्दर राजाने आते हुए आदरणीयकी पूजा की और पारणा करायी । उसके प्रासाद में शीघ्र ही पाँच प्रकार के विस्तृत आश्चर्यं उत्पन्न हुए। वह महामुनि एक वर्ष तक जिसमें संसार में जन्म लेकी सम्पत्ति नष्ट हो गयी है, ऐसे तीव्रतप में स्थित रहे। जिन्होंने मोहरज उखाड़कर नष्ट कर दिया है ऐसे, वह माघ माह के शुक्लपक्ष के द्वितीयाके दिन विशाखा नक्षत्र में चार घन घातिया कर्मोंका नाश कर देते हैं । उपवाससे दिन बितानेपर और सूर्यके पश्चिम दिशामें ढलनेपर, धव और आम्रवृक्षोंसे चंचल पूर्वोक्त उद्यानमें कदम्ब वृक्षके नीचे ज्ञान उत्पन्न हो गया । अपनी लक्ष्मीके गौरवसे युक्त शंखशब्द, घण्टाशब्द, हरिशब्द और पटह शब्द, धरतीके विवरों, गगन, वन, स्वर्ग और घरोंमें फैल गये । बहुतसे देव आकाश में दौड़े और वहां आये। हाथमें कुसुम लेकर विद्याधर आये । पृथ्वी सहित भूगोचर काँप उठे । घत्ता - सुन्दर अक्षरोंसे जिन्होंने विशेषता प्राप्त की है, ऐसे नानाविध स्तोत्रोंसे इन्द्र उन परमात्माकी वन्दना करता है ॥ १०॥ १०. P पावा । ११. रिउदलु । १०. १. A परावियउ । २. P° विडवि । ३. A वासवदिसि । ४. P चवभूयचलि । ५. P कलंबयल । ६. AP आइय घाइय । ७. AP विज्जाहर वियसियकुसुमकर । ८. A लद्धहिं से सहि । Page #298 -------------------------------------------------------------------------- ________________ -५३. ११. १५ ] महाकवि पुष्पदन्त विरचित २५१ जीह समीहइ भोयणउं दिट्ठि वि महिलालोयणउं। कण्णहिं इच्छिउ गेयरसु णासु गुणाहियगंधवसु । फासु वि मउसयणई महइ करणइं पंच जीउ वहइ। ताई मणेण जि पढेवइ विसयह उवरि परिट्ठवइ । पसरियविविहसुहालसउ मोहेमइरमयपरवसउ। कुप्पइ तप्पइ णीससइ णडइ रडइ गायइ हसइ । णाणाजम्महिं आइयउ पेम्मपिसाएं छाइयउ। कुलबलविहवगव्वगहिउ गुरुयणकहियसीलरहिउ । उम्मग्गेण जि संचर पई ण भडारा संभरइ। तुहुं तिहुयणअन्मुद्धरणु तुहुँ जि देव विउसहं सरणु। तुहुं जिण गुणमाणिक्कणिहि तुहुं घोरपावकंतारसिहि। तुहुं जणमणवेयालहरु अयसुहहलतियसतरु। जो पई पणवइ सुद्धमई सो पावई णिवाणगई। घत्ता-वाईसरिवइ रिदुसट्ठिसमं जसु गणहर ॥ बारहसयमिय पुरुवंगधारि तहु मुणिवर ।।११।। "जीभ भोजनको इच्छा करती है, दृष्टि स्त्रीको देखना चाहती है, कानोंके द्वारा गीत-रस चाहा जाता है, नाक गुणोंसे अधिक गन्धके अधीन होती है, स्पर्श भी मृदु शय्याओंको महत्त्व देता है, इस प्रकार पांच इन्द्रियोंको जीव धारण करता है । मनके द्वारा उनको प्रेरित करता है, और विषयोंमें उन्हें प्रवृत्त करता है, प्रसरित बहुसुखोंमें वह ( जीव ) आसक्त होता है, तथा मोहरूपी मदिराके मदके अधीन हो जाता है। वह क्रुद्ध होता है, सन्तप्त होता है, निःश्वास लेता है, व्याकुल होता है, रोता है, गाता है, हंसता है, नाना जन्मोंमें आया हुआ ( यह जीव ) मोहरूपी पिशाचसे अभिभूत होता है। कुल, बल और वैभवके अहंकारसे गृहीत गुरुजनोंके द्वारा कहे गये शीलसे रहित वह सोटे मार्गसे ही चलता है । हे आदरणीय, वह तुम्हारा स्मरण नहीं करता। आप त्रिभुवनका उद्धार करनेवाले हैं, हे देव, आप ही विद्वानोंक्ती शरण हैं, हे जिन, आप गुणरूपी माणिक्योंकी निधि हैं, आप भयानक पापरूपी कान्तारके लिए आग हैं, आप जनमनके अन्धकारको दूर करनेवाले हैं, आप अच्युत सुखरूपी फलके लिए कल्पवृक्ष हैं, जो शुद्धमति तुम्हें प्रणाम करता है, वह निर्वाणगति प्राप्त करता है।" घत्ता-जिनके छियासठ गणधर थे और बारह सौ पूर्वागके धारी मुनिवर थे ॥११॥ ११. १. A अट्ठवइ। २. A मेहमयरमय; P मोहमइरामय । ३. A पेमविसाएं। ४. A °वेयण्णहरु । ५. P adds लह after पावइ । Page #299 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २५२ महापुराण [ ५३. १२.१ १२ पंचतीस चउसहसइ दुइसय सिक्खुयहं पंचसहस जलणिहिसय सावहिभिक्खुयहं । छहसहास सव्वण्हुहुं दह वेउन्वियहं लेसासमई सहासई मणपज्जयवियहं । सायरसहसई दोसय वाइहिं णयधरहं एंव होंति बाहत्तरिसहसई जइवरहं । एक्कु लक्खु छहसहसई संजमधारिणिहिं लक्ख चयारि समासिय घरवयचारिणिहिं । दोण्णि लक्ख गुणवंतहं संतहं सावयहं संखेजउ गणु घोसिउ काणणसावयहं । जिणवरवयणणिहालणणिहयभवावयह संख णत्थि तहिं आयहं देवहं देवियह । चउपण्णास जि लक्खई वरिसविहीणाई वरिसह विहरिवि महियलि भवसमरीणाई। हरिकयकणयकुसेसयउयरिविइण्णपउ संबोहेप्पिणु भगवई चंपाणयरु गउ । पत्ता-णिज्जियणियरिउ वरधम्मचक्कि मुणिराणउ । पलियंकासणु अंतिमझाणम्मि णिलीणउ ॥१२॥ १३ भह वयहु ससय भिसहहि सेयच उद्दसिहि तिण्णि वि अंगइं गलियई तासु महारिसिहि । अवरोहइ चउणवइहिं रिसिहिं समेउ जिणु जायउ सिद्ध भडारउ ववगयजम्मरिणु। सकिं अग्गिकुमारहिं जयजयकारियउं अंगु अणंगीहूयहु तहु सकारियउ। आहंडलधणुमंडलमंडियघण घणइ कहइ पुरंदरु देवहं जंतु णहंगणइ । १२ उनतालीस हजार दो सौ शिक्षक मुनि थे। पांच हजार चार सौ अवधिज्ञानी मुनिवर थे। छह हजार केवलज्ञानी और दस हजार विक्रियाऋद्धिके धारी मुनि थे। छह हजार मनःपर्ययज्ञानी, चार हजार दो सौ वादीश्वर मुनि थे। इस प्रकार ( उनके साथ ) बहत्तर हजार मुनिवर थे। एक लाख छह हजार संयम धारण करनेवाली आर्यिकाएं थीं। गृहस्थ धर्मका पालन करनेवाली श्राविकाएं चार लाख थीं। गुणवान् श्रावक दो लाख थे। व्रतसहित तिथंच संख्यात कहे गये हैं। जिनवरके मुखको देखने मात्रसे जिन्होंने संसारकी आपत्तियोंका नाश किया है ऐसे वहां आनेवाले देवी-देवताओंकी संख्या नहीं थी। एक वर्ष कम चौवन लाख संसारश्रमसे हीन वर्षों तक धरतीतलपर विहार कर, इन्द्रके द्वारा रचित स्वर्णकमलके ऊपर पैर देकर चलनेवाले वह भव्योंका सम्बोधन करनेके लिए चम्पानगर गये। घत्ता-जिन्होंने अपने शत्रुको जीत लिया है, ऐसे श्रेष्ठ धर्मचक्रवर्ती मुनिराज पर्यकासनमें स्थित अन्तिम ध्यानमें लीन हो गये ।।१२।। . १३ भाद्र शुक्ला चतुर्दशीके दिन उन महाऋषिके तीनों ही शरीर गल गये। अपराल में चौरानबे मुनियोंके साथ, जन्मरूपी ऋणसे रहित आदरणीय वह जिन सिद्ध हो गये । इन्द्र और अग्निकुमार देवोंने उन्हें जयजयकार किया, अनंगीभूत हुए उनके शरीरका दाह-संस्कार कर दिया गया। इन्द्रधनुष मण्डलसे मेघवाले आकाश के प्रांगणमें जाता हुआ इन्द्र देवोंसे कहता है कि प्रभु १२. १. A गुण । २. A भवावहहं । ३. P देवयहं । ४. AP"झाणे । १३. १. A सविसाहहे कसण; p सुविसाहहे कसणं; K records ap as in AP | २. P महासिहि । Page #300 -------------------------------------------------------------------------- ________________ -५३. १३. १० ] महाकवि पुष्पदन्त विरचित २५३ पहु बाहत्तर बच्छर लक्खई अच्छियड एम मरइ को पंडियपंडियवर मैरणु raft हू कि इह ण नियच्छियउ । ५ पुणु विट्ट बहुभवसंभरणु । जे हउं वि एवं संचितभि जइ णरभवु लहमि तो खरतवमंथाणें कम्मदहिउँ महमि । अप्पर णा वासुपूज्जपरमेहिहि मग्गे संचरमि । चोप्पडु घत्ता - भरहहु होंतर जिणचरियई तियसह संधिवि ॥ हरि सग्गहु हि पुष्पदंत उल्लंघिवि ॥ १३॥ इति महापुराणे तिसट्टि महापुरिस गुणालंकारे महाभव्वमरहाणुमण्णि महाकपुष्यंतविरइए महाकब्वे वासुपुज्जणिन्दाणगमणं णाम तिवण्णासमो परिच्छेओ समत्तो ॥ ५३॥ बहत्तर लाख वर्षं रहे, इस समय जाकर वह मुक्त हुए, तुमने यह नहीं देखा। इस प्रकार पण्डितों में महापण्डित मरण कौन मरता है कि जिससे दुबारा जीव संसारकी अनेक जन्म-परम्परामें नहीं पड़ता । मैं भी यही सोचता हूँ कि यदि में मनुष्य जन्म पा सकूं तो तीव्रतपरूपी मथानीसे कर्मरूपी दहीका मन्थन करूंगा, और ज्ञानसे जो आत्मा तथा स्निग्धत्व ( रागतत्त्व ) है उसे छिन्न करूंगा, तथा वासुपूज्य परमेष्ठी के मार्गपर चलूँगा । घत्ता - इस प्रकार भरतसे लेकर जिनचरितोंको इन्द्रसे कहकर इन्द्र आकाशमें नक्षत्रोंको लांघकर स्वर्ग चला गया ||१३|| इस प्रकार त्रेसठ महापुरुषोंके गुणालंकारोंसे युक्त महापुराण में महाकवि पुष्पदन्त द्वारा विरचित एवं महाभव्य भरत द्वारा अनुमत महाकाव्यका वासुपूज्य निर्वाण गमन नामका तिरपनवाँ परिच्छेद समाप्त हुआ ॥ ५३ ॥ ३. P मरणे । ४. P संसरणे । ५. A णाणं । ६. A omit णहि । ܐ Page #301 -------------------------------------------------------------------------- ________________ संधि ५४ सिरिवासुपुज्जजिणतिथि तहिं चिरपरिहवआरुहहु ॥ करि लुद्धन्द णं हरि हरिवरहु तारउ भिडिउ दुविट्ठहु ॥ध्रुवक।। दुवई-इह दीवम्मि भरहि वरविंझपुरम्मि महारिमारणो । ___णरवइ विंझसत्ति विझो इव पालियमत्तवारणो ।। मयणाहीमंडणु तणु मेयलइ ___ जहिं कप्पूररेणु णहु धवलइ । जहिं कामिणि चामरु संचालइ जहिं देवंगु वत्थु परिघोलइ । जहिं भूसणमणिकिरणावलियां दसदिसासु बहुवण्णउ घुलियउं । तर्हि अत्थाणि णिसण्णउराणउ इंदफेणिंदखगिंदसमाणउ । ता संपत्तउ चरु सुमहुरगिरु सो पभणइ पयजुयपणमियसिरु । भत्तवित्तगोमहिसीपउरइ एत्थु जि भरहखेत्ति कणयउरइ । तुह सुहि गुणविसेसतोसियमइ जाणहि किं ण सुसेणु महीवइ । तासु वेस णामें गुणमंजरि णं सरचूयकुसुममयमंजरि । रूवु ताहि मई दिट्ठउं जेहउं उठवसिरंभहं दुक्कर तेहउँ । सन्धि ५४ __ श्री वासुपूज्यके तीर्थकालमें पूर्वजन्मके पराभवसे क्रुद्ध हरिवर द्विपृष्ठसे तारक भिड़ गया, मानो क्षुब्ध सिंह गजवरसे भिड़ गया हो। श इस जम्बूद्वीपके भरत क्षेत्रमें श्रेष्ठ विन्ध्यनगरमें बड़े-बड़े शत्रुओंको मारनेवाला विन्ध्यशक्ति नामका राजा था जो विन्ध्याचलके समान बड़े-बड़े मतवाले हाथियोंका पालन करनेवाला था। जहां कस्तूरी शरीरको मलिन करती है ( वहांके लोगोंका चरित्र मलिन नहीं होता), जहाँ कपूरकी धूल आकाशको धवल बनाती है, जहां स्त्री चामर ढोरती है, जहां देवांग वस्त्र पहने जाते हैं, जहां भूषणमणियोंकी रंग-बिरंगी किरणावलियां दसों दिशाओंमें व्याप्त हैं, वहां दरबारमें इन्द्रनागेन्द्र और विद्याधरेन्द्रके समान राजा बैठा हुआ था। वहाँ अत्यन्त मधुर वाणीवाला दूत पहुंचा। दोनोंके चरणोंमें प्रणाम करते हुए उसने कहा-"अन्न-धन-गाय और भैंसोंसे प्रचुर इस भरत क्षेत्रमें कनकपुर है। अपने गुणविशेषसे सन्तुष्टमति सुधी राजा सुषेणको क्या तुम नहीं जानते ? उसको गुणमंजरी नामको वेश्या है, जो मानो कामदेवरूपी आम्रवृक्षकी कुसुममय मंजरी है। उसका जैसा रूप मैंने देखा है, वैसा रूप उर्वशी और रम्भाके लिए भी कठिन है ? १. १. AP मइलइ । २. AP°खगिदफणिदं । ३. P तुहुँ । . Page #302 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २५५ -५४. २. १२] महाकवि पुष्पदन्त विरचित पत्ता-णउ मयकलंकपडलें मलिणु ण धरइ खयवंकत्तणु ॥ मुँहुं मुद्धहि चंदें समु भणमि जइ तो कवेणु कइत्तणु ॥१॥ दुवई-मत्तकरिंदमंदलीलागइ णरमणणलिणगोमिणी ॥ किं वण्णमि गरिंद सा कामिणि कामिणियणसिरोमणी ॥ दिस बिंबाहररंगें रावइ कररुहपंति पईवहिं दीवइ । कंचियकेसहं कतिइ कालइ माणिणि माणवमहुयरमालइ । सललियवाणि व सकइहि केरी जहिं दोसइ तहिं सा भल्लारी। पढइ चारु पोसियपत्थावउ गायइ सुंदरि कण्णसुहावउ । णञ्चइ बहुरसभावणिउत्तउं सा जइ लहहि कह व मई वृत्तउं । तो संसारहु पेई फलु लद्धलं सयलु वि तिहुवणु तुज्झु जि सिद्ध। ससिजोण्हाहीणे कि गयणे णासाविरहिएण किं वयणे। लवणजुत्तिवियलेण व भोजें ताइ विवजिएण किं रज्जें। घत्ता-तं णिसुणिवि राएं मंतिवरु देवि उवायणु पेसियउ ॥ घरु जाइवि तेण सुसेणपहु पियवायइ संभौसियउ ॥२॥ पत्ता-वह मृगलांछनके पटलसे मलिन नहीं होती, वह क्षय और वक्रताको धारण नहीं करती, फिर भी यदि मैं उस मुग्धाके मुखको चन्द्रमाके समान कहता हूँ तो इसमें कौन-सा कवित्व है ? ॥१॥ मतवाले करीन्द्रकी मन्दलीलाके समान गतिवाली वह कामिनी मनुष्यके मनरूपी कमलकी शोभा और कामिनी-जन की शिरोमणि है। उसका क्या वर्णन करूं ? उसके बिम्बाधरोंके रंगसे दिशा अनुरंजित होती है, नख पंक्तिके प्रदीपोंसे आलोकित होती है, घुघराले बालोंको कान्तिसे काली होती है। वह मानवरूपी मधुकरोंको मालासे मानिनी है, वह सुकविको सुन्दर वाणीके समान है, वह जहाँ-जहाँ दिखाई देती है वहीं कल्याणमयी है। वह सुन्दर सुभाषित युक्तियोंको पढ़ती है, वह सुन्दरी कानोंको सुहावना लगनेवाला गाती है। अनेक रसों और भावोंसे परिपूर्ण नृत्य करती है। यदि उसे तुम किसी प्रकार पा सकते हो, तो मैं कहता हूँ कि तुमने संसारका फल पा लिया और समस्त त्रिभुवन सिद्ध हो गया। चन्द्रमाकी ज्योत्स्नासे रहित आकाशसे क्या ? नाकसे रहित मुखसे क्या ? लवणयुक्तिसे रहित भोजनसे क्या? इसी प्रकार उस सुन्दरीसे रहित राज्यसे क्या?" घत्ता-यह सुनकर, राजाने मन्त्रीवरको उपहार देकर भेजा। उसने घर जाकर प्रियवाणीमें राजा सुषेणसे सम्भाषण किया ।।२।। ४. AP महुं। ५. AP कमणु । २. १. AP कामिणिजणं । २. AP फलु पई । ३. AP पेसिउ । ४. AP संभासिउ । Page #303 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २५६ ५ १० महापुराण ३ दुबई - जो तुहुं विंझसत्ति सो दोहं मि भेउ ण लक्खिओ मए । ss कल्लोलविहु हु जलणिहि केण विहत्तओ जए ॥ पर रईय भिण्णाई सरीरई । जं तेरउ तं तासु जि केरडं । हणिबंध बंधुहि सारउं । देहि समित हुं गुणमंजरि । एह बंधु बप्प कहिं अच्छिउ । अवसें सो घणपाणहु लग्गइ | जाहि ण दू देमि पणयंगण | णि कुलसामिहि कहइ महंत । देव ण देइ सुसेणु विलासिणि । एक्कु जीउ विहिणा गंभीर इं जं तहु केरल तं तुम्हारडं एत्थु ण किज्जैइ चित्तु अधीरजं णिरुवयारु तं णासइ सुंदरि ता पहुणा दूयउ णिन्भच्छिउ रि सीमंतिणी जो मग्गइ दरिसियरइरस करणालिंगण तें वयणें पुरु गंपि तुरंत उ हंसवं सवीणारव भासिणि घत्ता - आयण्णवि दूयहं जंपियई गेहु चिराणउ भंजिवि ॥ सुसेणहु विंझपुरणरवइ सीहु व रुंजिवि ॥३॥ अभि ४ दुवई - बेणि विचरणरेहिं संचालिय बेण्णि वि ते महाबला || वरणारीकण गणियारिरया इव भिडिय मयगला ॥ ३ " जो तुम हो, वही विन्ध्यशक्ति है दोनोंमें मैंने कोई भेद नहीं देखा ? यह लहरोंका समूह है और यह जलनिधि है, जगमें कौन उसे विभक्त कर सकता है ? एक ही जीव है, परन्तु विधाताने गम्भीर विभिन्न शरीरोंकी रचना की है। जो उसका है, वह तुम्हारा है और जो तुम्हारा है, वह उसीका है । इसमें किसी प्रकार अपने चित्तको अधीर नहीं बनाना चाहिए । बन्धुओंका स्नेह निबन्धन ही सार है। अनुपकार उस स्नेहका नाश कर देता है । इसलिए सुन्दरी गुणमंजरी तुम अपने मित्रके लिए दे दो।” तब राजा सुषेणने दूतकी भर्त्सना की - " हे सुभट, यह बन्धु कहाँ है, जो घरकी स्त्री मांगता है, वह अवश्य ही ( बादमें ) धन और प्राणोंसे भी लग सकता है। जिसने रति - रस उत्पन्न करनेवाले आलिंगनोंको प्रदर्शित किया है, ऐसी प्रणयांगना नहीं दूँगा, हे दूत, तुम जाओ ।" इन वचनोंसे दूत शीघ्र नगर जाकर अपने स्वामीसे कहता है कि हे देव, हंस-वंश और वीणा शब्द के समान बोलनेवाली विलासिनी गुणमंजरीको सुषेण नहीं देता है । [ ५४.३.१ घत्ता- दूतों के कथनों को सुनकर और अपने पुराने स्नेहको भंग कर विन्ध्यपुरका राजा सिंह के समान गरजकर सुषेणसे भिड़ गया ॥ ३॥ ४ दोनों ही दूत पुरुषोंसे संचालित थे । वे दोनों ही महाबल थे । श्रेष्ठ नारीके लिए हथिनी में 1 ३. १. A पररइयं । २. AP कीरइ । ३. P बंधहे । ४. A घरसीमंतिणि । ५. AP देमि दूय । ४. १. संचारिया | Page #304 -------------------------------------------------------------------------- ________________ -५४. ५.७] महाकवि पुष्पदन्त विरचित दोडं वि साहणाई आलग्गइं चालियचक्कई तोलियखग्गई। खलियरहंगई मलियतुरंगई दलियधुरग्गइं दूसियमग्गई। मोडियदंडई लुयधयसंडई खंडियमुंडई णञ्चियरुंडई । जूरियपत्तई चूरियछत्तई दारियगत्तई-णिग्गयरत्तई। लूरियताणई हयजंपाणई उड़ियप्राणई कयसिरदाणई। हुंकारंतई हकारंतई उरगयकोंतइं चललुलियंतई। मग्गणभिण्णइं तिलु तिलु छिण्णइं सेयवसिण्णइं रत्तकिलिण्णई । विरसु चवंतई वम्मु छिवंतइं संक मुयंतई संकु घिवंतई। हस्थिणिसुंभई फाडियकुंभई जोहेणिरुभई जयजसुलंभई। घत्ता-ता सरिवि सुसेणे सरिउबले सरहिं णिरंतरु भिण्णउं । जमदूयहं भूयह भुक्खियहं णाइ दिसाबलि दिण्णउं ॥४|| दुवई-ताव सुसेणमुक्कबाणावलिविहडियणिविडगयघडं ।। हरिसंचलणदलेणणिहरखुरफोडियधवलधयवडं ।। छंडियकिवाणु गलियाहिमाणु। लंबंतकेसु जणजणियहासु। पत्तावमाणु दिसि धावमाणु । धयछत्तछण्णु पेच्छवि सँसेण्णु । पडिभडकयंतु धाइउ तुरंतु । अनुरक्त मतवाले हाथियोंके समान भिड़ गये । दोनोंको सेनाएँ भिड़ गयीं, चक्र चलाती हुई और खड्ग तोलती हुई। चक्र स्खलित हो गये, अश्व दलित होने लगे। धुराग्रभाग चूर-चूर होने लगे। मार्ग दूषित होने लगे । दण्ड मुड़ने लगे। ध्वजसमूह कटने लगे। मुण्ड कटने लगे। धड़ नाचने लगे। वाहन पीड़ित हो उठे। छत्र चूर-चूर हो गये। शरीर विदीर्ण हो गये, रक्त बह निकला । अश्व और पाण त्राण (कवच ) रहित हो गये। प्राण उड़ने लगे। सिरोंका दान किया जाने लगा। हुंकारते हुए, हंकारते हुए । भाले उरमें घुसने लगे । चंचल आंतें लुढ़कने लगीं। तीरोंसे छिन्न-भिन्न होकर तिल-तिल कटने लगा। पसीनेसे भीग गये, रक्तसे लिप्त हो गये । विरस बोलते हुए, कवच छेदते हुए, शंका छोड़ते हुए, अस्त्र ग्रहण करते हुए, हाथियोंको नष्ट करते हुए, कुम्भस्थलोंको फाड़ते हुए, योद्धाओंको रोकते हुए, जय और यशको पाते हुए। पत्ता-तब सुषेणने तीरोंसे शत्रुसेनाको लगातार छिन्न-भिन्न कर दिया, मानो उसने भूखे । यमदूतों और भूतोंको दिशाबलि दी हो ॥ ४ ॥ तबतक सुषेणके द्वारा छोड़ी गयी बाणावलीसे सघन गजघटा विघटित हो गई। अश्वोंके संचालन और दलनके कारण कठोर खुरोंसे धवल ध्वजपट फाड़ दिये गये। जिसने तलवार छोड़ दी है, जिसका अभिमान खण्डित हो चुका है, केश बिखर चुके हैं, जिसने लोगोंमें हास्य उत्पन्न २. AP जोहणिसुंभई । ३. AP जयजसलंभई; P adds aftr this: कित्तिवियंभई। ४. AP'बलु ५. १. AP वलण । २. AP°फालियं । ३. A ससेणु । Page #305 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २५८ महापुराण [५४. ६.८ बलपबलसत्ति भडु विझसत्ति । रिउ भणिउ तेण रे रे णिहीण। दे देहि णारि मा गिलउ मारि। सहुँ परियणेण पई रणि खणेण। तं सुणवि सत्तु इयरेण वुत्तु । गुणणिहियबाणि मई जीवमाणि । को रमइ तरुणि कमि पँडिय हरणि । जो हरिहि हरइ सो झ त्ति मरइ। इय जंपमाण बेण्णि बि समाण । विधंति वीर पुलइयसरीर। फणिवइपमाण बाणेहिं बाण। णहि पडिखलंति छत्तहिं पंडंति। धय जिल्लुणंति सारहि हणंति। हय कप्परंति पुणु चप्परंति। हणु हणु भणंति अंगई वणंति । सहसा मिलंति विहडेवि जंति। पडिवलिवि एंति थिर गिरि व थंति । ता गयविलासु विंझाहिवासु। पत्ता-संधाणु ण लक्खहुं सक्कियउं चवलसरावलि देंतहु ॥ गउ णासवि तासु सुसेणु रणि णं वम्महु अरहतहु ।।५।। २५ किया है, जो वाहनोंसे अप्रमाण है, दिशामें दौड़ रहा है, जिसके ध्वजछत्र छिन्न हो चुके हैं, ऐसा अपना सैन्य देखकर शत्रुयोद्धाके लिए कृतान्त तथा बलसे प्रबल शक्तिवाला विन्ध्यशक्ति तुरन्त दौड़ा। उसने शत्रु सुषेणसे कहा, "रे नीच, नारी दे दे, तुझे परिजनोंके साथ एक क्षणमें कहीं मारि न खा ले।" यह सुनकर दूसरेने कहा, "जिसकी डोरीपर बाण है, ऐसे मेरे जीवित रहते हुए कोन उस रमणीका भोग कर सकता है, जो पैरोंपर पड़ी हुई हरिणीको सिंहसे छीनता है, वह शीघ्र ही मृत्युको प्राप्त होता है।" इस प्रकार कहते हुए वे दोनों ही समान ( योद्धा ) पुलकित शरीर होकर एक दूसरेको बेधते हैं। नागराजके समान बाणोंसे बाण आकाशमें स्खलित होते हैं, छत्रोंसे छत्र गिर पड़ते हैं, ध्वज कट जाते हैं, सारथि मारे जाते हैं, अश्व काटे जाते हैं, पुनः आक्रमण किये जाते हैं, मारो-मारो कहते हैं, अंगोंको घायल करते हैं, सहसा मिलते हैं और विघटित होकर जाते हैं । मुड़कर आते हैं, स्थिर गिरिके समान स्थिर होते हैं । गत विलास होकर पत्ता-सन्धानको लक्षित करने में समर्थ नहीं हो सका। चंचल तीरोंकी आवली देते हुए उससे युद्ध में सुषेण उसी प्रकार नष्ट हो गया, जिस प्रकार अरहन्त देवसे कामदेव नष्ट हो जाता है ।।५॥ ४. AP वडिय । ५. P हरिणि । ६. AP°पमाणु । ७. AP बाणु । ८. P adds after this: रोसें जलंति । ९. A छति । Page #306 -------------------------------------------------------------------------- ________________ -५४. ६. १६ ] महाकवि पुष्पदन्त विरचित २५९ दुवई-बंधुविओयसोयमलिणाणण पइपरिहवविवेइया ।। तेण णिवेण धरिय गुणमंजरि गुणमहुयरणिसेविया ।। इह वरभरहखेत्ति विक्खायउ खत्तियधम्मधुरंधरु जायउ। मित्तु सुसेणहु संतोसियमणु राउ महापुरि मारुयसंदणु । णिसुणेप्पिणु णियइट्ठ पलाणउ हिमहयकमलसरु व विदाणउ । घणरणामहु वसुमइ देप्पिणु कोहु लोहु मउ मोहु मुएप्पिणु । सुन्वयजिणह पासि वउ लेप्पिणु मुउ कालें संणासु करेप्पिणु । प्राणयकप्पि सक सो हूयउ । वीससमुद्दजीवि वररूवउ । तासु जि गुरुहि पासि उवसंतें दुद्धरु संजमभारु वहंतें। बारहविहतवतावणझीणें बद्ध णियाणु अणेण सुसेणे । मेरुतुंगमाणुण्णइ ढालिय जण मज्झु माणिणि उहालिय । जइ तवतरुवरहलू पाएँसमि तो तं पुरिमैजम्मि मारेसमि । एंव सरंतु सरंतु जि णिट्ठिउ सकलुसमइ संलेहणि संठिउ । वरवंदारयवंदविणूयउ 'तेत्थु जि सम्गि सो वि संभूयउ । घत्ता-रमणीयहि मंदरमेहलहिणीलिरुम्मिगिरिकंदरि ॥ गयणयलि सयंभूरमणजलि ते रमंति सरिसरवरि ॥६॥ mmmmmmmmmmmmmm बन्धु-वियोगके शोकसे मलिनमुखो और पतिके पराभवसे कम्पित तथा गुणरूपी मधुकरोंसे सेवित गुणमंजरीको उस विन्ध्यशक्ति राजाने पकड़ लिया। इस श्रेष्ठ भरत क्षेत्रमें क्षात्रधर्ममें धुरन्धर और विख्यात, सन्तोषित मन, सुषेणका मित्र, महापुरीका राजा मारुतस्यन्दन था। वह अपने मित्रका पलायन सुनकर हिमसे आहत कमल सरोवरके समान खिन्न हो गया। घनरथ नामक अपने पुत्रको धरती देकर क्रोध, लोभ, मद, मोहको छोड़कर, सुव्रत जिनके पास व्रत ग्रहण कर, समय आनेपर संन्यासके साथ मरकर, वह प्राणत स्वर्गमें इन्द्र हुआ । सुन्दर रूपवाला बोस सागर पर्यन्त जीनेवाला। उसीके गुरुके पास उपशान्तभाव धारण करते हुए, कठोर संयमभावका आचरण करते हुए बारह प्रकारके तप-तापसे अत्यन्त क्षीण इस सुषेणने यह निदान बांधा कि "जिसने मेरी सुमेरुपर्वतके समान ऊंचे मानवाली उन्नतिका पतन किया और पत्नीका अपहरण किया, यदि मैं तपरूपी वृक्षका फल पाऊं, तो मैं अगले जन्ममें उसको मारूंगा।" यह स्मरण करते-करते वह निष्ठामें लग गया। सकलुषमति वह संलेखनामें स्थित हो गया। श्रेष्ठ देवोंके समूहके द्वारा संस्तुत वह भी उसी स्वर्गमें उत्पन्न हुआ। घत्ता-रमणीय मन्दराचलको मेखला और नीलरुक्मी पर्वतकी कन्दरा, आकाशतल, स्वयम्भूरमण समुद्रके जल और सरित सरोवरमें वे दोनों क्रीड़ा करने लगे ॥६॥ ६. १. AP इय । २. AP पाणयं । ३. AP सग्गि । ४. AP पावेसमि । ५. A पुरिसु । ६. AP तेत्थु वि सो सम्गि संभूयउ । Page #307 -------------------------------------------------------------------------- ________________ महापुराण [ ५४.७.१ दुवई-बिण्णि वि सह वसंति विहरंति वि विलुलियकुसुमसेहरा ॥ बिण्णि वि परममित्त ते सुरवर सुररमणीमणोहरा ।। एत्तहि चिरु संसारु भमेप्पिणु विझसत्ति जिलिंगु लएप्पिणु । तेरह विहु चारित्तु चरेप्पिणु णिरसणविहिमग्गेण मरेप्पिणु । अच्छरकरयललालियचामरु जायउ दिव्वदेहु कप्पामरु । देवहं ताहं बिहिं मि दिवि जइयतुं संखसमाउसु संठिउ तइयहुं। जंबुदीवि छुहेपंकियगोउरु भरहि भोयवड्ढणु णामें पुरु । तहिं सिरिमाणउ राणउ सिरिहरु सिरिमइदेविसिहिणसंगयकरु । विझपुराहिउ सग्गहु आयउ एयहं बिहिं मि पुत्तु संजायउ। जयसिरिसीमंतिणिभत्तारउ जसससंककिरणावलितारउ । कोकिउ सो णियताएं तारउ वसिकयसव्वदेसकंतारउ । तारयताराणाह पित्तई असिकरेण रिउतिमिरई जित्तई। घत्ता-मंडलियहं मयमाह प्पियह सिरि पाडिवि समसुत्ती.।। तिहिं खंडहिं मंडिय मेइणिय चप्पिवि दासि व मुत्ती ॥७॥ दुवई-अप्पडिहयपयावकंपावियसयलदिसाविहायए । __ सपवणतरणिवरुणवइसवणभयंकरि तम्मि जायए । तावेत्तहि बहुसोक्खपवट्टणि इह भारहि दारावइपट्टणि । जिनका कुसुम-शेखर ( कामदेव ) आन्दोलित है ऐसे वे दोनों साथ रहते हैं । वे दोनों ही परममित्र सुरस्त्रियोंके लिए सुन्दर हैं। यहां विन्ध्यशक्ति भी बहुत समय तक संसारमें भ्रमण कर और जिनदीक्षा धारण कर, तेरह प्रकारके चारित्र को पाल कर, अनशन विधिसे मरकर जिसपर अप्सराओंके हाथोंसे चमर ढोरे जा रहे हैं ऐसे दिव्य शरीरवाला कल्पामर हुआ। जब वे दोनों देव वहां थे, तभी समान संख्याकी आयुवाला वह वहां रहा। जम्बूद्वीपके भरत क्षेत्रमें चूनेसे पुता है गोपुर जिसका ऐसा भोगवर्द्धन नामका नगर था। उसमें लक्ष्मीको माननेवाला श्रीधर नामका राणा था जिसके हाथ अपनी श्रीमती नामकी देवीके स्तनोंपर रहते थे। विन्ध्यशक्ति राजा स्वर्गसे च्युत हो इन दोनोंका पुत्र हो गया। जयश्री सीमन्तिनीके स्वामी यशरूपी चन्द्रमाको किरणावलीसे स्वच्छ उसे पिताने तारक कहकर पुकारा। तारकरूपी चन्द्रमाके असिरूपी हाथसे आहत शत्रुरूपी अन्धकार जीत लिया गया। पत्ता-मद और माहात्म्यसे युक्त माण्डलीक राजाओंके सिरपर वन गिराकर तीन खण्डोंसे अलंकृत धरतीको चांपकर वह दासीकी तरह उसका भोग करने लगा ||७|| अपने अप्रतिहत प्रतापसे समस्त दिशा-विभागोंको कंपानेवाले तथा पवन सहित सूर्य, वरुण और वैश्रवणके समान भयंकर उसके उत्पन्न हो चुकनेपर, यहां भारतमें अनेक सुखोंका प्रवर्तन ७. १. AP संसारे । २. AP छुहपंकय । ३. AP बिहं मि । ४. A सवसुत्तो। Page #308 -------------------------------------------------------------------------- ________________ -५४. ९.४] महाकवि पुष्पदन्त विरचित पढमजिणेसरवंसविहूसणु खलखत्तियबलदप्पविणासणु । रिउछवग्गसिप्पीरहुयासणु बंभणराहिउ बंभपयासणु । मंदगमण वीणारववाणी तासु सुहद सुहरणिसेणी । सिविणइ तोइ दिठु संपैयहरु दससययरु अवरु वि सियदिणयरु । आसि वाउरहु जो सो आयइ पाणईदुसुउ जणियउ मायइ । अण्णु सुसेणु सूणु सग्गचुउ बीयउ उववादेविइ दढमुउ । अचल दुविट्ठ णाम ते सुंदर णं केलास णीलमणिमहिहर। धवलउ एक्कु एक्कु अलिकालउ एक्कु सुसीलु एक्कु दुल्लीलउ। गरुड एक्कु एक्कु सिरिमाणणु । एक्कु सुभीम एक्कु सोमाणणु । एक्कु चंदु णं एकु दिवायरु हलहरु एक्कु एक्कु दामोयरु। घत्ता-ते बेण्णि वि भायर भुवणरवि जोइवि रोसविमीसिउ ॥ __ महिणाहहु जाइवि तारयहु तहु चरेहिं आहासिउं ।।८॥ दुवई-णं सियकसणपक्ख हलिसिरिधव बेण्णि वि धवलसामला ॥ दारावइणरिंदवरतणुरुह गिरिवरधरणभुयबला ।। वइवसभउंहाभंगुरभावइं दोहिं मि सिद्धइं दिव्वइं चावई। दोहिं मि गयउ रयणविप्फुरियउ विज्जादेविउ पेसणयरियउ । करनेवाली द्वारावती नगरीमें, प्रथम जिनेश्वर आदिनाथके वंशका भूषण, दुष्ट क्षत्रियोंके बलदर्पका नाश करनेवाला, छह प्रकार शत्रुरूपी तिनकोंके लिए अग्नि, ब्रह्मको प्रकाशित करनेवाला ब्रह्म नामका राजा था। उसकी मंदगामिनी, वीणाके शब्दके समान बोलनेवाली, कल्याणोंकी नशेनी सुभद्रा नामकी देवी थी। स्वप्नमें उसने सम्पत्तिको धारण करनेवाला र चन्द्रमा देखा। उसका जो वायुरथ प्राणत इन्द्र था उसे इस मांने पुत्रके रूपमें जन्म दिया। सुषेण भी स्वर्गसे च्युत होकर, उपमा ( उषा ) देवीसे दूसरा दृढभुज पुत्र हुआ। अचल और द्विपृष्ठ नामक वे दोनों सुन्दर ऐसे जान पड़ते थे मानो कैलास और नीलमणि पहाड़ हों। एक गोरा था और एक भ्रमरकी तरह काला था। एक सुशील था और एक खोटी लोलावाला था। एक भारी था ओर एक लक्ष्मीको माननेवाला था। एक भीम था और एक सुन्दर मुखवाला था। एक चन्द्रमा था और एक दिवाकर था। एक बलभद्र था और एक दामोदर था। धत्ता-विश्वरवि और क्रोधसे मिश्रित उन दोनों भाइयोंको देखकर चरोंने जाकर उस महीनाथ तारकसे कहा-॥८॥ "बलभद्र और नारायण दोनों मानो श्वेत और कृष्णपक्ष तथा धवल और श्याम हैं। द्वारावती-नरेन्द्रके वे श्रेष्ठपुत्र गिरिवरको धारण करनेमें समर्थ बाहुबलवाले हैं। उन दोनोंको ८. १. P बंभु । २. AP दिट्ठ ताइ । ३. AP संपययरु । ४. A सुसेणसूणु । ५. AP बीयउ वायादेविइ। ६. K दुस्सीलउ but correctrs it to दुल्लीलउ । ९. १. P रिरिहर । २. वरघणं । Page #309 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २६२ ५ १० लंगलमुसलसंखकर दुद्धर तहिं थरहरइ मरइ रिउ ण सरइ aur far asरिजूरावणु ताह लील दी सइ विवरेरी भग्गा सई सुहडत्तणवाएं संगरु करिवि हैरमि करिरयणईं लुह बंभु हयपुत्तविओएं मई विरुद्धि जगि को विंण जीवइ महापुराण घत्ता - महुं कमकमलाई ण संभरइ जो रायत्तणु मग्गइ ॥ सोसण परियणपरियरिउ जमपुरपंथें लग्गइ ||९|| १० दुवई - ई-इय गज्जंतु राउ णिजेमंतिहि बोल्लिउ हो ण जुज्जए ॥ किं कलहेण तांव पडिवक्खहं महिवइ दूर दिज्जए । सो गंधपी सुरतिसी । सिद्धाई जाई रयणाई ताई | सो दिव् संखु जइ तुज्झ देंति तो ते जियंति ते भिड़ंत जहिं केसरिकंधर | करु असिवरहु कया विण पसरइ । गंधहत्थि णावइ अइरावणु । उगणंति ते आण तुहारी । तं आणिवि जंपिउ राएं । गलियंसुयई सुहद्दहि णयणईं । डुज्झउ सोसिउ दूसहसोएं | जैंडं वि मरणु समरंगणि पावइ । तं असं | कति । णं तो मरंति । [ ५४.९.५ यमकी भौंहों के भंगुरभाववाले दिव्य धनुष सिद्ध हैं। दोनोंके पास रत्नोंसे स्फुरित गदा है और आज्ञा माननेवाली देवियाँ हैं। दोनोंके हाथमें हल- मूसल और शंख हैं, दोनों कठोर हैं। सिंहके समान कन्धेवाले वे दोनों जहाँ लड़ते हैं वहाँ शत्रु थर्रा जाता है, मर जाता है, सामना नहीं कर पाता । असिवरपर उनका हाथ कभी नहीं जाता। एक और उनके पास शत्रुओंको सतानेवाला गन्धहस्ती है, जो मानो ऐरावत है । उनकी लीला तुम्हारे विरुद्ध दिखाई देती है, वे तुम्हारी आज्ञाकी परवाह नहीं करते । अपने सुभटत्वकी हवासे वे स्वयं भग्न हैं ।" यह सुनकर राजाने कहा, "मैं युद्ध करके गजरत्नोंका हरण करूंगा ।" सुभद्राके गलिताश्रु नेत्रोंको ब्रह्मा पोंछे, मृतपुत्रके वियोगसे वह जले, और असह्य शोकसे शोषित हो । मेरे विरुद्ध होनेपर संसारमें कोई जीवित नहीं रहता, यम भी युद्ध में मुझसे मृत्युको प्राप्त होता है । घत्ता -- जो मेरे चरणकमलोंकी याद नहीं करता और राजत्व चाहता है वह स्वजनों सहित परिजनों से घिरा हुआ यमपुरके रास्ते लगता है ||९|| १० इस प्रकार गरजते हुए राजासे मन्त्रियोंने कहा - "यह युक्त नहीं है; कलहसे क्या ? शत्रुओंके पास दूतको भेज दीजिए। ऐरावत के शीलवाला वह गन्धहस्ति, और जितने रत्नसिद्ध हुए हैं वे, वह दिव्य शंख, वह असंख्य धन, यदि वे तुम्हें देते हैं और आज्ञा मानते हैं, तभी वे जीवित रहते ३. A हरेवि; P हरेमि । ४. Pजमु । ५. A सो सयणसपरियण; P सो सयणपरियणं । १०. १. APणियमंतिहि । २. AP गंधिपीलु । ३. AP°लीलु । Page #310 -------------------------------------------------------------------------- ________________ -५४.११.३] महाकवि पुष्पदन्त विरचित तो दिण्णु दूर कल्लाणभूउ। दारावईसु भीमारिभीसु। जाएवि तेण मउलियकरेण । कुलकुमुयचंदु दिट्ठउ उविंदु । दूएण उत्तु सुणु मंतसुत्तु । मुयबलविसालु कुलसामिसालु। संभरहि देउ रायाहिराउ। गिरितुंगमाणु ताराहिहाणु । भडवरवरिट्ठ तुहुं भो दुविठ्ठ। मेल्लिवि दुआलि मा करहि रालि। तुहईपिएण सह सामिएण। खयरिंद जासु वच्चंति पासु। इच्छंति सेव असितसिय देव । तहु कवणु मल्लु मुइ रोससल्लु । ढोइवि करिंदु पवणहि णरिंदु। घत्ता-ता भणिउं दुविढे रुट्ठएण सामि महारउ हलहरु ॥ अण्णहु सामण्णहु माणुसहु हउं होसमि किं किंकरु ॥१०॥ ११ दुवई-जो मई भणइ भिच्च' परु दुम्मइ दूयय तासु सीसयं ॥ तोडमि रणि तड त्ति मणिकुंडलमंडियगंडएसयं ।। कायकतिओहामियससहरु तहिं अवसरि भासइ जिम्वाहरु । हैं नहीं तो मारे जाते हैं।" तब उसने कल्याणभूति नामक दूतको भीम शत्रुओंके लिए भयंकर द्वारावतीके राजाके पास भेजा। उसने जाकर और अपने दोनों हाथ जोड़कर अपने कुलरूपी कुमुदके चन्द्र उपेन्द्रसे भेंट की। दूत बोला, "आप मन्त्रसूत्र सुनिए । हे देव, बाहुबलसे विशाल कुलके स्वामीश्रेष्ठ गिरिके समान उन्नतवान तारक नामके राजाधिराजकी आप याद करें और योद्धावरोंमें श्रेष्ठ हे द्विपृष्ठ, तुम भी खोटी चाल छोड़कर पृथ्वीके प्रिय स्वामीके साथ झगड़ा मत करो। विद्याधरराजा, जिसका सामीप्य चाहते हैं, जिसकी तलवारसे त्रस्त देव उसकी सेवाकी इच्छा करते हैं, उसका प्रतिमल्ल कौन है ? तुम क्रोधकी शल्य छोड़ दो। करिवर ले जाकर तुम राजाको प्रणाम करो।" __घत्ता-तब द्विपृष्ठने क्रुद्ध होते हुए कहा, "मेरे स्वामी बलभद्र हैं। क्या मैं किसी दूसरे सामान्य मनुष्यका अनुचर हो सकता हूँ? ॥१०॥ जो मुझे भृत्य कहता है, हे दूत, वह मेरा दुश्मन है; मैं युद्ध में मणिकुण्डलोंसे मण्डितगण्ड देशवाले उसके सिरको तड़ करके तोड़ डालूंगा।" अपनी शरीरकान्तिसे चन्द्रमाको पराजित करनेवाले ४. A ता । ५. A सुणि । ६. AP मेल्लहि । ७ P राडि । ११. १. AP भिच्चु । Page #311 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २६४ महापुराण [५४. ११.४पहरणरुक्खराइसंछण्णउं णिवकामिणिवडजक्खिरवण्णउं । लंबललंतचिंधकोमलदलु चलचामरहंसावलिअविरलु । करिगिरिवर लोहियजलणिज्झरु उग्गयचित्तछेत्तइंदीवरु। सुहडंतावलिविसहरचुंभलु गयणविलग्गकोतवंसत्थलु । दूय राउ जइ मग्गइ कुंजरु तो पइसउ सो समरवणंतरु। रुट्ठदुविट्ठसीहसरणक्खहं तहिं णउ चुकइ लुक्कविवक्खहं । इहु वारणु तहु जीवियवारणु भयगारउ वच्छयलवियारणु । घत्ता-तं णिसुणिवि दूएं जंपियंउं महुँ एहउ मणि भावइ ।। हरि तारयसरहहु कमि पडिउ अचल चलंतु ण जीवइ ॥११॥ १० १२ दुवई-जासु तसंति एंति पणवंति थुणंति वि देवदाणवा ।। ____ तासु ण गहणु किं पि तुम्हारिस विबल वरायमाणवा ॥ तो कण्हें जंपिउं पेसुण्ण जाहि दूय मा जंपहि सुण्णउं । तं णिसुणिवि दूयउ णिग्गेउ गउ कहइ ससामिहिं णउ अप्पइ गउ । दुह दुविट्ठ धिट्ठ रणु कंखइ तंबच्छिहिं करवालु णिरिक्खइ। सेव ण करइ णे सो पई मण्णइणियसंमुहं सिरिछिछैइ सणइ । भणइ ण भयवसेण वसि होसमि चाउ दंति करि वरु ढोएसमि । बलभद्र उस अवसरपर कहते हैं, "हे दूत, जो प्रहरणरूपो वृक्षराजियोंसे आच्छन्न है, नृपकामिनियोंरूपी वट-यक्षिणियोंसे सुन्दर है, जिसपर लम्बे और हिलते हुए ध्वजरूपी कोमल पत्ते हैं, जिसपर अविरल चलचामरोंकी हंसावली रहती है, जिसमें रक्तरूपी जलका निर्झर है, उठे हुए विचित्र छत्ररूपी कमल हैं; जो सुभटोंकी आंतोंरूपी हंसावलीसे बीभत्स है, जिसका सुन्दर वंशस्थल आकाशको छूता है, ऐसे हाथीको यदि हे दूत, वह राजा मांगता है तो उसे तुम समररूपी वनान्तरमें भेज दो। क्रुद्ध द्विपृष्ठरूपी सिंहके तीररूपी शत्रुओंको लुप्त करनेवाले बाणोंसे वह नहीं चूकेगा। यह वारण (गज ) उसके जीवनका वारण करनेवाला है, भयकारक और वक्षस्थलका निवारण करनेवाला है।" घत्ता-यह सुनकर दूतने कहा, "मेरे मनमें यह आता है कि नारायण, तारकरूपी श्वापदके चरणों में पड़ा हुआ, हे अचल, चलता हुआ जीवित नहीं रहेगा" ॥१९॥ १२ देव और दानव जिससे त्रस्त होते हैं, आते हैं, प्रणाम करते हैं और स्तुति करते हैं, उसको कोई भी नहीं पकड़ सकता। तुम जैसे बलहीन बेचारे मानवोंकी क्या ?" यह सुनकर नारायणने कठोर बात कही कि "हे दूत, व्यर्थ बकवास मत करो, तुम जाओ।" यह सुनकर दूत निकलकर चला गया। उसने अपने स्वामीसे कहा कि वह अपना हाथी नहीं देता। दुष्ट और ढीठ द्विपृष्ठ युद्धको आकांक्षा रखता है, अपनी लाल-लाल आंखोंसे तलवारको देखता है, न वह तुम्हारी सेवा करता है और न तुम्हें मानता है; अपने सामने श्रीरूपी पुंश्चलीका सम्मान करता है, मदके वशमें २. चित्तछत्तु । ३. AP लुक्कु । ४. P जंपिउं । १२.१. A तो । २. AP दूर गउ णिग्गउ । ३. A ,छह । Page #312 -------------------------------------------------------------------------- ________________ - ५४. १३. ८ ] दंत मुसलजुयले पेल्ला मि रायत्तणु महुं पुणु संकरिसणु अणु राउ जइ होइ कुसुंभइ अणु राज अहरहु तंबोलें हरं किं घेपमि अण्णें राएं महाकवि पुष्पदन्त विरचित घत्ता – हरिकरिभडलोहियकयछडइ दूय ण वड्डिमँ बोल्लमि ॥ रणरंग दुविट्ठहु अट्ठियई पिट्टु करेपिणु घल्ल मिं ||१२|| १३ दुवई - एम भणंतु चलिउ हयगय रहणरभरणेमियधरयलो || हयसंगामतूर बहिरिय दिसबहलुच्छ लिय कलयलो || दसदिसु खंधावारुण माइउ । णिग्गय सज्जनहरिबल तार्वाहि । सहरि गिरिंधीर सुमहाभड । कायते यणिज्जियखयसि हिसिह । दंतिदंत णिम् मूलणखमभुय । सीरसरासनसुरपहरणकर | हरिखुरखयधूलीरछाइ fre दारावइणियडउ जावहिं सकरि सगरुडविंध रहसुब्भड गय मलधवलकमलकज्जलणिह खयरणरामर से वियपयजुय रयणमालकोत्थु जलयरधर एम हत्थि हउं तहु रणि दावमि । अह व करइ पियबं सुदरिसणु । अण्णु राउ संझापारंभइ । to रा छिंदम करवालें । ता पडिजंपिडं तारयेराएं । • होकर यह नहीं कहता कि में वशमें हो जाऊँगा, हाथमें धनुष लेकर हाथीके ऊपर पहुँचूँगा । दाँतके समान मूसलयुगलसे उसे प्रेरित करूंगा, इस प्रकार में उसे युद्धमें हाथी दिखाऊँगा । राज्यत्व तो केवल मेरा बलभद्र करेगा, अथवा फिर सुदर्शनीय प्रिय ब्रह्म करेगा । यदि कुसुम्भ वृक्षमें दूसरा राग ( रंग ) होता है, यदि सन्ध्याके प्रारम्भ में दूसरा राग होता है, यदि पान खानेसे अधरोंपर दूसरा राग होता है; इसी प्रकार यदि मेरा अन्य राग ( राजा ) होता है तो में तलवारसे उसे काट दूंगा । क्या मैं दूसरे राजाके द्वारा ग्रहण किया जाऊँगा ?” तब तारक राजा कहता है २६५ धत्ता- -"हे दूत, मैं बड़ी बात तो नहीं करता, परन्तु जिसमें घोड़ा, हाथी और योद्धाओंके द्वारा लाल-लाल छटा की गयी है, ऐसे रणरंगमें में द्विपृष्ठकी हड्डियोंको पीसकर फेंक दूंगा" ||१२|| ४. APपिभु । ५. AP छष्णमि । ६. A तारायराएं । ७. AP वड्डिम् | १३. १. APवि । २. A समहाभड | ३४ १० १३. इस प्रकार कहता हुआ जिसने घोड़ा, हाथी, रथ और मनुष्योंके भारसे धरतीको नमित कर दिया है, ऐसा वह चला। युद्धके नगाड़ोंके आहत होनेपर दिशाओंको अत्यन्त बहिरा बनाता हुआ कलकल शब्द होने लगा । घोड़ों के खुरोंसे आहत धूलरजसे आच्छादित सैन्य दसों दिशाओं में कहीं भी नहीं समा सका। जबतक वह द्वारावतीके निकट ठहरता है, तबतक सज्जन नारायणका सैन्य बाहर निकला, हाथियों, गरुड़ध्वज चिह्नोंके साथ और हर्षसे उद्भट; और अश्वोंके साथ । गिरीन्द्रके समान धीर मलरहित धवल कमल और काजल के समान, शरीरकी कान्तिसे प्रलयाग्निकी ज्वालाओं को जोतनेवाले, जिनके पैर विद्याधर, नर और देवों द्वारा पूजित हैं, जो महागजों के दांतोंको उखाड़ने में सक्षम बाहुओंवाले हैं; जो रत्नमाला, कौस्तुभ और शंखको धारण करनेवाले ५ Page #313 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २६६ १० महापुराण [ ५४. १३.९भद्दसुभैहउवायाणंदण दुहमदाणववंदविमद्दण । जिह जिह तारएण अवलोइय तिह तिह मइ विभयवहि ढोइय । बलपम्भारें मेइणि हल्लइ विसहरु तसइ रसइ विसु मेल्लइ । घत्ता-करिकारणि तारयमाहवहं सेण्णई संमुहुँ ढुक्कई । लग्गई पकलपाइक्कमुहमुक्कहक्कलल्लक्कई ॥१३॥ दुवई-दसदिसिवहपयासिजसलुद्धई मुहमरुभमियभेमरयं । धणुगुणमुक्कमंदसरजालई कयसुरणियरडमेरयं ।। जायघायलोहियभरियंगई आइरंगरंगंततुरंगई। भडताडियपाडियमायंगई झसतिसूलकरवालपसंगई। वज्जमुट्ठिफोडियसीसकई णीसारियमत्थयमत्थिक्कई । दंडदलियवियलियपासुलियई चलियइं उल्ललियइं पडिवलियई। पित्तसेभसोणियजलण्हायई असिणिहसणसिहि सिहवसु आयई। मोडियकडियलकोप्परठाणई विह डियदेहसंधिसंठाणई। संघारियसामंतसहासई मयमंडलियमउडभाभासई । १० परिपोसियसिववायसगिद्धई सिरिमहिरामारमणपलुद्धई। हैं; जो हल, धनुष तथा देव-अस्त्र जिनके हाथ में हैं, दुर्दम दानवसमूहका दमन करनेवाले हैं, ऐसे कल्याणी सुभद्रा और उषाके पुत्रोंको जैसे-जैसे तारकने देखा, वैसे-वैसे उसकी मति आश्चर्यपथमें चकरा गयो । सेनाके भारसे धरती हिल उठती है, विषधर त्रस्त होता है, चिल्लाता है और विष छोड़ता है। पत्ता--हाथीके लिए तारक और माधवकी सेनाएं आमने-सामने पहुंचीं। प्रगल्भ भृत्योंके मुखसे बोले गये हकारने और ललकारनेके शब्दोंसे युक्त वे दोनों लड़ने लगीं ॥१३॥ जो दसों दिशापथोंमें प्रकाशित यशकी लोभी हैं, जो मुखको हवासे भ्रमरोंको उड़ा रही हैं, जो धनुष-डोरोसे मन्द सरजाल छोड़ रही हैं। जिन्होंने देवसमहके साथ युद्ध किया है, जिनके अंग घावसे उत्पन्न रक्तसे भरे हुए हैं, जिसमें अश्व युद्धके उत्साहमें चल रहे हैं, योद्धाओंसे ताड़ित गज गिर रहे हैं, जो झस-त्रिशूल और करवालसे युक्त हैं, जिनमें वज्रमुट्टियोंसे शिरस्त्राण तोड़े जा रहे हैं, जहां मस्तकोंसे मस्तक निकाले जा रहे हैं, जहां दण्डसे दलित और विगलित पसुरियां चलती हैं, गीली होती हैं और मुड़ती हैं। पित्त, श्लेष्मा और शोणित जलमें स्नात वे तलवारोंकी रगड़से उत्पन्न अग्निकी ज्वालाके वशीभूत हो गयी हैं। जिनके कटितल और हाथका मध्यभागस्थान मुड़ गया है, देहके सन्धिस्थान विघटित हो गये हैं, सामन्तोंके सहायक मारे जा चुके हैं, जो मरे हुए माण्डलीक राजाओंके मुकुटोंको कान्तिसे भास्वर हैं, जिन्होंने शृंगाल-वायस और गिद्धोंको सन्तुष्ट किया है, जो लक्ष्मी, मही और स्त्रीके रमणके लोभी हैं । ___३. AP°सुभद्दावाया । ४. AP°विदं । ५. AP रसइ तसइ । १४. १. AP°भमरई । २. AP°डमरई । ३. A°कडयल । ४. A मुय । Page #314 -------------------------------------------------------------------------- ________________ महाकवि पुष्पदन्त विरचित घत्ता - अरिरुहिरतोय तन्हायतणु पक्खिहिं पक्खझडप्पिय उं ॥ उम्मुच्छिउ को वि महासुहडु लग्गड वइरिहिं विप्पियउ || १४ || -५४. १५. १४ ] १५ दुवई - पेरिफुडकर डगलियमयधारालालसभसलसद्दए । को विकरिददतय सयणइ सुत्तउ मरणणिद्दए । लद्धवीर भंडण महोमिसे घारचंचुभक्खियणरामिसे । उच्छलंत वीसढव सारसे कालदूयरक्खसमहानसे । पहरभग्गगयभीरु माणुसे हम्ममाणभडभमियतामसे | पुव्ववइरसंबंध दारुणे वणगलंतवणरुहवणारुणे । खयररायसंघायमारणे तारएण हरि कोकिओ रणे । कंतदंतगिरिभित्तिदारुणो जेर्म बप्प दिण्णो ण वारणो । बंधु कडुयं सुविपियं जेम दूयपुरओ पयंपियं । अज्जु बाल किं णेव जुज्झसे संत मंतिमंतं ण बुज्झसे । धरणिणाह जयलच्छिधारिणा भणि महिवई दाणवारिणा । दी पंचभूयहं ण लज्जसे मम पुरो तुमं काईं गज्जसे । रायवायव्वेण वग्गसे परहणा किं मुक्ख मग्गसे । इय भणेवि मुक्का तिणा सरा पुंखलग्गहुंकारवरसरा । २६७ ५ धत्ता - शत्रुके रुधिररूपी जलसे आर्द्रशरीर, पक्षियोंके द्वारा पंखोंसे आक्रान्त तथा शत्रुओंसे बुरी तरह लड़ता हुआ कोई सुभट मूच्छित हो गया || १४ || १० १५ स्पष्ट रूपसे गण्डस्थलसे झरती हुई मदधाराकी लालसासे जिसमें भ्रमरशब्द हो रहा है, ऐसे नींद में कोई सुभट हाथीदाँतों को शय्यापर सो गया। जिसमें वीरोंके युद्धका बहाना ढूँढ़ लिया गया है, जिसमें गोधोंकी चोंचोंसे मनुष्योंका मांस खाया जा रहा है, जिसमें वीसढ ? वसा और रस उछल रहा है, जो कालदूतरूपी महाराक्षसका रसोईघर है, जिसमें प्रहारसे भग्न होकर भीरु मनुष्य चले गये हैं, आक्रमण करते हुए योद्धा रौद्रभावसे घूम रहें हैं, जो पूर्वं वैरके सम्बन्धसे अत्यन्त दारुण है; जिसमें घावोंसे रक्तरूपी जल बह रहा है, जिसमें विद्याधर राजाओंके समूहको हिंसा की जा रही है, ऐसे युद्ध में तारकने हरि (द्विपृष्ठ) को ललकारा, "हे सुभट, अपने कान्तदांतोंसे पहाड़ की दीवार के भेदन में दारुण गज तुमने जिस प्रकार नहीं दिया, तथा जिस प्रकार तुमने भाईके कानोंको कटु लगनेवाले अप्रिय कथन दूतके सामने किया; हे मूर्ख, उसी प्रकार तुम क्या नहीं युद्ध करते, शान्तिके मन्त्रिमन्त्रको क्यों नहीं समझते ? " तब पृथ्वीनाथकी विजयलक्ष्मीको धारण करनेवाले दानवोंके शत्रु ( द्विपृष्ठ) ने राजासे कहा, “हे दोन, पांच महाभूतोंसे शर्म नहीं आती, तुम मेरे सामने क्यों गरजते हो । राज्यरूपी बातके गर्वसे तुम घमण्ड करते हो । रे मूर्ख, तुम पराया धन क्यों मांगते हो ?" यह कहकर उसने पुंखके साथ जिसमें हुंकारका स्वरवर लगा हुआ है ऐसे १५. १. AP पडिकरि; K पडिकरि but eorrects it to परि । २. AP महारसे । ३. AP रसावसे । ४. AP माणसे । ५. A दारणो । ६. A जेण । ७. AP तेम । ८. AP पहरणाई; K पहरणाई but corrects it to परहणाई । Page #315 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २६८ महापुराण [ ५४. १५. १५१५ एते तारएणं वियारिया वइरिबाण बाणेहिं वारिया । णाई णाय णाएहिं कयफणा लोहवंत पिसुण व्व णिग्गुणा । घत्ता-पडिकण्हें कण्हहु पट्ठविउ अलयहउ उद्दामउ ॥ अइदीहरु कालउ पंचफडु भीयरु मारणकामउ ॥१५॥ दुवई-सो गरुडेण हणेवि खणि घेल्लिउ पडिबलजलणवारिणा ॥ मायातिमिरपडलु तो पेसिउ तहु हुंकरिवि वइरिणा॥ तं पि विवक्खलक्खखयकालें हरिणा णासिउं रवियरजालें। इय दिव्वाउहपंतिउ छिण्णउ बहुयउ लक्खकोडिसयगण्णउ । पुणु बहुरूविणिविजपहावें जुज्झिउ पडिहरि कुडिलसहावें। सा वि पणट्ठ जणद्दणपुणे सिरिमइतणएं अंजणवणे। लेवि चक्कु करि भामिवि वुत्तउं देहि हत्थि मा मरहि णिरुत्तउं । ता पडिलविय उवायापुत्ते किं ससहरु जिप्पइ णक्खत्ते । जइ ण धरमि रहंगु सई हत्थे तो पइसमि हुयवहु परमत्थे । १० मरु को मरइ संढ तुह घाएं मुकु चक्कु तो तारयराएं । तीर छोड़े। आते हुए उन तीरोंको तारकने विदारित कर दिया। शत्रुके बाणोंका उसने बाणोंसे निवारण कर दिया, जैसे नागोंके द्वारा फन उठाये हुए नाग हों। वे तीर लोहवन्त ( लोहेसे बने, लोभयुक्त ) और दुष्टकी तरह, निर्गुण ( डोरी रहित-गुणरहित थे)। __घत्ता-प्रतिकृष्ण तारकने द्विपृष्ठके ऊपर उद्दाम अत्यन्त दीर्घ काला पांच फनका भयंकर मारनेकी इच्छावाला जलसर्प फेंका ॥१५॥ १६ उसे द्विपृष्ठने शत्रुबलकी ज्वालाके लिए जलके समान गरुड़ बाणसे एक क्षणमें नष्ट कर दिया। तब दुश्मनने हुंकार करते हुए उसके ऊपर मायावी ( कृत्रिम ) अन्धकारका पटल फेंका। उसे भी विपक्षके लक्ष्य के लिए क्षयकालके समान सूर्यकिरण जालसे नारायणने नष्ट कर दिया। इस प्रकार सैकड़ों लाख करोड़से गुणित बहुत-सी दिव्य आयुधपंक्तियां छिन्न हो गयीं। फिर प्रतिनारायण बहुरूपिणी विद्याके प्रभावसे और अपने कुटिल स्वभावसे लड़ता रहा। वह विद्या भी जनार्दनके पुण्य और श्यामवर्ण श्रीमतीके पुत्र द्वारा नष्ट कर दी गयी। तब उसने अपना चक्र हाथमें लेकर और घुमाकर कहा कि "हाथी दे दो, निश्चय ही तुम मत मरो।" इसपर द्विपृष्ठने प्रत्युत्तर दिया, "क्या नक्षत्रके द्वारा चन्द्रमा जीता जा सकता है। यदि मैं तुम्हारे चक्रको अपने हाथमें ग्रहण नहीं करता, तो मैं वास्तवमें अग्निमें प्रवेश करूंगा। मूर्ख नपुंसक, तुम्हारे आघातसे कौन मरता है।" तब तारक राजाने चक्र छोड़ा। ९. A एंति । १०. P लोहवंता। १६.१. A सो धल्लिउ । २. A तहि पेसिउ । ३. A हववहि । Page #316 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २६९ -५४. १७. १२] महाकवि पुष्पदन्त विरचित पत्ता-रक्खंतहं णियवइणिब्भयहं पहरणेहिं पहरंतहं ।। तं आयउ सयलहं पत्थिवह झत्ति धरंत धरंतहं ॥१६॥ दुवई-देवासुरणरिंदफणिखेयरकिंणरदप्पहारयं । भुयणुज्जोयकारि माणिक्कमऊह विराइयारयं ।। भाणुबिंबु णं किरणहिं जेडियउं वासुएवकरणियडइ पडियउं । धरिवि तेण करि जंपिउं एहउं एवहिं तुज्झु सरणु कहिं केहउं । करहि केर बलएवहु केरी अणुहुंजहि संपय गरुयारी। ता पडिसत्तु चवइ विहसेप्पिणु मंडाखंड भिक्ख पावेप्पिणु । जिह णच्चइ संतोसें देसिउ तिह तुहुँ एण रहंगें हैरिसिउ । रासहु होइवि हथिहि लग्गइ. वायसु होइवि गरुडहु विगंहि । पत्थर होइवि मेरु व मण्णहि अप्पउ वारु वारु किं वण्णहि । रे गोवालबाल णउ लजहि __ महुं अग्गइ भडवाएं भजहि ।। घत्ता-लइ रक्खउ तेरउ सीरहरु एवहिं मारमि लग्गउ ॥ किं चुक्कइ काणणि केसरिहि दिट्रिपंथि णिब्वैडिउ म ॥१७॥ घत्ता-अपने स्वामीको निर्भय बनानेवाले रक्षकोंके अस्त्रोंसे प्रहार करते हुए और समस्त . राजाओंके पकड़ते हुए भी वह चक्र आया ॥१६॥ देव, असुर, नरेन्द्र, नाग, विद्याधर और किन्नरोंका दर्प हरण करनेवाला, विश्वको आलोकित करनेवाला, माणिक्य किरणोंसे शोभित आराओंवाला, किरणोंसे विजड़ित सूर्यबिम्बके समान वह चक्र वासुदेवके हाथके निकट आकर ठहर गया। उसने उसे हाथमें लेकर यह कहा कि "बताओ इस समय तुम्हारी शरण कौन है ? तुम बलभद्रकी आज्ञा मानो और अपनी भारी सम्पत्तिका भोग करो।" तब प्रतिशत्रु तारक हंसकर कहता है, "अपूपखण्ड भीखमें पाकर देशी आदमी जैसे सन्तोषसे नाच उठता है, वैसे ही तुम इस चक्रसे प्रसन्न हो रहे हो, गधे होकर तुम सिंहसे लड़ते हो । कोआ होकर गरुड़से युद्ध करते हो, पत्थर होकर अपनेको मेरु समझते हो, अपने आपको रोको-रोको, स्वयंका क्या वर्णन करते हो ? रे-रे ग्वाल बच्चे, शर्म नहीं आती। मेरे आगे सुभट हवा भग्न करना चाहता है। पत्ता-ले तू अपने बलभद्रको बचा, इस समय लड़ते हुए उसे मारता हूँ। क्या जंगलमें सिंहके दृष्टिपथमें आया हुआ मृग बच सकता है ?" ॥१७॥ १७.१. A जलियउ । २. A भिक्खु । ३. P रहसिउ । ४. AP वग्गहि । ५. AP णिवडिउ । ६. AP गउ । Page #317 -------------------------------------------------------------------------- ________________ - २७० महापुराण [ ५४. १८.१ १८ दुवई-एव भणेवि धीरु विसविसमविसण्णवणिसियअसिवरं ॥ अरिकरिकुंभकलियधवलुज्जलमोत्तियपंतिदंतुरं ॥ थक्कउ करयलेण उग्गामिवि ता सिरिरमणे णयलि भामिवि । मुक्कु चक्कु ढुक्कउ रिउकंठहु णावेइ अत्थसिहरि उवकंठहु । जाइवि दिणयरबिंबु णिमण्णउं लोहियलित्तउं लोहियवण्णउं । ससयणसडयणदिण्णसुहेलिहि फुल्लु णाई हरिसाहसवेल्लिहि । हसियपुसियपरणरवइरायहु पडिउ सीसु तारयणरणाहहु । खग्गें वसिकिउ लोउ असेसु वि मागहु वरतणु जित्तु पहासु वि । जिह महि सिद्धी अद्ध तिविठ्ठहु तिह हूई णिवैरिद्धि दुविठ्ठहु । उत्तंगत्ते धणु सो सत्तरि जीविउं वरिसलक्ख बाहत्तरि । पावें पाविउ सत्तमु महियलु तहिं अवसरि णिर्यमणि चिंतइ बलु । जहिं पडिकेसउ तहिं गउ केसव काले णडियउ णिवडइ वासवु । एम भणेप्पिणु पासि तिगुत्तहु वर्ड लइयउं समत्थु समचित्तहु । बहुरिसिवंद समउ समाहिउ केवलणाणसिरीइ पेसाहिउ । इस प्रकार कहकर वह धीर विषके समान विषम जलवाले, समुद्र के समान पेनो और शत्रुगजोंसे स्खलित धवल उज्ज्वल मोतियोंकी पंक्तिकी दांतोंवाली तलवार हाथमें उठाकर स्थित हो गया। इतने में नारायणने आकाशमें घुमाकर चक्र छोड़ा। वह शत्रुकण्ठपर इस प्रकार पहुंचा, मानो जैसे अस्ताचलके निकट जाकर दिनकरका बिम्ब निमग्न हो गया हो, लोहित ( लालिमा और रक्त ) से लिप्त लाल-लाल रंगका। जैसे वह स्वकीय जनरूपी भ्रमरोंको सुख देनेवाली नारायणके साहसरूपी लताका फूल हो, जिसने शत्रुराजाओंका उपहास और नाश किया है, ऐसे तारक राजाका सिर गिर पड़ा। नारायणने तलवारसे अशेष लोगोंको अपने वशमें कर लिया, उसने मागध, वरतणु और प्रभासको भी जीत लिया। जिस प्रकार त्रिपृष्ठके लिए आधी धरती सिद्ध हुई थी, उतनी ही नृप ऋद्धि द्विपृष्ठकी भी हुई। ऊंचाईमें वह सत्तर धनुष था और उसका जीवन बहत्तर लाख वर्षका था। पापसे उसे सातवें नरक जाना पड़ा। उस अवसर बलभद्र अपने में विचार करते हैं कि जहाँ नारायण गया, वहीं प्रतिनारायण गया। कालसे प्रतारित इन्द्रका भी पतन होता है। यह कहकर उसने समचित्त त्रिगुप्त मुनिके पास समर्थ व्रत ग्रहण कर लिया । बहुत-से मुनिसमूहके साथ सावधान वह केवलज्ञानरूपी लक्ष्मीसे प्रसाधित हो गया। १८. १. AP°गलिय । २. A णं रवि अत्थं । ३. A णिवण्णउ । ४. P हसिउ पुसियं । ५. A पुसिउ । ६. A णिव झत्ति दुविट्ठहु । ७. AP उत्तुंगत्तें । ८. AP चितइ णियमणि बलु। ९. AP वउ । १०. A समत्तु णियचित्तहु । ११. AP°रिसिविंदहिं । १२. P पहासिउ । Page #318 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २७१ २७१ -५४. १८. १६ ] महाकवि पुष्पदन्त विरचित धत्ता-गउ मोक्खहु अचलु अकंपमैइ भरहणरेसरव दिउ । जोइस विमाणवासियपवर "पुप्फदंतसयवंदिउ ॥१८॥ इय महापुराणे तिसहिमहापुरिसगुणालंकारे महामव्वमरहाणुमण्णिए महाकइपुप्फर्यतविरइए महाकवे अचलदुविटुतारयकहंतरं णाम चटवण्णासमो परिच्छेओ समत्तो ॥५४॥ घत्ता-अकम्पित बुद्धि भरतेश्वरके द्वारा वन्दित अचल मोक्षके लिए गया, ज्योतिष विमानोंमें निवास करनेवाले प्रवर नक्षत्रोंके द्वारा वन्दनीय ॥१८॥ इस प्रकार त्रेसठ महापुरुषोंके गुणालंकारोंसे युक्त महापुराणमें महाकवि पुष्पदन्त द्वारा विरचित एवं महामन्य भरत द्वारा अनुमत महाकाव्यका अचक द्विपृष्ठ तारक कथान्तर नामका चोवनवाँ परिच्छेद समाप्त हा॥५४॥ १३. A अकंपमणु । १४. A पुप्फयंत । Page #319 -------------------------------------------------------------------------- ________________ संधि ५५ तवसिरिराइयहु मुणिझाइयहु सयमहमहियपेयावहु ॥ वंदिवि कमजमैलु णिजियकमलु विमलहु विमलसहावहु ॥ध्रुवक। Y णरउलमहिलं जेण विरइयं सत्थं सारं जस्स गहेलं णट्ठसमोहं काउं समयं पत्ता णरयं भुवणमहीसं पई परिहीणं णारयविवरे णासइ गरयं ण हु उलुहंते देव पइट्ठो वज्जियमहिलं । भोयविरइयं । वयणंसारं। हिंसाहेउं । वड्ढियमोहं। मयमाणमयं । जे ताणरयं । कह लहिही सं। जिण पडिही थे। णविए विवर। जणियंगरयं। सरणमहं ते। तं मह इट्ठो। १५ सन्धि ५५ जो तपरूपी लक्ष्मीसे शोभित हैं, मुनियोंके द्वारा जिनका ध्यान किया गया है, जिनका प्रताप इन्द्रके द्वारा पूजित है, जो विमल स्वभाववाले हैं, ऐसे विमलनाथके कमलोंको पराजित करनेवाले चरणकमलोंकी में वन्दना करता हूँ। जिन्होंने नरकुलोंको पृथ्वी प्रदान की है, जो महिलासे रहित हैं और जिन्होंने भोगसे विरहित परमार्थभूत सार्थक वचनांशवाले शास्त्रकी रचना की है। जो हिंसाके कारणभूत समतासमूहके नाशक मोहवर्धक शास्त्रको ग्रहण कर तथा मान और मद बढ़ानेवाले शास्त्रकी रचना कर उसमें अनुरक्त होते हैं, वे नरकको प्राप्त होते हैं। जो विश्व, बुद्धिविहीन है वह सुख कैसे प्राप्त कर सकता है। हे जिन, आपसे रहित यह विश्व निश्चित रूपसे नरकमें पड़ेगा, गरुड़के द्वारा कामभावको उत्पन्न करनेवाला विष ध्वस्त नहीं किया जा सकता। उल्लुओंके हन्ता कौओंके निकट मेरी शरण नहीं है। हे देव, मैं तुम्हारी शरणमें हूँ, वही मुझे इष्ट है । गृहेन्द्रोंको त्रस्त करनेवाला महेन्द्र १.१. A सिरिरायह । २. AP पहावहु; K पहावहु but corrects it to पयावह । ३. AP जुवलु । ४. A जे ताणरयं; P जेत्ताणरयं । ५. A महु । Page #320 -------------------------------------------------------------------------- ________________ -५५. २. ८ ] इथुइवायं तसियगहिंदो तं गुणविमलं इयमोहंगं भणिमो सरसं महाकवि पुष्पदन्त विरचित करइ सुवायं । जस्स महिंदो | विडं विमलं । घत्ता - तेरहमउ अवरु जणसंतियरु सुत्तगफसोमालइ ॥ अंचमि रहिय खयविरहियइ जिणु कव्वुप्पलमालइ ॥१॥ २ धादइiss परिभमियहरि हि विदेह तरंतकरि तहि दाहिणकूलि कलंबहरि फलरेंसवहरुक्ख सोक्खसयरि पहु पउमसेणु परमारमणु कयलीदलवीयणसीयरइ मंदाणिलचालियकुसुमरइ वयणुग्गयधीरधम्मैज्झणिहि तरस कहंगं । वारिय सरसं । पुव्वामरगिरिगंभीरदरि । सीय णामें अस्थि सरि । णवसत्तच्छयछाइयैमिहिरि | रम्यवइदेसि महाणयरि । नवजोठवणु रमणीमणदमणु । दिसिउग्गयसर सरसीयरइ । हिंदिणि वणि पीइंकरइ । पायंतिय सव्वगुत्तमुणिहि । २७३ २० जिन विमलनाथकी इस प्रकार शोभन स्तुति वचनोंकी रचना करता है, ऐसे गुणोंसे पवित्र उनको मैं नमन करता हूँ । तथा मोहको नष्ट करनेवाले, सरस परन्तु काम सुखसे रहित उनके कथांगका कथन करता हूँ । ५ घत्ता - जनशान्तिके विधाता तेरहवें जिनवर विमलनाथकी में कवि पुष्पदन्त मनुष्योंका हित करनेवाली सुन्दरतम उक्तियोंसे रचित, क्षयसे रहित काव्यरूपी कमलमालासे अर्चना करता हूँ ॥१॥ २ जिसमें सूर्य परिभ्रमण करता है ऐसे धातकीखण्ड में पूर्व सुमेरपर्वतकी गम्भीर घाटी है । उसके पूर्वविदेह में, जिसमें गज तेरते हैं ऐसी सोता नाम को नदी है । उसके दक्षिण किनारेपर कदम्ब वृक्षोंको धारण करनेवाला जिसमें नव सप्तपर्णी वृक्षोंसे सूर्य आच्छादित है और जो फलरसके प्रवाहवाले वृक्षोंके कारण सुखदायक है ऐसे रम्यकवती देशमें महानगरी है । उसमें राजा पद्मसेन था । लक्ष्मी से रमण करनेवाला वह नवयुवक और रमणियोंके मनका दमन करनेवाला था । एक दूसरे दिन, जो कदली वृक्षोंके पत्तोंके पंखोंसे शीतल है, जिसमें सरोवरोंके शीतल जलकण दिशाओं में उड़ रहे हैं, जिसमें मन्द पवनसे कुसुमपराग आन्दोलित हैं, ऐसे पीतंकर नामके वनमें, जिनके मुखसे धीर धर्मध्वनि निकल रही है ऐसे सर्वगुप्ति नामके मुनिके चरणोंमें अपने पुत्र ६. AP गुंफसोमालइ; T गफ । २. १. AP अवरविदेहि । २. AP सीओया । ३. P°महरि । ४. A रिसबहुभक्ख सोक्खसयरि; रसबहुरुक्ख सोक्खसयरि । ५. P धम्मु झुणिसि । ६. A सव्त्रति । ३५ Page #321 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २७४ महापुराण [५५.२.९. संपयपइ पउमणाहु करिवि आरंभडंभविहि परिहरिवि । १० थक्कउ रिसिदिक्खइ दिक्खियउ एयारह अंगई सिक्खियउ । पत्ता-मलु उड्डावियउ समु भावियउ पंकयसेणे घणघणु ।। पक्खि व पंजरइ दुक्कियविरइ धम्मज्झाणि धरिउँ मणु ॥२॥ सुकिउ भववासकिलेसहरु आवजिवि तित्थयरत्तयरु । मुउ मुक्काहारु विसुद्धमइ हुउ सहसारइ सहसारवइ । अट्ठारहजलहिपमाउधरु चउरयेणिसरीरु अरोयजरु । णवमासहिं एकसु सो ससइ परमाणुय वर मणेण गसइ । णवणवसहसहिं संवच्छरह सुहं जणइ णिएवि मुहूं अच्छरह। जावंजणमहि ता जाणगइ तहु गुण किं वण्णइ खंडकइ । तें"दीहु कालु दिवि संचरिउं जइयहुँ अयणंतर ऊवरि । तइयतुं पढर्मिदे लक्खियां सहस त्ति कुबेरहु अक्खियउं । इह भरहखेत्ति कंपिल्लपुरि पुरुदेववंसि विम्हवियेसुरि । १० कयवम्मु राउ तहु घरणि जयणं विहिणा वम्मह वित्ति कय । घत्ता-ताहं महागुणहं बेण्णि वि जणहं होसइ भवणि भडारउ ॥ कम्ममणोरहहं अट्ठारहहं णियदोसहं खयगारउ ॥३॥ पद्मनाथको सम्पत्तिके स्थानपर नियुक्त कर, आरम्भ और दम्भकी विधिको छोड़कर स्थित हो गया। मुनिदीक्षासे दीक्षित उसने ग्यारह अंगोंका अध्ययन किया। धत्ता-पद्मसेनने मलका नाश किया, समताका सघन चिन्तन किया। पिंजड़े में स्थित पक्षीकी तरह पापसे विरत धर्मध्यानमें उसने मन लगाया ॥२॥ संसारवासके क्लेशको दूर करनेवाले पुण्य और तीर्थंकर प्रकृतिका बन्ध कर निराहार विशुद्धमति वह मर गया तथा सहस्रार स्वर्गमें इन्द्र हुआ। उसकी आयु अट्ठारह समुद्र प्रमाण थी। ज्वर और रोगसे रहित उसका चार हाथ शरीर था। नौ माहमें एक बार वह सांस लेता। अट्ठारह हजार वर्षमें मनसे परमाणुओंका भोजन करता. अप्सराओंका मुख देखनेसे उसे सुख उत्पन्न हो जाता। जहां तक अंजनाभूमि ( नरकभूमि ) है वहाँ तक उसके ज्ञानकी गति है। यह खण्डकवि पुष्पदन्त उसके गुणोंका क्या वर्णन करता है। वह लम्बे समय तक स्वर्गमें संचार करता रहा। जब उसके छह माह शेष बचे तब प्रथम स्वर्गके इन्द्रने जान लिया और अचानक कुबेरसे कहा, "इस भरत क्षेत्रके कापिल्य नगरमें देवोंको विस्मित करनेवाले पुरुदेव वंशमें कृतवर्मा नामका राजा है, उसकी गृहिणी जया है जो मानो विधाताने कामदेवकी वृत्ति बनायी हो। पत्ता-महागुणवाले उन दोनोंके घरमें आदरणीय जिन उत्पन्न होंगे, कर्मोके मनोरथों और अट्ठारह अपने दोषोंका क्षय करनेवाले ॥३॥ ७. AP धरियउ। ३.१. P जलहिपरमाउँ । २. A चउरयण । ६. AP विभइयसुरि । ७. AP दोहं मि । ३. A परमाणुवरसुमणेण । ४ A सहसइं। ५. A तं । Page #322 -------------------------------------------------------------------------- ________________ -५५. ५.५] महाकवि पुष्पदन्त विरचित २७५ जक्खाहिव तुरियउं जाहि तुहुं करि पुरु घेरि चिंति भोयसुहं । ता पुरवर णिहिणाहें विहिउं णं सग्गखंडु धरणिहि णिहिउं । दहिकुट्टिमयलजियसरयघणु गयणग्गलग्गमणिमयभवणु । वणरुक्खराइसुरहियपवणु वणरुहसररयकलहंसयणु । सयणागमहरिसियपउरयणु रयणंसुजालजियतियसधणु। धणु दिज्जइ जहिं बहुदेसियह सियरहियह णिचपवासियहं । सियसिहरबद्धधयपाडलिङ पाडलपूर्यफलदुमललिउं । ललियंगपसाहियकामियणु कामियणपरोप्परदिण्णमणु । घत्ता-णरणियराउलइ तहिं राउलइ जयदेविइ सुहसुत्तइ ।। सिविणावलि णिसिहिं उग्गय दिसिहिं दीसइ कोमलगत्तइ ।।४।। करि दाणजलोल्लकवोलयलु पंचाणणु रुइहयहारमणि दुइ सुमणालउ मालउ खयलि तिमि दोणि रमत तरंत जलि दो कलस ससलिल सकमल सदल ढेकंतु वसहु जियवसहबलु । अरविंदणिलय माहवरमणि । हिमयर अहिमयरुग्गय विउलि। संणिहिय मणोरम धरणियलि। णलिणालय मयरालय विमल । हे यक्षराज, तुम शोघ्र जाओ और धरतीपर नगर और चिन्तित सुख उत्पन्न करो।" तब कुबेरनाथने पुरवरकी रचना की मानो स्वर्गखण्डको ही धरतीपर रख दिया गया हो। जिसमें स्फटिक मणियोंके तल द्वारा शरद मेघ जीत लिया गया था, जिसके मणिमय भवन गगनतलको छते थे, जहाँ वनवृक्षराजिसे पवन सुरभित था, जिसके कमलसरोवरोंमें कलहंससमूह रत हैं, जहां स्वजनोंके आगमसे प्रचुर जन प्रसन्न होते हैं, जहां रत्नोंके किरणजालसे देवोंका धन जीत लिया गया है, जहाँ बहुत-से देशो लोगों तथा धन रहित नित्य प्रवासियोंको धन दिया जाता है, जहां श्रीशिखरों पर रंगबिरंगी पताकाएं हैं, जो पाटल पूगफल ( सुपाड़ी) वृक्षोंसे सुन्दर है, जहाँ कामिनीजन सुन्दर अंगोंसे प्रसाधित हैं, जहां कामो लोग एक दूसरे पर मन देते हैं पत्ता-मनुष्य समूहसे संकुल उस राजकुलमें सुखसे सोयी हुई कोमल देहवाली जयदेवी प्रभातके समय रात्रिमें स्वप्न देखती है ।।४।। मदजलसे आई कपोलतलवाला हाथी, बैलोंका बल जीतनेवाला गरजता हुआ हाथी, अपनी कान्तिसे हारमणिको तिरस्कृत करनेवाला सिंह, कमलघरवाली लक्ष्मी, आकाशतल में दो पुष्पमालाएं, आकाशमें उगे हुए चन्द्रमा और सूर्य, जलमें तैरती और क्रीड़ा करती हुई दो मछलियां, दल, कमल और जलसे सहित धरतीपर रखे हुए सुन्दर दो कलश, स्वच्छ सरोवर और समुद्र, ४. १. AP घरु। २. A चितियभोयसुहुँ। ३. A°सिरिरयवलहंसगणु । ४. AP तहिं । ५. A पाडल पूईफल । ६. AP सुहं सुत्तए । ५.१. A ढिकंतु । २. A दोण्ण । ३. AP तरंत रमंत । ४. P कलस सलिल । Page #323 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २७६ महापुराण [५५. ५. ६आसंदी हरिणरायधरिय अमरिंदवसहि पहपरियरिय । णाइणिगिजंतगेयमुहलु णाइंदहु केरउं सउहयलु । मणिरासि सिहाहि फुरंतु सिहि सिविणोलि णिहालिय दिण्णदिहि । घत्ता-सा सीमंतिणिय पीणत्थणिय दसणु दइयहु भासइ ।। देउ णराहिवइ पडिबुद्धमइ तं फलु ताहि समासइ ॥५॥ पयपुंडरीयजुयणवियसुरु अरहंतु अणंतु तिलोयगुरु । मयरद्धयधयणिल्लूरणउ परमेसरि होसइ तुह तणउ । इंदाएसें णिम्मच्छरउ एत्थंतरि आयउ अच्छरउ । जयदेविहि देहु पसंसियउ गब्भासयदोसु विहंसियउ । छम्मासु हेमधाराधरहिं वरिसिउ जक्खहिं णं जलहरहिं । जे?हुं मासहु तमदसमिदिणि उत्तरभद्दवयइ हिम किरणि । रयणेहिं सुरेहिं संथुयचरिउ करिरूवें गम्भि समोयरिउ । णिहिकैलससविक पयडियउं णवमास पुणु वि वसु णिवडियउं । जइयतुं सायरसम तीस गय मिच्छतं दूसिय सयल पय । पल्लंतपणट्ठइ धम्मि वरि णिव्वुइ बारहमइ तित्थयरि। कंचणचूलालिहियंबुहरि तइयतुं कयवम्महु तणइ घरि । सिंहके द्वारा धारण की गयी बैठक (सिंहासन ), प्रभासे आलोकित देवविमान, नागिनीके द्वारा गाये गये गीतसे मुखर नागका भवनतल, रत्नराशि और ज्वालाओंसे जलती हुई आग। इस प्रकार भाग्यशाली स्वप्नावली देखी। घता-पीनस्तनोंवाली वह सीमन्तिनी अपने पतिसे कहती है। प्रतिबुद्धमति नरराज देव उसका फल उसे बताते हैं ।।५।। १० जिनके चरणकमलोंमें देव नमन करते हैं ऐसा अरहन्त अनन्त त्रिलोकगुरु कामदेवका नाश करनेवाला पुत्र, हे परमेश्वरी, तुम्हारे उत्पन्न होगा। इसी बीच इन्द्रके आदेशसे मत्सरसे रहित अप्सराएं वहाँ आयीं। उन्होंने जयादेवीकी प्रशंसा की और गर्भाशयके दोषको दूर किया। जलधरोंकी भांति यक्षोंने छह माह तक स्वर्णमेघोंकी वर्षा की। ज्येष्ठ माहके शुक्ल पक्षको दसमीके दिन, उत्तराभाद्रपद नक्षत्रमें चन्द्रमाके रहनेपर, रत्नों और देवों द्वारा संस्तुत चरित्र, देव हाथीके रूप में गर्भमें अवतरित हुए। (कुबेरने) निधिकलशोंमें अपना विक्रम प्रकट किया और नौ माह तक और धनकी वर्षा हुई । जब बारहवें तीर्थंकरके निर्वाण कर लेनेपर तीस सागर,प्रमाण समय बीत गया तब समस्त प्रजा मिथ्यात्वसे दूषित हो गयी। एक पल्य पर्यन्त धर्मके नष्ट होनेपर कृतवर्माके स्वर्णशिखरोंसे मेघोंको छूनेवाले घरमें तब ५. P ताउ । ६.१. AP°णमियं । २. A°कलसविमुक्कउ । ३. A धम्मवरि । Page #324 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २७७ -५५.७.१३] महाकवि पुष्पदन्त विरचित घत्ता-माहचउँस्थिहि वैड्ढियससिहि सिवजोयइ जिणु जाय । संदणहयगयहिं लंबियधयहिं चउदिसु सुरयणु आइउ ॥६॥ मायासिसु मायहि ढोइयउ सकें जिणवयणु पलोइयउ। कर मउलिवि पणविवि परमपरु पुणु भत्तिइ लेविणु तित्थयरु । करि पेल्लिउ चल्लिउ गयणयलि पडपडहमेरिढक्कामहलि। लंघेविणु रविससिमंडलई णं णहयललच्छिहि कुंडलई। गउ तेत्तहिं जेत्तहिं पंडुसिल णिरु णिम्मल णावइ सिद्धइल । मंदरगिरिसिरि विरइउं ण्हवणु तहु देवहिं पुजिय दिवतणु । पंडुरि ससहरकररासिहरि आणेप्पिणु णिहियउ जणणिघरि । सिसु संसिवि जय चिरु सुकयतव गय णञ्चिवि णायहु णायभव । कालेण पवड्ढिउ जिणु तरुणु गरुयारउ हूयउ सहिधणु। सहसट्टत्तरमियलक्खणई तहु दिई बहुयई वेजणई। वण्णेण वि सहइ सुवण्णणिहु हो कि मई वणिजइ अरिह। परमेसहु माणियबालवय वरिसहं पण्णारह लक्ख गय । पुणु सयमहेण पणविवि ण्हविउ रायत्तणि तिजगराउ थविउ । घत्ता-माघशुक्ला चतुर्थीके दिन शिवयोगमें जिनका जन्म हुआ। अपने लम्बे ध्वजों तथा रथों और गजोंके द्वारा चारों दिशाओंसे देव आये ॥६॥ इन्द्रने मायावी बालक माताको दे दिया और जिनवरका मुख देखा। हाथ जोड़कर, परमश्रेष्ठको प्रणाम कर फिर भक्तिसे तीर्थंकरको लेकर, वह हाथीको प्रेरित कर, पटु-पटह-भेरी और ढक्काओंसे मुखर आकाशमें चला। आकाशरूपी लक्ष्मीके कुण्डलोंके समान सूर्यचन्द्रको लांघकर वह वहां गया जहां पाण्डुक शिला थी, अत्यन्त निर्मल जैसे सिद्धशिला हो। मन्दराचल पर्वतके शिखरपर अभिषेक किया गया। देवोंने उनके दिव्य तनकी पूजा की। चन्द्रमाको किरण राशिका हरण करनेवाले माताके धवल घरमें लाकर उनको स्थापित कर दिया। "हे सुकृततप, चिरकाल तक तुम्हारी जय हो" इस प्रकार शिशुको प्रशंसा कर देवता लोग अपने-अपने स्वर्गों में चले गये। समयके साथ जिन भगवान् बढ़ने लगे। तरुण जिन साठ धनुष प्रमाण हो गये। एक हजार आठ लक्षण और बहुत-से व्यंजन ( सूक्ष्म चिह्न) उनके शरीरपर दिखाई दिये। वर्णमें वह स्वर्णके समान शोभित थे। अरे मैं अरहन्तका क्या वर्णन करूं। परमेश्वरके द्वारा भुक्त बालकपनकी आयु पन्द्रह लाख वर्ष बीत गयी। पुनः इन्द्रने प्रणाम कर उनका अभिषेक किया और उन्हें ४. A°च उद्दसिहि; P चउत्थिसिइ। ५. AP वट्टियं । ७.१. P भत्ति । २. देव । ३. AP जणणिहरि Kजणणिकरे but corrects it to जणणिघरि । ४. A जिण तरुणु । ५. A अट्टोत्तरसयमिय; P सदृत्तरसयभियं । ६. A तहु णवसयसंखई; P तह तवसयसंखहं। Page #325 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २७८ १५ १० महापुराण वसिहं वसिहूई दिणकरा तिउणियदहलक्खई भुत्त धरा । धत्ता- तुहिणविणिग्गमणि महुआगमणि तीरोसँरियजलालउ । रविकिरणहिणिवि हिमकण घुणिवि गिंभें जित्तु सियाल ||७| [ ५५.७.१४ ८ काले कालु पलट्टियउ | जणु तो विण जुंजइ धम्मइ । दिवि दिवभोमाणियउं । तिहिं णाहिं तिहुवणु जाणियउं । हा मई विण अपरं चेइयउं । मयरद्धयबाणहिं जोहियउ । अण्णम अण्णु अण्णागु जिहे । अहिसित्तड सुरवरपंतियहिं । ग झत्ति सहेजयणाम वणु । अवलोइवि सो दलवट्टियउ पहु चितइ अणुदिणु परिर्णवइ चिरुचित्तु दुचित्तहु णीणिय उं पुणु जीवि जम्मणु आणियउं इंदियव सेण ण विवेइयउं पुत्तकतह मोहियउ अच्छइ णणियच्छमि किं पि कि ता संवोहिउ लोयंतियह किउ देवयत्तसिविया रुहणु घत्ता-माहच उत्थियहि ससहरसियहि छौवीसमि णक्खत्तइ ॥ सहुं सहसें विहं इच्छियसिवहं थिउ जिणु जइँणचरित्तइ ||८|| राज्यगद्दी ( राज्यत्व ) पर स्थापित किया । तीनगुना दस - अर्थात् तीस लाख वर्ष उन्होंने धरती-, का भोग किया । धत्ता - हेमन्तके निर्गमन और वसन्तके आगमनपर ग्रीष्म ऋतु में सूर्यकिरणोंसे हिमकणोंको नष्ट कर जिसके तोरसे जल समूह हट गया है ऐसे शोतकालको जीत लिया ||७|| ८ उस ( शीतकाल ) को ध्वस्त देखकर प्रभु विचार करते हैं कि "कालके द्वारा काल बदल दिया गया । मनुष्य प्रतिदिन बदलता रहता है फिर भी वह धर्ममतिसे युक्त नहीं होता । पहले मैंने चित्तको दुराचरणसे निकाला था, तथा स्वर्ग में दिव्यभोगोंका उपभोग किया। फिर जोवन जन्मको प्राप्त हुआ । ज्ञानसे त्रिभुवनको जान लिया। लेकिन इन्द्रियोंके वशीभूत होकर मैंने विवेक से काम नहीं लिया । हा, मैंने स्वयंको नहीं चेताया । मैं धन, पुत्र और कलत्रमें मोहित हूँ, कामदेव के बाणोंके द्वारा देखा गया हूँ। किसी भी वस्तुको मैं किसी प्रकार विद्यमान ( स्थिर ) नहीं देखता हूँ । अज्ञानी के समान भ्रान्त चित्त में अन्य हूँ ।" तब लौकान्तिक देवोंने सम्बोधित किया और देवोंकी पंक्तियोंने अभिषेक किया। उन्होंने देवदत्ता नामक शिविकापर आरोहण किया और वह शीघ्र ही सहेतुक नामक उद्यानमें पहुँचे । पत्ता - माघशुक्ला चतुर्थी के दिन छब्बीसवें उत्तराभाद्रपद नक्षत्र में शिवकी इच्छा रखनेवाले एक हजार राजाओंके साथ वह जिन जैनचरित्रसे स्थित हो गये ||८|| ७. A तीरोसरिउ । ८. १. AP परिणम । २. AP घम्मे मइ । ३ AP घणमित्तं । ४ A किहा । ५. A जिहा । ६. A बावीस म and gloss श्रवणनक्षत्रे । ७. A जइचारितइ । Page #326 -------------------------------------------------------------------------- ________________ -५५. १०.३] महाकवि पुष्पदन्त विरचित २७९ तहिं दिणि जयवइ उववासियउ । मणपज्जवणाणे भूसियउ । बीयइ दिणि आयउ णंदउरु णंदेण णमंसिउ पुरिसंपुरु । झाणाणलहुयवम्मीसरहु आहारु दिण्णु परमेसरहु । मणिपुंजे ढंकिउ तासु गिहु तहिं चोज्जु वियंभिउं पंचविहु । छउँमत्थं मेइणियलु भमिवि संवच्छर तेण तिण्णि गमिवि । दिक्खावणि जंबूरुक्खयलि माहम्मि मासि ससियरधवलि । छट्ठइ दिणि दिवसभाइ अवरि छन्वीसमि जायइ उडुपवरि । देवे केवलु उप्पाइयउं तियसउलु ण कत्थइ माइयां । गयणग्गलग्गमाणिक्कसिहु संपत्तउ दहविहु अट्ठविहु । छाइयणहमंडल पंचविहु सोलह विहु तेत्थु वि तं तिविहु । पत्ता-थुणइ सुराहिवइ कुसुमई घिवइ अरुहहु उप्परि पायहं ।। जिण तुहुँ गयमलिणि हियवयणलिणि वसहि रिसिहि हयरायहं ॥९॥ १० बत्तीसह इंदहं तुहुं हियइ तुहं चंदु ण चंदु विमलवहणु तृहुं सरहि ण सरहि वि खारजडु तुहं संसेविउ सासयसियइ । तुहुं सूरु ण सूरु वि गिड्डहणु । तुहुं हरु णउ हरु वि पमंत्तु णडु । ९ उसी दिन जगत्पतिने उपवास किया और मनःपर्ययज्ञानसे विभूषित हो गये। दूसरे दिन वह नन्दपुर गांव आये। उन श्रेष्ठ पुरुषको नन्दने नमस्कार किया। ध्यानकी अग्निमें कामदेवको भस्म करनेवाले परमेश्वरको उन्होंने आहार दिया। रत्नसमूहसे उसका घर आच्छादित हो गया। वहां पांच आश्चर्य प्रकट हुए । छद्मस्थ रूपमें धरतीमें विहार कर उन्होंने तीन साल बिता दिये । माघ शुक्ला षष्ठीके दिन, दीक्षावनमें ही जम्बूवृक्षके नीचे दिनके अन्तिम भागमें, छब्बीसवें उत्तराभाद्र नक्षत्र में देवको केवलज्ञान उत्पन्न हो गया। देवकुल कहीं भी नहीं समा सका। जिनके माणिक्योंकी शिखाएँ आकाशतलको छू रही हैं, ऐसे आठ प्रकार और दस प्रकारके देव आये । और आकाशमण्डलको आच्छादित करनेवाले पाँच, सोलह और तीन प्रकारके देव वहाँ आये। घत्ता-देवेन्द्र स्तुति करता है, और अरहन्तके चरणोंके ऊपर पुष्प वर्षा करता है कि "हे जिन, तुम मुनियोंके द्वारा रागको नष्ट करनेवालोंके मलसे रहित हृदयरूपो कमल में बसते हो" ||९|| १० तुम बत्तीसों इन्द्रोंके हृदयमें हो, तुम शाश्वत श्रीके द्वारा सेवित हो, तुम चन्द्र हो, चन्द्रमा विमलवाहनवाला नहीं है । तुम सूर्य हो, जलनेवाला सूर्य सूर्य नहीं । तुम समुद्र हो, खारे जलवाला ९.१.A जइवइ । २. AP गंदिउरु । ३. AP पुरिसवरु । ४. A छम्मत्थें । ५. A बावीसमि: P छावी समि । ६. AP छाइउ णहमंडलु । ७. A गयरायहं । १०.१.A पमत्तगडु । Page #327 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २८० १० ५ तहिं जाया णीसरतणिहिं गज्जंत मेहगंभीरसर छत्तीससहस पुणु पंचसय चत्तारि सहस अडसयवरहं पण सहसइं अवरु वि पंचसय केवलिहिं रिसिहिं मणपज्जयहं महापुराण पई एहउ तेहउ जं कह मि जहिं अच्छइ तिजगु परिट्ठियडं संचलइ जेणे जें परिणवइ जं वण्णगंध रस फासधरु पई दिट्ठइ दीसइ तं सयलु पई दिट्ठे मुश्चइ चउगइहि तुह सुहि संपावइ परमु सुहं तु पुणु दोहं म मज्झत्थमणु जं अवरु वि काई वि चरु अचरु । तुट्ट दढमोह लोहणियलु । पहु होइ जीउ पंचमगइहि । asरियड निरंतर तिव्वु दुहुँ । इचो सहियवइ धरइ जणु । घत्ता - चेईहरवणहिं बहुतोरणहिं धयपंतिहिं पिहिये कें ॥ परिहागोबरहिं सालहिं सरहिं समवसरणु किउ संकें ॥१०॥ ११ तं हरं बुहलोइ हासु लहमि । जें रुद्धउं णिश्चलु संठियजं । जें णिश्चमेव चेयण वहइ । पणास पंच गणहरमुणिहिं । एयारहसयमय पुव्वधर । तीसुत्तर सिक्खुये मुणियणय | अणगारहं सव्वावहिहरहं । घोसंति साहु संजय विमय । णवसहसइं वेउव्वणवयहं । [ ५१.१०.४ I समुद्र समुद्र नहीं है । तुम शिव हो, नृत्य करनेवाला और प्रमत्त शिव शिव नहीं है । उनको जो तुम जैसा में कहता हूँ तो मैं पण्डित समाजमें हास्यका पात्र बनता हूँ । जहाँ त्रिलोक प्रतिष्ठित है । जिसके द्वारा वह रुद्ध और निश्चल रूपसे संस्थित है, जिससे चलता है और परिणमन करता है, जिससे नित्यरूपसे वह चेतनाको धारण करता है । जो वर्ण- गन्ध-स्पर्श और रूपको धारण करता है; और भी जो दूसरा चर-अचर है, तुम्हें देखनेपर वह समस्त दिखाई देता है, और दृढ़ मोहश्रृंखलाएँ टूट जाती हैं । तुम्हें देखनेसे जीव चार गतियोंसे छूट जाता है, हे स्वामी, मुझे पांचवीं गति प्राप्त हो। तुम्हारा सुधि परम सुख प्राप्त करता है, और तुम्हारा शत्रु निरन्तर तीव्रतम दुःख प्राप्त करता है । लेकिन तुम दोनोंके प्रति मध्यस्थ मन रहते हो, लोग अपने हृदय में इस आश्चर्यको धारण करते हैं । घत्ता - सूर्यको ढकनेवाले इन्द्रने चैत्यगृहवनों, बहुतोरणों, ध्वजपंक्तियों, परिखा और गोपुरों, शालाओं और सरोवरोंके द्वारा समवसरणकी रचना की ॥ १०॥ ११ वहां उनके जिनसे ध्वनि खिर रही है, ऐसे पचपन गणधर मुनि हुए। गरजते हुए मेघ के समान गम्भीर ध्वनिवाले ग्यारह सौ पूर्वधारी, छत्तीस हजार पांच सौ तीस शिक्षक मुनि । चार हजार आठ सौ पूर्ण अवधिज्ञानवाले मुनि, पांच हजार पांच सौ साधु संयत विमद केवलज्ञानी कहे जाते हैं । पाँच हजार पांच सौ मन:पर्ययज्ञानी थे। नौ हजार विक्रिया ऋद्धि धारण करनेवाले २. A जेण जं परि । ३. A वइरिउ ण गिरं । ४. P इह । ५. A विहियवकहि । ६. A सकिहि । ११. १. A सिक्खिय । Page #328 -------------------------------------------------------------------------- ________________ - ५५. ११.१४ ] महाकवि पुष्पदन्त विरचित सहसाई तिणि लेसासयइं संजयहुं लक्खु तिसहसस हिउं परियाणिय जिणगुणपरिणइहिं तियसेहिं असंखहि वंदिय तिवरिसरहियई डियच्छरह महि हिडिव लोयतिमिरु लुहिवि वाइहिं विद्धंसियपरममई । सावयहं लक्खजुयलडं कहिउं । चत्तारि लक्ख तहु सावयहिं । संखेज्जति रियअहिणंदियउ । पणारह लक्खई संवच्छरहं । संमेयहु सिहरु समारुहिवि । घत्ता-आसाढट्ठमिहि कसणहि तमिहि परमप्पणिक्कलु हुडे ॥ भरमहीवहिं फणिसुरवइहिं विलु पुप्फदं तहिं थुडें ॥। ११ इति महापुराणे तिसट्ठिमहापुरिस गुणालंकारे महाभव्वभरहाणुमणिए महाकइपुष्यंतविरइए महाकब्वे विमलणाहणिन्त्राणगमणं णाम पंचैवण्णासमो परिच्छेओ समत्तो ॥ ५५ ॥ थे । तीन हजार छह सौ परमतका विध्वंस करनेवाले वादी मुनि थे । एक लाख तीन हजार संयमको धारण करनेवाली आर्यिकाएं थीं। दो लाख श्रावक कहे गये हैं। जिनवरके गुणों की परिणतिको जाननेवाली चार लाख श्राविकाएं थीं । असंख्यात देवोंके द्वारा वह वन्दनीय थे । और संख्यात तियंचसमूह द्वारा वह अभिनन्दनीय थे । तीन वर्ष रहित, णडियच्छर ( जिनमें अप्सराएँ नृत्य कर रही हैं, या जो अप्सराओंको वंचित करनेवाली हैं ? ) पन्द्रह लाख वर्ष धरतीपर परिभ्रमण कर लोकान्धकार नष्ट कर सम्मेद शिखरपर आरूढ़ होकर - इस प्रकार श्रेसठ महापुरुषोंके गुणालंकारोंसे युक्त, महापुराणमें महाकवि पुष्पदन्त द्वारा रचित एवं महाभव्य भरत द्वारा अनुमत महाकाव्य का विमलनाथ निर्वाण गमन नामका पचपनवाँ परिच्छेद समाप्त हुआ ॥ ५५ ॥ पत्ता - आषाढ़ माह के शुक्लपक्षको अष्टमीके दिन, ( उत्तराषाढ़ नक्षत्र में ) भरतकी भूमिके राजाओं, नागराजाओं, देवेन्द्रों और नक्षत्रों द्वारा स्तुत वह विमल निष्कल परमात्मा हो गये ॥ ११ ॥ २. AP हुवउ | ३. विमल । ४. AP थुयउ । ५. A पंचा। ३६ २८१ १० Page #329 -------------------------------------------------------------------------- ________________ संधि ५६ सुरवंदहु विमलजिणिंदहु तित्थि भीमु पालियछलु ।। रेणि अभिडियउ अमरिसि चडिउ महुहि सयंमु महाबलु ॥ध्रुवक।। दुवई-अवरविदेहि जंबुदीवासिइ सिरिउरि पिसुणदूसणो ॥ महिवइ णंदिमित्तु मित्तो इव णियकुलकमलभूसणो॥ सो चिंतइ णियमणि णरवरिंदु - खइ सव्वु लोउ णं पुण्णेिमिंदु । धणु सुरधणु जिह तिह थिरु ण ठाइ पणइणि पुणु अण्णहु पासि जाइ । भायर णियभायहु अवयरंति कुलभवणि कुलहु कलयलु करंति । किंकर चडुयम्मु रयंति तेव सव्वस्सु पयच्छइ पुरिसु जेव । पोसंति णियंति सिसु ण्हवंति मायाउ थण्णु आसाइ देंति । भइणिउ बंधव बंधव भणंति ता जाम उयरपूरणु लहंति । सिरिलंपडु घरदवावहरणु तणुरुहु वि पडिच्छइ तायमरणु । जगि कासु वि को वि ण एत्थु अस्थि मयगंधवसिं भमरेण हत्थि । गाइ वि सेविजइ वच्छएण रंभासई दुद्धहु कएण। सन्धि ५६ देवोंके द्वारा वन्द्य विमलनाथके तीर्थकालमें संग्राम प्रिय भीम और महाबली स्वयंभू अमर्षसे भरकर युद्ध में मधुसे भिड़ गये। जम्बूद्वीपमें स्थित अपर विदेहके श्रीपुर नगरमें दुटोंके लिए दूषण नन्दीमित्र नामका राजा था जो मित्रके समान और अपने कुलरूपी कमलका भूषण था। वह श्रेष्ठ राजा अपने मनमें सोचता है कि विनाशकालमें समस्तलोक मानो पूर्णचन्द्रके समान है। जिस प्रकार इन्द्रधनुष, उसी प्रकार धन स्थिर नहीं रहता, कामिनी भी दूसरेके पास चली जाती है, भाई अपने भाईका अनादर करते हैं और कुलभवनमें अपने ही कुलसे कलह करते हैं। अनुचर इस प्रकार चापलूसी करते हैं कि जिससे पुरुष (मालिक) सब कुछ उन्हें दे डालता है। माताएं आशासे बच्चेको देखती हैं, स्नान कराती हैं, पोषण करती हैं और अपना दूध पिलातो हैं। बहनें तभी तक भाई-भाई करती हैं कि जबतक उनकी उदरपूर्ति होती रहती है। लक्ष्मीका लम्पट पुत्र भी घरके धनका अपहरण और पिताके मरणकी इच्छा करता है। इस संसारमें किसीका कोई नहीं है। जैसे मदगन्धके वशसे भ्रमरके द्वारा हाथीकी और रंभाते हुए बछड़ेके द्वारा दूधके लिए गायकी सेवा १. १. A omits रणि । २. A पुण्णमिदु । ३. A कुलु भवणु कलहकलयल; P कुलभवणि कुलहकलयलु । ४. A सुसंण्हवंति । ५. P आसाउ। Page #330 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २८३ -५६. २. १०] महाकवि पुष्पदन्त विरचित जणु इच्छइ सयलु सकज्जकरणु जीवहु पुणु जिणवरधम्मु सरणु । घत्ता-ईय बोल्लिवि रंजु पमेल्लिवि सोसियभीमभवण्णउ । जियकामहु सुव्वयणामहु पासि तेण लइयउं वउ ॥११॥ दुवई-जायउ सो मरेवि संणासे वम्महजलणपावसो॥ ___ पंचाणुत्तरम्मि तेत्तीसमहोवहिदीहराउसो॥ भासइ गोत्तमु णियगोत्तसूरु पंचिदियेरिउसंगामसूरु । सुणि सेणिय कहमि मणोहिरामु पइ पइ वसंति पुरणगरगामु । गोजूहचिण्णसुहेरियतणालु इह भरैहि देसु णामें कुणालु । तहिं सावत्थी पुरि वसणहेउ णिवसइ णरिंदु णामें सुकेउ । अवरु वि बलि तेत्थु जि अक्खकील पारद्ध बिहिं मि जूयारलील । चरँगमणछेजकडूढणपवंचु वरघायदायघरहरणसंचु । जाणिवि रवंति किर बे वि जाम एक्क उड्डिउँ णियरज्जु ताम। हारंतउ सपुरु सकोसु देसु थिउ एकल्लउ काणीणवेसु । की जाती है इसी प्रकार सब लोग अपने कामकी इच्छा करते हैं। केवल जिनवरधर्म हो जीवकी शरण है। पत्ता-यह कहकर और राज्य छोड़कर उसने कामको जीतनेवाले सुव्रत नामक मुनिके पास भीषण संसाररूपी समुद्रको जीतनेवाला व्रत ग्रहण कर लिया ॥१॥ कामरूपी ज्वालाके लिए पावसके समान वह संन्यासपूर्वक मरकर पांचवें अनुत्तर विमानमें तैंतीस सागर प्रमाण लम्बी आयुवाला देव हुआ। गौतम मुनि कहते हैं-अपने गोत्रके लिए सूर्य, पांच इन्द्रियोंरूपी शत्रुके लिए शूर हे श्रेणिक, मैं सुन्दर कथा कहता हूँ, सुनो। इस भरत देशमें कुणाल नामका देश है, जहां पग-पगपर पुर, नगर और ग्राम हैं। जहां गायोंका झुण्ड सुरभित तृणोंका आस्वाद लेता है। वहाँ श्रावस्तो पुरी है। उसमें जुआ आदि खेलनेवाला सुकेतु नामका राजा रहता था। एक और जुआ खेलनेवाला बलि नामका मनुष्य था। दोनोंने पासे खेलना शुरू किया। चर (दूसरेको गोट मारना), गमन ( अपनी गोटकी रक्षा करते हुए, दूसरेके घरसे अपने घरमें ले आना ), छेज्ज (छेद्य) दूसरेकी गोट मारना, कड्ढन प्रवंच (दूसरोंसे बचाकर अपनी गोट ले आना), उत्तम घात और दाय? देना, घरहरण (दो-तीन गोटोंसे दूसरेके घरको स्वीकार कर लेना, संच ( दूसरेकी गोटके प्रवेशको रोकना) आदिको जानकर वे लोग तबतक खेले कि जबतक एकने अपना राज्य खो दिया। सुकेतु अपना पुर, कोश और देश हारकर अकेला दोनरूपमें रह गया। ६. Pइउ । ७. AP मेइणि मेल्लिवि । ८. A सोसीय । २. १. AP°पाउसो। २. AP जो इंदिय । ३. A सेणि कहमि । ४. A णयर। ५. A°सुरहिय । ६. A भरहदेसि । ७. P वरगमण । ८. A वरदायघाय; P परदायधाय । ९. P रमंति । १०. A के उडिउं । - Page #331 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २८४ ५ १० महापुराण घत्ता-णउ हय गय णउ संदण धय एक्कु जि वसणें णडियउ || गुरुहुं महंत रायविलासह पडियउ ||२|| ३ वारं दुबई - जेण करंति देवगुरुभोसिउं दुहमगव्वपरवसा || ते विडंति एंव णिवरा मुवि दुज्जसमसिमलीमसा ॥ मायाविणीs विब्भमहरीइ सेज्जातं बोल सुहं करीइ । आजाविलं बियेसाडियाइ णीसेस सोक्खणिद्धाडियाइ जूएण ण कासु वि कुसलु एत्थु वंदेवि सुदंसणु मुक्वत्थु तर लेप्पिणु थिउ लंबत हत्थु इत्थफलु वि तव तिव्वकम्म पाडेसमि मत्थइ तासु वज्जु इय संभरंतु संणासणेण लंतवि सुरु सुक्किय सोह माणु घत्ता - णीसंगें जिणवरलिंगें बलि देवत्तु लप्पिणु ॥ असराले जंतें कालें सुरणिलयाउ चवेष्पिणु ॥३॥ घत्ता-न उसके पास अश्व-गज थे और न स्यन्दन-ध्वज । वह अकेला था । महान् गुरुओंके मना करनेपर भी उसका राज्यविलाससे पतन हो गया ||२|| ३. १. AP वर खज्ज माण चेडियाइ । खणि खणि आयइण वराडियाइ । ग सो सुकेउ होइवि अवत्थु । णाणेणालोइयस यलवत्थु । चितवइ अट्टझाणेण गत्थु । तो मारेसमि आगमियजम्मि । बलि जेण महारउ जित्तु रज्जु । मुड जाय भूसिउ भूसणेण । चदहसमुद्दजीवियपमाणु । ३ दुर्दमनीय अहंकार के वशीभूत होकर जो देव और गुरुका कथन नहीं करते, संसार में अपयशरूपी स्याहीसे मैले उन राजाओं का पतन हो जाता है । मायासे विनीत, विभ्रमको धारण करनेवाली शय्या और ताम्बूल लिये अत्यन्त शुभंकरी, घुटनों तक लटकती हुई साड़ीवाली दासीके द्वारा मनुष्य खा लिया जाये, यह अच्छा है, परन्तु क्षण-क्षणमें इस बराटिका ( कौड़ी ) के द्वारा नहीं । इस संसार में जुए में किसीकी कुशलता नहीं है । वह सुकेतु निर्वस्त्र होकर चला गया । दिगम्बर तथा जिन्होंने ज्ञानसे समस्त वस्तुओंको देख लिया है, ऐसे सुदर्शन मुनिकी वन्दना कर तप ग्रहण कर, हाथ लम्बे कर आर्तध्यानसे ग्रस्त वह विचार करता है कि यदि तपके तीव्रकर्मका कुछ भी फल है तो मैं आगामी जन्ममें उस बलिको मारूँगा, उसके मस्तकपर वज्र गिराऊँगा, कि जिसने मेरा राज्य जीत लिया है । इस प्रकार स्मरण करता हुआ वह संन्याससे मर गया और भूषणोंसे अलंकृत तथा पुण्योंसे शोभमान वह लान्तव देव हुआ चौदह समुद्र पर्यंन्त जीवनके प्रमाणवाला । घत्ता - अनासंग जिनवर दीक्षासे देवत्व पाकर बलि भी प्रचुर समय बीतने पर देवविमानसे च्युत होकर - ||३|| [ ५६.२.११ गुरुपि । २. P विडंबियं । ३. P वरि । ० ६. AP पवाणु । ७. P णीसर्गे । ४. AP मुक्कु वत्थु । ५. AP चोट्स । Page #332 -------------------------------------------------------------------------- ________________ - ५६. ५.२ ] महाकवि पुष्पदन्त विरचित ४ दुबई - इह भरहम्मि रयणपुरि णरवइ णामें समरकेसरी ॥ वीणाकलपलाव संणिझुणि घरिणी तस्स सुंदरी ॥ सो ताहं बिहिं मि दिग्गयणिणाउ सुउ जायउ मयरद्धयसमाणु तिसयल महि णिज्जिय तेण केंव तर्हि कालि गहीर समुदु महवि तासु णामें सुहेद्द तर्हि पढमइ जणिय पढमपुत्तु ates वचु रिद्धिहे ते बेणि वि धम्मसंयंभुणाम ते बेणि वि रामसुसामदेह ते बेवि सिद्धविज्जासमत्थ विविणिग्गयमलविलेव लक्खणलक्खं कियदिव्वकाउ । महुणा णं उग्गमिउ भाणु । freघडधारिणि घरदासि जेंव । दारावइपुरवरि राउ रुद्दु । अणेक पुहइ पुइ व्व भद्द | अहमिदु देव सो दिमित्तु । संजनियर णंदणु सो सुकेउ । ते बेण्णि विससिर विसरिसधाम | ते बेण्णि वि गरुयणिबद्धणेह । ते व दिव्वपहरणविहत्थ । ते बे वि सीरहर वासुएव । घत्ता - गुणवंतहिं तेहि सुपुत्तर्हि दोहिं मि उज्जालियर कुलु || पतहिं यणि वहतहिं णं ससिसूरहिं महियलु ||४|| ५ दुवई - बेणि वि ते महंत बलवंत महाजस धोयदस दिसा ॥ बेवि मदगरुडवाहिणिवह बे वि अचिंत साहसा ॥ ४ २८५ ५ १० इस भारत के रत्नपुर नगर में समरकेशरी नामका राजा हुआ । उसकी वीणाके सुन्दर आलापके समान सुन्दर ध्वनिवाली सुन्दरो गृहिणी थी । वह ( बलि ) उन दोनोंका दिग्गजके समान निनादवाला लाखों लक्षणोंसे अंकित दिव्य शरीर, कामदेवके समान सुन्दर मधु नामका पुत्र हुआ मानो सूर्य उगा हो । तीन खण्ड धरतीको उसने इस प्रकार जीत लिया जैसे वह निधिघट धारण करनेवाली गृहदासी हो। उसी समय द्वारावती में गाम्भीर्य में समुद्र के समान रुद्र राजा हुआ । उसकी सुभद्रा नामकी महादेवी थी, एक और पृथ्वी देवी थी जो पृथ्वीकी तरह कल्याणी थी । वहाँ पहली से वह नन्दिमित्र अहमिन्द्र देव पहला पुत्र हुआ, दूसरीका वह सुकेतु ऋद्धिका हेतु लान्तवदेवसे च्युत होकर पुत्र हुआ। वे दोनों क्रमशः धर्म और स्वयम्भू नामवाले थे । वे दोनों ही चन्द्रमा और सूर्यके समान शरीरवाले थे । वे दोनों ही राम और श्यामके समान देहवाले वे दोनों ही भारी स्नेहसे निबद्ध थे । वे दोनों ही मलविलेपसे विनिर्गत थे । वे दोनों ही बलभद्र और वासुदेव थे । 1 १५ घत्ता- उन दोनों गुणवान् सुपुत्रोंने कुलको उज्ज्वल कर दिया, मानो आकाशमें जाते हुए प्रभासे युक्त चन्द्र-सूर्यने धरतीतलको आलोकित कर दिया हो ||४|| ५ वे दोनों ही महान बलवान्, महायशस्वी और दसों दिशाओंको धोनेवाले थे । दोनों ही गज ४. १. AP॰लक्खंकित । २. AP सुभद्द । ३. लंतवि चुउ । ४. AP पवहंत हि । Page #333 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २८६ महापुराण [ ५६.५.३ जयसिरिरामाउक्कंठिएण घरसत्तमभूमिपरिट्ठिएण। जणविभयभावुप्पायणेण एक्कहिं वासरि णारायणेण । अवलोइउ चिंधचलंतमयरु पुरबाहिरि दूसावासणियरु । पुच्छिउ सेमंति भणु कासु सिमिक दीसइ भूसणरुइरहियतिमिरु । दुव्वसणविसेसकयंतएण तं णिसुणिवि वुत्तु महंतएण । रमणीयएसपुराहिवेण मंडलियएं ससिसोमें णिवेण । भीएण देव परिहरिवि दप्पु महुणरणाहहु पेसियउ कप्पु । मायंग तुरय मणि दिव्व ची कंकणकडिसुत्तयहारिहारु । असिकरकिंकररक्खिजमाणु ओहच्छइ एत्थु णिबद्धठाणु । घत्ता-विहसंतें भणिउं अणते पालियचाउठवण्णहु ।। जीवंतहु महु पेक्खंतहु जाइ कप्पु किं अण्णहु ।।५।। दुवई-जिम लंगलि गरिंदु जिम पुणु हउँ पुह विहि अवरु को पहू ।। __ णिच्छउ घिवमि कुद्धकालाणणि पिक्कउ महु व सो महू ।। ता मंते वुत्तउ भो कुमार किं गजसि किर परतत्तियार। महुराउ भणहि महुघोट्ट काई हा ण वियाणहि तुहुं तहु कयाई । ५ भयवंत णरेसर णिहिल वहिय महि जेण तिखंड बलेण गहिय । और गरुड़ सेनाके अधिपति थे। उन दोनोंका साहस अचिन्तनीय था। विजय-श्रीरूपी रमणीके लिए उत्कण्ठित घरकी सातवों भूमिपर बैठे हुए, जिसे लोगोंमें विस्मयका भाव उत्पन्न करनेकी इच्छा हुई है, ऐसे नारायणने एक दिन नगरके बाहर जिसमें ध्वजसमूह हिल रहा है, ऐसा तम्बुओंका समूह देखा। उसने अपने मन्त्रीसे पूछा कि यह किसका शिविर है कि जो भूषणोंको कान्तिसे अन्धकार रहित है। यह सुनकर दुर्व्यसन विशेषके लिए यमके समान मन्त्रीने कहा कि रमणीक प्रदेशके अधिपति शशिसोम नामक भयभीत माण्डलीक राजाने हे देव, दर्प छोड़कर मधु राजाके लिए 'कर' भेजा है। गज, तुरग, मणि, दिव्य वस्त्र, कंकण, कटिसूत्र और सुन्दर हार । जिनके हाथों में तलवारें हैं, ऐसे अनुचरोंके द्वारा रक्षित वह शिविर अपना स्थान बनाकर ठहरा हुआ है। पत्ता-तब नारायणने हंसते हुए कहा-"चातुर्वर्ण्यका पालन करनेवाले मेरे जीवित रहते और देखते हुए क्या किसी दूसरेके लिए कर जा रहा है ? ॥५॥ जिस प्रकार हलधर राजा है और जिस प्रकार मैं राजा हूँ, उसी प्रकार पृथ्वीपर और कौन राजा है ? मैं निश्चय ही उस मधुको पके हुए मधुकी तरह क्रुद्ध कालके मुख में फेंक दूंगा।" इसपर मन्त्री बोला-"दूसरोंकी तृप्ति करनेवाले हे कुमार, आप क्यों गरजते हैं ? तुम राजा मधुको मधुका घुट क्यों कहते हो ? अफसोस है आप उसके किये हुएको नहीं जानते ? उसने मदवाले सारे ५.१. AP एक्कम्मि दियहि । २. A सुमंति । ३. AP रमणीयवेस । ४. A चारु । ५. A परिपालिय with q in the margin. Page #334 -------------------------------------------------------------------------- ________________ -५६.७.९ ] महाकवि पुष्पदन्त विरचित णिज्जिय विज्जाहर जक्ख जेण तं णिणिवि णीलणियासणेण महु भाइहि रणि देव वि अदेव पुरिसंतरुण मुहि णिविवेय रणि हणिवि जिणिवि ससिसोममंति आणिय मायंग तुरंग करह दुबई—ससिसोमेण देव जं हित्तरं तुज्झ दव्वु इय णिसुणवि चरत्रयणाउ वयणु पट्टविड वओहरु गउ तुरंतु किं भग्गउ वसुमइणाही माणु किं खलिउ गयणि दिणयरु भमंतु हा हे विबुद्धि धगधगधगंतु किं तोडिड केसरिकेसरग्गु 'भावु परिहरहि दोस + आहवि को जुज्झइ समउं तेण । पविणु दिणु संकरिसणेण । तु वहि अविरु बध्प केंव । ता पेसिय किंकर उग्गतेय । संधिवि बंधिवि णं बिंझदंति । सोवहार वरवसह सरह । घत्ता - आहरणई पसरियकिरणई कण्हहु अगर घित्तई ॥ पडणेत्तई वणविचित्तइं णं रिउअंतई पित्तई ||६|| ७ पेसिउ तं खेलदुक्खदाइणा ॥ वेंतउ रुद्दसुएण राइणा ॥ किड राएं मुहं रत्ततैणयणु । धरणीतणयहु वज्जरइ मंतु । किं हित्तु हेमु आगच्छमाणु आमंति किं भुक्खड कयंतु । उच्चोल्लिहि अंगार्लंड णिहित्तु । किं महिवइआणापसरु भग्गु । पट्टवहि ससामिहि सव्वु कोसु । राजाओं को समाप्त कर दिया, और जिसने बलपूर्वक तीन खण्ड धरती जीत ली है, उससे युद्ध में कौन लड़ सकता है ?" यह सुनकर नीलवस्त्रोंवाले बलभद्रने उत्तर दिया- "मेरे भाईके लिए युद्धमें देव भी अदेव है । हे सुभट, तुम शत्रुवरका किस प्रकार वर्णन करते हो । ऐ निर्विचार, तुम पुरुषान्तरको मत गिनो ।” तब उग्र तेजवाले अनुचर भेज दिये गये । रणमें शशिसोम मन्त्रीको मारकर जीतकर विन्ध्यदन्तिकी तरह रौंधकर और बांधकर हाथी, घोड़े, तुरंग, ऊँट, स्वर्णहार, श्रेष्ठ वृषभ और सरभ ले आये गये । २८७ पत्ता - जिनकी किरणें प्रसारित हो रही हैं ऐसे आभरणोंको कृष्णके आगे डाल दिया गया, जो मानो रंगों से विचित्र शत्रुके नेत्र, या उसकी आतें या पित्त हों ||६|| ६. १. A णीलणिवासणेण; P णीलणियंसणेण । २. A सोवण्णभार । ७. १. AP खलु दुक्खळ । २. AP आएंत । ३. P रत्तत्तणयणु । ४. A इंगालउ | १० ७ "शशिसोमने जो कुछ भेजा था आता हुआ वह सब तुम्हारा द्रव्य हे देव, खलोंको दुःख देनेवाले रुद्रपुत्र राजा ( स्वयंभूने ) छीन लिया ।" इस प्रकार दूतके मुखसे वचन सुनकर राजा ( मधु ) ने मुख और आँखें लाल कर लीं । उसने दूत भेजा । वह तुरन्त गया । और पृथ्वीदेवी के पुत्रसे वह मन्त्रकी बात कहता है, "तुमने धरतोके स्वामीके मानको भंग क्यों किया ? आते हुए धनको तुमने क्यों छीना ? आकाशमें भ्रमण करते हुए दिनकरको स्खलित क्यों किया ? तुमने भूखे कृतान्तको आमन्त्रित क्यों किया ? हे निर्बुद्धि, तूने धकधक जलते हुए अंगारे को कटिवस्त्र में क्यों रख लिया ? तुमने सिंहके अयालके अग्रभागको क्यों तोड़ा ? तुमने राजाकी आज्ञाके प्रसारको Page #335 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २८८ महापुराण [५६. ८. १०१० ता चवइ उविंदुप्पण्णरोसु दक्खालमि तहु असिवरु विकोसु । जइ लोहिउ णउ पायमि पिसाय तो छित्ता लइ मई धम्मपाय । ता दूयहु मुहि णीसरिय वाय. जिह जंपइ तिह को घिवइ घाय । घत्ता-कहजोग्गइ महिलहुँ अग्गइ सयलु वि गज्जइ णिययघरि । जससंगहि जीवियणिग्गहि विरल उ पहरइ संगरि ॥७॥ दुवई-एंव चवंतु दूर गउ रायहु कहियउ तेण वइयरो॥ देव ण देइ कप्पु वसुहासुउ गलगन्जइ भयंकरो ।। ता वासुएवस्स पडिवासुएवस्स। दुंदुहिणिणायाई रणभूमिआयाई। संणाहबद्धाई णियई कुद्धाई। सेण्णाई जुझंति वीरेहिं रुज्झंति । खग्गेहिं छिज्जति कोंतेहिं भिजति । वम्माइं लुम्मति रत्तेण तिम्मति । चम्माई फुदृति अष्ट्रियई तुटुंति । वूहाई विहडंति मंडलिय णिवडंति । अंतेहिं गुप्पंति खेयर समपंति । वडूढंतसमरट्टि गयदंतसंघट्टि। गरुलेस महुराय उक्खित्त णाराय। चिरवइरियालग्ग धणुवेयकयमग्ग। क्यों रोका ? युद्धभावके दोषको छोड़ो, अपने स्वामीके सब धनको भेज दो।" तब उत्पन्नरोष नारायण कहता है-"मैं उसे कोश (म्यान ) रहित तलवार दिखाऊंगा, यदि मैंने उस लोभी पिशाचका पतन नहीं किया, तो लो मैंने बलभद्र धर्मके पैर छुए ?" इसपर दूतके मुखसे यह बात निकली कि जिस प्रकार कोई बात करता है, उस प्रकार वह आघात कहां दे पाता है ? घता-कथाके योगमें (प्रसंगमें ) अपने घरमें महिलाओंके आगे सभी गरजते हैं। लेकिन जिसमें यशका संग्रह और जीवनका निग्रह है, ऐसे युद्ध में विरला ही प्रहार कर पाता है ॥७॥ इस प्रकार कहता हुआ दूत चला गया। उसने सारा वृत्तान्त राजासे कहा कि हे देव, वह कर नहीं देता । पृथ्वीरानीका बेटा भयंकर गरज रहा है। तब वासुदेव और प्रतिवासुदेवकी सेनाएं आमने-सामने आ गयीं। उनमें नगाडोंकी ध्वनि हो रही थी, दोनों युद्धभूमिमें उपस्थित थीं, कवचोंसे सन्नद्ध थों, निर्दय और क्रुद्ध थीं। सेनाएं लड़ती हैं, वीरोंके द्वारा अवरुद्ध कर ली जाती हैं, खड्गोंसे खण्डित होती हैं, भालोंसे भिदती हैं, कवच लुप्त होते हैं, रक्तसे आर्द्र होते हैं, चर्म फूटता है, हड्डियां टूटती हैं, व्यूह विघटित होते हैं, मण्डलाकार सेनाएँ गिरती हैं, आंतोंसे उलझते हैं, विद्याधर समर्पण करते हैं । जिसमें गजदन्तोंका संघट्टन है, ऐसे उस बढ़ते हुए समरमें, जो ८. १. AP तुटुंति । २. AP फुटुंति । Page #336 -------------------------------------------------------------------------- ________________ -५६. ९.१६ ] मायंगसीद्देहिं । मेहेहि वाहिं । पंचास सरहिं फणिपक्खिराएहिं पहरंति ते बे वि महुणा पजंपिय धत्ता-किं धम्में गयभडकम्में जो पहरणु णावेक्ख ॥ मई कुद्धइ जयसिरिलुद्धइ एमहिं को पई रक्खइ ||८|| ता चक्कु कर लेवि । किं दविणु महुं हिउं । महाकवि पुष्पदन्त विरचित ९ दुवई - ता दामोदरेण रिउ दुछिउ धम्मपहाणुओंरिणा ॥ एण रहं गएण दारेवडं तुहुं महं कित्तिकारिणा ॥ हरिह विउसयण विणुण खयकरणु रणि मुक्कु हि चलिडं समियकु अहिणव तं धरिवि दोहरेण विष्फुरिवि माहवेण aणु गणि भुवि । सुंदरिहि । कयवयण- । तणुण । रहचरणु । खणि दुक्कु । जलज लिउँ । करि थक्कु । केस बहु | छलु भरिवि । मच्छरेण । हुंकरिव । घणरवेण । अरिभणिउं । ९. १. दामोयरेण । २. P पहाणुरायणा । ३. A जले जलिउ । ३७ २८९ १५ २० ५ चिरकालीन वैरसे लिप्त है, और जिन्होंने धनुर्वेद में प्रवृत्ति प्राप्त की है, ऐसे गरुडेश और मधुराजने तीर फेंके। सिंह-सरभ तीरों, गज-सिंह तीरों, नाग-गरुड़ तीरों और मेघ वायु तीरोंसे वे दोनों प्रहार करते हैं। इतनेमें चक्र हाथमें लेकर मधु बोला- तुमने मेरे धनका अपहरण क्यों किया ? १० घता- —जो अस्त्रको नहीं देखता, उस धर्म और गजयोद्धा कर्मसे क्या ? यशरूपी श्रीके लोभी मेरे क्रुद्ध होनेपर इस समय कौन तुम्हारी रक्षा करता है ? ||८|| ९ तब दामोदरने दुश्मनको फटकारा कि धर्मपथका अनुकरण करनेवाले और कीर्तिकारी. इस चक्रसे में तुम्हें मारूंगा ? यह सुनकर, अपनी भुजाएँ ठोककर, मनहरी - सुन्दरीके पुत्र, विद्वज्जनों द्वारा शब्दों संस्तुत मधुने विनाश करनेवाला चक्र छोड़ा। वह एक क्षण में पहुँचा । आकाशमें चला चमकता हुआ । शान्त सूर्यकी तरह अभिनव केशव के हाथमें स्थित हो गया। उसे धारण कर, साहस कर भारी मत्सरके साथ विस्फुरित होकर, हुंकार कर, मेघ के समान शब्दवाले माधव १५ Page #337 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सेवंतु महापुराण रे पाव करि सेव। दुहहरहु हलहरहु। पई कालु दाढालु। घोरंतु। रूस विउ उट्ठविउ। कंडुइवि छलु मुइवि। ओसरहि मा मरहि। घणघण काणणइ। पइसरिवि जिणु सरिवि। ब्रेउ धरहि तउ करहि। ता चवइ चकवा। सुरउद्द दालिह। डिभस्स छुहियस्स। को कंहूँ आणंदु। मणि जणइ दिहि कुणइ। सयडंगु तुहुं तुंगु। महुं चंई मुयदंडु। सकयस्थ दिव्वत्थ। मरु हणमि सिरु लुणमि। घत्ता-ता चके महुमहमुकें महुवच्छत्थलु छिण्ण ।। करतं. णं रविबिंबें कालउ अब्भु विहिण्णउं ।।९।। दुवई-पत्तउ महु मरिवि समरंगणि तमतमोमवसुमई ॥ जायउ अद्धचक्कि लच्छीहरु मुवणि सयंभु महिवई ॥ स्वयम्भूने उसे तिनका समझा, और दुश्मनसे कहा-रे पापी, दुःखका हरण करनेवाले बलभद्रकी सेवा कर । दाढ़वाले घोर कालकी सेवा करते हुए तुमपर वह क्रुद्ध हो उठे हैं, अतः छल छोड़. कर और सन्तुष्ट होकर हट जाओ-मरो मत । सघन वनमें प्रवेश कर जिनकी शरणमें व्रत धारण करो और तप करो। तब चक्रवर्ती कहता है-हे भयंकर कंगाल! क्या चन्द्रमा भूखे बालकको मनमें आनन्द देता है ? धीरज उत्पन्न करता है ? तुम्हारा ऊँचा चक्र है, मेरा प्रचण्ड भुजदण्ड है, कृतार्थं और दिव्यार्थवाला । मगर, में मारता हूँ, सिर काटता हूँ। ___घत्ता-नारायणके द्वारा मुक्त चक्रने मधुका वक्षःस्थल इस प्रकार छिन्न-भिन्न कर दिया मानो आरक्त किरणोंवाले सूर्यबिम्बने काले बादलको छिन्न-भिन्न कर दिया हो ॥९|| समरांगणमें मृत्युको प्राप्त कर तमतमप्रभा नामकी नरकभूमिमें पहुंचा। तथा राजा स्वयम्भू ४. AP तूसविउ । ५. A कंडएवि । ६. AP वउ । ७. P कुंदु । ८. A चंड । ९. A दंड। १०.१. P°णामि । २. P लच्छीहउ । Page #338 -------------------------------------------------------------------------- ________________ -५६. १०.१५] महाकवि पुष्पदन्त विरचित जलकीलइ वणकीलइ रमंतु अंगाई कुसुमसयणइ घिवंतु । भंडारवत्थुसारई णियंतु मायंगतुरंगसमारुहंतु। घवघवघवंतु चलणेवराई माणंतु चारुअंतेउराई। आसत्तु कामि णं भमरु गंधि मुउ हुउ अंतिमणरयंतरंधि । णिवसे प्पिणु पुहईजणणिगम्भि हा हा सइंभु पडिओ सि सुन्भि । सम्मत्तवंति मिच्छत्तविरह मई भायरम्मि जिणधम्मणिरइ । बुद्धो सि ण कम्महु अस्थि मल्लु किं बद्ध आसि णियाणसल्ल । इय एव धम्मु विरएवि सोउ णंदणहु समप्पिवि सिरिविहोउ । आउच्छिवि परियणु सयेणु लोउ दुज्जोउ व मेल्लिवि दिव्वभोउ । पणवेवि विमलवाहणु जिणिंदु बहुरायहिं सहुँ हूयउ मुणिंदु । पावेप्पिणु करणविहीणणाणु भवयणि णिउंजिनि धम्मदाणु । घत्ता-भरहेसरु पढमणरेसरु जिह तिह धम्मु वि दढभर॥ गउ मोक्खहु सासयसोक्खहु पुप्फदंतगणसंथुउ ॥१०॥ इय महापुराणे तिसट्टिमहापुरिसगुणालंकारे महामवमरहाणुमण्णिए महाकइपुप्फयंतविरइए महाकम्वे धम्मसंयंभुमहुकहंतरं णाम छप्पण्णासमो परिच्छे प्रो समत्तो ॥५६॥ विश्व में लक्ष्मीको धारण करनेवाला अर्धचक्रवर्ती हो गया। जलक्रीड़ा और वनक्रीड़ामें रमण करते हुए, कुसुमोंके शयनतलोंपर अंगोंका निक्षेप करते हुए, भाण्डारकी श्रेष्ठ वस्तुएं देखते हुए, हाथियों और घोड़ोंपर चढ़ते हुए, चंचल नूपुरोंको छम-छम बजाते हुए, सुन्दर अन्तःपुरोंको मानते हुए वह काममें उसी प्रकार आसक्त हो गया मानो गन्धमें भ्रमर हो। मरकर वह अन्तिम नरकमें उत्पन्न हुआ। माता पृथ्वीके गर्भमें रहकर हाहा, स्वयम्भू श्वभ्र नरकमें गया। मेरे भाई, सम्यक्दृष्टि, मिथ्यात्वसे विरत और जिनधर्ममें निरत होते हुए भी मैंने जान लिया कि कर्मसे शक्तिशाली कोई नहीं है। उसने निदान शल्य क्यों बाँधा था? इस प्रकार धर्म बलभद्र शोक कर तथा अपने पुत्र को श्रीविभोग समर्पित कर, स्वजन और परिजनोंसे पूछकर, खोटे ग्रहोंकी तरह दिव्यभोगको छोड़कर, विमलवाहन जिनेन्द्रको प्रणाम कर अनेक राजाओंके साथ वह मुनि हो गया। और इन्द्रियोंसे विहीन ज्ञान पाकर, भव्यजनोंमें धर्मदानका प्रयोग कर पत्ता-जिस प्रकार प्रथम नरेश्वर भरतेश्वर उसी प्रकार दृढ़भुज धर्म बलभद्र भी नक्षत्रगण द्वारा संस्तुत शाश्वत सुखवाले मोक्षके लिए गया ॥१०॥ इस प्रकार प्रेसठ महापुरुषों के गुणालंकारोंसे युक्त महापुराणमें महाकवि पुष्पदन्त द्वारा रचित एवं महामव्य भरत द्वारा अनुमत महाकाव्यमें धर्म-स्वयम्भू-मधु कथान्तर नामका छप्पनवाँ परिच्छेद समाप्त हुआ ॥५६॥ ३. A°धवंतचल । ४. AP°णेउराई। ५. AP माणंतु सुहयभंते । ६. AP सयलु । ७. A भव्वयण । ८. AP णिजुजिवि । ९. A पुष्फयंत । १०. A महुमहकहंतरं । Page #339 -------------------------------------------------------------------------- ________________ संधि ५७ पुणु भासइ गोत्तमु सेणियहु दुद्धरदुक्खकिलेसमह ।। सिरिविमलणाहजिणगणहरहं मंदरमेरुहुं तणिय कह ।।ध्रुवक।। जंबूदीवइ अवरविदेहइ माणवमिहुणयवढियणेहइ । मंदचूयर्चवचिंचिणिचारइ सीओयाणइउत्तरतीरइ। देसु गंधमालिणि जाणिज्जा गाइहिं कंगुकणिसु जहिं चिज्जइ । भमरहिं वियलंतउं महु पिज्जा पक्खिहिं कलरवु जहिं विरइज्जइ । जहिं माहिसु सरसलिलब्भंतरि ण्हाइ पउरपंकयरयपिंजरि । अहिणवपल्लवबेल्लीभवणइ गोव सुवंति पुप्फपत्थरणइ । गंधसालिपरिमलु दिस वासइ पूसउँ कं धुणंतु जहिं वासइ। णिइवि छेत्तवालिणिइ मुहुल्लडं जहिं पंथिय चवंति सरसुलउँ । दहिउल्लउ जहिं कूरकरंबउ पवहि पवहि जिम्मइ अंबंबउ । घत्ता-तहिं देसि रवण्णु सुवण्णमउ णहविलग्गमंदिरसिहरु ॥ परिहापायारहिं परियरिउ वीयसोउ णामें जयरु ॥१॥ सन्धि ५७ पुनः श्री गौतम, श्रेणिकसे श्री विमलनाथ जिनके गणधरों-मन्दर और मेरुकी दुर्धर दुखोंको नष्ट करनेवाली कथा कहते हैं। 'जम्बूद्वीपमें जहां मानव जोड़ोंका स्नेह बढ़ रहा है, जहां मन्द आम्र चव चिचिणी और चारके वृक्ष हैं, ऐसे अपरविदेहमें सीता नदीके उत्तर तटपर गन्धमालिनी देश जाना जाता है। जहां गायोंके द्वारा कंगु और कणिश ( अनाज) खाया जाता है। भ्रमरोंके द्वारा झरता हुआ मद पिया जाता है, और पक्षियोंके द्वारा कलरव किया जाता है। जहां महिषगण प्रचुर पंकजरजसे पिंजरित सरोवरोंके जलमें नहाता है। अभिनव पल्लव और लताओंके भवनोंमें ग्वाले पुष्पशय्याओंपर सोते हैं । गन्धसे श्रेष्ठ पराग जहाँ दसों दिशाओंको सुवासित करता है। जहां सुआ 'क' शब्द कहता हुआ निवास करता है। जहां क्षेत्रको रक्षा करनेवाली कृषक बालिकाओंके मुख देखकर पथिक मधुर और सरस गीत गान करते हैं। जहां भातसे मिला हुआ अत्यन्त खट्टा दही प्रत्येक प्याऊ पर खाया जाता है। पत्ता-उस देशमें सुन्दर स्वर्णमय मन्दिर शिखरोंसे आकाशको छूनेवाला तथा परिखाओं और प्राकारोंसे घिरा हुआ वीतशोक नामका नगर है ॥१॥ १.१. AP चूयचवि । २. A गंधुमालिणि । ३. A पूसउ कण चुणंतु; P पूसउ कणु चुर्णतु । Page #340 -------------------------------------------------------------------------- ________________ -५७. ३.३ ] महाकवि पुष्पदन्त विरचित २९३ रायमहारिसि मुक्कवियारउ सो सुयणायाणायवियारउ। जाइ जणिउ सा धण्णी णिव सइ णरवइ वइजयंतु तहिं णिवसइ । गेहिणि भव सम्वसिरिणामें सुय उप्पण्णा सुहपरिणामें। संजयंतु अण्णेक्कु जयंतउ अणिहणजसधवलियतिजेयत्तउ । सारसमिहुणसरालवणंतरि णासियसोय असोयवणंतरि । एकहिं दिणि दक्खवियरहतहु पयजुयल वंदिवि अरहंतहु। धम्मु अहिंसावंतु सुणेप्पिणु अहिउल्लउँ मुणिमैग्गि थैवेप्पिणु । वइजयंतणामहु सहेप्पिणु संजयंततणयहु महि देप्पिणु। ते तिविहे णिवेएं लइय छिदिवि मोहलोहदुर्लइय । आमेल्लियणियसुललियजाया पिउ पुत्तय तिण्णि मि रिसि जाया इय तवविहिहि णिति किर के बलु बप्पहु उप्पण्णउ जहिं केवलु। __ पत्ता-तहिं आयहु देवहु फणिवइहि रूवु णिहालिवि हिययहरु ॥ णिज्झायइ लुद्ध जयंतु मुणि जइ फलु देसइ सुतवतरु ॥२॥ १० तो मज्झु वि एहउं लाएण्णउं एव णियाणणिबंधणबंधउ मुउ जयंतु संपत्तइ कालइ होजउ भवि सोहग्गाइण्णउं । जणु तिहिं सल्लहिं सयलु वि खद्धउ । जायउ विसहरिंदु पायालइ । उसमें विकारोंसे मुक्त, राजाओंमें प्रधान, शास्त्र तथा न्याय-अन्यायका विचार करनेवाला राजा वैजयन्त निवास करता है। जिस सतीने उसे जन्म दिया, वह धन्य है। उसकी भव्य सर्वश्री नामकी गृहिणी थी। शुभ परिणामसे उसके दो पुत्र उत्पन्न हुए, संजयन्त और जयन्त, जो अपने अनाहत यशसे तीनों लोकोंको धवलित करनेवाले थे। एक दिन जिसमें सारस दम्पतिका शब्दरूपी जल है, ऐसे अशोक वनमें, अन्तरायका अन्त दिखानेवाले अरहन्तके, शोकको नष्ट करनेवाले पदयुगलकी वन्दना कर, अहिंसामय धर्म सुनकर अपने हृदयको मुनिमार्गमें लगाकर, संजयन्तके युत्र वैजयन्तको बुलाकर उसे धरती देकर वे तीनों (पिता वैजयन्त, संजयन्त और जयन्त ) वैराग्यको प्राप्त हुए। मोह-लोभरूपी दुर्लताको काटनेके लिए अपनी सुन्दर पत्नियां छोड़कर पिता और दोनों पुत्र, तीनों ही मुनि हो गये। कितने लोग ऐसे हैं कि जो तपके द्वारा बलको प्राप्त होते हैं। वहां पिताको केवलज्ञान प्राप्त हो गया। घत्ता-वहाँ आये हुए देव, नागराजका सुन्दर रूप देखकर लोभी जयन्त मुनि अपने मनमें विचार करता है कि (उसका) सुतपरूपी वृक्ष यदि फल देता है- ॥२॥ तो वह आगामी जन्ममें मेरा सौभाग्यसे व्याप्त ऐसा लावण्य हो। इस प्रकार निदानके बन्धनसे बंधा हुआ मनुष्य तीनों शल्योंसे विनाशको प्राप्त होता है। समय पूरा होनेपर जयन्त २. १. AP°तिजयंतहु । २. A जिणमग्गि। ३. T सुणेप्पिणु सुष्छु नीत्वा। ४. AP दुल्ललिय । ५. A बप्पहं । ३. १. AP'बदउ। Page #341 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २९४ महापुराण [५७. ३.४जेण वएण मोक्खु पाविजइ ते संसारु केव मग्गिज्जइ । मोहें मोहिउ लोउ ण याणइ काणणि कायोणंतिय वीणइ । सवरल्लउ किं मोत्तिउं बुज्झइ मिच्छाइट्ठिहि दिट्ठि ण सुज्झइ। आहिंडंसिरहपंचाणणि तावेकहिं दिणि भीसणकाणणि । णिजियराएं वज्जियकाएं संजयंतु थिउ पडिमाजोएं। घत्ता-मुणिमारउ धीरउ दुहरिसु दूसहु गुणसंणिहियसरु॥ णियभामइ सामइ रामियउ णं रइरामइ कुसुमसरु ॥३॥ ४ णहयलि विजुदाढु विजाहरु विहरइ असिवरु वसुणंदयकरु । सुरहरु रिसिहि उवरि ण पयट्टा दुजणमणु व णे जाव विसदृइ । ताव तेण अवलोइउं महियलु दिट्ठउ मुणिवरु मेरु व णिञ्चलु । सुमरिवि पुत्ववइरु मुइ ढोइउ विज्जासामत्थेणुच्चाइउ । आणिउ तुंगसाहिसंघायइ भारहवरिसपुत्वदिसिभायइ । हरिवइ करिवइ चामीयरवइ कुसुमवइ वि चंडवेयाणइ । एयेउ मिलियउ जहिं तहिं पेल्लिउ पंचमहासरिसंगमि घल्लिउ । देसु असेसु तेण संचालिउ अच्छइ एत्थु एक्कु मलमइलिउ । णग्गउ णिग्घिणु वसणोवायउ तुम्हई रक्खसु भक्खहुँ आयउ। मरकर पाताल लोकमें विषधरराज होता है। जिस व्रतसे मोक्ष पाया जा सकता है, उससे संसार क्यों मांगा जाता है ? इस बातको मोहसे मोहित जन नहीं जानता। जंगलमें भील गुंजाकी प्रार्थना करता है, क्या वह मोतीको समझता है ? मिथ्यादृष्टिके लिए दृष्टि नहीं दिखाई देती। जिसमें सरभ और सिंह भ्रमण करते हैं, ऐसे भयंकर जंगल में एक दिन, जिसमें रागको जीत लिया गया है और शरीरका त्याग कर दिया गया है ऐसे प्रतिमायोगमें संजयन्त मुनि स्थित थे। घत्ता-मुनिको मारनेवाला धोर, दुदर्शनीय, असत्य डोरीपर तीर चढ़ाये हुए, अपनी पत्नी श्यामासे इस प्रकार रमण करता हुआ मानो काम रतिके साथ रमण कर रहा हो ॥३॥ जिसके हाथमें वसुनन्दक नामकी श्रेष्ठ तलवार है, ऐसा विद्युर्दष्ट्र विद्याधर आकाशतलमें विहार कर रहा था। उसका देव-विमान मुनिके ऊपर नहीं जा सका। दुर्जनके मनकी तरह जबतक उनका विमान विघटित नहीं हुआ, तबतक उसने धरतीतलको देखा, उसने मेरुके समान, मुनिवरको अचल देखा । अपने पूर्व वेरको याद कर उसने विद्याकी सामर्थ्यसे उसे उठा लिया तथा बाहुओंपर धारण कर लिया और उसे जो ऊंचे-ऊंचे वृक्षोंसे आच्छादित है, भारतवर्ष के ऐसे पूर्वदिशा भागमें जहाँ हरिवती, करीवती, चामीकरवती, कुसुमवती और चण्डवेगा नदियां मिलती है, वहां फेंक दिया और इस प्रकार पांच महानदियोंके संगमपर डाल दिया तथा अशेष देशमें यह बात फैला दी कि यहां एक मलसे मैला निर्दय दुःखजनक नंगा राक्षस तुम लोगोंको खानेके लिए २. A कायाणणिय । ३. A मिच्छाहिहिहि । ४. P आहिंडंति सरह । ४. १. A विज्जदाढु । २. AP जाव ण । ३. A °वरिसि पुव । ४. A कुसुमडई व पाणइ; P कुसुमवइ वि चंडवियाणइ । ५. A जहिं एयउ मिलियउ तहिं पेल्लिउ । ६. AP एक्कु एत्थु । Page #342 -------------------------------------------------------------------------- ________________ -५७.५.११ ] महाकवि पुष्पदन्त विरचित २९५ दुम्मुहु दुहबुद्धि विवरेरउ हणह कुणह जइ मंतु महारउ । ता मणुयहिं मुणिंदु कयरोसहिं ताडिउ उवलहिं दंडसंहासहिं । पत्ता-थिरूं' सत्तु मित्तु समभावि थिउ सुकझाणसंरुद्धमणु ।। सो खवखवयसेढिहि चडिउ तिणु वि ण मण्णइ णिययतणु ॥४॥ साहु भीमु उवसग्गु सहेप्पिणु तिकलेवरणिबंधु मेल्लेप्पिणु । गउ तहिं जेहिं गउ पुणरवि णावइ मुणिवरलील तिजगि को पावइ । मारिजंतु वि वइरिसमूहें जे कया वि घिप्पंति ण कोहें । ताहं मि जणु पहरणु किं धारइ जडु अप्पणु अप्पाणउंमारह। सहं देवहिं भवभावणिसुंभइ तहिं णिवाणपुज्जपारंभइ। आयउ सो जयंतु उरजंगउ पेच्छिवि चिरबंधुहि पडियंगउ । फुक्कारुडावियणहयंदे आरूसेप्पिणु खणि धरणिंदें। माणवणिवहु णिबद्धउ णायहिं दिणिहंउ णीससंतु कसघायहिं । अवरहिं वुत्तु फणिद वियारहि अम्हई काई भडारा मारहि । उक्खयखग्गे मच्छरगाढे एउं सव्वु विलसिउं तडिदाढे। परियणसयणहिं सहुंथरहरियाउ ताणासंत सत्तु सो धरियउ । आया है। यदि तुम हमारी बात मानते हो तो दुर्मुख, दुष्टबुद्धि, विपरीत इसे बार डालो। तब क्रोध करते हुए मनुष्योंने उन मुनीन्द्रको पत्थरों और हजारों डण्डोंसे ताड़ित किया। पत्ता-वह मुनि शत्रु-मित्रमें समभाव रखकर स्थित हो गये । शुक्लध्यानमें उन्होंने अपना मन संरुद्ध कर लिया। उस क्षपणक (मुनि)ने क्षपणक श्रेणोपर चढ़कर अपने शरीरको तिनकेके भी बराबर नहीं समझा ॥४॥ वह महासाधु उपसर्गको सहनकर, तीन शरीरके निबन्धनको छोड़कर वहाँ चले गये, जहाँसे जीव फिर लौटकर नहीं आता। तीनों लोकोंमें मुनिवरकी लीलाको कौन पा सकता है ? शत्रुसमूहके द्वारा मारे जाते हुए भी जो कभी भी क्रोधके द्वारा अभिभूत नहीं होते ऐसे मुनियोंके ऊपर जन हथियार क्यों उठाता है ? वह मूर्ख अपनेसे अपनेको मारता है। वहां देवोंके साथ संसारके भावका नाश करनेवाली निर्वाणपूजा प्रारम्भ की गयी। वह जयन्त धरणेन्द्र भी वहां आया । अपने चिरबन्धुके शरीरको पड़ा हुआ देखकर, फूत्कारसे जिसने आकाशके चन्द्रमाको उड़ा दिया है, ऐसे धरणेन्द्रने एक क्षणमें क्रद्ध होकर नागोंसे मानव समहको बांध लिया और श्वास लेते हुए उन्हें कशाघातोंसे मार डाला। दूसरोंने कहा-'हे धरणेन्द्र, विचार करिये । हे आदरणीय, आप हमें क्यों मारते हैं ? जिसने तलवार उठा रखी है तथा जिसमें प्रगाढ़ मत्सर है, ऐसे विद्युदंष्ट्रने यह सब चेष्टा की है।" तब परिजनों और स्वजनोंके साथ थर-थर कांपते और भागते हुए शत्रुको उसने पकड़ लिया। ७. P कुणाह। ८. A दुट्ठसहासहिं । ९. AP थिउ । १०. AP खवगसे ढिहि । ५.१. A मलेप्पिणु । २. AP जहिं सो गउ पुणु णावह । ३. A मोहें। ४. AP अम्पाण अप्पुण । ५. AP उरजंगम् । ६. A वणि हउ । Page #343 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २९६ ५ १० महापुराण घत्ता -किर बंधव घिवइ समुहजलि ता फणिवर दुम्मियहियउ ॥ आइचपहावें सुरवरिण करुर्ण करेपिणु पत्थियउ ||५|| ६ णायराय पहएं किं आएं मुइमुइ किं किर कलुस सहावें एत् ण को व बंधु णउ वइरिउ : जेण सुसीलवंतु संताविउ किर मुणि तवदुखि तणु तावइ इहु हिंसइ इहु धम्मि पयट्टइ तं णिसुणेवि रोसु मेल्लेप्पिणु दारणमारण विहिविच्छिण्णउं भारहगोत्तखेत्तरक्खणवइ सयलकलाविण्णाणवियक्खण लज्जिज्जइ णिहएण वराएं । पावयम्मु सई खज्जउ पावें । पिसुणु ण होइ एहु उवयारिउ । 1 मोक्खु तुहार भारु पाविउ । अणें कि तंतहु णिरु भावइ । चजम्मंतरु दोहं वि वट्टइ । aas अहीसरु सिरु विहुणेपिणु । भणु हि बिहिं मि वइरु संपेपणउं । म घत्ता - तं णिसुणिवि दरदरिसियदसणदित्तिइ जगु धवलउं करइ ॥ कह देवदिवायराहु फणिहि बहुरसभावहिं वज्जरइ ||६|| [ ५७.५.१२ ७ सीह से सीहरि महीवइ । रामयेत्त तहु देवि सलक्खण । घत्ता - हाथ बांधकर घरणेन्द्र पीड़ित हृदय उस विद्याधरको जबतक समुद्रजलमें फेंके, तबतक आदित्यप्रभ नामक सुरवरने करुणा करके उससे प्रार्थना की ॥५॥ ६ " हे नागराज, इसको मारनेसे क्या ? इस बेचारेको मारनेसे आपको लज्जा आनी चाहिए । इसे छोड़ो, कलुषित परिणामसे क्या ? वह पापकर्मा स्वयं अपने पापसे खाया जायेगा । इस संसार में न तो कोई भाई है और न कोई शत्रु । फिर यह दुष्ट नहीं है । यह उपकारी है कि जिसने सुशीलवन्तको सताया और उससे तुम्हारा भाई मोक्ष पा गया ? मुनि तपके दुःखसे अपने शरोरको स्वयं तपाते हैं, यदि कोई दूसरा दुःख पहुँचाता है तो वह उन्हें अच्छा लगता है। यह हिंसा करता है और यह (मुनि) धर्ममें प्रवर्तन करता है । लेकिन देहत्याग द्वारा जन्मान्तर दोनोंका होता है ।" यह सुनकर और क्रोध छोड़कर नागराज सिर हिलाकर कहता है-छेदन, मारण और भाग्यसे विछोह करानेवाला यह वैर दोनोंमें किस प्रकार हुआ । धत्ता - यह सुनकर अपने दाँतोंकी दीप्तिसे वह जगको धवल करते हैं और आदित्यप्रभ देवकी कथा अनेक रसभावसे नागराजको बताते हैं ||६|| ७ सिंहपुर में भरतके गोत्र और क्षेत्रका रक्षणपति राजा सिंहसेन था । उसकी समस्त कलाओं ७. AP आइच्चपहाहे । ८. A करुणु; P करणु 1 ६. १. P चउजम्में तरु देहविघट्टह । २. A उप्पण्णउं । ३. AP दरदरिसियं । ४. A देवदिवायरु तहो; P देउ दिवायराहु | ७. १. AP भारहखेत्ति खेत' । २. A रामदत्त Page #344 -------------------------------------------------------------------------- ________________ -५७. ८.६] महाकवि पुष्पदन्त विरचित पढमु मंति सिरिभूइ विणीयउ सञ्चघोसु अवरु वि तहिं बीयउ । विहसियसरलसरोरुहणेत्तर पउमसंडपुरि सेहि सुदत्तउ ।। तहु गेहि णिहि सुमित्तहि हूयउ भद्दमित्तु सिसु णिरुवमरूवउ । हिंडत जाएण जुवाणे । देसंतर लंघिवि पहरीणें । तेण किरणसंताणसिणि इं रयणदीवि वररयणइं लद्धइं। देसिएण सीहरि वसंतें सुद्धसहावें बहुगुणवंतें। तकरभीएं रुइविच्छिण्णई सच्चघोसमंतिहि करि दिण्णइं। घत्ता-गउ अप्पणु पुणरवि णियघरहु लेवि सहायसमागयउ । जा मग्गइ रयणई णिहियाइं ताव लुद्ध लोहे हयउ ॥७॥ देइ ण मंति तासु पियरयणई वणिवरु घरि घरि फुड पुक्कारइ पुच्छिउ रोएं कालउ तंबउ दीणु रुयंतर णिञ्च जि दीसइ घोसहि सच्चघोस किं जुत्तउं .हउं वि तुहुं वि जइ चोरु णिरुत्तउ णाई विरत्तउ विडयणु णयणई। खलु लच्छीमएण अवहेरइ । हित्तउ काई वत्थुणिउरुंबउ । पई दूसइ अण्णाउ पघोसइ। ता विहसेप्पिणु विप्पें वुत्तउं । जणणि गिलइ जइ डिभउ सुत्तउ । और विज्ञानोंमें विलक्षण और अच्छे लक्षणोंवाली रामदत्ता नामकी देवी थी। उसका प्रथम मन्त्री विनीत श्रीभूति था और दूसरा सत्यघोष था। सरल कमलसमूहका उपहास करनेवाले नेत्रोंवाला सुदत्त पद्मखण्ड पुरीका सेठ था। उसकी गृहिणी सुमित्रासे अनुपम रूपवाला भद्रमित्र नामक बालक हआ। युवक होनेपर घूमते हुए देशान्तरको लांघकर पथसे थके हुए उसने रत्नद्वीपमें किरणपरम्परासे स्निग्ध उत्तम रत्न प्राप्त किये। सिंहपुर में निवास करते हुए दूसरे देशसे आये हुए गुणवान् और शुद्ध स्वभाववाले उसने चोरोंके भयसे कान्तिसे चमकते हुए वे रल सत्यघोष मन्त्रीके हाथमें दे दिये। घत्ता-वह स्वयं चला गया और अपने घरसे सहायक लेकर आ गया। और जबतक वह रखे हुए रत्नोंकी याचना करता है तबतक वह लोभी सत्यघोष लोभसे आहत हो गया ॥७॥ मन्त्री उसके प्रिय रत्नोंको नहीं देता, जैसे विरक्त विटजन अपने नेत्र नहीं देता। वह वणिकवर घर-घर जाकर जोर-जोरसे पुकारता, लेकिन लक्ष्मीके मदसे वह उसकी उपेक्षा कर देता। एक दिन राजाने पूछा कि इसके काले-नीले रत्नोंका समूह क्यों हर लिया गय दोन नित्य रोता हुआ दिखाई देता है। यह तुम्हें दोष लगाता है और अन्यायकी घोषणा करता है। बताओ सत्यघोष कि ठीक बात क्या है ? कि यह सुनकर ब्राह्मण मन्त्रीने हंसते हुए कहा-यदि मैं और तुम दोनों निश्चित रूपसे चोर हैं और यदि मां अपने सोते हुए बच्चेको स्वयं खा लेती है तो ३. A सो च्चिय सच्चघोस पुणु भणियउ; P सोत्तिय सच्चघोसु तहिं भणियउ। ४. AP वियसिय; K वियसिय but corrects it to विहसिय। ५. AP सणिद्धई। ८. १. A वणि बरु पुंडरीउ पुक्कारइ। २. AP राएं वणिउ चवंतउ । ३. P तो। ३८ Page #345 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २९८ महापुराण [५७. ८.७तो किं जियइ को वि भुवणंतरि एहु लय उ चोरेहिं वर्णतरि। हिंडइ दवपिसाएं मुत्तर जंपइ जंजि तं जि अवचित्तउ । एहु चौरु चिंते गहियउं ता राएण वितं सद्दहियउं घत्ता-वणि डिंभसहासहिं परियरिउ भमइ णयरि परिमुक्कसरु॥ आरडइ करुण सूरुग्णमणि णिवंघरणियडइ चडिवि तरु॥८॥ मई दिहिवंतइ सीलविसुद्धा ता महएविइ वुत्तु विरुद्धइ। परवंचणगुणतग्गयचित्तहिं महिवइमइ भामिजइ धुत्तहिं । णिरणुट्ठाणु दीणु दालिहिउ अप्पणु जइ वि होइ सोहद्दिउ । तहु जंपिउ ण को वि आयण्णइ राउ वि णिद्धणवयणु ण मण्णइ । णिवे तुह मंदिरि चोरहं उण्णइ एम चवेप्पिणु सुंदरु विहियउं पासाहलउ पासि संणिहियउ। पहिं पडंतु संतु हक्कारिउ आउ महंतु तहिं जि वइसारिउ । दोहिं मि अक्खजूउ पारद्धउं देविइ भल्लाउं उत्तरु लद्धउं । मज्झु जाइ णीसेसहु देसहु तुज्झु वि सुत्तहु दियवरवेसहु। चामीयरसोहासोहिल्लहि अवरु वि मुर्देइ मणितेइल्ल हि । बिणि वि एयई भूसियगत्तई रायाणियइ छइल्लइ जित्तई । महियंगुलियइ वज्जुजेलियइ उववीयउ सहुं अंगुत्थलियइ । क्या कोई इस संसारमें जीवित रह सकता है ? यह वनके भीतर चोरोंके द्वारा लूट लिया गया है और द्रव्यपिशाचसे सताया हुआ यहां घूमता है । वह जो कुछ भी कहता है वह उद्भ्रान्त चित्तका कथन है। विचार करते हुए राजाने इसे सुन्दर समझ लिया और उसका विश्वास कर लिया। पत्ता-हजारों बालकोंसे घिरा हुआ उन्मुक्त स्वरवाला वह वणिक् नगरमें घूमता फिरता। सूर्योदय होनेपर राजाके घरके निकट पेड़पर चढ़कर वह करुण स्वरमें चिल्लाता ॥८॥ तब भाग्यशालिनी शीलसे विशुद्ध महीदेवीने कुपित होकर मुझसे कहा, "दूसरोंको ठगनेके गुणमें दत्त-चित्त धूर्तों के द्वारा राजाकी बुद्धि घुमा दी जाती है। जो निरुद्यम, दीन और दरिद्र है चाहे वह खुद कितना ही स्नेहयुक्त हो उसके कहेको कोई नहीं सुनता। राजा भी निर्धनके वचनको नहीं मानता। हे राजन्, तुम्हारे घरमें चोरोंकी उन्नति है।" यह सुनकर उसने एक सुन्दर बात की। वह द्यूतफलकके पास बैठ गयी। पैरोंपर पड़ते हुए उसने मन्त्रीको पुकारा और आये हुए मन्त्रीको उसने वहीं बैठा लिया। दोनोंने अक्षयूत प्रारम्भ किया। देवीने भी भला उत्तर पा लिया कि मेरे समस्त देश और तुम्हारे द्विजवर वेशके जनेऊ और स्वर्णशोभासे शोभित मणितेजसे युक्त अंगूठीका खेल ( जुआ) होगा। शरीरको भूषित करनेवाली ये दोनों चीजें चतुर रानीने जीत ली-बिजलीकी तरह चमकती हुई बहुमूल्य अंगूठीके साथ जनेऊ । ४. A omits वि । ५. A चोरु । ६. AP चित्तंतें । ७. A सहासि । ८. AP णिवघरि णियडउं । ९.१. P तहिं । २. A adds this line in second hand: P omits it। ३. AP जि । ४. AP - मुद्दहि । ५. AP विज्जुज्जलियइ; but gloss in T होरदीप्त्या । Page #346 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २९९ -५७.१०.१४ ] महाकवि पुष्पदन्त विरचित धत्ता-तं णिउणमईहिं समप्पियउं धाइहि हियवउं हरिसियउं ॥ अहिणाणु महामंतिहिं तणउ भंडायारिहि दरिसियजं ॥९॥ पप्फुल्लियसुवत्तसयवत्तइ चिंधु पदंसिवि वुत्तउं धुत्तइ । अच्डइ गुरु राउलि अवलोयहि भद्दमित्तमाणिक्कइं ढोयहि । तो कोसाहिवेण सामुग्गउ अप्पिउ धाइहि वत्थुसमुग्गउ । गय सा तं लेपिणे खणि तेत्तहि अच्छइ सणिवंणिवाणी जेत्तहि । जूयपवंचु पहुहि वज्जरियउ वसुविसेसु कुडिले अवहरियउ । ता राएं पायावलिजडियई अण्णइं रयणई तहिं तोतडियई। पडिहारें आहूयउ वणिवरु लइ णियमाणिक्कई पसरहि करु । भणिउं णरिंदें वणिउ णिरिक्खइ णियधणु किं ण को वि ओलक्खइ । लइयउ तेत्थु तेणे णियमणिगणु जिह मणिगणु तिह णरणाहहु मणु । दिण्णउं पुरमहल्लसेट्टित्तणु पाइ को ण सुइत्ते कित्तणु । मंतिणिरिकु ढुकु अवमाणहु कंसथालि खावाविउ छाणहु । सीसि तीस खरटक्कर घायहिं ताडिउ मल्लहिं कुंचियकायहिं । घत्ता-कसपहरपरंपरसुढियतणु वरवेयणवढियजरउ ।। मुउ रायहु उप्परि कुवियमणु हुउ वसुवासइ विसहरउ ॥१०॥ घत्ता-वे चीजें उसने अपनी निपुणमति धायको सौंप दी। वह मन में हर्षित हुई। महामन्त्रीकी इन पहचानोंको मैं भण्डारीको दिखाऊंगी ॥९॥ खिले हुए मुखकमलवाली उस धूर्ताने पहचान बताकर कहा कि "गुरु राजकुलमें हैं, (यह) देखो और भद्रमित्रके माणिक्य दे दो।" तब कोषके अध्यक्षने रत्नोंसे परिपूर्ण पिटारा उसे दे दिया। वह उसे लेकर एक क्षणमें वहां गयी जहां उसके राजाकी रानी थी। उसने जुएका प्रपंच राजाको बताया और कुटिलतासे अपहृत किया गया धन भी । तब राजाने किरणावलिसे विजड़ित और दूसरे रत्न उसमें मिला दिये। प्रतिहारने वणिक्वर को बुलाया। "लो अपने रत्न ले लो।" राजाने कहा। वणिक् उन्हें देखने लगा। अपने धनको कौन नहीं पहचानता। उसने वहां अपने मणिगण ले लिये। जिस प्रकार उसने अपना मणिगण ले लिया, उसी प्रकार उसने राजाका मन भी जीत लिया। उसने उसे नगरके महाश्रेष्ठीका पद दिया। पवित्रतासे संसारमे कौन नहीं कीर्ति T? चोर मन्त्री अपमानको प्राप्त हुआ। काँसेकी थालीमें उसे गोबर खिलाया गया। संकुचित शरीर मल्लोंके तीव्र टक्करके आघातोंसे तीस बार सिरपर उसे ताड़ित किया गया। पत्ता-कोड़ोंके आघातकी परम्परासे शन्यशरीर तथा अत्यधिक वेदनासे जिसे ज्वर बढ़ रहा है ऐसा वह सत्यघोष मन्त्री राजाके प्रति कुपित मन होकर भाण्डागारमें सांप हुआ ॥१०॥ पा। ६. A महिवइहिययउं । ७. P भडायारिहे। १०.१. P तो । २. A साचग्गउ; P सामग्गउ । ३. P लेप्पिण तंखणि । ४. P सणिवइराणी। ५. P adds वि after तेण । ६. A पावइ को ण सइत्तें; Pपावइ कि ण सुइत्तें। ७. A सीस तीस खरटक्कर; P सीसि तीस खरढक्कर। ८. A धणवेयण: P वणवेयण । ९. A विसहरु । Page #347 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३०० महापुराण [५७. ११.१ भीम अगंधणकुलि संभूयउ णं जमपासउ णं जमदूयउ। सिसुससिसरिसेविसमदाढाणणु धणणिहिकलसयवलइयणियतणु । कजलकण्हलतंबिरलोयणु कोइलभसलकसणु मरुभोयणु । फुक्करंतु दुम्मुहु अहि अच्छइ दीहरु कालु जाव तहिं गच्छइ। ता राएण रिद्धिपरिउण्णउं मंतित्तणु धम्मिलहु दिण्णउं । असणवणंतरि कंतारायलि धम्मणाममुणिवरपयजुयतलि । सुणिवि धम्मु संसारहु संकिउ भदमित्तु जिणवरदिक्खंकिउ । णियजणणिइ छुहियइ उवलद्धउ गहणि सुमित्तावग्घिइ खद्धउ । मरिवि महाबलु पडिबलमद्दणु मयवइसेणहु जायउ णंदणु । सीहँचंदु पहिलारउ भासिउ पुण्णेयंदु तहु अणुउ पयासिउ । रामयत्त बिहिं पुत्तहिं राहियणं पुण्णिम रेविससिहि पसाहिय । अण्णहिं दिणि कुलकमलदिणेसरु दविणागारु णियंतु गरेसरु । घत्ता-जो सच्चघोसु चिरु मंतिवरु बद्धवहरु हुर सप्पु घरि ॥ तें सिवि डक्कि भीसणिण णउलीयरणु करेवि करि ॥११॥ अगंधण कुलमें पैदा हुआ भीम वह मानो यमका पाश या दूत था। उसका मुख शिशुचन्द्रमाके समान और विषम दाढ़ोंवाला था। धन और निधिकलशोंसे अपने शरीरको लपेटे हुए था। उसके नेत्र कज्जलके समान काले और लाल-लाल थे। वह कोयल-भ्रमरके समान श्याम था। हवा उसका भोजन था। वह दुर्मुख सांप फूत्कार करता हुआ वहाँ रहता है। उसका लम्बा समय वहाँ बीत जाता है। राजाके द्वारा ऋद्धिसे परिपूर्ण मन्त्रिपद धर्मिल ब्राह्मणको दिया गया। असना नामक वनमें विमल कान्तार पर्वतपर धर्म नामक मुनिवरके चरणकमलोंके तलमें धर्म सुनकर भद्रमित्र संसारसे शंकित होकर जिनवरकी दीक्षामें दीक्षित हो गया। वह अपनी भूखी मां सुमित्रा बाघिन द्वारा पा लिया गया और वह उसे खा गयी। वह मरकर सिंहसेनका शत्रुसेनाका मर्दन करनेवाला महाबली पुत्र हुआ। उसमें सिंहचन्द्र पहला कहा गया और दूसरा पूर्णचन्द्र उसका अनुज प्रकाशित हुआ। मां रामदत्ता अपने दोनों पुत्रोंसे शोभित थी, मानो पूर्णिमा सूर्य और चन्द्रमासे प्रसाधित थी। किसी दूसरे दिन कुलकमलका सूर्य अपना कोशालय देख रहा था। घत्ता-जो सत्यघोष प्राचीन मन्त्रीवर वैर बांधकर घरमें साँप हुआ था, भीषण, उसने रूठकर और हाथमें नकुलीकरण कर उसे काट खाया ॥११॥ ११. १. P°सरिससविसवाढा। २. A कज्जलकण्हिरतबिर'; P कज्जलकज्जलतंबिर । ३. A°वग्घिणि खद्धउ। ४. P सीहचंडु। ५. AP पुण्णचंदु। ६. AP ससिरविहिं । ७. AP णियत्तु । ८. Pतं रूसिवि । ९. AP डंकिउ । Page #348 -------------------------------------------------------------------------- ________________ -५७. १३.४] महाकवि पुष्पदन्त विरचित ३०१ मुउ सल्ल इवणि जायउ करिवरु ___ असणिघोसु णामें दीहरकरु । णवर ससामिमरणि कुज्झंतें मंतसारु सयलु वि बुज्झते । गारुडदंडएण गोरुडिएं फणि आवाहिय मच्छरचडिएं । भणिउ काई महुं वयणु णियच्छहु दीर्दू धरेप्पिणु णिलयहु गच्छहु । ता पइसरिवि जैलणि अहि णिग्गय अकयदोस जे ते सयल वि गय । पञ्चारियउ इयरु मंतीसें राउ महारउ भक्खिवि रोसें। एवहिं एम काई अच्छिज्जइ जिम सिहि खजइ जिम विसु छिज्जेइ । ता चिंतइ कुंभीणसु णियमणि अम्हई जाया गोत्ति अगंधणि । उग्गेिल्लिउ विसु केम गिलिज्जइ कुलसामत्थु केम मइलिज्जइ । पत्ता-मरणि वि संपण्णइ गरुयगरु कुलछलु माणु ण मेल्लियउ॥ जालावलिजलियइ विसहरिण अप्प हुयवहि धल्लियउ ॥१२॥ अट्टज्झाणमरट्टे सो मुउ खंति हिरण्णवई वणि वंदिवि रामयत्त पियदुक्खें भग्गी सिंहचंदु चिरु रज्जु करेप्पिणु कालवणंतरि हुयउ चमरीमउ । दुक्किउ पुणु पुणु णिदिवि गरहिवि । पंचमहत्वयच रियहि लग्गी। पुरु धरित्ति णियभायहु देप्पिणु । १२ वह मरकर सल्लकीवनमें करिवर हुआ, अशनिघोष नामका लम्बी सूंडवाला । अपने स्वामीके मरनेसे क्रुद्ध होकर और समस्त मन्त्र रहस्य जानते हुए गारुडदण्ड नामक गारुडीने मत्सरसे भरकर सर्पोका आह्वान किया ( बुलाया ) और कहा, "मेरा मुख क्या देखते हो, दीप धारण कर घरसे चले जाओ।" तब आगमें प्रवेश करते हुए सभी सांप चले गये, जिन्होंने दोष नहीं किया था वे सभी गये । तब मन्त्रीशने कहा, "तुमने क्रोधसे हमारे राजाको काट खाया । अब इस समय तुम्हें क्यों यहां रहना चाहिए, जिस तरह आग क्षय करती है उसी प्रकार विष भी क्षीण करता है।" इसपर वह सांप अपने मन में सोचता है कि हम अगन्धन कलमें उत्पन्न हए हुए विषको हम किस प्रकार खा सकते हैं? अपने कुल-सामथ्र्यको क्यों, किस प्रकार मलिन करें? पत्ता-मृत्युको प्राप्त होनेपर भी उसने महान् कुलगर्व और मान नहीं छोड़ा। सांपने अपने-आपको ज्वालावलीसे जलती हुई आगमें डाल दिया ॥१२॥ आर्तध्यानसे मरकर वह सांप कालवनमें चमरीमृग पैदा हुआ। प्रियके विरहसे भग्न होकर रामदत्ता वन में हिरण्यवती नामकी आयिकाकी वन्दना कर और पापकी बार-बार निन्दा गर्हा कर पांच महाव्रतोंकी चर्या में लग गयी। सिंहचन्द्र भी चिरकाल तक राज्य कर और फिर १२. १. A गारुडियइ । २. A चडियह । ३. A दिव्वु घरेप्पिणु; । P दीउ घरेप्पिणु। ४. P जलिणि । ५. A चिज्जह । ६. AP उग्गिलियउ । ७. AP ते मरणे वि होतए गरुययरु कुलुच्छल । १३.१. A ज्झाणमरणेण य सो मुउ । २. AP गरहिवि णिदिवि । ३. AP सीहचंदु । Page #349 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३०२ महापुराण [५७. १३. ५पुण्णचंदु भयवंतु णवेप्पिणु पवरदियंबरवित्ति लएप्पिणु । जायउ इंदियदप्पवियारणु मणपज्जयणाणिउ णहचारणु । रामयत्तदेवीइ मणोहरि दिट्ठउ काणणि ललियलयाहरि । वंदिउ वंदणिज्जु णियमायइ । पुणु आउच्छिउ समेहरवायइ। कुच्छि सलक्खण एक महारी तुहुँ जणिओ सि जाइ भववइरी। अज्ज वि अच्छइ काइंरमारउ धम्मु ण गेण्हइ भाइ तुहारउ । तं णिसुणेप्पिणु भणइ भडारउ णिसुणहि ससयणभववित्थारउ । घत्ता-कोसलविसयंतरि धणभरिउ वुड्ढगाउं वइपरियरिउ । तहिं आसि मृगायणु विप्पवरु महुरइ बंभणीइ धरिउ ॥१३॥ सज्जणमोह णि णावइ वारुणि धीय बिहिं मि उप्पणी वारुणि । मरिवि मयायणु पुरि साकेयइ अइबलणामणरिंदणिकेयइ। सुमईदेविहि गम्भि समायउ पुरिसु वि थीलिंगत्तहु आयउ । धीय हिरण्णवइ त्ति य जायउ मुवणि वियंभइ कम्मविवायउ । पोयणपुरवरि रूवरवण्णी पुण्णयंदणरणाहहु दिण्णी । जा चिरु महुर सा जि तुहुं हुई रामयत्त दोहं मि सिरिदुई। भद्दमित्त सुउ तुह उप्पण्णउ सीहइंदु हउं जेहिं भिण्णउ । वारुणि पुण्णयंदु जाणिज्जसु अम्मिइ मोहु हवंतु खमिज्जसु । धरती अपने भाइयोंको देकर ज्ञानवान् पूर्णचन्द्रकी वन्दना कर, प्रवर दिगम्बर दीक्षा ग्रहण कर, इन्द्रियोंके दर्पका विदारण करनेवाला मनःपर्ययज्ञानी और आकाशचारी हो गया। रामदत्ता देवीने सुन्दर ललित लतागृहमें उसे देखा। उनकी अपनी माताने वन्दनीय उनकी वन्दना की और अत्यन्त मधुर वाणीमें पूछा, "हमारी कोखसे एक तुम सुलक्षण हुए थे, जो संसारका शत्रु हो गया। लेकिन तुम्हारा भाई (पूर्णचन्द्र ) आज भी लक्ष्मी में अनुरक्त है। तुम्हारा भाई धर्म ग्रहण क्यों नहीं करता?" यह सुनकर वह आदरणीय कहते हैं कि अपने जनका भव विस्तार सुनो। पत्ता-कोशल देशमें वृत्तिसे घिरा हुआ धनसे भरा हुआ वृद्ध गांव है। उसमें मृगायन नामका ब्राह्मण है, जो मधुरा नामकी ब्राह्मणीके द्वारा वरित था ॥१३॥ उन दोनोंको वारुणी नामकी कन्या उत्पन्न हुई जो सज्जनोंको मोहनेवाली जैसे वारुणी (सुरा) थी। वह विप्रवर मृगायण मरकर, साकेत नगरीमें अतिबल नामक राजाके घरमें सुमति देवीके गर्भमें आया। वह पुरुष होते हुए भी स्त्रीलिंगमें आया। वह हिरण्यवती नामकी कन्याके रूप में विख्यात हुआ । कर्मका विपाक संसारको बढ़ाता है। रूपसे सुन्दर वह पोदनपुर में पूर्णचन्द्र नामक नरनाथको दी गयी। जो पहले मधुरा थी वही तुम इस समय रामदत्ता हुई हो, तुम दोनों ही लक्ष्मीकी दूती हो। भद्रमित्र तुम्हारा पुत्र उत्पन्न हुआ और स्नेहसे भिन्न मैं सिंहचन्द्र हूँ। ४. A णएप्पिणु । ५. A समहुर। ६. AP मिगायणु । ७. AP वरिउ । १४. १. P मियाणणु । २. AP सुम्मइदेविहि । ३. A थोलिंगि तह । ४. P पुण्णइंदं । ५. AP सोहचंद्वी। ६. AP खवेज्जसु। Page #350 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३०३ -५७. १५.९] महाकवि पुष्पदन्त विरचित पुण्णचंदु जो पोयणसामिउ भहबाहुगुरुणा उवसामिउ । जो तुह जणणु तुज्झु गुरु जायउ महुं वि सो जि सुरपुज्जियपायउ । ताउ महारउ कंतु तुहारउ जायउ वणि वारणु दुव्वारउ । कूरतिरियजम्में संमोहिउ हणणकामु सो मई संबोहिउ । पत्ता-ओसरु गयवर मयरंयभमर मा दूसहु दुक्किउ करहि ।। किं णिहणहि णंदणु अप्पणउं सीहयंदु णउ संभरहि ॥१४॥ ता जाईभैरु जायउ कुंजरु दुद्धरु गिरिवरगेरुयपिंजरु । झायइ इहु रिसि तणुरुहु मेरउ हउं जायउ वणि करि विवरेरउ । जो चिरु मुंजंतउ रस णव णव सो एवहिं भक्खमि तरुपल्लव । जो चिरु सेवंतां वरणारिउ तहु एवहिं दुक्कउँ गणियारउ । जो चिरु चंदणकुंकुमलित्तउ सो एवहिं कमि पंगुत्तउ । जो चिरु सुहं सोवंतउ तूलिहि सो एव हि ह लोलमि धूलिहि । जो चिरु देतउ दाणु सुदीणहं सो एवहिं महुयरसंताणहं। जो चिरु जाणंतउ छग्गुण्णउं तें किह पुत्त णिहणु पडिवण्णउं। डझंउ देव एय तिरियत्तणु ता मइं भणि उं मुणेप्पिणु तहु मणु। वारुणिको तुम पूर्णचन्द्र जानोगी। हे मां, होते हुए मोहको आप क्षमा कीजिए । पूर्णचन्द्र जो पोदनपुरका स्वामी था, उसे भद्रबाहु गुरुने शान्त कर दिया है। तुम्हारे जो पिता तुम्हारे गुरु हैं देवोंके द्वारा पूज्यपाद वह मेरे भी गुरु हैं। मेरे पिता तुम्हारे स्वामी हैं। वह वनमें दुर्वार वारण हुए हैं। क्रूर तिथंच जन्मसे मोहित मारने की कामनावाले उसे मैंने सम्बोधित किया है घत्ता-जिसके मदमें भ्रमररत हैं, ऐसे हे गजवर, दूर हटो, तुम असह्य पाप मत करो। तुम अपने पुत्रको क्यों मारते हो? क्या तुम सिंहचन्द्रको याद नहीं करते ? ॥१४॥ तब गिरिवरको गेरुसे पीले कुंजरको जाति स्मरण हो गया कि यह मेरा पुत्र मुनि होकर ध्यान करता है, मैं वनमें विपरीत गज हुआ हूँ, जो पहले मैं नव-नवका भोग करता था वह मैं अब इस समय वृक्षके पत्ते खा रहा हूँ। जो पहले उत्तम नारियोंका सेवन करता था उसके पास इस समय हथिनी पहुंची है। जो पहले चन्दन और कुंकुमसे लिप्त होता था, वह इस समय में कीचड़में फंसा हुआ हूं। जो पहले रुईपर सुखसे सोता था, वह मैं इस समय धूल में लोटता हूँ। जो पहले अत्यन्त दीनोंको दान देता था, वह मैं इस समय मधुकर सन्तानको दान (मदजल) देता हूँ। जो मैं पहले षड्गुण राजनीति जानता था, हे पुत्र, उसने इस निर्धनत्वको कैसे स्वीकार कर लिया। हे देव, इस स्त्रीत्वमें आग लगे। तब मैंने उसके मनको जानकर कहा ७. AP पुज्जियसुरपायउ । ८. A मयरसभमर । १५.१. A जाईसरु; P जाएभरु; K जाईसरु but corrects it to जाइंभरु । २. P omits this line. ३. A P भुजंतउ । ४. A ढुक्कहि । .. A कद्दमहि । ६. A सो एमहि लोलिवि तणु; P सो एमहि लोलेमि तणु । ७. A तं किह णिहणु पुत्त पडि; P तें किह णिहण पुत्त पडि । ८. A डज्झउ देव एहु; P डज्झउ एउ देव। Page #351 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३०४ १० १० महापुराण घत्ता - माहिणहि पडिकरि गिरितरु वि जीव णिहालिवि पर धिवहि ॥ गय भक्खहि विडियदुमदलई परकलुसिड पाणिउ पियहि ||१५|| मारं वि अण्णु मा मारहि तो कुंभत्थलणविय मुणिंदे बंभ दि णिच धरियउं खविउ कलेवरु कायकिलेसें केसरितीरिणितर्डेगउ जइयहुँ वैरि चमरिजम्मंतरमुक्के कुंभारोहणु करिव सद मुड हुड उवसमेण सोक्खावहि सिरिहरु देउ काई वणिज्जइ हुड धम्मलु वाणरु रोसुक्कडु णियपावें पंकप्पाहि पत्तउ [ ५७.१५.१० १६ अप्पर संसारहु उत्तारहि । fre व्रजे पालिडं तेण गईंदें । जिणपायारविंदु संभरियउँ । परिय कालविसेसें । खुत्तर दुमि कमि तइयहुँ । पिसुर्णे अवरभवं तरकें । भक्खिड गयवइ कुक्कुडसप्पें । सहसारइ सुरभवणि रविप्पाहि । एहउं जाणिव धम्मु जिं किज्जइ । मारि तेण रणे सो कुक्कुडु | अणु वि एव जि जाइ पमत्तउ । घत्ता - जणु जिणवरवयणु ण पत्तियइ खाइ मासु मारिवि पसु ॥ संतावइ साहु समंजेस वि निवडइ णरइ सकम्मवसु ||१६|| धत्ता- तुम प्रतिगजको मत मारो, गिरितरु और जीवको भी देखकर पैर रखो। हे गज, गिरे हुए द्रुमदलोंको खाओ और दूसरोंके द्वारा कलुषित पानी पिओ || १५ ॥ १६ दूसरेके मारनेपर भी तुम मत मारो, संसारसे अपना उद्धार करो। तब जिसने अपने कुम्भस्थलसे मुनीन्द्रको नमस्कार किया है, ऐसे उस गजने स्थिर व्रतका पालन किया। उसने दृढ़ ब्रह्मचर्यको धारण कर लिया और जिनवरके चरणकमलोंका स्मरण किया । कायक्लेशसे अपने शरीरको क्षीण कर डाला । समयविशेष आनेपर जब वह केशरी नदीके तटपर गया तो दुर्दम कीचड़ में फँस गया । चमरीमृग जन्मान्तरसे मुक्त, दूसरे जन्म में पहुँचे हुए दुष्ट कुक्कुट सर्पने कुम्भपर चढ़कर गजपतिको काट खाया । मरकर वह उपशम भावसे, जो सुखोंकी सीमा है, रविके समान जिसकी प्रभा है ऐसे सहस्रार स्वर्गमें उत्पन्न हुआ । उस श्रीधर देवका क्या वर्णन किया जाये, यह जानकर हमें धर्मं करना चाहिए । धर्मिल वानर हुआ और उसने युद्धमें क्रोधसे उत्कट उस सर्पको मार डाला । अपने पापसे वह पंकप्रभा नरकमें पहुँचा । दूसरा प्रमत्त जीव भी इसी प्रकार जाता है । घत्ता -- लोग जिनवर के वचनका विश्वास नहीं करते, पशु मारकर मांस खाते हैं। योग्य साधुको सताते हैं और अपने कर्मके वश नरकमें जाते हैं ॥१६॥ १६. १. AP तो । २. AP वउ । ३ AP चिरु । ४. P तडु गउ । ५. AP णवर । ६. A दमसमेण । ७. Aवि । ८. A मारिउ रण्णि तेण सो; P मारिउ तेण रष्णि सो । Page #352 -------------------------------------------------------------------------- ________________ -५७. १८.२] महाकवि पुष्पदन्त विरचित ३०५ १७ . गयमोत्तियइं दंतजुयसहियई वणि सिगालभिल्ले संगहियई । वणिय सत्थवाहहु हिमवण्णई पुरसेट्ठिहि धणमित्तहु दिण्णई। सीहसेणतणयहु जसधामहु धणमित्तण वि छणससिणामहु। कारिय तेण तमीयरकंतिर्हि णियमंचयहु पाय गयदंतहिं । णियसीमंतिणियहि रुइरिद्धई मोत्तियाई कोडग्गि णिबद्धइं। हो केत्तिउ संसार कहिज्जइ जं चिंतंतहं मइ दुम्मिज्जइ। मोहमहंतइ णिहइ मुत्तउ अच्छइ सुहि णं मुच्छिउ सुत्तउ । जाहि अम्मि तुह वयणे जग्गइ पुण्णयंदु जिणधम्महु लग्गइ। णियणंदणमुणिवरवयणुल्लउ तं आयण्णिवि सवणसुहिल्लउ । गय मायरि तहिं जहिं तं पट्टणु जहिं सो राणउ वइरिविहट्टणु । घत्ता-पणवंतहु पुत्तहु परियणहु अर्जइ सुमहुरु साहियां । जिह राएं जाएं मयगलिण णिज्जणु गहणु पसाहियउं ॥१७|| . जं धणमित्ते आणिउ आयउ तं दियमुसलजुवलु तहु केरउ पल्लंकहं पयजोग्गउ जायउ । मुत्ताहलणिउरुबउ सारउ । १७ वनमें शृगाल नामक भीलने दोनों दांतोंके साथ गजमोतियोंका संग्रह कर लिया और वणिक सार्थवाह नगर सेठ धनमित्रको सफेद रंगके मोती और हाथीदांत दे दिये। धनमित्रने भी वे सिंहचन्द्रके पुत्र यशके घर पूर्णचन्द्रको दे दिये। उसने भी चन्द्रमाके समान कान्तिवाले गजदन्तोंसे अपने पलंगके पाये बनवा लिये तथा कान्तिसे समृद्ध मोतियोंको अपनी पत्नीके गले में लगा दिये। अरे संसारका कितना कथन किया जाये ? जिसका चिन्तन करते हुए बुद्धि पीड़ित हो उठती है ? मोहको महान् निद्रासे भुक्त सुधीजन स्थित है, मानो मूच्छित या सोया हुआ हो। हे मां, तुम जाओ। तुम्हारे वचनोंसे पूर्णचन्द्र जागेगा और जिनधर्मसे लगेगा। अपने पुत्र मुनिवरके कानोंको सुखद लगनेवाले वचन सुनकर वह माता वहां गयी जहां वह नगर था और जहां शत्रुओंका नाश करनेवाला वह राजा था। पत्ता-प्रणाम करते हुए पुत्र और परिजनसे आर्यिकाने सुमधुर वाणीमें कहा कि किस प्रकार राजाने मैगल गजके रूपमें गहन वनका सेवन किया ॥१७॥ १८ जो धनमित्रने लाकर दिया और जो पलंगके पाये बने वह हाथीके दोनों दांतरूपी मूसल हैं तथा श्रेष्ठ मुक्ताफल समूह उसका (गजका ) है जिसे तुम प्रणयिनीके गले में देखते हो। हे पुत्र, तुम श्रावक व्रतोंका पालन करो। हे पुत्र, यह संसार बड़ा विचित्र है। हे पुत्र, राजा भी कर्मरत १७. १. AP सिंगालभिल्लें गहियई । २. A सीमंतिणिपहरुहरिद्धई। ३. AP कंठग्गि । ४. A मुच्छियसुत्तउ । ५. A पुण्णइंदु । ६. A अज्जिए । ७. A णिज्जणगहणु । Page #353 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३०६ महापुराण [५७. १८.३पणइणिकंठेइ णिहिउ णिहालहि । पुत्तय सावयवय परिपालहि । पुत्तय णिरु विचित्त संसारउ पुत्तय पहु वि होइ कम्मारउ । ता हियवउ पिउणे, भिण्णउं दंतिदंतु अवरुंडिवि रुण्णउं । पुत्ते परिवारेण वि सोइउ कुसुमहिं अंचिवि हुयवहि ढोइउ । उवसमेण हूई पविमलमइ थिउ घेरि धम्मणिरउ सो णरवइ । रामयत्त सणियाण मरेप्पिणु कप्पु महंतु सुक्कु पावेप्पिणु । घत्ता-मंदारदामसोहियमउडु रयणाहरणवियारधरूं । सा हूई रविसंणिहणिलइ रविभाभासुरु सुरपवरु ॥१८॥ १९ पुणु फणिरायहु गुज्झु ण रक्खइ काले जंतें सुक्कियलीलइ पुण्णंयंदु पुणे उप्पण्णउ विसमविसमसरबाण णिवारिवि संभूयउ संतहि णिरवजहि इह रययायलि दाहिणसेढिहि पइ अइवेउ पुरंधि सुलक्षण सा सग्गाउ ढलिय पंकयकर आइञ्चाहु कहतरु अक्खइ। वरवेरुलियविमाणि विसालइ । वेरुलियप्पहु तेहिं संपण्ण । दसणणाणचरित्तई धारिवि । सीहचंदु उवरिमगेवजहि । धरणितिर्लयपुरु रूढउ रूढिहि । रामयत्त जो चिरु सेवियवण । सुय उप्पण्णी णामें सिरिहर । होता है । तब पूर्णचन्द्रका हृदय अपने पिताके स्नेहसे भर गया। वह उन हाथोदांतोंका आलिंगन कर खूब रोया । पुत्र और परिवारने इस प्रकार शोक मनाया तथा फूलोंसे उनकी पूजा कर उन्हें आगमें डाल दिया। उपशम भावसे उसकी बुद्धि निर्मल हो गयी। राजा अपने ही घरमें धर्ममें स्थित हो गया (धर्मका आचरण करने लगा ), रामदत्ता निदानपूर्वक मरकर महान् शुक्र स्वर्गमें गयी। घत्ता-सूर्यके समान देवविमानमें* जिसका मुकुट मन्दार पुष्पमालासे शोभित है, जो रत्नाभरणोंका विचार करता है, तथा सूर्यकी आभाकी तरह भास्वर है, ऐसा देववर हुई ॥१८॥ वह दिवाकर देव धरणेन्द्रसे फिर भी छिपा नहीं रखता और उससे कथान्तर कहता हैसमय बीतनेपर, जिसमें पुण्यलीला है, ऐसे विशाल वैदूर्य विमानमें वह पूर्णचन्द्र अपने पुण्यसे देव उत्पन्न हुआ। कामदेवके विषम बाणोंका निवारण कर तथा दर्शन, ज्ञान और चारित्रको धारण कर, सिंहचन्द्र शान्त निष्पाप उपरि ग्रैवेयकमें उत्पन्न हुआ। इस भरतक्षेत्रके विजयाध पर्वतकी दक्षिण श्रेणीमें परम्परासे धरणीतिलकपुर नगर है। उसका राजा अतिवेग और रानी सुलक्षणा थी। पहले जिसने वनमें साधना की थी, ऐसी जो रामदत्ता थी, वह स्वर्गसे च्युत होकर कोमल १८. १. A°कंठहो । २. A पियणे, ३. | A घरधम्मि णिरउ । ४. AP°वियारहरु । ५. A रविभाभासुर; P रविभासासुर। १९. १. A°विमाणविसालइ । २. A पुण्णइंदु । ३. P तहिं जि संपण्णउ । ४. AP°तिलयपुरि । ५. A जा सेविय चिरु वण । * भास्कर विमानमें । Page #354 -------------------------------------------------------------------------- ________________ -५७. २०.१२] महाकवि पुष्पदन्त विरचित ३०७ दिण्णी पिउणा दरिसियणामहु अलयाणाहहु वढियकामहु । पत्ता-सो पुण्णयंदु दिवि देवसुहं माणिवि हर्यविहलत्तणउं । णियकम्मविवाएं णिवडियउ पुणु पत्तउ महिलत्तणउं ॥१९॥ २० दरिसियराएं हूई दुहहर सिरिहराहि सुय णामें जसहर । दिण्णी ताएं कामासत्तहु दिणयराहपुरि सूरावत्तहु । सीहसेणु करि सिरिहरु भणियउ जो सो एयहिं दोहिं मि जणियउ । रस्सिवेउ गंदणु संमाणिवि सिरि ढोइवि सिरिकलसहिं हाणिवि । औदरिसेण पासि हयदंदहु लइयउ वउ जइयहु मुँणियंदहु । तइयहुँ सिरिजसहरउ विणीयउ पावइयउ तहिं मायाधीयउ । मुणिचरणारविंदरइमइयहि पासु वसंतियाहिं गुणमइयहि । . पवणुङ्ख्यधवलधयमालउं सिद्धसिहरु णामेण जिणालउं । थावरजंगमविरइयमेत्तिइ किरणवेउ गउ वंदणहत्तिइ । तहिं हरिचंदु भडारउ पेक्खिवि थिउ अप्पउ रिसिदिक्खइ दिक्खिवि। १० पत्ता-सो आयहिं सिरिहरजसहरहिं दोहिं वि गिरिगरुयंगु गुणि ॥ गुहहरि णिसण्णु णिरिक्खियउ पलियंकेण णिसण्ण मणि ॥२०॥ करवाली श्रीधरा नामकी कन्या हुई। पिताने उसे, जिसकी कामनाएं बढ़ी हुई हैं ऐसे अलकापुरीके राजाको दे दिया। घत्ता-वह पूर्णचन्द्र स्वर्गमें देवसुख मानकर, च्युत होकर अपने कर्मविपाकसे जिसने दारिद्रयको नष्ट कर दिया है, ऐसे स्त्रीत्वको पुनः प्राप्त हुआ ॥१९॥ २० · वह राजा दर्शकसे श्रीधरा रानीको दुःखहरण करनेवाली यशोधरा नामको कन्या हुई । वह सूर्याभपुर (पुष्करपुर.) के काममें आसक्त राजा सूर्यावतको दी गयी। जो सिंहसेन (राजा) श्रीधर कहा गया, वह इन दोनोंसे रश्मिवेग नामका पुत्र हुआ। रश्मिवेगका सम्मान कर, उसे सिरपर उठाकर एवं श्रीकलशोंसे अभिषेक कर राजा दर्शकने द्वन्द्रोंका नाश करनेवाले पास जब संन्यास ले लिया, तो माँ और बेटी विनीता श्रीधरा और यशोधराने भी मुनियोंके चरणारविन्दमें जिनकी बुद्धि तीव्र है, ऐसी गुणमती वसन्तिका आर्यिकाके पास प्रव्रज्या ग्रहण कर ली। जिसपर पवनसे धवल ध्वजमालाएं आन्दोलित हैं ऐसा सिद्ध शिखर नामका जिनालय था। स्थावर और जंगम प्राणियोंके प्रति जिसमें मित्रताका भाव है ऐसी वन्दनाभक्तिके लिए रश्मिवेग वहाँ गया। वहां आदरणीय हरिश्चन्दको देखकर वह स्वयं मुनिदीक्षा लेकर स्थित हो गया। पत्ता-गिरिकी तरह अत्यन्त ऊँचे तथा पर्यकासनमें आसीन गिरिगुहामें बैठे हुए उन मुनिको इन दोनों श्रीधरा और यशोधराने देखा ॥२०॥ ६. A विहवविहत्तणउं । २०. १. P सिरहरु । २. A आदरसेण । ३. P हयदंडहु । ४. AP मुणिचंदहु । ५. A°कुहरणिसण्णु । Page #355 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३०८ महापुराण [ ५७. २१.१ २१ वंदिवि खरतवतावें खीणउ ताउ तासु णियडइ आसीणउ । छुडु कम्मक्खयवयणु पयच्छिउ - रयणत्तयहु कुसलु फुड पुच्छिउ । ता सो तंबचुलफणि णारउ णरयहु णीसरेवि हिंसारउ । दीहु कालु संसोरु सरेप्पिणु अण्णण्णई अंगाई धरेप्पिणु । जायउ अजयरु विसमखयालइ फुल्लियबउलकलंबतमालइ । मुहविससिहिमसिकयसारंगउ मोडियविडवुवियविहंगउ । फर्णताडणफोडियधरणीयलु वयणरंधघल्लियवर्णमयगलु । वइवसदंडु चंडु अवलोइवि खणि आहारु सरीरु पमाइवि । मरणि वि धीरत्तेण ण मुकई तिण्णि वि पावइयई थिरु थर्कई । अहिणा दृढदाढहिं णिहलियई कसमसंति चावंतें गिलियई। हेमणिवासविसेसवरिहा उप्पण्णई मरेवि काविट्ठइ। पत्ता-तहिं रुययविमाणि मणोरमणि जायउ अमरु वरंकपहु॥ सो अजयरु चोत्थइ गरयबिलि णिवडिउ मुणिवररइयवहु ॥२१॥ २२ चक्कउरइ जयलच्छिसहायहु . जयवंतहु अवराइयरायहु । तीव्र तपतापसे क्षीण उन मुनिकी वन्दना कर वे उसके निकट बेठ गयीं। शीघ्र ही उसने 'कर्मक्षय हो' ये शब्द कहे तथा रत्नत्रयको कुशलताका प्रश्न पूछा। तब वह हिंसारत नारकी कुक्कुट सर्प नरकसे निकलकर लम्बे समय तक संसारमें परिभ्रमण कर, भिन्न-भिन्न शरीरको धारण करता हुआ, जिसमें बकुल-कदम्ब और तमाल वृक्ष खिले हुए हैं ऐसे विषम क्षयकाल वनमें अजगर हो गया। जिसने अपने मुखकी विषज्वालासे हरिणोंको काला कर दिया है, जिसने वृक्षोंको मोड़ दिया और पक्षियोंको उड़ा दिया है, अपने फनोंकी मारसे धरणीतलको फोड दिया है, जिसने अपने मुखरन्ध्रमें वनके मैगल गजोंको डाल लिया है, ऐसे यमके दण्डकी तरह प्रचण्ड उसे देखकर तथा एक क्षणमें शरीरके आहारको कल्पना कर, परन्तु उन लोगोंने मरणमें भी धीरत्वको नहीं छोड़ा। वे तीनों संन्यास लेकर स्थित हो गये। अजगरने अपनी मजबूत दाढ़ोंसे उन्हें निर्दलित कर दिया और कसमसाते हुए उन्हें चबाकर निगल लिया। वे लोग हेमनिवास विशेषसे वरिष्ठ कापिस्थ स्वर्गमें मरकर उत्पन्न हुए। पत्ता-वहाँ सुन्दर रूप्यक विमानमें सूर्यप्रभ देव हुआ। मुनिवरका वध करनेवाला वह अजगर चौथे नरकमें गया ॥२१॥ २२ जिन भगवान्के गुणगणका स्मरण करता हुआ वह सिंहचन्द्र श्रेष्ठ उपग्मिग्रेवेयकसे अवतरित २१. १. AP तंबचूलु । २. P संसारि। ३. AP°सिहिसिहहयसारंगउ । ४. A फलताडणं । ५. P वणयरपलु। ६. A मुक्कउ । ७. P पव्वइयई थक्कई। ८. A थक्कउ। ९. A उप्पण्णाई। १०. अमरवरंकपह। Page #356 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३०९ -५७. २३.५] महाकवि पुष्पदन्त विरचित आयउ जिणगुणगेणु सुयरंतउ पवरुवरिमगेवजहि होतउ। सीहचंदु णं हुस कुसुमाहु सुंदरिदेविहि सुउ चक्काउहु । चित्तमाल तहु पियरायाणी णं मयरद्धयबाणणिसेणी। ताहं बिहिं मि णं पुण्णविहायउ अक्कप्पड सुरु तणुरुहु जायउ । जो चिरु रस्सिवेउ अजयरहउ एहुँ जि सो णरंजम्मसमागउ । णामें वज्जाउहु जयलंपडु समरंगणि पल्हत्थियगयघडु। पुहई तिलइ णयरि रवितेयहु पियकारिणिदइयहु मइवेयहु । सिरिहर काविट्ठहु पन्भट्ठी रयणमाल सुय हूई दिट्ठी। दिण्णी कुलिसाउहहु सेणेहें पुणु पवहंते कालपवाहें। घत्ता-कीलंतहं पेम्मपरव्वसह ताहं तेत्थु पयडियपणउ ।। सा जसहर सग्गहु ओयरिवि रयणाउहु हूई तणउ ॥२२॥ २३ पिहियासउ णवेवि अवराइउ तउ चरंतु संतत्तु पराइउ । रज्जु करेवि सुइरु चक्काउहु गउ तायहु जि सरणु वियसियमुहु । तेण कयउं भीसणु वम्महरणु चरमदेहु जाणइ विहि विहरणु । दुरुज्झियपरमहिलापरधणु सिरि मुंजिवि तेत्तिउ' पविपहरणु । दसणणाण,रित्ति अभंतउ बप्पहु पासि पुत्तु णिक्खंतउ । होकर चक्रपुरमें विजयरूपी लक्ष्मीके सहायक न्यायवान् अपराजित राजाकी पत्नी सुन्दरी देवीका चक्रायुध नामका पुत्र हुआ, जो मानो कामदेव था। चित्रमाला उसकी प्रिय रानी थी, जो मानो कामदेवके बाणोंकी नसैनी थी। उन दोनोंसे सूर्यप्रभ देव पुण्यविभागकी तरह उत्पन्न हुआ। तथा अजगरसे आहत जो पुराना रश्मिवेग था, वही मनुष्य जन्ममें आया हुआ विजयका लम्पट वज्रायुध है, जो युद्धके प्रांगणमें गजघटाको धराशायी कर देता है। जिसका तेज सूर्यके समान है ऐसे प्रियकारिणीके पति मतिवेगसे पृथ्वीतिलक नगरमें कापिष्ठ स्वर्गसे च्युत होकर श्रीधरा रत्नमाला नामकी कन्या होते हुए देखी गयो। वह वच्चायुधको दी गयी। फिर कालप्रवाहके बहनेपर धत्ता-जिसने विनय प्रकट की है, ऐसी वह यशोधरा स्वर्गसे अवतरित होकर क्रीड़ा करते हुए और प्रेमके वशीभूत उन दोनों ( वज्रायुध और रत्नमाला ) के रत्नायुध नामसे उत्पन्न हुई ॥२२॥ २३ अपराजित पिहितास्रवको नमस्कार कर तपका आचरण करते हुए शान्तिको प्राप्त हुए। चक्रायुध भी बहुत समय तक वहां राज्य कर, विकसित मुख वह भी अपने पिताकी शरणमें चला गया। उसने भीषण तप किया। चरम शरीरी वह चारित्रको जानता था। जिसने परस्त्री और परधन छोड़ दिया है ऐसे वज्रायुध भी उतनी ही लक्ष्मीका भोगकर तथा दर्शन-ज्ञान और २२. १. A गुणगुण । २. A पुण्णणिहायउ । ३. A एह जो सो। ४. AP णरजम्मि समागउ । ५. AP पियकारणे । ६. P सणाहें। ७. A पयलियपणउ । २३. १. A तित्तिउ; P तित्तउ । २. P°चरित्तहं भत्तउ । Page #357 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३१० महापुराण [ ५७. २३. ६खवइ पुराइउ कम्मु गयालसु तहु सुउ रयणाउहु रइलालसु । माणइ सोक्खु ण तिप्पइ भोएं णं मयरहरु तरंगिणितोएं। जायवेउ णं तरुपब्भार अइरारिउ वित्थरइ वियारें। घत्ता-अण्णहि दिणि पवरुज्जाणहरि गिरिसरिखेत्तविहूसियउ ॥ सिरिवज्जदंतमुणिणा जणहु तिहुयणमाणु पयासियउ ॥२३॥ विजयमेह णामें कुंभीसरु णिवेकल्लाणकारि जलहरसरु । तं णिसुणिवि मुणिमासिउ कंखइ दिण्णु वि मासगासु ण वि भक्खइ। मंतिविज्ज आउच्छइ राणउ महु तंबेरमु किं विदाणउ । ताव तेहिं अवलोइउ जाइवि लक्खिउ तणु गुणदोस पैलोइवि । जंगलकवलु णिबद्ध ण ढोइउ पयघियकूरपिंडु संजोइउ । सो कवलिउ करिणा करु देते वजदंतु पुच्छिउ महिवंते। मत्थएण वंदिवि मुणिपुंगमु मासु ण खाइ कई तंबरमु । कहइ महारिसि जियवम्मीसरु एत्थु भरहि छत्तउरि गरेसरु । पीयभह णामें णं वम्महुं सइदेवीवइ णावइ सयमुहं। १० घत्ता-पीइंकरु पुत्तु पसिद्ध जइ मंतिवि जाणि चित्तमइ । कमला इव कमला तासु पिय तणुरुहु ताहं विचित्तमइ ॥२४॥ चारित्रसे अभ्रान्त पुत्र भी पिताके पास दीक्षित हो गया। आलस्यसे रहित पूर्वाजित कर्मको वह नष्ट करता है, उसका रतिको लालसा रखनेवाला पुत्र रत्नायुध खूब सुख मानता है, भोगसे तृप्त नहीं होता, जैसे समुद्र नदियोंके जलसे तृप्त नहीं होता, जैसे वृक्षसमूहसे आग अत्यन्त उद्दीप्त होकर फैल जाती है। ____घत्ता-एक दूसरे दिन प्रवर उद्यानगृहमें श्री वज्रदन्त मुनिने गिरि, नदी और क्षेत्रसे विभूषित त्रिभुवन-विभाग लोगोंको बताया ॥२३॥ राजाका विजयमेघ नामका जो कल्याणकारी और मेघके समान स्वरवाला गजराज था, यह सुनकर मुनिके कथनको चाहने लगता है और दिये हुए मांसके कोरको नहीं खाता। राजा मन्त्रियों और वैद्योंसे पूछता है कि मेरा हाथी दुबला क्यों हो गया है। तब उन लोगोंने जाकर देखा और गुणदोष देखकर उसकी परीक्षा की। उसे बंधा हुआ मांसका कौर नहीं दिया गया, दूध, घी और भातका आहार दिया गया । सूड देते हुए हाथीने उसे खा लिया। राजाने सिरसे प्रणाम करते हुए मुनिश्रेष्ठ वनदन्तसे पूछा कि यह हाथी मांस क्यों नहीं खाता । कामदेवको जीतनेवाले महामुनि कहते हैं, इस भरतक्षेत्रके छत्रपुरमें प्रीतिभद्र नामका राजा था, जो मानो कामदेव था। (वह वेसा ही था) जैसे इन्द्राणीका पति इन्द्र । पत्ता-जगमें उसका प्रीतिंकर नामका प्रसिद्ध पुत्र था और मन्त्री भी चित्रमति था। उसकी पत्नी कमला कमला ( लक्ष्मी) के समान थी। उन दोनोंका पुत्र विचित्रमति था ॥२४॥ ३. A मयहरु । ४ AP अवरहि दिणि । २४.१. A णवकल्लाण । २. पलोयवि; P पलाइवि । ३. A पीइभद्द; P पाइभ । Page #358 -------------------------------------------------------------------------- ________________ -५७. २६. ३] महाकवि पुष्पदन्त विरचित ३११ १० धीरु धम्मरुइ सिरिगुरु मण्णिवि धम्मु अहिंसिल्लउ आयण्णिवि । मणि पडिवजिवि गुत्तिउ तिण्णि वि पीइंकरु विचित्तमइ बिण्णि वि। गेय रिसिवउ लेप्पिणु साकेयहु सत्तभूमिसउहावलिसेयहु । खीरैरिद्धि उप्पण्णी जेट्टहु णिज्जियणियजीहिं दियचेट्ठहु । चंदसूर णावइ गयणंगणि बेण्णि वि चडिय छुडु जि घरप्रंगणि। ५ बहुइववासरीणमुणिपंथिय ते धीसेणइ वेसइ पत्थिय । थाहु भणंतियाइ पणवेप्पिणु ण थिय भडारा विगय वलेप्पिणु । कामिणीइ अप्पाणउ गरहिउं किं जीविउ मुणिदाणे विरहिउं । पुच्छइ लहुयउ साहु ससंसउ कि आया से ण गहियउ गासउ । घत्ता-गुरु अक्खइ महुमासासियह णिप्पिह कयपरलोयकिसि। अविणीयहं रायहं कामिणिहिं दिण्णु वि पिंडु ण लेति रिसि ।।२५॥ २६ तहि विचित्तमइ सुमरइ रामहि गीओलंबियमोत्तियदामहि । मयणसरोहे हियवउं भिण्णेउं जंपंतहं हुंकारइ सुण्णउं। गउ सहाउ तैहु मेल्लिवि मंदिर णं इंदीवरासु इंदिदिरु । २५ धीर-धर्मरुचि श्री गुरुको मानकर तथा अहिंसा लक्षण धर्म सुनकर, मनमें तीन गुप्तियां स्वीकार कर, प्रीतिकर और विचित्रमति दोनों मुनिदीक्षा लेकर, सात भूमिवाले प्रासादोंसे युक्त साकेत नगरके लिए गये । अपनी जिह्वेन्द्रियकी चेष्टाको जीतनेवाले जेठे (प्रीतिकर ) को क्षीणास्रव ऋद्धि उत्पन्न हुई। उन दोनोंने घरके आंगनमें उसी प्रकार प्रवेश किया, जैसे सूर्य-चन्द्रने आकाशमें प्रवेश किया हो। अनेक उपवासोंसे क्षीण उन मुनिमागियोंको बुद्धिसेना नामकी वेश्याने, 'ठहरिए' कहते हुए और प्रणाम करते हुए प्रार्थना की। परन्तु आदरणीय वे मुड़कर ठहरे नहीं चले गये । उस वेश्याने अपनी निन्दा की कि मुनिदानके बिना जीवनसे क्या? छोटे साधुसे उसने अपने संशयकी बात पूछी कि वे क्यों आये और आहार नहीं लिया। घत्ता-गुरु कहते हैं-"मधु-मांस खानेवालोंसे विरक्त तथा परलोककी खेती करनेवाले मनि अविनीत राजाओंकी स्त्रियोंके द्वारा दिये गये आहारको ग्रहण नहीं करते" ॥२५॥ २६ जिसकी गर्दनपर मोतियोंकी माला अवलम्बित है ऐसी उस रामा (वेश्या) को विचित्रमति याद करता है। कामके तीरोंसे उसका हृदय विदीर्ण हो गया। बोलनेवालोंसे खाली हुंकार कर २५. १. AP समिदिउ पंच घरेप्पिणु बिणि वि; A adds a new line after this : पीईकरु विचित्तमा बेण्णि वि in second hand. २. A रिसि गयवउ । ३. A खीणरिद्धि । ४. AP पंगणि । ५. A ते विसणोय; P तेधेसिणोयइ । ६. A कि आयहो घरे गहिउ ण गासउ; P कि आयहे घरे गहिय ण गास । T supports the reading of KI २६. १. सुउरह । २. AP छिण्णउं । ३. AP मेल्लिवि तहि । Page #359 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३१२ महापुराण [५७.२६.४ सिसुमृगणेयणइ पीवरथेणियइ वंदिउसो पडिगाहिउ गणियइ । दिण्णउ तासु भोज्जु जं चंगउं विडसाहुहि संपीणित अंगउं । सरसवयणु तहिं तेण णि उंजिउं. दड्ढउं चरियधण्णु जं पुंजिउं। रत्तु मुणेवि ताइ अवहेरिउ णारिहिं भुवणि कोण किर मारिउ । तो गुणवंतु ताम गरुयत्तणु जाम ण लग्गइ मणसियमग्गणु । णिग्गउ गउ परिहेप्पिणु राउलु विसयालुद्धउ जायउ आउलु। घत्ता-पलपाएं जाएं मिट्टएँण सूयारउ णिवमणि चडिउ ॥ - कय कामिणि दविणे तेण वस रिसि चारित्तहु परिवडिउ ॥२६।। २७ मरिवि तुहारउ जायउ कुंजरु महु भासंतहु तिहुवणपंजरु । एहु एवहिं जाउ जाईभरु । तुहुं वि बप्प अप्पाणउ संभरु । ता रयणाउहेण णियतणयहु रज्जु समप्पिउ पयडियपणयहु । तासु जि गुरुहि पासि तउ चिण्णउं तहु मायाइ तं जि पडिवण्णउं । बिणि वि संतई मायापुत्तई अच्चुइ अणिमिसत्तु संपत्तई। अजयरु पंकप्पहरणयंतहु णीस रियउ कह कह व कयंतहु। दारुणभिल्लहु सुउ अइदारुणु मंगिहि सवरिहि हुउ करिमारणु । तेण पियंगुदुम्गि अवलोइउ तउ तवंतु वजाउहु घाइउ । देता। अपने मित्रको छोड़कर वह उसके घर गया, मानो भ्रमर कमलपर गया हो। शिशुमृगनयनी स्थूल स्तनोंवाली उस वेश्याने उसकी वन्दना की, पड़गाहा और जो अच्छा भोजन था वह उस साधुको दिया। उस कपटी साधुका शरीर पीड़ित हो उठा। उसने उससे सरस शब्दोंमें बात की और जो संचित चारित्र धन था उसे खाक कर दिया। उसे अनुरक्त देखकर वेश्याने उसकी उपेक्षा को । स्त्रियोंके द्वारा संसारमें कौन नहीं मारा जाता ? मनुष्य तभी तक गुणवान् है और उसका बड़प्पन है कि जबतक उसे कामदेवके बाण नहीं लगते । वस्त्र पहनकर वह निकल गया और राजकुलके लिए गया ।' विषयोंका लोभी वह आकुल हो उठा। घत्ता-मीठा मांस पकानेके कारण वह रसोइया राजाके मनमें चढ़ गया। धन देकर उस वेश्याको वश में कर लिया, और वह मुनि चारित्रसे भ्रष्ट हो गया ॥२६॥ वह मर कर तुम्हारा हाथी हुआ। मेरे द्वारा त्रिलोकका ढांचा बताये जानेपर इसको इस समय जाति स्मरण हुआ है। हे सुभट, तुम भी अपनी याद करो। तब विनय प्रकट करनेवाले अपने पुत्रको रत्नायुधने राज्य सौंप दिया, और उन्हीं गुरुके पास तप ग्रहण कर लिया। उसकी माताने भो तप ग्रहण कर लिया। दोनों शान्त माता और पुत्र अपलकमात्रमें अच्युत स्वर्ग पहुँच गये। अजगर भी पंकप्रभा नरकमें युद्ध करते हुए, नरकभवका अन्त करते हुए दारुण भील और मंगी भीलनीसे हाथियोंको मारनेवाला अत्यन्त भयानक पुत्र हुआ। उसने प्रियंगु द्रुमके नीचे तप ४. AP'मिगणयणइ । ५. AP पणिइ । ६. A ताइ । ७. AP गुरुयत्तणु । ८. A सिट्ठएण । २७. १. APT जाईसरु । २. A रयणाहिवेण । ३. AP पासु । ४. AP अजगरु । Page #360 -------------------------------------------------------------------------- ________________ -५७. २८. १२] महाकवि पुष्पदन्त विरचित मुउ सव्वत्थसिद्धि संपत्तउ सवरु वि पावै गरई णिहित्तउ । सत्तमि तमतमपहि भीसावणि पंचपयारदुक्खदरिसावणि । घत्ता-धादइसंडइ सुरवरदिसहि मेरुहि परविदेहि सरइ ॥ गंधिजदेसि उज्झाउरिहि णरवइ अरुहदासु वसइ ॥२७॥ १० कामहुयासहु णं कालंबिणि सुवय णामें तासु णियंबिणि। अवेर वि तह जिणयत्त घरेसरि अमरमहामयरहरहु णं सरि । अच्चुयचुय तेएं णं दिणयरु रयणमाल रयणाउह सुरवरु। बिहिं वि बेण्णि- संजणिय तरह। विजय विहीसण णवपंकयमुह । ते बेण्णि मि णं छणससिसायर ते बेण्णि वि बलकेसव भायर । बीयहु णरयहु गयउ विहीसणु दुद्धरु तउ करेवि संकरिसणु । लंतवि जायउ देउ महामहु आइच्चाहु हउं जि सो सुहवहु । सम्मईसणसासणि लग्गउ मई संबोहिउ णरयहु णिग्गउ । जंबुदीवएरावयउज्झहि सिरिवम्महु सीमहि तणुमज्झहि । सो केसवु दुहं मुंजिवि आयउ । लच्छिधामु णामें सुउ जायउ । रिसिहि विणासियवम्महलीलह चिरु पावइयउ पासि सुसीलहु । पत्तउ बंभकप्पि मेल्लिवि तणु अट्ठगुणट्ठिवंतु देवत्तणु । करते हुए वायुधको देखा और उसे मार डाला। वह मरकर सर्वार्थसिद्धि पहुंचे। वह भील भी मरकर, भयंकर पांच प्रकारके दुःखोंका प्रदर्शन करनेवाले तमतमप्रभा नामक सातवें नरकमें डाल दिया गया। पत्ता-धातकोखण्डमें पूर्वदिशामें सुमेरुपर्वतके अपर विदेहमें गन्धिल देशकी अयोध्या नगरीमें भोगयुक्त राजा अहंदास रहता था ॥२७॥ २८ कामदेवको अग्निको शान्त करनेवाली मेघमालाके समान उसकी सुव्रता नामकी पत्नी थी और भी उसकी जिनदत्ता नामको गृहेश्वरी थी, जो मानो क्षीरसमुद्रके लिए नदी हो। अच्युत स्वर्गसे च्युत होकर और तेजमें मानो दिवाकरके समान रत्नमाल और रत्नायुध सुरवर भाग्यसे दोनोंके पुत्र हुए-नवकमलके समान मुखवाले विजय और विभीषण नामसे। वे दोनों ही पूर्णचन्द्रमा और समुद्र थे, वे दोनों ही बलभद्र और नारायण थे। विभीषण दूसरे नरक गया और बलभद्र दुर्धर तपकर महाआदरणीय लान्तव देव हुआ। सुखावह वही में आदित्य नामका देव हूँ। मेरे द्वारा सम्बोधित होनेपर सम्यग्दर्शनके शासन में लगकर वह नरकसे निकला और जम्बूद्वीपके ऐरावतक्षेत्रको अयोध्या नगरीमें वह केशव दुःख भोगकर आया और श्रीवर्माकी कृशोदरी पत्नी सीमासे श्रीधर नामका पुत्र हुआ। कामदेवकी लीलाका नाश करनेवाले सुशील मुनिके पास उसने दीक्षा ली। और शरीर छोड़कर ब्रह्म स्वर्गमें आठ गुणोंमें निष्ठा करनेवाले देवत्वको प्राप्त हुआ। २८. १. AP सुव्वइय । २. AP अवरु वि । ३. A णंदण ससिसायर । Page #361 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३१४ महापुराण [५७. २८. १३घत्ता-वज्जाउहु सव्वत्थहु चविवि संजयंतु जिणतवि णिरउ ।। तुहं हुउ जयंतु बंभाउ चुउ रिसि णियाणसल्लेण मुउ ॥२८॥ २९ जायराउ जाओ सि भयंकर इयरु वि पाउ मुणिंदखयंकरु । अहमणिबद्धाउसु अहगारउ अहि हूयउ अंतिममहिणारउ । पुणु वालुयपहि वालु णिमण्णउ दुक्खपरंपराइ अहण्ण । तसथावरतिरिक्खभवंजालइ णिवडिउ हिंडमाणु गयकालइ । पविउलअइरावइ णइतीरइ भूयरमणि काणणि गंभीरइ । गोसिंगें घरिणिहि संखिणियहि संखुर्भेउ समुहसंखिणियहि । तावसेण संजणियउ तावसु पंचयासणु सहइ सतामसु । दिव्वतिलेयपुरि खेयरराणउ जोइवि जंतउ सकसमाणउ । णाम सुमालि णिबंध णिबद्धत अण्णाणे णियतवहलु लद्धउ । खगधरणीहरि उत्तरसेणिहि णहयलवल्लहपुरि सुहजोणिहि । विजदाङ खगु पिय विज्जुप्पंह मुहससियरधवलियदसदिसिवह । ताहं बिहिं मि हियइच्छियरूवउ हरिणसिंगु मुउ सुउ संभूयः । विज्जदाढ णामें दढयरमुउ - जगदूयाणुरूउ भडसंथुउ । घत्ता-इहु भाइ तुहारउ गरुययरु मेरुधीरु परिचत्तभउ ।। एएं जम्मंतरवइरिइण हउ परमेसरु मोक्खगउ ॥२९॥ घत्ता-वज्रायुध सर्वार्थसिद्धिसे च्युत होकर जिनतपमें निरत संजयन्त हुआ। और ब्रह्म स्वर्गसे च्युत होकर तुम निदान शल्यसे मरकर जयन्त हुए ॥२८॥ २९ मुनिका घात करनेवाला दूसरा भी भयंकर नागराज हुआ, पापकर्मसे आयु बाँधनेवाला, पाप करनेवाला नाग ( सत्यघोष ) सातवें नरकमें उत्पन्न हुआ। फिर दुःख परम्परासे विदारित वह मूर्ख बालुकाप्रभ नरकमें निमग्न हुआ। त्रस, स्थावर और तिर्यंचोंकी जन्मपरम्पराके जाल में पड़ा हुआ वह घूमता रहा। समय बीतनेपर विशाल ऐरावती नदोके किनारे भूतरमण नामक गम्भीर जंगलमें गोशृंग तपस्वीकी भाग्यहीन शंखिका पत्नीसे मृगशंख नामका तपस्वी हुआ। सतामस वह पंचाग्नि तप सहन करता है। दिव्य तिलकपुरमें इन्द्रके समान जाते हुए सुमालि नामक विद्याधरको देखकर उसने निदान बांधा और उस अज्ञानीने अपने तपका फल पा लिया। विजयार्ध पर्वतकी सुखयोनी उत्तर श्रेणी में विद्युदंष्ट्र विद्याधर और उसकी प्रिया विद्युत्प्रभा थी, जो अपने मुखरूपी चन्द्रमासे दसों दिशापथ धवलित करती थी। वह मृगशृंग मरकर उन दोनोंसे मनचाहे रूपवाला पुत्र हुआ। विद्युदंष्ट्र नामका दृढ़तर बाहुओंवाला, योद्धाओंके द्वारा संस्तुत और यमदूतके समान पत्ता-यह महान मेरुके समान धीर और परित्यक्त-भय तुम्हारा भाई, पूर्वजन्मके शत्रु इसके द्वारा आहत होकर परमेश्वर होकर मोक्ष गया है ।।२९।। २९. १. A अहमु । २. P वालय । ३. A भयजालइ । ४. A हरिणसिंगु हूय उ तवसिणियहि; P संखु व भवसमुद्दसंखिणियहि । ५. A पुरखेयर । ६. A वज्जदाढु । ७. A विज्जप्पह । ८. P विज्जुदाढु । Page #362 -------------------------------------------------------------------------- ________________ -५७.३०.१४] महाकवि पुष्पदन्त विरचित ३१५ ३० एहउ भवसंबंधु वियारिउ एत्थु केण किर को णउ मारिउ । म करहि तुहुं जिणधम्मविरुद्धउं णियमहि हियवउ रोसाइद्धउं । तं णिसुणिवि पडिजंपइ उरयरु तुह वयणेण ण मारमि खेयरु । पइं जिणमग्गु मज्झु वजरियउ भवकहमि पडंतु उद्धरियउ । तइ वि साहु उवसम्गणिरंभणु लइ कीरइ खलदप्पणिसुंभणु । एयहु कुलि सिझंतु म विजउ पुरिसह दुद्धरविहुरसहेजउं । णारिहिं सिज्झिहिंति णियमालइ संजयंतपडिमापयमूलइ। मागहमंडलकुवलयचंदङ इंदभूइ पुणु कहइ णरिंदहु । हिरिबंधणि पयणियखयरिंदहु णामु करिवि हिरिमंतु गिरिंदहु । मुइवि णिबद्धवइरबंदिग्गहु लहु णीसल्लु चविवि सपरिग्गहु। गउ फणि संजयंतु मुणि वंदिवि रविआहउ सुरकश अहिणंदिवि । सुरु जाइवि सुहि संठिउ लंतवि आउमाणि वोलीणि सउच्छवि । घत्ता-इह भरहखेत्ति उत्तरमहुरि पुरि अणंतवीरिउ णिवइ॥ __ लायण्णरूवसोहग्गणिहि णारि मेरुमालिणिय सइ ॥३०॥ ३० यह संसार-सम्बन्ध विदारित हो गया। यहां किसके द्वारा कौन नहीं मारा गया। इसलिए तुम जिनधर्मके विरुद्ध आचरण मत करो, रोषसे भरे हुए अपने मनका नियमन करो। यह सुनकर अजगर उत्तर देता है कि तुम्हारे शब्दोंसे मैं इस विद्याधरको नहीं मारूंगा। तुमने मुझे जिनमार्ग बताया है। संसारकी कीचड़में डूबते हुए मेरा उद्धार किया है। तो भी उपसर्गका रोकना जरूरी है । लो, इस दुष्टके दर्पका विनाश किया जाता है। इसके कुलमें विद्या सिद्ध नहीं होगी। इसके कुलमें लोगोंके कठोर दुःख सहन करना होगा। परन्त स्त्रियाँ नियमके घर संजयन्त मुनिकी प्रतिमाके चरणोंमें विद्या सिद्ध करेंगी। मागधरूपी मण्डलके कुलचन्द्र इन्द्रभूति गणधर पुनः राजा श्रेणिकसे कहते हैं कि विद्याधरोंको लज्जाके बन्धनमें रखनेके कारण, पहाड़का नाम होमन्त रखकर तथा बाँधे हुए शत्रसमहके बंधनोंको मुक्त कर, तुम निःशल्य रहो-यह कहकर अपने परिग्रहके साथ संजयन्त मुनिको वन्दना कर, दिवाकर देवका अभिनन्दन कर धरणेन्द्र चला गया। सज्जन देव जाकर लान्तव स्वर्गमें स्थित हो गया। उत्सवोंके साथ आयुका मान समाप्त होनेपर पत्ता-इस भरतक्षेत्रको उत्तर मथुरा नगरीमें अनन्तवीर्य राजा था, उसकी लावण्यरूप और सौभाग्यको निधि मेरुमालिनी नामकी सती स्त्री थी ॥३०॥ ३०. १. AP उवसग्गु । २. AP°दप्पणणिसुंभणि । ३. A सिज्जंतु । A ४. दुद्धरु विहुर; P दुद्धरि विहुरि । ५. A हरिवणि पयलिय; P हिरिबद्धणि पयलिय । Page #363 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३५६ महापुराण [५७. ३१.१ ३१ आइच्चाहु मोहमयमणु हूयउ मेरुणामु तहु णंदणु। णियकुलसंतइवेल्लिवराहें अमयवईहि तेण णरणाहें । हुउ सपुण्णविहवेणुदामें धरणु चविवि सुउ मंदरु णामें। आयण्णह विरएप्पिणु अंजलि एयहं सयलह भणमि भवावलि । सीहसेणु करि सिरिहरु सुरवरु रस्सिबेउ रवितेउ वरामरु । वज्जाउहु अहमिदु पियारउ । संजयंतु दय करउ भडारउ । महुर रामदत्त वि जाणिज्जइ भक्खराहु पुणु देव भणिज्जा। सिरिहर पुणु वसुसमदिवि अणिमिसु रयणमाल अञ्चुयसुरु सहरिसु । पुणु विजेयंकु वि आइचाहउ जाउ मेरु पुणु मुणिगणणाहउ । वारुणि छणविहु वेलियप्पहु जसहर काविट्ठइ रूयप्पहु । रयणाउहु अक्षुयउ विहीसणु सकरवसुमइणारउ भीसगु। सिरिधामउ सुई बंभणिवासउ णिउ जयंतु फणिवइविवरासउ । पुणु मंदरगुणिगणसंजुत्तर सिरिभूइ वि फणि चमरि पवुत्तउ । घत्ता-कुक्कुडफणि चोत्थयणरयरुहु अजयरु पंकप्पहदुहिउ ।। समरुन सत्तमपुहविभउ अहि पुणु सर्यलदुक्खगहिउ ॥३१॥ १५ मोहमदका मर्दन करनेवाला दिवाकर नामका देव उसका मेरु नामका पुत्र हुआ। और वह धरणेन्द्र च्युत होकर अमृतवती रानीसे, अपनी कुलसन्ततिरूपी लताके श्रेष्ठ वर तथा सम्पूर्ण वैभवसे उद्दाम उस राजाका मन्दर नामका पुत्र हुआ। (आप लोग ) अंजलि जोड़कर इन सबकी भवावलिको सुनिए । सिंहसेन हाथी, श्रीधर सुरवर, रश्मिवेग अर्कप्रभवदेव (रवितेज), वज्रायुध सर्वार्थसिद्धि में प्यारा अहमेन्द्र और संजयन्त आदरणीय ( गणधर ) दया करें। मधुराको रामदत्ता जाना जाये, फिर उसे भास्कर देव कहा जाता है, फिर श्रीधरा, फिर आठवें स्वर्गमें देव, रत्नमाला सहस्रार स्वर्गमें अच्युतदेव, विजयसे युक्त वीतभय और आदित्यप्रभ देव, तथा मेरु नामका गणधरोंका स्वामी हुआ। वारुणीका जीव, पूर्णचन्द्र वैडूर्यदेव यशोधरा, कापिष्ठ स्वर्गमें रुचकप्रभ रत्नायुध अच्युत विभीषण, दूसरी शर्करा भूमिका भीषण नारकी, श्रीधर्मा, ब्रह्मस्वर्गका देव, जयन्त, विवरोंमें आश्रित रहनेवाला धरणेन्द्र, फिर गुणियोंके गणोंसे संयुक्त मन्दर गणधर हुआ। श्रीभूति भी (सत्यघोष) सर्प चमर कहा गया। घत्ता-कुक्कुट सर्प, चौथे नरकका नारकी, अजगर, पंकप्रभानरकका नारकी, शवर, सातवें नरकका नारको, साप, फिर समस्त दुःखोंको ग्रहण करनेवाला ॥३१॥ ३१. १. AP अणमिसु । २. A विजयंतु वि । ३. A वेरुडिय । ४. A भूयप्पह । ५. AP सुरु । ६. A मंदरमणिगण ; P मंदरि मुणिगण । ७. A चउत्थइ णरह तुहु । ८. A सम्वदुक्ख । Page #364 -------------------------------------------------------------------------- ________________ -५८. ३२.१० ] महाकवि पुष्पदन्त विरचित ३२ पच्छइ हरिणसिंगें हुड तावसु । हो झउ दुकम्मवियंभणु । पुणरवि उवरिमगेवज्जामरु । देउ समाहि मच्झ रिसिसोमिउ । तेरहम परमेट्ठि सुहंकरु । मोक्ख बेवि मेरुमंदर गय । सुद्धइं दंसणणाणचरित्तरं । भत्ति भवंतयारिकमकमलइ । हिंडिवि भवेसंसारि परव्वसु विज्जैदाढ़ मुणिमारणदुज्जणु भद्दमित्त पुणु केसरिससहरु चक्काउहु सासयगईेगामिङ विवि विमलवाणु तित्थं करु गणहर णु परिपालिवि णीय महु पसियंतु तु गुणदित्तइं णिश्चल होउ फुरियणहविमलइ घत्ता - कह णिसुणिवि मेरुहि मंदरहु विभियँ भरहणराहिवइ || थिय जिणवरपयसंणिहियमइ पुष्यं तकर सरिसरुइ ||३२|| इय महापुराणे विसट्ठिमहापुरिस गुणालंकारे महामन्त्र मरहाणुमणिए महाकपुप्फयंत विरइए महाकब्वे संजयंतमेरुमंदर के हंतरं णाम सत्तेर्वण्णासमो परिच्छेओ समत्तो ॥ ५७ ॥ ३२ फिर परवश समस्त संसार में परिभ्रमण कर बादमें मृगशृंग तापस हुआ। फिर मुनियोंको मारनेवाला दुर्जन विद्युत्दंष्ट्र हुआ । अरे, दुष्कर्मके विस्तारमें आग लगे । भद्रमित्र ( सेठ ) सिंहचन्द्र, फिर उपरिमत्रैवेयकका देव, फिर शाश्वतगतिगामी चक्रायुध ऋषिस्वामी देव मुझे समाधि प्रदान करें । शुभ करनेवाले परमेष्ठी तेरहवें तीर्थंकर विमलनाथको प्रणाम कर, गणधर गुणका परिपालन कर निष्पाप मेरु और मन्दर दोनों मोक्ष चले गये । वे मुझपर प्रसन्न हों, तथा गुणोंसे प्रदीप्त शुद्ध दर्शन, ज्ञान और चारित्र मुझे । स्फुरित आकाशके समान निर्मल तथा संसारका अन्त करनेवाले उनके चरणकमलों में मेरी निश्चल भक्ति हो । इस प्रकार त्रेसठ महापुरुषोंके गुणालंकारोंसे युक्त महापुराणमें महाकवि पुष्पदन्त द्वारा विरचित एवं महामध्य भरत द्वारा अनुमत महाकाव्यका संजयन्त मेरु मन्दर कथान्तर नामका सत्तावनवाँ परिच्छेद समाप्त हुआ ॥ ५७ ॥ ३१७ धत्ता - मेरु और मन्दरकी कहानी सुनकर भरत राजा विस्मित हुए। नक्षत्रोंकी किरणों के समान कान्तिवाले तथा जिनवरके चरणकमलोंमें अपनी बुद्धि रखनेवाले वह स्थित रह गये ||३२|| १० ० ३२. १. A°संसारं । २. A सिंगसुद्ध । 1 ३.AP विज्जुदा मुणिमारणु । ४. A सासयगयं । ५. P सासि । ६. A गुण । ७. A विभिउ । ८. AP पुप्फदंतं । ९. A कतरवण्णणं । १०. AP सत्तावण्णा । Page #365 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ५ १० संधि ५८ कम्मविमुके जगु तं तेहउं लक्खिंडं ॥ कयडंभहिं हरिहरबंभहिं जं जम्मि वि णं सिक्खिंडं ॥ध्रुवकं । जो ण महइ जीवहं सासणासु सुज्झइ सम्मत्तं खाइएण णायंदणमंसियसासणासु -जम्मतैरि भावियभावणासु समदिद्विदिट्ठकं चणतणासु णातणिवे सियतिहुवणासु उब्भियसियायवत्तत्तयासु पवयणवारियपेसियसुरासु १ जें होतें मेल्लइ सासणासु । gods देवो' खाइएण । तहु णित्तदिव्वभासासणासु । संखोहियवितरभावणासु । तव जलणदड्ढदुक्कियतणासु । दिहिवइपरिरक्खियवयवणासु । एक्का हियवरवत्तत्तयासु । कमकमलर्णवियदेवासुरासु । सन्धि ५८ कर्म से विमुक्त जिस एकने उस वैसे संसारको देख लिया कि जिसे ( देखना ) दम्भ करनेवाले विष्णु, शिव और ब्रह्मा जन्म लेकर भी उसे देखना नहीं सीख सके । १ जो जीवों के प्राणोंका नाश नहीं चाहता, परन्तु जिसके होनेसे जीव लक्ष्मी और चंचलता छोड़ देता है, उसे क्षायिक सम्यक्त्व दिखाई देने लगता है । आकाशसे आकर देवता जिसको स्तुति करते हैं, जिनका शासन नागेन्द्रके द्वारा नमनीय है, जिनके शब्द सर्वभाषात्मक होते हैं, जिन्होंने जन्मान्तरमें सोलह भावनाओंका चिन्तन किया है, जिन्होंने व्यन्तर और भवनवासी देवोंको क्षुब्ध किया है, जो अपनी सम्यक् दृष्टिसे स्वर्ण और तृणको समान समझते हैं, जिन्होंने तपकी आग में दुष्कृतरूपी तृणोंको जला दिया है, जिनके ज्ञानमें तीनों लोक निवेशित हैं, जिन्होंने धैर्यरूपी बागड़से व्रतरूपी वनकी रक्षा की है, जिनके ऊपर श्वेत आतपत्र उठे हुए हैं, जो एकसे अधिक वरवार्ता आशाओंको तृप्त करनेवाले हैं, जिन्होंने अपने प्रवचनोंसे मांस-मदिरा सेवनका निषेध किया है, जिनके चरण-कमलोंमें देव और असुर नमन करते हैं । A has, at the beginning of this samdhi, the following stanza :— संजुडियजाणुकोप्परगीवाकडिबन्धणावयवो । अणुहवइ वेरियं तुज्झ जं पावद्द लेहओ दुक्खं ॥ १ ॥ P and K do not give it any where I १. १. P लक्खियजं । २. AP ण वि सिक्खि । ३P सिक्खियउं । ४. A देवेहि; P देवोहि । ५. AP णाइंदं । ६. A जम्मंतरभमियं । ७. PT णाणंति णिवे । ८. PT पेसीसुरासु । ९. AP णमियं । Page #366 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३१९ -५८. २. १३ ] महाकवि पुष्पदन्त विरचित पत्ता-हयधंतहु गुणवंतहु अणिमिसकेउकयंतहु ॥ भयपंतहु अरहतहु पणविवि पयई अणंतहुं ॥१॥ पुणु कह मि कहाणउँ कामहार तहु केर सांसयसोक्खकारि। धादइसंडहु पच्छिमादिसाइ वित्थिणेि मेरुपुन्विल्लभाई।। परिहापाणियपरिभैमियमयरि मणितोरणवंति अरिट्ठणयरि।' पउमावल्लहु पउमरहु राउ तहु एक्कु दिवसु जायउ विराउ । आणियसंमाणियदुजणाइ णीणियअवमाणियसज्जणाइ । अविणीयइ धणमयदेभलाइ. पवणाहयतणजललवचलाइ। बहुकवडंडविडणिवरंजियाइ भंगुरभावेणं लंजियाइ। महिवइलच्छिइ एयइ खलाइ मणवारणबंधणसंखलाइ । बद्धउ हउं णिवसमि एत्थु काई अणुसरमि सत्ततञ्चाई ताई। सिरि ढोय॑मि तणयह घणरहासु संसारइ सरणु ण को वि कासु। इय चिंतिवि पासि सयंपहासु वउ लइयउ छिंदिवि मोहपासु। घत्ता-अविहंगई धरिवि सुयंगई एयारह जिणदिट्टइं । __ कयवसणइं इंदियपिसुणई जिणिवि पंच दप्पिट्टई ।।२।। घत्ता-ऐसे अन्धकारको नष्ट करनेवाले, गुणवान्, कामके लिए यम, ज्ञानवान् अनन्तनाथ अरहन्तके चरणोंको प्रणाम करता हूँ ॥१॥ और फिर कामको नाश करनेवाली उनकी शाश्वत सुख देनेवाली कथाको कहता हूँ। घातकीखण्डकी पश्चिम दिशामें विस्तीर्ण मेरुके पूर्वभागमें अरिष्ट नगर है, जिसके परिखाजलमें मगर परिभ्रमण करते हैं और जो मणितोरणोंसे युक्त है। उसमें पद्मादेवीका प्रिय राजा पद्मरथ था। उसे एक दिन विराग हो गया। जिसमें दुर्जनोंको लाया और सम्मानित किया जाता है, तथा सज्जनोंको निकाला और अपमानित किया जाता है, जो अविनीत और धनके मदसे विह्वल है, जो पवनसे आहत तृण और जलकणोंको तरह चंचल है, जो अत्यन्त कपटपूर्ण दृढविटोंसे राजाका रंजन करती है, जो अपने कुटिलभावसे दासीके समान है, मनरूपी हाथीको बांधनेके लिए शृंखलाके समान है, ऐसी इस दुष्ट राज्यलक्ष्मीसे बंधा हुआ मैं यहां क्यों निवास करता हूँ, मैं उन सात तत्त्वोंका अनुसरण करता हूँ। अपने पुत्र धनरथको वह लक्ष्मी देता हूँ। संसारमें कोई किसीकी शरण नहीं है। यह विचार कर उसने स्वयंप्रभ मुनिके पास जाकर मोहरूपी बन्धनको काटनेके लिए व्रत ग्रहण कर लिया। पत्ता-जिनके द्वारा उपदिष्ट ग्यारह श्रुतांगोंको धारण कर और दुःख उत्पन्न करनेवाले दर्पिष्ट इन्द्रियरूपी दुष्टोंको जीतकर-॥२॥ १०. A भयवंतह गुण । ११. A हयवंतहु अरं। २. १. AP पावहारि । २. A विस्थिण्णमेरु । ३. A भावि । ४. A°वाणिय । ५. P°परिसमियं । ६. AP दिवसि । ७. A कवडणिविडमइरंजियाइ; P कवडणिविडरंजियाइ। ८. P ढोइवि। Page #367 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३२० १० महापुराण ३ बंधिवि तित्थंकरणांमगोत्तु सो पंसंदणु वरिंदु बावीस महोव हिपरिमियाउ पुप्फंतरपवर विमाणवासि बावीस पक्aहिं कहिं वि ससइ जाणवि तेत्तियहिं जि वच्छरेहिं अवही रूविवित्थारु ताम किं वण्णमि सुरवइ सुक्कलेसु जयहुं तहहुं धम्मोवयारि इह भरहखेत्ति साकेयणाहु संणा मुजइव पवित्तु । सोलह मइ दिवि हूयउ सुरिंदु | तिकरद्धपाणिपरिमाणु काउ । तणुतेओहामियदुद्धरासि । हियएण देउ आहारु गसइ । सेविज्जइ अमरहिं अच्छरेहिं । पेच्छ छरयंतु जार्म । तहुँ जीविउ थिउ छम्माससेसु । वज्जर कुबेर कुलिसधारि । पहु सीह सेणु थिरथरबाहु । जयसामासुंदरिसामिसालु । इक्खा कुरारकालु घत्ता - लहु एयहुं दिणयरतेयहुं करहि धणय पुरवरु घरु ॥ पडिच्छिवि चलिड जक्खु पंजलियरु ||३|| तं इच्छिवि सिरिण ४ उझाउरि केणएं कहिं वि पीय कत्थइ हरिणीलमणीहिं काल कत्थइ ससियंत जलेहिं सीय । महिलि विडिय मेहमाल । [ ५८. ३. १ ३ तीर्थंकर नाम- गोत्रका बन्ध कर वह पवित्र मुनिवर मृत्युको प्राप्त हुए। वह पद्मरथ श्रेष्ठ राजा सोलहवें स्वर्ग में राजा हुआ । उसकी आयु बाईस सागर प्रमाण थी । साढ़े तीन हाथ ऊँचा उसका शरीर था । वह पुष्पोत्तर विमानका निवासी था, अपने शरीरके तेजसे दुग्धराशिको तिरस्कृत करनेवाला था । बाईस पक्षमें कभी सांस लेता था और उतने ही वर्षोंमें जानकर मनसे वह 'देव आहार ग्रहण करता था। वह देवों और अप्सराओंके द्वारा सेवनीय था । अवधिज्ञान के द्वारा छठे नरकके अन्त तक जहाँ तक रूपका विस्तार है, वहीं तक वह देखता था । शुक्ललेश्यावाले उस देववरका में क्या वर्णन करूं ? जब उसका जीवन छह मास शेष रह गया तो धर्मका उपकार करनेवाला इन्द्र कुबेर से कहता है कि इस भरतक्षेत्रके अयोध्या नगर में स्थिर और स्थूल बाहुवाला साकेतका राजा सिंहसेन है । वह इक्ष्वाकुवंशीय क्रूर शत्रुके लिए कालके समान, जयश्यामा सुन्दरीका स्वामी श्रेष्ठ है । घत्ता - दिनकर के समान तेजवाले इनके लिए हे कुबेर, तुम पुरवर और घर बनाओ । उसे अपने सिरसे चाहकर और स्वीकार कर कुबेर हाथ जोड़कर चला ॥३॥ ४ वह अयोध्या नगरी कहीं स्वर्णसे पोली और कहीं चन्द्रकान्त मणियोंसे शीतल है। कहीं ३. १. Aणामु; P° नाउं । २. AP मुखउ । ३. A तिकरद्धपाणिपरिमाणकाउ; P तिकरुह्यणियपरिमाणकाउ । ४. AP पुप्फुत्तरं । ५. AP °विवाण । ६. A रूउ विया । ७. A जाम । ९. A जीविउ तहु । १०. A वंसकुरारि । ८. ताम । ४. १. AP कणयं । Page #368 -------------------------------------------------------------------------- ________________ - १८.५.८] कत्थइ थिय मरगय पोमराय कत्थइ हल्लइ चिंधेहिं चलेहिं गाइ भमरहिं रुणुरुणंति पुरि अक्खइ खुत्तर कामबाणु जा णिम्मिय पालिय णिहिघडेण तण्णयरीसह पियगेहिणीइ हिमहासकाससंकासवासि महाकवि पुष्पदन्त विरचित आहंडलधणुदंडछाय । णं च कामिणि करयलेहि । पारावयसद्दे णं कॅणंति । दरिसइ व कुसुमधूलीवियाणु । सामई वणिज्जइ कि जडेण । सोहग्गमहाजलवाहिणीइ । णिद्दायंति तलिमप्पएसि । घत्ता - सुहुं सुत्तइ पुण्णपवित्तइ स्यणिहि पच्छिमजामइ ॥ अवलोsय मणि पोमाइय सिविणावलि जयसामइ ||४|| करडगलियमयधारओ वसहो सण्हासोहिओ पविहिणहरुक्केरओ णवपंक सरसामिणी गुमुगुमंतमहुयरचलं पुण्णो लच्छिसहोयरो कीला उड्डीया वयणसमप्पिय सयदला ५ करि गिरिभित्तिवियारओ । खुरलंगूलपसाहिओ । विसेमो सीह किसोरओ । गवरहविया गोमिणी । दामजुयं सुहपरिमलं । गणे उइड दिवायरो | सरभमिरा पाढीणया । कलसा दोणि समंगला | २. A चेंधें । ३. P कुणंति । ४. P णउ । ५. A सुहसुत्तइ । ५. १. AP विसमउ । ४१ ३२१ हरे और नीले मणियोंसे काली है, मानो धरतीपर मेघमाला आ पड़ी हो। कहीं मरकत और पद्मरागमणि थे, मानो इन्द्रधनुष के दण्डकी कान्ति हो । कहींपर चंचल ध्वजोंसे आन्दोलित थी, मानो कामिनी अपने चंचल हाथोंसे नाच रही हो, मानो गुनगुनाते हुए भ्रमरोंके बहाने गा रही हो, मानो कबूतरोंके शब्दोंसे शब्द कर रही हो, मानो वह नगरी लगे हुए कामबाणको बता रही हो, मानो कुसुम परागके विज्ञानको दिखा रही हो। जिसका निर्माण निधिकलशोंकी रक्षा करनेवाले कुबेरने किया हो, उसका वर्णन मुझ जैसे जड़ कविके द्वारा कैसे किया जा सकता है ? सौभाग्य- महाजल की नदी, उस नगरीके राजा की प्रिय गृहिणी, हिम हास कांसके समान पलंगपर निद्रामें ऊँघती हुई i घत्ता - पुण्य से पवित्र उसने सुखसे सोती हुई रात्रिके अन्तिम प्रहर में स्वप्नावली देखी और मनमें प्रसन्न हुई ||४| १० ५ गण्डस्थल से मद झरता हुआ और गिरिभित्तिका विदारण करनेवाला गज़, गल कम्बल से शोभित और खुर तथा पूँछसे प्रसाधित वृषभ, वज्र के समान नखोंके समूहवाला विषम सिंह किशोर, नवकमलोंके सरोवरको स्वामिनी और गजवरोंके द्वारा अभिषिक्त लक्ष्मी, जो गुनगुन करते भ्रमरोंसे चंचल है ऐसा शुभपरिमलवाला मालायुग्म, पूर्ण लक्ष्मीसहोदर ( चन्द्रमा), आकाश में उगा हुआ सूर्य; क्रीड़ामें उड़ता हुआ और जलमें घूमनेवाला मत्स्ययुगल । ५ Page #369 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३२२ १० १५ वियसियतामरसायरो गरुयं गयरिउआसणं द्धिं णायणिलणं दिसि वह पत्तमऊहओ पसरियजाला णियकरो महापुराण मयरकरिल्लो सायरो | सुरस उह तमणासणं । काओयरकयकीणं । चिररयणसमूहओ । विमलो मारुयसयरो | घत्ता - फलु बालहि सिविणयमालहि पुच्छंतिहि धवलच्छिहि ॥ पइ भाइ तणुरुहु होसइ तिजगणाहु तुह कुच्छिहि ||५|| ६ राहु घरु सयम पेसणेण आगय सिरि हरि दिहि कंति बुद्धि माणिक किरणपसरियवियार कत्तियपडिवयदिणि चंदेसुक्कि गयरूवें गंगापंडुरेण अवइण्णु सुराहि गन्भवासि अहिसित्तई मायापियरयाई तिहुवणवइगुरुहि गुरुत्तणेण कंचीणिबद्ध किंकिणिसणेण । विरइय जयसे महि गब्भसुद्धि । छम्मास पडिय घरि कणयधार । रेवणक्खत्ति मोहमुकि । कयसुकयमही रुह फलभरेण । चभेदेवपुज्जाणिवासि । मंगलकलसहिं जिणगुणरयाई । समलंकियाई सुपहुत्तणेण । घत्ता - णञ्चतहिं मउ गायंतहिं करय तूरणिणायहिं ॥ घरपंग दिसि गणगणु छायउ अमरणिकायहि || ६ || १० जिनके मुखोंपर कमल समर्पित हैं ऐसे मंगल सहित दो कलश, विकसित कमलवाला सरोवर; मगररूपी हाथियोंसे भरा समुद्र । भारी सिंहासन, अन्धकारको नष्ट करनेवाला सुरविमान, स्निग्ध नागभवन कि जिसमें सांप क्रीड़ा कर रहे हैं, जिसकी किरणें दिशापयों में व्याप्त हो रही हैं ऐसा रंग-बिरंगा रत्नसमूह | जिसका ज्वाला समूह फैल रहा है ऐसा विमल अनल । धत्ता - स्वप्नमाला के फलको पूछनेवाली धवलाक्षिणी बालासे पति कहता है कि तुम्हारी कोख से त्रिजगस्वामी पुत्र होगा ॥५॥ ६ इन्द्र की आज्ञासे करधनी में बँधे हुए किंकिणियोंके शब्दोंके साथ श्री, ह्री, धृति, कान्ति और बुद्धि देवियाँ आयीं और उन्होंने जयश्यामाकी गर्भशुद्धि की । माणिक्य किरणोंसे जिसका विकार प्रसारित हो रहा है, ऐसी स्वर्णधारा छह माह तक घर में बरसी । कार्तिक कृष्णा प्रतिपदा के दिन, मल समूहसे मुक्त रेवती नक्षत्र में गंगाके समान सफेद गजरूपमें, किये गये पुण्यरूपी वृक्षके फल के भारके कारण वह सुरराज, चार प्रकारके देवोंके पूजा-निवास उस गर्भवास में आया । जिनवरके गुणोंमें रक्त माता-पिताका मंगल कलशोंसे अभिषेक किया गया । तथा त्रिभुवनपतिके पिताको गुरुत्व और सुप्रभुत्व से अलंकृत किया गया । [ ५८. ५. ९– घत्ता - नाचते हुए, कोमल गाते हुए, हाथोंसे बजाये गये तुके निनादोंवाले अमरनिकायोंसे गृह प्रांगण, दिशाएँ और आकाशरूपी प्रांगण आच्छादित हो गया || ६ || २. P दिट्टु णाय । ३. P सहोयरो | ६. १. A जयसामहो । २. A चंदमुक्कि । ३ AP पुजापवेसे । Page #370 -------------------------------------------------------------------------- ________________ -५८. ८.६] • महाकवि पुष्पदन्त विरचित ३२३ पुणु वसुवरिसणविहवें गयाई सत्तरई दोण्णि वासरसयाई। गइ विमेलरिसीसरि दोहराई जइयहुं गयाइं णवसायराई । जइयहुं अंतिमपल्लहु तिपाय । गय णिदयणासियधम्मछाय । तइयहुँ भवभूरुहसत्तहेइ णाणत्तयधारि महाविवेइ। जेट्ठहु मासहु तमकसैणपक्खि बारहमइ दिणि णासियविवक्खि उप्पण्णउ तिहुवणसामिसालु सुरवरसंछण्णु णहंतरालु। दावियसुरकामिणिणट्टलीलु अर्वयरिवि अमरवइ चडिवि पीलु । परियं चिवि तं पुरवरु विसालु जणणिहि करि देप्पिणु कवडबोलु । धत्ता-उत्तुंगहु रुम्ममयंगहु सूयरखद्धकसेरुहि । गउ सुंदरु देउ पुरंदरु णाहु लएप्पिणु मेरुहि ॥७॥ १० भावालउ णञ्चंतहिं णडेहिं खीरोयखीरधाराघडेहिं । अहि सित्तु भडारउ भावणेहिं वणेसुरवरेहिं जोइसगणेहिं । वइमाणिएहिं वीणाहरेहिं । गायउ वंदिउ मउलियकरेहिं। . भूसिउ परिहाविउ अरुहु संतु णाणे अणंतु कोक्किउ अणंतु । आणेप्पिणु पुणु पुरवरु पसण्णु देविंदें देविहि देउ दिण्णु । पणविवि सुरवइ गउ णियविमाणु वड्ढइ सिसु णं सिसुसेयभाणु । पुनः धनको वर्षाके वैभवसे नौ माह बीतनेपर, जब विमल ऋषीश्वरको (निर्वाण प्राप्त हुए) नौ सागर समुद्र समय हो गया और जब अन्तिम पल्यके भी जिसमें निर्दया ( हिंसा ) के द्वारा धर्मको छाया नष्ट हो गयी है, ऐसे अन्तिम भागमें संसाररूपी वृक्षके लिए आग, तीन ज्ञानके धारी और महाविवेकशील त्रिभुवन श्रेष्ठ, ज्येष्ठ शुक्लाकी निर्विघ्न द्वादशीके दिन उत्पन्न हुए। आकाशका अन्तराल सुरवरोंसे आच्छन्न हो गया। जिसने देवकामिनियोंकी नृत्य-लीलाका प्रदर्शन किया है, ऐसा इन्द्र ऐरावतपर चढ़कर और नीचे आकर उस विशाल पुरवरकी प्रदक्षिणा कर, . मायावी बालक माताको देकर घत्ता-और स्वामीको लेकर, "जिसमें सुअरों द्वारा अलकंक ( कसेरू ) खाया जाता है, ऐसे ऊंचे स्वर्णमय सुमेरु पर्वतपर गया |७|| भावपूर्ण नृत्य करते हुए नटों और क्षीरोदकके क्षीरधारा-घटोंके द्वारा भवनवासी देवों, व्यन्तर देवों, ज्योतिषदेवों, वैमानिक्तदेवों और वीणा धारण करनेवालों ( किन्नरों) ने हाथ जोड़े हुए अभिषेक किया, गाया और वन्दना की। शान्त अरहन्तको भूषित किया और वस्त्र पहनाये। ज्ञानसे अनन्त होनेके कारण उनका नाम अनन्त रखा गया। पुनः नगरमें आकर देवेन्द्रने ७. १. P विमलि रिसी । २. A भूरुहछेत्तहेउ । ३. A°कसिण । ४.AP अवयरिउ । ५. A कवडवाडु । ६. A भम्ममयंगह । ८. १. P omits वणं । Page #371 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३२४ महापुराण [५८.८.७जोण्हालउ णिहिलकलाउ लेंतु सुहदसणु कुवलयदिहि करंतु । कामग्गिताववित्थरु हरंतु अकलंकु अखंडु पसणेकंतु । पत्ता-जिणु वरिसह कयजणहरिसह माणियइच्छियसोक्खई ।। जहिं कुंवरत्तणि थिउ सिसुकीलणि तहिं सत्तद्ध जि लक्खई ॥८॥ पुणु तहु कइ पत्ती मयणताउ सिरि मुच्छिय चमरहिं दिण्णु वाउ । सिंचिय अहिसेयघडंबुएहिं सच्चेयण कय मइवरणएहिं । उट्ठिय लहु सत्तंगई धुणंति अरि सुहि मज्झत्थु वि मणि मुणंतिं । णियपरियणणिवसण संवरंति मिलियहं मंडलियहं मणु हरंति । अवलोइय णाहहु खेउं देंति वच्छयलि विउलि लीलइ वसंति । पुजिउ सूहउ इंदाइएहिं सीसेण णमंसिउ दाइएहिं । मुंजतहु संपयसुहसयाई पणदहसमाहं लक्खई गयाई। पण्णाससरासंण देह तुंगु तवणीयवण्णु णं णवपयंगु । णाणामहिवालयकुलसमग्गि सो रयणिहि थिउ अत्थाणमग्गि। पत्ता-तहिं राएं भवियसहाएं उक्क पडंति णिरिक्खिय । गय चंचल जिह सा सयदल तिह णररिद्धि वि लक्खिय ॥९॥ प्रसन्न देवको माताके लिए दे दिया। इन्द्र प्रणाम करके अपने विमानमें चला गया। बालक इस प्रकार बढ़ने लगा मानो ज्योत्स्नाका घर पूर्ण कलाओंको ग्रहण करता हुआ शुभदर्शन कुवलय (पृथ्वीमण्डल-कुमुद समूह ) को सौभाग्य देता हुआ बालचन्द्र हो। कामाग्निके तापका विस्तार करते हुए अकलंक अखण्ड एवं प्रसन्नकान्त घता-जिनभगवान् लोगोंको हर्ष प्रदान करते, इच्छित सुखोंको भोगते तथा शिशुक्रीड़ा करते हुए जब कुमारावस्थामें रह रहे थे तो साढ़े सात लाख वर्ष बीत गये ॥८॥ फिर उनके लिए प्राप्त राजलक्ष्मी मदनसे तापको प्राप्त हुई। मूच्छित उसे चमरोंसे हवा दी • गयी, अभिषेकके घटजलोंसे उसे अभिषिक्त किया गया, मन्त्रीवरोंके द्वारा सचेत किया गया। वह शीघ्र उठी ( राज्यलक्ष्मी ) और अपने सात अंगोंको (स्वामी अमात्यादि ) को धुनती है, शत्रु सुधी और मध्यस्थका अपने मनमें ध्यान करती है, अपने परिजनरूपी वस्त्रका संवरण करती है, मिले हुए माण्डलीक राजाओंका मनहरण करती है, देखनेपर जो खेद देती है, ऐसी वह उन स्वामीके वक्षस्थलपर निवास करती है उस सुभगके इन्द्रादिकोंने पूजा की तथा देवोंने नमस्कार किया। इस प्रकार सम्पत्तिके सैकड़ों सुख भोगते हुए उनके पन्द्रह लाख वर्ष बीत गये। उनका शरीर पचास धनुष ऊँचा था। स्वर्णके समान रंगवाले मानो नवसूर्य हों। जो नाना प्रकारके राजाओंके कुलोंसे परिपूर्ण हैं, ऐसे दरबारमें रात्रिके समय वह बैठे हुए थे। घत्ता-वहां भव्यसहाय राजा अनन्तने एक टूटते हुए तारेको देखा। जिस प्रकार वह चंचल तारा सौ टुकड़े होकर चला गया, उसी प्रकार उन्होंने मनुष्यके वैभवको देखा ॥९॥ २. P पसण्णु कंतु । ३. A omits जहिं । ४. AP कुमरत्तणि । ९. १. AP'धडंभएहिं । २. AP°वरणरेहिं । ३. A मज्झत्थई । ४. P°सरासणु । Page #372 -------------------------------------------------------------------------- ________________ - ५८. ११.४ ] महाकवि पुष्पदन्त विरचित १० ता तगुरु रंजियछणससीहिं हवणाइडं पोमासंग मे हिं अप्पिवि अनंत विजयहु सधामु महुरज्जुणिकिंकिणिलंबमाणु छट्ठेण जेट्ठमासंतरालि वरुणासाघुलिइ खरं सुजालि पहु पंचमुट्ठि सिरि लोड देवि ates दिणि दिrयरकरफुरंति विसाएं अतु दिण्णउं तें' तहु आहारदाणु मासम्म पहिल्लइ महुपमत्ति पुल्लिइ वणि आसत्थमूलि संभूयउं लोयालोयगा आइय बत्तीस वि सुरवरिंद संबोeिs दिव्वमहारिसीहिं । कल्लाणु करं सुरपुंगमेहिं । से रज्जु धणु साहिरामु | आरूढउ सायरदत्त जाणु । बारसिवासरि णित्तारवालि । उज्जाणि सहेउइ घणतमालि । सहसेण णिवह सहुँ दिक्ख लेवि । हिंडंतु देउ उज्झाउरंति । जयकारिवि धरिउ महीमहंतु । पंचविहु वियंभिउ चोज्जठाणु । धत्ता- नियमत्थहु दसदिसिवत्थहु खरतवचरणसमत्थहु ॥ दुइ अह दुरियविमद्दई गयई तासु छम्मत्थहु ॥ १०॥ ११ णिचंदइ दिणि मासंतपत्ति । पंचमउ णाणु हयघाइमूलि । थिउ अरुहावत्थहि भुवणसामि । गह तारा रिक्ख खरंसु चंद | ३२५ ५ १० तब जिन्होंने अपने शरीरकी कान्तियोंसे पूर्णचन्द्रको रंजित किया है ऐसे दिव्य - महाऋषियों ( लोकान्तिक देवों) ने उन्हें सम्बोधित किया । लक्ष्मी सहित देवश्रेष्ठोंने अभिषेक कर दीक्षा कल्याणक किया । अनन्तविजयके लिए अपना घर, समस्त राज्य और सुन्दर धन देकर, मधुर ध्वनिवाली किंकिणियोंसे शोभित सागरदत्ता नामकी शिविकामें चढ़कर ज्येष्ठ कृष्णा द्वादशी के दिन ( जबकि चन्द्रमा उदित नहीं हुआ था ), सूर्यके पश्चिम दिशा में ढलनेपर, सहेतुक उपवन में पांच मुट्ठियोंसे केश लौंच कर एक हजार राजाओंके साथ स्वामीने दीक्षा ले ली । दिनकरकी किरणोंसे चमकते हुए दूसरे दिन अयोध्या नगरीमें विहार करते हुए धरती में पूज्य अनन्तनाथको राजा विशाखभूतिने जयजयकार कर रोक लिया। उसने उन्हें आहार दान दिया । वहाँ पाँच आश्चर्यके स्थान हुए । घत्ता - नियमों में स्थित दिगम्बर तीव्रतर तप करने में समर्थ और छद्मस्थ उनके पापोंको नाश करनेवाले उनके दो वर्ष बीत गये ||१०|| १० ११ मधुसे प्रमद चैत्रकृष्ण अमावस्या के ( चन्द्रविहीन ) दिन पूर्वोक्त वन ( सहेतुकवन ) में अश्वत्थ वृक्षके नीचे चार घातिया कर्मोंका नाश करनेपर उन्हें पाँचवाँ ज्ञान उत्पन्न हुआ । वह लोकालोकको देखनेवाले हो गये तथा भुवनस्वामी अर्हत् अवस्थामें स्थित हो गये । बत्तीसों १०. १. API २. A घणसाहिरा | ३. AP सायरदत्तु । ४. AP फुसि । ५. A विसाहभूई; P वसाहभूइ | ६. A तं तद्दृ । ७. AP चोज्जु । Page #373 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३२६ ५ १० as मेह सुवण दिसग्गिणाय किंणर किंपुरिस महोरगाय संपत्त भूय भत्तिल्लभोव जय जय सामासुय जय अनंत जय जणणणिर्हणमय रहर सेउ महापुराण अंतरियरं जं महिसुरह रेहिं जं केण विउ दिट्ठ सुदूरु धणपुत्तकलत्तईं अहिलसंति संसार जि संपुंसंतु दिणि अच्छइ घरि वावारलीणु तु पुरिस अणिसु जग्गमाणु बाहिरतवेण पई अंतरंगु तवतायें पई ताविडं णियंगु धत्ता - जिणणा में भत्तिपणा में पावमा तरु भइ ॥ roat सह भव्वहं भावसुद्धि संपज्जइ ॥११॥ १२ मरु जलणिहि थणियासुरनिहाय । गंधव्व जक्ख रक्खस पिसाय | सयल विनंति जय देव देव । जय मिहिरमहा हिय गुणमहंत । जय सिव सास सिवलच्छि हेउ । [ ५८. ११.५ जं सुहुर्मु ण याणिउँ जगि परेहिं । तं पई पडिउँ तुहुं भावसूरु । भोयासइ तावस त करंति । संचरहि महामुणि चरिउं संतु । णिसि सोवइ जणु समदुक्खरीणु । दीस हि परिमुक्कपमायठाणु । रक्खउं णीसेसु वि मुइवि संगु । विवियउ पईं दुद्दमु अणंगु । सुरवरेन्द्र उसमें आये । ग्रह, तारा, नक्षत्र, सूर्य और चन्द्रमा भी, विद्युत, मेघ, यक्ष, दिग्गज, पवन, समुद्र, गरजता हुआ असुर-समूह, किन्नर, किपुरुष, महोरग, गन्धर्व, यक्ष, राक्षस और पिशाच और भक्तिभाव से भरे भूत वहाँ पहुँचे। सभी देव स्तुति करते हैं, 'हे देव ! आपकी जय हो । हे श्यामपुत्र, अनन्त, आपकी जय हो । सूर्यसे भी अधिक तेजवाले और गुणोंसे महान् आपकी जय हो । हे जन्म-मृत्यु के समुद्र के लिए सेतुके समान आपकी जय हो । हे शाश्वत मोक्षरूपी लक्ष्मीके कारण आपकी जय हो । घत्ता - भक्ति से प्रणम्य जिननामके द्वारा पापरूपी वृक्ष खण्डित हो जाता है और गर्वसे रहित समस्त भव्योंकी भावशुद्धि हो जाती है ॥ ११ ॥ १२ जो धरती और देव विमानोंसे अन्तर्हित है, जो सूक्ष्म है और जगमें दूसरोंके द्वारा नहीं जाना जाता, जो इतना दूर है कि किसीने नहीं देखा, उसे हे भावसूर्य, तुमने प्रकट कर दिया । तापस लोक धन, पुत्र और कलत्रकी इच्छा करते हैं और भोगकी आशासे तप करते हैं, लेकिन आप संसारका सम्मार्जन करते हुए चलते हैं । हे महामुनि, आप शान्त चारित्रका आचरण करते हैं । जन दिन में घर में व्यापार में लीन रहता है, और रात्रिमें श्रमके कष्टसे थककर सो जाता है । आप ऋषि हैं, आप दिनरात जागते रहते हैं और प्रमादके स्थानसे आप मुक्त दिखाई देते हैं । समस्त परिग्रहको छोड़कर आपने बाह्य तपसे अन्तरंगकी रक्षा की है । तपतापसे आपने अपने शरीरको तपाया है और आपने दुर्दम कामदेवका दमन किया है। ११. १. A भलिभाय । २. P° हिल । ३ AP जयलच्छि । ४. P महाभरु । ५. A भंजइ । ६. AP भव्वहं सव्वहं । १२. १. P सुहमु । २. A सद्गुरु । ३ A संफुसंतु । ४. AP महामुणि सच्चरितु । ५. A अहणिसि । Page #374 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३२७ -५८. १३. १३ ] महाकवि पुष्पदन्त विरचित धत्ता-अणुसंकुलु हत्थर्यलामलु जिह तिह णिहिलु णिरिक्खिउं ॥ मयमत्तउं मयणासत्तउं तिहुवणु पहुं पई रक्खिउं ॥१२।। १३ जिम्मुक्ककसाय जिणेसरासु जाया गणहर पण्णास तासु । पु०वंगधराहं सहासु वुत्तु तं तिउणउं वाइहिं दुसयजुत्तु । चालीससहस एक्कूण भणमि पंच जि सयाई भिक्खुयह गणमि । चत्तारि सहस तिण्णि जि सयाई अवहीहराहं पालियवयाई। वयसहसई केवलदसणाई मणपज्जवणाणमहागुणाहं । तेत्तियई जि मयविदावणाहं वसुसमयई सिद्धविउठवणाहं । अव सहासई एक्कु लक्खु संजमधारिहि सण्णाणचक्खु । सावयह लक्ख दो चउ भणंति सावइहिं महाकइ किर गणंति । गयसंख तिर्यसगण वंदणिज्ज संखेज तिरिक्ख णमंसणिज्ज । संमेयहु सिहरु समारहेवि छेइल्लु झाणु दढयरु धरेवि । विच्छिण्णउं किरियाजालु सयलु ओसारिवि देउ तिदेहणियलु । गउ मोक्खहु अमवासाणिसियहि गुरुजोयब्भासे तहिं जि दियहि । रिदुसमसहसाई सउत्तराई सिद्धाई रिसिहिं पणमामि ताई। घत्ता-अणुओंसे व्याप्त यह समस्त संसार हे प्रभु, आपने जिस प्रकार हाथपर रखा हुआ आंवला, उसी प्रकार समस्त संसारको देखा है और मदमत्त तथा काममें आसक्त त्रिभुवनकी रक्षा की है ॥१२॥ ITTपास पहागण उन जिनेश्वरके कषायसे रहित पचास गणधर थे। पूर्वांगधारी एक हजार कहे गये हैं, तीन हजार दो सौ वादी कहे गये हैं। उनतालीस हजार पांच सौ भिक्षुक थे, चार हजार तीन सौ व्रतोंका पालन करनेवाले अवधिज्ञानधारी थे। केवलज्ञानी पांच हजार, मनःपयेयज्ञान युक्त पांच हजार । विक्रियाऋद्धिसे सिद्ध मुनि आठ हजार थे। संयम धारण करनेवाली और ज्ञाननेत्र आर्यिकाएँ एक लाख आठ हजार थीं। महाकवि श्रावक दो लाख गिनते हैं और श्राविकाएं चार लाख । वन्दनीय देवगण असंख्यात था और नमन करने योग्य तिथंच संख्यात थे। सम्मेद शिखरपर आरोहण कर तथा दृढ़तासे अन्तिम ध्यान धारण कर उन्होंने समस्त क्रिया-जालको विच्छिन्न कर दिया।' देव तीन शरीरोंकी श्रृंखलाको हटाकर, चैत्र कृष्णा अमावस्याके दिन, गुरुयोगमें छह हजार एक सो मुनियोंके साथ सिद्धिको प्राप्त हुए, मैं उन्हें प्रणाम करता हूँ। ६. A हत्यतला । ७. AP सयलु । ८. AP पई पहु । १३. १. A सहासेवकूण । २. AP सिक्खुयहं । ३. A वसुसहस सिद्ध; P वसुसहसइं सिद्ध । ४. AP °वेउ व्वणाहं। ५. A सणाणचक्खु । ६. P omits गण । ७. A अमवासहो णिसाहे; P अमवासाणिसीहि । ८. A सदुत्तराई। . Page #375 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३२८ १५ ५ १० महापुराण घत्ता - तमहारहिं जलणकुमारहि जिणसरीरु संकारि ॥ णीसलहिं घल्लियफुल्लहिं अमरिंदहिं जयकारिउ || १३|| 'संपण्णवासतव विहूइ अवरु वि समदमसंजम पसत्थि सुपरिसुत्तमगुणणिहाणु पंचसयधणुण्णयमणुयदेहि उत्तंगु काउ दिण्णायणाङ पयपाल अरिहु पय णवेवि मरुद्ध सल्लें अणेण पण कदविहवियप्पि अट्ठारह सायरपरिमियाउ १४ पुणु भासइ गणहरु इंदभूइ । वित्त अनंत जिणणाह तित्थि । सुण मागसह रिबलपुराणु । इह जंबुदीवि सुरदिसिवि देहि । दरि महाबलु णाम राउ | रिसि जायउ तणयहु रज्जु देवि । तणुचाउ करिवि सल्लेहणेण | सुर सहसारइ सहसारकप्पि | किं वण्णमि सुरवरु सुद्धभाउ । घत्ता - इह भारहि पयडियसुहवहि पोयणपुरि चिरु होंत ।। वसुसेउ तृर्यमणथेण णरवइ वइरिकयंत ||१४|| [ ५८. १३. १४ धत्ता-तमका नाश करनेवाले अग्निकुमार देवोंने जिन शरीरका संस्कार किया । निःशल्य तथा पुष्पवर्षा करते हुए देवोंने उनका जय-जयकार किया ॥ १३॥ १४ सम्पूर्ण द्वादश प्रकारके तपकी विभूति इन्द्रभूति गणधर कहते हैं, शम-दम और संयमसे प्रशस्त अनन्तनाथ तीर्थंकरके तीर्थ में एक और वृत्तान्त हुआ । सुप्रभ और पुरुषोत्तमके गुणसमूह से युक्त, नारायण और बलभद्रका पुराण हे मागधेश, सुनो। इस जम्बूद्वीपमें जहां मनुष्यके शरीरकी ऊँचाई पांच सौ धनुष है ऐसे पूर्वविदेहके नन्दपुर में दिग्गजकी तरह नादवाला उत्तुंग शरीर महाबल नामका राजा था । वह प्रजापाल (नामक) अर्हतु के चरणों में प्रणाम कर, अपने पुत्रको राज्य देकर मुनि हो गया। किसी भी प्रकार ( किसी भी मूल्यपर ) उसने मतिको शल्यसे अवरुद्ध नहीं होने दिया । सल्लेखनाके द्वारा शरीरका त्याग कर, जिसमें दस प्रकारके कल्पवृक्ष हैं, ऐसे सहस्रार स्वर्ग में देव हुआ । उसको आयु अठारह सागर प्रमाण थी । उस शुद्धभाववाले देवका में क्या वर्णन करूँ ? धत्ता - इस भारतवर्ष में, पहले जिसमें शुभपथ प्रकट है ऐसा पोदनपुर नगर था। उसमें स्त्रीके मनको चुरानेवाला और शत्रुओंके लिए यमके समान राजा था || १४ || ९. A सक्कारिउ । १४. १. P has before this: जिणतणु पणवेष्पिणु गउ सुरिंदु, धरणेंदु गरिंदु खगिदु चंदु; K gives it in margin in second hand । २. A संपुष्णु । ३ AP उत्तुंग काउ । ४. AT मइ ण|वरुद्ध | ५. AP दहवियवियपि । ६. AP तियमण । Page #376 -------------------------------------------------------------------------- ________________ -५८. १६.३] महाकवि पुष्पदन्त विरचित ३२९ १५ मुहेइंदोहामियसरयचंद महएवि तासु णामेण णंद । रइरहसपसाहियजोव्वणाई अच्छंति जाम बिणि वि जणाई। तामायउ जियपडिवखेदंडु णामेण चंडसास] पयंडु। अइरावयकरथिरथोरबाहु राण : सुहडग्गैणि मलयणाहु । वसुसेणें मण्णिउ परममित्तु रहु कंतहि लग्गउ तासु चित्तु। अवलोइवि णंदहि चारु वयणु विडु जूरेइ ओहुल्लंतवयणु । अवलोइवि गंदहि खीणु मज्झु विडु कुप्पइ तप्पइ हिययमज्झु । विडु सहँहुँण सक्किउ मयणंबाणु अवहरिवि णंद गउ णिययठाणु । वसुसेणे दइय विओइएण असमर्थ विहिणित्तेइएण । वर्ड लइउ पासि णासियसरासु सेयंसणामजोईसरासु। अप्प दंडिउ छंडिउ ण माणु संमोहजणणु बद्धउं णियाणु । पत्ता-तवचरणहु खंचियकरणहु हउं फलु एत्तिउं मग्गमि ।। परयारिउ सो खलु वइरिउ मारिवि परभवि वग्गमि ॥१५॥ तहु रुहिरवारिधाराइ जेव इय बंधिवि दुट्ट णियाणसल्लु संभूयउ तहिं सहसारसग्गि परिहवपडु धोवमि होउ तेव । मुउ सो काले मोहंबुगिल्लु । जिणतवहलेण माणियसमग्गि । अपने मुखचन्द्रसे शरद्चन्द्रको पराजित करनेवाली उसकी नन्दा नामकी महादेवी थी। जिनका यौवन रतिरससे प्रसाधित है, ऐसे वे दोनों जबतक वहाँ थे तब जिसने शत्रुपक्षके दण्डको जीत लिया है. ऐसा चण्डशासन नामका राजा आया। ऐरावतकी संडके समान स्थिर स्थूल हाथोंवाला तथा सुभटोंमें अग्रणी वह मलय देशका राजा था। वसुषेणने उसे अपना मित्र मान लिया। उसकी पत्नीसे उसका चित्त लग गया। नन्दाका सुन्दर मुख देखकर अवनतमुख वह दुष्ट पीड़ित हो उठता है। नन्दाका क्षीण मध्य भाग देखकर, उसके हृदयका मध्यभाग क्रुद्ध और सन्तप्त होता है। वह विट कामबाणको सहन करने में समर्थे नहीं हो सका, वह ( चण्ड) नन्दाका अपहरण कर अपने स्थानपर चला गया। पत्नीसे वियुक्त, असमर्थ और भाग्यसे निस्तेज वसुषेणने कामदेवका नाश करनेवाले श्रेयांस नामक योगीश्वरके पास व्रत ग्रहण कर लिया। अपनेको दण्डित किया। परन्तु मान नहीं छोड़ा। उसने मोह उत्पन्न करनेवाला निदान बांधा। __घत्ता-“इन्द्रियोंको दमित करनेवाले तपश्चरणका मैं इतना ही फल मांगता हूँ कि दूसरे जन्ममें परस्त्रीका अपहरण करनेवाले उसे मारकर मैं नृत्य करूं।" ॥१५॥ जिस प्रकार उसकी रक्तरूपी जलधारामें मैं अपने पराभवके पटको धो सकूँ, वैसे ही वह दुष्ट यह निदान-शल्य बांधकर और मोहग्रस्त होकर समय आनेपर मर गया। जिन तपके १५. १. AP मुहयंदों । २. A°पडिवखवंदु; P°पडिवक्खदंदु । ३. A चंडसासणपयंडु । ४. A सुहडग्गमि । ५. AP झूरइ । ६. A ओहुल्लंभवयणु ; P उहुल्लुल्लवयणु । ७. A सहिदि । ८. AP वउ । १६. १. A मोहंधगिल्लु but T मोहजलाः । ४२ Page #377 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३३० महापुराण [ ५८. १६.४तहिं दिट्ठउ तेण महाबलेण देवेण भग्वजणवच्छलेण । बद्धउ सणेहु कीलाविसालु सहवासें दोहिं मि गलिउ कालु । तहिं कालि सहिवि णाणाकिलेसु परिभमिवि चंडसासणु भवेसु । इह भारहि कासीणामदेसि वाणरसिपुरि वरि घरणिवेसि । पुहईसरु तहिं णामें विलासु गुणवइणामें महएवि तासु । एयह दोहं मि लक्खणणिउत्तु महुँसूयणु णामें जाउ पुत्तु । घत्ता-रणि मिलियहं परमंडलियहं भुयबलु पबलु विजित्तउं ।। तें सुहयरु रुप्पयगिरिवरु धरिवि महीयलु भुत्तउं ॥१६॥ जहिं वरिसह लक्खई णिट्ठियाई जहिं वरिससयाई जि संठियाई । तहु भुजंतहु लच्छीविलासु तहिं अवसरि सुणि अवर वि पयासु । दारावइपुरि णं दससयक्खु सोमप्पहु पहु णवपंउमचक्खु । तहु जयवइ अवर वि अस्थि बीय लहुई पणइणि णामेण सीय । कालेण मुवणि किर को ण गसिउ सुरवरु सहसारविमर्माणल्हसिउ । पदमाइ महाबल पुत्त जणि बीयइ जो चिरु वसुसेणु भणिउ । सुप्पहु पुरिसुत्तमु णामधारि ते बेण्णि वि हलहरदाणवारि । ते बेण्णि वि पंडुरकसणवण्ण ते बेण्णि वि उण्णयपुण्णधण्ण । फलस्वरूप वह मान्य सामग्रीसे युक्त सहस्रार स्वर्गमें उत्पन्न हुआ। वहाँ उसे भव्यजनोंके लिए वत्सल महाबल देवने देखा। उसका स्नेह हो गया। इस प्रकार साथ-साथ रहते हुए क्रीड़ासे विशाल उनका समय बीत गया। उसी समय नाना क्लेशोंको सहन कर और जन्म-जन्मान्तरोंमें भ्रमण कर चण्डशासन राजा इस भारतके काशी नामक देशके, जिसमें सुन्दर घरोंकी रचना है, ऐसे वाराणसी नगरमें विलास नामका राजा था और उसकी गुणवती नामकी पत्नी थी। इन दोनोंके लक्षणोंसे परिपूर्ण मधुसूदन नामका पुत्र हुआ। पत्ता-युद्ध में आये हुए शत्रुराजाओंके प्रबल भुजबलको उसने जीत लिया। उसने शुभकर विजया गिरिवरको अपने अधीन कर धरतीतलका भोग किया ॥१६॥ जहां लाखों वर्ष ऐसे बीत जाते हैं कि जैसे सैकड़ों वर्ष बीते हों। वहां उसके लक्ष्मीविलासका भोग करते हुए उस अवसरपर दूसरा प्रकाश ( महिमा या प्रसंग ) सुनिए। द्वारावती नगरीमें नवकमलके समान आंखोंवाला सोमप्रभ नामका राजा था जो मानो इन्द्र था। उसकी जयावती और दूसरी छोटी सीता नामको प्रणयिनी थी। इस संसारमें समयके द्वारा कोन नहीं ग्रस्त होता। वह सुरवर सहस्रार विमानसे च्युत होकर पहली रानी ( जयावती) से महाबल नामका पुत्र हुआ। दूसरीसे जो वसुषेण नामका राजा था, वह सुप्रभ नामका धारी पुरुषोत्तम २. A °देसु । ३. A°पुरघरवरविसेसु; P पुरिधरवरविसे सु । ४. AP महसूयणु । ५. A तं सुहयरु । १७. १. AP तहिं । २. AP अवरु। ३. P णउ पउम। ४. AP विवाण । ५. P बीयउ । ६. AP पुण्णवण्ण । Page #378 -------------------------------------------------------------------------- ________________ -५८. १८.१२ ] महाकवि पुष्पदन्त विरचित ते बेणि वि खयरामरहं पुज्ज । घत्ता - हरिकंधर धवलधुरंधर जोइवि कलहपियारउ || महिराहु दावियघायहु जाइवि अक्खइ णारउ ||१७|| १८ ते बेणि वि साहिय सिद्धविज्ज भो भो महसूयण सुहडसीह सुंदर सोमपदेहजाय दाराव पुरवरि दोणि भाय णं तुहिणंजण महिहर महंत पण्णास सरासणदेहमाण तहिं कालैसलोउ भणइ एम्ब को अणु राउ मई जीवमाणि आरुसेप्पणु दुम्मियमणेण पडिवक्खपसंसियविकमासु भणिउं भो भो लहु देहि कप्पु समरंगणि को तुह लुहइ लीह । म दिट्ठा सुणि राया हिराय | सक्कु वि उ पावइ ताहं छाय । थिर तीसंवरिस लक्खाडवंत । संगाम रंगणिवूढमाण । भो सुप महिव तुहुं जि देव । को जीवइ गुणसंणिहियबाणि । ता दूउ दिण्णु महसूयणेण । गड तासु पासि पुरिसुत्तमासु । faraणु किं किर करहि दप्पु । धत्ता - पहु मणहि कलि अवगण्णहि करि उत्तरं महु केरडं | महसूण भिडिय महारणि ण रेमइ खग्गु तुहारडं ||१८|| ३३१ १० हुआ । वे दोनों क्रमशः बलभद्र और नारायण थे । वे दोनों ही धवल और कृष्ण वर्णके थे, वे दोनों ही उन्नत पुण्यरूपी धान्यवाले थे । उन दोनोंने विद्याएँ सिद्ध की थीं। वे दोनों ही विद्याधरों ओर अमरोंके द्वारा पूज्य थे । १० घत्ता - वृषभके समान कन्धोंवाले और धवल धुरन्धर उन दोनोंको देखकर कलहप्रिय नारद जाकर आघात करनेवाले धरतीके राजासे कहता है ||१७|| १८ । " हे सुभटों में सिंह मधुसूदन, युद्धके प्रांगण में तुम्हारी रेखा कोन पोंछ सकता है ? हे राजाधिराज, सुनिए - सुन्दर, सोमप्रभके शरीरसे उत्पन्न द्वारापुरी में मैंने दो भाई देखे हैं । उनकी कान्तिको इन्द्र भी नहीं पा सकता मानो वे महान् हिम और नीलांजनके पहाड़ हैं, स्थिर और तीस लाख वर्षकी आयुवाले हैं, उनके शरीरका प्रमाण पचास धनुष है, दोनों समरके प्रांगण में निर्वाह करनेवाले हैं ।" तब उनमें जो श्याम वर्णका सुप्रभ नामका ( पुत्र ) राजासे कहता है कि तुम्हीं एकमात्र देव हो, मेरे जीते हुए दूसरा कोन राजा हो सकता है ? मेरी प्रत्यंचापर बाण चढ़ानेपर कौन जीवित रह सकता है । तब क्रुद्ध होकर मधुसूदनने पीड़ित मन होकर अपना दूत भेजा। जिसने शत्रुक विक्रमाशाको संशय में डाल दिया है, ऐसे उस पुरुष श्रेष्ठके पास गया और बोला, "अरे-अरे, शीघ्र कर दो । हे अज्ञानी, तुम घमण्ड क्यों करते हो । घत्ता - तुम राजाको मानो, कलहकी उपेक्षा करो, मेरा कहा हुआ करो । मधुसूदन के महायुद्ध में लड़ते समय तुम्हारा खड्ग नहीं ठहरेगा || १८ || १८. १. A लहइ । २. AP तीसलक्खव रिसाउअंत | ३. AP काले । ४. AP दुमियं । ५. A घर; K धरइ but corrects it to रमइ । Page #379 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३३२ महापुराण [ ५८. १९.१ तं णिसुणिवि भासइ सीरधारि भो दूय म कोक्कउ गोत्तमारि । अम्हारउ करु मग्गइ अयाणु किं ण मरइ रेणि सो हम्ममाणु । अम्हारउ करु सहुं ध]हरेण अम्हारउ करु सहुँ असिवरेण । अम्हारउ करु चक्केण फुरइ अम्हारउ करु तहु जीउ हरइ । अम्हारउ करु तहु कालवासु जिणु मेल्लिवि अम्हई भिञ्च कासु । तं सुणिवि महंतउ गउ तुरंतु विण्णवइ ससामिहि पय णमंतु। ण समिच्छइ संधि ण देइ दवु पर चवइ रामु केसउ सगवु । तं णिसुणिवि मणि उप्पण्ण खेरि हय रसमसंति संणाहभेरि । संणद्ध सुहड हणु हणु भणंति दट्ठोट्ठ रुट्ठ दमुय धुणंति । आरोहचरणचोइयमयंग धीरासँवारवाहियतुरंग। धाइय रहवर धयधुव्वमाण गयणयलि ण माइय खगविमाण | णिग्गउ आरूसिवि राउ जाम चरपुरिसहिं कहियउं हरिहि ताम । आयउ रिउ हय दुंदुहिणिणाउ थिउ रणभूमिहि वढियकसाउ । घत्ता-तं णिसुणिवि णियभुय धुणिवि केसउ जंपइ कुद्धउ । मरु मारमि पलउ समारमि रिउ बहुकालहुं लद्धउ ॥१९॥ यह सुनकर बलभद्र कहते हैं, "हे दूत, अपने कुलका नाश करनेवाली बात मत करो। हे अजान, जो हमसे कर मांगता वह मारे जानेपर युद्धमें क्यों नहीं मरता। हमारा 'कर' धनुर्धरके साथ, हमारा कर असिवरके साथ, हमारा हाथ चक्रके साथ स्फुरित होता है, हमारा कर उसके जीवका अपहरण करता है, हमारा हाथ उसके लिए कालपाश है, जिनवरको छोड़कर हम और किसके दास हो सकते हैं ?" यह सुनकर दूत तुरन्त गया और अपने स्वामीके चरणोंमें प्रणाम करता हआ निवेदन करता है-'हे देव, न तो वह सन्धिकी इच्छा करता है और न धन देता है, परन्तु राम केशव सगर्व केवल बकवास करता है।' यह सुनकर उसके मनमें वैर उत्पन्न हो गया। घोड़े हिनहिना उठे । भेरी बज उठी। सुभट तैयार होने लगे, मारो मारो कहने लगे, ओठ चबाते हुए अपने दृढ़ बाहु धुनने लगे। महावतके पैरोंसे हाथी प्रेरित हो उठे। धीर घुड़सवार घोड़ोंको हांकने लगे। ध्वजोंसे प्रकम्पित रथ दौड़ने लगे, आकाश-तलमें विद्याधरोंके विमान नहीं समा सके। जबतक राम ( बलभद्र महाबल ) निकलते हैं तबतक दूत पुरुषोंने नारायणसे कहा कि दुन्दुभिनिनादके साथ शत्रु आया है और बढ़े हुए क्रोधसे युद्धभूमिमें ठहरा है। घत्ता-यह सुनकर अपने बाहु ठोंकते हुए नारायण क्रुद्ध होकर सुप्रभसे कहता है, लो मारता हूँ, प्रलय मचाता हूँ। बहुत समयके बाद दुश्मन मिला है ।।१९।। १९. १. AP सो रणि । २. AP घणहरेण । ३. AP भुयबलि । ४. P धारासवार । ५. A रह रणिधयं । ६. AP साहिउं । ७. AP विहणिवि । Page #380 -------------------------------------------------------------------------- ________________ -५८. २१. ४ ] महाकवि पुष्पदन्त विरचित ३३३ हरिवाहिणिखगवाहिणिसमेय णिग्गय बेणि वि हिमगरलतेय । रह तुरय दुरय णरेरवरउद्द मजायविवजिय णं समुह । चलचमरछत्तधयछण्णसेण्] उग्गयधूलीरयकविलवण्णु । दसदिसिहभरिय ण कहिं मि माइ महि वजघडिय विह डिवि ण जाइ । फणि तेण भरेण ण केम मरइ धुयफडकडप्पु थरहरइ सरइ । गरभोयणकइ रोमंचियाई सुपहूयई भूयई णच्चियाई। बिणि मि सेण्णइं समुहागयाइं आलग्गइं तासियदिग्गयाइं। जयगोमिणिमेइणिलंपडाई मुसुमूरियचूरियभडथडाई। पत्ता-दप्पिट्टइं बेणि मि दिट्ठइं सेण्णइं समरि भिडंतई । हलसूलई झसकरवालहिं पहरंताई पडतई ॥२०॥ २१ पवरासवारवेढियरहोहि रहसंकडि णिवडियविविहजोहि । जोहंघिदलियमंडलियमउडि मउडुच्छलंतमणि किरणविउडि । वियडियकवाडसंदोहणीडि णीडाहिरूढसुरवरसमीडि। मीडामहग्घजुज्झतवीरि वीरंगगलियकीलालणीरि । to 1 २० नारायणकी सेना और विद्याधरकी सेनाके साथ धवल और श्याम रंगवाले वे चले। रथतुरग-गज-नरवरोंसे भयंकर वह सेन्य ऐसा मालूम होता, मानो मर्यादासे रहित समुद्र हो। चंचल चमर छत्रध्वजसे आच्छन्न तथा उड़ती हुई धूलिरजसे कपिलवर्ण सेना दसों दिशाओं में फैलती हुई कहीं भी नहीं समा सकी। वज्रसे रचितके समान भूमि किसी प्रकार विघटित नहीं हो रही थी और इसलिए उसके भारसे किसी प्रकार मरता नहीं, कांपते हुए फनोंके समूहसे वह थर-थर कांपता हआ चलता है। मनुष्योंके भोजन के लिए बहतसे भत नाच उठे। दोनों ही सैन्य आमनेसामने आ गये और दिग्गजोंको पीड़ित करते हुए एक दूसरेसे भिड़ गये। दोनों विजयरूपी लक्ष्मी और धरतीके लम्पट थे, दोनों भट समूहको मसलने और चूरित करनेवाले थे। पत्ता-दोनों सैन्य दर्पसे भरे हुए युद्धमें लड़ते हुए, हल-मूसल-झष और करवालोंसे प्रहार करते और गिरते हुए दिखाई दे रहे थे ॥२०॥ २१ जिसमें बड़े-बड़े घुड़सवारोंसे रथोंके समूह घिरे हुए हैं, रथों ऐसा जमघट है, जिसमें विविध योद्धा गिर रहे हैं, जिसमें योद्धाओंके पैरोंसे माण्डलीक राजाओंके मुकुट नष्ट हो रहे हैं, जो मुकुटोंसे उछलती हई मणि किरणसे विनष्ट है, जिसमें नष्ट कपालोंके समहके घर हैं, और उनपर लक्ष्मी और बुद्धिसे युक्त देववर बैठे हुए हैं, जिसमें ऐश्वर्य और बुद्धिसे महान् वीर युद्ध कर रहे हैं और २०. १. AP णरवर रउद्द। २. AP मज्जायमुक्क णं चल समुद्द। ३. A °सेण्ण । ४. A धूलीरव । ५. A वण्ण । . ६. A°दिसवह । ७. AP कह व । ८. A वर्ण but corrects it to णर in second hand. ९. P समुहं गयाई । १०. A हलसूलिहिं । ११. AP वरकरवालहिं । २१.१. A जोहोहदलिय । Page #381 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३३४ ५ १० ५ णी रेह सममुह पंकएण कहलणित्तेइयकयखलेण बलएवहु पइसरु सरणु अज्जु ज्जु विमई अक्खिउ तुज्झु सारु आरुहसु म जमसासणु अजाण महिमा म रणि बाणविट्ठि महापुराण दे देहि किं पिएण तुहुं किंकरु हउं तुहुं परमणाहु इय भणिवि विसमभडघा इणीइ सीयासुण भग्गइ अणीइ तारिणा घल्लिउ फुरियधारु गिरिधरणिबलय चालणवलेण सो रेहइ तेण सुणिम्मलेण णियैरुव परज्जियणित्तणेण धत्ता - पडिकण्हें भणिडं सतहें फलवज्जिउ कि गजहि । धनुदंडे डिंभेय कंडे रे कुमार मई तज्जहि ॥ २१ ॥ २२ पंकणा दुष्कपण । खलु दुच्छि दुद्दमभुयबलेण । अज्ज वि उ णासइ मित्तकज्जु । सारुइमुइ अवरु वि हथियारु । जाणेण जाहि मुक्का हिमाण | विट्ठि व भीसण तुह हणइ तुट्ठि । [ ५८. २१.५ दुण्यवंतें सुइविप्पिएन । किं बद्धउ विलु पहुत्तगाहु । जुझि विज्जइ बहुरूविणीइ । बहुरुविण जय पडिरूविणीइ । रहचरणु चलु सहसारफारु । तं हरिणा धरियड करयलेण । णवमे व रविणा णित्तलेणें । अलियंजणसा में पत्तलेण । वीरोंके शरीरोंसे रक्तकी जलधारा बह रही है, ऐसे उस युद्ध में कमल के समान मुखवाले, दर्पसे अंकित, जिसने हलसे खलको निस्तेज कर दिया है, ऐसे दुर्दम बाहुबलवाले दुष्टकी पंकजनाभने खूब भर्त्सना की और कहा - 'अरे तुम बलदेवकी शरण में चले जाओ, मित्रके कामको तुम आज भी नष्ट मत करो। मैंने तुमसे सारकी बात कह दी है । तुम उसे करो। दूसरा हथियार छोड़ दो, हे अजान, तू यमके शासनपर अधिरोहण क्यों करते हो । अभिमानसे मुक्त होकर तुम यानसे जाओ, युद्धमें मेरी बाणवृष्टिको मत मानो, वह वर्षाकी तरह भीषण तुम्हारे आनन्दको नष्ट कर देगी ?" घत्ता - सतृष्ण प्रतिकृष्णने कहा, "बिना फलके तुम क्यों गरजते हो, हे बालक कुमार, तुम धनुषदण्ड और बाणसे मुझे धमकाते हो ॥ २१ ॥ २२ तुम कर दो, दुर्विनीत और कानोंके लिए अप्रिय कहनेसे क्या ? तुम मेरे अनुचर हो, में तुम्हारा परम स्वामी हूँ। तुमने विफल प्रभुत्व यश क्यों बांधा ?" यह कहकर विषम योद्धाओंको मारनेवाली बहुरूपिणी विद्यासे वह लड़ा। सीतापुत्र नारायणके द्वारा सैन्यके नष्ट होनेपर प्रति बहुरूपिणी विद्या द्वारा बहुरूपिणी विद्या जीत ली गयी । तब शत्रुने चमकती हुई धारवाला चपल हजारों आराओंवाला चक्र छोड़ा। पहाड़ और पृथ्वीमण्डलको चलानेके बलवाले हरि (सुप्रभ) ने करतल से उसे धारण कर लिया; उस निर्मल चक्रसे वह ऐसा शोभित होता है जैसे निर्दोष सूर्य से नवमेघ शोभित हो। अपने रूपसे मनुष्यत्वको पराजित करनेवाले भ्रमर ओर २. AP दोच्छिउ । ३. Aवि । ४. AP सहें । ५. AP डिभियकंड़े २२. १. A बहुरूपिणि । २. तरणु । ३ AP सहसारु फारु । ४. AP णित्तर्वण । ५. A omits Ba Page #382 -------------------------------------------------------------------------- ________________ -५८. २३.८] महाकवि पुष्पदन्त विरचित पुणु भणिउ वइरि रे सुप्पहासु करि केर म जाहि कयंतवासु । पालियतिखंडमंडियधरेण पंडिजंपिउं पडिदामोयरेण । तुहुं सुप्पहु बिण्णि वि मज्झु दास को गवु रहंगे रे हयास । सरसलिलि रहंगसयाई अस्थि किं तेहिं धरिजइ मत्तहत्थि । मरु मरु मारतहु णत्थि खेउ संभरहि को वि णियइट्ठदेउ । ___ घत्ता-असमिच्छिवि पुणु णिभैच्छिवि चक्के रिउसिरु तोडिउ॥ हरिहंसें लद्धपसंसें णं रणतरहलु साडिउ ।।२२।। २३ महिरक्खसि खद्धणिमासखंड पुरिसुत्तमेण मुत्ती तिखंड । पत्थिव पसु गिलइ ण कहिं मि धाइ ओहच्छइ केण वि सह ण जाइ । कालेण कण्हु गउ अवहिठाणु हलिणा चिंतिउ रिसिणाहणाणु । णिल्लुंचियकुंतलु करिविसीसु जायउ सोमप्पहुगुरुहि सीसु । परिसेसिवि भवसंसरणवित्ति थिउ भूसिवि मोक्खमहाधरित्ति। जहि मुक्खु णत्थि आहारवग्गु जहिं णि ण मंदिरु सयणेवग्गु । जहिं कामिणि काम ण रोस तोस जहिं दीसइ एक्कु वि णाहिं दोस । जहि वाहि ण विज्जु ण मलु ण ण्हाणु जहिं अॅप्प अप्पडं जाणमाणु । अंजनसे श्याम दुबले-पतले बलभद्रने शत्रुसे कहा, "हे सुप्रभास, सेवा करना स्वीकार कर लो, यमवासके लिए मत जा।" तब तीन खण्डोंसे अलंकृत धरतीका पालन करनेवाले प्रतिनारायण मधुसूदनने कहा-"तुम और सुप्रभ दोनों मेरे दास हो। हे हताश, चक्रका क्या गर्व करता है ? पानीमें सैकड़ों रथांग ( चक्रवाक ) होते हैं, क्या उनसे मतवाला हाथी पकड़ा जा सकता है ? मरमर, अब तुझे मारनेमें देर नहीं है, अपने किसी इष्टदेवको याद कर ले।" घत्ता-इस प्रकार नहीं चाहते हुए भी उसने शत्रुको ललकारकर चक्रसे उसका सिर तोड़ दिया मानो प्रशंसा प्राप्त करनेवाले हरिरूपी हंसने रणरूपी वृक्षके फलको तोड़ दिया हो ॥२२॥ २३ जिसने मनुष्यमांसका खण्ड खाया है, ऐसी धरतीरूपी राक्षसीका पुरुषोत्तमने भोग किया। वह राजा और पशको निगल जाती है, कहीं भी नहीं जाती। यहीं रहती है, किसीके साथ नहीं जाती। समयके साथ नारायण सुप्रभ सातवें नरक गया। बलभद्रने ऋषभनाथके ज्ञानका चिन्तन .किया। अपने सिरको बालोंसे रहित कर सोमप्रभ मुनिका शिष्य हो गया । संसारमें भ्रमण करनेकी वृत्ति को नष्ट कर मोक्षरूपी महाभूमिको भूषित कर स्थित हो गया। जहां भूख नहीं है, न आहारवर्ग है, जहाँ न निद्रा है, न घर है और न स्वजन समूह है । जहाँ न कामिनी है, न काम है, न रोष है और न तोष है। जहां एक भी दोष दिखाई नहीं देता। जहाँ न व्याधि है, न विद्या ६. AP°मंडलवरेण । ७. A तो जंपिउं पडि; P ता जंपिउं पडि । ८. A महु मारतहु । ९. AP णिभंछिवि । १०. Pणं णवसररुह पाडिउ । २३. १. AP have before this: बहुपाउ करिवि बहुभोयसत्तु, तमतमि पत्तउ पडिलच्छिकंतु । २. AP सयणमग्गु । ३. AP अप्पइ अप्पडं जायमाणु । Page #383 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३३६ १० इच्छेइ पेच्छइ णीसेसु ताम संतेण समियफुल्ला उद्देण महापुराण तिहुणु अनंतु आयासु जाम । चउथे तेण सीरा उहेण । घत्ता - ववगयरइ भरहेरावइ जं णरेहि आराहिउं ॥ तं सिद्धं सिवसुहुं लद्धडं पुप्फदंतजिणसा हिउं ||२३|| इय महापुराणे तिसट्ठिमहापुरिसगुणालंकारे महाभव्वमरहाणुमणिए महाकइपुष्फयंतविरइए महाकव्वे अनंतणाह सुप्पह पुरिसुंत्तममहसूयण कहं तरं णाम अट्ठवण्यासमो परिच्छेओ समत्तो ॥ ५८ ॥ है, न मल है और न स्नान, जहाँ आत्मा के द्वारा आत्माको जाना जाता है । वह समस्त विश्वको वहीं तक इच्छा करता है और देखता है, जहाँ तक अनन्त त्रिभुवन और आकाश है । शान्त कामदेवका शमन करनेवाले उन चौथे बलभद्रने - घत्ता -- रतिसे रहित भरतश्रेष्ठकी जो मनुष्योंके द्वारा आराधना की जाती है, पुष्पदन्त जिनके द्वारा वह कथित सिद्ध शिवसुख उन्होंने प्राप्त किया ||२३|| [ ५८. २३.९ इस प्रकार त्रेसठ महापुरुषों के गुणालंकारोंसे युक्त महापुराण में महाकवि पुष्पदन्त द्वारा रचित एवं महामव्य भरत द्वारा अनुमत महाकाव्यका अनन्तनाथ सुप्रभ पुरुषोत्तम और मधुसूदन कथान्तर नामका अट्ठावनवाँ परिच्छेद समाप्त हुआ ॥५८॥ ४. AP अच्छइ । ५. A पुल्ला उहेण । ६. AP चोत्येण । ८. AP°पुरिसोत्तमं । ९. AP अट्टावण । ७. AP तं लद्धडं सिवसुहुं सिद्धउं । Page #384 -------------------------------------------------------------------------- ________________ संधि ५९ . जिणुं धम्मु भडारउ तिहुवणसारउ मई जडेण किं गज्जइ । चवलुकलियायरु भरियड सायरु किं कुडुवेण मविज्जइ ॥ध्रुवकं ॥ १ लच्छीरामालिंगियवच्छं दिव्वणि छत्तत्तयवंतं भामंडलरुइणिज्जियचंदं अमरमुककुसुमंजलिवासं बुद्धं बहुसंबोहियसुरवं वरकंठीरवपीढारूढं पंचिदियभडसंगरसूरं उण्णय सिरिवच्छं । २ कंतं मयवंतं । भवकुमुयचंं । देवं दिव्वासं । जयदुं दुहि सुरवं । मीमंसारूढं । णणणसूरं । सन्धि ५९ त्रिभुवन श्रेष्ठ आदरणीय जिनधर्मका मुझ जड़के द्वारा क्या वर्णन किया जाये ? चंचल लहरोंका समूह सागर क्या कुतुपसे मापा जा सकता है ? १ जिनका वक्षःस्थल लक्ष्मीरूपी रमणीके द्वारा आलिंगित है, जो अशोक वृक्षके समान उन्नत हैं, जो दिव्यध्वनि और तीन छत्रोंसे युक्त हैं, जो ज्ञानवान् और सुन्दर हैं, जिन्होंने भामण्डल की कान्तिसे चन्द्रमाको जीत लिया है, जो भव्यरूपी कुमुदोंके लिए चन्द्रमाके समान हैं, जिनपर देवेन्द्रोंने कुसुमांजलियोंकी वर्षा की है, जो देव दिगम्बर बुद्ध हैं, जिनका शब्द ( दिव्यध्वनि ) अनेक जनोंको सम्बोधित करनेवाला है, जो जय दुन्दुभिके शब्द से युक्त हैं, जो सिंहासनपर आरूढ़ हैं, जो मीमांसा में प्रसिद्ध हैं, जो पंचेन्द्रिय योद्धाओंसे संग्राम करनेमें शूर हैं, जो विश्वरूपी कमलके All Mss., A, K and P, have, at the beginning of this samdhi, the following stanza: अत्र प्राकृतलक्षणानि सकला नीतिः स्थितिश्छन्दसामर्थालंकृतयो रसाश्च विविधास्तत्त्वार्थनिर्णीतयः । कि चान्यद्यदिहास्ति जैनचरिते नान्यत्र तद्विद्यते द्वावेतौ भरतेशपुष्पदशनी सिद्धं ययोरीदृशम् ॥ १ ॥ K reads ते चार्थनिर्णीतयः for तत्वार्थ ; देवेतौ for द्वावेतौ, and भारताख्यं for भरतेश ; P reads देवेतौ भरते तु पुष्पं । K has a gloss on देवेतो as देवत्वं इतो प्राप्तो देवेतौ । १. १. A जिणधम्मु । २. P किं तं । ४३ Page #385 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३३८ महापुराण [५९. १. १०.. मंदरद्दिधीरं सवरहियं रायरोसरहियं । दूरुज्झियमायाविरहंसं मुणिमणसरहंसं। एयाणेयवियप्पविवायं मोहमेहवायं । पायपोमपाडियगिळवाणं उग्गयगिळवाणं। दिसिणासियदुण्णयसारंग हयवसुसारंगं। १५ तवहुयवहहुयवम्महधम्म णमिॐणं धम्म। भणिमो तस्स चरित्तं चित्तं रंजियपरचित्तं । घत्ता-जिह अक्खइ गोत्तमु उत्तमु णित्तमु सत्तमु सेणियरायहु ॥ तिह हउं दुक्कियहरु कहमि कहतरु भरहहु भवसहायहु ॥१॥ धादइसंडइ पुवदिसायलि पुत्वविदेहइ अंकुरपल्लवसोहियपायवि माहवगेहइ । सीयातीरिणिदाहिणतीरइ वच्छयदेसइ पुरिहि सुसीमहि दसरहु राणउ जयसिरिसेसइ सुपसाहियसिरु बुहयणवच्छलु णिवसैइ केहउ चाएं भोएं विहवें रूवें वम्महु जेहउ । रयणिसमागमि गिलियउछणससि अब्भपिसाएं खीरामेलउ णावइ णाएं दिट्टर राएं। ५ चिंतिउ णियमणि सच्छसहावें वियलियदप्पे अमयकलायरु जेम णिसायरु गसिउ विडप्पे । तेम गसेवउ जीउ पुसेर्वउ कूरकयंतें णिव्वयवंत कारिमजते काइं जियंतें। लिए सूर्य, मन्दराचलके समान धीर, शवरहित ( स्व-परसे रहित, शवरके हितस्वरूप ) हैं, जो राग-रोषसे रहित हैं, जिन्होंने माया और विरहके अंशोंको दूर कर दिया है, जो मुनियोंके मनसरोवरके लिए हंस हैं, जो एक-अनेक विकल्पोंसे विवाद करनेवाले हैं, जो मोहरूपो मेघके लिए पवनके समान हैं, जिन्होंने देवोंको अपने चरणकमलोंपर झुकाया है, जो उन्नतग्रोव हैं, जिन्होंने दिशाओंसे दुर्नयरूपी हरिणोंको भगा. दिया है, जिन्होंने द्रव्यके अनुरागको नष्ट कर दिया है, तपको ज्वालामें कामदेवको आहत कर दिया है, ऐसे धर्मनाथको प्रणाम कर, उनके परचित्तोंको रंजित करनेवाले विचित्र चरित्रको कहता हूँ। __घत्ता-जिस प्रकार उत्तम तमरहित और प्रशस्त गौतम गणधर राजा श्रेणिकसे कहते हैं, उसी प्रकार मैं पापको हरनेवाला कथान्तर भव्योंके सहायक भरतसे कहता है ॥१॥ धातकीखण्डके पूर्व मेरुतलमें पूर्वविदेहमें, जो वृक्षों, अंकुरों और पल्लवोंसे शोभित है, जिसमें धनपतियोंके घर हैं, ऐसे सीता नदीके दक्षिण तटपर स्थित वत्सदेशको सुसीमा नगरीमें रथ था। जिसका सिर विजयश्रीकी पूष्पमालासे प्रसाधित है. ऐसा पण्डितजनों के प्रति वत्सलभाव रखनेवाला वह राजा इस प्रकार निवास करता था, मानो त्याग भोग वैभव और रूप में कामदेव हो। निशाका आगमन होनेपर बादलरूपी पिशाच ( राह) के द्वारा निगला गया पूर्णचन्द्रमा राजाने इस प्रकार देखा, मानो नागके द्वारा क्षीरसमुद्र निगल लिया गया हो। स्वच्छस्वभाव और विगलित गर्व उस राजाने अपने मन में विचार किया कि "जिस प्रकार राहने ३. AP णविऊणं । ४. P omits चित्तं । ५. A कहवि । ६. P°सयायहु । २. १. A सिरि । २. P णिवइ स । ३. A गसेवउ । ४. A पुसेवट । Page #386 -------------------------------------------------------------------------- ________________ -५९. ३. २] महाकवि पुष्पदन्त विरचित ३३९ एव चवेप्पिणु रजि थवेप्पिणु अइरहु णंदणु संगु मुएप्पिणु गउ तउ लेप्पिणु णिम्माणुसु वणु। पढिउ सुयंगई सो एयारह णिटुइ झिजिवि तिवणखोहणु तित्थयरत्तणु पुण्णु समजिवि । पावविणासें मुउ संणासें गउ सम्वत्थहु जगि णउ काई मि दीसइ दुग्गमु धम्मसमत्थहु । जं तसणाडिहि लहुयउ गरुय उ काइं वि अच्छइ तं णियणाणे एक्कु करंगउ जाणइ पेच्छइ। १० सो तिहिं तीसहिं पक्खहिं गलियहिं सास पउंजइ तेत्तियवरिससहासहिं संखइ झीणइ भुंजइ। सुक्कलेसु ससिसुक्कवण्णु सुई णिप्पडियारउ किं वणिज्जइ इंदु चंदु अहमिंदु भडारउ। तेणे तितीससमुहमाणु परमाउसु भुत्तउं परियाणिवि उव्वरिउं सेसु छम्मासु णिरुत्तउं । पेसणु पढमें सयमहिण जक्खिदहु सिटुडं कुरु कुरु जिणपुज्जाविहाणु परमागमि दिट्ठउं । घत्ता-सुणि जंबूदीवइ ससिरविदीवइ भरहखेत्ति जणउरइ॥ १५ महेराउ गरेसरु सुरकरिकरकरु अत्थि जक्ख रयणउरइ ॥२॥ पुरंधि तस्स सुप्पहा जणेदिही जिणेसरं सई अणंगमापहा । रईणिसादिणेसरं। अमृतके समान किरणोंवाले चन्द्रमाको ग्रसित कर लिया, दुष्ट यमके द्वारा उसी प्रकार जीव पकड़ लिया जायेगा और नष्ट कर दिया जायेगा, अतः व्रतरहित शरीरसे जीनेसे क्या ?" यह कहकर और राज्यमें पुत्र अतिरथको स्थापित कर, परिग्रह छोड़कर तथा तप ग्रहण कर वहाँ गया, जहाँ निर्जन वन था। उसने ग्यारह श्रुतांगोंका अध्ययन किया और निष्ठापूर्वक ध्यान कर त्रिभुवनको क्षुब्ध करनेवाला तीर्थकरत्वका पुण्य अजित कर, पापको नाश कर तथा संन्याससे मरकर सर्वार्थसिद्धि में गया। धर्मसे समर्थ जीवके लिए संसारमें कुछ भी दुर्गम दिखाई नहीं देता। असनाड़ीमें जो भी लघु और भारी हैं, उसे वह अपने एक ज्ञानसे हस्तगतके समान जानता और देखता है। वह वहाँ (सर्वार्थसिद्धि में) तीस पक्ष गलने में सांस लेता है, उतने ही हजार वर्ष अर्थात् तैंतीस हजार वर्षों की संख्या क्षीण होनेपर आहार ग्रहण करता है, शुक्ललेश्यासे युक्त चन्द्रमा और शुक्रके रंगवाला पवित्र निष्पीड़ाकारक इन्द्रचन्द्र उस आदरणीयका क्या वर्णन किया जाये ? उसने वहाँ लैंतीस सागर प्रमण आयुका भोग किया। यह जानकर कि निश्चयसे छह माह आयु शेष बची है, प्रथम सौधर्म इन्द्रने कुबेरको आदेश दिया-"परमागममें देखे गये जिनपूजा विधानको करिए। पत्ता-हे यक्ष सुनो, सूर्यचन्द्रमाके द्वीप जम्बूद्वीपके जनप्रचुर भरतक्षेत्रके रत्नपुरमें ऐरावतकी सूड़के समान हाथोंवाला राजा भानु है ।।२।। उसकी रानी सुप्रभा सती कामश्रीके समान है। वह, रतिरूपी निशाके लिए सूर्यके समान ५. AP read this line as पढि उ सुयंगई सो अविहंगई एयारह पुणु; P adds after this: सरिवि सुहंगई दहधम्मंगई सोसिवि णियतणु; AP adds after this : छत्तीस वि गुणसहिए तवणि? (A तवणिद्वविएं झिज्जिवि । ६. P एक्क । ७. A सो तेतीसहि । ८. A सुह । ९. A तिणि तेत्तीस । १.. A पुण जंबू; P मुणि जंबू। ११. P जणे पउर; K जणपवरइ but corrects it to जणपउरइ । १२. A मेहराउ; P महारा। ३. १. AP जणेइही। . Page #387 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३४० महापुराण [५९. ३.३पुरं णिबद्धतोरणं घरं समेत्तवारणं। करेहि तं तहा तुम कुलकमागयं इमं । णमंसिउं सुराहिवं तओ गओ धणी भुवं । णवप्पसंडिपीयलं अणेयखाइयाजलं। अणेयवण्णसालयं अणेयणट्टसालयं । अणेयकेउछाइयं अणेयतूरणाइयं । अणेयदारदावणं अणेयवल्लरीवणं। अणेयसुंदरावणं अणेयतित्थपावणं। कयं पुरं महासरं तैहि चि रायमंदिरं। घत्ता-तहिं पच्छिमरयणिहि सुत्तइ सयणिहि दीसइ देविइ कुंजरु॥ पसुवइ पंचाणणु विप्फुरियाणणु मयमारणणहपंजर ॥३॥ अवर वि सिरिदामई दिट्ठिहि सोम्मई ढोइयइं ___णहि पंडुरतंबई ससिरविबिंबई जोइयई। दुइ मीण रईणड दुइ मंगलघड सरयसरु * जलणिहि जलभीसणु सेहीरासणु सकघरु । उरगिंदणिहेलणु णाणामणिगणु सत्तसिहु मुद्धइ अवलोइउ मणि संमाइउ भणिउ पहु । मई दिवा सिविणेय सोलह सिविणय देंतु सुहुं जिनेश्वरको जन्म देगी। अतः तोरणोंसे निबद्ध नगर और वारणों सहित घर तुम वहां इस प्रकार बनाओ कि जिस प्रकार कुलक्रमागत हो।" तब देवेन्द्रको नमस्कार कर उस समय कुबेर मनुष्यलोकके लिए गया। उसने महासरोवरसे युक्त नगर और राजभवन बनाया, जो नवसुवर्णसे पीला था, जिसमें अनेक खाइयोंका जल था, जिसमें अनेक रंगके परकोटे थे, अनेक नृत्यशालाएं थीं, जो अनेक पताकाओंसे आच्छादित था, अनेक तूर्योसे निनादित था, अनेक द्वारों और दावण (पशुओंको बांधनेकी रस्सी) से युक्त था, जिसमें अनेक सुन्दर बाजार थे जो अनेक तीर्थोंसे पवित्र था। पत्ता-वहाँ शय्यापर सोती हुई देवी रात्रिके अन्तिम प्रहरमें देखती है-हाथी, बैल, विस्फारित मुखवाला तथा हरिणोंके मारनेसे पीले नखोंवाला सिंह ।।३।। और भी दृष्टिके लिए सौम्य श्रीमालाएं देखीं, आकाशमें सफेद और लाल चन्द्रमा तथा सूर्यके बिम्ब देखे । रतिमें नृत्य करते हुए दो मीन, दो मंगलकलश, शरद्का सरोवर, जलसे भयंकर समुद्र, सिंहासन, इन्द्रघर ( देव विमान ), नागभवन, नाना रत्नराशि, अग्नि । उस मुग्धाने स्वप्नोंको देखा, मनमें उनका सम्मान किया और अपने स्वामीसे कहा कि मैंने सोलह स्वप्न २. P सम्मत्तं । ३. A तहिं च रायं । ४. १. AP अवरु । २. AP सुविणय । Page #388 -------------------------------------------------------------------------- ________________ -५९. ३.२६] महाकवि पुष्पदन्त विरचित __ फलु ताहं भडारा गरवरसारा कह हि तुहुँ । पइ कंतहि अक्खइ गुज्झु ण रक्खइ भुयणगुरु तुह होसइ तणुरुहु णवसररुहमुहु गुणपउरु । तं णिसुणिवि राणी णं सहसाणी घणरविण णञ्चइ सिंगारे रसवित्थारें णवणविण। . हेमुज्जलभित्तिहिं उग्गयदित्तिहिं जियतवणि वोलाविय अयणइं पडियई रयणइं णिवभवणि । वइसाहइ मासइ तेरेसिदिवसइ ससिधवलि थिउ गम्भि जिणेसरु अहममरेसरु गलियमलि । रेवइणक्खत्तइ गविउ पवित्तइ सुरवरहिं आयहिं दिहिकतिहिं सिरिहिरिकितिहिं अच्छरहिं । चउसायरमेत्तइ सिद्धि अणंतइ मयमहणु अंतिमपल्लद्धइ धम्मविसुद्धइ गइ णिहणु । माहम्मि रवण्णइ धणपउण्णइ जणियसुहि ओसाकणसंकुलि णवतणकोमलि तुहिणवहि । सियपक्खहु अवसरि तेरसिवासरि दिण्णदिहि उप्पण्णउ जगगुरु सिरिसेवियउरु णाणणिहि । 'गुरुजोइ सुरिंदहिं हविउ फणिंदहिं सुरगिरिहि आणिवि पियवाइहि अप्पिउ मायहि सुंदरिहि । देखे हैं, हे नरवर-श्रेष्ठ आप उनके फल बतायें। पति अपनी कान्तासे कहता है, वह कुछ भी छिपाकर नहीं रखेगा, तुम्हारा गुणोंसे प्रवर, नवकमलमुख पुत्र विश्वगुरु होगा। यह सुनकर रानी नवशृंगार और रसविस्तारसे इस प्रकार नृत्य करतो है, मानो मेघध्वनिसे मयुरी नाच उठी हो। स्वर्णके समान उज्ज्वल भित्तियोंके समान निकलती हई किरणों के द्वारा एक अयन ( छह माह) बीतनेपर स्वर्णके जीतनेवाले राजाके भवनमें रत्नोंकी वर्षा हुई। वैशाख माहके शुक्ल पक्षको तेरसके दिन वह अहमेन्द्र जिनेश्वर मलसे रहित गर्भमें रेवती नक्षत्र में आकर स्थित हो गया है। धृति-कान्ति-श्रो-ह्रो-कीर्ति आदि अप्सराओंने उन्हें नमन किया। अनन्त भगवान्के सिद्ध होनेपर चार सागर प्रमाण समय बीतने और अन्तिम पल्यके आधे समयके धर्म विशुद्धिसे रहित होनेपर, धान्यसे प्रपूर्ण, सुख उत्पन्न करनेवाले ओसकणोंसे व्याप्त, नवतृणोंसे कोमल तथा हिमपथसे युक्त माघ शुक्ला त्रयोदशीके दिन पुष्य नक्षत्रमें भाग्यविधाता विश्वगुरु तथा लक्ष्मीके द्वारा जिनका वक्ष सेवित है ऐसे ज्ञाननिधि उत्पन्न हुए, देवेन्द्रों और नागेन्द्रोंने सुमेर २५ wwwwwwwwwwwwwwwwwwwwwwwwww ३. A णवससहरमुह । ४. A सहसीणी; P सुहसाणो। ५. P वोल्लाविय। ६. A अट्टमिदिवसइ । ७. AP णववि । ८. A धम्मपउण्णइ । ९. Pउंसा । १०. A गुरुजोय । Page #389 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३४२ महापुराण [५९.३.२७गउ सक्कु सुहम्महु पणविवि धम्महु 'पेणइसिरु वड्ढइ परमेसरु रूवें जियसरु महुरगिरु । घत्ता-पणयोलसुचावई उज्जुयभावइं गरुएं तणु तुंगत्तें ॥ तेलोकहु सारे अरुहकुमार जणु रंजिउ धणु देंतें ॥४॥ ३० ताव कुंअरत्तणे देवकय कित्तणे। लक्खजुयसंजुयं अद्धलक्खं गयं । वच्छेरविसेसहं अच्छरसुरेसंह। विरइय अॅणिंदओ जसविडविकंदओ। इंदकयण्हाणओ जायओ राणओ। वयसमोलक्खहं गयह कयसोक्खहं। चंदिमाकंतिया उक्क णिवडंतिया। तेण अवलोइया विहियणिवेइया। सई जि उम्मोहिओ पुणु वि संबोहिओ। वरकुसुमहत्थहिं. दिव्वरिसिसस्थहिं। हरिहिं अहि सिंचिओ वंदिओ अंचिओ। सिहरलिहियंबरं णाययत्तं वरं। सिवियमारोहि वम्महं जोहिउं । मंदिरा णिग्गओ सालवणमुवगओ। माहि तेरहमए दियहि समियंकए। पर्वतपर अभिषेक किया, और लाकर प्रिय शब्दोंसे सुन्दरी माताको सौंप दिया। प्रणत शिर इन्द्र धर्मनाथको प्रणाम कर सौधर्म स्वर्ग चला गया। अपने रूपसे कामदेवको जीतनेवाले मधुरवाणी परमेश्वर रूपमें बढ़ने लगे। घत्ता-उनका शरीर ऊंचाई और गुरुत्वमें सरल पैंतालीस धनुष था। त्रैलोक्यमें श्रेष्ठ अर्हत् कुमारने धन देकर लोगोंका रंजन किया ॥४॥ १५ जिसका देवोंने कीर्तन किया है ऐसे कौमार्यकालके दो लाख पचास हजार विशेष वर्ष उनके बीत गये । अप्सराओं और इन्द्रोंने जिनके आनन्दको रचना की है, जो यशरूपी वृक्षके अंकुर हैं, इन्द्रके द्वारा जिनका अभिषेक किया गया है, ऐसे वह राजा हो गये। सुख उत्पन्न करनेवाले उनके पाँच लाख वर्ष बीत गये। उन्होंने चन्द्रमाके समान कान्तिवाली, वैराग्य उत्पन्न करनेवाली एक गिरती हुई उल्का देखी। वह स्वयं ही विरक्त हो गये, फिर भी उन्हें श्रेष्ठ कुसुम जिनके हाथमें हैं, ऐसे दिव्य मुनिसमूहोंके द्वारा सम्बोधित किया गया। वह देवेन्द्रोंके द्वारा अभिसिंचित और अर्चित हुए। अपने शिखरसे आकाशको छूनेवाली श्रेष्ठ नागदत्ता ११. AP पणयसि । १२. A सचावई। ५. १. AP कुमरत्तणे । २. P°विसे सेहि । ३. P°सुरेसे हिं । ४. AP विरयाणंदमओ। ५. A क्यसमलक्खह; _P वयसमसुलक्खहं । ६. A णवकुसुम । ७. A समयंकर । Page #390 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३४३ -५९.६.५ ] महाकवि पुष्पदन्त विरचित पूसि सायण्हए रहिउ रइतण्हए। छट्ठउववासओ करिवि णिहिवासओ। णिवसहससंजुओ मुणिवरिंदो हुओ। खंतिकतापिओ तुरियणाणंकिओ। पुरि घरविचित्तए 'पाडलीउत्तए। भमिउ पिंडथिओ विणयणविओ थिओ। धण्णसेणालए ढोइयं कालए। भोयणं''फासुयं सव्वदोसच्चुयं । जायपंचब्भुयं दाणममरत्थुयं । सहइ तवतावणं __ करइ गुणभावणं । घत्ता-उवसंतइ मच्छरि गइ संवच्छरि खाइयभावहु आइउ ॥ फुल्लंत पियालउं तुंगतमाल तं सालवणु पराइउ ॥५॥ ~ ~ ~ ~ तहिं सत्तच्छयतरुहि तलि खगउलमहुलि। छट्टववासालंकियहु अविसंकियहुँ । पूसरिक्खि छणससिदिवसि हइ कम्नेरसि । अवरोहइ हूयउ सयलु केवलु विमलु। आयउ तुरियउं सतियसयणु दससयणयणु । शिविकामें बेठकर, कामको जीतकर घरसे निकल गये और शालवनमें पहुंचे। माघ शुक्ला त्रयोदशीके दिन सायंकाल पुष्य नक्षत्रमें रतिकी तृष्णासे रहित कर्मको सामर्थ्यका नाश कर, छठा उपवास कर एक हजार राजाओंके साथ दीक्षित हो गये। क्षान्तिरूपी कान्तिके प्रिय चार ज्ञानोंसे अंकित वह घरोंसे विचित्र पाटलिपुत्र नगर में आहारके लिए घूमे। शिष्टतासे नम्र वह राजा धन्यषेणके प्रासादमें पहुँचे। उस अवसरपर उन्हें प्रासुक तथा सब प्रकारके दोषोंसे. च्युत भोजन दिया गया। पांच प्रकारके आश्चर्य हुए। वह दान देवोंके द्वारा संस्तुत था। वह तपसे सन्तप्त उनको श्रद्धा करता, गुणोंकी भावना करता है। पत्ता-ईर्ष्याभाव समाप्त होने और एक साल बीतनेपर वह क्षायिक भावपर स्थित हो गये। जिसमें प्रियाल वृक्ष खिले हुए हैं और जिसमें ऊंचे-ऊंचे तमालवृक्ष हैं, ऐसे शालवनमें वह पहुँचे ॥५॥ वहाँ पक्षि-समूहसे मुखरित सप्तपर्ण वृक्षके नीचे, छठे उपवाससे शोभित, विशंकाओंसे रहित, पूष शुक्ल पूर्णिमाके दिन, कर्मकी सामर्थ्य नष्ट होनेपर अपराहमें विमल समस्त केवलज्ञान ८. A पिहियासवो। ९ A पुरधर । १०. AP पाडलीपुत्तए । ११. AP पासुयं । ६. १. AP°मुहलि । २. AP add after this: देवें सयरायरु मुणिलं, जगु जाणियउं ( A omits जगु जाणियउं ); खणि जाइय ( A जाइयउ ) देवागमणु, छण्णइ ( A सुण्णय ) गयणु; णाणाविहहिं पडाइयहि, अवराइयहि संथु उ देउ सुरासुरहिं, म उलियकरहि; K gives these lines but scores them off. ३. A तुरिउ । - Page #391 -------------------------------------------------------------------------- ________________ महापुराण १० १५. थुणइ थुणंतु गहीरझुणि जय परममुणि । धम्मु ण णहयलि गिरिगुहिलि णउ धरणिय लि। धम्मु ण ण्हाणि ण पसुर्गसणि ण सुरावसणि। तुहुँ जि धम्मु जिणधम्ममउ कयजीवदउ। णरयपडंतहं दिण्णु करु तुहुं दुरियहरु। हरु तुहं संकर परमपेरु तुहुं तित्थयरु। बुद्ध सिद्ध तुहुं महु सरणु हयजरमरणु। जिहँ मणु धावइ णारियणि उत्तुंगथणि। जिह मणु धावइ भवणि धणि णियबंधुयणि । तिह जइ धावइ तुह पयह गयभवभयहं। तो संसारि ण संसरइ ण हवइ मरइ। जाइ जीउ तिहुवणसिरहु तहु सिवपुरहु । एंव थुणेवि पुरंदरिण वीणासरिण। समवसरणु णिम्मिउ विउलु तहिं जीवउलु । धम्मचक्कपहुंणा जिणिण संबोहियउं। २० इंदियविसयकसायवसु सुणिरोहियउं । घत्ता-तहु वज्जियछम्महु देवहु धम्महु तवभरधरदढयरभुय । चालीस मणोहर जाया गणहर बिहिं गणणाहहिं संजय ॥६॥ उत्पन्न हो गया। इन्द्र तुरन्त देवजनोंके साथ आया। स्तुति करते हुए गम्भीर ध्वनि वह कहता है-“हे परममुनि, तुम्हारी जय हो। धर्म न तो आकाशतल में है और न गिरिगुहामें। धर्म न स्नानमें है और न पशुओंके खाने में, और न मदिरा पीनेमें। जीवदया करनेवाले जिनधर्ममय आप धर्म हैं, नरकमें गिरते हुएके लिए तुमने अपना हाथ दिया है, तुम पापका हरण करनेवाले हो, तुम शिव-शंकर और परमश्रेष्ठ हो। तुम तीर्थंकर हो; तुम बुद्ध-सिद्ध मेरी शरण हो, जरा और मृत्युका नाश करनेवाले हो। जिस प्रकार मन ऊंचे स्तनोंवाली स्त्रियोंमें जाता है, जिस प्रकार मन दौड़ता है, भवन-धन और अपने बन्धुजनमें उसी प्रकार यदि वह भवभयसे रहित तुम्हारे चरणोंमें दौड़े तो वह संसारमें परिभ्रमण न करे, न पैदा हो और न मृत्युको प्राप्त हो, और जीव त्रिभुवनके सिरपर स्थित शिवपुरमें जाता है।" वीणाके स्वरमें इस प्रकार जिनकी स्तुति कर इन्द्रने विशाल समवसरणकी रचना की। उसमें धर्मचक्रके स्वामी जिनभगवान्ने सम्बोधित किया। इन्द्रियों और कषायोंकी अधीनताका उन्होंने विरोध किया। पत्ता-वहां उनके छह मदोंसे रहित, धर्मनाथ देवके तपका भार उठानेमें दृढ़तर भुजावाले, विभिन्न गणनाथोंसे युक्त चालीस सुन्दर गणधर हुए ॥६॥ ४. A पसुवहणे । ५. P has तुहं before हरु। ६. A मह सुयणु । ७. P omits this line. ८. A धावइ भवणि वणि; P धावइ णियभवणि धणि । ९. P तिहि । Page #392 -------------------------------------------------------------------------- ________________ -५९, ८.१] महाकवि पुष्पदन्त विरचित ३४५ णवसयई पुज्वपारयरिसिहिं संदरिसियमोक्खमग्गदिसिहि । चालीससहास सत्तसयई सिक्ठ्य हं णमंसियगुरुपयई। रिदुसयई तिणि सहसई परहं अवहिल्लहं संजमभरधरहं । चउसहस पंचसय केवलिहिं मणपज्जयाहं तई मणबलिहिं । भयसहसई विकिरियाइयह दोसहसई वसुसयवाइयहं। सहसाइं सट्ठि चउसयजुयई अजियहं मोहवासहु चुयई । दोलक्खइं भणियई सावयाहं दुगुणाई त्यहं पालियवयाह । गिव्वाण मिलिय संखारहिय संखेज तिरिक्ख दिक्खसहिय । पणवंति जासु को तेण सहुँ उवमिजइ हूई चित महुं। गिंभागमि अgणवुत्तरहिं" सह जइसएहिं कयसंवरहिं । चोथिइ पच्छिमपहरइ णिसिहि संमेयसिहरि अरिहहु रिसिहि । संपण्णी धम्महु-परमगइ महु देउ भडारउ सुद्धमइ। घत्ता-वंदारयवंदहु देहुँ जिणिदहु पुजिवि हयभवपासहु ।। पहजियरविमंडलु गउ आहंडलु गय अवर वि णियवासहु ॥७॥ धम्मवारिविहरणबोहित्थे अस्सि परमधम्मजिणतित्थे। Pawanwwwwwwwwwwwwwwwwwwwwwwww पूर्वांगोंमें पारंगत और मोक्षमार्गकी दिशा बतानेवाले मुनि नौ सौ थे। जिन्होंने अपने गुरुपदोंको नमस्कार किया है, ऐसे शिक्षक चालीस हजार सात सौ थे। संयमके भारको धारण करनेवाले शेष अवधिज्ञानी तीन हजार छह सो। केवलज्ञानी चार हजार पांच सौ। मनःपर्यय ज्ञानधारी मनि भी चार हजार पांच सौ। विक्रिया-ऋद्धिधारी सात हजार थे। वादी मुनि दो हजार आठ सो। मोहवाससे रहित आर्यिकाएं साठ हजार चार सो। श्रावक दो लाख और व्रतोंका पालन करनेवाली श्राविकाएं चार लाख । देवता वहां संख्यारहित सम्मिलित हुए। दीक्षा सहित संख्यात तिथंच प्रणाम करते हैं। मुझे यह चिन्ता है कि उनको उपमा किससे दी जाये ? ग्रीष्मकाल आनेपर संवर धारण करनेवाले आठ सौ नौ मुनियोंके साथ (ज्येष्ठ शुक्ला) चतुर्थीके दिन रात्रिके अन्तिम प्रहरमें अरहन्त मुनिको सम्मेद शिखरपर धर्मकी परमगति (मोक्ष) प्राप्त हुई। आदरणीय वह मुझे शुभमति प्रदान करें। घत्ता-जिन्होंने जन्मपाशको नष्ट कर दिया है ऐसे देवोंके द्वारा वन्दनीय जिनेन्द्रकी पूजा कर प्रभासे रविमण्डलको जीतनेवाला इन्द्र तथा दूसरे भी देव अपने-अपने निवासके लिए चले गये ॥७॥ धर्मरूपी जलमें विहार करनेके लिए जहाजके समान परम धर्मनाथके इस तीर्थमें हे ७. १. P भिक्खुयहं । २. A जिह केवलहिं । ३. AP तियहं । ४. AP जासु सो केण सहुँ । ५. A अट्ठणववुत्तरेहिं । ६. A देवजिकिदह । ८. १. A अस्स। Page #393 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३४६ महापुराण [ ५९.८.२सेणिय हलहरचक्कहराणं णिसुणहि चरियं णरपवराणं । णवसासंचियवसुमइदेहे जंबूदीवे अवरविदेहे। णिवसइ णरवइ परदुव्विसहो वीयसोयणयरे णरवेसहो। सो संसारजायणिवेयउ दमवरपासे सुद्धिसंमेयउ। काउं तवचरणं जिण दिटुं. विसहियकेसालुंचणणिटुं। पत्तो णिरसणविहिणा सग्गं तं सहसारं भोयसमग्गं । अट्ठारहजलणिहिपरिमाणे तस्सेयारहमे वोलीणे। जइया तइया इह रायगिहे जयरे घरसिरणश्चियबरिहे। णाम सुमित्तो अप्पडिमल्लो दुजणहियउप्पाइयसल्लो। जुज्झे सो भुयबलमयमत्तो रायसीहराएण णिहित्तो। ताम तेण परिमउलियणेत्ते परिभवदुक्खपरंपरछित्तें। घत्ता-णियरज्जु मुएप्पिणु तणयहु देप्पिणु जुण्णउं तणु व गणेप्पिणु ॥ चिण्णउं व्रडै दूसहु कयवम्महवहु कण्हसूरि पणवेप्पिणु ॥८॥ णवर पमाएं भीमें रुद्ध खरतवझीण पत्थइ तवहलु आगामिणि भवि माणकसाएं। हियवइ कुद्धउ। सासु अयाणउ। - होजउ भुयबलु । भडेरवि रउरवि । श्रेणिक, हलधर और चक्रवर्ती नरश्रेष्ठोंका चरित्र सुनो। जिसकी भूमिरूपी देह नवधान्योंसे अंचित है, ऐसे जम्बूद्वीपके अपर विदेहके वीतशोक नगरमें शत्रुको सहन नहीं कर सकनेवाला राजा नरवृषभ निवास करता था। संसारसे वैराग्य उत्पन्न होनेपर शुद्धि सहित वह दमवर मुनिके पास, जिसमें केशलोंचकी निष्ठाको सहन किया जाता है, ऐसा जिनके द्वारा उपदिष्ट तपको कर उसने अनशन विधिके मार्गसे भोगसे परिपूर्ण सहस्रार स्वर्ग प्राप्त किया। उसकी अठारह सागर प्रमाण आयुमें-से जब ग्यारह सागर आयु निकल गयी तो जिसके गृहशिखरोंपर मयूर नृत्य करते हैं, ऐसे राजगृह नगरमें अप्रतिमल्ल और दुर्जनोंके हृदयमें शल्य उत्पन्न करनेवाला सुमित्र नामका राजा हुआ। भुजबलसे प्रमत्त वह युद्ध में राजसिंह राजके द्वारा पराजित कर दिया गया। तब पराभवको दुःख-परम्परासे अभिभूत अपनी आँखें बन्द किये हुए वह घत्ता-अपना राज्य छोड़कर और पुत्रके लिए देकर जीर्ण तृणकी तरह समझकर जिन्होंने कामदेवका नाश कर दिया है, ऐसे कृष्णसूरि मुनिको प्रणाम कर उसने असह्य व्रत स्वीकार कर लिया ॥८॥ परन्तु नहीं, वह भीषण मान कषायसे रुद्ध अपने हृदयमें क्रुद्ध हो उठा। अत्यन्त तपसे क्षीण वह अज्ञानी साधु यह तपफल मांगता है कि आगामी भवमें मेरा ऐसा बाहुबल हो, जिससे २. P णरवासहो। ३. P संसारह जायं । ४. सम्मेयउ । ५. A रायहरे । ६. A वउ; P तउ । ९. १. AP अजाणउ । २. AP भडयणि । Page #394 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३४७ -५९. १०. ४] महाकवि पुष्पदन्त विरचित जेण वियारमि सो रिउ मारमि। इय णिज्झाइवि देहु पमाइवि। सल्लकिलेसे मुउ संणासें। थिई सुरविंदर हुउ माहिंदइ। जाउ मणोरमि अणुवमतणुरमि। आउअणिंद सत्तसमुद्दइ। जहिं जिणगीय अच्छरगीयई। जहिं सवणिजई सुइरमणिजई। जें चिरु जित्तउ राउ सुमित्तउ। सो पत्थिवहरि णं मत्तउ करि। . हिंडिवि भववणि विहरावलिघणि। फलियधरायलि इह कुरुजंगलि । पंडुरगोउरि हूयउ गयउरि। राउ कुसीलड __ सो महुकील। पत्ता-करयलकरवाले भिउडिकराले पुहइ तिखंडे पसाहिय ।। मंडलिय मउद्धर जेम धुरंधर तेम तेण धरि वाहिय ॥९॥ रज्जु केसिणसुहसार अणेहुत्तिहिं णियां __कइवइ वरिसई जइयहं तहु जीविउं थियउं । तइयहुं खगरणाहहु सीहसेणणिवहु इक्खाउहि सुपसिद्धहु इह भरहुब्भवहु । मैं भटकोलाहलसे भयंकर युद्ध में विदीर्ण कर शत्रुको नष्ट कर सकूँ यह ध्यान कर और अपना शरीर छोड़कर, शल्यके क्लेश और संन्याससे मरकर वह देवसमूहवाले माहेन्द्र स्वर्ग में उत्पन्न हुआ। वह सुन्दर अनुपम तारुण्यमें जन्मा। उसकी अनिन्द्य आयु सात सागर प्रमाण थी। जहाँ जिनवरसे सम्बन्धित गीत और अप्सराओंके सचिर मनोज्ञ गीत सुनाई देते हैं। और जिसने पहले राजा सुमित्रको जीता था, वह श्रेष्ठ राजा राजसिंह मानो मत्तगज हो । कष्टोंसे भरपूर संसाररूपी वनमें भ्रमणकर, जिसमें स्फटिकका धरातल है, ऐसे कुरुजांगलमें सफेद गोपुरोंवाले गजपुर ( हस्तिनापुर ) में खोटी चेष्टावाला मधुक्रीड़ नामका राजा हुआ। पत्ता-जिसकी भृकुटियां भयंकर हैं ऐसे उसने हाथमें तलवार लेकर तीन खण्ड धरती सिद्ध कर ली। मदसे उद्धत माण्डलीक राजाओंको वह बैलोंकी तरह अपने घर हाक लाया ॥९॥ समस्त सुखोंसे श्रेष्ठ राज्यका अनुभोग किया और जब उसका जीवन कुछ वर्षोंका रह गया तभी खगपुरके स्वामी इक्ष्वाकुकुलके सुप्रसिद्ध भरतराजाके अंकुर सिंहसेन राजाको ३. A थिय । ४. P जिणगेहई। ५. A अच्छरिगीयई। ६. A तिखंडई साहिय । ७. AP मउडधर । १०. १. A कसण । २. AP अणुहुंजिवि । ३. A गोउरणाहह; K गोउर' but corrects it to खगउर। Page #395 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३४८ महापुराण [ ५९. १०.५विजयादेविहि गब्भइ उप्पण्णउ धवलु सो णरर्वसहवरामरु भुयजुयबैलपबलु । सुहिहिं सुदंसणु कोक्किउ कुलसरहंसवरु तहिं अवसरि माहिदहु णिवडिउ सई इयरु । अहरबिंबरुइणिजियणवरविबिंबियहि सो सुमित्तु सुउ जायउ उयरइ अंबियहि । पुरिससीहु हक्कारिउ लहुयउ बंधवहिं ____पहु पमाणु संपत्तउ थणयथणधुयहिं । ते बेणि वि ससियरहिमकज्जलगरलणिह ___बेण्णि वि ते सुरगिरिवरसंणिहमाणसिह । बेणि वि ते बल केसव वासवविहियभय ते बिण्णि वि नृवंसिरमणिकिरणारुणियपय । ते बिणि मि संसेविय विजाजोइणिहिं ___समलंकिय हरिवाहिणिगारुलवाहिणिहिं । ते तेहा" आयण्णिवि परसिरिअसहणउ ___ महुकीलउ आरुट्ठउ रणि जुज्झणमणउ । पेसियदूएंजाइवि बोल्लिय रायसुय किं तुम्हइंण कयाइ वि एही वत्त सुय । घत्ता-खोणीयलपालहु जो महुकीलहु कप्पु देइ सो जीवइ । हलहर सुहभायण "सुणि णारायण अवरु जमाणणु पावइ ॥१०॥ विजयादेवीके गर्भसे वह धवल बाहुबलसे प्रबल देव उत्पन्न हुआ। सुधीजनोंने कुलरूपी सरोवरके हंस उसे सुदर्शन कहकर पुकारा। उसी अवसरपर माहेन्द्र स्वर्गसे अवतरित दूसरा देव, स्वयं जिसने अधरबिम्बोंको कान्तिसे नव रविबिम्बोंको जीत लिया है, ऐसी अम्बिका नामकी दूसरी रानीके उदरसे वह सुमित्र पुत्र हुआ। छोटे भाइयोंने पुरुषसिंह कहकर पुकारा। वह प्रभु शीघ्र बालकों और तरुणोंमें प्रामाणिकताको प्राप्त हो गये। वे दोनों ही चन्द्रमा, हिम, काजल और गरलके समान रंगवाले थे। वे दोनों ही सुमेरपर्वतके समान मानसे श्रेष्ठ थे। इन्द्रको भय उत्पन्न ले वे दोनों बलभद्र और नारायण थे। जिनके पैर राजाओंके शिरोमणिकी किरणोंसे अरुण हैं, ऐसे थे। वे दोनों ही विद्याओं और योगिनियोंके द्वारा सेवित थे। वे दोनों हरिवाहिनी और गरुड़वाहिनियोंसे अलंकृत थे। उनको इस प्रकारका सुनकर दूसरेकी लक्ष्मीके प्रति असहिष्णु युद्धकी इच्छा करनेवाला मधुक्रोड़ युद्ध में क्रुद्ध हो उठा। उसके द्वारा भेजे गये दूतने राजपुत्रोंसे जाकर कहा पत्ता-हे शुभभाजन हलधर और नारायण सुनिए, जो राजा मधुक्रीडको कर देगा वही जीवित रहेगा। दूसरा यमाननको प्राप्त करेगा ॥१०॥ ४. A णरवसहु । ५. A °पबलबलु। ६. A णिवडिउ सो इयवरु । ७. P अवरह । ८. A यण्णयथणचुवहि; Pथणयथण्णधुवहिं। ९. AP बेणि मि ते। १०. AP णिवं। ११. AP तहा । १२. AP बोल्लिय जाइवि । १३. AP णिसुणि णरायण । Page #396 -------------------------------------------------------------------------- ________________ -५९.१२.२] महाकवि पुष्पदन्त विरचित भग्गणरिंदो तो गोविंदो। माणमहंतो भणइ हसंतो। मंदो मई सच्छंदो। कप्पं तमहं भप्पं। करमि अदप्पं किं माहप्पं । अत्थि पराणं खग्गकराणं । दोण्णयमुकं मोत्तूणेकं । लंगलपाणिं को पहु दाणिं। मई जीवंत वइरिकयंते। वयणं चंडं सुइवह कंडं। तं सोऊणं चारु अदीणं। विगओ दूओ हरिसियभूओ। कुंजरगइणो तेण सवइणो। कहिया वत्ता कुरु रणजत्ता। ण करइ संधी लच्छि पुरंधी-। लोलो रामो कण्हो भीमो। घत्ता-तक्खणि संणद्धउ उभियधुयधउ रोसें कहिं वि ण माइउ ॥ हयतूरगहीरें सहुं परिवार मेहुकीडउ उद्धाइउ ॥११॥ १२ . रमणीदमणई रिउआगमणई। जूरियसयणइं णिसुणिवि वयणई। तब जिसने राजाओंको नष्ट किया है ऐसा वह मानसे महान् गोविन्द हंसता हुआ कहता है-इस धरतीपर जो मूर्ख और स्वच्छन्द मुझसे कर मांगता है मैं उसको भस्म करता हूँ और दर्पहीन बनाता हूँ। जिनके हाथमें तलवार है, ऐसे शत्रुओंका क्या माहात्म्य । दुर्नयसे रहित एकमात्र बलभद्रको छोड़कर इस समय कोन स्वामी है? शत्रुओंके लिए कृतान्त मेरे जीते हुए। कानोंके लिए तीरके समान उन सुन्दर अदीन प्रचण्ड वचनोंको सुनकर जिसकी भुजा हर्षित है, ऐसा वह दूत चला गया। हाथीके समान चलनेवाले अपने स्वामीसे उसने यह बात कही कि युद्ध के लिए प्रस्थान कीजिए। हे देव, वह सन्धि नहीं करता, लक्ष्मी और इन्द्राणी स्त्रियोंके लिए चंचल कृष्ण बहुत भयंकर है। __घत्ता-मधुक्रोड़ तत्काल सन्नद्ध हो गया, आन्दोलित ध्वज वह कहीं भी नहीं समा सका। बजते हुए नगाड़ों और परिवारके साथ मधुक्रोड़ दौड़ा ॥११।। १२ स्त्रियोंका दमन करनेवाले शत्रुआगमन और स्वजनोंको सतानेवाले वचनोंको सुनकर, ११. १. A तो । २. भमइ स छंदो । ३. A मंगह। ४. A करुणाजुत्ता। ५. AP महुकोलउ । Page #397 -------------------------------------------------------------------------- ________________ महापुराण [ ५९.१२.३जोइयमुयबल णिग्गय हरि बल। झल्लरि वज्जइ दुंदुहि गज्जइ। संचल्लिय चमु हुउ महिविब्भमु । उक्खयखग्गई सेण्णइं लग्गई। भडकडवेहणि मोडियसंदणि। फाडियधयवडि तोडियगयगुडि। पहरणसंकडि विहडावियघडि । सुरवरदारुणि णवकोवारुणि। देहवियारणि खेयरमारणि । चुयजंपाणइ खलियविवाणइ। कुरयंधारइ घेणुटकारइ। धाइयबाण लुयर्तणुताणइ। रुहिरज्झलझलि परवरगोंदलि। मारियवारणि तहिं पइसिवि रणि । घत्ता-पडिसत्तुं वुत्तउं एउं अजुत्तउं जं मई सहुँ रणि जुज्झहि ॥ तहुं भिच्चु कुलीणउ हउं तुह राणउ एत्तिउं कज्जु ण बुज्झहि ॥१२॥ दे देहि कप्पु पई गिलंउ अज्जु ता भणि तेण मा कालसप्पु। अणुहुँजि रज्जु । दामोयरेण । अपना बाहुबल देखते हुए नारायणकी सेना निकली। झल्लरी बज उठी, दुन्दुभि गरजी । सेनाने कूच किया। मतिभ्रम होने लगा। तलवार उठाये हुए सेनाएँ भिड़ गयीं। जिसमें योद्धाओंका कचूमर हो रहा है, रथ मोड़े जा रहे हैं, ध्वजपट फाड़े जा रहे हैं, हाथियोंके कवच तोड़े जा रहे हैं, हथियारोंका जमघट हो रहा है, गजघटा विघटित हो रही है, जो सुरवरोंसे भयंकर है, नवकोपसे अरुण है, जो शरीरका विदारण करनेवाला और विद्याधरोंको मारनेवाला है, जिसमें जवान च्युत हो रहे हैं, विमान स्खलित हो रहे हैं, पृथ्वीकी धूलसे अन्धकार हो रहा है, जिसमें धनुषकी टंकार हो रही है, बाण दौड़ रहे हैं, शरीरके कवच काटे जा रहे हैं, रुधिर चमक रहा है, नरवरोंकी हषध्वनि हो रही है, जिसमें गज मारे जा रहे हैं, ऐसे उस रणमें प्रवेश कर घत्ता-प्रतिशत्रुने कहा, "यह अनुचित है कि जो तुम मेरे साथ युद्ध में लड़ते हो। तुम भृत्य हो, मैं कुलोन । में तुम्हारा राजा हूँ, तुम इतना काम भी नहीं समझते ॥१२॥ तुम कर दे दो, कहीं तुम्हें आज कालसर्प न निगल ले। तुम राज्यका भोग करो।" तब १२. १. A जोइवि। २. AP°मणि । ३. P पाडियं । ४. P°ह्यगुडि । ५. AP अलिझंकारह । ६. A°तणताणइ । ७. A पडिसत्तें। १३. १. P गिलइ । Page #398 -------------------------------------------------------------------------- ________________ -५९. १३. २३ ] महाकवि पुष्पदन्त विरचित ३५१ को एत्थु सामि कहु तणिय भूमि । कुलभूसणम्मि सिरिसासणम्मि। भणु लिहिय कासु बलु जासु तासु। इय वजरंत अमरिसफुरंत। आउहई लेवि अभिट्ट बे वि। . ते वरणरिंद पडिहरिउविंद । कयरोलियाउ दाढालियाउ। पिंगच्छियाउ बीहच्छयाउ। फणिकंकणाउ लंबियथणाउ। उक्केसियाउ रिउपेसियाउ। बहुरूविणीउ सुरकामिणीउ। कण्हें हयाउ णासिवि गया। परणिकिवेण करिउरणिवेण । चालिवि गुरुक्कु उम्मुक्कु चक्कु । आरालिफुरिउ . कण्हेण धरि । दाहिणकरेण णं गहवरेण । कसणेण तंबु णवभाणुबिंबु । पुणु भणिउ पिसुगु महुकील णिसुणु । घत्ता-रे रे रिउकुंजर दढदीहरकर सीरिहि सरणु पढुक्कहि ॥ एवहिं असिजीहहु महुँ णरसीहहु कमि पंडियउ कहिं चुकहि ॥१३॥ उस दामोदरने कहा- “यहाँ कोन स्वामी है, और किसकी भूमि है ? बताओ कुलभूषण किसके श्री-शासनमें धरती लिखी हुई है ? जिसके पास बल है, धरती उसकी। (जिसकी लाठी उसकी भैंस)," यह कहते हुए तथा अमर्षसे विस्फुरित होते हुए नारायण और प्रतिनारायण वे दोनों श्रेष्ठ नर हथियार लेकर लड़ने लगे। जिसने भयंकर शब्द किया है, जो दाढ़ोंसे युक्त है, जो पीली और भयंकर आँखोंवाली, नागों, वलय पहने हुए लम्बे स्तनोंवाली तथा उठे हुए बालोंवाली। शत्रुके द्वारा प्रेषित, ऐसी वह बहुरूपिणी देवविद्या कामिनी, नारायणके द्वारा आहत होकर भाग गयी। तब शत्रुके लिए निर्दय, गजपुरनरेश मधुकोड़ने चलाकर भारी चक्र छोड़ा। आराओंसे स्फुरित उस चक्रको कृष्णने अपने दायें हाथसे इस प्रकार पकड़ लिया मानो काले ग्रहवरने हने ) लाल-लाल नव-भानुबिम्ब पकड़ लिया हो। नारायणने कहा-“हे दुष्ट मधुक्रीड़, सुन । - पत्ता-हे दृढ़कर शत्रुगज, तुम बलभद्रको शरणमें आ जाओ। इस समय तलवार जिसकी जीभ है, ऐसे मुझ जैसे नरसिंहके चरणोंमें पड़े हुए तुम कैसे बच सकते हो"॥१३॥ २. A अमरिसु । ३. AP बीहच्छियाउ । ४. A उक्कोसियाउ । ५. AP परिमुक्कु । ६. P वरसीहह । ७. A कमपडियउ । Page #399 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३५२ महापुराण [ ५९. १४.१ इय भणिवि सयडंगु अणेण पमेल्लियउं उरयलु वइरिहि विउलु वियरिवि घल्लियउं । दो वि पंचचालीसधणुण्णयदेहधेर सुहं दहलक्खइं वरिसह थिय मुंजंत धर । ते हलहरहरिराणा मंगलभासिणिइ वीर बे वि आलिंगिय विजयविलासिणिइ । खयकाले मुसुमूरिउ पुरिससीहु गहिरि रउरवि रणरवि णिव डिउ सत्तममहि विवरि । ५ भाइपेउ सक्कारिवि सीहसेणतणउ धम्महु सरणु पइटुउ रामु सुदंसणउ। . छट्ठमउववासहिं दसमदुवालसहि। परवसलद्धाहारहिं विलवणणीरसहिं। रुक्खमूलवहि सयणहिं रवियरतावणहिं कम्मकंदु णिल्लूरिवि मुणिगुणभावणहिं । मुवणत्तयसिहरग्गहु मोक्खहु णिक्कलहु णिक्कसायणीरायहु गउ सो णिकलहु । मुणिगणिंदु आहासइ गोत्तमु विप्पसुउ फणिकिणरविजाहरगणगंधवथुउ। घत्ता-मागहणिव मण्णहि पुणु आयण्णहि चरिउं चक्कणेयारहं ।। संगामसमत्थहं तइयचउत्थहं मघवंसणाइकुमारहं ॥१४॥ पडिवइरिइ हइ णिवडिइ तमतमधरणियलि गिद्धखद्धमणुअंतइ वित्तइ भडतुमुलि । यह कहकर नारायणने चक्र चला दिया, तथा शत्रुके विशाल उरतलको भेदकर डाल दिया। पैंतालीस धनुष ऊँचे शरीर धारण करनेवाले वे दोनों ही ( नारायण और बलभद्र ) सुखपूर्वक दस लाख वर्षों तक धरतीका भोग करते रहे। वे दोनों ही बलभद्र और नारायण राजा मंगल-भाषिणी (सरस्वती) तथा विजयविलासिनी (विजयलक्ष्मी ) के द्वारा आलिंगित थे। क्षयकालके द्वारा मसला गया पुरुषसिंह गम्भीर भयंकर तथा युद्धके कोलाहलसे परिपूर्ण सातवें नरकके बिलमें गया। सिंहसेनके पुत्र ( बलभद्र ) ने भाईके शवका संस्कार कर राम सुदर्शन ( बलभद्र ) धर्मनाथकी शरणमें चले गये। छह, आठ, दस और बारह उपवासों, नमक रहित दूसरोंके द्वारा दिये गये आहारों, वृक्षोंके मूल पथपर शयनों, सूर्यकिरणोंके तपनों और मुनिगणकी भावनाओंके द्वारा कर्मरूपी अंकुरको नष्ट कर वह भुवनत्रयके शिखरके अग्रभागमें स्थित, निष्पाप, कषाय और रागसे रहित और शरीर रहित मोक्षके लिए चले गये। मुनिगणनाथ विप्र, पुत्र, नाग, किन्नर, विद्याधरगण और गन्धर्वोके द्वारा संस्तुत गौतम कहते हैं । घत्ता-“हे मगधराजा, तुम संग्राममें समर्थ तीसरे और चौथे चक्रके स्वामी मघवा और सनत् कुमारके चरितको सुनो और फिर विश्वास करो" ||१४|| प्रतिशत्रु (प्रतिनारायण मधुक्रोड़) के मारे जाने और तमतमप्रभा धरणीतलमें पतन होनेपर, जिसमें गिद्धोंके द्वारा मनुष्यको आँतें खायी गयी हैं, ऐसी भटभिड़न्त समाप्त होनेपर, भयंकर १४. १. A °देहवर । २. A सुहदह । ३. A°हरिणामि । ४. A रणयविणिवडिउ । ५. A भाइदेहु । ६. A णिक्कसाउ णोराउ सुदंसणु णिच्चलहु । ७. A गणिमुणिंदु । ८. AP°विज्जाहरवरं । ९. P°गंधथु । १०. P मघवासणईकुमारहं । Page #400 -------------------------------------------------------------------------- ________________ -५९. १५. २२ ] महाकवि पुष्पदन्त विरचित ३५३ दामोयरि गइ णरयहु भीमरहंगकरि मारवियारणिवारइ णिवइ सीरधरि । दीहेकाल वोलीणइ णरणियराउहरि __धम्मणाहतित्थंतरि बयणसं तियरि । सुणि जे जाया भारहि भासुरचक्कवइ बेण्णि सयलइलपोलय जिणकमणि हियमइ । एत्थु खेत्ति महिमंडलि णयरि विचित्तधरि . मोरकीरकुरराउलि सीमारामसरि । तिथि वासुपुजेसहु दुद्धर वय धरिवि णरवइ णामें राणउ दुक्करु तउ करिवि । हुउ मज्झिमगेवजहि अहममराहिवइ जिणधम्में पाविज्जइ सासयसोक्खगइ । कवणु गहणु देवत्तणु परियत्तणसहि उं एउं बप्प मइं जाणिउं लोएहिं वि कहि उं । सत्तवीससायरखइ जायउं मरणु सुरि ___ सउहावलिसिहरुभडि सिरिसाकेयपुरि । इह सुमित्तणरणाहहु सुहिसंमाणियहि - हंसवंसकलसद्दहि भद्दाराणियहि । मघउ णाम हूयउ सुउ सुयणाणंदयरु असियरपसमियरिउतमु भैमिउ णिवदिवसयरु । चक्रको हाथमें रखनेवाले नारायणके नरक जानेपर, कामदेवके विकारका निवारण करनेवाले बलभद्रके निर्वाण प्राप्त कर लेनेपर, नरसमूहकी आयुका क्षय करनेवाले तथा बुधजनोंको शान्ति प्रदान करनेवाले धर्मनाथके तीर्थकालका लम्बा समय बीतनेपर भारतमें जो चक्रवर्ती हुए उन्हें सुनो। वे दोनों ही धरतीका पालन करनेवाले और जिनवरके चरणों में अपनी मति रखते थे। इसी भरत क्षेत्रके महीमण्डलमें विचित्र घरोंकी नगरी थी जो मोर, कीर और करर पक्षियों के शब्दोंसे व्याप्त और सीमोद्यानों तथा नदियोंसे युक्त थी। वासुपूज्यके तीर्थकालमें नरपति नामका राजा कठोर व्रत धारण कर और दुष्कर तप कर मध्यम ग्रैवेयक विमानमें अहमेन्द्र देव हुआ। जिनधर्मसे शाश्वत सुख गति पायी जा सकती है, फिर परिवर्तनशील देवत्वको ग्रहण करनेसे क्या ? इस बातको मैं बेचारा जानता हूँ और लोगोंने भी यही कहा है। सत्ताईस सागर समय बीतनेपर देवकी मृत्यु हुई। सौधावलियोंके शिखरोंसे उद्भट श्री साकेतपुरीमें राजा सुमित्रकी सज्जनोंके द्वारा सम्माननीय, हंसकुलके शब्दवाली भद्रा नामकी रानीसे सुजनोंको आनन्द देनेवाला मघवा नामका पुत्र हआ। वह अपनी तलवाररूपी किरणसे शत्ररूपी अन्धकारको शान्त करनेवाला घूमता हुआ नव दिनकर था। १५. १. AP सीरहरि । २. A दोहकालु; P दोहकालि । ३. P°णिरयाउं । ४. A धम्मदेवतित्थकरि; P धम्मदेवतित्थंतरि । ५. AP"इलवालय । ६. A विचित्तयरि। ७. Pणाम। ८. P भमिउ जि दिवसयरु । Page #401 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३५४ महापुराण [ ५९. १५. २३घत्ता-जिउ मागहुँ वरतणु सुरखेयरगणु जट्टमालितुहिणामरु । ''वसिकिय मंदाइणि साहिवि मेइणि पुणरवि आयउ णिययघरु ।।१५।। दोचालीससद्धधणुतुंगं कणयच्छवि णं मंदिरसिंगं । अंगं तस्स सुलक्खणवंतं कामिणिमणसंखोहणवंतं । पंचलक्खव रिसह बद्धाउ णिञ्चं सिद्धसमीहियधाउ। दिव्वकामभोएं भोत्तणं चक्कवट्टिरिद्धि मोत्तणं । प्रियमित्तहु पुत्तहु दाऊणं सव्वं जिणतञ्चं णाऊणं । मणहरउज्जाणं गंतूणं अभयघोसदेवं थोत्तूणं । गहिउं दिक्खं सहिउं दुक्खं जिणि तण्हं णिदं मुक्खं । मघवंतो पयणयमघवंतो रयपरिचत्तो मोक्खं पत्तो। घत्ता-जहिं कामु ण कामिणि दिणु णउ जामिणि ताराणाहु ण णेसरु ॥ जहिं वसइ ण सज्जणु भसइ ण दुजणु तहिं थिउ मघवमहेसरु ॥१६॥ काले जंतें अवरु जिह मुंवु उप्पण्णउ कह मि तिह । चिंधचीरचुंबियखयलि इह विणीयपुरि छुहधवलि । घत्ता-उसने मागध वरतनुको जीत लिया। देव-विद्याधर-गण, नृत्यमाल और हेमन्तकुमारको जीत लिया। मन्दाकिनीको अपने वशमें कर लिया। इस प्रकार धरतीको सिद्ध कर वह पूनः अपने घर आ गया ||१५|| १६ उसका शरीर साढ़े चालीस धनुष ऊंचा था स्वर्णकी छविवाला, मानो मन्दराचलका शिखर हो। उसका शरीर सुन्दर तथा अच्छे लक्षणोंसे युक्त था, यह कामिनीके मनको क्षुब्ध करनेवाला था। उसकी आयु पांच लाख वर्ष की थी और नवनिधानरूप स्वर्णादि धातुएं उसे नित्यरूपसे सिद्ध थीं। दिव्य कामभोग भोगकर, चक्रवर्तीकी ऋद्धिको छोड़कर, अपने पुत्र प्रियमित्रको देकर, समस्त जिनतत्त्वको जानकर, मनहर उद्यानमें जाकर, अभयघोष देवकी स्तुति कर उसने दीक्षा ले ली, दुःख सहा, तृष्णा, निद्रा और भूख जीत ली। जिसके चरणोंमें इन्द्र प्रणत है, ऐसा मघवा चक्रवर्ती कर्मरजसे परित्यक्त होकर मोक्ष गया। पत्ता-जहाँ न काम है और न कामिनी । न दिन है और न यामिनी। न चन्द्रमा है और न सूर्य। जहाँ न दुर्जन रहता है, और न सज्जन बोलता है। मघवा महेश्वर वहाँ निवास करता है ॥१६॥ समय बीतने पर जिस प्रकार एक और राजा हुआ, मैं उसो प्रकार उसकी कथा कहता हूँ। ९. A मागहवर । १०. P°मालिरु तुहिणामरु । ११. AP वसिकय । १६.१. A मंदरसिंग; P मंदरे सिंगं । २. A रिद्धी मोत्तणं । ३. AP पियमित्तह । १७.१. A णिव; P णिउ । Page #402 -------------------------------------------------------------------------- ________________ -५९. १८.४] महाकवि पुष्पदन्त विरचित सूरवंसणहदिणयरउ धीरउ पयपालणणिरउ। पहु अणंतवीरिउ वसइ तहु महऐवी घरिणि सइ। हरि करि विसवइ कुमुयपिउ जोइवि सिविणय गलिणहिउ । अच्चुयकप्पहु ओयरिउ सुरेसिसु उयरि ताइ धरिउ । किणरवीणारवझुणिउ पुणु णवमासहिं संजणिउ । विरइयणामकरणविहिहिं सणकुमारु कोक्किउ सुहिहिं । तेण समुहणियंसणिय चउदहरयणविहूसणिय । घणणंदणवणकोंतलिय गंगाजलचेलंचलिय। बहुणरिंदकोड्डावणिय गरुयगिरिंदसिहरथणिय । छक्खंड वि महि जित किह णिहिघडधारिणि दासि जिह । पुव्वभणियधणुतुंगयरु तिणि लक्ख वरिसाउधरु । घत्ता-बत्तीससहासहिं मउडविहूसहिं णरणाहहिं पणविज्जइ ।। जो सयलमहीसरु णरपरमेसरु तासु काई वणिजइ ॥१७॥ १८ रंभापारंभियतंडवइ तावेकहिं दिणि मणिमंडवइ। अत्थाणि परिट्ठिउ सक्कु जहिं आलाव जाय सुरवरहिं तहिं । भो अस्थि णस्थि किं सुहयरहु णरलोइ रूउ कासु वि णरहु । तं णिसुणिवि भणइ सुराहिवइ जो संपइ वट्टइ चक्कवइ । जिसके ध्वजपटोंसे आकाश चुम्बित है ऐसे चूनेसे सफेद विनीतपुरमें सूर्यवंशरूपी आकाशका दिनकर, धीर, प्रजापालनमें लीन राजा अनन्तवीर्य निवास करता था। उसकी गृहिणी महादेवी सती थी। स्वप्नमें सिंह, गज, बैल, चन्द्रमा और सूर्य देखकर उसने अच्युत स्वर्गसे अवतरित देवशिशुको अपने उदरमें धारण किया। और फिर नौ माहमें किन्नरोंके वीणारवसे ध्वनित पुत्रको उसने जन्म दिया। नामकरण-विधि करनेवाले सुधियोंने उसे सनत्कुमार कहकर पुकारा। उसने, समुद्र जिसका वसन है, चौदह रत्न जिसके विभूषण हैं, सघन नन्दनवन जिसके कुन्तल हैं, गंगाजल जिसका वस्त्रांचल है, जो अनेक राजाओंको कुतूहल उत्पन्न करनेवाली है, भारी गिरीन्द्र शिखर, जिसके स्तन हैं, ऐसी छह खण्ड धरतो उसने इस तरह जोत ली मानो निधिघट धारण करनेवाली गृहदासी हो। उसका शरीर पूर्वोक्त धनुषों ( साढ़े चालीस धनुष ) के बराबर ऊंचा था । वह तीन लाख वर्ष आयुको धारण करनेवाला था। पत्ता-वह मुकूट धारण करनेवाले बत्तीस हजार राजाओंके द्वारा प्रणाम किया जाता था। जो समस्त महीश्वर और मनुष्य परमेश्वर था, उसका क्या वर्णन किया जाये ? ||१७|| १८ एक दिन मणिमण्डपमें जब रम्भा अप्सरा ताण्डव नृत्य कर रही थी और इन्द्र दरबारमें बैठा हुआ था, तब देववरोंमें आपस में बातचीत हुई कि "अरे क्या किसी भी शुभकर मनुष्यका नरलोकमें सुन्दर रूप है या नहीं है ?" यह सुनकर इन्द्र कहता है कि "इस समय जो चक्रवर्ती हैं, २. A महदेवी। ३. P णलिणिहिउ । ४. A अवयरिउ। ५. P सुरु सिसु। ६. AP कोतलिया। ७. AP चलिया। ८. A कोडावणिया; P कोडावणिया। ९. AP थणिया। Page #403 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३५६ . महापुराण [ ५९. १८. ५सुरणरकामिणियणणलिणरवि सो सणकुमारु किं दिट्ठ वि। माणुसु णवैत्थि रूउजलउं जेणेहउं भासिङ मोक्कलउं । ता झ ति समागय तियस तहिं अच्छइ वसुहेसरु भवणि जहिं । अवलोइवि णरवइ सुरवरहिं अहिणंदिउ विहुणियसिरकरहिं । रूवें तेल्लोकरूवविजइ . एहउ सुरिंदु दुक्करु हवइ । १० जिणणाहु वि जहिं संसइ चाँइ तहिं अवरु रूउ किर कहिं घडइ । घत्ता-पयडेवि सरूवई सोम्मसहावई विहसि वि देवहिं भासिउं ।। जइ मरणु णे होत उ तो पज्जत्तउ एउ जि रूउ सुहासिउं ॥१८।। ता जरमरणसंद आयण्णिवि मण्णिवि तणु व महियलं । देवकुमारणामे सुइ अॅप्पिवि सतुरंगं समयगलं ॥१॥ णिञ्चतिगुत्तिगुत्तसिवगुत्तमहामुणिपायपंकयं । तेणासंघिऊण पक्खालिय बहुभवपावपंकयं ।।२।। गहियं वीरपुरिसचरियं चित्तं तडिदंडचंचलं । रुद्धं चंडकुसुमसरकंडाडंबरडमरविभलं ।।३।। ससिडिंडीरपिंडपंडुरयरहिमपडछइयदेहयं । वसियं बाहिरम्मि परिसेसियघरपंगुरणणेहयं ॥४॥ सुर-नर-कामिनियोंके नेत्ररूपी कमलोंके लिए सूर्यके समान उस सनत्कुमारको देखा या नहीं।" तब रूपसे सुन्दर मनुष्य है या नहीं, स्वच्छन्द रूपसे जिन देवोंने यह कहा था, वे शीघ्र वहां आये जहां अपने भवनमें वह पृथ्वीश्वर था। सुरवरोंने उसे देखा, और अपने सिर और हाथ हिलाते हुए उसका अभिनन्दन किया। रूपसे त्रिलोकके रूपकी विजयमें यह देवेन्द्र के लिए दुष्कर होगा, इसके रूपको देखकर जिनेन्द्रके रूपमें सन्देह होने लगता है तब वहाँ दूसरा रूप कहाँ गढ़ा जा सकता है ? ___ पत्ता-तब अपने सौम्य-स्वभाव रूपको प्रकट करते हुए देवोंने हँसकर कहा कि यदि मरण न हो, तो यह सराहनीय रूप पर्याप्त है ॥१८॥ १९ तब जरा और मरण शब्द सुनकर और महीतलको तृणके समान समझकर, देवकुमार नामके पुत्रको अश्व और मैगल सहित धरती देकर, नित्य तीन गुप्तियोंसे गुप्त शिवगुप्त महामुनिके चरणकमलोंकी शरणमें जाकर उसने अनेक जन्मके पापोंका प्रक्षालन किया तथा वीर पुरुषके चरितको स्वीकार कर लिया, बिजलीकी तरह चंचल तथा प्रचण्ड कामके बाणोंके आडम्बरके भयसे विह्वल चित्तको रोक लिया। चन्द्र फेन समूहवत् अति धवलवर्ण हिम पटलकी कान्तिके १८. १. Pणेवि । २. A णयत्यि । ३. A वडइ। ४. AP सोम । ५. A ण हंतउ ता; Pण हु तउ तो। १९. १. AP°मरणघोसु । २. AP अप्पवि । ३. A°कंडंडंबर । ४. A पंडुरपरहिम । Page #404 -------------------------------------------------------------------------- ________________ - ५९. १९. १८ ] महाकवि पुष्पदन्त विरचित चलतडयडियपडियसोयामणिता डैणविहडियायलं । सहियं पावसम्म वणतरुतलि विसरिसजलझ लज्झलं ||५|| महिरविडकयविउलविउलयल सिलायलणिहियकाइणं । सूरम्स हिम्मुद्देण सूरेण वरेण विमुक्कराइणं ||६|| सोढुं गंभारवि किरणकलावर्खरवियंभियं । दुद्दमकोह मोहदढलोहमयं णियलं णिसुंभियं ||७|| सहसा दिट्ठसयलसयरायर केवलविमललोयणो । देउ सणकुमारु जइ सुहमइ जायउ सो णिरंजणो ||८|| घत्ता - मइलिउ "मोक्खत्ते कइधिट्ठत्ते काई कइत्तणु पोसइ ॥ भराइणरिंदहं चरिउं अणिदहं पुष्यंतु जइ घोसइ ||१९|| इय ५. ८. महापुराणे विसट्ठिमहापुरिस गुणालंकारे महामन्वमरहाणुमणिए महाकपुष्यंतत्रिरइए महाकव्वे धम्मपरमेट्ठिदंसणपुरिससीहमहुकीलयमघव सणक्कुमारकहंतरं णाम एक्कुणसट्टिमो परिच्छेओ समत्तो ॥ ५९ ॥ समान देहवाले वह घर और वस्त्रका मोह छोड़कर बाहर निवास करने लगे । पावस ऋतुमें वह वनवृक्ष के नीचे, चंचल तड़-तड़ कर गिरती हुई बिजलीसे जिसका अयाल विघटित है, ऐसी असामान्य जलधाराको सहन करते हैं । जिसने महीधरोंके विकट कटकों के समान विपुलसे विपुलतर शिलातलपर अपना शरीर रखा है, ऐसे रागसे मुक्त उस श्रेष्ठ वीरने सूर्यके सम्मुख होकर, ग्रीष्मकाल की रविकिरण-समूहके प्रखर विस्तारको सहकर, दुर्दम क्रोध मोह और दृढ़ लोभमय श्रृंखलाको नष्ट कर दिया। जिससे सकल सचराचर देख लिया जाता है ऐसे केवलज्ञानरूपी नेत्रवाला शुभमति वह सनत्कुमार निरंजन देव हो गया । इस प्रकार त्रेसठ महापुरुषोंके गुणालंकारोंसे युक्त, महापुराण में महाकवि पुष्पदन्त द्वारा रचित एवं महाभव्य भरत द्वारा अनुमत महाकाव्य में धर्मनाथ परमेष्ठी सुदर्शन पुरुषसिंह मधुक्रीड़, मघवा और सनत्कुमार कथान्तर नामका उनसठवाँ परिच्छेद समाप्त हुआ ॥ ५९ ॥ ३५७ घत्ता - मूर्खता और कवि की घृष्टतासे मलिन कवित्वका पोषण क्यों किया जाता है कि जब पुष्पदन्त कवि अनिन्द्य भरत आदिका चरित घोषित करता है ॥ १९ ॥ १० १५ विणण-विहडिया | ६. AP °वियल । ७. A सूरशिहिमुहेण; P सूरराहिमुहेण । खरं वियंभियं । ९. AP जाओ । १०. AP मुक्खत्तें । Page #405 -------------------------------------------------------------------------- ________________ संधि ६० दुक्कियपसरणिवारओ मोहमहारिउमारओ जो दीणेसु किवारओ॥ जो सासयसिवमारओ ॥ध्रुवक।। पंचमचकहरो णरईसो सोलहमो परमेट्टि पसण्णो तत्तसमुज्जलकंचणवण्णो केवलणाणमहामयमेहो भूसणभारविवज्जियकण्णो जो छणयंदकरावलिकतो भत्तजणत्तिहरो भयवंतो फुल्लियकोमलपंकयवत्तो संतियरो भुवणुत्तमसत्तो घत्ता-सो भवसायरतारओ णियसुकइत्तु पयासमि जेण णिओ समणं ण रईसो। सुत्तणिसेहियपेसिपसण्णो । णायणि उत्तचउठिवहवण्णो। भव्वसमूहणिरूवियमेहो। पंगणणच्चियखेयरकण्णो। संतसहावो उज्झियकंतो। जो गिरिधीरो णो भयवंतो। धत्थकुतित्थ सुतित्थपवत्तो। वुड्ढदयो परिरक्खियसत्तो। पणविवि संतिभडारओ। तासु जि चरिउं समासमि ॥१॥ १० सन्धि ६० जो पापके प्रसारका निवारण करनेवाले और दीनोंमें कृपारत हैं । जो मोहरूपी महाशत्रुका नाश करनेवाले और शाश्वत शिवलक्ष्मीमें रत हैं। जो पांचवें चक्रवर्ती हैं, मनुष्योंके ईश जिन्होंने कामको अपने मनके पास नहीं फटकने दिया, जो प्रसन्न सोलहवें तीर्थंकर हैं। जिन्होंने अपने सूत्रों ( सिद्धान्तों ) से मदिरा और मांसका निषेध किया है, जो तत्त्वसे समुज्ज्वल और स्वर्ण वर्णवाले हैं, जिन्होंने चारों वर्णों को न्यायमें नियुक्त किया है, जो केवलज्ञानरूपी महामेघजलवाले हैं, जिनके द्वारा भव्यजनोंकी मेधा (बुद्धि) का निरूपण किया गया है, जिनके कान भूषणोंके भारसे विवजित हैं, जिनके प्रांगणमें विद्याधरकन्याएं नृत्य करती हैं, जो पूर्ण चन्द्रकी किरणावलोके समान सुन्दर हैं, जो भक्तजनोंकी पीड़ा दूर करनेवाले हैं, जो ज्ञानवान हैं, जो पर्वतकी तरह धीर हैं, जो भययुक्त नहीं हैं, जिनका मुख खिले हुए कोमल कमलके समान है, जो कुतीर्थोको ध्वस्त करनेवाले और सुतीर्थोंका प्रवर्तन करनेवाले हैं. जो शान्ति करनेवाले और भवनमें सर्वश्रेष्ठ हैं, जो दयामें वृद्ध और प्राणियोंकी रक्षा करनेवाले हैं। घत्ता-ऐसे भवसमुद्रसे तारनेवाले शान्ति भट्टारकको प्रणाम कर, अपने सुकवित्वका प्रकाशन करता हूँ और उनके चरितका संक्षेपमें कथन करता हूँ ॥१॥ १. १. A छणइंद। Page #406 -------------------------------------------------------------------------- ________________ -६०.३.३] महाकवि पुष्पदन्त विरचित ३५९ जंबूदीवि भरहि विजयाचलु अहिणवचंदणचंपयपरिमलु । जहिं सुरणारिहिं गेयपवीणहिं सरु सुम्मइ वज्जंतहि वीणहि । जहिं रिसिवसइ अछित्तु अहंस जसु मेहल सेविजइ हंसे । जहिं जं भूसिज्जइ सरकंक णिम्मलु तं वणिजइ के के। जहिं केवलि णिव्वाणपयं गउ । जहिं मणियरहि ण दिट्ठ पयंगउ । फलिहसिलायलि जहिं मायंगहि । मुँहुं दिजइ जोइयणिययंगहिं । दाहिणसे ढिहि तहि रहणेउरु पुरु णारियणरणियपयणेउरु । तेत्थु जलणजडि णिवसइ खगवइ विणेओणयसिरु णारइ खगवइ। णियजसेण कंतह चंदाहह तिलयणयरणाहहु चंदाहहु । तासु सुहहदेवि पियराणी णं आसीस पुवपियराणी। घत्ता-ताहं बिहिं मि सुय हुई णं रइणाहहु दुई। वाउवेय सा एयहु दिण्णी दिणयरतेयहु ॥२॥ ३ सिहिजेडिणामहु जयसिरिधामहु रूउद्दामहु णिज्जियकामहु । अक्ककित्ति सुउ.जायउ केहउ खत्तधम्मु णरवेसे जेहउ । अवर वि चंदसरीरइ णं पह उप्पण्णी सुय णाम सर्यपह । २ जम्बूद्वीपके भरतक्षेत्रमें अभिनव चन्दन और चम्पक परिमलसे युक्त विजयाध नामका पर्वत है जहां गीतमें प्रवीण सुरनारियों और बजती हुई वीणाका स्वर सुना जाता है। जहाँ ऋषियोंकी बस्ती है और जो पापांशसे अछूता है, जिसकी मेखला हंसके द्वारा सेवित है। जहाँ जो जल जलबकसे भूषित हैं निर्मल उस जलका मैं क्या वर्णन करूं.? जहां केवलियोंने निर्वाण प्राप्त किया। जहाँ मणिकिरणोंके कारण सूर्य दिखाई नहीं देता। जिन्होंने अपने शरीरका प्रतिबिम्ब देखा है ऐसे हाथी जहां स्फटिक शिलाओंपर अपना मुंह देखते हैं। उस पर्वतको दक्षिण श्रेणीमें रथनूपुर नगर है, जिसमें नारीजनोंके नूपुरोंकी रुनझुन सुनाई देती है। उसमें ज्वलनजटी नामका विद्याधर निवास करता था। अपने यशसे कान्त चन्द्रके समान आभावाले तिलकनगरके राजा चन्द्राभको सुभद्रादेवी नामकी प्रिय रानी थी, जो मानो पूर्वजोंका आशीर्वाद थी। पत्ता-उन दोनोंके एक पुत्री हुई जो मानो कामदेवकी दूती थी। वह वायुवेगा (कन्या) दिनकरके समान तेजवाले इसे ( ज्वलनजटो ) को दी गयी ॥२॥ विजयश्रीके घर कामको जीतनेवाले और रूपमें उत्कट ज्वलनजटीका अर्ककीर्ति नामका ऐसा पुत्र हुआ, जो मनुष्यके रूपमें जैसे छात्रधर्म हो। और भी उसे चन्द्रमाके शरीरसे प्रभाके २. १.A सुरु । २. A सरु कंकें। ३. A मणिणियरहिं । ४. AP महुँ । ५. A णारीयण । ६. A विणउण्णय । ३. १. A सिहजडि । २. A रूवोदामह । Page #407 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३६० [६०.३.४ महापुराण देसि सुरम्मइ पंकयणेत्तहु पोयणणयरि पयावइपुत्तहु । विजयाणुयहु महाहवपबलहु कोडिसिलासंचालणधवलहु । मुसुमूरियकंठीरवकंठहु दिण्णी पढमहु हरिहि तिविट्ठहु । जणिउ ताइ सिसु सिरिविजयंकउ । विजयभद्दु कंतीइ ससंक। उत्तरसेढिहि वसियंतेउरि पुरि सुरिंदकंतारि सुगोउरि । घत्ता-परिहावलयसुदुग्गमि रयणदीवणासियतमि ।। पंचवण्णधयसोहणि देवदेविमणमोहणि ॥३॥ खयरु मेहवाहणु पीणत्थणि णाम मेहमालिणि तहु पणइणि । जुइमाला णामें सुय वल्लह ढोइय रविकित्तिहि परदुल्लह । परिणिय पुत्तु तेण तहि जायउ अमियतेउ णामें विक्खायउ । धीय सुतार तारवरलोयण सुंदरि मुणिहिं वि कामुक्कोयण । ताएं पोढत्तणि कयपणयहु दिण्णी सिरिविजयहु ससतणयहु । अमियतेउ भल्लारउ भाविउ जुइवह सुय कण्हें परिणाविउ । मुत्तर तेण णिबद्ध णियाणउं पत्तउ काले अव हियठाणउ । सिरि सिरिविजयहु देवि हियत्ते कामभोयपरिभारविरतं । विजएं तउँ लइयउं आयण्णिवि वित्तु कलत्तु वि तिणेसमु मणिवि । समान स्वयंप्रभा नामकी कन्या उत्पन्न हुई। सुरम्य देशके पोदनपुर नगरमें कमलके समान नेत्रोंवाले. प्रजापतिके पत्र विजयके छोटे भाई महायदोंमें प्रबल. कोटिशिला संचालन सिंहोंकी गरदनोंको मरोड़नेवाले प्रथम नारायण त्रिपृष्ठको वह कन्या दो गयी। उससे श्रीविजयांक पुत्र उत्पन्न हुआ। और कान्तिमें चन्द्रमाके समान दूसरा विजयभद्र। विजया पर्वतकी उत्तर श्रेणीमें जिसमें अन्तःपुर हैं, ऐसा सुन्दर गोपुरवाला सुरेन्द्रकान्तार नगर है। __घत्ता-जो परिखा वलयसे अत्यन्त दुर्गम है, जिसमें रत्नद्वीपोंसे अन्धकार नष्ट हो गया है, जो पंचरंगे ध्वजोंसे शोभित है तथा देव और देवियोंका मन मुग्ध कर लेता है ।।३।। उसमें मेघवाहन नामका विद्याधर राजा था। उसकी प्रिय गृहिणी पोन स्तनोंवाली मेघमालिनी थी। उसकी ज्योतिर्माला नामको प्रिय पुत्री थी, शत्रुओंके लिए दुर्लभ जो अर्ककोतिके लिए दो गई। उसने उससे विवाह कर लिया। वहां अमिततेज नामका पुत्र हुआ। स्वच्छ और श्रेष्ठ आँखोंवाली सुतार नामक कन्या हुई। वह सुन्दरी मुनियोंको भी कामकुतूहल उत्पन्न करनेवाली थी। प्रौढ़ होनेपर पिताने प्रणय करनेवाले अपनी बहनके लड़के श्रीविजयको उसे दे दिया। अमिततेज बहुत भला था। नारायणने ज्योतिप्रभा उसे ब्याह दी। इस प्रकार उसने अपने बांधे हुए निदानका भोग किया, और समय आनेपर नरकभूमिमें पहुंचा । कामभोगके परिभारसे विरक्त हृदय विजयने लक्ष्मी श्रीविजयको देकर तप ले लिया है, यह सुनकर धन और ३. A देससुरम्मइ । ४. १. AP तेण पुत्तु । २. AP णिबद्ध । ३. A अवहियट्ठाणउ; P अवहिठ्ठाणिउ । ४. P वउ । ५. AP तिणसउं । Page #408 -------------------------------------------------------------------------- ________________ -६०. ४.१०] महाकवि पुष्पदन्त विरचित अमियतेज णियरजि थवेप्पिणु भत्तिइ तउ तिव्वयरु तवेप्पिणु । अक्ककित्ति जइवइ गउ मोक्खहु मुक्कउ भवसंसरणहु दुक्खहु । विजयभदु सिरिविजयहु वच्छलु जिह तिह अमियतेउ णिरु णेहलु । पाहुडगमणागमणपवाह जाइ कालु बंधुहुँ उच्छाहे । घत्ता-जा तावेक्कु सुसोत्तिउ तहिं आयउ णिम्मित्तिउँ ।। सत्तमि दिणि जं होसइ तं सिरिविजयहु घोसइ ॥४॥ अरिपुरवरणिवसावयवाहहु तडि णिव डेसइ पोयणणाहहु । तडयडंति सिरि दत्ति भयंकरि सहसा दविप्राणखयकरि। विजयभद्दु पभणइ रे बंभण णिय सज्जणहिययणिसुंभण । जइ रायहु सिरि विज्जु पडेसइ तो तुहुँ सिरि भणु किं णिवडेसइ। तं आयण्णिवि तणुविच्छायहु दियवरु आहासइ जुवरायहु । पत्थिव महु मत्थइ मलमुक्कई णिव डिहिंति गाणामाणिकई। मरणवयणवाएं विदाणउ तहिं अवसरि सई पुच्छइ राणउ । को तुहं कासु पासि कहिं सिक्खिउ के भविस्सु बप्प पई लक्खि । अक्खइ सुत्तकंठु पुहईसहु हउं पवइयउ समउं हलीसह । गउ विहरंतु देसि पुरु कुंडलु णं महिणारिहि परिहिउ कुंडलु । कलत्रको तृगके समान समझकर, अमिततेजको अपने राज्यमें स्थापित कर, भक्तिसे तीव्रतम तप तपकर यतिपति अकीर्ति मोक्ष गया और इस प्रकार संसारके दुःखसे दूर हो गया। जिस प्रकार श्रीविजयका प्रिय विजयभद्र, उसी प्रकार और स्नेही अमिततेज, उपहारोंके आने-जानेके प्रवाह और उत्साहसे दोनों बन्धुओंका जब समय बीतने लगा पत्ता-तब एक ज्योतिषी ब्राह्मण वहां आया, और सात दिन बाद जो होनेवाला था, वह उसने श्रीविजयको बताया ॥४॥ "शत्रुनगरके राजारूपी श्वापदके लिए व्याधा पोदनपुरनरेशके सिरपर तड़तड़ करती हुई शीघ्र और अचानक दसों प्राणोंका अन्त करनेवाली भयंकर बिजली गिरेगी।" इसपर विजयभद्र कहता है-“हे निर्दय, सज्जनोंके हृदयको चूर-चूर करनेवाले ब्राह्मण, यदि राजाके सिरपर वज्र गिरेगा, तो तू बता तेरे सिरपर क्या गिरेगा?" यह सुनकर द्विजवर शरीरसे कान्तिहीन युवराजसे कहता है-'हे राजन्, मेरे सिरपर मलसे रहित नाना मणि गिरेंगे।' उस अवसरपर मरण शब्दको हवासे शुष्क राजा स्वयं पूछता है-"तुम कौन हो, किसके पास तुमने कहाँ यह सीखा है ? हे सुभट, तुमने किस प्रकार भविष्य देख लिया ?" ब्राह्मण राजासे कहता है कि "बलभद्रके साथ मैं प्रवजित हुआ था। देशमें विहार करते हुए मैं कुण्डलपुर पहुंचा, जो ऐसा लगता था ६. AP णेमित्तिउ । ५. १. A सिरि दुत्ति; P सिरि दत्ति। २. AP°पाण। ३. AP°वायइ । ४. AP किर । ५. P केम इहु भविस्सु। Page #409 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३६२ महापुराण [६०. ५.११ दूसह विसैयपरीसहभग्गउ काई मि जीवियवित्तिहि लग्गउ । घत्ता-अंतरिक्खसुणिमित्तई सिक्खिउ गहणक्खत्तई ।। भउमु वि खेत्तपमाणसं अंगरं अंगणिवाणउं॥५॥ सरु गंभीरु इयरु उवलक्खिउ विजणु पुणु तिलयाइउं सिक्खिउ । लक्खणाई कमलाई पसत्थई जाणमि मूसयछिण्णई वत्थई। वक्खाणमि जं जिह सिविणंतरु पावइ जेण सुहासुहु णरवरु । तं हउं सिक्खिवि अट्ठपयारउं इय एहउ णिमित्तु सवियारउं । केसरिरहहु पुरोहिउ सुरगुरु तासु वि सीसु विसारउ महुं गुरु । वंदिवि आयउ पोमिणिखेडहु फलिहालंकियकुलिसकवाडहु । सोमसम्मु णियजणणीभायर मई दिट्ठउ तहिं कयपरमायरु । मेलाविउ हउं तेण सैदुहियहि लोमाजणियहि ससहरमुहियहि । ससुरयदिण्णु दव्वु भुंजंतह दोहं मि गलि उ कालु कीलंतहं । हउं पर केवलु पढमि णिमित्तई किं पि वि णिव ण समज मि वित्तई। मामसमप्पिउ कंचणु णिट्ठिउ घरि दालिद्दु रउद्दु परिट्ठिउ । महुँ कडियलि लग्गउं कोवीणउं तो वि ण भासमि कासु वि दीणउं । मानो महीरूपी नारीने कुण्डल पहन लिया हो । असह्य विषय-परिषहसे भग्न होकर मैं किसी प्रकार जीविकावृत्तिमें लग गया। पत्ता-मैंने अन्तरिक्ष-निमित्त विद्या सीखी और ग्रह-नक्षत्रोंकी विद्या सीखी। क्षेत्र प्रमाण सहित भूमिविद्या अंगको रचनासे सम्बन्धित अंग-निमित्त सीखा ||५|| १० सिंह __ और दूसरा गम्भीर स्वर निमित्त सीखा, तिल आदिके द्वारा व्यंजन निमित्त सोखा । कमलादि प्रशस्त लक्षण निमित्त सीखा। चहों आदिके द्वारा काटे गये वस्त्रोंसे सम्बन्धित छिन्न निमित्त मैं जानता हूँ। स्वप्नान्तरमें जो जैसा है उसका व्याख्यान करता हूँ कि जिससे नरवरको शुभाशुभ फल प्राप्त होते हैं। इस प्रकार इन विचारपूर्ण आठ प्रकारके निमित्तोंको सीखकर, रोहित बहस्पति. उनका शिष्य विशारद मेरा गरु है। उनकी वन्दना कर, स्फटिकमणियोंसे अलंकृत वज्र किवाड़वाले पद्मिनीखेट नगरसे आया हूँ। सोमशर्मा मेरी माँका भाई है, अत्यन्त आदर करनेवाले उससे मैं मिला। उसने अपनी कन्या हिरण्यलोमासे मेरा मिलाप करवा दिया (विवाह कर दिया)। ससुरका दिया हुआ धन खाते हुए और क्रीड़ा करते हुए हम दोनोंका समय बीत गया। मैं केवल निमित्तशास्त्रका अध्ययन करता रहता, मैं बिलकुल भी धनका अर्जन नहीं करता। ससुरके द्वारा दिया गया धन नष्ट हो गया और घरमें भयंकर दारिद्रय प्रवेश कर लिया। मेरी कमरमें केवल लँगोटो बची। तब भी मैं किसीसे दोन वचन नहीं कहता था। ६. AP°विसहपरीसह । ६. १. A छिन्नई; P छित्तई। २. P सुदुहियहि । ३. A लोमंजणियहि । ४. AP ससयर । ५. A सुसुरय । Page #410 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३६३ -६०. ७. १२ ] महाकवि पुष्पदन्त विरचित घत्ता-घरिणिइ पसरियदुक्खइ महुं डझंतहु भुक्खइ । भुंज हि भणिवि विसालइ चित्त वराडय थालइ ।।६।। तुहुं महुँ दइवें दिण्ण बंभणु उजंउ करहि ण भरहि कुडुंबउं एम जाम घरणीइ पबो अइणियडउं जि जलणु पज्जालिउ तक्खणि सिहिफुलिंगु उच्छलियउ हउ थिउ तं जोयंतु सइत्त र उत्तरु महुँ ण देसि जपंतिहि जं इंगालउ पडिउ वरालइ जं पई पाणिएण अहिसिंचिउ सा जंपइ पइ बुद्धिहि भुल्लर घत्ता-डज्झउ णिद्धणजंपिउं परु जणवउ कि वुच्चई एत्तिउं तेरउं अच्छइ कुलहणु । लोयणजुयलु करिवि आयंबउं । ता महुं हियवउ णं झसेसल्लि उ । इंधइ इंधणु केण वि चालिउ । आविवि जलयरि गरुयह घिविय। ता कंतइ सिरि सलिलिं सित्तउ । मैई दर विह सिवि भासिउं पत्तिहि । तं तडि पंडिही पोयणपालइ । तं जाणेहि हरयणहिं अंचिउ । चप्फलु झंखइ चंदगहिल्लउ । महुरु वि कण्णहं विप्पिउं ।। कुलघरणिहिं वि ण रुच्चइ ॥७॥ घत्ता-जिसका दुःख बढ़ रहा है ऐसी गृहिणीने भूखसे जलते हुए मुझपर, 'खा लो' कहकर बड़ी-सी थालीमें कौड़ियां डाल दी" ॥६॥ ७ देवने तुम जैसा ब्राह्मण मुझे दिया। तुम्हारा कुल धन इतना ही है, उद्यम कर अपने कुटुम्बका पालन नहीं करते हो-अपनी दोनों आँखें लाल-लाल करते हुए जब इस प्रकार स्त्रीने कहा तो मेरा हृदय प्रज्वलित हो उठा। मेरे अत्यन्त निकट जलती हुई आग थी। किसीने चूल्हे में आग चला दो। तत्क्षण आगको चिनगारो उचटी और आकर विशाल कौड़ीपर गिर पड़ी। मैं सावधान होकर उसे देखता हुआ स्थित था। तब पत्नीने सिरपर उसे सींच दिया। ( बोली) "बोलते हुए मुझे तुम उत्तर नहीं दोगे।" तब मैंने थोड़ा हंसते हुए पत्नीसे कहा-“कौड़ीपर जो अंगारा पड़ा है वह पोदनपुरके राजापर बिजली गिरेगी और जो तुमने पानीसे उसे सींचा है, उससे तुम यह जानो कि मैं रत्नोंसे अंचित होऊँगा?" वह बोली-“पति बुद्धिसे भोला है, चन्द्रमासे अभिभूत (पागल ) वह मिथ्याभाषासे सन्तप्त होता है। पत्ता-निर्धन व्यक्तिके द्वारा कहे हुएको आग लग जाये, मधुर होते हुए भी ( कथन ) कानोंके लिए बुरा लगता है, दूसरे लोग क्या कहेंगे, खुद कुलोन गृहिणीको गरीब ( पति ) की बात अच्छी नहीं लगती' ||७|| ७. १. AP उज्जमु । २. P झससिलिलउ । ३. AP पजालिउ । ४. AP स्यइ जलयरि । ५. AF जं जोयतु। ६. A omits this foot. । ७. P दराडइ। ८. P तडि पडिहीसी। ९. AP जामि । १०. A सइ जंपइ; P स वि जंपद । ११. P चप्पलु। १२. AP रुच्चाइ । Page #411 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३६४ महापुराण [६०.८.१ इय चिंतंतु घरहु णीसरियउ णाम अमोहजीहु ओहच्छमि जइ चक्कर नवे केवलिदिउं सउणु भडारा सञ्चउं सुच्चइ तं तहु भणि उ चित्ति संमाइउ भणइ सुबुद्धि कुलिसमंजूसहि वसहि णराहिव मज्झि समुद्दहु । चवइ सुमइ पइसहि परदुच्चरि मइसायरु भासइण तसिज्जइ जं लिहियतं अग्गइ थक्का घत्ता-सुरमहिहरथिरचित्तें धरियणराहिवमुद्दे हउं तुम्हारइ पुरि अवयरियउ । पट्टणणाहहु पलउ णियच्छमि । तो जाणहि चुक्कइ मई सिट्ठउं । करु पडियारु जेम तुहं रुच्चइ । राएं मंतिहि वयणु पलोइउ । आयससंखलवलयविहूसहि । जेणुव्वरसि सदेह विमबहु । रुप्पय गिरिवरगुहविवरंतरि । णरवइ जिणवरिंदु सुमरिजइ । जमकरणहु मरणहु को चुक्कइ । कयपहुरक्खपयत्तें ॥ भासिउं बुद्धिसमुदें ॥८॥ १० विवरि णिहित्तेउ वित्त पहाणउ गेहि जयंतीपंति हिं वेविइ अच्छइ तीहिं वि संझहिं हायउ सुणि महिवइ दिटुंतकहाण उ । सीह उरइ सिरिरामासेविद । खलु दप्पिटु सोमु परिवाइउ । यह विचार करते हुए घरसे निकल पड़ा और मैं तुम्हारी नगरीमें आया। मेरा नाम अमोघजिह्व है। मैं यहाँ रहता हूँ और नगरके राजाका नाश (प्रलय ) देखता हूँ। हे राजन्, यदि केवलज्ञानीक, कहा चूक सकता है, तो समझ लीजिए कि मेरा कहा भी चूक जायेगा। हे आदरणीय, स्वप्न सच्चा कहा जाता है, तुम्हें जैसा ठीक लगे वैसा प्रतिकार कर लीजिए । तब उसका कहा राजाके चित्तमें समा गया। उसने मन्त्रीका मुख देखा। सुबुद्धि मन्त्री कहता है-"हे राजन्, तुम लोहेको शृंखलाओंके समूहसे अलंकृत वनमंजूषामें स्थित होकर समुद्रके भीतर रहो जिससे तुम अपनी देह के विनाशसे बच सको।" सुमति नामका मन्त्री कहता है कि "दूसरोंके लिए दुर्गम विजयार्ध पर्वतकी गुफाके विवरके भीतर प्रवेश करो।" मतिसागर मन्त्री कहता है-"हे राजन्, आपको पीड़ित नहीं होना चाहिए और जिनवरका स्मरण करना चाहिए। जो लिखा हुआ है, वह आगे आयेगा । यमकरण और मरणसे कौन बचता है ?" पत्ता-सुमेरु पर्वतके समान स्थिर चित्त, तथा जिसने प्रभुकी रक्षाा प्रयत्न किया है और जिसने राजा की मुद्राको धारण किया है ऐसे मतिसागर मन्त्रीने कहा-1८|| "हे राजन्, विवरमें निहित मुख्य वृत्तान्तको दृष्टान्त--कथानकके रूपमें सुनिए-ध्वजपंक्तियोंसे प्रकमिश्त तथा लक्ष्मीरूपी रमणीसे सेवित सिंहपुरमें सोमशर्मा नामका अत्यन्त दुष्ट ८. १.AP जा अच्छमि । २. AP णिव । ३. AP करि । ४. AP जेणुव्वरहि । ९. १. A णिहित्तहु । २. AP सोम्मु परिवायउ । Page #412 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३६५ -६०.१०.५ ] महाकवि पुष्पदन्त विरचित समयंतरपवियारणि जाए सो जिणदासे जित्तु विवाए। दुप्परिणामें मुउ कयमायउ तहिं जि महिसु सविसाणउ जायउ। णासावंस विधिवि साहिउ लोएं लोणु भरेप्पिणु वाहिउ । कालें जंतें जायउ दुब्बलु एम जीउ भुंजइ दुक्कियफलु । गलियसत्ति सो णिव डिवि थकउ णायरणरणिउरुंब मुक्कउ । को वि ण तिणु णउ पाणिउं दावइ सिवि से रिह णियमणि भावइ । जइयहं हउ बलवत होतउ जइयतुं वलइउ भारु वहंत उ । तइयहुँ सयल देति महुं भोयणु __अज्ज ण केण वि किउ अवलोयण । कसमसत्ति दंतेहि दलेवर्ड पुरयणु मई कइयहं वि गिलिव्वउं । घत्ता-इय भरंतु माहिंदउ दुग्गइवेल्लीकंदउ ।। मरिवि भरेण सतामसु हुउ तहिं पिउवणि रक्खसु ।।९।। तेत्थु जि पुरि अण्णायविहूसिउ कुंभ णाम राणउ मंसासिउ । तेण सयलु काणणमृगु खद्धउ हरिणु ससउ सारंगु ण लद्धउ । चिंतइ सूयारउ णिरु णिक्कि उ विणु मासेण ण भुंजइ ध्रुव॑ नृवु । वणयरु गथि केत्थु पावमि पलु आहिंडवि मसाणधरणीयलु । आणिउं घल्लियडिंभयजंगलु जीहालोलहं पेउ जि मंगलु । और घमण्डी परिव्राजक अपने घर में तीन सन्ध्याओंमें स्नान करता हुआ रहता था। जिसमें शस्त्रान्तरोंपर विचार है, ऐसे विवाद में वह जिनदासके द्वारा जीत लिया गया। वह मायावी दुष्परिणामसे मर गया और वहीं सींगोंवाला भैंसा हुआ। उसकी नाक छेदकर साध लिया (वशमें कर लिया) गया और नमक लादकर उसे चलाया। समय बीतनेपर वह दुर्बल हो गया। जीव इसी प्रकार दुष्कृतका फल भोगता है। शक्ति क्षीण हो जाने पर वह गिरकर थक गया। नागरजन समहने उसे मुक्त कर दिया। कोई भी उसे न जल देता और न घास। वह भैंसा अपने मनमें क्रुद्ध होकर विचार करता है कि जब मैं बलवान् था और गोनीका भार ढोता था, तबतक सब लोग मुझे भोजन देते थे। परन्तु आज किसीने मेरी ओर देखा तक नहीं। मैं कसमसाकर दांतोंसे नष्ट कर दूंगा, मैं कब इन पुरजनोंको निगल सकूँगा। पत्ता-दुर्गतिरूपी बेलका अंकुर वह तामसी भैंसा यह स्मरण करता हुआ बोझसे मरकर वहीं मरघटमें राक्षस हुआ ||९|| उसी नगरोमें अज्ञानसे विभूषित कुम्भ नामका मांसभक्षक राजा था। उसने जंगलके सारे पशु खा लिये। जब हरिण, खरगोश और पक्षी नहीं मिले तो निर्दय रसोइया सोचता है कि बिना मांसके राजा निश्वयसे भोजन नहीं करेगा। वनपशु नहीं हैं, मांस कैसे पा सकता हूँ। मरघटकी धरतीपर घूमकर वह पड़े हुए बच्चेके मांसको ले आया। जो लोग जीभके लालची हैं ३. A हयमाण: Kalso records: हयमाणउ इति पाठान्तरे । ४. AP जाय उ सुविसाण उ । ५. AP णासावंसें । ६. P विधवि । ७. A तणु । ८. P रूसइ । ९. A करामसंतदंतेहिं । १०.१. P°मिगु । २. P धुउ णिउ । Page #413 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३६६ महापुराण [६०. १०.६पइवि महाणससस्थणिओएं ढोइउ पहुहि रसायणपाएं तूंसिवि तहु मुहकमलु णिरिक्खिउ चारु चारु पभणंते भक्खि । माणुसमासहु राउ पइद्धउ अवरहिं दिणि सूर्योरु जि खदउ । साहियरक्खसविज्जाणियरउ । णरवरिंदु हूयउ रयणियरउ । तहिं अवसरि पुटिवल्लउ णि सियरु । तह सरीरि संठित भीसणयरु। कुलिसकढिणणक्खेहिं वियारइ णासंतइं जंतई पञ्चारइ । बाहिवि वाहिवि पुणु अवहेरिउ चंगउं हलं चिरु मक्खइ मारिउ । अप्पसयत्थियाइं तमवंतई एगहि कहिं महुं जाहु जियंतई। घत्ता-पंडुरमंदिरपयडइ ता पट्टणि कारयडइ ।। सयलु लोउ थिउ पइसिवि तहु रयणियरहु णासिवि ।।१०॥ २ ता सीह उह पमेल्लिवि णिग्गउ घेडहड त्ति णरलोहिउ घोट्टइ चरयरंत तणुचम्मई फाडइ रायणिसाडचरणजुयलग्गइ चस्यसयडु मणुएं संजुत्तउ जइयहुं तं आयेउ ण णिरिक्खहि कुंभकारकडु पुरवरु घुटउं णिवरक्खसु जणपच्छइ लग्गउ । कडेयड त्ति हडुई दलवइ । णाइं णि णाई अच्छोडइ। ता वुत्तउ पयाइ भयभग्गइ। दियांह दियहि लइ तुज्झु णिउत्तउ । तइयतुं तुहुं पुणु सव्वई भक्खहि । णिच्चमेव दिज्जइ उवइट्टउं । उनके लिए प्रेत-मांस भी मंगल होता है। पाकशास्त्रके विधानके अनुसार पकाकर रसोइयेने उसे दिया। राजाने सन्तुष्ट होकर उसका मुखकमल देखा, और 'बहुत सुन्दर, बहुत सुन्दर' कहकर उसका खा लिया। उसका प्रेम मांसभक्षणमें बढ़ गया और दूसरे दिन उसने रसोइयेको खा लिया। जिसने राक्षस-विद्या-समूह सिद्ध कर लिया है ऐसा वह नरवर राक्षस हो गया। उस अवसरपर पहलेका निशाचर ( भैंसेका जीव) उसके शरीरमें प्रविष्ट हो गया। वह अपने कूलिशके समान कठोर नखों से विदीर्ण करता और भागते हुए लोगोंको उलाहना देता। बुला-बुलाकर उनका तिरस्कार करता। भला मैं बहुत समयसे भूख से पीड़ित हूँ, स्वार्थी और अज्ञानसे भरे हुए तुम लोग मुझसे (बचकर) जीते जो कहाँ जाते हो।" घत्ता-जो सफेद घरोंसे प्रगट है, ऐसे उस कारकट-नगरमें उस राक्षस राजासे भागकर प्रवेश कर रहने लगे ॥१०॥ ११ तब वह नृपराक्षस सिंहपुरसे निकला और लोगों के पीछे लग गया। घड़-घड़ कर लोगोंका खून पीता और कड़कड़ करके हड्डियोंको चूर-चूर कर देता। शरीरके चमड़ेको चर-चर करके फाड़ देता और उसके जोड़ों को तोड़ डालता। राजाके दोनों पैरोंपर गिरते हुए भयभीत प्रजाने कहा-"तुम प्रतिदिन मनुष्य सहित एक गाड़ी भात निश्चित रूपसे लो, और जब तुम उसे आया हुआ न देखो, तब तुम सब लोगों को खा डालना।" इस प्रकार बह नगर कुम्भकारकट घोषित ३. AP रूसिवि । ४. AP सूयह नि। ११. १. AP घड़यडत्ति। २. AP कडयडत्ति। ३. AP च रयत्ति । ४. AP SMणाई। ५. AP आयउतं । Page #414 -------------------------------------------------------------------------- ________________ -६०.१२.९] महाकवि पुष्पदन्त विरचित तहिं जि चंडकोसिउ दियसारउ सोमसिरीमणणयणपियारउ । पउरणिबद्धउ णिरु दुव्वारउ अण्णहि दिणि तहु आयहु वारउ । विप्पेण वि अणं उरि णि वे सिउ पुत्तु मंडकोसिउ लहु पेसिउ । भयहि चालिउ पासि णिसीह ललललंतमहणिग्गयजीहह । घत्ता-दंडपाणि अवराइउ रक्खसु संमुहुं धाइउ ॥ ढंढ रेहिं महिरंधइ बडुंवर चित्तु तमंधइ ॥११॥ १२ तहिं अच्छि उ अजयरु तें गिलियउ । पुणु सो वलिवि ण जणणिहि मिलियउ । तेण देव तुहु विवरि ण घिपहि एत्थु जि जीवोवाउ वियप्पहि । पभणइ मइसायरु महि दिज्जइ पोयणणाहु अरु इह किजइ । ता अहिसिंचिवि मेइणिसासणि कंचणजवखु णिहिउ सिंहासणि । सो किंकरजणेण पणविज्जद सो चलचामरेहिं विजिजइ । जीय देव आएसु भणिजइ तासु पुरउ णञ्चिज्जइ गिज्जइ । गयणविलंबमाणधयमालउ णरवइ गंपि पइट्ट जिणालउ । झायइ अधुवु असरणु तिवणु जिणपडिबिंबणि हिय णिञ्चलमणु । ता सत्तमउ दियहु संपत्तउ जो जणेण पोयणवइ उत्तउ। हुआ। जो कहा गया था, वह प्रतिदिन दिया जाने लगा। वहाँ चण्डकौशिक नामका ब्राह्मण श्रेष्ठ था जो अपनी पत्नी सोमश्रोके मन और नेत्रोंके लिए प्रिय था। एक दिन नगरप्रवरके द्वारा निबद्ध ( निश्चित को गयो ) दुनिवार उसकी बारी आ गयी। ब्राह्मगने गाड़ीके ऊपर अपने पुत्र मण्डकौशिकको बैठाया और शोघ्र उसे भेजा। जिसके मुखसे लपलपाती हुई जीभ निकल रही है ऐसे राजाके पास भूत उसे ले गये। घत्ता-तब दण्डपाणि अपराजित नामका राक्षस सामने दौड़ा। दूसरे राक्षसोंने उस बटुकको एक अन्धे महीरन्ध्रमें फेंक दिया ॥११॥ १२ वहां एक अजगर था। उसने उसे खा लिया। वह ब्राह्मण दुबारा आकर अपनी माँसे नहीं मिला। इसलिए हे देव, तुम अपनेको विवरमें मत डालो, यहींपर जीनेके उपायको सोचिए । मतिसागर मन्त्री कहता है-धरती दे दी जाये और पोदनपुरका दूसरा राजा बना दिया जाये। तब स्वर्णयक्षको धरतीके शासकके रूपमें अभिषेक कर सिंहासनपर स्थापित कर दिया गया। उसको किंकरजनोंके द्वारा प्रणाम किया जाता है, चंचल चमरोंके द्वारा उसे हवा की जाती है, "हे देव, आदेश दीजिए" यह कहा जाता है। उसके सम्मख गाया और नाचा जाता है। जिसकी ध्वजमाला आकाशसे लगी हुई है ऐसे जिनमन्दिर में जाकर वह राजा बैठ गया। वह अनित्य और अशरण त्रिभुवनका ध्यान करता है। उसका मन जिनप्रतिमामें लोन और निश्चित था। इतने में ६. P चंडकासिउ । ७. AT अणु उपरि । ८. P ढंढुरेहिं । ९. AP बडुयउ । १२.१. A घेपहि; P धेपिहि। २. AP अबर वर । ३. AP सीहासणि। ४. P वज्जिज्जइ । ५. AP अधुउ। Page #415 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३६८ महापुराण [६०. १२. १०असणि पडिय तहु जक्खहु उत्परि णेमित्तियहु दिण्ण रह हरि करि । परमिणिखेडु गामसयसहियउं गंदणवणमारुयमहिम हियउं । घत्ता-अण्णु वि रय॑णिहिं संचिउ मोत्तियदामहिं अंचिउ ॥ कि उ बभणु परिपुण्णउ पुणु पहु रजि णिसण्णउ ।।१२।। चंदकुंदणिहदहियहिं खीरहिं ___ गंगासिंधुमहासरिणीरहिं । अट्ठावयकलसहिं जिणु ण्हाणइ करिवि विइण्णई दीणहं दाणई । अप्पाणहु कुलकुवलयचंदें विहिय संति सिरिविजयणरिंदें। काल जंत तहिं णिवसंते पोयणपुरवरु परिपालंतें। जणणिपसाएं मंतु लहेप्पिणु पंचपरमपरमेट्ठि णवेप्पिणु । सुजतेय विज्जाहरसामिणि साहिय विज णहंगणगामिणि । जोव्वणभावजणियसिंगारइ एकहिं वासरि समउं सुतारइ । गउ णहेण वणि दुमदलणीलइ थिउ कामिणिकिलिकिंचियकीलइ । तावेत्तहि विहरणअणुराइउ भांमैरिविज लहेवि पराइउ । घत्ता-हित्तमहारिउछाएं इंदासणि खगराएं । आसुरियहि उप्पण्णउ लच्छिहि गुणसंपुण्ण उ ॥१३।। सातवां दिन आ गया। और ज्योतिषजनने जैसा कुछ पोदनपुरमें कहा था, वह वज्र उस स्वर्णयक्षके ऊपर गिर पड़ा। राजा कुम्भने उस नैमित्तिकको रथ, घोड़े और हाथी दिये। एक सौ ग्रामोंके साथ उसे पद्मिनीखेड नगर दिया, जो नन्दनवनकी हवासे महक रहा था। घत्ता-और भी उसे रत्नोंसे संचित और मोतियोंकी मालासे अंचित किया। उस ब्राह्मणको परिपूर्ण बना दिया और वह स्वयं पुनः राज्यमें स्थित हुआ ।।१२।। १३ चन्द्रमा और कुन्दपुष्पोंके समान दही और दूधोंसे, गंगा-सिन्धु महानदियोंके जलोंके एक सौ आठ कलशोंसे जिनका अभिषेक कर उसने दीनजनोंको दान दिया। कुलरूपी कुवलयके चन्द्र श्रीविजय नरेन्द्रने अपने कुलको शान्ति की। वहीं निवास करते हुए समय बीतनेपर और पोदनपुरका पालन करते हुए, माँके प्रसादसे मन्त्र पाकर, पांच परमेष्ठीको प्रणाम कर, अत्यन्त दोप्त विद्याधरोंकी स्वामिनी आकाशगामिनी विद्या सिद्ध की। एक दिन यौवनके भावसे उत्पन्न शृंगारवाली सुताराके साथ आकाशमार्गसे गया और वनमें वृक्षपत्रोंके घरमें कामिनी सुताराके साथ हंसने-रोनेकी कामक्रीड़ा करने लगा। इतनेमें विहार करने का अनुरागो, भ्रामरी विद्या प्राप्त करनेके लिए ( अशनिघोष ) यहां आ पहुँचा । __ घत्ता-जिसने शत्रुओंके माहात्म्यका अपहरण किया है, ऐसे इन्द्राशनि नामक विद्याधर राजाके द्वारा आसरी नामकी विद्याधरीसे उत्पन्न तथा लक्ष्मीके गणोंसे परिपूर्ण-॥१३॥ ६. AP रह करि हरि । ७. AP महमहियउं । ८. AP रयणहि । १३. १. AP"महाण इणीरहिं । २. A जिणण्हवणई । ३. AP भावरि । Page #416 -------------------------------------------------------------------------- ________________ -६०. १४. १५] महाकवि पुष्पदन्त विरचित ३६९ चमरचंचपुरवइ रइराइउ असणिघोसु णामेण पराइउ । तेणासुररिउसुयसीमंतिणि दिट्ठ सुतार हारभूसियथणि । मोहिउ णावइ मोहणवेल्लिइ उरि विद्धउ मयरद्धयभल्लिइ। मायाहरिणु तेण देक्खालिउ पइ सइसामीवहु संचालिउ । रूवु धरिवि वरइत्तहु केरउ अज्झाहिय आणंदजणेरउ । अप्पणु झ त्ति जारु तहिं पत्तउ अमुणंतिइ घरिणीइ पवुत्ते । देव मंगाई धरंतु ण लज्जहि अन्ज वि बालत्तणु पडिवजहि । कीलणु तुज्झु तासु भयभंगउं कंपइ मरणविसंतुलु अंगउं । तं णिसुणिवि पररमणे भासिउं सुंदरि चारु चारु उवएसिउं ।। हउं परियत्तउ एण जि करुणे आउ जाहुं पुरवरु किं हरिणे । एम भणेवि चडाविय सुरहरि रेहइ चंदरेह णं जलहरि । णहि जंतें दाविउं ससरीरउं मुद्धइ तं जोइवि विवरेरउ । मुक्त धाह हा णाह भणंतिइ करजुयलेण सीसु पहणंतिइ । घत्ता-पुणु परपुरिसुण जोइउ एण णाहु विच्छोइउ ।। सुघडि विहि विहडावइ एवहिं को मेलावइ ।।१४।। अशनिघोष नामका रतिशोभित चमरचंचपुरका राजा आया। उसने हारसे भूषित स्तनवाली विद्याधरकी स्त्री सुताराको देखा। मोहिनीलताके समान उससे वह मोहित हो गया। हृदयमें वह कामदेवके भालेकी नोकसे विद्ध हो गया। उसने मायावी हरिण दिखाया और पतिको सतीके पाससे हटा दिया तथा सुताराको आनन्द उत्पन्न करनेवाले वरका रूप बनाकर वह जार स्वयं वहां पहुंचा। नहीं जानतो हुई पत्नी सुतारा बोली, "मृगोंको पकड़ते हुए आपको शर्म नहीं आती, तुम आज भी बचपनको छोड़ दो। तुम्हारा खेल होता है, उसका भयसे नाश होता है, मरणसे अस्तव्यस्त उसका शरीर कांपता है।" यह सुनकर परम रमण उसने कहा"हे सुन्दरी, तुमने सुन्दर उपदेश दिशा, इस करुणासे मैं सन्तुष्ट हुआ, आओ नगरवरको चलें, हरिणसे क्या ?" यह कहकर उसने उसे सुरविमानमें चढ़ा लिया। वह ऐसी शोभित हो रही थी मानो मेघमें चन्द्ररेखा हो। आकाशमें जाते हुए उसने अपना शरीर दिखाया। वह विपरीत रूप देखकर मुग्धाने दोनों हाथोंसे सिर पीटकर हे स्वामी कहते हुए दहाड़ मारी। पत्ता-उसने परपुरुषको नहीं देखा। इसने मेरे स्वामीका विछोह किया है। विधि सुघटितको अलग कर रहा है । इस समय कौन मिलाप कराता है ॥१४॥ १४. १. A दिक्खालिउ । २. AP परिणीइ पइ वुत्तउ। ३. AP मिगाई। ४. AP चंदलेह । ५. AP पुरुसु। ४७ Page #417 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३७० ५ १० एम रुयंति तेण सा णिज्जइ एतहि पवणु व वेयपयट्टड मत्तमयूरबंदकयतंडवु पररमणीहरणेण णिवेसिय लोलइ विज्ज सुतारारूवें उत्तरं भत्तारें किं जायचं अक्खइ मायाविणि हउं पट्टी विसरिस विसरसवियणगुरुक्की चंदणदणईणु पुंजिवि ता संपत्त बिणि विज्जाहर तेहिं तिविट्ठपुत्त ओलक्खिउ एक्के बुज्झियमायामग्गँ महापुराण १५ घत्ता1-पियविओय ओयंपिय संकज वगड [ ६०.१५.१ - पिययमविरहें तिल तिलु झिज्जइ । मृगु पुइणाहु पल्लट्टउ । पडिआय सुंदरिलय मंडउ । रसिलालितेत्थु जि दरिसिय । जाणिव गहिय कंत जमदूएं । दीस वयकमलु विच्छायउं । कुक्कुडफणिणा करयलि दट्ठी । इय भांति पाणेहिं विमुक्की । सूरकंत मणिजलणु परंजिवि । परिसेसियइह पर हिउ ॥ णरवइ सलहि वलग्गउ || १५ || १६ सयणविहुरहर असिवर फरकर | णिज्जणि वणि मरंतु णो वेक्खि । ताडिय झत्ति वामपायग्गे । १५ इस प्रकार विलाप करती हुई वह उसके द्वारा ले जायी गयी । प्रियतमके विरह में वह तिल-तिल क्षीण हो रही थी । यहाँपर पवनके समान वेगसे भागा हुआ हरिण भाग गया । राजा लौट आया। जिसमें मत्त मयूरवृन्द नृत्य कर रहे हैं, ऐसे सुन्दर लता-मण्डप में आया । परस्त्रीके हरण करनेवालेके द्वारा स्थापित उसी रत्न-शिलातलपर सुताराके रूपमें हिलती हुई विद्या दिखाई दी । यह जानकर कि वह यमदूत ( मृत्यु ) के द्वारा ग्रहण कर ली गयी है पतिने पूछा"क्या हुआ, तुम्हारा मुखकमल कान्तिहीन दिखाई क्यों दे रहा है ?" वह मायाविनी कहती है कि कुक्कुट सांपके द्वारा हथेली में काटी गयी मैं नष्ट हो रही हूँ । असामान्य विषरसकी वेदनासे भरो हुई और यह कहती हुई; उसने प्राण छोड़ दिये । लाल चन्दनका ईंधन इकट्ठा कर सूर्यकान्तमणिक ज्वालासे आग लगाकर - घत्ता – प्रिया के वियोग से काँपता हुआ इस लोक और परलोकके हितको छोड़ देनेवाला, कामदेव के वशीभूत होकर वह राजा चितापर चढ़ गया || १५ || १६ इतने में दो विद्याधर वहाँ आये, जो स्वजनोंके दुःखको दूर करनेवाले और असिवररूपी अस्त्र हाथमें लिये हुए थे । उन्होंने त्रिपृष्ठके पुत्रको देखा । एकान्त वनमें मरते हुए उसकी उन्होंने उपेक्षा नहीं की । मायाके मार्गको समझनेवाले एकने बायें पैरके अग्रभागसे शीघ्र उस विद्याको १५. १. AP मिगु । २. A कमलवयणु; P वयणु कमलु । ३. A इंघण । ४. A आयाम । १६. १. AP ण उवेक्खिउ । Page #418 -------------------------------------------------------------------------- ________________ -६०. १७. ६ ] महाकवि पुष्पदन्त विरचित ३७१ पायड करिवि नृवेहु दक्खालिय विज पणटू भीयवेयालिय। महिवइ विभैइवसु अवलोइवि खयरें भणिउ णिसुणि मणु ढोइवि । जंबुद्दीवि भरहखेत्तरि । चारुधोयकलहोयमहीहरि । दाहिणसेढिहि जोइप्पहपुरि उज्जाणंतथंतकीलासुरि। हउं तहिं पहु णामें संभिण्णउ अमियतेय किंकरु माणुण्णउ । संजय पणइणि सुउ दीवयसिहु महुं ओहच्छइ णं कंतिइ विहु । जणण तणय ए अम्हइं अवलोयंति सिहरिदरिकदर । चिरु परिभमिवि रमिवि पिउ बोल्लिवि गयणुल्ललिय जाम वणु मेल्लिवि। पइवय परमेसरि अहिमाणिणि ता रुयंति णहि णिसुणिय माणिणि । पत्ता-णिरु उक्कंठिय अच्छमि वल्लह पई कहिं पेच्छमि ।। हा सिरिविजय पधावहि कुढि लग्गहि म चिरावहि ॥१६॥ १७ हा हा अमियतेय दुंदुहिरव इहु अवसरु तुहु वट्टइ बंधव । हा हा माम तिविट्ठ महाबल पई जीवंति णेंति मेई किं खल। हा सासुइ देवर साहारहि मई रोवंति काई ण णिवारहि । हा हलहर पई अप्पउं तारिउ महुँ लग्गंतु कुपुरिसुणे णिवारिउ । हा हे घोर जार जैगि सारहु मई लहु णेहि पासि भत्तारहु । जइ वि मईणु तुहुं तो वि ण इच्छमि पई हउँ जणणसरिच्छु णियच्छमि । ताड़ित किया और उसे प्रकट कर राजाको बता दिया, वहीं भीम वैतालिक विद्या नष्ट हो गयी। विस्मयके वशीभूत राजाको देखकर विद्याधर बोला-"मन लगाकर सुनो, जम्बूद्वीपके भरतक्षेत्रमें विजया पर्वतकी दक्षिण श्रेणी में, जिसके उद्यानोंमें देव क्रीड़ा करते हैं ऐसे ज्योतिप्रभ नगर है । मैं उसका राजा सम्भिन्न हूँ। मानसे उन्नत, अमिततेजका अनुचर । मेरी प्रणयिनीसे दीपशिख नामका पुत्र हुआ, वह मेरे साथ है मानो कान्तिके साथ चन्द्र हो। हे सुन्दर, इस प्रकार हम पितापुत्र हैं। पर्वतको घाटियों और गुफाओंको देखते हुए खूब परिभ्रमण कर, रमण कर और प्रिय बोलकर वन छोड़कर जैसे ही आकाशमें उछले, वैसे ही हमने पतिव्रता स्वाभिमानिनी एक मानिनीको आकाशमें रोते हुए ( इस प्रकार ) सुना। पत्ता-"मैं अत्यन्त उत्कण्ठित हूँ। हे प्रिय, मैं तुम्हें कहाँ देखू ? हे श्रीविजय दोड़ो, पीछे लगो, देर मत करो" ||१६|| १७ हा-हा ! दुन्दुभिके समान शब्दवाले अमिततेज, है भाई यह तुम्हारा अवसर है। हे ससुर त्रिपृष्ठ और महाबल, तुम्हारे जीवित रहते हुए दुष्ट मुझे क्यों ले जा रहे हैं ? हे सास, हे देवर, तुम मुझे सहारा दो।" मुझ रोती हुईको तुम मना क्यों नहीं करते ? हे बलभद्र, तुमने अपना उद्धार कर लिया, मेरे पीछे लगे हुए कुपुरुषको तुमने मना नहीं किया। हा हे घोर जार, जगमें श्रेष्ठ मेरे पतिके पास तुम मुझे ले चलो, यदि तुम कामदेव हो तो मैं तुम्हें नहीं चाहती। मैं तुम्हें २. P णिवह । ३. AP विभयवसु । ४. P तेउ । ५. A तणय बे यम्हइं । ६. AP कह पइं । १७. १. AP कि मई । २. A ण वारिउ । ३. AP जगसारहु । ४. AP मयणु । Page #419 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३७२ महापुराण [६०. १७.७णिसुणिवि णियसामिहि णामक्खरु अम्हई धाइय गुणि संधिवि सरु । भणिउ वइरि भडवाएं भजहि अवरकलत्तु हरंतु ण लजहि । अप्पहि तरुणि धुलियहारावलि दूसह सिरिविजयहु बाणावलि । घत्ता-ता देवीइ पवुत्तउं एवहिं भिडहुं ण जुत्तउं ॥ काणणि कामसमाणउ जाइवि जोइवि राणउ ॥१७॥ १८ लहु महुं तणिय वत्त तहु अक्खहु जीउ जंतु णरणाहहु रक्खहु । तं परिहच्छिय पणवियमत्था चंडकंडकोदंडविहत्था । ए अम्हइं आइय बेणि वि जण तुहुं मा मरु रामारंजियमण । एम भणिवि दीवयसिहु पेसिउ ते पोयणपुरि वइयरु भासिउ । जिह हरिसुउ गउ मयणिदेंसें जिह णिय घरिणि चमरचंचेसें। जिह वेयालियविज्जइ विलसिउ ता पहुजणणि हि वयणु विणीसिउ । जइ ण वि सिट्टउं अण्ण केण वि जयगुत्ते अमोहजीहेण वि । तो वि सव्वु सब्भावहु आणि सपरोक्खु वि पञ्चक्खु वि जाणिउं । अम्हहं घरि जायई दुणिमित्तई पडियई णहयलाउ णक्खत्तई। पणइणिहरणु जाउँ पियणीसहु जायउं विग्घु किं पि धरणीसह। पर किं कुसलु पडीवउं दीसइ को वि कुसलवत्तिउ आवेसइ । अपने पिताके समान समझती हूँ। तब अपने स्वामीके नामके अक्षर सुनकर हम प्रत्यंचापर बाण चढ़ाकर दौड़े और शत्रुसे कहा-"भटवचनसे तुम भग्न होते हो, दूसरेकी स्त्रीका अपहरण करते हुए तुम्हें शर्म नहीं आती। जिसको हारावलि घूम रही है, ऐसो तरुणीको मुक्त कर दो। श्रीविजयकी बाणावलि तुम्हें असह्य होगी।" पत्ता-तब उस देवीने कहा कि इस समय लड़ना ठीक नहीं। काननमें जाकर कामके समान मेरे प्रिय राजाको देखकर-॥१७॥ शीघ्र मेरा समाचार उसे दो और नरनाथके जाते हुए जीवको बचाओ। उससे पूछकर प्रणमित मस्तक और हाथमें प्रचण्ड तीर और धनुष लिये हुए हम दोनों यहां आये हैं । हे स्त्रियोंके मनका रमण करनेवाले तुम मत मरो। यह कहकर उस विद्याधरने अपने पुत्र दीपशिखको भेजा। उसने पोदनपुरमें यह वृत्तान्त कहा कि किस प्रकार नारायणपुत्र मृगके पीछे गया, किस प्रकार चमरचंचके राजाके द्वारा उसकी गृहिणीका हरण किया गया, किस प्रकार वह वैतालिक विद्यासे विलसित था। प्रभुको माता (स्वयंप्रभा) का वचन निकला-यद्यपि किसी औरने नहीं जयगुप्त और अमोघजिह्व नैमित्तिकोंने कहा था, तो भी सब बात सद्भावके साथ ठीक हो गयी। और परोक्ष बातको भी मैंने प्रत्यक्षरूपसे जान लिया। हमारे घरमें दुनिमित्त हो रहे थे, आकाशसे नक्षत्र गिर रहे थे, प्रिय राजाकी प्रणयिनीका हरण होगा, राजाको भी कोई विघ्न होगा। लेकिन उलटे उसे कोई कुशल दिखाई देगा और कोई कुशल-वार्ता आयेगी। ५. AP णियसामियणामक्खरु । १८. १. AP परिहच्छिवि । २. A जाम । Page #420 -------------------------------------------------------------------------- ________________ -६०.२०.२] महाकवि पुष्पदन्त विरचित ३७३ घत्ता-इय जिह विप्पहिं सिट्ठउं तिह तुहुं आयउ दिट्ठउं ।। सुयरिवि सुयहु सयाणउं देविइ दिण्णु पयाणउं ।।१८।। १९ छत्तछण्णरविकिरणविलासें गय तं वणु ससेण्ण आयासें । दिट्ठ पुत्तु आलिंगिउ मायइ भूमिभाउ णं पाउसछायइ। पयहिं णवंतु विवाणि चडाविउ बीयउ सिसु पोयशु पट्ठाविउ । पहु रहणेउरु णियउ सहरिसहिं अमियतेयरायहु चरपुरिसहिं । कहिउ सो वि सवडंमुहूं णिग्गउ । मिलियउ णं दिसदंतिहि दिग्गउ । पायवडणु घरपाहुणयत्तणु किउ महल्लपरिवाडिपवत्तणु । मंतिउ मंतु कहिउ मंतीसहिं अमियतेयसिरिविजयमहीसहिं । णाम मरीइ वइरिजलसोसहु पेसिउ दूयउ असणिणिघोसहु । तेण वि णारीरयणु ण दिण्णउं । भंडणु भडखंडणु पडिवण्णउं घत्ता-आइये दूय सुहित्तें जलगजडीसुयपुत्तें ॥ । हरिकुलहरपायारहु तहु सिरिविजयकुमारहु ।।१९।। २० दिण्ण विज वीरियपोरिसखणि पहरणवारणि बंधविमोयणि । ओसारियखलखेयरसत्थहं रस्सिसुवेयाइयह समत्थहं । घत्ता-इस प्रकार जैसे विप्रोंने कहा, वैसे ही तुम यहां दिखाई दिये। पुत्रकी याद करके मां ( स्वयंप्रभा ) ने सैन्यके साथ प्रयाण किया ।।१८।। छत्रोंसे जिसमें रविकिरणोंका विलास आच्छन्न है, ऐसे आकाशसे वह सेना सहित उस वनमें पहुंचे। पुत्रको देखा। माताने उसका आलिंगन किया मानो भूमिभागने पावस छायाका आलिंगन किया हो। पैरोंमें पड़ते हुए उसे विमानपर चढ़ाया और दूसरे पुत्र (विजयभद्र) को पोदनपुर भेज दिया। प्रभ ( श्रीविजय ) रथनपुर नगर ले जाया गया। अमिततेजके हर्षसे भरे हुए चरपुरुषोंने राजासे कहा, वह भी सामने निकला और इस प्रकार मानो दिग्गजसे दिग्गज मिला हो। पैर पड़नेसे लेकर गृहके आतिथ्य तक उसने बड़ोंकी परम्पराका प्रवर्तन किया। (अर्थात् परम्पराके अनुसार उक्त शिष्टाचारका पालन किया ) मन्त्रीशोंने अपना विचारित मन्त्र कहा । अमिततेज और श्रीविजय राजाओंने शत्रुरूपी जलको सोखनेवाले मारीच नामक दूतको अशनिघोषके पास भेजा । उसने भी नारीरत्न नहीं दिया, युद्ध और भट-खण्डनको स्वीकार लिया। पत्ता-दूत वापस आ गया। अर्ककोतिके पुत्रने मित्रताके कारण हरिकुलगृहके प्राकार उस श्रीविजय कुमारको-॥१९॥ २० वीर्य पौरुषकी खदान ( युद्धवीर्य ), प्रहरावरण और बन्ध-विमोचन विद्याएँ दी। दुष्ट ३. AP आइउ । ४. कहाण उं । १९. १. P पट्टविउ । २. AP आइए दूए । २०. १. AP परहण । २. A रस्सिसुवेवाइयहं । Page #421 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३७४ महापुराण [६०.२०.३ भीममहाहवभरधुरजुत्तह पंचसयाई सहायई पुत्तहं । बहिणीवइदिण्णाई लएप्पिणु विज्जादेवयाउ सुमरेप्पिणु । चमरचंचपुरवइहि ससंदणु उक्खंध गउ केसवणंदणु । णियसोहाणिज्जियहिमवंतहु अमियतेउ सिहरिहि हिरिवंतहु । सहसरस्सिपुत्तेण समेयउ गउ मैरुवेएं मारुयवेयउ । तहिं आराहियमृगसंवग्गइ संजयंतपडिमापायग्गइ। णं णिवइहि महिमंडलरिद्धी विज महाजालिणि तहु सिद्धी । एत्तहि असणिघोससिरिविजयहं जायउ संगरु सधयहं सगयह। णियसुय असणिसुघोसें पेसिय जे ते जुज्झिवि दिसिहिं पणासिय । सहसघोस सयघोस सुघोस वि मेहघोस अरिघोस असेस वि । जं गय ते पविहंडियमाणा तं मेल्लंतु बाण फणिमाणा । पत्ता-णियवि सुताराहारउ सिरिविजयं दुव्वारउ ।। छाइउ सरवरपंतिहिं णाइ उवद्दउ संतिहिं ।।२०।। २१ आसुरियहि लच्छिहि सुउ धायउ ___णाइ कयंत दंडु णिवेइउ । धाराजियखयहुयवहजाले • हउ विजएं पइसिवि करवालें। रिउ भामरिविजामाह बिहिं रूवहिं उत्थरइ सद। विद्याधर समूहको हटानेवाले रश्मिवेगादि, भीम महायुद्धके भारमें जुते हुए पांच सौ पुत्र सहायकके रूप में अपने बहनोईको दिये। उन्हें लेकर और विद्यादेवियोंका स्मरण कर केशवनन्दन ( श्रीविजय ) रथ सहित चमरचंच नगरके राजापर उक्खन्ध अश्वपर बैठकर आक्रमणके लिए गया। हवाके समान गतिवाला अमिततेज अपने पुत्र सहस्ररश्मिके साथ आकाशमागसे अपनी शोभासे चन्द्रमाको जोतनेवाले ह्रीवन्त पर्वतपर गया। वहां, जहां देवसमूहकी आराधना की है, ऐसे संजयन्त मनिकी प्रतिमाके आगे उसे महाज्वाला नामको विद्या सिद्ध हई, मानो राजाके लिए महिमण्डलकी ऋद्धि सिद्ध हुई हो। यहाँ ध्वजों और गजों सहित अशनिघोष तथा श्रीविजयमें युद्ध हुआ। अशनिघोषके द्वारा भेजे गये जो पुत्र थे वे लड़कर दिशाओंमें भाग गये। सहस्रघोष, शतघोष, सुघोष, मेघघोष और अरिघोष आदि सभी। जब वे खण्डित मान तथा नागके आकारके बाण छोड़कर चले गये ___ घत्ता-तब सुताराके अपहरण करनेवालेको दुर्वार समझकर श्रीविजयने तीरोंकी पंक्तिसे उसे इस प्रकार छा लिया मानो शान्तियोंने उपद्रवको छा लिया हो ॥२०॥ २१ आसुरी लक्ष्मीका पुत्र इस प्रकार दौड़ा मानो कृतान्तने अपना दण्ड निवेदित किया हो। विजयने प्रवेश कर धाराप्रलयकी आगको ज्वालाको जीतनेवाली तलवारसे उसे मार दिया। शत्रु ३. A ओखंधि; P उद्धद्धे । ४. AP हिरिमंतह । ५. A मरुमग्गें: T मरुवेगें आकाशेन । ६. P'मिग । ७. A मेल्लंति । ८. AP णिएवि । Page #422 -------------------------------------------------------------------------- ________________ -६०.२२.७ ] महाकवि पुष्पदन्त विरचित हय बेण्णि वि चत्तारि समुग्गय ते वि दुहाइय अट्ट समुग्गय । अट्ठ णिहय सोलह संजाया सोलह तय बत्तीस समाया। बत्तीस वि दोखंडिय जामहिं रिउ चउसट्ठि पराइय तामहिं । चउसट्टि वि विद्दलिय सरूवउ अट्ठावीसउ सउ संभूयउ । एम दुवड्ढिइ वढिउ दुद्धरु हणु भणंतु असिवसुणंदयकरु । जलि थलि दसदिसिवहि णहपंगणि दीसइ असणिघोसु समरंगणि । वेढि उ पोयणणाहुखगिदहिं णं विंझइरि महाधणविंदहिं । घत्ता-जैरफेरवरवभीमइ तहिं तेहइ संगामइ ॥ पत्तउ सेण्णसणाहउ रहणेउरपुरणाहउ ॥२१॥ २२ राउ सयंपह पुत्तु खलत जाम ण हम्मइ तेहिं अखत्ते । तांव अमियतेएण पवुत्तउं असणिघोस किं कियउं अजुत्तउं । परकलत्तु किं आणिउ गेहहु हक्कारिय भवित्ति णियदेहहु । एम भणेवि तेण लहु मुक्की विज महाजालणि रणि दुकी । पवणुqयचिंधु सविमाणउ तं पेक्खिवि सहस त्ति पलाणउ । जहिं णायहु सीमागिरिवरु विजउ णामु जहिं अच्छइ जिणवरु। परणारीहरु भयवसु तट्ठउ समवसराण तहि सरणु पइट्ठउ। भ्रामरी विद्याके माहात्म्यसे दर्पपूर्वक दो रूपोंमें उछला। दोके मारे जानेपर चार उछले। उनके भी दो भाग होनेपर आठ उत्पन्न हुए । आठके आहत होनेपर सोलह हुए । सोलहके आहत होनेपर बत्तीस हो गये, जबतक बत्तीस खण्डित हुए, तबतक चौंसठ हो गये । चौंसठ भी स्वरूपसे विदलित हो गये, तो एक सौ बीस हो गये। इस प्रकार दो की वृद्धिसे बढ़ता हुआ तथा वसुनन्दक तलवार जिसके हाथ में है ऐसा वह जल, स्थल, दसों दिशाओं और आकाशके प्रांगण में सब जगह दिखाई देता है । इस प्रकार विद्याधरोंने पोदनपुरराजाको घेर लिया, मानो महाघनसमूहने विन्ध्याचलको घेर लिया हो। पत्ता-बूढ़े शृगालोंसे भयंकर उस वैसे संग्राममें सैन्यसे सहित रथनूपुरका राजा वहां आया ॥२१॥ २२ स्वयंप्रभाका पुत्र राजा श्रोविजय जब उनके द्वारा दुष्टता और अन्यायसे नहीं मारा जा सका तो अमिततेजने कहा- "हे अशनिघोष, तुमने यह अनुचित क्या किया? दूसरेकी स्त्री अपने घरमें क्यों लाये। तुमने अपने शरीरको होनहारको स्वयं चुनौती दी है।" इस प्रकार कहकर उसके द्वारा फेंकी गयी महाज्वालिनी नामकी विद्या शीघ्र युद्ध में पहुंची। उसे देखकर हवामें जिसका ध्वज उड़ रहा है ऐसा विमान सहित वह सहसा भाग खड़ा हुआ। जहाँ नाभेयसीम नामका गिरिवर था और जहां विजय नामके जिनवर थे, भयके वशीभूत होकर परस्त्रीका २१.१. A समागय । २. AP हय । ३. A जरफेकारवभीमइ । ४. Pणाहह । २२.१. AP महाजालिणि णहि ढक्की । २. AP सरणि । Page #423 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३७६ महापुराण [६०. २२.८सिरिविजयाइय चोइयगयघड अणुमग्गें तहु लग्ग महाभड । माणखंभअवलोयणभावे मुक्का पत्थिव मच्छरभावें । केवलणाणसमुज मउलियकर णवंति परमेहिहि । घत्ता-जसधवलियछणयंदहु पुच्छंतहु खयरिंदहु ।। विद्धंसियवम्मीसरु अक्खइ धम्मु रिसीसरु ॥२२॥ २३ भणइ भडारउ रोसु ण किज्जइ रोसें णरयविवरि णिवडिज्जइ । रोसवंतु णरु कह व ण रुच्चइ जइ वि सुवल्लहु तो वि पमुच्चइ । रोसु करइ बहु आवइ संकडु रोसें पुरिसु थाइ णं कक्केडु । रोसु कयंतु व कं णउ तासइ अत्थु धम्मु कामु वि णिण्णासइ। जो रोसेण परव्वसु अच्छइ तहु मुहकमलु ण लच्छि णियच्छइ । माणपमत्त ण काई वि मण्णइ माणे गुरु देव वि अवगण्णइ । माणथैधु बंधुहिं वि ण भावइ णि दणिरिक्ख इंदुक्ख पावइ । मायाभावें जो चिम्मक्का तहु संमुहउ ण सज्जणु ढुक्कइ । ण वीससइ को वि णिधम्महु णिच्चपउंजियमायाकम्म। १० मायारउ तिरिक्खु उप्पज्जइ लोहें णियजणगी वि विरज्जेइ । अपहरण करनेवाला वह वहाँ उनके समवसरणकी शरणमें चला गया। श्रीविजय आदि महाभट भी अपनी गजघटाको प्रेरित करते हुए उसके मार्गके पीछे जा लगे। मानस्तम्भको देखनेके भावसे वे राजा ईर्ष्याभावसे मुक्त हो गये। जिनकी दृष्टि केवलज्ञानसे समुज्ज्वल है ऐसे परमेष्ठीको वे हाथ जोड़कर प्रणाम करते हैं। घत्ता-अपने यशसे चन्द्रमाके धवलित करनेवाले विद्याधर राजाके पूछनेपर कामदेवका नाश करनेवाले ऋषीश्वर धर्मका कथन करते हैं ।।२२।। आदरणीय वह कहते हैं-'क्रोध नहीं करना चाहिए। क्रोधसे नरकके बिल में गिरना पड़ता है। क्रोधी व्यक्ति किसीको भी अच्छा नहीं लगता, व्यक्ति कितना ही प्रिय हो ( क्रोधी व्यक्ति) छोड़ दिया जाता है । क्रोध कई आपत्तियां और संकट उत्पन्त करता है। क्रोधसे व्यक्ति बन्दरकी तरह रहता है । यमकी तरह क्रोध किसे त्रस्त नहीं करता। उससे अर्थ, धर्म और काम नष्ट हो जाता है। जो क्रोधसे परवश हो जाता है, उसके मुखकमलको लक्ष्मो कभी नहीं देखती। मानसे प्रमत्त आदमी किसीको कुछ नहीं गिनता। मानसे गुरु और देवकी भी अवहेलना करता है। मानसे ठस (स्तब्ध) आदमी भाइयोंको भी अच्छा नहीं लगता। वह अत्यन्त दुर्दर्शनीय दुखोंको प्राप्त करता है। मायाभावसे जो व्यक्ति आचरण करता है ( चिम्मकइ) उसके पास सज्जन व्यक्ति नहीं जाता। नित्य मायाकर्मका प्रयोग करनेवाले धर्महीन व्यक्ति का कोई विश्वास नहीं करता। मायारत व्यक्ति तिथंच गतिमें उत्पन्न होता है। लोभके कारण वह अपनी माँके प्रति विरक्त हो ३. AP°लोयणगावें। २३. १. AP कह वि। २. A मंकडु। ३. A माणवंतु । ४. AP णरु । ५. AP णिद्धम्मह । ६. P विरइज्जइ । Page #424 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३७७ -६०. २४. ११] महाकवि पुष्पदन्त विरचित लोहे जणु चामीयरु संचइ लोहें अप्पणु अप्पउं वंचइ । खाइ ण देइ घिवइ धणु खोणिहि लुद्धउ णिवडइ दुग्गयजोणिहि । घत्ता-एयह चउहुं कसायहं दावियणरयणिवायहं । जो अप्पाणउं रक्खइ मोक्खसोक्खु सो चक्खइ ॥२३॥ मिच्छत्त जणवउ छाइजइ हिंसइ सग्गगमणु पडिवज्जइ। मिच्छत्तें विडगुरुपय पुजइ मिच्छत्ते जिणणाहु विवज्जइ । मयणमत्तमहिलामहुसेवह पायहिं पडइ रउद्दहं देवहं । मिच्छत्तेण जीउ मोहिज्जइ भवविब्भमि भामिजइ छिज्जइ । मिच्छत्तेण असंजमु वड्ढइ जीवहं जीविउ मंडेइ कड्ढइ । पोसइ पंचिंदियई दुरासई पावइ माणउ विहरसहासइं। परहणपरकलत्तअणुबंधे बज्झइ एम जीउ रयबंधे। तहिं अवसरि आसुरियइ लच्छिइ । आणिवि सा सुतार धवलच्छिइ । अमियतेयसिरिविजयहं ढोइय भायरपइहिं सणेहें जोइय । किउ खंत वैचित्तु णीसल्लउ । भवंह खम मंडणउ पहिल्लउँ । तं रिउजणणिहि वयणु समिच्छिउ पुणु रहणेउरवइणा पुच्छिउ । जाता है। लोभसे मनुष्य सोना इकट्ठा करता है। लोभके कारण स्वयंसे स्वयंको ठगता है। न खाता है और न पीता है, धनको जमीनमें गाड़कर रखता है, लोभी व्यक्ति दुर्गतयोनिमें जाता है। __ घत्ता-नरकमें पतन दिखानेवाली इन चार कषायोंसे जो अपनी रक्षा करता है, वह मोक्षसुखका आस्वाद लेता है ॥२३॥ २४ मिथ्यात्वसे जनपद आच्छादित होता है, हिंसासे स्वर्गगमनका प्रतिषेध होता है। मिथ्यात्वसे विटगुरु-चरणोंकी पूजा की जाती है। मिथ्यात्वसे मनुष्य जिननाथका त्याग करता है, कामदेवसे मत्त महिला और मधुका सेवन करनेवाला रौद्र देवोंके चरणों में गिरता है। मिथ्यात्वसे जीव मोहित होता है। संसारके चक्करोंमें घूमता है और नाशको प्राप्त होता है। मिथ्यात्वसे असंयम बढ़ता है, जीवोंका जीव बड़ी कठिनाईसे निकलता है। खोटे आशयवाली इन्द्रियोंका पोषण करता है और मनुष्य हजारों दुःख उठाता है। दूसरेके धन और स्त्रीके अनुबन्ध तथा रागके बन्धसे इस प्रकार जीव बंध जाता है। उसी अवसरपर धवल आंखोंवाली आसुरी लक्ष्मीने सुतारा लाकर अमिततेज और श्रीविजयको दे दी। भाई और पतिने उसे स्नेहपूर्वक देखा। उसने उनके चित्तको क्षम्य और शल्यहीन बना दिया। क्षमा भव्योंका पहला अलंकार है। शत्रुकी माताके वचनोंका उन्होंने विचार किया, फिर रथनपुरके पति अमिततेजने तीर्थंकर विजयसे पूछा। २४. १. AP°गवणु । २. A मड्डइ; P मंडुइ । ३. P खंत चित्तु । ४. A सव्वहं । ४८ Page #425 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३७८ महापुराण [६०.२४. १२घत्ता-दुद्दमपावखयंकरु कहइ णरोहेसुहंकर ॥ उग्गयसंसयसंकहु विजय अमियतेयंकहु ॥२४॥ २५ जंबूदीवि भरहवरिसंतरि मागह विसइ सुसासणिरंतरि । अचलगामि धरणीजडु बंभणु .. अग्गिलबंभणिउररुहसुंभणु । तहु इंदग्गिभूइसुय सुहयर। सुयसत्थत्थमहत्थ मणोहर । कविलु णामु दासेरु अलक्खिउ वेयचउक्त सडंगई सिक्खिउ । कुलविद्धंसणु जाणिउ विप्पं दुज्जसभीएं धाडिउ बप्पें । गउ रयणउरहु भल्ल भाविउं सञ्चैयदियवरेण परिणाविउ । जंबूधरिणिहि हूई सुंदरि सच्चभीम णामेण किसोयरि। कुलणिदिउं करंतु गुणवंतइ वरु कुलहीणु वियाणिउ कंतइ । घत्ता-वर धणोहे चत्तउ आर्यण्णिवि सुयवत्तउ । दालिदें संतत्तउ तहिं जिताउ संपत्तउ ॥२५॥ सपराहवभीएण णमंसिउ तहु पयजुवलु तेण ओलग्गिउं कुलदूसणरुहणीसासुण्हइ कविलें पुरयणमज्झि पसंसिउ । दिण्णउं कंचणु जेत्तिउं मग्गिउं । धणु ढोइवि आउच्छिउ सुण्हइ। पत्ता-दुर्दम पापोंका नाश करनेवाला मनुष्योंके लिए शुभंकर श्रीविजय, जिसके मनमें सन्देहकी कील उत्पन्न है, ऐसे अमिततेजसे कहता है ॥२४॥ २५ जम्बूद्वीपमें भारतवर्षके मगध देशमें, जिसमें निरन्तर सुशासन है ऐसे अचलग्राममें धरणीजट नामका ब्राह्मण था जो अपनी अग्निला ब्राह्मणीके स्तनोंका मर्दन करनेवाला था। उसके शुभ करनेवाले इन्द्रभूति और अग्निभूति नामके पुत्र थे, दोनों सुन्दर थे और उन्होंने शास्त्रोंका अर्थ महार्थ सुना था। उसका कपिल नामका अज्ञात दासी पुत्र था। उसने चारों वेदों और छहों अंगोंको सीख लिया। विप्रने उसे कुलका नाश करनेवाला जानकर, अपयशसे डरकर पिताने उसे निकाल दिया। वह रत्नपुर गया। वहां सत्यक नामक ब्राह्मणने उसे भला समझा और अपनी जम्बू नामकी स्त्रीसे उत्पन्न हुई कृशोदरी सुन्दर कन्या सत्यभामा ब्याह दी। उस गुणवती कान्ताने कुलनिन्दित कर्म करते हुए उसे जान लिया कि यह कुलहीन वर है। घत्ता-केवल धनसे रहित होकर पिता धरणीजट अपने पुत्रका समाचार सुनकर दारिद्रयसे पीड़ित होकर वहीं आया ॥२५॥ २६ ___ अपने पराभवसे डरे हुए (पोल खुलनेके भयसे) कपिलने नगरके लोगोंके बीच उनकी प्रशंसा की। उसने उनके चरण छुए और उसने जितना मांगा, उतना सोना दिया। विकट कर्मके ५. A णराह सुहंकरु । २५.१. A दप्पें । २. AP सच्चई । ३. P सच्चसामि । ४. AP आयण्णिय । Page #426 -------------------------------------------------------------------------- ________________ - ६०. २७.७ ] महाकवि पुष्पदन्त विरचित कहइ जणणु पियवयणहिं तुट्ठ कंतु तुहार होइ ण दियवरु सिरिसेणु उरसिरमणि बीय अणिदिये काई भणिज्जइ ता बिहिं म कंतिइ सुच्छाया कुललंछणउं धरियमज्जायहु घत्ता - ते कविलु अवगण्णिउ कक्कस दंडें ताडिउ सच्चैभाम सइ सुद्ध हवेष्पिणु सर्दम अभिर्येगइ णामारिंजय सिरिसेणे आहारु पयच्छिउ चउदह मलपरिमुक्कु अकुच्छिउ भायणधरणाइयउ सुधम्मउ चहुं वि सुकयबीउ लइ लडूउं सेमर रंगदल व ट्टियपरबलु महुं घरि दासीसु णिक्किउ | एउ भणेपिणु गड सोणियघरु | पढमसीहणंदिय तहु पणइणि । जाहि रइ विदासि व्व गणिज्जइ । इंदविदसेण सुय जाया । जंबूधूयइ सौहिउं राहु | जणि चंडालु व मणिउ ।। पुरवराउ णिद्धाडिउ ||२६|| २७ थिय उवसमु हियउल्लइ लेप्र्पिणु । आइय भिक्खहि चारण संजय । दिज्जंतर घरिणीहिं समिच्छिउ । रिसिहि पाणिवत्तेण पडिच्छिउ । सञ्चयतणयइ किड सुहकम्मउ । भोयभूमिपरमाउ णिबद्धरं । कोसंबीणयरीसु महाबलु । ३७९ ५ कारण उष्ण उच्छ्वासवाली बहूने पूछा । उसके प्रिय वचनोंसे सन्तुष्ट होकर पिता कहता है कि यह मेरे घर में नीच दासीपुत्र था । तुम्हारा पति ब्राह्मण नहीं है । ऐसा कहकर वह ब्राह्मण अपने घर चला गया । वहाँ नर- शिरोमणि श्रीषेण राजा था। उसकी पहली पत्नी सिंहनन्दिता थी । दूसरी पत्नी आनन्दिता थी, उसके विषय में क्या कहा जाये ? उससे रति भी दासीके समान समझी जाती थी । उन दोनोंके कान्तिसे सुन्दर इन्द्रसेन और उपेन्द्रसेन नामके पुत्र हुए । जम्बूकी कन्याने मर्यादाको धारण करनेवाले राजासे कुलकलंककी बात कही । १० घत्ता - राजाने उसका अपमान किया, लोगों में वह चण्डालकी तरह समझा गया । कठोर दण्ड प्रताड़ित उसे उस प्रवरपुरसे निकाल दिया गया ||२६|| २७ सती सत्यभामा शुद्ध होकर अपने मनमें शान्तभाव धारण कर रहने लगी । संयमधारी अमितगति और अरिजय नामके दो चारण मुनि आहारके लिए आये । श्रोषेण राजाने उन्हें आहार दिया, देते हुए उसका दोनों पत्नियोंने समर्थन किया, चौदह प्रकारके मलोंसे मुक्त और अकुत्सित उस आहारको मुनियोंने अपने हाथरूपी पात्रसे स्वीकार कर लिया। बरतन आदि रखने का जो सुधर्म है, वह सुकर्म सत्यक ब्राह्मणकी कन्याने किया । उन चारोंने पुण्यरूपी बीजको प्राप्त किया और भोगभूमिकी परम आयुका बन्ध कर लिया। कौशाम्बी नगरोमें, जिसने युद्धके २६. १. AP एम । २. P अनंदिय । ३. P साहियउं । ४. A तेण वि खलु । २७. १. AP सच्चभाव । २. AP एप्पिणु । ३. A सदणे but records a : सर्वाणि वा । ४. AP अमियगय । ५. AP समरंगणं । Page #427 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३८० १० ५ सिरिमइदेविहि उयरुप्पण्णी दुज्जण मण इसारिय सल्लहु समउं वहुल्लियाइ गयगामिण सातमइ उविंद रत्ती धाइय पहरणपाणि ससंदण कह व णिवारहुं बे विण सक्किउ रज्जु सहु सदेहु माइवि रायाणीउ तेण जि मर्गे गर वे महियल णिवडेपिणु धादइडि पुग्वभायंतरि चत्तारि वि अज्जइं संजायई जाये णिब्भरु पेमर सिल्लउं हूई मुणिवरदाणें दिय महापुराण पत्ता - णंदणवणि शिवसंतहिं कारणिताहि अजुत्तउं [ ६०. २७. ८ तें सिरिकंत नाम सुय दिण्णी । सिरिसेणं गरुहहु पुरिमिल्लहु । अवर पवर संपेसिय कामिणि । मोहें मयरोहेण व मत्ती । दो रोचितं तहिं ॥ बिहिं मिजुज् आढत्तरं ||२७|| २८ सिरिसेणें अवलोइय णंदण | रवइ दूमि चित्ति चमक्किउ । विस सेलिधगंधु अग्घाइवि । दियधीयतिं तिह णासगें । मलियनयण तेत्थु मरेपिणु । उत्तरकुरुहि सुभोयणिरंतरि । छणुसहस पमाणियकायई । सीदिय मिहुणुल्लउं । बंभणि भामिणि पुरिर्स अणिदिय । प्रांगण में शत्रुदलका संहार किया है ऐसा महाबल नामका राजा था । उसके अपनी श्रीमती नामकी देवीके उदरसे उत्पन्न श्रीकान्ता नामकी पुत्री थी । दुर्जनों के मनमें शल्य उत्पन्न करनेवाले श्रीषेणके पहले पुत्र इन्द्रसेन से उसका विवाह कर दिया । उस बहूके साथ एक और गजगामिनी (अनन्तमति ) स्त्री भेजी गयी । वह अनन्तमति उपेन्द्रसेन में अनुरक्त हो गयी, मोहके कारण वह मदिरा समूहके समान मतवाली हो उठी । घत्ता - नन्दनवन में निवास करते हुए, दोष और क्रोधका विचार करते हुए उन दोनों के बीच उसके कारण अयुक्त युद्ध प्रारम्भ हो गया ||२७|| २८ हाथ में हथियार लेकर रथसहित दोनों भाई दोड़े । श्रीषेणने पुत्रोंको देखा, वह उन दोनों को किसी भी प्रकार मना नहीं कर सका। राजा मनमें दुःखी हुआ और आश्चर्य में पड़ गया । राज्य, अपना शरीर और स्नेह छोड़कर तथा विषकमल पुष्पकी गन्धको सँघकर, रानियाँ भी उसी मार्गसे, और उसी प्रकार ब्राह्मणकन्या भी नाकके अग्रभागसे ( सूँघकर ) भारी वेदनासे धरतीतलपर गिरकर और बन्द किये हुए नेत्रोंसे मरकर धातकीखण्डकी पूर्वदिशा में सुन्दर भोगोंसे निरन्तर उत्तर कुरुमें श्रेष्ठ लोग उत्पन्न हुए । उनके शरीरका प्रमाण छह हजार धनुष था । राजा श्रीषेण और सिंहनन्दिताका जोड़ा उत्पन्न हुआ जो प्रेमसे रसमय और पूर्ण था । ब्राह्मणी सत्यभामा स्त्री हुई और रानी आनन्दिता पुरुष । ६. AP पुव्विलहु | २८. १. P°सेलें । २. A रायाणियउ जि तेण जि । ३. A गरडवेय; P गरवेएं । ४. A सुललियणितरि । ५. A जो भिरपेम्म । ६. AP राय । ७. A भाविनि । ८. AP पुरिसु । Page #428 -------------------------------------------------------------------------- ________________ -६०. २९. १३] महाकवि पुष्पदन्त विरचित ३८१ घत्ता-जुझंतहं दुव्वारहं दोहं मि रायकुमारहं ॥ अंतरि थिउ विजाहरु णाइ गिरिंदहं जलहरु ॥२८॥ २९ पभणइ जिणकमकमलेदिदिरु जुज्झेउ फुल्लहिं वि असुंदरु । किं पुणु पहरणेहिं पिहिय कहि सत्तिसेल्ललंगेलचलचक्कहिं । तं णिसुणिवि भणंति ते भायर के तुम्हई पडिसेहकयायर। अक्खइ खेयरु दिवइ वायइ धादईसंडहु सुरदिसिभायइ। मंदरपुवासइ सुहवासइ खलविरहियपुक्खलवइदेसइ। तहिं रययायलि दाहिणसेढिहि आइञ्चाहणयरि गउ रूढिहि। खयरु सुकुंडलि रंभसमाणी अमियसेण णामें तहु राणी। मणिकुंडलि हर तहिं संभूयउ अत्थु व सुकइकह हि जणणूयउ । प्रवैरि पुंडरिक्किणि गउ तेत्तहि अमियप्पहु जिणपुंगमु जेत्तहि । पुच्छिउ सो मई णिययभवावलि कहइ भडारउ समयसमियकलि । पुक्खरदीवि वरुणसुरसिहरिहि पुत्वदिसहि हयसोयहि णयरिहि । घत्ता-रूवें णं मयरद्धउ महिवइ तहिं चक्कचउ ।। __ कणयमाल पीवरथणि तहु वल्लह सीमंतिणि ।।२९।। पत्ता-लड़ते हुए उन दोनों राजकुमारके बीच एक विद्याधर आकर स्थित हो गया। मानो पहाड़ोंके बीच, आकर मेघ स्थित हो गया हो ॥२८॥ २९ जिनभगवान्के चरणकमलोंका भ्रमर वह विद्याधर कहता है कि फूलोंसे लड़ना भी बुरा है। फिर सूर्यको आच्छादित कर देनेवाले शक्ति शैल हल और चलचक्र अस्त्रोंसे लड़नेका तो क्या कहना ? यह सुनकर उन दोनों भाइयोंने कहा कि मना करने में आदर रखनेवाले तुम कौन हो? तब विद्याधर दिव्यवाणीमें कहता है कि धातकोखण्डकी पूर्व दिशामें मन्दराचलकी शुभ पूर्व दिशामें दुष्टोंसे रहित पुष्कलावती देश है । वहाँ विजया पर्वतकी दक्षिण श्रेणी में आदित्य नगरके नामसे प्रसिद्ध नगर है। उसमें सुकुण्डली नामका विद्याधर था और अमृतसेना नामकी रम्भाके समान उसकी रानी थी। उससे उत्पन्न मैं मणिकुण्डल हूँ, ठीक उसी प्रकार जिस प्रकार सुकविकी कथाके लोगोंके द्वारा संस्तुत अर्थ । वहाँसे मैं विशाल पुण्डरीकिणी नगर गया कि जहाँपर अमृतप्रभ जिनश्रेष्ठ थे। मैंने उनसे अपनी भवावलि पूछी। सिद्धान्तके ज्ञानसे जिन्होंने पापको शान्त कर दिया है ऐसे उन्होंने बताया, "पुष्कर द्वीपमें पश्चिम सुमेरुकी पूर्वदिशामें वीतशोक नामक नगरमें। पत्ता-रूपमें कामदेवके समान चक्रध्वज नामका राजा था। कनकमाला* नामको उसको स्थूल स्तनोंवाली प्रिय पत्नी थी ।।२९।। २९.१. A जुज्झव्वउ । २. P "सेल । ३. P वेयरु । ४. A संडइ। ५. A सुकहकहाहे जणियउ । ६. A पवरपुंडरिंगिणि; P पवरपुंडरिकिणि । ७. A समपसमिय । ८. P कणयद्धउ । * कनकमालिका। Page #429 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 1 ३८२ ५ १० कणयलया सररुहलय णामें धी बेणि तोहि मृगणेत्तउ विज्जैमईदेवि हि यदुम्मइ अमियसेण कंतियहि णवेष्पिणु सा गय सग्गहु आराईयहु सुर जोएवि सुरूवें रंजिय काले जंत सुरलोयहु चु कणयलया जलरुहलय धीयउ इंदरविंद से पंकयमुह सोक्खु असंखु सुरु मुंजे पिणु हुई कहिं म महाबलकामिणि महापुराण ३० णियेकर भल्लि घित्त णं कामें । कयलीकंदल को मलगत्तउ । तासु जि रायहु सुय पोमावइ । कणयमाल सावयवउ लेपिणु । भोयभारसंपीणिर्ये जीवहु । पोमावइ हूई सुरलंजिय । कणयमालकुंडलि हउं हुउ । बेणि विरिवि सुकम्म विणीयउ । जाया रणराहितणुरुह । सुरलंजिय सग्गाउ चऐप्पिणु । दिor विवाहितु गयगामिणि । तं चक्खु विदिट्ठरं ॥ दोहिं मिजुज्झु णिवारहुं ||३०|| ३१ घत्ता - जं जिणणाहें सिट्ठउं हउं आयउ ओसारहुं कासु वि को विण किं किर जुज्झहु हउं मायरि चिरु तुम्हई तणयउ [ ६०.३०. १ भवसंसरणु ण किंपि वि बुज्झहु । हतियार परिपालियपेणयड । ३० उसकी कनकलता और पद्मलता नामकी सुन्दर कन्याएं थीं, जो मानो कामदेवके द्वारा फेंकी गयी उसके हाथ की भल्लिकाएँ थीं । उसकी दोनों कन्याएँ मृगनयनी और कदली कन्दल के समान कोमल शरीरवाली थीं। उसी राजा ( चक्रध्वज ) की विद्युत्मती देवीसे दुर्मतिको नाश करनेवाली पद्मावती नामकी देवी हुई । अमितसेना नामकी आर्यिकाको प्रणाम कर कनकमाला श्रावक व्रत लेकर जिसमें भोगोंके भारसे जीव प्रसन्न रहता है, ऐसे सौधर्म स्वर्ग में गयी । देवको देखकर पद्मावती रूपसे रंजित हो गयो और वह स्वर्ग में दासी हुई । समय बीतनेपर स्वर्गलोक से च्युत होकर मैं कनककुण्डली देव हुई हूँ । कनकलता और पद्मलता अपने कर्मसे विनीत दोनों पुत्रियाँ मरकर कमलमुख इन्द्रसेन और उपेन्द्रसेन के नामसे रत्नपुरके राजाकी पुत्र हुई हैं । बहुत समय तक असंख्य सुखका भोग कर, वह देवदासी स्वर्गसे च्युत होकर कहीं अनन्तमती नामकी वेश्या हुई । और वह गजगामिनी तुम्हें विवाह में दी गयी । घत्ता -- जो कुछ जिननाथने कहा था, उसे मैंने आज यहाँ प्रत्यक्ष देख लिया । आज मैं तुम दोनों को युद्ध से मना करने और अलग करने आया हूँ ||३०|| ३१ कोई किसी से कुछ भी युद्ध न करे, संहारके परिभ्रमणको क्या कुछ भी नहीं समझते । मैं ३०. १. A णिवकर । २. A तहो मिगं ; P ताहि मिगं । ३ AP विज्जमई । ४. AP जीयहु । ५. AP सवें । ६. A चुएप्पिणु । ३१. १. A पालियविणयउ । Page #430 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३८३ -६०. ३२. ६ ] महाकवि पुष्पदन्त विरचित देवत्तणु माणिवि णरजाया किं पहरह उग्गामियघाया। तं णिसुणिवि कुमार हयछम्महु तर चरेवि पयमूलि सुधम्महु । गय मोक्खह णिक्खवियरओहह अट्रमहागणविरहयसोहह । जो सिरिसेणु पुणु वि जो कुरुणरु पढमकप्पि सो जाउ वरामरु । सिरिपहु सुरहरि णं ससहरपह हुय हरिणंदियज विज्जुप्पैह । कुरुमणुयत्तणु माणिवि बहुमेहु देवि अणि दिय दिवि विमलप्पहु । सुरु हूई पुणु बंभणि वयसह सच्चभाम तहु कंत ससिप्पह । घत्ता-जो सिरिसेणु महाइउ कुरुणरु सुरु सग्गाइउ ।। सो एवहिं तुहुं जायउ अमियतेउ खगरायउ ॥३१।। जा सा सइ पंचाणणणंदिय सा जोइप्पह घरिणि अणिंदिय । पुणु हूई सिरिविजउ वियाणहि सोत्तिणि सच्चभाम अहिणाणहि । जा सा धुवु सुतार सस तेरी सुरणरविसहरहिययवियारी। कविलु सुइरु हिंडिवि संसारइ भूयरमणकाणणि भयगारइ । पविउलअइरावयणइतीरइ कोसियतावसमुत्तसरीरइ । चवलवेयतवसिणियइ जणियउ सो मयसिंगु णाम सुउ भणियउ । पूर्वजन्मको प्रेमका परिपालन करनेवाली तुम्हारी माँ हूँ। तुम देवत्वका भोग कर मनुष्य रूपमें जन्मे हो। घात उठाये हुए प्रहार क्यों करते हो?" यह सुनकर दोनों कुमार क्रोधका नाश करनेवाले सुधर्मा मुनिके चरणमूलमें तपका आचरण कर, जिसमें पापोंके समूहका क्षय हो गया है और जिसमें आठ महागणोंकी शोभा है ऐसे मोक्ष चले गये। जो श्रीषण था और जो करुनर हुआ था वह प्रथम स्वर्गमें श्रेष्ठ देव हुआ-श्रीप्रभ नामक विमानमें श्रीप्रभ नामका। सिंहनन्दिता नामको रानी उसी स्वर्गमें विद्युत्प्रभ देव हुई। कुरु भोगभूमिके सुखोंको मानकर अत्यधिक तेजवाली देवी अनिन्दिता स्वर्गमें विमलप्रभ नामका देव हुई। व्रतोंको सहते हुए ब्राह्मणी सत्यभामा शशिप्रभा ( शुक्लप्रभा ) नामकी उसको देवी हुई। पत्ता-जो आदरणीय श्रीषेण था, कुरुनर और देव, वह स्वर्गसे आकर इस समय तुम अमिततेज नामक विद्याधर राजा हुए हो ॥३१॥ ३२ जो सती सिंहनन्दिता थी वह ज्योतिप्रभा नामकी तुम्हारी गृहिणी है। और जो अनिन्दिता थी वह श्रीविजय हुई, यह जानो। और जो सत्यभामा ब्राह्मणी थी, उसे तुम सुर, नर और विषधरोंका हृदय विदारित करनेवाली तुम्हारी बहन सुतारा निश्चित रूपसे पहचानो। वह पुराना कपिल संसारमें लम्बे समय तक परिभ्रमण कर भयंकर भूतरमण काननमें विशाल ऐरावती नदीके किनारे जिसके शरीरका भोग कौशिक तपस्वीने किया है, ऐसी चपलवेगा नामक २. AP माणवि । ३. A कुमारयछम्महु । ४. P विज्जापह । ५. A बहसुहु। ६. AP बंभणि पुणु । ७. सच्चभाव । ३२. १. AP सच्चभाव । २. P रमणि काणणि । Page #431 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३८४ महापुराण [६०. ३२.७तेण तवंत कामविलुद्धउं खयरु णिएवि णियाणु णिबद्धउं । जायउ सुउ आसुरियहि तरुणिहि असणिघोसु रत्तउ चिरघरणिहि । पिउ णियविज्जाविहवें मोहिवि णिय कंचणविमाणि आरोहिवि । पभणइ तिजगणाहु ण रुसिज्जइ. अमियतेय जीवहं खम किज्जइ। णिसुणि णिसुणि किं बहुयइ वत्तई णवमइ जम्मतरि संपत्तइ । घता-धुंव पंचमु चक्केसर इह सोलहमु जिणेसरु । __ भरहि राय तुहुं होसहि पुप्फदंतसिरि लेसहि ॥३२॥ १० महापुराणे विसटिमहापुरिसगुणालंकारे महामव्वमरहाणुमण्णिए महाकइपुष्फयंतविरइए महाकव्वे संतिगाहमवावलिवणणं णाम सहिमो परिच्छेभो समत्तो ॥६॥ तपस्विनीसे उत्पन्न हुआ मृगशृंग नामका पुत्र कहा गया। तप करते हुए उसने विद्याधरको देखकर कामसे लुब्ध निदान बाँधा। वह आसुरी नामकी स्त्रीसे उत्पन्न हुआ और अपनी पुरानी स्त्रीमें अनुरक्त हुआ। प्रिय श्रीविजयको अपनी विद्याके विभवसे मोहित कर और स्वर्णविमानमें चढ़ाकर उसे ले गया। त्रिजग स्वामी कहते हैं कि हे अमिततेज, क्रोध नहीं करना चाहिए। जीवोंको क्षमा करना चाहिए। सुनो-सुनो, बहुत कहनेसे क्या? नौवां जन्मान्तर प्राप्त करनेपर पत्ता-निश्चयसे तुम पाँचवें चक्रवर्ती और यहां सोलहवें तीर्थंकर होगे। तुम भरतक्षेत्रके राजा और मोक्षलक्ष्मी प्राप्त करोगे ॥३२।। इस प्रकार त्रेसठ महापुरुषों के गुणालंकारोंसे युक्त महापुराणमें महाकवि पुष्पदन्त द्वारा विरचित एवं महामव्य भरत द्वारा अनुमत महाकाव्यका शान्तिनाथ भवावलि वर्णन नामका साठवाँ परिच्छेद समाप्त हुआ ॥१०॥ ३. P आसुरिहि । ४. AP चिरु घरिणिहि। ५. A थिउ णिय'; P पिउ मयं । ६. P बत्तइ । ७. A ध्रुव । ८. A राउ । Page #432 -------------------------------------------------------------------------- ________________ संधि ६१ सो असणिघोसु आसुरियसिरि देवि सुतार सयंपह वि ॥ पंवइयई णिसुणिवि जिणवयणु जिणु पणवेप्पिणु तिजगरवि ॥ध्रुवक। सिरिविजयके मारुयवेएं वउ उज्जालिउ घरु बेणि वि जण सुरकरिकरमुउ णिरु णिरवजउ उत्तमसत्ती णहयलगामिणि जलसिहिथंभणि अंधीकरणी विस्सपवेसिणि अप्पडिगामिणि पास विमोयणि बलणिक्खेवणि णिग्गयसंके। अपमियतेएं । पोसहु पालिउ । गय ते सज्जण । रवि कित्तीसुउ। साहइ विजउ । चलपण्णत्ती। इच्छियरूविणि । वंधणि रुंभणि । पहरावरणी। अवि आवेसिणि । विविहपलाविणि । गहणीरोयणि । चंडपहावणि । सन्धि ६१ वह अशनिघोष, आसुरीदेवी, सुतार और स्वयंप्रभा भी त्रिजग सूर्य जिनवरको प्रणाम कर और जिनवचनोंको सुनकर प्रवजित हो गये। शंकाओंसे दूर, वायुके समान वेग और अपरिमित तेजवाले श्रीविजयने व्रतका उद्यापन किया, प्रोषधोपवासका पालन किया। वे दोनों (श्रोविजय और अमिततेज) ही सज्जन घर गये। ऐरावतको सूंडके समान हाथोंवाला, अर्ककीर्तिका पुत्र अमिततेज अत्यन्त निरवद्य विद्याएँ सिद्ध करता है। उत्तम शक्ति, चलप्रज्ञप्ति, आकाशगामिनी, कामरूपिणी, जलस्तम्भिनी, अग्निस्तम्भिनी, बन्धिनो, रुंभनी, अन्धीकरिणी, प्रहारावरणी, विश्वप्रवेशिनी और आवेशिनी, अप्रतिगामिनी, विविधप्रलापिनी, पाशविमोचिनी, ग्रहनिरोधिनी, बलनिक्षेपिणी, चण्डप्रभाविनी, १. १. AP पावइयई । २. P णिसुणवि । ३. AP भिणि । ४. AP°णिरंभणि । ५. A पहराधरणी । ६. K records ap: चल इति पाठे चपला। ७. AP'पहाविणि । Page #433 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३८६ महापुराण [६१. १. १७पहरणि मोहणि जंभणि पाडणि। अवर पहावइ सइ पविरलगइ। भीमावत्तणि ' पवरपवत्तणि। पुणु लहुकारिणि भूमिवियोरणि। रोहिणि मणजव देवि महाजव। चंडाणिलज णिरु चंचलजव । बहुलुप्पायणि सत्तुणिवारिणि । अक्खरसंकुल खलगल संखल। मायाबहुई पण्णलेहूइ। हिमवेयाली सिहियाली। मोक्कलवाली चलचंडाली। अलिसामंगी सिरिमायंगी। इय वरविजहिं णहयरपुजहिं । उहसेढीसरु हुउ परमेसरु। अण्णहि वासरि तेणे सणेसरि। दमवरणामहु णिजियकामहु। पुण्णुप्पायणु दिण्णउ भोयणु। घत्ता-तें चारणदिपणे भोयणेण ईंह रत्ति जि संभविउ फलु ॥ सुररवु दुंदुहिसरु वसुवरिसु मेहहिं वुट्ठउ सुरेहिजलु ॥१॥ ३५ प्रहरिणी, मोहिनी, जम्भनी, पातनी और प्रभावती, प्रविरलगति, भीमावर्तनी, प्रबलप्रवर्तनी, फिर लघुकारिणी, भूमिविदारिणी, रोहिणी मनोवेगा, चण्डवेगा, अग्निवेगा, बहुलोपिनी, शत्रुनिवारिणी, अक्षरसंकुला, दुष्टगलशृंखला, मायाबह्वी, पर्णलध्वी, हिमवेताली, शिखीवेताली, मक्त आलापिनी, चलचाण्डाली और भ्रमर-श्यामांगी. इस प्रकार विद्याधरोंके द्वारा पूजित इन वर विद्याओंके द्वारा वह दोनों श्रेणियोंका परमेश्वर हो गया। आदित्य सहित दूसरे दिन ( रविवारके दिन ) उसने कामको जीतनेवाले दमवर मुनिको पुण्यको उत्पन्न करनेवाला भोजन दिया। घत्ता-उन चारण मुनिको दिये गये भोजनसे इसी जन्ममें फल प्राप्त हुआ। देवध्वनि, दुन्दुभिस्वर, धनवृष्टि और मेघोंके द्वारा सुरभित जलकी वर्षा ॥१॥ ८. A भंडणि पाडणि; Pबंधणि पाणि । ९. AP °वियारिणि । १०. A चंडालिनिजव । ११. मायापहई; K मायवहइ but corrects it to माया । १२. P पण्णइ लहई। १३. A तेण णरेसरि । १४. A इह रत्त जि । १५. A सुह जलु । मायाविधारि । पण लहई हालिभिजन Page #434 -------------------------------------------------------------------------- ________________ -६१. २. १९ ] महाकवि पुष्पदन्त विरचित २ णामण सावसरु | साहू पासम्म | सिरिविजयराएण | वणहरणकम्माईं | दाइज्जमलणारं । सणियाणमरणाई | रभवविलासाई | हरिगीहिणाई | कयणरयगमणाई | अमरगुरुदेव गुरु मोहवासम्मि तहिं अमियतेरण णियतायजम्माई सिलखंभदलणाई तवचरणकरणाई सुरलोयवासाई पक्खिमहणाई सिरिरमणिरमणाई जसैकंतिफुरणाई रिसिणा कहिया दोहिपि सुवयाई सिरिविजउ तहंतु पुणु कालमाण विउलमइ विमलमइ णाऊण मासाउ रवितेय सिरियत्त यियितणुभूय " दोन्हं पि हविऊण असुरारिचरियाई । सोऊण गहियाई । अमयाई सुयाई । मणिमह परिमाणेण । तु । णमिऊण परमजइ । मोत्तूण मासाउ | राई वदलणेत्त । कंदष्पसमरूय | कुलमग्गि थविऊण | ३८७ १० २ किसी एक दिन अवसर पाकर अमरगुरु और देवगुरु नामके मुनियोंके मोहपाशका नाश करनेवाले सामीप्यमें उन अमिततेज और श्रीविजयने अपने पिताके जन्मों, वनहरण कर्मों ( शिलाखम्भको चूर्ण करना, शत्रुओंका मानमर्दन करना, तपश्चरण करना, निदानपूर्वक मरना, सुरलोक में निवास करना, मनुष्यभवके विलास, प्रतिपक्षोंका मथन, अश्वमीवका निधन, श्रीरमणीसे रमण, नरकके लिए गमन करना, यश और कान्तिका स्फुरण, असुर शत्रुके चरित) मुनिनाथके, द्वारा कथनको सुनकर सुव्रतों और अमित दयाओंको ग्रहण कर लिया । तृष्णासे आकुल श्रीविजय मनमें कृष्णत्व ( नारायणत्व ) को महत्त्व देता है । विमलमति और विपुलमति परममुनियोंको नमस्कार कर, अपनी आयु एक माहको जानकर, लक्ष्मीका आस्वाद (भोग) छोड़कर, कमलदलके नेत्रोंवाले रवितेज और श्रीदत्त नामक अपने कामदेव के समान अपने-अपने पुत्रोंका अभिषेक कर, २. १. A दिव्वगुरु । २. A णामेण । ३. P adds after this : जसकित्तिपुरियाइ, असुरारिचरियाई, which in our text is line 10 below । ४. A जसकित्तिफुरियाई । ५. A सदयाई; A adds after this: भवभावखमियाई; K also writes it but scores it off । ६. A परिवुड्ढमाणेण; P परिवड्ढमाणेण । ७. AP णविऊण । ८. AP दोहि पि । ९. A णविऊण । १५ Page #435 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३८८ महापुराण [ ६१. २. २०चंदणवणंतम्मि णंदणमुणी जम्मि । २० णिम्मुक्ककम्मम्मि पेईस रिवि लहु तम्मि । घत्ता-अहिसिंचिवि पुजिवि परमजिणु वंदिवि भत्तिस मैग्यविउ ।।। आहारु सरीरु वि परिहरिवि बिहिं मि परत्तु जि चिंतविउं ॥२॥ जं णियपरपेसणसुणिरवेक्खु जं धोरसरायकसायसमणु तेरहमइ कप्पि मणोहिरामि हुउ अमियतेउ रविचूलु देउ मणिचूलु णामु सिरिविजउ तेत्थु को वण्णइ ताहं महापहाउ कालेण जंबुदीवंतरालि वच्छावइदेसि पहायरीहि णीसेसकलाल उ मणुययंदु तहु देवि हि देउ वसुंधरीहि आवेप्पिणु णंदावत्तणाहु जं णिण्णासियभवबंधदुक्खु । तं कयउं तेहिं पाओवमरणु । सुरणंदिय गंदावत्तधामि । सत्थिउ णामें अवरु वि णिकेउ । सुरवरु जायउ लक्खणपसत्थु । ते बे वि वीससायरसमाउ | इह पुत्वविदेह रमाविसालि । णयरिहि वणकीलियकिंणरीहि । णामेण थिमियसायरु णरिंदु । रविचूलु गम्भि थिउ सुंदरीहि । अवराइउ हुउ थिरथोरबाहु । १० कुलमार्गमें ( राजगद्दी ) पर स्थापित कर, जिस चन्दनवनमें नन्दनमुनि थे उसमें प्रवेश कर, निर्मुक्तकर्म उसके पास शीघ्र घत्ता-भक्तिसे प्राप्य जिन भगवान्का अभिषेक, पूजा और वन्दना कर, आहार और शरीरका त्याग कर दोनोंने परत्व (श्रेष्ठ तत्त्व ) का चिन्तन किया ।।२।। जो अपने पराये प्रयोजनसे निरपेक्ष हैं, जिसने संसारके बन्ध और दुःखका नाश कर दिया है, जिसमें घोर कषायका शमन है, उन्होंने ऐसा प्रायोपमरण किया। सुन्दर तेरहवें स्वर्गमें, देवोंके द्वारा आनन्दित नन्दावतं विमानमें अमिततेज रविचूलदेव हुआ। वहां एक और स्वस्तिक नामक विमान था, श्रीविजय उसमें लक्षणोंसे प्रशस्त मणिचूल देव हुआ। उनके प्रभावका वर्णन कोन कर सकता है। वे दोनों बीस सागरकी आयुवाले थे। समय होनेपर जम्बूद्वीपके लक्ष्मीसे विशाल पूर्व विदेहमें वत्सकावती देशकी जिसके वनमें किन्नरियां क्रीड़ा करती हैं, नगरीमें मनुष्यश्रेष्ठ समस्त कलाओंका घर स्तमितसागर नामका राजा था। उसकी देवी सुन्दरी वसुन्धराके गर्भ में वह देव आकर स्थित हो गया। नन्दावर्त विमानका वह स्वामी अपराजित नामसे स्थिर और स्थूल बाँहोंवाला पुत्र हुआ। १०. पइसरवि । ११. P समुग्धविउ । ३. १. A पावोगमरण; Pपाओवगमरण । २. A पहावरीहि । ३. अमियसायरु; P तिमियसायर । Page #436 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३८९ -६१.५.३] महाकवि पुष्पदन्त विरचित घत्ता-मणिचूलु वि सत्थियसुरेहरहु णिवडिवि हुउ अणुमइतणउ । सो सूहउ सोम्मु सुलेक्खणउ वणे जियणीलंजणउ ॥३॥ परदुजउ केसउ मणि गणेवि कोक्किउ अणंतवीरिउ भणेवि । पढमहु विरएप्पिणु पट्टबंधु लहुयहु ढोइवि जुवरायचिंधु । सिंहासणु छत्तई परिहरेवि णिम्मोहभावभावणउ लेवि । अरहतहु अविचितियपहासु पिउ सरणु पइठु सयंपहासु । अवलोइवि कत्थइ णायराउ सिरितण्हइ मरिवि फणिंदु जाउ । पुरि सुहं वसंति ते बे वि भाइ णडि बब्वरि अण्णेक वि चिलाइ। णञ्चंति ताउ ते तहिं णियंति जा ताम हारहिमहासकंति । आयउ णारउ दिग्गयजसे हिं संमाणिउ उ रसपरवसेहिं। घत्ता-मणि रोसु हुयासणु पज्जलिउ सहहुं ण सकिउ चैलियगहि ॥ सो जंतु ण केण वि दिलु तर्हि पवणु चडुलु उल्ललि उ जहि ॥४॥ १० गउ रूसिवि सिवमंदिरपुरासु दमियारिहि विज्जाहरणिवासु । वज्जरिउ तेण रयणाई कासु पई मेल्लिवि को महियलि महीसु । ववरिचिलाइणामालियाउ णच्चणिउ दोणि वरबालियाउ । घता-मणिचूल देव भी स्वस्तिक विमानसे च्युत होकर अनुमतिका पुत्र हुआ। वह सुभग सौम्य सुलक्षण रंगमें नील और अंजन पर्वतको जीतनेवाला था ॥३॥ मनमें बलभद्रको शत्रुओंके द्वारा अजेय समझकर उसे अनन्तवीर्य कहकर पुकारा गया। पहलेको पट्ट बांधकर और छोटेको युवराजके चिह्न देकर सिंहासन और छत्र छोड़कर निर्मोह भावनाका चिन्तन करते हुए वह अचिन्तनीय प्रभाववाले स्वयंप्रभ अरहन्त की शरण में गया। कहींपर नागराजको देखकर लक्ष्मीकी कामनासे मरकर वह धरणेन्द्र हुआ। वे दोनों भाई उस नगरीमें सुखपूर्वक रहने लगे। उनकी बर्बरी और किलातो नामकी दो नर्तकियां थीं। जब वे दोनों नाच रही थी और वे दोनों देख रहे थे तभी हार हिम और हास्यके समान कान्तिवाले श्री नारद मुनि आये। दिग्गजोंके समान यशवाले रसके वशीभूत ( नाट्यरस ) उन दोनोंके द्वारा उनका सम्मान नहीं किया गया। पत्ता-उनके मन में क्रोधकी ज्वाला भड़क उठी। वे उसे सहन नहीं कर सके, आकाशमें जाते हुए उन्हें कोई नहीं देख सका। पवनकी तरह चंचल वे आकाशमें उछल गये ॥४॥ वह रूठकर दमितारि राजाके निवास शिवमन्दिरपुर गये। उन्होंने वहां कहा, "रत्न किसके पास हैं, आपको छोड़कर धरतीपर और कौन राजा है ? बर्बरी और किलात नामकी दो ४. A मणिचूलि । ५. A°सुरवरहु णिवडिवि ताहि जि हुउ तणउ । ६. A सलक्खणउ । ४. १. AP सीहासणु । २. A चलियम्गहि । Page #437 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३९० महापुराण [ ६१. ५.४ पहयरिपुरि अवराइयहु गेहि णं विज्जुलियउ अच्छंति मेहि । बेणि वि थणभारें भग्गियाउ लइ णरवइ तुज्झु जि जोग्गियाउ । पट्टवहि मंति आणवहि तुरिउं । राएण वि तं णियचित्ति धरि । अवलोइय मंतिमहंत संत सहसा संपेसिय बुद्धिवंत । गय ते वि पुरिहि पहायरीहि जे वल्लइ तणय वसुंधरीहि । लइ तेहिं ताहं उवइटठु कज्जु जइ इच्छह संपयविउलु रज्जु । तो णियणडिजुयलउं देहु ताम दमियारिदेउ रूसइ ण जाम । ता पोसहणियमालंकिएण जिणपायपोमसेवापिएण। पत्ता-जिणभवणथिएण णराहिविण अवराइइण समंतियणु । आउच्छिउ दिजउ तियर्जुयलु कि किजउ सह तेण रणु ।।५।। तं णिसुणिवि मंति भणंति एम्व णारीदाणेण वे होइ मलिणु थिउ चिंताउरु गरणाहु जाम सव्वउ पण्णत्तिपहूइयाउ खयराहिउ दुजउ समरि देव । तं णिसुणिवि मवेलियणयणवयणु । चिरैभवविजउ पत्ताउ ताम । रिउवह चवंति व सिहइयाउ । सुन्दर नर्तकी बालाएं प्रभाकरी नगरीके राजा अपराजितके घर में इस प्रकार हैं, मानो मेघोंमें बिजलियाँ हों। वे दोनों ही स्तनभारसे भग्न हैं । हे राजा, तुम ले लो, वे दोनों तुम्हारे योग्य हैं। मन्त्री भेज दो, वह शीघ्र ले आये।" राजाने भी इस बातको अपने मनमें ठान लिया। उसने अपने विद्वान् मन्त्रणामें महान् मन्त्रियोंकी ओर देखा और बुद्धिमान् मन्त्रियोंको भेजा। वे भी उस प्रभाकरी नगरीके लिये गये, जो वसुन्धरा (धरती ) के लिए प्रिय थी। शीघ्र ही उन्होंने उससे अपना काम कहा कि यदि तुम सम्पत्तिसे विपुल राज्य चाहते हो तो अपनी दोनों नर्तकियां दो, कि जिससे हे देव, राजा दमितारि नाराज न हो। तब प्रोषधोपवासके नियमसे अलंकृत तथा जिसे जिनवरके चरणकमलोंकी सेवा प्रिय है ऐसे उस घता-जिनमन्दिरमें स्थित राजा अपराजितने अपने मन्त्रीगणसे पूछा- "उसे नर्तकीयुगल दे दिया जाये या युद्ध किया जाये ?" ||५|| यह सुनकर मन्त्रियोंने इस प्रकार कहा-“हे देव, विद्याधर राजा युद्ध में दुर्जेय है, लेकिन नारीदानसे भी कलंक लगेगा ?" यह सुनकर अपना मुख और आँखें बन्द करके राजा जब चिन्तासे व्याकुल बैठा था, तब उसे पूर्व भवको अर्जित विद्याएं प्राप्त हुई। प्रज्ञप्ति प्रभृति सभी ५. १. AP जोगियाउ। २. AP आलोइय। ३. A मंतमहंत । ४. A जे पियसुय वसुहवसुंधरी हि; Pजे पियसुहवसहि वसुंधरीहि । ५. AP भवणि थिएण । ६. P तियजमल । ६. १. AP वि । २. AP मउलियवयणणलिणु । ३. AP चिरुभव । ४. AP add after this: जंपति णवंति सदुइयाउ, चिरु सामिहि दासत्तणु गयाउ, को पहणहु को आणह धरेवि । Page #438 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३९१ -६१.७.९ ] महाकवि पुष्पदन्त विरचित वयणेण तेण संतुटु बे वि भायर णियमंतिहि रज्जु देवि । गय सिवमंदिरु वित्थारएण कवडें णडिवेसायारएण। दरिसिउ रायहु पडिहारएण जं संजुत्तउं सिंगारएण। दूऐण कहिउ तं एउ राय को सहइ तुहारा विसमघाय । अवराइएण लइ दिण्णु तुज्झु कामिणिजुयलुल्लडं खीणमझु । घत्ता-ता कडयम उडमणिकुंडलहिं कंचीदामहिं भूसियउ । दमियारे मायामाणिणिउ सुइसुमहुरु संभासियउ ॥६॥ करणंगहारबहुरसविसट्टु बीयइ दिणि अवलोएवि णटु । वीणाझुणि घणथण मज्झखाम अदुईय धीय कणयसिरिणाम । अप्पिय ताएं मायाविणीहिं णाडउं सिक्खाविय भाविणीहिं । णञ्चंतिहि तेहि पुणु कामवेसु गाइउ अणंतवीरिउ गरेसु । कण्णाइ भणिउं को सो अणिंदु किं किंणरु किं सुरु किं फणिंदु । कित्तिमरूवाजीवाइ वुत्तु सो कुमरु थिमिर्यसायरहु पुत्त । परमेसरु पहयरिपुरिणिवासु अवराइउ भायरु होइ जासु। उवमिज्जइ सो भुवणयलि कासु ता कण्णहि लग्गउ कामपासु । सा भणइ मोरकेकारवाइ तहु दसणु लब्भइ केमे माइ। वशीभूत विद्याएं शत्रुवधकी बात कहती हैं। इस वचनसे वे दोनों भाई सन्तुष्ट हुए और अपने मन्त्रियोंको राज्य देकर, कपटसे नर्तकियोंके आकारको बनाकर वे दोनों विस्तारसे शिवमन्दिर नगर गये। प्रतिहारीने उन्हें राजा दमितारिको दिखाया। शृंगारक दूतने जो उपयुक्त था वह कहा कि हे राजन्, तुम्हारा विषम आघात कौन सहन कर सकता है। लो अपराजितने तुम्हें क्षीण मध्यभागवाली दोनों नर्तकियां दे दी। घत्ता-तब कटक मुकुट और मणिकुण्डलों तथा कांची दामोंसे विभूषित मायाविनी नर्तकियोंसे दमितारिने मधुर वार्तालाप किया ॥६॥ दूसरे दिन करणों, अंगहारों तथा अनेक रसोंसे विशिष्ट नृत्यको देखकर फिर अपनी वीणाके समान ध्वनिवाली मध्यक्षीणा और सघन स्तनोंकी अद्वितीय कनकश्री नामकी कन्या उन्हें सौंप दी। उन स्त्रियोंने उसे नाटक सिखाया। उसके नाचते हुए कामरूप अनन्तवीर्य राजा (गीतमें) गाया गया। कन्याने पूछा-यह कौन राजा है-क्या किन्नर है, क्या देव है या नागेन्द्र ? वेश्याका कृत्रिम रूप बनानेवाली उन्होंने कहा कि वह स्तिमितसागर राजाका पुत्र है, शत्रुपुरीके निवासोंको आहत करनेवाला परमेश्वर अपराजित जिसका भाई है। धरतीतलपर उसकी उपमा किससे दो जा सकती है। यह सुनकर कन्या कामबाणसे आहत हो गयी। मयूरको केका वाणीमें वह ५. AP add after this : परिमिय ( P परमिय ) जणेहि णोसरिय बे वि । ६. AP दूयएण । ७. १. A तहिं आय धीय । २. AP पुणु तहि । ३. A णरु । ४. तिमिय । ५. AP कण्हइ । ६. P कि ण माइ । Page #439 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३९२ महापुराण [६१. ७.१०१० दूसह विरह ग्गिझुलक्कभीउ दक्खालहि जाम ण जाइ जीउ । घत्ता-ता कवडणडित्तणु अवहरिवि थिउ हरि पायडु तणु करिवि ।। जोयंति तरुणि णं सिसुहरिणि विद्धी मयणे हुंकरिवि ।।७।। मणि खुत्तु कुमारिहि कामबाणु आरोहिवि धयचंचलु विमाणु । णिय सुंदरि तायहु कहिय वत्त तेण वि पारंभिय समरजत । पेसिय मंडलिय अणेयभेय सुर विज्जाहर चंदक्कतेय । ते जित्त पित्त रणराइएण हलिणा बलिणा अवराइएण । सयमेव पत्त ता चावपाणि हणु हणु भणंतु अहिमाणि दाणि । किर बेण्णि वि सर संधंति जाव। अंतरि पइठु दणुयारि ताव । जुज्झिय बेण्णि वि बहुपहरणेहिं ते केसव पडिकेसव घणेहिं । पच्छइ पुणु कित्तिहरहु सुएण मुक्कउ रहंगु णिठुरमुएण । तं लेप्पिणु हरिणा तहु जि दिण्णु विर्यलंतरुहिरु वच्छयलु भिण्णु । १० रिउ मारिवि किर चल्लंति जाम पयमेत्तु ण चलइ विमाणु ताम । घत्ता-ता पेक्खंतहिं सयलउ दिसउ समवसरणु अवलोइउं ।। हरिबलहिं बिहि मि विभियवसहिं णियविजामुहं जोइउं ||८|| बोली, "हे आदरणीय, उसके दर्शन कैसे हो सकते हैं, उसे दिखा दीजिए कि जबतक असह्य विरहाग्निकी ज्वालासे भीत मेरा जीव नहीं जाता।" घत्ता-तब नारायण अनन्तवीर्य अपना कृत्रिम नटत्व छोडकर तथा प्राकृत शरीर धारण कर स्थित हो गये । उसे देखकर वह तरुणी हुं करके कामसे इस प्रकार विद्ध हो गयो मानो तरुण हरिणी विद्ध हो गयी हो ॥७॥ कुमारीके मन में कामबाण लग गया। ध्वजोंसे चंचल विमानमें बैठाकर कुमारी सुन्दरी ले जायी गयी। पिताको यह समाचार दिया गया। उसने युद्धयात्रा प्रारम्भ की। उसने अनेक प्रकारके माण्डलीक तथा सूर्य-चन्द्रके समान तेजवाले देव विद्याधर भेजे । उन्हें जीतकर युद्धशोभी बलभद्र अपराजित और नारायण अनन्तवीयने भगा दिया। तब वह अभिमानी दानी हाथमें धनुष लेकर स्वयं 'मारो-मारो' कहता हुआ पहुंचा । जबतक वे दोनों अपने सरोंका सन्धान करें तबतक दानवोंका शत्रु दमितारि बीच में आ गया। वे नारायण और प्रतिनारायण सघन प्रचुर शस्त्रोंसे लड़े। परन्तु बादमें कीर्तिधरके पुत्र कठोर भुजाओंवाले दमितारिने चक्र फेंका। उसे झेलकर नारायण अनन्तवीर्यने उसीपर चला दिया। जिससे रक्त गिर रहा है, ऐसा उसका वक्षःस्थल भिन्न हो गया । शत्रुको मारकर जैसे ही वे दोनों चलते हैं, एक पग भी उनका विमान नहीं चल पाता। पत्ता-तब सब दिशाओं में देखते हुए उन्होंने समवशरण देखा। विस्मयके वशीभूत होकर नारायण और प्रतिनारायण अपनी विद्याओंके मुख देखने लगे ॥८॥ ८. १. AP विवाणु । २. AP हरिणा । ३. A अहिमाणदाणि; P अहिमाणखाणि । ४. A णिग्गंतरुहिरु । ५. AP पयमेत्त विवाणु ण चलइ ताम । ६. AP विभय । Page #440 -------------------------------------------------------------------------- ________________ -६१. १०.५] महाकवि पुष्पदन्त विरचित ३९३ सा भणइ महापहु विजयकंखु होतउ सिवमंदिरि कणयपुंखु । तहु तणउ तणउ कित्तिहरु राउ एयहु दमियारिहि होइ ताउ । संतियरहु सीसु मुएवि राउ थिउ वरिसमेत्तु परिमुक्ककाउ । अच्छइ भो केवलि जाहं एहू भत्तिइ वंदहुं वोसट्टदेहु । ता सम्वइं भवई तहिं गयाई वंदेप्पिणु परमप्पयपयाई। लायण्णवण्णणिज्जियसिरीइ आउच्छिउ चामीयरसिरीइ । भणु देवदेव णियजणणमरणु मई दिट्ठउ किं सुहिसोयकरणु । तं सुणिवि कहइ समसत्तुमित्तु मुवणत्तयणवराईवमित्तु । धत्ता-इह दीवि भरहि संखउरवरि वणि देविलु चक्कलथणिय ॥ बंधुसिरि घरिणि गुणगणणिलय सुय सिरिदत्त ताइ जणिय ॥९॥ १० १० पुणु कुंटि' पंगु अण्णेक दीण अण्णेक बहिर णउ सुणइ वाय अण्णेक्क एक्कलोयणिय जाय लहुबहिणि करुणे तोसियाउ वणि संखमहीहरि सीलबाहु. जिल्लक्खण हूई हत्थहीण । खुज्जी अण्णेक विमुक्कछाय । पिउ मुउ कालें गय मरिवि माय । छ वि एयउ पई घरि पोसियाउ । अवलोइट सम्वसंकु साहु । तब विजया कहती है कि शिवमन्दिर नगरकी विजयका अभिलाषी राजा महाप्रभु कनकपुंख था। उसका पुत्र कीर्तिधर राजा है, इस दमितारिका वह पिता है। यह राज्य छोड़कर शान्तिकर मुनिके शिष्य होकर, एक वर्ष तक कायोत्सर्गसे स्थित रहे हैं। अरे कायोत्सर्गमें स्थित वह केवली हैं। जाओ और भक्तिसे इनकी वन्दना करो। तब सब भव्य वहां गये । परमात्माके चरणोंकी वन्दना कर सौन्दर्य और रूपमें लक्ष्मीको पराजित करनेवाली स्वर्णश्रीने पूछा-'हे देवदेव बताइए, मैंने सुधोजनोंके शोकका कारण अपने पिताका मरण क्यों देखा।" यह सुनकर शत्रुमित्रमें समान भाव रखनेवाले बोले पत्ता-इस द्वीपके भरत क्षेत्रमें शंखपुर नगरमें देविल नामका वणिक् था। उसकी गोल स्तनोंवाली बन्धुश्री नामकी पत्नी थी। उसने गुणसमूहको घर श्रीदत्ता नामकी कन्याको जन्म दिया ॥२॥ फिर बौनी लँगड़ी एक और दोन लक्षणशून्य और हाथसे हीन हुई। एक और बहरी थी, जो बात नहीं सनती थी। एक और कान्तिसे रहित. बात नहीं सनती थी। एक दसरी एक आंखवाली कन्या उत्पन्न हुई। पिता मर गया और समय आनेपर माता भी मरकर चली गयी। करुणासे परिपूर्ण होकर तुमने इन छहों कन्याओंका घरपर पालन-पोषण किया। वन में शंखपर्वत ९. १. AP दमयारिहि । २. AP केवलि भो । ३. AP भणइ । ४. A भरह । १०. १. A कुंट; P कुट्टि । २. AP सच्छवि । ३. A सच्चजसंक । Page #441 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३९४ १० ५ महापुराण पालिय अहिंस वयणेण तासु दिण्णउं सुन्वयखंतियहि दाणु सम्मत्ताभावे कयड बालि सोहम्मसग्गि सामण्णदेवि हूई दमियारिहि तणिय पुत्ति rudra धर्मेो वासु । आहारवमणि विदिगिछेठाणु । मोप जणु जम्मजालि । होय माणुस देहु लेवि । जं दिट्ठी पिदुपवित्ति । घत्ता - तं वयैणीवमणविनिंदणहु फलु पई सुइ अमुँहुंजियरं ॥ हियउल्लउं जणणहु रणि वडिउ दिट्ठउं रुहिरें मंडियडं ॥१०॥ ११ तं णिसुणिवि हरि बल णियघरासु गोविंदत कइकाम घेणु रिजसुय तं तहु पहुंण देत कंचणसिरियहि संरंभगाढ आवेष्पिणु चवलाउहकरेहिं सोयरिंग दड्दु सरीर रुक्खु बल केसव पत्थिवि गय कुमारि सुपहहि पासि थिय संजमेण [ ६१.१०.६ कण्ण लेवि परिपुरासु । सिवमंदिरु गयउ अनंतसेणु । करवालहिं सूलहिं उत्थरंति । भार सुघोस वर विज्जदाढ | बेव हि हरिहलह रेहिं । असति सबंधवपलयदुक्खु । जिणु णविवि सपहु णाणधारि । गणणिहि संतिहि कहिएं कमेण । पर शीलबाहु और सर्वजशांक साधुके दर्शन किये। उनके उपदेशसे उसने अहिंसा धर्मका पालन किया । तथा एक और धर्मचक्र उपवास किया । सुव्रता नामक आर्थिकाको दान दिया। उसने आहारको वमन कर दिया ( लेकिन ) सम्यक्त्वके अभाव में (आर्यिका के द्वारा) आहारवमनको उस बालाने घृणाका स्थान माना । जन मोहके कारण जन्मजाल में पड़ते हैं । सौधर्म स्वर्ग में सामान्य देवी होकर, वहाँसे मरकर मनुष्य शरीर धारण कर वह दमितारिकी पुत्री हुई और इसलिए पिताके विनाशके कारण दुःख प्रवृत्ति उसने देखी। घत्ता - उस आर्या सुव्रताके वमनकी निन्दाका फल उसने भोगा । और युद्ध में मारे गये अपने पिताको रक्तसे सना हुआ देखा || १०|| ११ यह सुनकर बलभद्र और नारायण कन्याको लेकर अपने घर प्रभाकरीपुरीके लिए चले गये । गोविन्दपुत्र, कवियोंके लिए कामधेनु अनन्तसेन शिवमन्दिर के लिए गया । लेकिन शत्रुपुत्रों (सुघोष और विद्युष्ट्र ) ने उसे नगर में प्रवेश नहीं करने दिया । वे तलवारों और शूलों को लेकर उछल पड़े । हिंसा के संकल्पसे दृढ़ दोनों कनकश्री श्रेष्ठ भाई थे । तब अपने हाथों में चंचल आयुध लिये हुए उन दोनों ( बलभद्र और नारायण ) ने उन दोनों को मार डाला । उस ( कनकश्री) का शरीररूपी वृक्ष शोककी आगसे जलकर खाक हो गया । सम्बन्धियोंके विनाशका दुःख नहीं सह सकने के कारण बलभद्र और नारायणसे प्रार्थना कर ( अनुमति लेकर ) कनकश्री ज्ञानधारी स्वयंप्रभ मुनिको प्रणाम कर उपदिष्ट क्रम और संयम के साथ शान्त सुप्रभा आर्यिका के ४. K धम्मु । ५. AP विजिगिछ । ६. A तें वइणीव ; P तं वइव । ७. AP अणुहुजिउं । ८. AP रंजियउं । ११. १. AP पहयरपुरासु । Page #442 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३९५ -६१. १२. ११ ] महाकवि पुष्पदन्त विरचित सोहम्मि अमरु हूई मरेवि एत्तहि महि चक्के वसि करेवि । खग माणेव दाणव जिणिवि समरि णारायण सीरि पइट्ठ णयरि। घत्ता-बलए विजयासुंदरिहि हूई सुय णामें सुमइ ॥ कंकेल्लिपल्लवारत्तकर पाडलपिल्लयमंदगइ ।।११।। १२ णियमियदुद्दममणवारणासु घरु आयउ दमवरचारणासु । संपुण्णु अण्णु दिण्णउं समिधु पंचच्छेरउ पत्ती पसिर्छ । दिट्ठी पिउणा सुय दिण्णदाण णवजोवण रूवं सोहमाण । संणिहियसयंवरमंडवंति देसंतरायणररायकंति । जोवइ वरु जाकिर रहवरत्थ तावच्छर चवइ वरंबरस्थ । हलि दिल्लिदिलिए ण भरहि काई पई मई मि सम्गि भणियाइं जाई। जा पुत्वमेव ण लहइ णिजम्म सा इयरहि अक्खइ परमधम्मु । सुणि विहिं मि भवंतरु कहमि माइ पुक्खरवरद्धपुग्विल्लभाइ। भरहे णंद उरइ णं सुरिंदु णामेण अमियविकमु तहु अस्थि अणंतमइ त्ति भज्ज वरकइविज्जा इव जणमणोज । धणसिरि अणंतसिरि तहि सुयाउ हउं तुहुं बेण्णि वि सुललियभुयाउ । पास स्थित हो गयी। मरकर वह सौधर्म स्वर्ग में उत्पन्न हुई। यहां धरतीको चक्रसे जीतकर तथा विद्याधर, मनुष्य और दानवोंको युद्ध में जोतकर बलभद्र और नारायण नगरमें प्रविष्ट हुए। घत्ता-बलभद्र और विजयासुन्दरीसे सुमती नामकी सुन्दरी हुई। अशोक पल्लवोंके समान आरक्त हाथोंवाली और बालहंसके समान गतिवाली ॥११॥ १२ - जिन्होंने मनरूपी दुर्दम गजको वशमें कर लिया है ऐसे घर आये हुए दमवर चारण मुनिको उसने सम्पूर्ण और समृद्ध आहार दिया। वहां पांच आश्चर्य प्राप्त हुए। दान देनेवाली कन्याको पिताने देखा कि वह नवयौवनवती और रूपसे शोभित है। जिसमें देशान्तरके राजाओं और मनुष्य राजाओंको कान्ति है, ऐसे उस नवनिर्मित मण्डपमें रथवरपर बैठी हुई वह वर देखती है तो आकाशमें स्थित एक अप्सरा उससे कहती है-हे कन्ये, यह तुम्हें याद नहीं आ रहा है कि जो मैंने और तुमने स्वर्गमें कहा था कि जो पहले मनुष्य-जन्म नहीं लेगा वह दूसरेसे परमधर्म कहेगा। हे आदरणीय सुनो, दोनोंके जन्मान्तरका कथन करता हूँ। पुष्करार्ध द्वीपके पूर्वभागमें भरतक्षेत्रके नन्दनपुरमें सुरेन्द्र के समान अमितविक्रम नामका राजा था। उसकी अनन्तमती नामकी भार्या थी, जो वरकविको विद्याकी तरह लोगोंके लिए सुन्दर थी। उसकी मैं और तुम दोनों सुन्दर भुजाओंवाली धनश्री और अनन्तश्री नामकी कन्याएं थीं। २. AP दाणव माणव । ३. AP सवरि । ४. AP णाराइण । १२. १. AP संपक्कु । २. A समिट्ठ । ३. A सिट्ठ । ४. A सरहि । ५. A नृजम्मु । ६. P णंद उरिहि । Page #443 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३९६ ५ १० महापुराण घत्ता - वणि सिद्धमहागिरि गंपि हलि णंदणमुणिवरपयजुयलु ॥ वंदेष्पिणु ब्रँड उववासतउ चिण्णउं दुश्ञ्चरु गलियमलु || १२ || १३ तर्हि आयउ कत्थइ तिउरणाहु | अम्हई नियंतु मारेण महिउ । कामाउरु पडियागड वलेवि । णं हंसें कुवलयमालियाउ । ता दिड ते कलत्तु एंतु । ईसा सावसु विष्फुरंतु । भीण वेणुवणि घल्लियाउ । णिविणार्से मुयाउ । घत्ता - कंदु ण मूलु ण फलु ण दलु अहिलसियउ उ किं पिवणि ।। जोईसरु सासयसिद्धियरु परमजिणेसरु धरिवि मणि ||१३|| वज्र्जंगउ णामें ससेहराहु कंता कुलिसमा लिणिइ सहिउ गणियपुरि णियपणइणि थवेवि बेण्णि वि जणी संचालियाउ आयासि जाम धावइ तुरंतु भत्तारचित्तगइ संभरंतु णिक्करुणें दइवुप्पेल्लियाउ परिहरियभीमवणयरभयाउ हणवमी आहंडलहु देवि मेंरइपवर कुबेरणारि मंदरयलि दिउ चरियतिक्खु [ ६१.१२.१२ १४ हूई माणुस एवि । दीसरजतहि दुक्खहारि: दिहिसेणु णाम पणवेवि भिक्खु । घत्ता - हे सखी, सुनो सिद्धिमहागिरि पर्वतपर जाकर नन्दन नामक मुनिवरके चरणकमलोंको प्रणाम कर कठोर तथा मलनाशक उपवासतपरूपी व्रत ग्रहण किया ||१२|| १३ वहाँ चन्द्रमाके समान कान्तिवाला त्रिपुरका स्वामी वज्रांगद नामका विद्याधर राजा कहीं से आया । हमें देखकर वह कामसे पीड़ित हो उठा। अपनी पत्नीको अपने घर छोड़नेके लिए वह गया और कामातुर वह शीघ्र वापस आ गया। उसने हम दोनोंको इस प्रकार उठा लिया मानो हंसने कुवलयमालाको उठा लिया हो । जैसे ही वह आकाश में दौड़ा कि उसने तुरन्त अपनी पत्नीको आते हुए देखा । अपने पतिकी गतिकी याद करते हुए और ईर्ष्या कषायके कारण तमतमाते हुए। दैवसे प्रेरित निष्करुण उस भयावहने हमें वेणुवनमें फेंक दिया। जिन्होंने भीषण वनचरों के भयको छोड़ दिया है, ऐसी हम दोनों वहां संन्यासपूर्वक मर गयीं । घत्ता - शाश्वत सिद्धि देनेवाले योगीश्वर परम जिनको अपने मनमें धारण कर हम लोगोंने उस वन में न कन्द, न मूल, न फल और न दल कुछ भी न चाहा ॥१३॥ १४ मैं नौवें स्वर्ग में देवी हुई । तू मनुष्य शरीर छोड़कर कुबेरकी रति नामकी देवी हुई । दुःखका हरण करनेवाली नन्दीश्वरकी यात्रामें मन्दराचलपर चरित्र में तीक्ष्ण धृतिसेन नामक मुनिको देखा। उन्हें प्रणाम कर हम लोगोंने पूछा कि सिद्धत्व ( मोक्ष ) कब प्राप्त होगा । मुनिने ७. AP वउ । १३. १. A सहसबाहु । २. P मालिए । ३ AP दइउ पेल्लियाउ । Page #444 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३९७ ५ -६१. १५. ६ ] ___ महाकवि पुष्पदन्त विरचित पुच्छिउ सिद्धत्तणु कम्मि कालि होसइ रिसि भणइ भवंतरालि। चोत्थइ णित्थरह भवद्धिणोरु तं सुणिवि कण्ण विहुणिवि सरीरु। आउच्छिवि हरि बल बे वि ताय वंदिवि सुव्वयसंजइहि पाय । णिवकुमरिहिं सहुं सत्तहिं सएहिं पावज लइय भूसियवएहिं । एयारहमइ दिवि सुहणिहाणि सुरवरु हूई प्रोणावसाणि । केसवु महि मुंजिवि कम्मणडिउ रयणप्पहवसुहाविवरि पडिउ । सुउ रजि थवेवि अणंतसेणु जसहरगुरुचरणंबुरुहि लीणु । तउ चरिवि सीरि विहडियकसाउ सोलहमइ सग्गि सुरिंदु जाउ । घत्ता-पिउ जायउ जो उरयाहि वइ तासु पासि दंसगरयणु ।। पावेप्पिणु णरयहु णीसरिउ सो अणवीरियउ पुणु ॥१४।। १५ भरह म्मि एत्थु विजयाचलिंदि उत्तरसेढि हि धवलहररुंदि । णहवल्लहपुरि घणबाहु राउ घणमालिणिवरकंतासहाउ। घणवण्णउ जायउ ताहं पुत्तु घणणाहु णाम णवणलिणणेत्तु । सो सयलखयरखोणीवईसु मंदरणंदणवणि णमियसीसु । पण्णत्तिविज संसाहमाणु अच्चुयणाहें बोहिउ सणाणु । सम्मत्तु लएप्पिणु तिमिरणासु णिक्खंतु सुरामरगुरुहि पासु। बताया कि चौथे जन्मान्तरमें संसाररूपी समुद्रके जलसे तुम लोग तर जाओगी। यह सुनकर कन्या ( सुमति ) अपना शरीर कंपाती हुई, नारायण और बलभद्र पितासे पूछकर, सुव्रता आयिकाके चरणोंको प्रणाम कर व्रतोंसे भूषित सात सौ राजकुमारियोंके साथ प्रवजित हो गयी। प्राणोंका अन्त होनेपर वह सुखके निधान ग्यारहवें स्वर्गमें देव हुई। कर्मोंसे प्रतारित केशव, नारायण, रत्नप्रभा नामक नरकमें गया। अपने पुत्र अनन्तसेनको राज्यमें स्थापित कर यशोधर महामुनिके चरणकमलोंमें लोन होकर और तपश्चरण कर विघटित कषाय श्री बलभद्र सोलहवें स्वर्गमें पत्ता-उनका पिता स्मितसागर धरणेन्द्र हुआ। उसके पाससे सम्यग्दर्शनरूपी रत्न पाकर अनन्तवीर्य नरकसे पुनः निकला ||१४|| इस भरत क्षेत्रमें विजया पर्वतकी उत्तरश्रेणीमें धवल गृहोंसे विशाल नभवल्लभ नगरमें मेघमालिनी नामक सुन्दर कान्ता जिसकी सहायक है, ऐसा मेघवाहन नामका विद्याधर राजा था । वह ( अनन्तवीर्यका जीव ) उन दोनोंका मेषके समान वर्णवाला तथा नवनलिनके समान नेत्रवाला मेघनाद नामका पुत्र हुआ। समस्त विद्याधर भूमिका स्वामी मेघनाद मन्दराचलके नन्दनवनमें सिर झुकाये हुए प्रज्ञप्ति विद्या सिद्ध कर रहा था। अज्ञानी उसे अच्युतेन्द्रने सम्बोधित किया। तिमिरके नाशक सम्यक्त्वको लेकर और देव तथा अमरोंके गुरुके पास संन्यास लेकर, १४. १. A नृवकुमरिहिं; P णिवकुअरिहिं । २. AP पाणावसाणि । ३. P जसहरचरणंबुरुहे णिलोणु । ४. AP दंसणु रयणु । ५. P वोरिउ । १५. १. A वण्णिउ । २. A पण्णत्त । ३. P अणाणु; K अणाणु but corrects it to सणाणु । Page #445 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३९८ १० ५ to हिंदिणि गउ णंदणगिरिदु हय कंठभाई णामें सुकंठु जाय भीमासुरु सरिवि वेरु उवसग्गहु ण चलइ किं पि जाम रिसि साहिवि आराहण अमंदु इतर सुरदिसि विदेहि तहु कणयचित्त णामेण देवि जोया हियमाणिणिहिययसार सिरिसेणहि सुउ सहसा उद्देण णियसंति णामु सुरणाहमहिउ जवच्छता दिवि देवसत्थु अण्णहि वैणि कुलिसाउहासु महापुराण धत्ता - पुरि रयणसंचि मणिचेंचइइ थिरु आउंचियारिपसरु | राणउ खेमंकरु दीहकरु धीमहंतु उद्धरियधरु ||१५|| १६ थि पडिमाजोएं मुणिवरिंदु | संसारु भमिवि दुक्खाहिदछु । आढत्तु तेण मुणि मेरुधीरु । सई लज्जिउ गाउ रिउ गयणु ताम । अच्चु इंदहु हूयउ पडिंदु | मंगलवइदेसि विचित्तगेहि । देण इंदपदि वे वि । वज्जाउह सहसाउ कुमार | जणियउ णेहु व कुसुमाउद्देण । खेमंकरु पुत्तप उत्तस हिउ । पभणइ भुवि को सद्दंसणत्थु | णिम्म सम्मत्तु गुणावयासु | दूसरे दिन वह नन्दनपर्वत पर गया और वह मुनिवरेन्द्र प्रतिमायोग में स्थित हो गया । अश्वग्रीवका भाई सुकण्ठ दुःखसे आहत और संसारका परिभ्रमण कर भीम असुर हुआ । पूर्वभवका स्मरण कर मेरुपर्वत के समान धीर उन मुनिसे उसने शत्रुता शुरू कर दी । परन्तु जब वह मुनि उपसर्गसे जरा भी विचलित नहीं हुए तो वह शत्रु स्वयं लज्जित होकर आकाशमें कहीं भी चला गया । मुभी अनन्त आराधनाको साधकर अच्युत स्वर्ग में इन्द्रका प्रतीन्द्र हुआ । इसी द्वीप (जम्बूद्वीप) की पूर्वदिशा में गृहों से विचित्र मंगलावती देश है । [ ६१.१५.७ पत्ता - मणियोंसे शोभित रत्नसंचय नगर में शत्रुओंके प्रसारको रोकनेवाला बुद्धि में महान् धरतीका उद्धार करनेवाला क्षेमंकर नामका राजा था || १५|| १६ उसकी कनकचित्रा नामकी देवो थी । उससे इन्द्र और प्रतीन्द्र दोनों मानिनियोंके हृदयसारका अपहरण करनेवाले वज्रायुध और सहस्रायुध कुमार उत्पन्न हुए । सहस्रायुधको श्रीषेणसे इन्द्र पूजित कनकशान्त नामका पुत्र, वैसे ही हुआ जैसे कामदेवसे स्नेह उत्पन्न हुआ हो । इस प्रकार जब पुत्र और पौत्रों सहित क्षेमंकर राजा रह रहा था, तब स्वर्ग में देवसमूह कहता है कि पृथ्वीपर सम्यक दर्शन में कोन स्थित है ? दूसरे देवोंने कहा कि गुणोंसे युक्त वज्रायुधको निर्मल सम्यक्त्व प्राप्त है । यह सुनकर चित्रचूल नामका सुरवर जिसके शिखर आकाशको चूम रहे हैं ४. AP जयवरिंदु | ५. AP संसारि । ६. P दुक्खेहि दट्ठ । १६. १. A हि दणु अच्चुवइंदु ए वि । २. A reads this line and 3 सारु, तें परिणिय सिरिमइ णं कुमारु, तीए जणियउ सहसाउछु कुमारु । भण्णिउ । ५. A णिम्मल । as: वज्जाउहु णार्मे तिजय३ AP को भुवि । ४. P Page #446 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३९९ -६१. १७.१०] महाकवि पुष्पदन्त विरचित तं णिसुणिवि सुरवरु चित्तचूलु आयउ णिवंघरु णहलग्गचू लु। जिणजेट्ठतणुब्भवु भणिउ तेण अण्णण्णु होइ तिहुवणु खणेण। घत्ता-णउ अस्थि तो वि दीसइ पयहु जिह सिविणउ तेलोक्कु तिह ॥ लइ सुण्णु जि णिच्छउ आवडिउं कहिं अच्छइ गय दीवसिह ॥१६॥ १० तं सुणिवि भणइ पविपहरणक्खु अण्णाणहं दुक्करु णाणचक्खु । जइ अवरु जि खणि खणि होइ सव्वु तो किं जाणइ जणु णिहिउ दव्वु । पज्जायारूढी सव्वसिहि आउंचिउ हत्थु जि होइ मुट्ठि। अण्णयविरहिउं जि जगु भणंति खकुसुम ते सससिंगे हणंति । जइ सिविणु व तचु परोवहासि तो सिविणयभोयणि किं ण धासि । जइ सुण्णत्तहु दीवच्चि जाइ। तो खप्परि कजलु केमै थाइ तं सुणिवि पबुद्धउ सुरु बद्ध संसइ तुहुं णरवइ णाणसुद्ध । को करइ बप्प पई सहुँ विवाउ अरहंतु भडारउ जासु ताउ । घत्ता-गउ चित्तचूलु सणिहेलणहु इंदचंदफणिपरियरिउ ।। खेमंकरु पढमहु तणुरुहहु अप्पिवि वसुमइ णीसरिउ ।।१७।। ऐसे राजभवन में आया। उसने जिनके बड़े लड़के ( वज्रायुध ) से कहा कि त्रिभुवन एक पलमें कुछका कुछ हो जाता है। पत्ता-यद्यपि वह नहीं है, तो भी वह प्रत्यक्ष रूपमें दिखाई देता है, जिस प्रकार स्वप्न ( दिखाई देता है ) उसी प्रकार त्रिलोक। लो शून्यको शून्य हो निश्चय रूपसे ज्ञात हुआ, गयो दीप शिखा कहां रहती है ? ॥१६॥ १७ यह सुनकर वज्रायुध कहता है कि अज्ञानियोंके ज्ञानचक्षु कठिन होते हैं। यदि सब कुछ क्षण-क्षणमें कुछका कुछ हो जाता है तो लोग रखे हुए धनको किस प्रकार जान लेते हैं ? समस्त सृष्टि पर्यायोंपर आश्रित है। संकुचित हाथ मुट्ठी बन जाता है। जो विश्वको एक दूसरेसे ( द्रव्य पर्याय ) रहित कहते हैं वे आकाशके फूलको खरगोशके सींगसे मारते हैं। हे परोपहासी ( दूसरोंका उपहास करनेवाले), यदि तत्त्व भी स्वप्नकी तरह है, तो तुम स्वप्नमें किये गये भोजनसे तृप्त क्यों नहीं होते ? यदि दीपकी शिखा शून्यत्वको जाती है तो खप्परमें काजल कैसे पाड़ा जाता है ? यह सुनकर वह क्षणिकवादी बौद्धदेव प्रबुद्ध हो गया और प्रशंसा करने लगा कि हे देव, हे राजन्, तुम ज्ञानसे शुद्ध हो। हे सुभट, तुम्हारे साथ विवाद कौन करे कि जिसके पिता आदरणीय अरहन्त हैं ? ___घत्ता-चित्रचूल देव अपने घर चला गया और इन्द्र, चन्द्र और नागोंसे घिरा हुआ क्षेमंकर अपने पहले पुत्रको धरती सौंपकर चला गया ॥१७॥ ६. A नृवघरू । ७. AP सुण्ण उ णिच्छउ । १७.१. AP जइ खणे खणे अवरु जि होइ । २. P खकुसुम । ३. AP कि ण थाइ । ४. A सुरु पबुद्ध; P सुरु वबुद्ध । Page #447 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४०० १० महापुराण १८ रु मेल्लिववणि थिउ मुक्कगत्तु रायाहिराउ णिव्वूढमाणु वजाउहु अवइण्णइ वसंति तडिदाढें चिरभववइरिएण खयरेण णायपासेण बधु सा तेण णिय दढकरयलेण रिउ णासिवि गड भयभीयजीउ वसिकयसुरणरविज्जाहरासु घरु आयई ता परिहरिवि मरगु कालें अरहंतावत्थ पत्तु । गोमणिकामिणि अणुहुंजमाणु । जलि रमइ सुदंसणसरवरंति । दुक्कम्मभाव संचारिएण । विउलइ सिलाइ सह संणिरुद्ध । गय सयदे णारि व रयमलेण । घिरि पट्टु कुलहरपई उ । वणिहि चउदहरयणाई तासु । घरि णहरु एक पवण्णु सरणु । घत्ता-तहु अणु आगय असियरखयरि चवइ हणमि को मई धरइ ॥ पहरणकरु थविरु अवरु अइड णिवहु सवइयरु वज्जरइ || १८ | १९ इह वरिसि खगायलि अरिहभत्तु तहु देवि जसोहर वाउवेड तेथुजि पुरु किंणरगीउ अस्थि तहु सुय सुकंत महुं तणिय कंत [ ६१.१८.१ सहपुर पहु इंदयत्तु । हउं पुत्तु पुण्णसं पुण्णतेउ । तर्हि चित्तचूल खगु जसगभत्थि । बहुतमंत विहिबुद्धिवंत । १८ मुक्त शरीर वह घर छोड़कर वनमें स्थित हो गया और समय बीतनेपर वह अरहन्त स्थाको प्राप्त हुआ । अपने मानका निर्वाह करनेवाला राजाधिराज धरती और लक्ष्मीको भोगता हुआ वज्रायुध वसन्त ऋतु आनेपर सुदर्शन नामक सरोवरमें जल में क्रीड़ा कर रहा था । पूर्वजन्मके शत्रु और दुष्कर्मभावसे संचारित विद्युष्ट्र विद्याधर ने उसे नागपाशसे बांधा और विशाल चट्टानसे उसे अवरुद्ध कर दिया। उस चट्टानको उसने अपने दृढ़ करतलसे आहत किया, वह उसी प्रकार सौ टुकड़े हो गयी जैसे रजस्वला स्त्री रक्तमलसे लाजके कारण टुकड़े-टुकड़े हो जाती है । भयसे भीत जीव शत्रु नष्ट होकर चला गया । वह कुलगृहका दीपक अपने घर आया । जिसने मनुष्यों और देवोंकी विद्याओं को अपने वशमें कर लिया है, ऐसे उसके घर नौ निधियां और चौदह रत्न आये । एक विद्याधर मरणके भय से उसके घर शरण आया । धत्ता -- उसके पीछे हाथ में तलवार लिये हुए एक विद्याधरी आयी और बोलो कि मैं मारूँगी, कौन मुझे पकड़ सकता है ? एक और बूढ़ा विद्याधर हाथमें हथियार लेकर आया और राजासे अपना वृत्तान्त कहने लगा ||१८|| १९ इस भारतवर्ष में विजयार्धं पर्वतके शुक्रप्रभ नगर में अर्हद्भक्त राजा इन्द्रदत्त है । उसकी देवी यशोधरा है । उसका में पुण्यसे सम्पूर्ण तेजवाला वायुवेग नामका पुत्र हूँ । उसी देश में किन्नरगीत नगर है । उसमें यशकी किरणोंवाला विद्याधर राजा चित्रचूल है । उसकी कन्या १८. १. AP सहसा णिरुद्ध । २. A संयत्रण । ३ AP जियपुरि । ४. AP मई को । १९. १. A अरुह् । Page #448 -------------------------------------------------------------------------- ________________ - ६१.२०.४ ] महाकवि पुष्पदन्त विरचित ओहच्छइ तुह पयणय विणीय विज्जासाहणि थियवणयरासु किर साहइ इच्छिय सिद्धि जाव तं अवगणिवि मृगेलोयणाइ आरूसिवि कड्दिउ मंडलग्गु आपणु तुज्झु पट्ठ गेहि आगच्छमि जा महिहरधरित्ति इह आयउ अक्खिउ तुज्झु राय गंभीरोरवइराउण घत्ता - इह दीवइरावयविंझउरि विंझसेणु णामें नृवई ॥ णामेण सुलक्खण मृगेणयण तहु रायाणी हंसगइ ॥ १२९ ॥ तहु णंदणु णामें णलिणकेउ त्थु जि वणिवरु णामें सुमित्तु पीयंकरि णामें तासु भज्ज महिलाविरहेण मुदिवासि संतिमई णाम महुं तणिय धीय । उarय मुणिसायर गिरिवरासु । गुरुविग्घु पउंज एण ताव । सिद्धी देवय जाणिवि अणाइ । एहु विलंघिय मंडलग्गु । हउं पुज्ज लेवि खे भमियमे हि । ता पेच्छिवि हि धावंति पुत्ति । पेक्खहि परिरक्खहि णायैछाय । तं वित्तु वज्जाउ हेण । २० थि ररू मयरकेउ । सिरिदत्त कंत तणुरुहु सुदत्त । साहित्ती णिवंतणएं मणोज्ज । रिसि हु सुदत्त सुव्वयहु पासि । ४०१ ५ १० सुकान्ता मेरी कान्ता है । बहुतसे तन्त्र-मन्त्रोंकी विधि और बुद्धिसे युक्त शान्तिमती नामकी मेरी कन्या जो आपके चरणों में विनीत है, विद्या सिद्ध करनेके लिए जहाँ वनचर स्थित हैं ऐसे मुनिसागर नामक पर्वतपर गयी हुई थी। जबतक यह इच्छित सिद्धिको सिद्ध करती तबतक इसने भारी विघ्न किया । उसकी उपेक्षा करके मृगनयनीने विद्या सिद्ध कर ली। इसने यह जानकर और क्रुद्ध होकर अपनी तलवार निकाल ली । यह भी आकाशमण्डलका अग्रभाग 'लाँघकर और आकर तुम्हारी शरण में प्रवेश कर गया । में पूजा लेकर, जिसमें बादल घूम रहे हैं, ऐसे आकाशमें जबतक पर्वतकी भूमिपर आता हूँ, तबतक आकाशमें पुत्रीको दौड़ते हुए देखता हूँ । मैं यहाँ आया हूँ और आपसे कहा है । आप इसे देखें और न्याय के प्रभावकी रक्षा करें । गम्भीर घोर शत्रुओं को ललकारनेवाले वज्रायुधने यह सुनकर कहा १५ घत्ता - इस जम्बूद्वीपके ऐरावत क्षेत्र में विन्ध्यनगर है । उसमें विन्ध्यसेन राजा है । उसकी सुलक्षणा नामकी मृगनयनी तथा हंसकी चालवाली रानी है ||१९|| २० उसका नलिनकेतु नामका पुत्र है, जो मानो मनुष्यके रूपमें कामदेव हो । वहींपर सुमित्र नामका बनिया था, उसकी श्रीदत्ता पत्नी थी और सुदत्त पुत्र था । उसकी प्रीतंकरी नामकी भार्या थी । उस सुन्दरीका राजाके पुत्रने अपहरण कर लिया । पत्नीके विरह में वह जिसमें मुनीन्द्रोंका २. A सुक् । ३. P मिगं । ४. AP हि मंडलग्गु । ५. P णायणाय । ६. AP णिसुणिवि । ७. P विइ । ८. A सलक्खण । ९ P मिगं । २०. १. AP पीइंकरि । २. A नृवतणएं । ५१ Page #449 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४०२ महापुराण [ ६१. २०.५ भंजिवि दुम्महु कंदप्पदप्पु संणासें गई ईसाणकप्पु । जंबूदीवंतरि कच्छदेसि वेयड्ढइ उत्तरसेढिवासि । पुरि कणयतिलइ णं पुण्णयंदु . णामें महिंदविक्कमु खगिंदु । तहु पणइणि णामें णीलवेय सुरु मेल्लिवि सुरतणु अमियतेय । चिरु वणि सुदत्तु जो दुक्खरीणु सो तहि सुउ जायउ अजियसेणु । इंदीवरदलसंकासणेत्तु जे हित्तउ वणितणयहु कलत्त । सीमंकरसूरिहि णविवि पाय तउ चरिवि घोरु चूरिवि कसाय । णियदुक्किउ णिदिवि णायणेउ गउ मोक्खहु सो नृवं णलिणकेउ । घत्ता-पीइंकरि सुव्वयसंजइहि पासि मुएप्पिणु घरणियलु ॥ चंदायणु चरिवि पसण्णमइ मय पक्खालिवि पावमल ॥२०॥ २१ ईसाणि देवि तित्थाउ आय इहु अजियसेणु चिरवरु दुलंघु इय णिसणिवि कण्णइ पुत्वजम्मु । संतिमइ सुगंथवियक्खणाहि देवत्तु लहे प्पिणु बीयसग्गि। इजो णरजम्मि ताउ संतिमइ तुहारिय धीय जाय । विजउ साहं तिहि करइ विग्घु । खेमंकरणाहहु पासि धम्मु । हूई सीसिणिय सलक्खणाहि । संचरइ जाम गयेणयलमग्गि। सो जिणवरु जायउ वाउवेउ। वास है, ऐसे सुव्रतके निकट मुनि हो गया । दुर्मद काममदका क्षय कर संन्याससे वह ईशान स्वर्गमें गया। जम्बद्वीपके अन्तर्गत कच्छ देशमें विजयाध पर्वतको उत्तर श्रेणीमें स्थित कनकतिलक तिलक) का विद्याधर राजा महेन्द्रविक्रम था, जो मानो पूर्णचन्द्र था। उसकी प्रणयिनी नीलवेगा थी। अमिततेज देव जो पहले दुखसे क्षीण सुदत्त नामका वणिक् था, वह उसका अजितसेन नामका पुत्र हुआ और जिसने कमलके समान नेत्रोंवाली वणिकपुत्रकी पत्नीका अपहरण किया था। सीमन्धर स्वामीके चरणों में प्रणाम कर तथा घोर तपश्चरण कर, कषायोंको चूर-चूर कर, अपने पापोंकी निन्दा कर तत्त्वोंको जाननेवाला वह राजा नलिनकेतु मोक्ष गया। घत्ता-प्रसन्नमति और प्रोतंकरी भी सुव्रता आर्यिकाके पास धरिणीतलको छोड़कर चान्द्रायण तपकर तथा पापमलका प्रक्षालन कर मृत्युको प्राप्त हुई ॥२०॥ २१ ईशान स्वर्गकी देवी प्रीतंकरी (प्रीतंकरा ) वहाँसे आयी और शान्तिमती नामसे तुम्हारी पुत्री हुई। यह अजितसेन पूर्वजन्मका दुर्लभ वर है जो विद्या सिद्ध करती हुई इसे विघ्न कर रहा है। इस प्रकार अपना पूर्वजन्म सुनकर क्षेमंकरस्वामीके निकट कन्या शान्तिमती सुशास्त्रोंमें पारंगत आर्यिका सुलक्षणा की शिष्य हो गयी। दूसरे स्वर्गमें उत्पन्न होकर जब वह आकाशतलमें विचरण कर रही थी तो वह देखती है कि जो मेरे पूर्वजन्मके पिता वह वायुवेग जिनवर हो ३. AP हुउ । ४. A पुण्णिविंदु; P पुण्णियंदु। ५. A अमियसेणु । ६. A नृउ; P णिउ । ७. A पोइंकर । ८. AP मुय । ९. A पायमल । - २१. १. AP तुहारी । २. AP इय णिसुणेप्पिणु अप्पणउ जम्मु । ३. AP गयणमग्गमग्गि । Page #450 -------------------------------------------------------------------------- ________________ -६१. २२.९] महाकवि पुष्पदन्त विरचित ४०३ जिह सो तिह अवरु वि अजियसेणु रयणत्तयजलधुयकम्मरेणु । थुइसयहिं पसंसिवि वरगिरेण बेणि वि वंदिय पणमियसिरेण । देवि चिंतिउ संसारु चित्त जिणधम्मि ण किज्जइ केम चित्तु । काणीणदीणदिजंतदाणि चक्केसररजि पवढमाणि । घत्ता-खगमहिहरदाहिणपंतियहि सिवमंदिरि घणवाहणहु । विमलादेविहि संभूय सुय कणयमाल सँपसाहणहु ।।२१।। २२ संगरभरमारियखत्तियासु दिण्णी वसुहाहिवणत्तियासु ।' गुणमणिउज्जोइयकुलहरासु सोवण्णसंतिणामहु वरासु। वसुसारयणयरि समुद्दसेण रायहु जयसेण वसंतसेण। दोहिं मि सहुं गउ गहणंतरालु घोलंतणीलदलवेल्लिजालु। विमलप्पहु णामें तेत्थु साहु अवलोइड णाणजलोहवाहु । णिसुणेवि तञ्च पावज्ज लइय सहं घरणिहिं तेण विमुक्कदइय । णारिहि णे चल मइ जणियसंति आसंघिय विमलमइ त्ति खंति । सिद्धायलि काओसग्गु देवि तिणि वि थियाई मणि जोउ लेवि । अवियाणियसमचित्त जडेण विज्जाहरेण वइरुब्भडेण । गये हैं। जिस प्रकार वह उसी प्रकार दसरा अजितसेन भी रत्नत्रयरूपी जलसे कर्मरजको धो चुका है। उसने सैकड़ों स्तुतियों और उत्तम वाणी तथा नम्रसिरसे दोनोंकी वन्दना की। उसने विचार किया कि संसार विचित्र है, जिनधर्ममें चित्तको क्यों न किया जाये ? जिसमें कन्यापुत्रों और दीनोंको दान दिया जाता है ऐसे चक्रवर्ती राज्यके बढ़नेपर पत्ता-विजयाध पर्वतको दक्षिण श्रेणीके शिवमन्दिर नगरमें सैन्ययुक्त मेघवाहन और विमलादेवीके कनकमाला नामकी पुत्री हुई ॥२१॥ २२ जिसने संग्राम समूहमें क्षत्रियोंको मारा है, जिसने गुणरूपी मणियोंसे कुलगृहोंको आलोकित किया है ऐसे राजाके नाती कनकशान्ति नामक वरको कन्या दी गयी। वसुसार नगर ( वस्त्वोकसार ) के समुद्र राजाको जयसेना और वसन्तसेना स्त्रियां थीं। वह उन दोनोंके साथ गहन वनके भीतर गया कि जहाँ हरे-हरे पत्तोंवाला लताजाल आन्दोलित हो रहा था। वहां उसने ज्ञानरूपी जलसमूहको धारण करनेवाले विमलप्रभ नामक मुनिको देखा। उनसे तत्त्व सुनकर उसने अपनी गृहिणियोंके साथ, जिसमें पत्नीका त्याग किया जाता है ऐसी दीक्षा ग्रहण कर ली। स्त्रियोंने भी अविचल मति एवं शान्ति देनेवाली विमलमति नामकी आर्यिकाकी शरण ग्रहण की। सिद्ध-शिलातलपर कायोत्सर्ग करते हुए वे तीनों मनमें योग धारण कर स्थित हो गये। जो ४. AP बेण्णि वि पणविवि वंदिवि सिरेण । ५. A देवें; P देविए। ६. AP दाहिणसेढियहि । ७. AP सुपसाहणहु । २२. १. A adds after this: तह सुय उप्पण्णी वर एण, सा पुणु परिणिय पहुसुयसुएण । २. AP णिच्चलम। Page #451 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४०४ महापुराण [६१.२२. १० १० लहुपणइणिमेहुणएण ताहं उवसग्गु रइउ तीहिं मि जणाहं । तजिउ खयरिंदें असिगहेण गउ चित्तचूलु गासिविणहेण । घत्ता-णिवसुयसउ कणयसंति णिवइ कणयमाल परिसेसिवि ॥ आहिंडइ महियलि सुद्धमणु अप्पउ तविण विहू सिवि ।।२२।। रयणउरइ राणउ रयणसेणु ते तहु भयवंतहु दिण्णु दाणु । अण्णेके वणि अच्छंतु संतु आढत्तु हणहुँ कम्मई खवंतु । एयहं दोहं मि मुणिवेर समाणु संजायउ केवलि तिजगभाणु । देवागमु पेक्खिवि हीणु दीणु पुणु मुणिवरकमकमलयलि लीणु । सो खलु वसंतसेणाहि सयणु पणविउ हिरिभावोणल्लवयणु । णियणत्तिउ णिएवि अणंतणाणि णिविण्णउ रइसुहि चक्कपाणि । खेमंकरतायहु पासि दिक्ख मणि धरिवि असेस वि समयसिक्ख । सिद्धइरिहि लेप्पिणु वरिसजोउ थिउ देह विसग्गे मुक्कभोउ । घत्ता-संझायइ पंचमहन्वयइं पंचहिं पंच जि भावण ॥ पंचमगइणिञ्चल णिहियमइ परिगयपंचेंदियपणउ ।।२३।। समचित्तको नहीं पहचानता ऐसे जड़ और वैरसे उद्भट छोटी पत्नी वसन्तसेनाके मामाके लड़के चित्रचूलने उन तीनोंपर उपसर्ग किया। विद्याधर राजाके द्वारा तलवारसे धमकाया गया चित्रचूल आकाशमार्गसे भाग गया। घत्ता-नृपसुतका सुत अर्थात् कनकशान्ति कनकमालाको छोड़कर, शुद्धमन तथा स्वयंको तपसे विभूषित कर धरतीतलपर भ्रमण करते हैं ।।२२।। २३ रत्नपुर में राजा रत्नसेन था, उसने ज्ञानवान् उनको आहारदान दिया। एक और दिन जब वह वनमें कर्मोंका क्षय करते हए विद्यमान थे तो उसने (चित्रचल देव ) उपसर्ग करना शुरू किया। लेकिन वह मुनिवर इन दोनों ( अर्थात् आहारदान देनेवाले राजा रत्नसेन और उपसर्ग करनेवाले चित्रचूल ) में एक समान थे। वह त्रिजगसूर्य केवलज्ञानी हो गये। देवागम देखकर वह देव दीन-हीन हो गया और मुनिवरके चरणकमलोंमें लीन हो गया। वसन्तसेनाके मातुलपुत्र दुष्ट उस चन्द्रचूलने लज्जाभावसे विनत होकर उन्हें प्रणाम किया। वज्रायुध भी अपने नातीको केवलज्ञानी देखकर रतिसुखसे विरक्त हो गया। पिता क्षेमंकरके पास दीक्षा लेकर और मनमें समस्त शास्त्र शिक्षा धारण कर सिद्ध पर्वतपर एक वर्षका योग लेकर मुक्तभोग वह कायोत्सर्गमें स्थित हो गया। पत्ता-वह पांच महाव्रतों और उनकी भावनाओंकी भावना करता। उसकी मति मोक्षमें अचल थी और पांचों इन्द्रियोंके प्रेमसे वह उन्मुक्त था ।।२३।। २३. १. AP मुणिवरु । २. A हरिवाहोणवल्लवयणु । ३. AP पंच वि । Page #452 -------------------------------------------------------------------------- ________________ -६१. २४. १० ] महाकवि पुष्पदन्त विरचित ४०५ चिरु हरिगीवहु सुय धम्मभट्ठ णामें रयणाउह रयणकंठ। संसारु भमेप्पिणु जाय देव पहरंति पाव तं सावलेव । आयइ रंभाइ तिलोत्तिमाइ णिब्भच्छिय वंदियजइकमाइ । अइबलु समहाबलु खणि पलाणु पाविट्ठहु कासु ण भग्गु माणु । सहसाउहेण सयबलिहि रजु ढोइवि ववसिउ परलोयकज्जु । ब्रेउ लइयउं पिहियासवहु पासि मइ रमइ ण संतहु गेहवासि । वईभारमहीहरि रिद्धिठाणि जोयावसाणि । तउ चरिवि तहिं जि रिसिजुवलु मय उवरिमगेवजहि णवेरि गयउं । घत्ता-एकूणतीससायरसमई बेणि वि सुहं मुंजंत थिय ।। भरहुवरिगामि हिमअहिमयर पुप्फयंतसुरणियर पिय ॥२४॥ दिद इय महापुराणे तिसट्टिमहापुरिसगुणालंकारे महामव्वमरहाणुमण्णिए महाकइपुप्फयंतविरइए महाकन्वे वज्जाउहचक्कवष्टिवण्णणं णाम एकसट्रिमो परिच्छेमो समत्तो ॥६॥ २४ पुराने अश्वग्रीवका धर्मभ्रष्ट पुत्र रत्नायुध और रत्नकण्ठ पुत्र संसारमें परिभ्रमण कर देव उत्पन्न हुए। पाप सहित वे दोनों उसपर प्रहार करते हैं। वहां रम्भा और तिलोत्तमा आदि देवियाँ आयीं और यतिवरके चरणोंकी वन्दना करनेवाली उन्होंने उसकी भर्त्सना की। वह अतिबल महाबलके साथ एक क्षणमें भाग गया। किस पापीका मान भंग नहीं हुआ। सहस्रायुधमें शतबलीको राज्य देकर वह परलोककाजमें लग गया। उसने पिहितास्रवके पास व्रत ग्रहण कर लिया। सन्तकी मति गृहवासमें नहीं रमती थी। ऋद्धियोंके स्थान वैभार पर्वतपर योगका अन्त होनेपर उसने अपने सुधी पिता सहस्रायुधको देखा। वहां तपका आचरण कर वे दोनों ऋषियुगल मृत्युको प्राप्त हुए और सिर्फ उपरिमग्रेवेयक विमानमें उत्पन्न हुए। __घत्ता-वे दोनों उनतीस सागर प्रमाण समय तक सुखका भोग करते हुए स्थित रहे । वे भरतक्षेत्रके ऊपर चलनेवाले सूर्य-चन्द्र-नक्षत्र और सुरसमूहके लिए प्रिय थे ।।२४।। इस प्रकार त्रेसठ महापुरुषोंके गुणालंकारोंसे युक्त, महापुराणमें महाकवि पुष्पदन्त द्वारा रचित एवं महामव्य भरत द्वारा अनुमत महाकाव्यमें वज्रायुध चक्रवर्ती-वर्णन नामका इकसठवाँ परिच्छेद समाप्त हुआ ॥६॥ २४.१. AP संसारि। २. AP वउ। ३. AP वइभारि महीहरि सिद्धिठाणि । ४. P मुयउं । ५. AP णवर । ६. A अहिमरय । ७. AP पुप्फदंत । Page #453 -------------------------------------------------------------------------- ________________ संधि ६२ पढमदीवि थियमेहइ पुक्खलवइदेसंतरि सुरगिरिपुव्वविदेहइ ।। पवरपुंडरिंगिणिपुरि ॥ध्रुवकं ॥ तहिं घणरहु पहु सयमहणमिउ तहु देवि मणोहर तुंगथणि वज्जाउहु जो अहमिंदु हुउ तणुतेओहामियभाणुरहु सहसाउहु अमरु मणोरमइ णिवकंतइ गंदणु संजणिउ भायरहं बिहिं मि कमभाणियउ हुउ एकहि णं दिवुड्दु तणउ अवरेक्कहिं दिणि सुसेण गणिय सा घणमुहु कुक्कुडु लेवि गय पडिपक्खि पक्खणक्खहिं हणइ तिहुयणसिरिरमणीप्राणेपिउ । गलकंदललंबियहारमणि । संभूउ गब्भि सो ताहि सुउ । हक्कारिउ ताएं मेहरहु। गेवजहि आयउ सुहसमइ। सो सज्जणेहिं दढरहु भणिउ । पियमित्त सुमइ वरराणियउ । अण्णहि वरसेणु वराणणउ । पियमित्तहि घरु कोडावणिय । भासइ देविहि पणमंति पय । कियवाउ एहु जो रणि जिणइ । सन्धि ६२ जम्बूद्वीपमें जहां मेघ स्थिर हैं ऐसे सुमेरुपवतके पूर्वविदेहमें पुष्कलवती देशके पुण्डरीकिणो नगरवरमें घनरथ राजा था जो इन्द्र के द्वारा प्रणम्य और त्रिभवनकी लक्ष्मीरूपी रमणीका प्राणप्रिय था। उसकी उन्नत स्तनोंवाली तथा जिसके गलेमें मणियोंका हार लटकता है ऐसी मनोहरा नामकी देवी थी। जो वज्रायुध अहमेन्द्र हुआ था, वह उसके गर्भसे पुत्र उत्पन्न हुआ। अपने शरीरके तेजसे सूर्यरथको तिरस्कृत करनेवाले उसे पिताने मेघरथके नामसे पुकारा। ग्रेवेयक विमानसे शुभ समयमें मनोरमाके गर्भ में आया। उस नृपकान्ताने पुत्रको जन्म दिया। सज्जनोंके द्वारा उसे दृढ़रथ कहा गया । उन दोनों भाइयोंकी क्रमसे कही गयीं प्रियमित्रा और सुमति रानियां थीं। एकसे नन्दिवर्धन पुत्र हुआ। दूसरीसे सुन्दर मुखवाला वरषेण । एक और दिन प्रियमित्राकी दासी सुषेणा कुतूहलसे भरी हुई घनतुण्ड मुर्गा लेकर देवीके घर गयो और पैरोंमें प्रणाम कर बोली, "जो प्रतिपक्षी अपने पंखों और नखोंसे इसे आहत करता है और युद्ध में इस मुर्गेको जीतता है १. १. AP थिए मेहए । २. AP पाणपिउ। ३. AP णिवताणंदणु। Page #454 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४०७ -६२. २. १२] महाकवि पुष्पदन्त विरचित घत्ता-दिज्जइ सालंकारहं ताहं सहस्सु दीणारहं॥ एह वत्त णिसुणेप्पिणु अवर वि पक्खि लएप्पिणु ॥ १॥ कुलिसाणणु कुक्कडु कंचणिय अक्खइ सुमइहि घरकामिणिय । गरुडेण वि जिप्पइ एहु ण वि उडुतहु संकइ गयणि रवि । ता हरिसे वाइय जयवडह खंजय णञ्चंति लडहमडह । तहिं आया घणरह मेहरह दढरह वरसेण णंदि सुमेह । पियमित्तसुमइकरयलपुसिय चिरजम्मणिबद्धर्वइरिवसिय । जुझंति पक्खि ते पबलबल चंचेलचंचुचरणारचल। उल्ललणवलणपरियत्तणहिं पेहुणसिरसिहरवियत्तणहिं । रोसुद्धयकंधरकेसरय जं केवै वि ण ओसरंति सरय । तं ताएं पुच्छिउ मेहरहु संबोहहुं भव्वजीवणिवहु । किं तंबचूल जुज्झंति सुय भणु अवहिवंत सग्गग्गचुय । पत्ता-कहइ कुमारु सुहावइ एत्थु दीवि अइरावइ ।। सयडजीवि तिट्ठावर रयणउरइ णर भायर ।।२।। घत्ता-उसे अलंकारों सहित एक हजार दीनारें दी जायेंगी।" यह बात सुनकर दूसरी भी ( सुमतिकी दासी कांचना ) अपना पक्षी ( मुर्गा ) ॥१॥ anwar वज्रतुण्ड लेकर सुमति को गृहदासी बोली कि यह गरुड़के द्वारा भी नहीं जीता जा सकता। उड़ते हुए इससे प्राकाशमें सूर्य शंकित हो उठता है । तब हर्षसे विजयके नगाड़े बजा दिये गये, सुन्दर वामन कुब्जक नाचने लगे। वहांपर धनरथ, मेघरथ, दृढ़रथ, वरसेन और तेजस्वी नन्दिवर्धन आये। प्रियमित्रा और सुमतिके हाथोंसे पोसे गये तथा पूर्वजन्ममें बांधे गये वैरके वशीभूत होकर प्रबल बलवाले तथा अपनी वक्र चोंचों और पैरोंसे चंचल वे दोनों मुर्गे उछलना, मुड़ना, घूमना तथा पूंछसे सिरके शेखरको घुमाना आदिसे युद्ध करने लगे। क्रोधसे कांपते हुए कन्धों और केशरक ( सिरके बाल ) वाले और चिल्लाते हुए जब वे मुर्गे नहीं हटे तो पिताने मेघरथसे भव्यजीवोंके सम्बोधनके लिए पूछा, "हे पुत्र, ये मुर्गे क्यों लड़ते हैं। हे स्वर्गसे च्युत अवधिज्ञानवाले तुम बताओ।" घत्ता-कुमार बताता है यहां इस जम्बूद्वीपमें सुखास्पद ऐरावत क्षेत्र है। उसके रत्नपुर नगरमें गाड़ीसे अपनी आजीविका चलानेवाले दो लालची भाई रहते थे ॥२॥ ४. A सहासु । ५. AP अवरु । २. १. Pघरि कामिणिय । २. AP कुज्जय। ३. A णंदिपमुह । ४. AP वइररसिय । ५. A चरणा चवल । ६. AP केम वि णोसरंति । Page #455 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४०८ महापुराण [ ६२.३.१ पहरेवि परुप्परु कढिणभुय बलिवद्दहु कारणि कोवजुय । णामेण पसिद्धा भद्द धणि ते बे वि मरेप्पिणु तेत्थु धेणि । बहुपुंडरीयपंचाणणइ कंचणसरितीरइ काणणइ। सियकण्ण तंबकेण्ण त्ति गय संजाया पुणु जुज्झेवि मुँय । कोसलणयरिहि गोउलियघरि जाया सेरिह णववयहु भरि । एप्पिणु जुज्ञप्पिणु खयहु गय तेत्थु जि पुरि कुरैर पलद्धजय । वरसेणसत्तिसेणहं णिवहं अग्गइ जुज्झिवि उज्झियकिवहं । ए चूंलि पहूया संभरमि भउ पेक्खालुअहं मि वज्जरमि । दीवाइदीवि खगसिहेरि वरि उत्तरसेढिहि कणयाइपुरि । खगु गरुलवेउ दिहिसेण प्रिय सुय चंदविचंद तिलय सुहिय । पत्ता-कुसुमालुद्धइंदिदिरि सिद्धकूडजिणमंदिरि ॥ जइवरु तेहिं णियच्छिउ णियजम्मतरु पुच्छिउ ॥३॥ १० थिउ लंछणु धादइविडवि जहिं सुरदिसि अइरावइ तिलयपुरि जिह तिह गेहिणि कंचणतिलय रिसि अक्खइ धादइसंडि तहिं । पइ अभयघोसु सिरि तासु उरि । णावइ रइणाहहु रइविलय। बैलके कारण क्रोधयुक्त होकर कठोर बाहुवाले भद्र और धन्य नामसे प्रसिद्ध वे दोनों मरकर वहीं जिसमें बहुत-से व्याघ्र और सिंह हैं, ऐसे कांचननदीके तटपर वनमें श्वेतकर्ण और ताम्रकर्ण नामक गज हुए और पुनः युद्ध करके मर गये। अयोध्या नगरमें एक ग्वालाके घर नववयसे युक्त भैंसे हुए। आकर और युद्ध कर विनाशको प्राप्त हुए, फिर उसी नगरमें आधे पलमें जीतनेवाले मेढ़े हुए। दया रहित वरषेण राजाके सम्मुख वे दोनों लड़कर ये मुर्गे हुए हैं। मैं याद करता हूँ और देखनेवालोंके पूर्वभव कहता हूँ। जम्बूद्वीपके विजयाध पर्वतपर कनकपुर नामका नगर है। उसमें विद्याधर गरुड़वेग और उसकी पत्नी धृतिषणा थी। उसके दिवितिलक और चन्द्रतिलक नामके अच्छे हृदयके मित्र थे। घत्ता-जहाँ भ्रमर फूलोंपर लुब्ध हो रहे हैं ऐसे सिद्धकूट जिनवर मन्दिरमें उन्होंने एक मुनिको देखा और उनसे अपने जन्मान्तर पूछे ।।३।। ऋषि कहते हैं-जिसमें धातकी वृक्षका चिह्न है, ऐसे धातकीखण्ड द्वीपकी पूर्वदिशामें ऐरावत क्षेत्र है। उसमें राजा अभयघोष था। जैसे उसके हृदयमें लक्ष्मी थी, वैसे ही उसकी ३. १. AP वणि । २. A तंबकण्णंत गय। ३. A मय । ४. A उररय लद्धजय; P उरर पलद्धजय; T कुररय मेषौ, K कुरर मेषो. पलद्धजय प्रलब्धजयौ । ५. AP चूलिय हूया । ६. AP°सिहरिसिरि । ७. AP पिय । ८. A कुसुमलुद्ध । Page #456 -------------------------------------------------------------------------- ________________ - ६२. ५. ४ ] महाकवि पुष्पदन्त विरचित मयरद्धयबाणेवरोल्लियहि जामें जगि जाणिय जय विजय विज्जाहर गिरिदा हिणइ तडि तहिं संखु खयरु त जय घरिणि दिण्णी जयविजयजणेरयहु संवच्छरंति कयवणिलय पणइ सुवण्णतिलयहि तणउं आहि जाहुं जोयहि णिवई मेरवणु जोन्वणु किं ण सुहं घत्ता—ताहि वयणु अवगण्णिवि गउ महिवइ वणजत्तहि साहीण काहि भत्तारदय करपंकयलुहियभालतिलय रिसिणाहहु संजमवयधरहु अवलोइवि पंचमहब्भुयई जाया सुय बेणि पियल्लियहि | णं कामदेव णिम्मेयरधय । मंदरपुर सरसु तणडि | सुय पुहइतिलय ससिमुद्दि तरुणि । तहु अवर ण रुच्चइ तहि रयहु । णामेण विसारि चंदविलय । वणु फुल्लिउं फैलियउं घणघणउं । ता चवइ सवत्ति विरुद्धमइ । जें जो यहि दूयहि तणडं मुहुं । पडिवक्खु जि बहु मणिवि । मलिवि माणु मृणेहि ||४|| ५ सुमईगणिणिहि सा सरणु गय । तवचरणि लग्ग पुहईविलय । पहुणा किउ भोयणु दमवरहु । सुरकिंणरणाय रायथुयई । ४०९ ५ स्वर्णतिलका नामको गृहिणी थी जो मानो कामदेवकी रतिकामिनी थी । कामदेवके बाणोंकी पंक्ति उस प्रियासे दो पुत्र उत्पन्न हुए जो जगमें जय-विजयके नामसे जाने जाते थे, जो मानो मकरध्वजसे रहित कामदेव थे । विजयार्धं पर्वत के दक्षिण तटपर जिसमें नट मधुर नृत्य करते हैं ऐसे मन्दरपुर में शंख नामका विद्याधर राजा था । उसकी जया नामकी पत्नी थी और पुत्री पृथ्वीतिलका जो तरुण और चन्द्रमुखी थी । वह जय-विजयके पिता ( अभयघोष ) को दी गयी । उसमें अनुरक्त उसे कुछ और अच्छा नहीं लगता था । एक वर्षं तक वे कपटगृहमें रहे । तब चन्द्रतिलका नामकी दूती उससे कहती है कि स्वर्णतिलकाके उपवन में खूब फूल और फल लग गये हैं। आइए और उसे देखने चलिए । तब विरुद्धमति सौत ( पृथ्वीतिलका ) कहती है, “क्या मेरा यौवनरूपी वन शुभ नहीं है ? जिससे दूती ( चन्द्रतिलका) का मुख देखना चाहते हो ।” १० पत्ता - उसके वचनोंकी उपेक्षा कर प्रतिपक्षको ही मानकर तथा उस मृगनेत्रीके मानको मलिन कर राजा वनयात्राके लिए चला गया ||४|| ५ प्रिय की दया किसीके लिए भी स्वतन्त्र नहीं होती ( अर्थात् पतिकी दयापर किसीका एकाधिकार नहीं होता ) । वह ( पृथ्वीतिलका ) सुमति नामको आर्यिका की शरण में चली गयी । अपने हाथसे उसने मस्तकका तिलक पोंछ डाला और तपश्चरणमें लग गयी। राजा अभयघोषने संयमवरके धारी मुनिनाथ दमवरको आहारदान दिया । सुरों, किन्नरों और नागराजोंसे संस्तुत ४. १. AP बाणविरोल्लियहि । २. AP णं मयरधय । ३ AP मंदिरपुरि । ४. A णडंति गडि । ५. AP कइवयणिलय । ६. A फलियउं घणउं घणउं; P फलिउं घणघणउं । ७. A नृवइ । ८. A जं जोयहि; P जाहि । ९. P मिगणेत्तहि । ५२ Page #457 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४१० महापुराण [६२. ५.५ अप्पउं मोहें ण विडंबियां ससुएण वउ जि अवलंबियउं । इंदियपडिबलु रणि णिज्जियां अरहतणामु तेणज्जियां। मुउ सम्भावे सम्मयणिरउ । हुउ अंतिमकप्पि पुरंदरउ । सिसु तासु बे वि तेत्थु जि अमर जाया अच्छरकरधुयचमर । दिवि मरिवि बे वि ते भाइवर तिलयंतिम चंद विचंद णर। भुवि जाया गरुलवेयधणहि जाउंडयजडिलमडियथणहि । तं सुणिवि कुमारहिं बोल्लियउं मुणि जम्मतरु उज्वेल्लियउं । भणु अभयघोसु उप्पण्णु कहिं पिउ वसइ जहिं जि गच्छामि तहिं । जइ चवइ पुंडरिंकिणिपुरिहि णंदणु घणमालिणिसुंदरिहि । घत्ता-तणु मेल्लिवि तियसाहिउ जायउ तेलुकाहिउ ।। जो सके पणविज्जइ सो जिणु किं वणिज्जइ ।।५।। तहिं अच्छइ देउ सबंधुयणु जोयंतु कूडकुक्कुडयरेणु। परिभमणणमणउड्डाणणिहि चिंतंतु घोरसंसारविहि । दिव्वासें एहउ वज्जरिर तं सुणिवि खयरभायर तुरिउं । गय बेण्णि वि चिरजणणासयहु पय डेप्पिणु अग्गइ जणसयहु । ५ तायत्तणु तहु ससुयत्तणउं कम्माणुबंधविणियत्तणउं । पांच आश्चर्योंको देखकर उसने अपनेको मोहसे विखण्डित नहीं होने दिया। अपने पुत्रोंके साथ व्रत ग्रहण कर लिये । इन्द्रियरूपी शत्रुओंको उन्होंने जीत लिया। उसने अर्हत् प्रकृतिका बन्ध किया। सम्यग्दर्शनमें निरत वह सद्भावसे मर गया और अन्तिम स्वर्गमें इन्द्र हुआ। उसके वे दोनों पुत्र भी जिनके ऊपर अप्सराओं द्वारा चमर ढोले जाते हैं, ऐसे देव हुए। वे दोनों भाई स्वर्गमें मरकर चन्द्रतिलक और विचन्द्रतिलक नामसे, जिसके स्तन केशरको जटिलतासे मण्डित हैं, ऐसी गरुड़वेगा धन्यासे उत्पन्न हुए। मुनि द्वारा प्रकट किये गये जन्मान्तरको सुनकर कुमारोंने पूछा-मुनिवर बताइए अभयघोष कहाँ उत्पन्न हुए ? जहाँ पिता हैं, हम वहीं जायेंगे ? मुनिवर कहते हैं-पुण्डरीकिणी नगरीकी रानी मेघमालिनीका पुत्र _घत्ता-देवराज शरीर छोड़कर त्रिलोकराज हो गया है। जो इन्द्रके द्वारा प्रणम्य है, उन जिनका वर्णन किस प्रकार किया जाये ? ।।५।। वह देव इस समय बन्धुजनोंके साथ कूट कुक्कुटोंका युद्ध देखते हुए, जिसमें परिभ्रमण नमन और उड़ान को विधि है, ऐसी घोर संसार विधिका विचार करते हुए वहीं पुण्डरीकिणी नगरमें स्थित हैं। दिगम्बर मुनिने यह कहा कि वे दोनों विद्याधर भाई यह सुनकर अपने पुराने पिताके घर गये। सैकड़ों लोगोंके सामने उनका पुत्रत्व सहित पिताका कर्मानुबन्धका ५. १. AP अरहंतु । २. AP बे वि तासु । ३. P जाउडुय । ४. A गच्छामु; P गच्छमि । ५. AP तइलोक्का। ६. १. A रयणु । Page #458 -------------------------------------------------------------------------- ________________ -६२. ७. ६ ] महाकवि पुष्पदन्त विरचित गुणवंत गुत्तिगुत्तमणहु गणिवाण खरतवतवण भणिसुणिवि पक्खिहिं कंदियउं किमपिंडु ण भक्खिउ मरिवि गय तरसुर जाया भूकुलि tor भूयरतवणि तहिं जहिं अच्छे उ घणरहहु घत्ता - भणिरं तेहिं जडपक्खिहिं तुज्झु पसाएं आयउं मेहरहदेव परं दिष्णु सुहं उत्तर महिहर परियरिउँ पणयाललक्खजोयणविउलु उवयारहु पडिउवयारु किह दुल्लंघु सदेवहं दाणवह ता. इच्छवि कीलाभवणु मणि ब्रेड लइ विवि गोवद्धणहु । ते चंदविचंद तिलय सवण । अप्पाणउं गरहिउं णिदियउं । जिणवयर्णे दुक्कियवेल्लिहय । एक देववणि गिरिगुहिलि । भूयाहिव बेण्णि वि पत्त खणि । संदरिसियविमलणाणपहहु । अम्हहिं किमिभक्खिहिं || दिव्वं भवंतर जायउं ||६|| ७ आवहि विमणि आरुहहि तुहुं । सरसरिकुलसिह रिअलंकरिडं । अवलोयहि मणुयखेत्तु सयलु । तुह किज्जइ जसु जगि रिद्धिसिह । अहिवंद णिज्जु वरमाणवहं । आरूढ सुंदरु सुरभवणि । ४११ निवर्तन प्रकट कर गुणवान् गुप्तियोंसे गुप्त मन गोवर्धन मुनिको प्रणाम कर उन्होंने व्रत ग्रहण कर लिये । प्रखर तप करनेवाले वे दोनों चन्द्रतिलक और विचन्द्रतिलक श्रमण निर्वाणको प्राप्त हुए । अपने जन्मान्तरोंको सुनकर पक्षियोंने आक्रन्दन किया और स्वयं की गर्हा एवं निन्दा की। उन्होंने कृमियों के समूहको नहीं खाया । वे मर गये । पापरूपी लतासे आहत वे दोनों जिनवरके शब्दोंसे भूतकुल में व्यन्तरदेव हुए। उनमेंसे एक देववनकी गिरिगुहा में और दूसरा भूतरमणवनके भीतर । वे दोनों भूत राजा एक क्षणमें वहाँ पहुँचे जहाँ विमल केवलज्ञानकी प्रभाको प्रगट करनेवाले धनरथका पुत्र था । १० घत्ता - कृमिकुलका भक्षण करनेवाले उन जड़ पक्षियोंने कहा कि आपके प्रसादसे हमलोगोंका दिव्य जन्मान्तर हुआ है और हम यहाँ आये हैं ||६|| ७ हे मेघरथ देव, तुमने सुख दिया है। आओ, तुम विमानपर चढ़ो, मानुषोत्तर पर्वतसे घिरा हुआ सरसरित् कुल पर्वतोंसे अलंकृत पैंतालीस लाख योजन विशाल इस समस्त मनुष्य लोकको देख लो। तुम्हारे द्वारा जगमें जिसकी ऋद्धिका प्रकर्ष किया जाता है उस उपकारका प्रतिकार हो सकता है ? देवताओं सहित दानवों को जो दुलंघ्य है और जो उत्तम मनुष्यों के द्वारा वन्दनीय है । ऐसे वह अपने मनमें क्रीड़ा भ्रमणकी इच्छा कर देवविमान में बैठ गया । अपने मित्रों, २. AP वउ | ३. A दुक्खिय बेण्णि हय; P दुक्खियवेल्लिहय । ४. AP सुउ अच्छइ । ५. A अम्हहं । ६. APदिव्वु । ७. १. AP विवाणि । २. P मणुसुत्तर । ३. P रियरउं । ४. AP सरिसरं । ५. P तो । Page #459 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४१२ महापुराण [६२.७.७ णियसहयरकिंकरगुरुसहिउ कुक्कुडदेविहिं भत्तिइ महिउ । णहि सुरहरि जंति विविहंपुरई दावंति देव देसंतरई।। घत्ता-एहु भरहु अवलोयहि इहु हिमवंतु विवेयहि ।। एह दिव्व गंगाणइ एह सिंधु मंथरगइ ॥७॥ इहु दीसइ णिम्मलु पोमसरु सिरिदेविसहिउ रुंजियभमरु । हइमवउ एहु पूरियदरिउ वररोहियंरोहियाससरिउ । तुहिणईरि एहु गरुयउ अवरु अण्णेक्कु महासयवत्तसरु । हिरिदेवि एत्थु णिच्चु जि वसइ हरिवरिसु एउ सग्गु वि हसइ। इहु एत्थु वहइ णामेण हरि अण्णेक्कु पेक्खु हरिकंतसरि । इहु मंदरु ए गयदंतगिरि इहु सुरकुरु उत्तरकुरु संसरि । इहु णिसहु णाम महिहरु पवरु इहु जोवहि णिव तिगिछिसरु । दिहिदेवि एत्थु विरइयभवणे अच्छइ सुररायणिहत्तीण । एयाई विदेहई दोण्णि पिय सरि सीया सीओया वि थिय । १० इहु णीलिहि' केसरि णाम दहु इहुँ दीसइ कित्तीदेविसहुँ । अनुचर और गुरुजनों सहित उसकी कुक्कुट देवोंने भक्तिपूर्वक पूजा की। आकाशमें देवविमानमें जाते हुए, देव विविध नगर और देशान्तर दिखाते हैं। घत्ता-इस भरतक्षेत्रको देखो। इसे हिमवन्त (हैमवत क्षेत्र) जानो। यह दिव्य गंगा नदी है, और यह मन्दगामिनी सिन्धु नदो है ॥७॥ यह निर्मल पद्म सरोवर है, जो श्रीदेवीसे सहित और भ्रमरोंसे गुंजित है। घाटियोंसे भरा हुआ यह हैमवत पर्वत है, ये श्रेष्ठ रोहित और रोहितास्या नदियां हैं । यह दूसरा महान् हिमगिरि है, और दूसरा महापद्मसरोवर है, इसमें ह्री देवी नित्य रूपसे निवास करती है। यह हरिवर्ष है, जो स्वर्गका उपहास करता है ? यहाँ हरि नामकी नदी बहती है और दूसरी हरिकान्ता नदी देखो । यह मन्दराचल है। यह गजदन्त गिरि है। यह नदियों सहित उत्तरकुरु और दक्षिणकुरु हैं । यह निषध नामका विशाल पर्वत है । हे राजन् ! यह तिगिच्छ सरोवर है। यहाँ धृतिने अपना भवन बना रखा है। सौधर्म स्वर्गके इन्द्र में अपना मन करनेवाली वह स्थित है। हे प्रिय. ये दोनों विदेह हैं और ये सीता और सीतोदा नदियां स्थित हैं। ये नील और केशर नामके सरोवर हैं, ६. AP णिउ सहयर । ७. A विविप्फुरई । ८. K देसंतई । ८. १. Mss. reads एह and इह promiscuously here। २. A रंजिय । ३. A हइमवइ। ४. P रोहिणि रोहियासउ सरिउ । ५. A तुहिणयरि । ६. P reads this line after 8 b. ७. A सुरु कुरु । ८. A ससिरि । ९. AP'भवणु। १०. A सुयराय । ११. AP णिहित्तमणु । १२. A केसरु । १३. A ओ दीसइ; P पहु दोसइ । १४. A सुह । Page #460 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४१३ -६२.९. ११ ] महाकवि पुष्पदन्त विरचित इहुँ रम्मु एउ णइणारिवर णरकंत एह पवहइ अवर । इहु रुम्मिधराहरु पुंडरिउ सरु एत्थु देव पाणियभरि । ___ घत्ता-बुद्धिदेवि इह अच्छइ जगि माणउ जो पेच्छइ ।। जिणवरसेवासिद्धउं तेण णयणफलु लद्धउं ॥८॥ णिव खेत्तु हिरण्णवंतु णियहि सोवण्णकूलसरिजलु पियहि । रुप्पयकूल वि इह एम गय। जहिं कुद्धहि सीहहिं हत्थि हय । सो एहु सिहरिगिरि सिहरपिउ सरु एत्थु महापुंडरिउ हिउ । लच्छीदेविहि रुच्चइ रमइ ओहच्छइ इह वासरु गमइ। रत्तारत्तोयसरिहिं सहि अइरावउ एउं खेत्तु कहिउं । फुल्लियतरुमालापरिमलई वैरिसंति मेह धाराजलई । पिञ्चंति कलमकयलीहलई णचंतमोरपिच्छुजलई। कच्छाइयाई विसयंतरई खेमाइयाई जयरइं वरई। दरिसंति अमर जोयंति पर विम्हइयहियय कंपवियकर । पत्ता-कंदररिकीलियसुर जोइवि णाणागिरिवर ।। अकयई मणियरतंबई वंदिवि जिणपडिबिंबई ॥९॥ यह कीर्तिदेवीके साथ दिखाई देते है, यह रम्यक पर्वत है। यह श्रेष्ठ नारी नदी है और यह दूसरी नरकान्ता नदी बहती है। यह रुक्मी महीधर है, यह पुण्डरीक नामका हे देव, जलसे भरा हुआ सरोवर है। घत्ता-यहां बुद्धिदेवी है, जो विश्वके मानको देख लेती है। उसने जिनवरकी सेवासे सिद्ध नेत्रोंके फलको प्राप्त कर लिया है ।।८।। हे नृप, यह हैरण्यवत क्षेत्र देखो। और स्वर्णकूला नदीका जल पियो। यह रूप्यकूला नदो इस प्रकार बहती है, जहां क्रुद्ध सिंहोंके द्वारा हाथी मारे जाते हैं ? यह वह, शिखर प्रिय शिखरो पर्वत है। यह महापुण्डरीक सरोवर है, जो लक्ष्मीदेवीके द्वारा चाहा जाता और रमण किया जाता है। यहां रहकर वह अपने दिन व्यतीत करती है ? रक्ता रक्तोदा नदियोंके साथ यह ऐरावत क्षेत्र कहा जाता है। जहां मेघ खिली हुई वृक्षमालासे सुगन्धित धाराजलोंकी वर्षा करते हैं। जहां धान्य और कदली फल पकते हैं। अपने पक्षोंसे सुन्दर मयूर नाचते रहते हैं। जिसमें कच्छादि देशान्तर और क्षेमादि नगर हैं। देवता लोग दिखाते हैं और मनुष्य विस्मित हृदय तथा अपना हाथ हिलाते हुए देखते हैं । पत्ता-जिसके पहाड़ोंकी घाटियोंमें देव क्रीड़ा करते हैं ऐसे नाना गिरिवरोंको देखकर तथा अकृत्रिम मणिकिरणोंसे लाल जिन प्रतिमाओंकी वन्दना कर ॥९|| १५. AP पह, probably is confounded with ए । १६. A रम्मि । १७. AP एह । ९. १. A वरिसंत । २. A जलधाराई । ३. A केली । ४. AP णच्चंति । ५. P°पिछज्जलई । ६. P दरिसंति य अमर । ७. P विभइयं । ८. A दरकेलिय। Page #461 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४१४ महापुराण [६२. १०.१ णरखेत्तु गिरीसरिमालियां । मणुसुत्तरु जाम णिहालियां । तहु उप्परि मणुयह णत्थि गइ । पल्लह सविम्हैयभिण्णमइ । पडिआया धणरहनृवैणयरु जयजयस पइसरिवि घरु । पुन्जिवि कुमार गय तियस तहिं णंदणेवणि णियणयराई जहिं । संसारु असारु विवेइयउ इंदियकंखइ पडिचोइयउ । घणरहिण पुत्तु हक्कारियउ मेहरहु रजि वइसारियउ । लोयंतिएहिं उद्दीवियां वेरग्गु तेणे णिरु भावियउं । जाणे माणिक्कविराइएण णरखयरसुरिंदुच्चाइएण । गउ वणि किउ देवें तवचरणु उप्पायउ केवलु मलहरणु । घत्ता-भूगोयरखगरायहिं चउविहदेवणिकायहिं ।। णमिउ जिर्णिदु यत्तिइ तणएं जाइवि भत्तिइ ॥१०॥ ११ अण्णहिं दिणि वणि तरुकोमलइ । पियमित्तइ समउं सिलायलइ । आसीणउ राणउ मेहरहु जांवच्छइ ता ढक्कंतु णहु । विज्जोहरविजाचोइयां उपरि विमाणु संप्राइयउं । तं ताहं ण वच्चइ उ वि किह वायरणवियारणु जडहुँ जिह । १० पहाड़ों और नदियोंकी मालासे घिरा हुआ जब उन्होंने मानुषोत्तर पर्वत देख लिया तो उसके ऊपर मनुष्योंकी गति नहीं है। विस्मयसे परिपूर्ण मति वह लौट आया। वे पुण्डरीकिणी नगर आ गये। और जय-जय शब्दके साथ घरमें प्रवेश कराकर तथा कुमारको पूजाकर देवता लोग वहां गये। नन्दनवनमें उनके अपने नगर थे। इन्द्रियोंकी आकांक्षासे प्रेरित उसने जान लिया कि संसार असार है। घनरथने अपने पुत्रको पुकारा और मेघरथको राज्यपर बैठाया। लौकान्तिक देवोंने प्रेरणा दी। उन्हें वैराग्य बहुत अच्छा लगा। माणिक्योंसे शोभित मनुष्य विद्याधर और देवेन्द्रोंके द्वारा उठायो गयी पालकीसे वह वनमें गये और देवने वहाँ तपश्चरण किया। उन्हें मलका नाश करनेवाला केवलज्ञान उत्पन्न हो गया। पत्ता-मनुष्यों और विद्याधरों तथा चार प्रकारके देवनिकायों और पुत्रने पीडाको दूर करनेवाली भक्ति से जाकर जिनकी वन्दना की ॥१०॥ दूसरे दिन वृक्षोंसे कोमल वनमें जाकर चट्टानपर प्रियमित्राके साथ जब राजा मेघरथ बैठे हुए थे कि इतने में आकाशको ढकता हुआ, विद्याधरको विद्यासे प्रेरित एक विमान वहाँ आया। वह उन लोगोंके ऊपरसे एक पग भी उसी प्रकार नहीं चल सका जिस प्रकार मूर्ख लोगोंमें १०. १. A मणुउत्तरु । २. AP सविभयं । ३. AP णिवणय । ४. A पइसे वि; P पइसरवि । ५. A __ °वणणिय । ६. AP तेहिं । ७. A वणु । ८. AP णविउ । ११.१. P ढंकंतु । २. A विज्जाहरु । ३. AP विवाणु संपाइयउं । ४. P वच्चइ उवरि किह । Page #462 -------------------------------------------------------------------------- ________________ -६२. १२.७] महाकवि पुष्पदन्त विरचित आरे?उ वड्डियअमरिसउ खेयरु अवलोयइ दसदिसउ। महियलि कीलंतु रत्तु सुयणु दिट्ठउं उवविढउं णरमिहुणु । उत्थल्लिवि घल्ल मि एउ खलु __ अणुहवउ विमर्माणणिरोहफलु । इय चिंतिवि कुद्ध अकारणइ विजेइ पायालवियारणइ । तलि पइसिवि'चीलिय तेण सिल डोल्लिउ वहुवरु थरह रिय इल । घत्ता-अरिवरु तणु व वियप्पिवि सिल चरणयले चप्पिवि ॥ मेहरहें पंडिपेल्लिय तासु जि मत्थइ घल्लिय ॥११॥ संचलहं ण सक्कइ सो खयरु आर्कदइ रवपूरियविवरु । तहु घरिणि भणइ उद्धरहि लहुं दे देहि बप्प पइभिक्ख महुँ । मा मारहि रमणु महुँ तणउ तुहुं देवे वइरिविद्दावणउ । तं' णिसुणिवि करपल्लवि धरिवि कड्डिउ कारुण्णे दय करिवि। पहु भणइ म मेल्लहि करुणसरु __ लइ अम्मि तुहारउ एहु वरु । विहलुद्धारणि पसरियह रिस पिसुणहं मि खमंति महापुरिस । थिउ वीलावसु ओर्ण ल्लमुहु णयल अवलोइवि जायेदह । व्याकरणका विचार । जिसे ईर्ष्या बढ़ रही है ऐसा विद्याधर क्रुद्ध हो उठा। वह चारों दिशाओंमें देखता है। उसने धरतीतलपर क्रीड़ा करते हुए स्वजनोंसे रहित बैठे हुए मनुष्यके जोड़ेको देखा । मैं इस दुष्टको उछालकर फेंकता हूँ, मेरे विमानके निरोधका फल यह अनुभव करे यह सोचकर वह अकारण क्रुद्ध हो उठा, पाताल विदारण विद्यासे तलमें प्रवेश कर उसने शिलातल चलायमान कर दिया । वधूवर डोल उठे और धरती हिल उठी। घत्ता-शत्रुको तिनकेके बराबर समझते हुए शिलातलको पैरसे चांपकर मेघरथने उसे उल्टा प्रेरित किया और उसीके मस्तकपर फेंक दिया ॥११॥ १२ वह विद्याधर चल नहीं सका। शब्दसे विवरोंको भरता हुआ वह रोता है। तब उसकी गृहिणी ( विद्याधरी) कहती है-"शीघ्र उद्धार कीजिए। हे सुभट, मुझे पतिकी भीख दीजिये। प्रियकी हत्या मत कीजिए। हे देव, आप शत्रुओंका विदारण करनेवाले हैं।" यह सुनकर उसने दया कर कारुण्यसे अपनी हथेलीपर धारण कर उसे निकाला। प्रभु मेघरथ कहते हैं- "हे मां, तुम करुण विलाप मत करो ये लो तुम्हारा वर।" विकल जनोंका उद्धार करने में जिनमें हर्षका प्रसार होता है, ऐसे महापुरुष दुष्टोंको क्षमा नहीं करते। लज्जाके वशीभूत वह विद्याधर अपना मुख ५. A आरूढ उ । ६. A चत्तसुयणु । ७. A पल्लिवि एह; Pघल्लिमि एउ। ८. AP विवाण । ९. P विज्जाइ। १०. A तेणुच्चइय सिल । ११. A अरिवर । १२. A पडिमेल्लिय । १२.१. A महं तणठ । २. AP देउ । ३. P तें। ४. AP ओणुल्लमुह । ५. AP णहयरु । ६. A जायसुह। Page #463 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४१६ महापुराण [ ६२. १२.८ पियमित्तइ णाहु पपुच्छियउ तं णिसुणिवि ओहिणाणणयणु घत्ता-धादइसंडएरावइ रामगुत्तु नवु होतउ कहु तणउ एहु कहिं अच्छियउ । अक्खइ गरवइ बहुल्लवयणु । तहिं संखउरि सुहावइ ।। संखिणिरमणीरत्तउ ॥१२।। १३ संजियसहलणिरंतरइ संखइरिगुहाकुहरंतरइ। मुणि सव्वगुत्तु आसंघियउ दोहिं मि संसारु विलंघियउ । जिणगुणउववास खंविवि तण जिणचरणकमलि थि करिवि मणु । दिहिसेणहु दाणु पयच्छियउं पंचविहु वि चोजु णियच्छियउं। विरएप्पिणु परमेट्ठिहि ण्हवणु पणविवि समाहिगुत्तु समणु । संणासें मुउ बंभेदु हुउ कालेण णवर तेत्थाउ चुउ । सीहरहु एहु खयराहिवइ देवहुं दुजउ तिहुवणविजइ । इहु पुण्णवंतु जयलच्छिधउ मई जितउ तो किं मज्झु मउ । ___ पत्ता-अंगइं गेण्हिवि छंडिवि चिरु संसारि विहंडिवि ।। दुल्लहभोयाकंखिणि जिणतवेण सा संखिणि ॥१३॥ नीचा करके रह गया। आकाशतल देखकर उसे बहुत दुख हुआ। प्रियमित्राने अपने स्वामीसे पूछा, “यह किसका है और कहाँ रहता है ?" यह सुनकर अवधिज्ञानरूपी आंखवाला प्रफुल्लमुख राजा कहता है। __ घत्ता-धातकीखण्डके ऐरावत क्षेत्रमें शंखपुर नगर शोभित है। उसमें अपनी शखिनी भार्या में अनुरक्त रामगुप्त नामका राजा था ॥१२।। १० १ जिसमें निरन्तर सिंहोंकी गर्जना हो रही है, ऐसी शंखगिरि गुफाके भीतर मुनि सर्वगुप्त आकर ठहरे । उन दोनों ( राजा रामगुप्त और शंखिनी ) ने संसारका त्याग कर दिया। जिनगुणों पंचकल्याणकोंके अनसार) उपवाससे अपने शरीरको क्षीण कर तथा जिनवरके चरण-कमलों में अपना मन स्थिर कर धृतिसेनको आहार-दान दिया और पांच प्रकार आश्चर्यों को देखा। पांच परमेष्ठियोंका अभिषेक कर तथा समाधिगुप्त मुनिको प्रणाम कर संन्याससे मरकर ब्रह्मेन्द्र देव हुआ। समय आनेपर वहांसे च्युत होकर विद्याधरपति सिंहरथ हुआ है जो अपनी त्रिलोकविजयमें देवोंके लिए भी दुर्लभ है। यह पुण्यवान् तथा विजय लक्ष्मीका पति मेरे द्वारा जीत लिया गया है । तो भी मुझे मद क्यों है। पत्ता-शरीर और गृहका त्याग कर चिरकाल तक संसारमें परिभ्रमण कर तथा दुर्लभ भोगोंकी आकांक्षा रखनेवाली वह शंखिनी भी जिन तपसे ।।१३।। ७. AP महिवइ । ८. A पफुल्लवयणु; P पप्फुल्लवयणु । ९. AP णिउ । १३. १. A खवियतणु । २. AP संणिहिउ मणु । ३. A गिण्हई । ४. A संसारु । Page #464 -------------------------------------------------------------------------- ________________ -६२. १५.३] महाकवि पुष्पदन्त विरचित गय सग्गहु पुणु वेयडधरि दाहिणसे ढिहि वसुमालपुरि । विज्जाहरु इंदकेउ वसइ पिय मयणवेय तहु अस्थि सइ । सुप्पह उप्पण्णी तोहं सुय ओहच्छइ बालमुणालभुय । एयइ पिययमु ओलग्गियउ भत्तारभिक्ख हां मग्गियउ । णिसुणिवि भैवि संसरि विउलि । सुउ थविवि सुवण्णतिलउ सउलि । घणरह जिणकमेकमल महिउं सीहरहें मुणिचरित्तु गहिउं । पियमित्तवेयर्गणणीकहिउ संजमु जमु अवलंबिवि सहिउ । थिय मयणवेयविरईइ किह कइमइ दुकरकहरीण जिह । दक्खालइ लोयहुं णायवहु तहिं रज्जु करइ सो मेहरहु । घत्ता-गंदीसरि संपत्तइ जिणु झायंतु सचित्तइ ।। दसणु णाणु समिच्छइ उववासिउ जां वच्छइ ॥१४॥ भवभावपवेवियसव्वतणु तावेक् कवोउ पराइयउ किर झ त्ति झैडप्पिवि लेइ खलु चलमरणुत्तासिउ सरणमणु । तहु पच्छइ गिद्ध पराइयउ । णियवइरिहि लुचिवि खाइ पलु । स्वर्ग गयी। फिर विजयाध पर्वतकी दक्षिण श्रेणीके वसुमालपुरमें इन्द्रकेतु विद्याधर निवास करता है, उसकी पत्नी मदनवेगा सती है। वह उन दोनोंको सुप्रभा कन्या उत्पन्न हुई। बालमृणालके समान बाहुवाली वह, यह स्थित है। इसने अपने पतिकी सेवा की है, और मुझसे पतिको भीख मांगी है। विपूल संसारमें परिभ्रमणको सुनकर अपने पुत्र स्वर्णतिलकको गहोपर स्थापित कर धनरथ जिनवरके चरणकमलोंको पूजा कर सिंहरथने मुनि दीक्षा स्वीकार ली। प्रियमित्रा आर्यिकाके द्वारा कहे गये संयम और यम तथा स्वहितका अवलम्बन कर विरतिसे मदनवेगा उसी प्रकार स्थित हो गयी जिस प्रकार कविको मति दुष्कर कथासे शान्त हो जाती है। वहाँ मेघरथ लोगोंको न्यायपथ दिखाता है और इस प्रकार राज्य करता है। पत्ता-नन्दीश्वरपर्वत प्राप्त होनेपर जिनका अपने मनमें ध्यान करते हुए जबतक वह उपवास करता है और दर्शनज्ञानकी इच्छा करता है ॥१४॥ कि इतने में जिसका जन्मके भावसे सारा शरीर प्रकम्पित है, जो चंचल मरणसे पीड़ित है, और जिसका मन शरणके लिए है, ऐसा एक कबूतर वहां आया। उसके पीछे एक गीध आया। १४. १. A वेयढ्डवरि । २. A तासु । ३. P has तं before णिसुणिवि । ४. A भव संसरियउ; P भवि संसरियर । ५. AP कमजुयल । ६. P महियउं । ७. P गहिय। ८. A"गणिणी । ९. A सइ त्तइ। १०. A जा अच्छह; P जामच्छइ । १५. १. AP चलु । २. AP सेणु। ३. A झडेप्पिणु । ५३ Page #465 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४१८ महापुराण [६२. १६.४ ता पक्खि णरिंदें वारियउ किं मारहि वारहि अप्पणउं ता पुच्छइ दढरहु देव किह पहु अक्खइ मंदरउत्तरइ पुरि पउमिणिखेडइ मंदगइ धणमित्तु तासु वल्लहु तणुउ मुइ वणिवरि भायर जायरइ ते लुद्ध मुद्ध मुय बे वि जण घत्ता-इहु मारइ इहु णासइ णहि एंत हउं दिट्ठउ पई एहु भवंतरि मारियउ। मा पावहि भवि दुहं घणघणउं । महुँ कहहि कहाणउं वित्त जिह । खेत्तंतरि सोक्खणिरंतरह। धेण सागरसेणहु अमियमइ । पुणु जायउ णंदिसेणु अणुउ । अवरोप्परु पहणिवि धणहु कइ । जाया खग मारणदिण्णखण । भीयउ रक्ख गवेसइ ॥ मज्झु जि सरणु पइट्ठउ ॥१५॥ १६ अण्णोण्णु जि भक्खिवि जणु जियइ ण णिहालइ णिवडंती णियइ । इहु दीणु इहु णिरु मुक्खियउ इय चिंतिवि राउ द्रवे कियउ । किं किज्जइ खगु दिइ जइ वि ___णउ लब्भइ धम्मलाह तह वि। तहिं अवसरि कुंडलमउडधरु अंबरयलि थिउ भासइ अमरु। ५ जइ देसि ॥ तो गिद्धहु पलड पलि दिण्णइ पारावयहु खउ। वह दुष्ट उसे झड़पकर जबतक ले और अपने शत्रुका मांस लोंचकर खाये, तबतक राजाने उसे मना किया कि तुमने इसे जन्मान्तरमें मारा था, अब क्यों मारते हो अपनेको रोको, संसारमें सघन दुःखोंको मत प्राप्त करो। तब वह सिंहरथ देव पूछता है कि जिस प्रकार मेरा कथानक है, उस प्रकार बताइए । राजा कहता है कि मन्दराचलके उत्तरमें सुखसे निरन्तर परिपूर्ण क्षेत्रान्तर (ऐरावत ) की पद्मिनीखेट नगरीमें सागरसेन वैश्य था। उसकी पत्नी अमितगति थी। धनमित्र उसका प्रिय पुत्र था, फिर छोटा पुत्र नन्दिषेण हुआ । सेठकी मृत्यु होनेपर जिनमें लड़ाई चल पड़ी है, ऐसे दोनों भाई धनके लिए एक दूसरेपर प्रहार करते हैं। वे दोनों लोभी और मूर्ख मृत्युको प्राप्त होते हैं। मारने में अपना समय देनेवाले वे पक्षी हुए। घत्ता-यह मारता है, यह भागता है, डरा हुआ रक्षाकी खोज कर रहा है। आकाशमें जाते हए इसने मुझे देखा और मेरी ही शरणमें आ गया ॥१५॥ जन एक दूसरेका भक्षण कर जीवित रहता है, अपने ऊपर आती हुई नियतिको नहीं जानता। यह दीन है, यह अत्यन्त भूखा है-यह सोचकर राजा अत्यन्त भयभीत हो उठा। क्या किया जाय? यद्यपि यह खग दे दिया जाये तो भी इसमें धर्म लाभ नहीं पाया जा सकता। उस अवसरपर कुण्डल और मुकुट धारण किये हुए आकाशमें स्थित एक देवने कहा-"यदि नहीं ४. P भवि भवि दुई घणउं । ५. P वणिसागर। ६. A पहरिवि । ७. P°दिण्णमण । १६.१. A एउ । २. A दुवक्कियउ; P दुवक्खियउ; T दुवक्खिय उ पक्षद्वयः। ३. A हिज्जइ। ४. AP सेणहु । Page #466 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४१९ -६२. १७.९ ] महाकवि पुष्पदन्त विरचित चाइत्तणु तेरउ किं करइ तो विहसिवि महिवइ वज्जरइ। मई चाउ करेवउ तेम तिह जिउ ण मरइ ण हवइ हिंस जिह । वर अच्छउ णिग्गुणु छुहियतणु णउ ओयोविज्जइ प्राणिगणु । किं वग्घु भणिज्जइ पत्तु गुणि आहारु असुद्ध ण लेति मुणि । घत्ता-जेहिं णियागमि वुत्तउं आमिसु दिण्णउं भुत्तउं ।। ते लहंति दुणिरिक्खइं भवि भवि विविहइं दुक्खई ॥१६।। १७ तं णिसुणिवि देवें संसियउ मेहरहु सिरेण णमंसियउ । गउ अमरु णिवासुएण भणिउ कोऊहलु महुं हियवइ जणिउ । को एह किमत्थु समागमणु तो कहइ णराहिउ रिउदमणु । पई दमियारिहि रणि पाइयउ हेमरहु णाम णिउ घाइयउ। भवि भमिवि सुइरु कइलासयडि वणि पेण्णकंततीरिणिणियडि । वरसिरिदत्ताकंतावसहु सुउ जायउ सोम्मैहु तावसहु । चंदाहु णाम प्रिउँ पाणपिउ पंचम्गिताउ तउ तेण किउ । जोइसकुलि उप्पण्णउ अमरु गउ जहिं हरि अच्छइ कुलिसकरु । ईसाणणामकप्पाहिवइ तहिं तियसहं णिसुणिवि वयणगइ । दोगे तो गोधका नाश है और मांस देनेपर कबूतरका नाश है ? तुम्हारा त्याग इसमें क्या करेगा ?" तब राजा हंसकर उत्तर देता है, "मेरा त्याग वह करेगा कि जिससे जीव नहीं मरेगा और हिंसा नहीं होगी ? निर्गुण और भूखा रहना अच्छा लेकिन प्राणियोंको घात नहीं करना चाहिए? क्या बाधको गुणीपात्र कहा जाता है, मुनि लोग अशुद्ध आहार ग्रहण नहीं करते। पत्ता-जिन लोगोंके द्वारा अपने आगममें कहा गया और दिया गया आमिष भोजन खाया जाता है, वे भव-भवमें दुर्दर्शनीय दुःखोंको पाते हैं ।।१६।। यह सुनकर देवोंने उसको प्रशंसा की और मेघरथको सिरसे प्रणाम किया। वह देव चला गया। राजाके अनुज (दृढ़रथ ) ने कहा कि इसने मेरे हृदयमें कुतूहल उत्पन्न कर दिया है। यह कोन है और किसलिए यहाँ आया ? तब शत्रुओंका दमन करनेवाला, राजा मेघरथ कहता है-तुमने ( अनन्तवीर्यके रूपमें ) दमितारिके पैदल सैनिक हेमरथ राजाको मारा था। वह बहुत समय तक संसारमें भ्रमण कर कैलासके तटपर पर्णकान्ता नदीके निकट वनमें श्रेष्ठ श्रीदत्ता कान्ताके वशीभूत तापस सोमशर्माका चन्द्र नामका प्राणप्रिय पुत्र हुआ। उसने पंचाग्नि तप किया, वह ज्योतिषकुलमें देव उत्पन्न हुआ है। वह वहाँ गया जहाँ हाथमें वन लिये इन्द्र था, जो-ईशान स्वर्गका राजा था। वहां देवताओंकी वचनगति और मेरे त्याग तथा भोगकी स्तुतिको ५. A तो। ६. A उज्जाविज्जइ । ७. A पाणिगण; P पाणिगुणु । १७.१. A तो। २. AP पण्णकति । ३. A सोमह । ४. AP पिउ । ५. A कूलिसघरु । Page #467 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४२० महापुराण [६२. १७.१० १० महं केरी चायसुभोयथुइ इहु आयउ कुछ अजायरुइ । आएं महु सीलु णिरिक्खियउ चित्तेण असेसुपरिक्खियउ । घत्ता-एउ वयणु णिसुणेपिणु पक्खें रोसु मुएप्पिणु ॥ वंदिवि जिणवरसासणु कयउं बिहिं मि संणासणु ॥१७॥ १८ बेणि वि सुरूवअइरूववर सुररमणवणंतरि जाय सुर । णरणाहु तेहिं संमाणियउ पइं देव धम्मु जगि जाणियउ । पई रउरवि णिविडमाण धरिय अम्हइं मि कुजोणिहि णीसरिय । गय सुरवरराएं दमवरहु कय भोजजुत्ति संजमधरहु । दुंदुहिरउ मणिकंचणव रिसु सुरजयसरु पाउसु कयह रिसु । मरु सुरहियंगु मंथर वहइ जणु जणहु दाणु विलसिउ कहइ । पुणु णंदीसरि पोसहु करिवि थिउ पडिमाजोएं जिणु सरिवि । ईसाणसुरिंदें वणियउ। अण्णहिं देवहिं आयण्णियउं । वपिणउ कहु केरउं चरिउ पई को तुज्झु वि गरुयउ देवे सई। घत्ता-तें णियगुज्झु ण रक्खिउ सुरवरराएं अक्खिउ ॥ मई संथुउ परमेसरु सिरिमेहरहु महीसरु ।।१८।। सुनकर यह अच्छा नहीं लगनेसे क्रुद्ध होकर यहां आया है। इसने मेरे शीलका निरीक्षण किया और चित्तसे सबकी परीक्षा की। घत्ता-यह वचन सुनकर क्रोध छोड़कर तथा जिनवर शासनको वन्दना कर दोनों (पक्षियोंने ) संन्यास ले लिया ॥१७॥ marwari १८ वे दोनों सुररमणवन ( देवारण्य ) के भीतर सुरूप और अतिरूप नामके देव हुए। उन्होंने राजा ( मेघरथ ) का सम्मान किया (और कहा ) हे देव, तुमने ही संसारमें धर्मको जाना है। तुमने रौरव नरकमें जाते हुए हमें पकड़ लिया और हम लोगोंको कुयोनिसे निकाल लिया। सुरवरराजके जानेपर उसने दमवर संयमधारीकी भोजनयुक्ति ( आहारदान ) की। दुन्दुभि शब्द, मणिकांचनकी वर्षा, देवोंका जयस्वर, हर्ष उत्पन्न करनेवाली वर्षा, सुरभित हवा मन्थर-मन्थर बहती है। जन जनोंसे दानका प्रभाव कहते हैं। फिर नन्दीश्वरमें प्रोषधोपवास कर जिनको स्मरण करते हुए वह प्रतिमायोगमें स्थित हो गया। ईशानीकने वर्णन किया और दूसरे देवोंने उसे सुना (और पूछा) कि तुमने स्वयं किसके चरितका वर्णन किया। हे देव, तुमसे महान् कौन है ? 'घत्ता-उस सुरेन्द्रने अपना रहस्य छिपाकर नहीं रखा। सुरवरराजने कहा-मैंने परमेश्वर श्री मेघरथ परमेश्वरको स्तुति की है ॥१८॥ ६. A वाय भोय । ७. A कुद्ध व जायरुइ । ८. P णिसुणेविण । १८. १. AP धम्मु देव । २. AP देउ । ३. AP तं। . Page #468 -------------------------------------------------------------------------- ________________ -६२. २०.४] महाकवि पुष्पदन्त विरचित ४२१ तं णिसुणिवि देवि सुरूविणिय जहिं अच्छइ राउ समाहिरउ दोहिं मि गाढउ आलिंगियउ दोहिं मि सुमहुरु संभासियउ णीवीणिबंधु आमेल्लियउ दोहि मि सवियारु पलोइयउ अचलतें अहिणवमंदरहु तं बेणि मि वंदेप्पिणु गयउ अण्णहिं दिणि सुर चवंति जुवइ । ता भासइ ईसाणाहिवइ घत्ता-ता देवय मणि कंपइ रूव मण्णइ माणवि अणेक ढुक्क अइरूविणिय । तहिं ताहिं तासु दाविउ समउ । दोहिं मि मुहचुंबणु मग्गियउ। दोहिं मि आहरणहिं भूसियउ । दोहिं मि थणकलसहिं पेल्लियउ । दोहिं मि उरुखप्परि ढोइयउ। जं हियउ ण हित्तउ सुंदरहु । वंदारयघरिणिउ अविरयउ । णरलोइ अस्थि किं रूववइ । पियमित्तहि केरी रूवगइ । पुरहूयउ किं जंपइ । आगय रइ रइसेण वि ॥१९॥ २० अहंसणीहिं सुरकामिणिहिं जोइवि अइरावयगामिणिहिं । अब्भंगिउ अंगु मणोहरउं उग्घाडउं तुंगपयोहर। बेण्णि वि पुणु दारि परिट्ठियउ देविउँ दसणउक्कंठियउ । अक्खिउ कण्णइ कट्ठियहरइ अच्छंति तृयउँ दारंतरइ । १९ यह सुनकर एक सुरूपिणी और दूसरी अतिरूपिणी देवियां वहां पहुंचीं कि जहां राजा समाधिमें लीन था। वहां उन्होंने उसका अवसर प्रदर्शित किया। दोनोंने एक दूसरेका प्रगाढ़ रूपसे आलिंगन किया। दोनोंने एक दूसरेका मुख-चुम्बन मांगा। दोनोंने सुमधुर सम्भाषण किया। दोनोंने एक दूसरेको आभरणोंसे आभूषित किया। नीवीबन्ध खोल दिया। दोनोंने एक दूसरेको स्तनकलशोंसे प्रेरित किया। दोनोंने विकारपूर्वक देखा । दोनोंने उरके ऊपर उर रखा । अचलत्वमें नये मन्दराचलके समान उस सुन्दरके हृदयका अपहरण नहीं किया जा सका तो व्रतहीन वे दोनों देवांगनाएं वन्दना करके चली गयीं। दूसरे दिन देव कहते हैं कि क्या मनुष्यलोकमें रूपवती युवती है ? इसपर ईशानेन्द्रने प्रियमित्राकी रूपगतिका वर्णन किया। पत्ता-तब देवी मनमें कांप उठती है, इन्द्र क्या कहता है मनुष्यणीके रूपको मानता है। रति और रतिसेन देवियां आयीं ||१९|| २० ऐरावत गजके समान चलनेवाली उन देवबालाओंने अदृष्ट होकर उसके तेलसे मर्दित सुन्दर शरीर और खुले हुए ऊंचे स्तन देखकर फिर वे देवीको देखनेकी उत्कण्ठासे द्वारपर गयीं। यष्टि धारण करनेवाली कन्याने कहा-द्वारके पास स्त्रियां हैं, क्या विद्याधरियां हैं, या अप्सराएं? १९. १. A समहरु । २. AP पुरुहूअउ । २०. १. A सइंसणीहिं । २. P देविहिं । ३. AP तियउ । Page #469 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४२२ महापुराण [६२. २०.५किं खेयरीउ किं अच्छरउ तुह दसणमणउ अमच्छरउ। तं व्हाइवि जणमणसाहणउं लहुं लइयउं ताइ पसाहणउं । सुरणारिउ पुणु पइसारियउ माणवजणदूरोसारियउ । अवलोइवि झीणु रूवविहवु देवयहिं पवुत्तु ण किं पि धवु । तेरउ सरूउ रूवहु ढलिउ पुग्विल्लहि रेहहि परिगलिउ । घत्ता-ता रईसुहि णिविण्णी सा पियभित्त विसण्णी ॥ सम्मण दुम्मण थक्की माणमर? मुक्की ॥२०॥ २१ तं पेक्खिवि गउ मणहरवणहु राणउ पणविवि घणरह जिणहु । चउपवपयारि अणासयहं आउच्छइ वित्ति उवासयहं । सावयअज्झयणु ण तं रहेइ सत्तमउ अंगु रिसिवइ कहइ । विविहउ घरधम्मपवित्तियउ किरियाउ असेसउ उत्तियउ । दढरहिण ण रज्जु समिच्छियउ णीसारु दुरंगु दुगुंछियउ । सुउ मेहसेणु पच्छइ थविवि मेहरहिं जिणवरु विण्णेविवि | सहुँ भाइइ सहसा लइउ तउ बारह विहु सोसिउ विसमभउ । धीरहिं णिदियइंदियसिवहिं भयसमसहसहि सह पत्थिवहिं । घत्ता-सि रिपुरि घरि सिरिसेणहु भुंजिवि दिण्णसुदाणहु ।। अंतयपुरि णिवणंदहु थाइवि अमराणंदहु ।।२१।। ईर्ष्यासे रहित वे तुम्हें देखनेका मन रखती हैं ? तब उसने स्नान कर तथा जनमनको आकर्षित करनेवाला प्रसाधन कर लिया। फिर मनुष्यजनको दूरसे हटानेवाली देवस्त्रियोंको भीतर प्रवेश दिया गया। उसके रूपवैभववाले शरीरको देखकर देवियोंने कहा कि ( संसारमें ) स्थिर कुछ भी नहीं है । तुम्हारा स्वरूप रूपसे ढल गया है, पूर्वकी शोभासे गल गया है। घता-रतिसुखसे विरक्त विषण्ण, उन्मन और दुर्मन वह प्रियमित्रा मानके अहंकारसे मुक्त होकर श्रान्त हो गयी ।।२०।। १० २१ उसे इस प्रकार देखकर राजा मनहर बन गया और धनरथ जिनको प्रणाम कर उसने कर्मास्रवसे रहित उपासकों ( श्रावकों ) की वृत्ति पूछो। ऋषीश्वर सातवें अंग उपासकाध्ययनका कथन करते हैं, वह उसे छोड़ते नहीं। गृहस्थ धर्मको विविध-प्रवृत्तियों, अशेष क्रियाओं और उक्तियोंका उन्होंने कथन किया । दृढ़रथने राज्यकी इच्छा नहीं की। असार और दुरंगी चालवाले उसकी निन्दा की। बादमें अपने पुत्रको राज्यमें स्थापित कर मेघरथ जिनसे निवेदन कर अपने भाईके साथ इन्द्रिय सुखकी निन्दा करनेवाले सात सौ राजाओंके साथ उसने बारह प्रकारका तप ले लिया, और संसारके भयको नष्ट कर दिया। पत्ता-श्रीपुरमें सुदानको देनेवाले श्रीषेण राजाके घर आहार कर और देवोंको आनन्द देनेवाले नन्दन राजाके प्रासादमें ठहरकर ॥२१॥ ४. A समच्छरठ । ५. Aसुहणिविण्णी । २१.१. A हरइ । २. A विण्णिविवि; P वेण्णविवि । ३. A विसमतउ । ४. A णिवदाणह । Page #470 -------------------------------------------------------------------------- ________________ -६२. २३.५ ] तहिं 'भत्तपाणगिइि रहिउ पइसिवि वर्णगिरिवरकंदरइ णिण्णासइ सत्त वि सो भयई दिदु बंभचेरु णव विहु धरिउ दह भेउ विकालु विलक्खियउ बारह अणूंपेक्खड चिंतवइ दहगुणठाणई अब्भसइ परिभाविवि सोलह कारणई महाकवि पुष्पदन्त विरचित २२ इच्छिवि णिच्छियमत्तासहिउ । फणिविच्छिघर तर्फे कोडुरइ | चिंधई तहु अट्ठ वि गयई । दहविहु जिणधम्म परिष्फुरिउ । एयारह अंगई सिक्खियउ । तेरह चारित थिरु थवइ । पणारहविह पमाय पुसइ । तित्थयरत्तणहक्कारणई । गउ हतिलयगिरिंदहु || तहिं अणसणिण परिट्ठि ||२२|| २३ घत्ता- - सहुं बंधवेण अणिदहु दूसह णिट्ठाणिि हिउल्लउं मुणिमग्गेण णिउ जइपुंगम घणरह्रायसुय सव्वत्थसिद्धिसुरहरि धवल तेत्तीस सहजीवियपवर तइ वरिससहास लेंति खणु पागमरण मातु किउ । बेणि वि ते अहमिंद हुय । करमेत्तदेह वरमुहकमल । तेत्तिय जिं पक्ख णीसासधर । आहारु विचिंति सुहेमु अणु । ४२३ १० २२ वहाँ भोजन और पानकी इच्छासे रहित, निश्चित मात्रासे युक्त ( भोजन ) चाहकर सर्पों और बिच्छुओं के घर तथा वृक्ष कोटरवाली वनगिरिकी गुफाओं में प्रवेश कर, वह भी सात भयों का नाश करते हैं, मानके आठ चिह्न भी उनसे चले गये । उन्होंने नौ प्रकार के दृढ़ ब्रह्मचर्यका पालन किया। दस प्रकारका धर्म उनमें स्फुरित हो उठा। दस प्रकारके मुनि-आचारको भी उन्होंने जान लिया। उन्होंने ग्यारह अंगोंको सीख लिया । वह बारह अनुत्प्रेक्षाओंका चिन्तन किया । तेरह प्रकारके चारित्रोंकी स्थापना करता | चौदह गुणस्थानोंका अभ्यास करता | पन्द्रह प्रकारके प्रमादों का नाश करता है। तीर्थंकरत्वका बन्ध करनेवाली सोलहकारण भावनाओंका विचार कर ५ घत्ता - अपने भाई के साथ, वह अनिन्द्य नभस्तिलक पर्वत के लिए गये । असह्य निष्ठामें निष्ठ वह वहाँ अनशन में स्थित हो गये ||२२|| २३ अपने हृदयको मुनिमार्ग में लगाकर एक माह के प्रायोपगमन उपवास किया। दोनों यतिश्रेष्ठ घनरथ और उसका पुत्र मृत्युको प्राप्त हुए और दोनों सर्वार्थसिद्धि के विमान में अहमेन्द्र उत्पन्न हुए। दोनों गोरे, एक हाथ शरीरवाले, श्रेष्ठ मुखकमल और तैंतीस सागर प्रमाण आयुसे युक्त उत्तम जीवनवाले थे । वे उतने ही पक्षों में श्वास लेते थे । तैंतीस हजार वर्षों में एक क्षण में २२. १. AP भत्तु पाणु । २. A वणे गिरिं । ३. A विच्छियतरुगिरिं । ४. AP कोडर । ५. AP सो सत्त विभय । ६. AP अणुवेक्खउ । ७. P तेरह वि चरितइं थिरु घरइ । २३. १. A पाउवगमणु । २. AP मुय । ० ३. A हरधवल । ४. AP लहिं । ५. A सुमु । Page #471 -------------------------------------------------------------------------- ________________ महापुराण [६२. २३.६ जगणाडिपलोयणणाणधर तेत्तियवीरियविकिरियकर । ते णिप्पडियार पसण्णमइ 'कत्थइ णउ ताहं वियाररइ । रिझंति धम्मसंभासणई कत्थई मुयंति सीहासणई। केवलि उप्पण्णइ जिणवरहं मुवि जाइजराजम्मणहरई। सहुँ भायरेण अहमिंद सुरु जाणंतु तच्चु पर्णमंतु गुरु । घत्ता-गोत्तमेण जं अक्खिउ जं भरहेसे लक्खिउ ॥ जं सुहु सोत्तहिं माणइ पुप्फयंतु तं जाणइ ।।२३।। १० इय महापुराणे तिसट्टिमहापुरिसणालंकारे महामग्वमरहाणुमण्णिए महाकइपुप्फयंतविरइए महाकब्वे मेहरहतिस्थयरगोत्तणिबंधर्ण णाम दुसटिमो परिच्छे प्रो समत्तो ॥६२॥ चिन्तित सूक्ष्म-सूक्ष्म अणुका आहार करते। विश्वनाड़ोको देखनेवाले ज्ञानके धारक थे। उतनी ही विक्रियाऋद्धिको कर सकते थे। प्रतिकारकी भावनासे रहित और प्रसन्नमति थे। उनमें विकाररति कहीं भी नहीं थी। वे धर्मसम्भाषणोंसे प्रसन्न होते थे। जन्म, जरा और मरणका हरण करनेवाले जिनवरोंको केवलज्ञान उत्पन्न होनेपर वे कभी-कभी अपना सिंहासन छोड़ते थे। वह अहमेन्द्रसुर अपने भाईके साथ तत्त्वको जानता और गुरुको प्रणाम करता। पत्ता-गौतमने जो कुछ कहा, वह भरतेश श्रणिकने जान लिया। अपने कानोंसे जो उस सुखको मानता है, हे पुष्पदन्त वही उसे जानता है ॥२३॥ इस प्रकार ब्रेसठ महापुरुषोंके गुणालंकारोंसे युक्त महापुराणमें महाकवि पुष्पदन्त द्वारा विरचित एवं महामव्य भरत द्वारा अनुमत महाकाव्यका मेघस्थ तीर्थकर गोत्र निबन्धन नामका बासठवाँ परिच्छेद समाप्त हुआ ॥६२॥ ६. AP विहाररह । ७. A कत्यइ ण मुयंलि । ८. A पणवंतगुरु । Page #472 -------------------------------------------------------------------------- ________________ संधि ६३ 'छम्मासई आउससेसई थियई जाम अहमिंदहु ।। ता रम्मइ तहिं सोहम्मइ जाय चिंत तियसिंदहु ॥ ध्रुवकं ।। जिणवरण्हवणण्हवियगिरिमंदरु कुंजरकरताडियसीयलजलि णवखरदंडसंडमंडियसरि सीमारोमगामरमणीयइ गंधसालिकणसुरहियपरिमलि दिव्वुजाणविडविणिवडियफलि हथिणयरु तहिं मंडलि छज्जइ सग्गे सरिसउ अप्पर मण्णइ धणयह अक्खइ देउ पुरंदरु । सिसिरकिरणविलसियेणीलुप्पलि। दसदिसु गुमुगुमंतमयमहुयरि । दीणाणाहदिण्णतवणीयइ। कीरकुररकलहंसीकलयलि । जंबूदीवि भरहि कुंरुजंगलि । तूरहं सह णं गलगज्जइ। घरसिहरहिं हरइ व तिजगुण्णइ । सन्धि ६३ जब अहमेन्द्रकी छह माह आयु शेष रह गयी, तो सौधर्म स्वर्गमें इन्द्रको चिन्ता उत्पन्न हो गयी। जिनवरके स्नानमें मन्दराचल पर्वतको स्नान करानेवाला इन्द्र कुबेरसे कहता है-इस जम्बूद्वीपके भरतक्षेत्रमें कुरुजांगल देश है, जिसमें हाथियोंसे प्रताड़ित शीतल जल है। जिसमें नील-कमल शिशिर किरणोंसे विकसित है, नदियां नवपद्मोंसे मण्डित हैं, दसों दिशाओं में मधुकर गुंजन करते हैं, सीमोद्यानों और ग्रामोंसे जो रमणीय है, जहां दीन और अनाथोंको सोना दिया जाता है, जहां सुगन्धित धान्यके कणोंसे सुरभित परिमल है, जिसमें कोर, कुरल और कलहंसोंका सुन्दर कलकल शब्द हो रहा है। ऐसे उस मण्डल में हस्तिनापुर नगर शोभित है जो मानो तूर्योकी ध्वनियोंसे गरज रहा है। वह अपने आपको स्वर्गके समान मानता है। अपने घरोंके शिखरोंसें All Mss. have, at the beginning of this samdhi, the following stanza: बन्धः सौजन्यवार्धेः कविखलधिषणाध्वान्तविध्वंसभानुः प्रौढालंकारसारामलतनुविभवा भारती यस्य नित्यम् । वक्त्राम्भोजानुरागक्रमनिहितपदा राजहंसीव भाति प्रोद्यद्गम्भीरभावा स जयति भरते धार्मिके पुष्पदन्तः ॥१॥ AP read बन्धुः in the first line. for बन्धः , but K has a gloss सेतुः on it. P reads भावः for भावा in the third line.. १. १. AP वियसिय । २. A सीमागामराम । ३. AP कणपसरियपरिमलि । Page #473 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४२६ महापुराण [६३.१.११अजियसेणु तहिं पहु पियवाइणि तहु पियदसण णामें पणइणि । बंभकप्पचुउ वइरिविमद्दणु वीससेणु उप्पण्णउ णंदणु । सुणि गंधारदेसि गंधारइ पुरि पंडुरघरि पुहईसारइ। तहिं णरणाहु णाम अजियंजउ अजियदेविवल्लहु परदुजउ । . घत्ता-तेराएं सुहिअणुराएं णिरु भल्लारसं भाविउं ॥ अइरा सुय णवकिसलयभुय वीससेणु परिणाविउ ॥१॥ एयह होसइ धुवु तित्थंकर धणय धणय लइ तेरउ अवसरु तं णिसुणिवि ते कमलदलक्खें हरियउं मरगयतोरणमालहिं कोमलगत्तइ मउलियणेत्तइ णिहाएंतिइ पुण्णपवित्तिइ. एरादेविइ दिट्ठउ कुंजरु सिरिदामाई दोणि विलुलंतई कुंभजुयलु झसजुयलउं कीलिरु १० सीहासणु विमाणु अमेराणउं सोलहमउ कंदप्पखयंकरु । करि पुरु मणियरहयदिवसेसरु । कंचणपट्टणु णिम्मिउ जक्खे । जलइ व पउमरायकरजालहिं । सउयलइ पेल्लंकपसुत्तइ। पच्छिमरत्तिइ गुणगणजुत्तिइ । पसुवइ केसरि खरणहपंजरु । ससिरविबिंबई णहि उययंतई। सरवरु जलहि जलावलिचालिरु। भवणु फणिंदहु तणउं पहाणउं । त्रिजगकी उन्नतिका अपहरण कर रहा है। अजितसेन नामक वहाँका राजा था उसकी प्रिय बोलनेवाली प्रियदर्शना नामकी प्रणयिनी थी। शत्रुओंका मर्दन करनेवाला ब्रह्मस्वर्गसे च्युत होकर उनका विश्वसेन नामका पुत्र हुआ। सुनो-गान्धार देशमें पृथ्वीमें श्रेष्ठ धवल घरोंवाली गन्धारी नगरीमें अजितंजय नामका राजा था, जो अजिता देवीका प्रिय और शत्रुओंके लिए अजेय था । पत्ता-सुधियोंके प्रति अनुराग रखनेवाले उस राजाने अच्छा विचार किया कि जो उसके नवकिशलयके समान भुजाओंवाली अपनी अचिरा नामकी कन्याका विवाह विश्वसेनसे कर दिया ॥१॥ इन दोनोंसे निश्चयपूर्वक कामदेवका नाश करनेवाले सोलहवें तीर्थंकरका जन्म होगा। कुबेर-कुबेर ! लो, यह तेंरा अवसर है । तुम मणिकिरणोंसे दिनेश्वरको पराजित करनेवाले पुरकी रचना करो। यह सुनकर कमल दलके समान आँखोंवाले उस यक्षने स्वर्णनगरकी रचना की। मरकत मणियोंकी तोरणमालाओंसे वह हरा-हरा था। पद्मराग मणियोंके किरणजालसे जलता हुआ था। सौधतलमें पलंगपर सोते हुए कोमल शरीरवाली, मुकुलित नेत्र, पुण्यसे पवित्र तथा गुणगणोंसे युक्त एरा देवी थी। रात्रिके अन्तिम प्रहरमें उसने हाथी देखा । वृषभ, तीव्र नखसमूहसे युक्त सिंह, लक्ष्मी, दो मालाएं झूलती हुईं, आकाशमें उगते हुए सूर्यचन्द्र के बिम्ब, घटयुगल, खेलते हुए दो मत्स्य, सरोवर, जलकी लहरोंसे चंचल समुद्र, सिंहासन, देवोंका विमान, नागेन्द्रका प्रमुख २. P पल्लंकि पसुत्तइ । ३. AP अइरादेविइ। ४. A उवयंतई। ५. P २. १. A तोरणदारहि। अमरालउ। Page #474 -------------------------------------------------------------------------- ________________ -६३. ३. १२ ] महाकवि पुष्पदन्त विरचित रणरासि सर्त्तचि वि जोइउ गय सुंदरि सुविहरणइ तेत्तइ घत्ता - सिविणंतरु णिहिल निरंतरु कंतइ कंतहु ईरिडं ॥ अवहीसें तेण महीसें तं फलु ताहि वियारिडं ॥ २ ॥ ३ तुज्झु उयरि तेलोक्कपियारउ रायगणि लोएहिं विदिट्ठउं हरि सिरि बुद्धि कंति कित्ती सह भद्दवयहु भयसंखावासरि जणिहि मुहि पट्टु गयवेसें मेहरण तेण अहमिंदें आय देव सयल वि पंजलियर नवमास णिहित्तु चामीयरु पल्लउत्थि भाइ तइयंसें धम्म महामुणिदेव जिणंतरि कालइ दिणि चउदहमइ जायइ पच्छिम संझहि जणियउ मायइ मुहु धोविदप्पणु अवलोइउ । थिउ अत्थाणि णराहिउ जेत्तहि । होसइ सिरिअरहंतु भडारउ । जा छम्मास ताम वसु वुट्ठरं । आगय घरु जिणगुणरंजियमइ । भरणिरिक्खि णिसिपरपहरंतरि । कि गभावया परमेसें । पुण्णपवणकंपावियदें । पुज्जिय सयल असेस वि सपियर । धणएं कि पहुपंगणु पिंजरु । ऊणि तिसायरि गलियजमंसें । चित्ताजुत्तमासपक्खंतरि । जामइ जोइ सुहंकरि आयइ । जिगु रेहइ णाणत्तयछायइ । ४२७ भवन, रत्नराशि और अग्निज्वाला भी देखी। मुंह धोकर उसने दर्पण देखा । सवेरे वह सुन्दरी वहीं गयी जहाँ राजा सिहासनपर विराजमान था । १० घत्ता - समस्त लगातार स्वप्नान्तर कान्ताने अपने पतिसे कहा । अवधीश्वर ( अवधिज्ञानके धारी) महीश्वरने उसे उसका फल विवेचित कर दिया ॥२॥ ३ तुम्हारे उदरसे त्रिलोक के प्यारे आदरणीय श्री अरहन्त उत्पन्न होंगे। लोगोंने भी देखा कि राजाके आँगन में छह माह तक रत्नोंकी वर्षा हुई । हो- श्री-बुद्धि-कीर्ति आदि सतियाँ जिनगुणोंसे रंजितमति होकर आयीं । भाद्र वदों सप्तमीके दिन भरणी नक्षत्र में रात्रिके अन्तिम प्रहर में वह माताके उदरमें गजरूप में प्रविष्ट हुए और इस प्रकार परमेश्वर उस अहमेन्द्र मेघरथने गर्भावतार किया। सभी देव अंजलो बाँधे हुए आये और पिता सहित उन्होंने सभी स्वजनोंकी पूजा की। कुबेरने नव माह तक स्वर्णको वर्षा की और उसने राजाके आँगनको पीला कर दिया । धर्मनाथ महामुनि तीर्थंकरके बांद चौथे पल्यके तीन भाग कम तीन सागर समय बीतनेपर, एक भाग (पाव) पल्य धर्मका उच्छेद होनेपर, ज्येष्ठ शुक्ला चतुर्थीके दिन शुभंकर शुभयोगमें रात्रिके अन्तिम प्रहर में माताने जिनको जन्म दिया। वे तीन ज्ञानोंकी छायासे शोभित थे । ६. A सत्तच्चिय । ३. १. A चउत्थभायं । २. A ऊणतिसायरं । ३. A जिट्ठा but gloss चैत्रः; T चित्तजुत्तमास चैत्रः । Page #475 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४२८ ५ १० महापुराण धत्ता - एरावइ चडिवि सुरावइ सहसा पत्तु पुरंदरु | सहुं देवहिं णाणारुवहिं अरुहु लेवि गड मंदरु ॥ ३ ॥ ४ इंदचं दखयरिंद फेणिंद हिं पुज्जिउ कुंदकुंडयकणियारहिं जणसंतीयरु संति भणेपिणु आणि भवणहु अपि जणणिहि हरि घरि पाडणडु व पश्चि गड सग्गहु पणविवि सकंदगु कणवण्णु णं बालपयंगड लक्खवरिसपरमाउ मह्ामहु वीस सेणराएण रवण्णउ णा में चक्काउहु पियतणुरुहु पंचवीसवरवरिससहासई जे अप्पिय धरणि णरिंदें घत्ता - ते भायर चंद दिवायरणिह परिणाविय ताएं | विकण्णउ बहुलायण्णउ जयजयपडणिणाएं ॥ ४ ॥ हाणि तहिं वंदारयवंदहिं । बल तिलय चंपय मंदारहिं । गुरु सुरगिरिसिहरु मुएप्पिणु । जिणवर सुरतरुसंभवधरणिहि । तेण ण को को किर रोमंचिउ । कार्ले जाउ णाहु णव जोठवणु दह दह तह दह दह धणुतुंगउ । ढरहु णाम अवरुह्सयमहु | जसवइदेविहि सो उप्पण्णहु । छणसत्तावीसंजोयणमुहु । ५ वोलीणइं कुमरत्ति पयासई । अप्पणु बद्धउ पट्टु सुरिंदें । [ ६३. ३ १३ घत्ता - ऐरावतपर चढ़कर देवोंका स्वामी पुरन्दर शीघ्र वहां पहुंचा तथा नानारूपोंवाले देवोंके साथ अर्हन्त देवको लेकर मन्दराचल गया ||३|| * इन्द्र, चन्द्र, विद्याधरेन्द्र और नागेन्द्र आदि देवसमूहने वहाँ उनका अभिषेक किया तथा कुन्द, कुटज, कनेर, बकुल, तिलक, चम्पक और मन्दार पुष्पोंसे पूजा की। लोगोंको शान्ति देनेवाले होने से उन्हें शान्ति कहकर, मन्दराचल-शिखरको छोड़कर, गुरुको लाकर, जिनवररूपी कल्पवृक्षको उत्पन्न करनेकी भूमि माँको सौंपकर इन्द्र प्राकृतनटकी तरह नाचा । उससे कोन कोन नहीं रोमांचित हुआ । इन्द्र प्रणाम कर स्वर्ग चला गया । समयके साथ जिन नवयौवनको प्राप्त हुए । स्वर्णरंगके वह मानो बालसूर्यं थे । वह चालीस धमुष प्रमाण ऊँचे थे । एक लाख वर्षकी उनकी परमायु थी । दृढ़रथ नामका दूसरा अहमेन्द्र था, वह भी विश्वसेन राजाकी दूसरी पत्नी यशस्वतीसे उत्पन्न हुआ । चक्रायुध नामसे वह प्रियपुत्र था । उसका मुख पूर्ण चन्द्रमाके समान था । घत्ता - चन्द्रमा और दिवाकरके समान दोनों भाइयोंका पिताने नगाड़ोंकी ध्वनिके साथ अत्यन्त रूपवती राजकन्याओंसे विवाह कर दिया ||४|| कौमार्यकालमें जब उनके पचीस हजार वर्ष बीत गये तो राजाने बड़े भाईको धरती अर्पित ४. १. ६ खर्यादिसुरिदह । २. AP पायडु णडु व । ३. AP दह तह दह । ४. AP लक्खु वरिसु परमाउ । ५. A अवरु अहसयम । ६. A नृव । Page #476 -------------------------------------------------------------------------- ________________ -६३. ६.८] महाकवि पुष्पदन्त विरचित रज्ज करंतहु देतहु णियधणु .. गलिय समासहास तेत्तिय पुणु । जइयहुं तइयहुं पुण्णविसेसे . आयई दिट्ठइं तेण णरेसें। चक्कु छत्तु असि पहरणसालहि संभूय दंडु वि सुविसालहि । कागणि मणि उप्पण्णइंसिरिहरि थवइ पुरोहु चमूवइ गयउरि । कण्णा गय तुरंग खगभूहरि गवणिहि जलणिहिणइसंगमघरि । छक्खंड वि महिवीदु पसाहिवि विंतर सुर विजाहर साहिवि । पणवीसहसहस महि पालिवि दप्पणयलि णियवयणु णिहालिवि । पत्ता-णिव्वेइउ णाहु पैसाइउ लोयंतिएहिं पबोहिउ । अवमत्तउ इंद सित्तउ रयणाहरणहिं सोहिउ॥५॥ थिउ सव्वत्थसिद्धि सिवियासणि जाइवि तहि लहु सहसंबयवणि | सिलहि णिसणे उत्तरवयणे कयपलियंके दीहरणयणे । जेट्ठहु मासहु सतिमिरपक्खइ दिवसि चउद्दसि भरणीरिक्खइ । अवरण्हइ णिक्खवणु करते छट्टववासिएण गुणवंत । उप्पाइउ मणपज्जउ देवें किं ण होइ भणु संजमभावें। जो धम्मिल्लभारु आलुंचिउ सो सुरणाहे कुसुमें अंचिउ । घल्लिउणवर खीरमयरालइ चक्काउहुपमुहहिं तकालइ । संजमु णिवसहसे पडिवण्णउ बीयइ वासरि समसंपण्णउ । कर दी और देवेन्द्रने स्वयं पट्ट बांधा। राज्य करते हुए और अपना धन देते हुए फिर जब उनके उतने ही अर्थात् पचीस हजार वर्ष बीत गये, तो पुण्य विशेषसे उस राजाने इन चीजोंको देखा ( प्राप्त हुई ) सुविशाल आयुधशालामें चक्र-छत्र और तलवार तथा दण्डरत्न उत्पन्न हुए। श्रीगृहमें कागणि मणि उत्पन्न हुई। हस्तिनागपुरमें स्थपति, पुरोहित और चमूपति । कन्या, गज, तुरंग विजयार्ध पर्वतपर उत्पन्न हए । जलनिधि और नदोके संगमस्थलपर नवनिधियां प्राप्त हई छह खण्ड धरतीको सिद्ध कर व्यन्तर, विद्याधरों और देवोंको साधकर पचीस हजार वर्षों तक धरतीका पालन कर ( एक दिन ) दर्पणतलमें अपना मुख देखकर घत्ता-प्रसन्नताको प्राप्त देव विरक्त हो उठे। लौकान्तिक देवोंने उन्हें सम्बोधित किया। रत्नाभरणोंसे शोभित और अप्रमत्त उनका इन्द्रने अभिषेक किया ॥५।। वह सर्वार्थसिद्धि नामक शिविकापर आरूढ़ हुए। शोघ्र सहस्राम्ब वनमें जाकर शिलापर बैठे हुए उत्तर दिशामें मुख किये हुए पद्मासनमें स्थित दीर्घनेत्रवाले वह, ज्येष्ठ माहके कृष्णपक्षकी चतुर्दशीके दिन. भरणी नक्षत्रमें अपरालके समय छठे उपवासके साथ दीक्षा ग्रहण करते हुए गुणवान् देवको मनःपर्ययज्ञान उत्पन्न हो गया। बताओ संयम भावसे क्या नहीं उत्पन्न होता ? । उन्होंने जिस केशभारको उखाड़ा था उसे इन्द्रने फूलोंसे अचित किया और क्षीरसमुद्र में फेंक दिया। चक्रायुध प्रमुख एक हजार राजाओंने तत्काल संयम ग्रहण कर लिया। दूसरे दिन ५. १. A असि पहरणु सालहि; P असि चम्मु वि सालहि । २. P गेहवइ दंडु वि । ३. AP°संगमहरि । ४. A छक्खंडु । ५. AP पयासिउ । Page #477 -------------------------------------------------------------------------- ________________ · ४३० महापुराण [६३. ६.९ गउ मंदरपुरु जिणु तवताविउ पियमित्त राएं पाराविउ। . १० महि विहेरंतु मुणियसत्थत्थउ सोलह वरिसइं थिउ छम्मत्थउ । . संतु दंतु भयवंतु सरिसिगणु - पुणु आयउ तं सहसंबयवणु । घत्ता-ववत्तहु णंदावत्तहु तरुहि मूलि आसीणउ ।। खंचियदुहु सुरंदिसिसंमुहु रिउमित्ते वि समाणउ ॥६॥ पूसहु मासहु सोक्खणिवासहु। दहमेदिणंतरि सियपक्खंतरि। छट्ठववासें वियलियपासें। लइ जोइ वियालइ। कम्मुणिवाइड खणि उप्पाइउ। केवलदसणु दोसविहंसणु। ध्रुर्व सिवमाणणु केवलजाणणु। कयमयविलएं - - कुरुकुलतिलएं । कासवगोत्तें सुयसुइसोत्तें। पत्तउं कित्तणु सिरिअरुहत्तणु। दह विह वसुविह अवर वि वयविह। सुर सोलहविह भूसणयरसिह । पंकयणेत्तं । गुणगणवेत्तं समताभावसे परिपूर्ण और तपसे सन्तप्त जिनवर मन्दरपुर नगर गये। प्रियमित्र राजाने उन्हें आहार कराया। ज्ञात कर लिया है शास्त्रार्थको जिन्होंने ऐसे वह धरतीपर विहार करते हुए सोलह वर्ष तक छद्मस्थभावमें स्थित रहे । शान्त, दांत, ज्ञानवान् वह ऋषिगणके साथ फिरसे उसी सहस्राम्रवनमें आये। घत्ता-नये पत्तोंवाले नन्दावर्त वृक्षके नीचे बैठे हुए, दुःखोंका नाश करनेवाले पूर्वदिशामें मुख किये हुए, शत्रु तथा मित्रमें समान वह-॥६॥ पौष शुक्ल दशमीके दिन, बन्धनोंको काटनेवाले छठे उपवासके द्वारा, थोड़ी-थोड़ी सन्ध्या होनेपर उन्होंने कर्मोंका नाश कर दिया और एक क्षणमें दोषोंको नष्ट करनेवाला केवलज्ञान और शिवको माननेवाला केवलज्ञान उत्पन्न हो गया। जिन्होंने मदका विलय किया है, ऐसे कुरुकुलके तिलक, कश्यप गोत्रीय, पवित्र शास्त्रोंके प्रवाहवाले उन्होंने श्री अरहन्त होनेका कीर्तन प्राप्त कर लिया। दस प्रकारके, आठ प्रकारके और भी पांच प्रकारके, सोलह प्रकारके देव, (भूषण ६. १. जिणतवताविउ २. A विरहंतु । ३. AP णवपत्तह । ४. A सुरदिसिमुह । ७. १. A °दियंतरि । २. AP जायवियालइ। ३. A कम्मणिवाइउ । ४. A धुउ; P धुव । ५. AP कयमलविलएं । ६. AP "गणवंतें; AP add after this: ससहरवत्तें । ७. APणेत्ते । Page #478 -------------------------------------------------------------------------- ________________ -६३. ८.११]. महाकवि पुष्पदन्त विरचित अइरीपुत्तं खमदमजुत्तं। खाइयभावं संतिं देवं"। ते वंदंते "सुहं झायंते । पंजलिहत्था पणवियमत्था। भत्तिरसाला विलुलियमाला। पत्ता-मउ वज्जइ गई पडिवज्जइ पंचिंदियई वि दंडइ॥ पई होतें मग्गु दिसतें जणु संसारि ण हिंडइ ॥७॥ तओ कोसिएणं जसेणं सिएणं । कयं मुक्कडंभं महामाणखंभ। महाधम्मलंभ महापंकयंभं। महाखाइयालं महापुप्फमालं। महाधूलिसालं महाणट्टसालं। महासाहिवंतं महाकेउकंतं । महावेइयम्म महाथूहहम्मं । महादेवछण्णं महासाहुपुण्णं । महारिद्धिरूढं महापीहैपीढं। महासोयरत्तं महासेयछत्तं । महाचामरिल्लं महादुंदुहिल्लं। की किरणोंकी शिखावाले ), गुणसमूहके पात्र, कमलनयन, ऐरापुत्र क्षमा और संयमसे युक्त; क्षायिकभाववाले शान्तिदेवकी वे वन्दना करते हैं, उनका शुभ ध्यान करते हैं, हाथको अंजलि बांधे हुए, मस्तक झुकाये हुए, भक्तिसे मीठे और मालाएं हिलाते हुए। घत्ता-जन मदका त्याग करता है, मोक्षगतिको स्वीकार करता है, पांचों इन्द्रियोंको दण्डित करता है, आपके रहनेपर और उपदेश देनेपर वह (जन) संसारमें परिभ्रमण नहीं करता ॥७॥ तब यशसे श्वेत इन्द्रने दम्भसे मुक्त महामानस्तम्भ बनवाया जिसमें महाधर्मकी प्राप्ति है, महाकमलोंका जल है, जो महान् खाइयोंसे सहित है, जिसमें महानृत्यशाला है, जो महावृक्षोंसे युक्त है, जो महाध्वजोंसे सुन्दर है, जो महावेदिकाओंको रचनासे युक्त है, जिसमें स्थूल प्रासाद हैं, जो महादेवोंसे व्याप्त हैं, जो महामुनियोंसे सम्पूर्ण है, महाऋद्धियोंसे प्रसिद्ध है, महासिंहासनोंसे युक्त है, महान् अशोक वृक्षोंसे आरक्त है, महाश्वेतछत्रोंवाला है, महाचामरोंसे युक्त है, ८. AP°पुतें । ९. A oinits खमदमजुत्तं; P adds : दोगविचत्तं । १०. AP'भावें । ११. AP देवें। १२. A तं वदंति; P तें बंदंतें। १३. A मुहूं जोयंतें; P सुहं जोयंतें। १४. A मइ । ८. १. AP मुक्कदंभं । २. Aथूलहम्मं । ३. AP सीहवीढं । ४. AP महासोयवंतं । Page #479 -------------------------------------------------------------------------- ________________ महापुराण [ ६३. ८. १२महापुप्फवासं . महादिव्वभासं । महादित्तिवंतं महंतं पवित्तं । घत्ता-पडिहारहिं णायकुमारहिं सेविजंतु दयावरु ॥ गंभीरहिं हयजयतूरहिं समवसरणु गउ जिणवरु ॥ ८॥ अक्खइ धम्म कम्मु ओसारइ सत्त वि तच्चई जणहु वियारइ । • अह्रह धरणिहिं माणु पयासइ सग्गविमाणहं पंतिउ भासइ । पायालंतरि भवणसहासई चलणिञ्चलई मि जोइसवासई । जीवकम्मपोग्गलपरिणामई कहइ भडारउ णाणाणामई। चक्काउहपहूइ तहु गणहर जाया छत्तीस वि जणमणहर। ' अट्ठसयई पुव्वंगवियाणहं रिसिहिं कटुतणकणयसमाणहं । एकतालसहसई वसुसमसय ‘सिक्खसुदिक्खसिक्खपारंगयं । सहसई तिण्णि अवहिणाणालहं चउ केलिहिं पि हियतमजालहं।। विकिरियावंतह छह भणियई मणपज्जवधराहं चउ गणियई। १० वाइहिं दोसहसाई णिरुत्तई सयचउक्क अग्गलउ पउत्तई। महादुन्दुभियोंसे परिपूर्ण है, महापुष्पोंको वाससे युक्त है, महादिव्यभाषासे पूर्ण है, महादीप्तिसे युक्त है और महान् पवित्र है। 'घत्ता-प्रतिहार नागकुमार देवों द्वारा सेवित दयावर जिनवर शान्तिनाथ गम्भीर आहत विजय तूर्यों के साथ समवसरणके लिए गये ||८|| वह धर्मका कथन करते हैं, कर्मका निवारण करते हैं, जनके लिए सातों तत्त्वोंका विचार करते हैं, आठवीं भूमि ( मोक्षभूमि ) का मान प्रकाशित करते हैं, स्वर्गके विमानोंकी पंक्तिका कथन करते हैं, पातालके भीतर, हजारों भवनवासियों, चल और निश्चल ज्योतिषवासियों, जीवकर्म और पुद्गलके परिणामोंका नाना नामोंसे आदरणीय वह वर्णन करते हैं। चक्रायुध आदिको लेकर उनके जनमनोंके लिए सुन्दर छत्तीस गणधर थे। पूर्वांगोंको जाननेवाले तथा काष्ठ तिनका और सोनेको समान समझनेवाले आठ सौ ऋषि थे। शिक्षा और दोक्षाकी सीखमें पारंगत एकतालीस हजार आठ सौ थे। अवधिज्ञानको धारण करनेवाले तीन हजार थे, तमजालको नष्ट करनेवाले केवली चार हजार। विक्रियाऋद्धिके धारक छह हजार थे ओर मनःपर्ययज्ञानके धारी चार हजार । और दो हजार श्रेष्ठ वादी मुनि थे। ५. Aमहा दित्तदित्तं; P महादित्तिदित्तं । ६. A समवसरणगउ । ९. १. A अट्ठमिधरणिहि; । २. AP°विवाणहं । ३. A°परिमाणई। ४. P जि । ५. A सिक्खयदिक्ख सिक्ख । ६. A केवलिहिं पहयतम'; P केवलिहि मि हयतम । ७. A वत्तहं । Page #480 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४३३ -६३. १०.१२] महाकवि पुष्पदन्त विरचित घत्ता-हिरिसेणहि वर्यविहिखीणहि पायपोमथुइरायई । णरमहियई तिसंयहि सहियई सहिसहासई जायई ॥९॥ १० झाणमोणणियमियणियमइयउ एत्तियाउ भणियउ संजइयउ । लक्खइं दुह सावयह संलग्यह सुरकित्तीपमुहहं णिविग्घेहं । अरुहदासिपमुहाहं सुइत्तई सावईहिं चउलक्खई वुत्तई । देव असंख संख मृगकुलरुह एकदुखुर गयवय जाया बुह । पंचवीससहसई वोलीणई वरिसहं सोलहव रिस विहीणई। हिंडिवि महियलि धम्मु कहेप्पिणु ___ मासमेत्तु जीविउ जाणेप्पिणु । गिरिसंमेयारुहणु करेप्पिणु चरमसुक्कु दियहेहिं धरेप्पिणु । जेट्टचउहसिवासरि कोलइ भरणिरिक्खि धरणीमुहि विमलइ । गउ जगसिहरहु संति भडारउ देउ समाहि बोहि भवहारउ । सहुं चक्काउहेण तवैरिद्धई णवसहसइं रिसिणाहह सिद्धई। घत्ता-सुविलेवणु घल्लिवि कुसुमई मेल्लिवि पविउ तहिं अग्गिदहिं ।। मणि ईहिय सिद्धणिसीहिय णविय भरेण सुरिंदहिं ॥१०॥ घत्ता-व्रतोंकी विधिसे क्षीण हरिषेणा आदि आर्यिकाएं साठ हजार तीन सौ थीं। जिसके चरण राजाओंके द्वारा स्तुत थे और जो देवों सहित मनुष्यों द्वारा पूज्य थीं ॥९॥ ध्यान और मोनसे जिन्होंने अपनी मति संयत कर ली है ऐसे संयमी और श्लाघनीय, सुरकीर्ति-प्रमुख विघ्न रहित दो लाख श्रावक थे। अर्हदासी आदिको लेकर चार लाख पवित्र श्राविकाएं कही गयी हैं। देव असंख्यात थे और तिर्यंचयोनिके पशु संख्यात थे। एक दो खुरवाले • ज्ञानव्रतसे युक्त पण्डित । सोलह वर्ष रहित पचीस हजार वर्ष बीत गये। धरती तलपर भ्रमण कर और धर्मका कथन कर तथा अपना जीवन एक माह शेष जानकर, सम्मेदशिखर पर्वतपर आरोहण कर कुछ दिनों तक चरम शुक्लध्यान धारण कर, ज्येष्ठ कृष्ण चतुर्दशीके दिन, भरणी नक्षत्रमें पवित्र धरतीके अग्रभाग विश्वके शिखरपुर आदरणीय शान्तिनाथ चले गये। भवका हरण करनेवाले देव मुझे समाधि प्रदान करें। तपसे समृद्ध नौ हजार मुनिनाथ भी चक्रायुधके साथ सिद्ध हो गये। पत्ता-सुन्दर लेप कर, फूल डालकर वहां अग्नीन्द्र देवोंने प्रणाम किया ( शवका )। देवेन्द्रोंने भी मनमें अभीप्सित सिद्ध नृसिंह उनको प्रणाम किया ॥१०॥ ८. AP विहिलीणहि । ९. P तिसई सहियई। १०.१. P सलग्बई । २. P णिविग्घई। ३. A सुवत्तई। ४. AP मिग । ५. A बहलइ । ६. AP गुण रिद्धई। ७. A णवसयाई। ८. AP कालायक घल्लिवि सुरतरु दिण ( ण्ण ?) अग्नि अग्गिदहिं । . Page #481 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४३४ महापुराण [६३.११.१ नृवु सिरिसेणु पुणु वि जो कुरुणरु देउ खयरु सुरु हलि पवरामरु । वजाउहु सुरवइ घणसंदणु सम्वत्थाहिवु अइरहि णंदणु । दरिसउ मज्झु सयलु सयलायरु होउ पडतहु लहु लग्गणतरु । देवि अणिंदिय कुरुणरु माणउ सुरु सिरिविजउँ महीयलराणउ । अमयासउ अणंतवीरिउ हरि णारउ जोइयवइतरणीसरि । मेहणाउ पडिहरि सहसाउहु . कप्पणाहु दढरहु पहसियमुहु । पुणु सव्वत्थसिद्धि परमेसरु चक्काउहु सुहुँ देउ रिसीसरु । संति भंति विहुणेवि महारी करउ कसायसंति गरुयारी। घत्ता-भरहेसह जियसरु मुणिपवरु जहिं गउ जिण तुहं तेत्तहि ।। ___ मई पावहि सिद्धालयमहि पुप्फयंतरुइ जेत्तहि ॥११॥ इय महापुराणे तिसट्टिमहापुरिसगुणालंकारे महाभब्वभरहाणुमण्णिए महाकहपुप्फयंतविरइए महाकठवे संतिणाहणिवाणगमणं णाम तिसहिमो परिच्छेओ समत्तो ॥१३॥ कुरुमानव जो राजा श्रीषेण थे, वह देव ( भोगभूमिमें ) विद्याधर, देव फिर प्रवर अमर, वज्रायुध, इन्द्र, मेघरथ, फिर सर्वार्थसिद्धि में अहमेन्द्र और फिर ऐराके पुत्र (शान्तिनाथ ) हुए। वह मुझे समस्त सकलाचार दिखायें और गिरते हुए मुझे आधारस्तम्भ हों, और जो अनिन्दिता देवी कुरुकी नर हुई थी, फिर श्रीविजयदेव, फिर महीतलका राजा, अमृताशय अनन्तवीर्य, नारायण, वैतरणी नदीको देखनेवाला नारको, मेघनाद प्रतिनारायण, फिर सहस्रायुध, कल्पदेव, प्रहसितमुख दृढ़रथ, फिर सर्वार्थसिद्धिका देव और तब परमेश्वर चक्रायुध ऋषीश्वर देव सुख दें। हमारी विद्यमान भ्रान्तिको नष्ट कर वे मेरी भारी कषायशान्ति करें। पत्ता-हे जिन, कामको जीतनेवाला मुनिप्रवर भरतेश्वर जहां गया, और जहां आप गये हैं, और जहां चन्द्र और सूर्यके समान दीप्ति है, वह सिद्धालयभूमि मुझे प्राप्त करा दो ॥११॥ . इस प्रकार ब्रेसठ महापुरुषोंके गुणालंकारोंसे युक्त महापुराणमें महाकवि पुष्पदन्त द्वारा विरचित एवं महाभव्य भरत द्वारा अनुमत महाकाव्यमें शान्तिनाथ निर्वाण गमन नामका ब्रेसठवाँ परिच्छेद समाप्त हुआ ॥३॥ ११.१. AP णिउ । २. A विज्जाउह। ३. Pकुरुतणमाणउ। ४. AP सिरिविज्जउ महियलि । ५. AP पुप्फदंद। Page #482 -------------------------------------------------------------------------- ________________ संधि ६४ जिणगिरिपवरहु णीसरिय बारहंगपाणियसरि ।। पुवमहण्णवगामिणिय पणवेप्पिणु वाईसरि ॥ ध्रुवकं ।। जो भुवणि भणिउ छ?उ णिराउ जो इंदियकूराहिहिं विराउ जो ण मरइ ण हवइ कालएण घणमणतिमिरे अलिकालएण जो णग्गु णिरंजणु लुकवालु जो हियवएण णिचु जि णिराउ । जो सत्तारहमउ जिणु विराउ । जो को जाणिज्जइ कालएण । ण समंकिउ जो कंकालएण । जो ण करइ करि कत्तियकवालु । सन्धि ६४ जो जिनवररूपी श्रेष्ठ पर्वतसे निकली है, जो बारह अंगोंके जलको नदी है, जो ( चौदह) पूर्वरूपी समुद्रको ओर जानेवाली है, ऐसी वाग्देवीको मैं प्रणाम करता हूँ। जो संसारमें छठे चक्रवर्ती हैं, जो हृदयसे नित्य वीतराग हैं, जो इन्द्रियरूपी क्रूर सांपोंके लिए विराड् (वीराज = गरुड़) हैं, और जो सत्तरहवें वीतराग जिन हैं । जो कालके साथ न मरते हैं और न जन्म लेते हैं, जो कालको परमज्ञानसे जान लेते हैं, जो सघन मनरूपी अन्धकार, भ्रमरके समान कृष्णत्व और मृग कलेवर ( चर्म ) से अंकित नहीं हैं, जो नग्न निरंजन और लोकपाल All Mss, have, at the beginning of this samdhi, this following stanza: आखण्डोडुमरारवोद्दमरुक (?) चण्डीशमाश्रित्य यः कुर्वन्काममकाण्डताण्डवविधि डिण्डीरपिण्डच्छविम् । हंसाडम्बरमुण्डमण्डललसद्भागीरथीनायकं । वाञ्छन्नित्थमहं कुतूहलवती खण्डस्य कीतिः कृतेः ॥१॥ P reads डमरारुचण्डमरुकं; P reads चण्डोसमासत्य; K reads चण्डीसमासुत्य । P reads कुर्वकाम'; A reads कुर्वत्क्रीड; P reads°छवेः । A reads डिण्डमण्डल । P reads कृते । Khas marginal gloss on the stanza: अखण्ड एव आखण्डः, उड्डुमरो भयानकः, आरवशब्दः तेन युक्तं उडुमकं वाद्यं यस्य हरस्य तम् । अकाण्ड अप्रस्तावेन । रुद्रमाश्रित्य या कोतिर्वर्तते इत्यध्याहार्यम् । रुद्रादप्यहं अतिशयेन निर्मला इति भावार्थः। कृतेः काव्यस्य । The stanza, all the same, is not clear. १. १. A जो जाणिज्जइ इह कालएण। २. A अइकालएण। ३. A चमंकित । ४. A लुवकवालु । ५. AP कत्तियकरालु । | Page #483 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४३६ महापुराण [६४. १.८ १० जें वुत्तु अहिंसावित्तिसुत्तु 'जो गणिवि ण याणइ अक्खसुत्त । जो दंसियसासयपरममोक्खु णउ करइ पिणाएं कंडमोक्खु । जो तिउरडहणु जियकामदेउ । पहु परमप्पउ देवाहिदेउ। जे रक्खिउ सण्हु वि जीउ कुंथु सो वंदिवि रिसिपरमेहि कुंथु । पुणु कहमि कहंतर दिव्वु तासु दालिद्ददुक्खदोहग्गणासु। घत्ता-एत्थु जि जंबूंदीववरि पुत्वविदेहि महाणइ ॥ . णामें सीय सलक्खणिय तं को वण्णहुँ जाणइ ॥१॥ Aamann . . तहि दाहिणतीरइ वच्छदेसि डिंडीरपिंडपंडुरणिवासि । सोहिल्लसुसीमाणयरि रम्मि अणवरयमहारिसिकहियधम्मि । सीहरहु सीह विक्कमु महंतु णरवइ णियारिकुलबलकयंतु । अणुइंजिवि भोउ सुदीहकालु जोयंते कहिं मि णहंतरालु । । णिवेडंत णिहालिय तेण उक्क संसारिणि रइ णीसेस मुक्क । जइवसहहु पासि हयत्तिएहिं पावइयउ सहुं बहुखत्तिएहिं । एयारहंगधरु सीलवंतु वणि णिवसइ रुक्खु व अणलवंतु । - तिणि कणि सचित्ति गउ चरणु देइ वयविहिअजोग्गु दिण्णु वि ण लेइ । हैं, जो हाथमें छुरी और खप्पर नहीं लेते । जिन्होंने अहिंसा-वृत्तिके सूत्रोंका कथन किया है, जो अक्षसूत्रोंको गिनना नहीं जानते, जिन्होंने शाश्वत परम मोक्षको देखा है, जो अपने धनुषसे तीरोंको नहीं छोड़ते, जो त्रिपुरका दाह करनेवाले और कामदेवको जीतनेवाले हैं, जो प्रभु परमात्मा और देवाधिदेव हैं, जिन्होंने सूक्ष्मजीवकी भी रक्षा की है, ऐसे उन ऋषि परमेष्ठी कुन्थु जिनकी वन्दना कर, मैं फिर दारिद्रय दुःख और दुर्भाग्यको नष्ट करनेवाले उनके दिव्य कथान्तरको कहता हूँ। पत्ता-इस श्रेष्ठ जम्बूद्वीपके पूर्वविदेहमें लक्षणोंवाली महानदी सीता है। उसका वर्णन करना कौन जानता है ? ॥१॥ उसके दक्षिण किनारेपर वत्स देश है, जहाँके निवासगृह फेनसमूहके समान धवल हैं, जो शोभित सीमाओं और नगरोंसे सुन्दर हैं। जहां महामुनियों द्वारा अनवरत रूपसे धर्मका कथन किया जाता है । उसमें अपने शत्रुकुल के बलके लिए यमके समान सिंहके समान विक्रमवाला राजा सिंहरथ था। लम्बे समय तक भोगोंको भोग चुकनेके बाद किसी समय आकाशके अन्तरालको देखते हए उसने एक टूटते हए तारेको देखा, उसकी संसारमें रति नष्ट हो गयो। जिन्होने पोड़ाओंको आहत किया है, ऐसे अनेक क्षत्रियोंके साथ यतिवृषभ मुनिके पास वह प्रवजित हो गया। ग्यारह अंगोंको धारण करनेवाले शीलवान् वह वनमें वृक्षकी तरह मौन रूपसे निवास करते हैं। संचित कण और तृणपर वह पैर नहीं रखते। दो हुई जो चीज व्रतविधिके अयोग्य है, वे उसे ६. A omits this foot. ७. Pण जाणइ । ८. P जंबूदीवि वरि । २. १. A भोय । २. AP णिवडंति । ३. A तणे । ४. A दिण्णउ ण लेइ। Page #484 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४३७ -६४.३.१० महाकवि पुष्पदन्त विरचित बंधिवि तित्थंकरणामकम्मु मउ उवरिमिल्लु ससिबिंबसोम्मु । पत्तउ पंचाणुत्तरविमाणु मुंजिवि तेत्तीसजलणिहिपमाणु । छम्मास परिट्ठिउ आउ जाम वइसवणहु कहइ सुरिंदु ताम । घत्ता-दीवि पहिल्लइ पविउलइ भरहि देसु कुमजंगलु ॥ गयउरि महिवइ तहिं वसइ सूरसेणु जेगमंगलु ॥२॥ कुरुकुलरुहुँ सिरिजयसिरिणिकेउ कासवगोत्तें भूसिउ सुतेउ । सिरिकंत कंत कमणीयरूय सुरखयरणियं बिणितिलयभूय । णरणाहहु सा वल्लहिय केव सुवियड्डहु वरकइवाणि जेव । एउहुं दोहं मि होही ण मंति जिणु कुंथु णाम केवलि कहति । करि पुरवरु घरु णदणवणाल। पुजिजइ भत्तिइ सामिसालु । तं णिसुणिवि धणएं तं विचित्त किउ जयरु कणयमाणिक्कदित्तु । पवणुद्धयपहकप्पूरपंसु सरसरिनीरंतररमियहंसु। पासायचूलियालिहियमेहु गय[ग्गयसुरहियधूमरेहु । घत्ता-सुहं सुत्ती रयणिहि सयणि बालहंसगेयंगामिणि ॥ पच्छिमजामइ सोलह वि पेच्छइ सिविणय सामिणि ॥ ३॥ १० ग्रहण नहीं करते। तीर्थंकर नामक प्रकृतिका बन्ध कर वे मर गये तथा वे ऊपर चन्द्रबिम्बके समान सौम्य पांचवें अनुत्तर विमानमें पहुंचे। वहां तैंतीस सागर प्रमाण आयु भोगते हुए जब छह माह आयु शेष रह गयी, तो इन्द्र कुबेरसे कहता है । -पहले द्वीप जम्बूद्वीपके भरतक्षेत्रमें कुरुजांगल देश है। वहां हस्तिनापुरमें जगमंगल राजा सूरसेन राजा है ॥२॥ कुरुकुलका अंकुर तथा विजयश्रीका घर तेजस्वी वह कश्यपगोत्रसे विभूषित था। उसकी कान्ता श्रीकान्ता अत्यन्त कमनीय रूपवाली और सुर विद्याधर-स्त्रियोंमें तिलकस्वरूप थी। राजाके लिए वह वैसी ही प्रिया थी जैसे सुविदग्धोंके लिए वरकविकी वाणी प्रिय होती है। इन दोनोंके जिन कुन्थुके नामसे उत्पन्न होंगे, इसमें भ्रान्ति नहीं है, ऐसा केवली कहते हैं । तुम नगर, घर और नन्दनवनकी रचना करो और भक्तिसे स्वामी श्रेष्ठकी पूजा करो। यह सुनकर कुबेरने स्वर्ण और माणिक्योंसे प्रदीप्त विचित्र नगरकी रचना की। जिसमें हवासे पथमें कपूरको धूल उड़ती है, जिसके सर-नदीके नीरके भीतर हंस रमण करते हैं, जिसके प्रासादोंके शिखर मेघोंको छूते हैं, जहां सुरभित धूम्र रेखाएं आकाश तक उठी हुई हैं। __ घत्ता-शय्यातलपर सुखसे सोयी हुई बालहंसगामिनी स्वामिनी श्रीकान्ता रात्रिके अन्तिम प्रहरमें सोलह स्वप्न देखती है ।।३।। ५. AP जयमंगलु। ३. १. A°कुलरुहजयसिरिसिरि । २. A सुकेउ । ३. AP णरणाहहु तहु वल्लहिय । ४. AP घर । ५. A पवणुद्धयपंकयरयविमीसु; P पवणुद्धयपहकप्पूरफंसु । ६. AP सरिसर । ७. A गयणग्गय । ८. P धम्मरेड । ९. A सुहसुत्ती। १०.Pगइगामिणि । Page #485 -------------------------------------------------------------------------- ________________ महापुराण [६४. ४.१ वारणं मयालीणछप्पयं गोवई खुरुभिण्णवप्पयं । केसरि गलालंबिकेसरं गोमिणी सुमालाजुयं वरं । उग्गयं हिमंसुं दिणेसरं रत्तमीणजुम्म रईसरं। सायकुंभकुंभाण संघडं पंकयायरं लच्छिपायडं। खीरवारिरासिं महारवं विट्ठरं सकंठीरवं णवं। मंदिरं सुराणं विहावियं णायगेहमहिरायसेवियं । मेलेयं मणीणं विचित्तयं झत्ति धूमकेउं पलित्तयं । राइछेयए संविउद्धिया सा णिवस्स वजरइ मुद्धिया । रत्तियाविरामे णियच्छियं दंसणावलिं कयसुहच्छियं । कहइ तीइ तिस्सा फलं पई होहिही तुहं सुउ महामई । इंदचंदणाइंदवंदिओ दिव्वणाणि णिज्जियमणिंदिओ। चकवट्टि भोत्तूण भूयलं पाविही पयं परमणिकलं । घत्ता-तं णिसुणिवि संतु? सइ आइय मंदिरु मीणइ ।। बुद्धि लच्छि सिरि कंति हिरि दिहि कित्ति वि लीलागइ ॥४॥ कय धणएं दरिसियसुयणतुहि सावणमासंतरि कसणपक्खि छम्मासु जाम ता रयणेवुट्ठि। दहमइ दिणि माणवजणियसोक्खि । जिसके मदमें भ्रमर लीन हैं ऐसा गज, अपने खुरोंसे वप्रकोड़ा करता हुआ बैल, गले तक लटकती हुई अयालवाला सिंह, लक्ष्मी, सुन्दर मालाका उत्तम युग्म, उगता हुआ चन्द्र और सूर्य, खेलता हुआ रक्त. मीनयुगल, स्वर्णकुम्भोंका युग्म, शोभाको प्रकट करता हुआ सरोवर, महाशब्दवाला क्षीरसमुद्र, नव सिंहासन, देवोंका विमान, नागराजोंसे सेवित नागभवन, मणियोंका विचित्र संगम और शीघ्र ही प्रदीप्त अग्निको उसने देखा। रात्रिका अन्त होनेपर जागी हुई वह मुग्धा राजासे कहती है कि रात्रिके अन्त में मैंने शुभ और इच्छितको करनेवाली स्वप्नावली देखी है। पति उससे उसका फल कहता है कि तुम्हारा महामतिमान् पुत्र होगा। इन्द्र-चन्द्र और नागेन्द्रसे वन्दित दिव्यज्ञानी मन और इन्द्रियोंके विजेता, चक्रवर्ती जो भूतलका भोगकर परम निष्कल पद ( मोक्षपद ) प्राप्त करेगा। पत्ता-यह सुनकर वह सती सन्तुष्ट हुई। मेनका उसके घर आयो। बुद्धि-लक्ष्मीश्री-कान्ति-ही-धृति और लीलागति कीर्ति भी ॥४॥ कुबेरने सुजनको सन्तुष्ट करनेवाली रत्नवृष्टि छह माह तक की। श्रावण माहके कृष्णपक्षमें ४. १. A खुरविभिण्ण । २. AP गोमिणि । ३. A हिमेसुं । ४. P संघणं । ५. A मेलयं विचित्तं मणीणयं ६. AP तुहं सुओ पहोही महामई । ७. A संतुट्ठमइ । ५.१. A रयणविट्टि । Page #486 -------------------------------------------------------------------------- ________________ -६४. ६.७] महाकवि पुष्पदन्त विरचित कत्तियणक्खत्ति णिसाविरामि . थिउ गम्भि भडारउ पउरधामि । सीहरहु राउ अहमिंदु देउ वणिज्जइ किं णिवाणहेउ । वणवासहिं घल्लियकब्बुरेहिं । थुउ 'इंदपडिंदाइहिं सुरेहिं । गइ संतिणाहि मलदोसहीणि पल्लोवमद्धि सायरि वि खीणि । वईसाहमासि पडिवयहि दियहि अग्गेयजोइ णरणाह पियहि । जायंउ जिणु कयतइलोकखोहु सुरवइ संपत्तु ससुरवरोहु । णिउ सुरगिरिसिरु सुरणाहणाहु णाणत्तयसलिलवरंभवाहु । धत्ता-सिंचिवि खीरघडेहिं जिणु अंचिउ गवसयवत्तहिं ॥ ___ इंदं रुंदाणंदयरु जोइउ दससयणेत्तहिं ॥ ५ ॥ वंदिवि पुणु णामु केहि वि कुंथु लंघेप्पिणु दीहरु पवणपंथु । पुरु आविवि जणणिहि दिण्णु बालु गउ सग्गहु हरि सुरचक्कवालु। पोढत्तभावि थिउ कणयवण्णु कंतीइ पुण्णचंदु व पसण्णु । पहु पंचतीसधणुतुंगकाउ सिरिलंछणु जयदुंदुहिणिणाउ । तेवीससहसवरिसह सयाई सत्तेव सपण्णासई गयाई। चरणंभोरहण मियामरासु णियबालकलीलाइ तासु । पुणु तेत्तिउ मंडलियत्तणेण तेत्तिउ जि चक्कपरियत्तणेण । दसमीके दिन मानवोंको सुख देनेवाले कार्तिक नक्षत्र में निशाके अन्तमें आदरणीय वह सिंहरथ राजा अहमेन्द्र देव प्रवरधाम और गर्भमें आकर स्थित हो गया। उसके निर्वाणके कारणका क्या वर्णन किया जाये? जिन्होंने स्वर्णकी वर्षा की है ऐसे वनवासियों, इन्द्र-प्रतीन्द्रों आदि देवोंके द्वारा उनकी स्तुति की गयी। मलदोषसे रहित शान्तिनाथ तीर्थकरके बाद लक्ष्मी उत्पन्न करनेवाला आधा पल्य समय बीतनेपर वैशाख शुक्ल प्रतिपदाके दिन राजाओंको प्रिय आग्नेय योगमें त्रिलोकको क्षोभ उत्पन्न करनेवाले जिनका जन्म हुआ। सुरवर-समूहके साथ इन्द्र भी उपस्थित हुआ। देवेन्द्रोंके नाथ और ज्ञानरूपी सलिलके श्रेष्ठ मेघ उनको समेरु पर्वतपर ले जाया गया। पत्ता-वहीं क्षोरके घड़ोंसे अभिषेक कर फिर उनको नवकमलोंसे अंचित किया। इन्द्रने विशाल आनन्द उत्पन्न करनेवाले उन्हें हजार नेत्रोंसे देखा ।।५॥ फिर वन्दना कर, उनका नाम कुन्थु कहकर, लम्बे पवन-पथको पार कर, नगरमें आकर और बालक को देकर देवसमूहका पालक इन्द्र चला गया। स्वर्ण रंगवाले वह प्रौढ़ताको प्राप्त हुए। कान्तिमें वह पूर्णचन्द्रके समान प्रसन्न थे। स्वामी पैंतीस धनुष प्रमाण ऊंचे थे। वह श्रीलांछन और जय-जय दुन्दुभि निनादसे युक्त थे। जिनके चरण-कमलोंमें देव नमित हैं, ऐसे उनके नृपबाल क्रीड़ामें तेईस हजार सात सौ पचास वर्ष बीत गये। फिर इतने ही वर्ष अर्थात् तेईस हजार सात सौ पचास वर्ष राज्य करते हुए और इतने ही वर्षे (२३७५०) चक्रवर्तित्वमें, २. AP कित्तियं । ३. A बहसाहमासि पडिवयह दियहि; P वइसाहमासि सेयपडिवयहि दियहि । ४. AP जायउ जिणिदु तेलोक्कखोह ।। ६. १. AP करिवि । २. A सुरु चक्कवालु । ३. APणविय । Page #487 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [६४.६.८ ४४० महापुराण जइयतुं परिछिण्णउ कालु दीहु तइयतुं परमेसरु पुरिससीहु । गउ कहिं मि वणंतर रमणकामु दिटुउ रिसि तेण तवेण खामु । १० मत्तंडचंडकिरणई सहंतु दुम्मुक्कजम्मविलसिउ महंतु । घत्ता-सो तजणियइ दंसियउ मंतिहि तेण गरिंदें । जोयहि दुच्चैरु तवचरणु चिण्णउं एण रिसिंदें ॥६॥ छडिवि 'कुडंबु कुविडंबु सन्तु छड्डिवि कुलबलु छलमाणगवु । वणि पइसिवि णिहसिवि इंदियाई अवगणिवि दुजणणिदियाई । चंगउ ववसिउ जइपुंगमेण लइ हर मिजामि एण जि कमेण । तं णिसुणिवि मत बुत्त एम एयइ णिट्ठइ तउ करिवि देव । जाएसइ कहिं णिम्मुकगंथु तं णिसुणिवि भासइ देउ कुंथु । जाएसइ तहिं जहिं भूयगामु णउ पहवइ लोहु ण कोहु कामु । जाएसइ तहिं जहिं हेमकंति गउ परमप्पउ परमेट्ठि संति । हो हउं मि पवञ्चमि तेत्थु तेम . ण णियत्तमि काले कहिं मि जेम । घरु आवेप्पिणु संसरासईहि ता पडिबोहिउ सुरवरजईहिं । १० अहिसेउ विरइउ पुरंदरेण कुलि णिहिउ सतणुरुहु जिणवरेण । पत्ता-सिवियहि तेणारुहणु किउ विजयहि विजयपयासहि ॥ ___णाणामणिसिहरुज्जलहि लग्गखगाहिवतियसहि ॥७॥ इस प्रकार जब उनका लम्बा समय निकल गया, तब वह पुरुष श्रेष्ठ परमेश्वर रमण करनेकी इच्छासे कहीं भी वनान्तरमें चले गये। वहां उन्होंने तपसे क्षीण एक मुनिको देखा-सूर्यकी प्रचण्ड-किरणोंको सहन करते हुए महान् तथा जन्मकी चेष्टाओंसे मुक्त। पत्ता-उस राजाने अपनी तर्जनीसे मन्त्रियोंके लिए उन्हें बताया कि देखो इन ऋषीन्द्रने कठोर तपका आचरण किया है ॥६॥ कुत्सित विडम्बनावाले सब कुटुम्बको छोड़कर; कुलबल, कपट, मान और गर्वको छोड़कर, वनमें प्रवेश कर, इन्द्रियोंका उपहास कर, दुर्जनोंकी निन्दाकी उपेक्षा कर इन यतिश्रेष्ठने बहुत अच्छा किया। लो मैं भी इसी परम्परासे जाता हूँ। यह सुनकर मन्त्रीने इस प्रकार कहा-"हे देव, इस निष्ठासे तपकर परिग्रहसे रहित, यह कहां जायेंगे?" यह सुनकर कन्थु देव कहते हैंकि वह वहां जायेंगे जहाँ प्राणिसमूहको लोभ, क्रोध और काम प्रभावित नहीं करते। वहां जायेंगे जहां स्वर्णकान्ति शान्तिजिन परमेष्ठी हों, मैं भी उसी प्रकार वहां जाऊंगा, जहाँसे समयके साथ वापस नहीं आऊँगा। तब घर आकर लोकान्तिक देवोंने अपनी वाणीमें उन्हें सम्बोधित किया। इन्द्रने अभिषेक किया। जिनवरंने अपने पुत्रको कुलपरम्परामें स्थापित किया। धत्ता-उन्होंने विजयको प्रकाशित करनेवाली, नाना मणिशिखरोंसे उज्ज्वल तथा जिसमें विद्याधर राजा और देव लगे हुए हैं, ऐसी शिविकामें आरोहण किया ॥७॥ ४. AP दुक्कम्मजम्म । ५. A दुद्धरु । ७. १. A कुटुंबु । २. A सुसरासईहि; KT recard: सुसुहासईहिं इति पाठे अतीव शोभनभाषिभिः । Page #488 -------------------------------------------------------------------------- ________________ -६४.९.२] महाकवि पुष्पदन्त विरचित वणि विउलि सहे रुक्खणीलि दिणि तम्मि चे विच्छुलिय पंकि ब्रेड लइउ लइवि छट्ठोववासु संसार सहुण किंपि बद्ध ates दिणि दिrयरकयपयाँसि गयउरि दाविउ आहारु चारु अमरहिं घल्लिय मंदारयाई सोलहवरिस तर तिव्वु चरिवि दिक्खावणि पत्ति चइत्ति मासि कयछट्ठे तिलयतलासिएण अप्पेणप्पाणडं मुणिउं तेण परिजाणिरं तिजगु अनंतु गयणु धत्ता - दिव्वंबर दिव्वाहरणई सुर णमंति चउपासहिं ॥ पुणु वि पुरंदरु अवयरिउ णाणाजाणसहासहिं ॥ ८ ॥ ८ णियजम्म मास पक्वंतरालि । कित्तियणक्खत्तासिइ ससंकि । तें हुं पव्वणि सहासु । मणपज्जड णाणु जिणेण लद्ध । परिभमइ णाहु णरवासवासि । थिउ धम्ममित्तघरि हयवियारु । विहियई पंच वि अच्छेरयाई । भवभामिरु दुक्कियभाउ हरिवि । चंदिणि तइयइ दिणि सुहणिवासि । खण खीणकसाएं जससिएण । उग्गमिएं णा केवलेण । जायउ सजोइजिणु अचलणयणु । थिओ समवसरणि जिणो विहियकरुणो ९ सया विउससरणि । हयावरणमरणो । ४४१ ५ ८ सहेतुक वृक्षोंसे हरे विशाल वन में अपने जन्मके अन्तराल और दिनमें ( अर्थात् वैशाख शुक्ला प्रतिपदा के दिन ) चन्द्रमाके कृत्तिका नक्षत्र में स्थित होनेपर छठा उपवास करते हुए उन्होंने व्रत ग्रहण कर लिया। उनके साथ एक हजार लोग और प्रव्रजित हुए । उन्होंने संसारके प्रति कुछ भी स्नेह नहीं रखा, जिननाथने मन:पर्ययज्ञान प्राप्त कर लिया। दूसरे दिन, दिनकर द्वारा जिसमें प्रकाश किया गया है, ऐसे हस्तिनापुरमें स्वामी घर-घर परिभ्रमण करते हैं । हतविकार वह धर्ममित्रके घर ठहर गये। वहाँ उन्हें सुन्दर आहार दिया गया । देवोंने मन्दारपुष्प बरसाये और पाँच आश्चर्य प्रकट किये। सोलह वर्ष तक तीव्र तपका आचरण कर संसार में परिभ्रमण करानेवाले पापभावको नष्ट कर वह शुभ निवास दीक्षा वनमें पहुंचे । चैत्रमाह के शुक्ल पक्षकी तृतीयाके दिन तिलक वृक्षके नीचे स्थित यशसे श्वेत छठा उपवास करनेवाले क्षीणकषाय उन्होंने आत्मासे आत्माका ध्यान किया । उत्पन्न हुए केवलज्ञानसे उन्होंने त्रिलोक और अनन्त आकाश जान लिया । अचल नेत्र जिन ज्योति सहित हो गये । धत्ता - दिव्य वस्त्र और दिव्य आभरण धारण करनेवाले देव चारों ओरसे उन्हें प्रणाम करते हैं । फिर भी अपने नाना यानोंसे पुरन्दर वहीं आया ||८|| १० ९ सदैव विद्वानोंके लिए शरणस्वरूप समवसरण में वह स्थित हो गये । करुणा करनेवाले, ८. १. AP क्खमूल । २. A विच्छलियं । ३ AP वउ । ४. A णूवसहासु । ५. P पर जाणिउ । ५६ Page #489 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४४२ ५ १० १५ समुद्धरइ समयं मुसावयणमुइयं जणं करइ विमयं मलं महइ कसणं फणीसुरनुभवणं चलं खलइ कविलं तणिहिय महिल बला विहियेपुरं मुर्ण कणयचरण खणाभावविगयं चालीस तिणि सहसाई होंति एत्तिय सिक्खु सिक्खाविणीय महापुराण या हरइ कुमयं । पसूहणणरुइयं । पहे थवई दुमयं । घणं दमइ वसणं । फुडं कहइ भुवणं । हरं हसणमुहलं | महीधरणसबलं । हरिं भणइ ण वरं । तं तिमिरहरणं । पत्तियह सुगयं । रमण गुणी | महोपसमभरियं । मणे अहव महियं । णरयविवरि । अयं अमरतरुणी ण परं रिसहचरियं जिणा किमवि गहियं सो पडइ गहिरि घत्ता - पंचतीस गणहर जिणहु जाया हयरेयसंगहं ॥ भयसाईं दिव्वहं रिसिहिं मणमाणियपुण्वंग ॥ ९ ॥ १० सहुं अद्धसएं सउ तहिं ण भंति । गुरुभत्तिवंत संसारभीय । I मरणके आवरणको नष्ट करनेवाले वह जिन जिनशासनका उद्धार करते हैं, नयोंसे कुमतका हरण करते हैं । असत्य भाषणसे मुदित होनेवाले, पशुहत्या में रुचि रखनेवाले उनको वह मद रहित करते हैं, दुर्मंदको पथमें लाते हैं, पाप और मलका नाश करते हैं, सघन दुःखोंका दमन करते हैं, नागेश्वर और नृपभवनवाले विश्वका स्पष्ट कथन करते हैं । चंचल कपिल मतको और हँसी से मुखर हरको स्खलित करते हैं । शरीरपर महिलाको धारण करनेवाले धरतीको धारण करने में समर्थ, बलपूर्वक द्वारिकाका निर्माण करनेवाले हरिको जो वर नहीं कहते, जो अक्षपाद मुनि हैं, वह अन्धकारका नाश करनेवाले नहीं हैं, जो क्षणिकवादको माननेवाले हैं ऐसे उन सुगतका विश्वास मत करो। ब्रह्मा देवस्त्रीमें रत है, उसे गुणी नमस्कार नहीं करते । केवल महान् उपशमसे भरित ऋषभचरितको जिसने स्वीकार किया है, अथवा मनमें उसकी पूजा की है, वह नर गम्भीर नरकविवर में नहीं पड़ता । घत्ता - जिनवरके पैंतीस गणधर थे । पापसंग्रहको नष्ट करनेवाले और अपने मनमें पूर्वांगों को माननेवाले दिव्य ऋषि सात सौ थे ||९|| १० तैंतालीस हजार एक सौ पचास, इतने महान् भक्ति से पूर्ण, संसारसे भीत और शिक्षा में [ ६४. ९.३ ९. १. AP सुरणिभवणं । २. A विहियपरं । ३. A महापसमं । ४. Pomits ण । ५. AP हयरसंगहं । ६. AP मणि माणि । Page #490 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४४३ -६४. ११. ४] महाकवि पुष्पदन्त विरचित दोसहसई पंचसयाइं ओहि | णाणिहिं केलिहिं ति दोण्णि लेहि । पंचेव सहस सउ एक्कु ताई महरिसिहिं विउठवणरिद्धि जाहं । दोसहसई पण्णासाहियाई गुणवंतहं वाइहिं साहियाई। सहसाई तिण्णि तिण्णि जि सयाई मणपज्जववंतहं गयमयाई। सहसाई सट्ठि आहुट्ठसयइं अजियहं तेत्थु थुयकुंथुपयई । सावेयह लक्ख दो तिणि लक्ख सावइहिं ण याणमि देव संख । संखेज तिरियगणु णहकरालु जेत्तिउ होइवि थिउ चक्कवालु । तेत्तिउ सोलहवरिसूणु कालु महि विहरिवि हयणरमोहजालु । गउ संमेयहु सम्मयगुणालु तं सुक्कझाणु पूरिउ विसालु। पडिमाइ परिहिउ मासमेत्तु रिसिसहसे सहुँ णिम्मुक्कगत्तु । घत्ता-वइसाहहु सियपडिवइ जामिणिमुहि णिहयक्खहु । गउ जिणु सहसक्खें कित्तियउ कित्तियरिक्खे मोक्खहु ॥१०॥ कय तियसहिं तासु सरीरपुज सुरकिंकरकरहयविविहवज्ज । भंभाभेरीदुंदुहिणिणाय घणथणियामरमुहमुक्कणाय । पयपणइपयासियदुरियदलणे जेय जयहि जिणेसर कम्ममलण । उठवसिरंभाणचणरसिल्लु सयमहकरपंजलिपित्तफुल्ल । विनीत शिक्षक थे। दो हजार पांच सो अवधिज्ञानी थे। तीन हजार दो सो केवलज्ञानी, विक्रिया ऋद्धिके धारक महामुनि पांच हजार एक सो, गुणवान् वादी मुनि दो हजार पचास थे, तीन हजार तीन सौ मद रहित मनःपर्ययज्ञानी थे। साठ हजार तीन सौ पचास कुन्थु भगवान्के चरणकी स्तुति करनेवाली आर्यिकाएं थीं। दो लाख श्रावक और तीन लाख श्राविकाएं थीं। देवोंकी संख्या में नहीं जानता। नखोंसे भयंकर जितना संख्यात तिथंच समूह था, वह गोलाकार स्थित हो गया। जिन्होंने मनुष्योंके मोहजालको नष्ट किया है, ऐसे सम्यक्त्व गुणोंके घर वह उतने ही सोलह वर्ष तक धरतीपर विहार करते हुए सम्मेदशिखर पहुंचे। वहां उन्होंने विशाल शुक्लध्यान पूरा किया। एक माह तक प्रतिमा योगमें स्थित रहें और एक हजार मुनियोंके साथ शरीरसे मुक्त हो गये। घत्ता-वैशाख शुक्ला प्रतिपदाके दिन रात्रिके पूर्वभागमें कृत्तिका नक्षत्रमें इन्द्रके द्वारा कीर्तित जिन मोक्षके लिए गये ॥१०॥ ११ जिसमें देवों और अनुचरोंके हाथोंसे विविध वाद्य बजाये गये हैं, देवोंने उनकी ऐसी शरीर पूजा की। भम्भा, भेरी और दुन्दुभियोंका निनाद और जोर-जोरसे बोलनेवाले देवोंका नाद होने लगा। चरणोंमें प्रणत लोगोंके पापोंका दलन प्रकाशित करनेवाले और कर्मोंका नाश करनेवाले हे देव, आपकी जय हो। जो उर्वशी और रम्भाके नृत्यसे रसमय है, जिसमें इन्द्र के हाथों फूल फेंके जा १०.१. A केवलिहि वि दोण्णि । २. A सावयह संख दो । ३. A omits this foot. ११. १. AP दलणु । २. AP वरजलणकुमारणिहित्तजलणु । ३. A रसिल्ल । ४. A फुल्ल । Page #491 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४४४ महापुराण [ ६४. ११.५तुंबरुणारयसंगीयगेय विरइय जिणपडिबिंबाहिसेय । मालाविजाहरपिहियगयण मुणिघोसियणाणाथोत्तवयण । णवकमलकलसदप्पणसमेय धवलायवत्तधयसंखसेय । दूवंकुरदहिचंदणपसत्थ वंसग्गविलंबियदिव्ववत्थ । सण्णाणि सुदंसणि विउलबुद्धि णिव्वाणपुज महुँ देउ सुद्धि । घत्ता-सुहं कुंथु भडारउ देउ महं वंदिउ भरहणरिंदहिं ।। सियपुप्फयंतउजलमुहहिं णमिउ फणिंदसुरिंदहिं ॥११॥ इय महापुराणे तिसहिमहापुरिसगुणालंकारे महामन्वभरहाणुमण्णिए महाकइपुप्फयंतविरइए महाकव्वे कुंथुचकहरतिस्थयरणिव्वाणगमणं णाम चउसटिमो परिच्छेओ समत्तो ॥६॥ रहे हैं, तुम्बुरु और नारदके द्वारा गीत गाये जा रहे हैं, जिन प्रतिबिम्बोंका ऐसा अभिषेक किया गया। जिसमें विद्याधरोंकी कतारोंने आकाशको ढक लिया है, जिसमें मुनियोंके द्वारा नाना स्तोत्रवचन घोषित किये जा रहे हैं, जो नवकमल-कलश और दर्पणसे युक्त हैं, जो धवल आतपत्र ध्वज और शंखोंसे श्वेत है। दूर्वांकुर, दही और चन्दनसे प्रशस्त है, जिसमें बांसोंपर दिव्यवस्त्र अवलम्बित हैं, ऐसी निर्वाण पूजा, मुझे ज्ञान और दर्शनसे युक्त विपुल बुद्धि और शुद्धि प्रदान करे । पत्ता-भरतादि नरेन्द्रोंसे वन्दित, श्वेत नक्षत्रोंके समान उज्ज्वल मुखोंवाले नागेन्द्रों-सुरेन्द्रों द्वारा नमित आदरणीय कुन्थुदेव मुझे सुख प्रदान करें ॥११॥ ब्रेसठ महापुरुषोंके गुणालंकारोंसे युक्त महापुराणमें महाकवि पुष्पदन्त द्वारा विरचित एवं महाभव्य भरत द्वारा अनुमत महाकाव्यका कुन्थु चक्रवर्ती और तीर्थकर निर्वाण गमन नामका चौसठवाँ परिच्छेद समाप्त हुआ ॥६॥ ५. AP खेयरविसहरचंदहिं । ६. AP कुंथुचक्कवट्रितित्थयरपुराणं । Page #492 -------------------------------------------------------------------------- ________________ संधि ६५ सुयदेवयहि पसत्थहि पसमियदुम्मइहि ।। वंदिवि सिरेण सउवई अंगई भयवइहि ॥ध्रुवकं ॥ जो भयवंतो मुकसवासो जंणीसासो सुरहियवासो। जेण कयं उत्तमसंणासं जो ण समिच्छइ चउसण्णासं। जिणदिटुं पंचिंदियणासं जं पणवंतो पावइ णा सं। भीममुहा वग्घाइणवासा जस्स गया दूरेण सवासा । रक्खइ मुवणं जस्स खमा णं णाणं जस्साणंतखमाणं । जेणुवइ धम्मणिहाणं समियं चित्तं भिल्लणिहाणं । जो जीवाणं जाओ ताणं गुरुयणभत्ती जाणं ताणं । अत्ताईणं वत्थुपयाणं जो वत्तारो सम्वपयाणं । सन्धि ६५ दुर्मतिको प्रशमित करनेवाली प्रशस्त भगवती श्रुतदेवताके चौदह पूर्वो सहित ग्यारह अंगोंकी में वन्दना करता हूँ। जो ज्ञानवान् अपने गृहवाससे मुक्त हैं, जिनसे मनुष्योंको शिक्षा होती है, जो सुरभित गन्धवाले हैं, जिन्होंने उत्तम संन्यास लिया है, जो आहारनिद्रादि संज्ञाओंको नहीं चाहते, बल्कि जिनेन्द्र द्वारा उपदिष्ट पांच इन्द्रियोंका नाश चाहते हैं। जिनको प्रणाम करनेवाला पुरुष सुख प्राप्त करता है। व्याघ्रादि चर्मको धारण करनेवाले पाशयुक्त वेताल आदि देव जिनसे दूर चले गये हैं जिनकी क्षमा विश्व और मनुष्य की रक्षा करती है, जिनका ज्ञान अनन्ताकाशके प्रमाणवाला है। जिन्होंने धर्मका उपदेश किया है और भीलके समान लोगोंके चित्तको शान्त किया है, जिन जीवोंमें गुरुजनोंके प्रति भक्ति है, वे उनके त्राता हैं। जो आप्त आदिके वस्तुप्रमाण और समस्त पदोंके All Mss. have, at the beginning of this samdhi, the following stanza: आजन्म (?) कवितारसैकधिषणासौभाग्यभाजो गिरा दृश्यते कवयो विलाससकलग्रन्थानुगा बोधतः । किं तु प्रौढनिरूढगूढमतिना श्रीपुष्पदन्तेन भोः साम्यं बिभ्रति (?) नैव जातु कविता शीघ्र ततः प्राकृते ॥१॥ AP read विशाल in the second line; A reads.प्रौढनिगूढ in the third line; and AP read कविना, A reads शीघ्रं तत प्राकृतैः, P reads शीघ्रं त्वतः प्राकृतेः in the fourth line. १. १. A सम्मियचित्तं । २. A अंताईणं; P अत्थाईणं । Page #493 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४४६ महापुराण [ ६५. १. ११ दिण्णं जेणं अभयपयाणं सासयसिवणयरस्स पयाणं । भवहंतारं धीरं हतं णमिउं देवं अरमरिहंतं । तस्स भणामि चरित्तं चित्तं । जणियसुरासुरविसहरचित्तं । घत्ता-जंबूदीवइ सुरगिरिपुष्वदिसासियइ ।। पुवविदेहइ पविउलि केवलिभासियइ ॥१॥ सीयहि उत्तरकूलि रवण्णइ कच्छाणामदेसि वित्थिण्णइ । खेमणयरि धणवइ पुहईसरु रूवे रमणीसरु वम्मीसरु । गंदणाहतित्थयरसमीवइ बुज्झिवि धम्मु णाणसम्भावइ । अप्पउं तेण णिओइउ राएं समैणु हवेप्पिणु मणवयकाएं । चत्तकुपंथें जाणियसत्थे किउ पाओवगमणु परमत्थे । जाउ जयंताणुत्तरि सुरवरु कायमाणु तहु एकु जिकिर करु । आउ तासु तेत्तीसमहोयहि लोयणाडि सो पेक्खइ सावहि । तप्पमाणवि किरियातेएं वीरिएण संजुत्तु अमेएं। मुंजंतहु सुहुं अहमिदोणउं आउहि थिउ छम्मासपमाणउं । पत्ता-सोहम्माहिउ भ०वहु जिणपयरयमइहि ॥ तहिं कालिहिं आहासइ सुरवइ धणवइहि ।।२।। वक्ता हैं, जिन्होंने अभयको प्रदान और शाश्वत शिवनगरको प्रयाण किया है, ऐसे संसारका नाश करनेवाले धीर अरहनाथ अर्हन्तको नमस्कार कर उनके सर. असर और विषधरोंके आश्चर्य उत्पन्न करनेवाले विचित्र चरित्रको कहता हूँ। घत्ता-जम्बूद्वीपके सुमेरुपर्वतकी पूर्व दिशा केवलीके द्वारा भाषित विशाल पूर्वविदेहमें ॥१॥ सीता नदीके उत्तरीतटपर फैले हुए सुन्दर कच्छ नामके देशके क्षेमनगरमें धनपति नामका राजा था। रूपमें जो स्त्रियोंका स्वामी और कामदेव था, वह अर्हन्नन्दन तीर्थंकरके समीप धर्म समझकर उस राजाने ज्ञानके स्वभाव में अपनेको नियोजित कर लिया। मन वचन कायसे श्रमण होकर, खोटे मार्गको छोड़कर और शास्त्रको जानकर उसने परमार्थ भावसे प्रायोपगमन किया। वह जयन्त विमान देव पैदा हुआ। वहां उसके शरीरका प्रमाण एक हाथ था। उसकी आयु तैंतोस सागर प्रमाण थी। अवधिज्ञानी वह लोकनाडीको देख सकता था। सन्तप्तमान विक्रिया ऋद्धिके तेज और वीर्यसे संयुक्त सुखको विना किसी मर्यादाके भोगते हुए उस अहमेन्द्रकी आयु छह माह शेष रह गई। पत्ता-तो उस अवसरपर सौधर्म इन्द्रने जिनपदमें जिसकी मति अनुरक्त है, ऐसे भव्य कुबेरसे कहा ॥२॥ ३. A तेणं । ४. AP वीरं । २. १. A बुज्झवि णाणु धम्म । २. AP णिओविउ । ३. AP सवणु। ४. AP पायोगमरणु। ५. AP अहमिदाणं । ६. A पवाणं; P पमाणं । ७. AP तहि जि कालि आहासइ । Page #494 -------------------------------------------------------------------------- ________________ -६५.४.५] महाकवि पुष्पदन्त विरचित ३ एत्थु भरहि कुरुजंगलि जणवइ राउ सुदंसणुतहु गुणजलसरि एयह दोहं वि होसइ जगगुरु ता तं जाइवि जक्खें रइयउ णिसि हुं सुत्तई पियकमणीयइ करि करोड पंचाणणु गोमिणि सफरुल्लय दो कलस सुहायर सीहास विमा णायालउ जायवे दीहरजालावलि घत्ता - देविइ सुत्तविद्धिइ अक्खिर णरवइहि || ते वि फलु विहसेपणु भासिउ तहि सइहि ॥ ३ ॥ जो जाणइति णि परु अप्पर तं सुणिषि हरिसिय सीमंतिणि कंति किति सइ बुद्धि भडारी जा छम्मास ताम घरि चंदिरु फग्गुणि चंदविसुद्ध हि तइयहि कुंजरपुरवर मारुयधुयधइ । मित्तसेण णामेण घरेसरि । तुहुं करितो तुरि कंचनपुरु | पट्टणु रयणकिरणअइसइयउ | सिविणयपंति दिट्ठ रमणीयइ । मालाजुयल चंदु हयलमणि । विमलसलिलकमलायर सायर । मरिंबु मँऊहकरालउ । इय जोइवि ताए सिविणावलि । ४ सो तुह सुउ होसइ परमप्पड | आइय घरु सिरि दिहि हिरि कामिणि । भसुद्धि कय सुहइं- जणेरी । वैत्तिरं जक्खें लोयाणंदिरु । णिसिपच्छिम संझहि रेवइयहि । ३. १. AP तुरिउ ताहं । २. A सुहसुत्त । ३ AP मयूहं । ४. A विबुद्धर । ४. १. APतिहुवणु । २. P सुणिवि । ३. A खित्तय; P घित्तठ । ४४७ ३ यहाँ भरतक्षेत्रके कुरुजांगल जनपद में जिसमें हवासे ध्वज हिलते हैं, ऐसा हस्तिनापुर नगर है, उसमें राजा सुदर्शन है । उसको गुणरूपी जलकी नदी मित्रसेना नामकी गृहेश्वरी थी । इन दोनों विश्वगुरु जन्म लेंगे, तुम शीघ्र उनके लिए स्वर्णनगरको रचना करो। तब कुबेरने जाकर रत्न किरणोंसे अतिशमित नगरकी रचना की। प्रिय रमणी कामिनीने रात्रिमें सुखसे सोते हुए स्वप्नमाला देखी । हाथी, बैल, सिंह, लक्ष्मी, मालायुगल, चन्द्रमा, सूर्य, दो मत्स्य, दो शुभाकार कलश, विमल जल और कमलोंका सरोवर, समुद्र, सिंहासन, विमान, नागलोक, किरणोंसे भास्वर मणिसमूह और दीर्घ ज्वालावलीसे युक्त आग। इस प्रकार स्वप्न देखकर उस धत्ता - देवीने सोते से जागकर, राजासे कहा। उसने भी हँसते हुए उस सतीसे उसका फल बताया ॥३॥ १० ४ जो त्रिभुवनमें स्वपरको जानता है, वह परमात्मा तुम्हारे पुत्र होंगे। यह सुनकर वह सीमन्तिनी हर्षित हो उठी । घरपर श्री, धृति, हो, कान्ति, कीर्ति, सती और बुद्धि आदि आदरणीय देवियाँ आयीं और उन्होंने सुखको उत्पन्न करनेवाली गर्भशुद्धि की । जब छह माह बाकी बचे तो कुबेरने लोगों को आनन्द देनेवाले सोनेकी घरपर वर्षा की। फाल्गुन कृष्णा तृतीयाके दिन, रात्रिके ५ Page #495 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४४८ महापुराण थिउ गभंतरालि जो धणवइ सो अहमिंदु चवेप्पिणु सुहमइ। थुउ अमरिंदचंदधरणिंदहिं। तहु दिर्वसहु लग्गिवि जक्खिदहिं । वुट्ठउं विसरिसेहिं वसुहारहिं । अट्ठारहपक्खंतरमेरहिं । परिवेट्टतइ दिणसंताणइ वरिसकोडिसहसेण विहीणइ । थक्कइ कुंथुणाहणिव्वाणइ पल्लचउत्थभायपरिमाणइ। वरमग्गसिरमासि सिसिरहु भरि पूसजोइ चउदहमइ वासरि । घत्ता-सग्गमग्गसंखोहणु बुहयणदुरियहरु । णाणत्तयसंजुत्तउ णासियजम्मजरु ॥४॥ सत्तमचक्रवट्टि हयपरमउ संभूयउ जिणु अट्ठारहमउ । मंदेरसिहरि तूरणिग्योसहिं ण्हविउ पुरंदरेहिं बत्तीसहिं । णामु करेप्पिणु परमेसहु अरु अम्महि करि अप्पिड आविवि घरु । गउ पोलोमीवइ णियमंदिर वडइ पुण्णवंतु जिणु सुंदरु। हेमच्छवितणु दहदहधणुतणु गरुयारउ गुणगणरंजियजणु । एक्कवीसवरिसहं सहसई सिसु लीलइ थिर डिंभयकीलावसु । एक्कवीसंसहसई मंडलवइ एकवीससहसई पुणु महिवइ । चउदह रयणई णव वि णिहाणइं मुंजिवि पीणिवि दविणे दीणई । अन्तिम प्रहरमें रेवती नक्षत्रमें, जो धनपति, अहमेन्द्र था, शुभमति वह, वहाँसे च्युत होकर, गर्भमें आकर स्थित हो गया। अमरेन्द्र चन्द्र और धरणेन्द्रने स्तुति की। उस दिनसे लेकर यक्षेन्द्रने अठारह पक्षों तक असामान्य स्वर्णधाराकी वर्षा की। कुन्थुनाथके निर्वाणके बाद समयकी परम्परा बीतनेपर एक हजार करोड़ वर्ष कम पल्यका चौथाई भाग जब शेष रह गया, तो शिशिरके भारसे भरे मार्गशीर्षके शुक्ल पक्षकी चतुर्दशीको पुष्य नक्षत्रमें पत्ता-स्वर्गमार्गको क्षुब्ध करनेवाले, बुधजनोंके पापको हरण करनेवाले तीन ज्ञानोंसे युक्त, जन्म और बुढ़ापेका जिन्होंने नाश कर दिया है ॥४॥ ऐसे शत्रुका मद दूर करनेवाले सातवें चक्रवर्ती और अठारहवें जिन उत्पन्न हुए। मन्दराचलके शिखरपर, बत्तीस इन्द्रोंने तूर्योके निर्घोषके साथ उनका अभिषेक किया। परमेश्वरका 'अर' नाम रखकर और घर आकर माताके हाथमें सौंप दिया। इन्द्र अपने घर चला गया। पुण्यवान् सुन्दर जिन बढ़ने लगे। स्वर्णके समान शरीर कान्तिवाले उनका शरीर बीस धनुष प्रमाण ऊंचा था। और वह अपने गुणगणसे जनोंका रंजन करनेवाले थे। बाल क्रीड़ाके वशीभूत वह शिशु इक्कीस हजार वर्ष तक क्रीड़ामें रहा। फिर इक्कीस हजार वर्षों तक वह मण्डलपति रहे फिर इक्कीस हजार वर्ष तक चक्रवर्ती राजा रहे । चौदह रत्न और नौ निधियोंका भोगकर धनसे ४. A देवसहु; P दिवहह । ५. AP परिवड्ढंतह। ६. AP दिणि । ७. P सियमग्गसिर । ८. A सिसिहरभरि; P सिसिरहे भरि । ५. १. K मंदिरसिहरि । २. P एक्कवीससहसहसई। Page #496 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४४९ -६५. ६.११ ] महाकवि पुष्पदन्त विरचित सारयब्भु पविलीणु णियच्छिवि लच्छिविहोउ असेसु दुगुंछिवि । जीविउ देहु असारु वियप्पिवि अरविंदहु महिरजु समप्पिवि घत्ता-खीरवारिपरिपुण्णहिं तारहारसियहिं । हाइवि मंगलकलसहिं सुरपल्हत्थियहिं ॥ ५॥ णिसुणिवि सारस्सयसंबोहणु वइजयंतसिबियहि आरोहणु । करिवि सहेउयवणु तं जेत्तहि गउ तुरिएण महापहु तेत्तहि । मियसिरजुत्तमासि दहमइ दिणि चंदिणि रेवइरिक्खि सुसोहणि । अवरणहइ छट्टेणुववासे णिक्खंतउ सहुँ रायसहासे । लुचिवि कुंतल णिम्मोहालां लिंगु असंगु लेवि णिच्चेलउं । मणपज्जयधरु सुद्धिणिरिक्खहि बीयइ दियहि पइट्ठउ भिक्खहि । चक्कणयरि अवराइयणरवें पाराविउ अमरासुरसुरवें। तहु घरि पंच वि चोज्जई घडियई कुसुमई रयणइं गयणहु पडियई । तवतावें णियतणु तोवंतउ सोलहवरिसई महि विहरतउ । घता-दिक्खावणु आवेप्पिणु कत्तियमासि पुणु ।।। सियबारहमइ वासरि सुरवरणवियगुणु ॥ ६॥ दोनोंको प्रसन्न कर शरद्के मेघको लीन होते देखकर, अशेष लक्ष्मी-विभोगको निन्दा कर जीवन और देहको असार समझकर, अरविन्द (पुत्र) को महाराज्य देकर । घत्ता-क्षीर समुद्रके जलोंसे परिपूर्ण, तार और हारके समान स्वच्छ मंगलकलशोंसे, देवपंक्तियों द्वारा स्नान कराकर ||५|| लौकान्तिक देवोंका सम्बोधन सुनकर, वैजयन्त शिविकापर आरोहणकर, जहाँ वह सहेतुकवन था, वहां महाप्रभु तुरन्त गये। मार्गशीर्षके शुक्ल पक्षकी दसमीके दिन, सुशोभन रेवती नक्षत्र में अपराल में वह छठा उपवास कर एक हजार राजाओंके साथ दीक्षित हो गये। केश लोंच कर निर्मोहसे युक्त असंग चिह्न और दिगम्बरत्व लेकर, वह जिसमें शुद्धिका निरीक्षण है, ऐसी भिक्षाके लिए दूसरे दिन प्रविष्ट हुए। चक्रनगरमें अमरों और असुरोंके समान सुन्दर स्वरवाले राजा अपराजितने उन्हें आहार दिया। उसके घरमें पांचं आश्चर्य प्रगट हुए । पुष्पों और रत्नोंकी आकाशसे वर्षा हुई। तपके तापसे अपने शरीरको तपाते हुए तथा सोलह वर्ष तक धरतीपर विहार करते हुए। घत्ता-दीक्षावन ( सहेतुकवन ) में आकर, सुरवरोंसे जिनके गुण प्रणम्य हैं, ऐसे वह कार्तिक शुक्ला द्वादशीके दिन ॥६॥ ६. १. A सारयस्स । २. AP तावंतह । ३. AP विहरंतहु । ५७ Page #497 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४५० महापुराण [ ६५.७.१ अवरहइ अंबयतलि थक्कर छट्टववासि मोहें मुक्कउ । जायउ केवलि केवलदंसणि आयउ भेसइ अंगौरउ सणि । धरणु वरणु ससि तरणि धणेसरु पवणु जलणु भावेण सुरेसरु । थुणइ अणेयहिं थोत्तपउत्तिहिं समवसरणु किउ विविहविहत्तहिं । तेत्थु णिसण्णएण तं सिट्टाउ जं अवरेहिं मि देवहिं दिट्ठउ । चउ णिरूवि अज्जीव पयासिय रूविखंधदेसाइ वि भासिय । मग्गणगुणठाणाई समासिय जीव सकाय अकाय वि दरिसिय । सत्तपंचणवछविहभेयई एयई अवरई कहियई णेयई। तहु संजाया तहिं मउलियकर गणहर तीस रिद्धिबुद्धीसर । गणमि दहुत्तर वम्महदमणहं तिण्णि तिणि सय सिक्खुय सँवणहं । घत्ता-पंचेतीसंसहसइं भणु अट्ठसयई कियइं॥ तीसणिउत्तई जाणसु मुणिहिं वयंकियई ॥७॥ १० एत्तिये ओहिणाणि तहु हयकलि जिणवरचरणुण्णामियसीसइं मणपज्जयधरा वरचरियह दुसहस वसुसय साहिय केवलि । दोसहसई पणवण्णविमीसइं। चउसहसई तिसयई विक्किरियहं । अपराह्न में आम्रवृक्षके नीचे स्थित हो गये और छठे उपवासके द्वारा मोहसे मुक्त हो गये । केवलदर्शनी वह केवली हो गये। बृहस्पति, मंगल, शनि, धरण (नागकुमारोंका इन्द्र), वरुण, शशि, सूर्य, धनेश्वर (कुबेर), पवन, अग्नि और इन्द्र भावपूर्वक वहां आये। वह अनेक स्तोत्र प्रवृत्तियोंसे स्तुति करता है और अनेक विभाजनोंके साथ समवसरणकी रचना करता है। वहां विराजमान उन्होंने वह कथन किया जो दूसरे देवोंने भी देख लिया। चार द्रव्यों ( धर्म, अधर्म, आकाश और काल ) का निरूपण कर उन्होंने अजीव तत्त्वका प्रकाशन किया। उन्होंने द्रव्यके स्कन्ध और देशका भी कथन किया। संक्षेपमें मार्गणा और गुणस्थानोंकी चर्चा की। सकाम-अकाम जीवोंको भी दरसाया। सात, पांच, नौ और छह भेदवाले इन और दूसरी ज्ञेय वस्तुओंका कथन किया। वहां उनके हाथ जोड़े हुए तीस गणधर हुए। कामदेवका दमन करनेवाले ग्यारह अंगों और चौदह पूर्वोके धारी छह सौ दस मुनि थे। घत्ता-व्रतोंसे अंकित शिक्षक मुनि पैंतीस हजार आठ सौ पैंतीस थे, यह जानो ॥७॥ पापको नष्ट करनेवाले अवधिज्ञानी अट्ठाईस सौ थे। केवलज्ञानी भी इतने ही अर्थात् अट्ठाईस सो। जिनवरके चरणोंमें सिर झुकानेवाले मनःपर्ययज्ञानी दो हजार पचपन थे। श्रेष्ठ ७. १. A भेसउ । २. AP अंगारय । ३. AP णोरूवि । ४. AP समणहं । ५. पंचवीस । ८. १. AP एत्तिय तीयणाणि; T तइयणाणि । Page #498 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४५१ -६५. ९.४ ] महाकवि पुष्पदन्त विरचित सोलहसयई परागमहारिहिं सट्ठिसहासई संजमणारिहिं । सावयाहं पुणु लक्खु भणिज्जइ सुण्णचउक्क छडग्गइ दिज्जइ । लक्खई तिण्णि गेहधम्मत्थहं महिलहं मंगलवविहत्थहं । संखावज्जिएहिं गिवाणहिं खगेमृगेहिं पुत्वुत्तयमाणहिं । एक्कवीससहसई ध्रर्दू माणइं. वरिसह सोलहवरिसविहीणई। भूयलि भमिवि भव्व पहि लाइवि मासमेत्तु णियजीविउ जोइवि । सहुँ रिसिसहसे थिउ संमेयइ मुइवि दिवतणु पडिमाजोयइ। फग्गुणपुरिममासि कर्सणंतिमि दियहि चंदि कयरेवइसंगमि । पुव्वणिसागमि णिक्कलु जायउ गउ तहिं जिणु जहिं गयउ ण आयउ । घत्ता-चउविहदेवणिकायहिं जयजयकारियउ॥ ___ अरु अग्गिदकुमारहिं तहिं साहुक्कारियउ ।। ८॥ अरु अरविंदगब्भकयचारउ अरु अरुहंतु अणंगवियारउ । अरु अरमाणिहीहिं णउ रुञ्चइ अरु अरहिल्ल तच्चु जंगि सुच्चइ । अरु अरसिल्लु अगंधु अरूअउ अरु अरामु अविरामउ हूयउ । अरु अरईरईहिं णउ छिप्पइ अरु अरोसु किह पावें लिप्पइ । चर्या धारण करनेवाले विक्रियाऋद्धिके धारक चार हजार तीन सौ थे। परमागमको धारण करनेवाले श्रेष्ठ वादी मुनि सोलह सौ थे। संयम धारण करनेवाली आर्यिकाएं साठ हजार थीं। श्रावक एक लाख साठ हजार थे। गृहस्थ धर्ममें स्थित तथा हाथमें मंगल द्रव्य लिये हुए तीन लाख श्राविकाएं थीं। देवता संख्या-विहीन थे, खग और मृग पूर्वोक्त मानवाले ( संख्यात ) थे। सोलह वर्ष कम इक्कीस हजार वर्ष पर्यन्त भूतलपर परिभ्रमण कर, भव्योंको पथपर लाकर, अपना जीवन एक माहका देखकर वह एक हजार मुनियोंके साथ सम्मेद शिखरपर स्थित हो गये एवं शरीरको (मोहको) छोडकर प्रतिमायोगमें स्थित हो गये। फागन माहके कृष्ण पक्षको दिन रेवती नक्षत्रमें निशाके पूर्वभागमें वह निष्पाप हो गये, जिन वहां चले गये कि जहां गया हुआ वापस नहीं आता। घत्ता-चार प्रकारके निकायोंके देवोंने जय-जयकार किया। तब अग्नीन्द्रकुमार देवोंने अरह तीर्थंकरका दाह संस्कार किया ॥८॥ अरु-अरविन्दके गर्भमें उत्पन्न शोभा है, अरु-कामको विदारण करनेवाले जिन हैं, अरु-दरिद्रोंके लिए नहीं रुचते, अरु-अहत्का तत्त्व संसारमें स्पष्ट सूचित होता है। अरुरसरहित, अगन्ध और अरूप है । अरु-रति-अरतिके द्वारा स्पृश्य नहीं हैं। अरु-क्रोधसे रहित २. AP°मिगेहि। ३. AP पुवुत्तपमाणहिं । ४. A जुयमाणइ । ५. A°वरिसई हीणई। ६. T चोइवि। ७. AP कलेवरु। ८. A कसणतमि । ९. AP सक्कारियउ। ९. १. AP जणि । २. A किम । Page #499 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४५२ महापुराण [६५.९.५ अरु अरवें गुणेण संजुत्तर अरु अरुणे पँवणे पहु वुत्तउ । अरु अरुयाणिवासु अजरामरु अरु अरुद्ध विहुरेण सुहायरु । अरु अरुहक्खरेहिं जगि भाणिउ अरु अरु बप्प जेण णउ जाणिउ । सो संसारि भमंतु ण थक्कइ अरथुइ करहुं ण सक्कु वि सक्कइ । अरु अरिहरु आवरणु महारउ । __ णिहणउ दंसणणाणणिवारउ । धत्ता-अरतित्थंकरि णिव्वुइ रंजियविउससह ।। हूई णिसुणि सुंभउमहु चक्किहि तणिय कह ॥९॥ १० एत्थु भरहि लंबियधयमालइ रयणसिहरघरि णयरि विसालइ । पहुभूवालु णाम भूमंडणु तहु जायउं परेहिं सहुँ भंडणु। बहुयहिं आहवि एकु णिरुज्झइ बहुयहिं सुत्तहिं हत्थि वि बज्झइ । खज्जइ बहुयहिं भरियभरोलिहिं विसहरु विसदारुणु वि पिपीलिहिं । बहुयहिं मिलिवि माणु तहु खंडिउ तेण वि पुरु कलत्तु घरु छंडिउँ । लोहमोहमयभयजमदूयहु रिसिउ लइउ णियडि संभूयहु । भोयाकंखइ करिवि णियाणउं मुउ लद्धउं महसुक्कविाणउं । सोलहसायराउ सो जइयहुं अच्छइ सुरवर सहुं दिवि तइयहुं । हैं, वे पापके द्वारा कैसे लिप्त होते हैं ? अरु-अशब्द-गुणसे युक्त हैं, अरु - सूर्य और पवनके द्वारा प्रभु कहे जाते हैं । अरु-आरोग्यके निवास हैं, अजर-अमर हैं। अरु-कष्टोंसे अरुद्ध हैं और शुभाकर हैं, अरु-अर्हत् अक्षरोंसे जगमें कहे जाते हैं। हे सुभट, जिसने 'अरु अरु' को नहीं जाना, वह संसारमें भ्रमण करता हुआ कभी विश्रान्ति नहीं पाता। अरहन्तकी स्तुति करने में इन्द्र भी समर्थ नहीं है। मेरे दर्शनज्ञानका निवारण करनेवाले आवरणको नष्ट करनेके लिए अरु-अरिका नाश करनेवाले हैं। पत्ता-अर तीर्थकरके मोक्ष प्राप्त कर लेनेपर विद्वद्सभाको रंजित करनेवाली सुभौम चक्रवर्तीको कथा हुई, उसे सुनो ॥९॥ इस जम्बूदीपमें, जिसमें ध्वजाएं अवलम्बित हैं और रत्नोंके शिखरवाले घर हैं, ऐसे विशाल नगरमें, पृथ्वोका अलंकार भूपाल नामका राजा है। उसको शत्रुओंके साथ भिड़न्त हुई। युद्ध में बहतोंके द्वारा एकको रोक लिया गया। बहत-से धागोंके द्वारा तो हाथी भी बांध लिया जाता है। जिन्होंने वल्मीकको भर दिया है ऐसी बहुत सी चींटियों द्वारा विषसे भयंकर विषधर खा लिया जाता है। बहुतोंने मिलकर उसके मानको खण्डित कर दिया। उसने भी पुर, कलत्र और घरको छोड़ दिया। लोभ, मोह, मद और भयके लिए यमदूत सम्भूत मुनिके पास उसने मुनिव्रत ले लिया। भोगकी आकांक्षाका निदान कर मर गया। उसने महाशुक्र विमानको प्राप्त किया। जब ३. A अरएं। ४. AP वरुणे। ५. A अरुवाणिवासु । ६. AP जेण बप्प । ७. P सभोमह । १०.१. AP भूपाल । २. Pछडिडउ । ३. AP रिसिवउ । ४. AP विवाणउ । Page #500 -------------------------------------------------------------------------- ________________ - ६५. ११.१० ] महाकवि पुष्पदन्त विरचित कार्ले कालु जाम पलट्टइ परिखावंसु सियमंदिरि दुद्धरवइरिवीरसंघारउ सुंदर लक्खणलक्खियकाय उ वीणालाहि मज्झे खामहि सय बिंदु रिंद कुलहंसें सिसु जमयग्गि णाम उप्पण्णउ बालैत्तम्मि तेण से विउ वणु अवरु तहिं जि दढगाहिणरेसरु वेणि मि समउं सोक्खु भुंजे प्पिणु णिउ जिणवरैरिसि सोत्तिउ तावसु मित्तं मित्तु वुत्तु णड जुज्जइ वि तासु वयणु अवहेरिउ एत्थु कहंतरु अवरु पवट्टइ । सहसबाहु णरवइ कोसलपुरि । कण्णाकुज्जहि राणउ पारउ । धत्ता-णाम विचित्तमइ सइ तेण मुणालभुय ॥ सहसबाहुणरणाहहु दिण्णी नियय सुय ||१०| ११ तहि कयवीरु णाम सुउ जायउ । पारयेविहिणिहि सिरिमइणामहि । णियजसस सहरधव लियवंसें । जणणिमरणसोएं णिग्विण्णउ । जग जाय तवति तवोह | तासु मित्तु हरिसम्मु सुदियवरु । जइ जाया इच्छिउ बडे लेपिणु । मोहमंदु मिच्छावसु । तावसमग्गे जम्मु ण छिज्जइ । उत्तरु किंपि वि णेय समीरिउ । हू ४५३ १० १० तक सोलह सागर समय है तबतक वह समर्थं सुरवर स्वर्ग में रहा । जबतक समयके द्वारा समय पलटता है और यहाँ दूसरा कथान्तर प्रारम्भ होता है। सफेद घरोंसे युक्त अयोध्यानगर में प्रवर इक्ष्वाकुवंशीय राजा सहस्रबाहु था । दुर्धर शत्रुवीरोंको संहार करनेवाला कान्यकुब्जका राजा पारत था । ५ धत्ता - उसने अपनी मृणालके समान भुजाओंवाली सती कन्या विचित्रमती राजा सहस्रबाहुको दे दी ||१०॥ ११ उसका लक्षणोंसे लक्षित शरीर सुन्दर कृतवीर्यं नामका पुत्र हुआ । वीणा के समान बोलनेवाली मध्य में क्षीण श्रीमती नामकी पारतकी बहनसे, नरेन्द्रकुलके हंस अपने यशरूपी चन्द्रमासे वंशको धवलित करनेवाले शतबिन्दुको जमदग्नि नामका पुत्र उत्पन्न हुआ । माताकी मृत्यु के शोक से वह विरक्त हो गया । बचपन में उसने वनमें तपस्या की और जगमें वह तपसे तीव्र तपस्वी के रूप में प्रसिद्ध हो गया । वहाँपर एक दृढ़ग्राही राजा था । श्रेष्ठ द्विजवर हरिशर्मा उसका मित्र था । साथ-साथ सुखका उपभोग कर दोनों अपना इच्छित व्रत लेकर यति हो गये । राजा ( दृढ़ग्राही ) जैनमुनि हुआ और मोहसे मूर्ख और मिथ्यात्वके वशीभूत होकर तापस हो गया । मित्रने मित्रसे कहा कि यह ठीक नहीं है, तुम्हें तपस्वी मार्ग में अपना जन्म नष्ट नहीं करना चाहिए । ब्राह्मण ५. AP°वंसितह मंदिरि । ६. AP सहसबाहं । ११. १. A सुंदर । २. AP हिणिहि । ३. A बालत्तणि जि । ४. AP तउ तिव्वु । ५. AP वउ । ६. A वर सिरि सोमित्तिउ; P वररिसि सोमित्तिउ । ७. P मेहमदु । Page #501 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४५४ महापुराण [ ६५. ११. ११जिणवरहरपयाई सुमरेप्पिणु बेणि मि मुय संणासु करेप्पिणु । खत्ति मरिवि जाउ सोहम्मइ बंभणु पुणु जोइससुरहम्मइ । धत्ता-चिंतिउ पत्थिवदेवें सुहि वसुमलमइहि ॥ तउ अण्णाणु चरेप्पिणु हुउ जोइसगइहि ॥११॥ १२ मई सयणेण वि णउ उत्तारिउ जायउ बंधु' दीहसंसारिउ । इय णिज्झाइवि दुक्कउ तेत्तहिं अच्छइ सुरेवरु जोइस जेत्तहिं । णेहपरव्वसेहिं भुयमंडिउ दोहं मि एक्कमेक्कु अवलंडिउ । अवलोइवि जोइसु मउलियकरु आहासइ विहसिवि कप्पामरु । पई जिणवयणु बप्प अवगण्णिउ अण्णाणु जि गुरुयारउं मण्णिउ । णचइ देउ गेयसरु गायइ महिलउ माणइ वजउ वायइ। डहइ पुरइं रिउवग्गुं वियारइ एहउ किं संसारहु तारइ। णिकलु किं सिद्धंतु समासइ विणु वयणेण सह कहिं होसइ । सर्वे विणु कहिं सत्थपरिग्गहु पई कुमग्गि किं किउ णियणिग्गहु । १० तं णिसुणिवि इयरेण पवुत्तउं मइंग सिवागमि इह तउ तत्तउं । घत्ता-गउरीमुहकमलालिहि वरगोवइगइहि ॥ __ भासिउ किं पि ण बुज्झिउ देवहु पसुवइहि ॥१२॥ उसके वचनोंकी उपेक्षा की। उसने कुछ भी उत्तर देने की चेष्टा नहीं की। जिनवर और शिवके चरणोंका स्मरण कर दोनों संन्यासपूर्वक मर गये । क्षत्रिय (राजा) मरकर सौधर्म स्वर्गमें उत्पन्न हुआ और ब्राह्मण ज्योतिषदेवके विमानमें । घत्ता-राजा देवने विचार किया कि मित्र अज्ञानतपका आचरण कर आठों मलोंसे युक्त मतिवाले ज्योतिषी घरमें उत्पन्न हुआ है ।।११।। १२ स्वजन मैंने उसका उद्धार नहीं किया और मेरा बन्धु दीर्घ संसारी हो गया। यह सोचकर वह वहां पहुंचा, जहांपर वह ज्योतिष सुरवर था। स्नेहके परवश होकर दोनोंने बाहु फैलाकर एक दूसरेका आलिंगन किया। हाथ जोड़े हुए ज्योतिष देवको देखकर कल्पवासी देव हंसकर कहता है- "हे सुभट, तुमने जिनवचनोंकी उपेक्षा की, अज्ञानको हो तुमने बहुत बड़ा माना। देव (शिव) नृत्य करता है, गीत स्वर गाता है, महिला (पार्वती) को मानता है। वाद्य (डमरू) बजाता है, नगरों (त्रिपुर ) को जलाता है, शत्रुवर्गका नाश करता है। यह क्या संसारसे तार सकता है। सदाशिव क्या सिद्धान्तका कथन कर सकता है, बिना वचनके क्या शब्द हो सकता है ? शब्दके बिना शास्त्रकी रचना कैसे हो सकती है ? तुमने कुमागमें अपना तप क्यों किया।" यह सुनकर दूसरेने कहा-"मैंने शिवागममें इष्ट तपका आचरण नहीं किया। घत्ता-पार्वतीके मुखरूपी कमलके भ्रमर, बैलपर ( नन्दीपर ) चलनेवाले पशुपति देवका कहा हुआ मैंने कुछ भी नहीं समझा" ।।१२।। १२. १. A द ह बंधु । २. A जोइससुरवरु । ३. AP गरुयारउ । ४. AP सई । Page #502 -------------------------------------------------------------------------- ________________ -६५. १४. २ ] महाकवि पुष्पदन्त विरचित ४५५ १३ ता पभणइ सुरु सम्माइटिउ जो तुम्हारइ णि?इ णिट्ठिउ । सो दावहि तावसु जो गयमलु आउ आउ वच्चहुं धरणीयलु । सुहिणा उत्तउ मयणणिवारउ पेच्छेहि रिसि जमयग्गिभडारउ । ते बेण्णि वि जैण गुणगणसिक्खहि सजण लग्गा धम्मपरिक्खहि । गय कलविंकमिहुणु होएप्पिणु थिउ मुणिमीसियवासु रएप्पिणु । कणु चुणंति कीलंति भमंति वि तावर्समासुरवासि रसंति वि । अण्णहि दिणि जंपइ चिडउल्लउ कंति कति हउं भर्मणपियल्लउ । गच्छमि लग्गउ एत्थु जि अच्छहि कल्लइ आयहु महु मुँहुं पेच्छहि । ता चिडउल्लियाइ पडिबोल्लित हियवउ णाह महारउ संल्लिउ । पइं विणु एकु वि दिवहु ण जीवमि अज्ज वियालइ जमपुरि पावमि । करेंहि सवह जइ परइ ण आवहि तो मई णिच्छउँ मुइय विहावहि । घत्ता-भणइ पक्खि हलि पक्खिणि परइ ण एमि जइ । । हउं एयहु जमयग्गिहि दुक्किउ लेमि' तइ ॥१३॥ तं णिसुणिवि सयबिंदुहि णंदणु अरि अरि पिसुण पक्खि किं बुक्कउं पभणइ रोसजलणजालियतणु । महुँ गुणवंतहु किं किर दुक्किउं । तब वह सम्यग्दृष्टि देव कहता है कि जो तुम्हारी निष्ठा ( साधना ) में लीन है, और जो गतमल है, ऐसे तापसको बताओ। आओ-आओ, धरणीतलको चले। सुधिदेवने कहा-कामका निवारण करनेवाले आदरणीय जमदग्नि मुनिको देखिए। वे दोनों ही देव, जिसमें गुणगणकी शिक्षा है, ऐसी धर्म परीक्षामें लग गये। वे दोनों चटक पक्षीका जोड़ा बनकर मुनिकी दाढ़ीमें घोंसला बनाकर रहने लगे। वे दोनों कण चुगते क्रीड़ा करते और भ्रमण करते । तापसके दाढ़ीरूपी घरमें रहनेवाले वे दोनों शब्द भी करते। एक दूसरे दिन चिड़ा कहता है-'हे प्रिये, प्रिये, मैं भ्रमण-प्रिय हूँ। मैं जाता हूँ। तुम यहां लगकर रहो। कल आये हुए मेरा मुँह तुम देखोगी। तब चिड़ियाने उत्तर दिया कि हे स्वामी, मेरा हृदय पीड़ित है, तुम्हारे बिना मैं एक दिन जीवित नहीं रह सकती, मैं आज ही शाम यमपुर चली जाऊंगी। तुम शपथ लो। यदि तुम कल तक नहीं आओगे तो तुम मुझे निश्चित रूपसे मरा हुआ देखोगे ? पत्ता-चिड़ा कहता है-“हे चिड़िया रानी, (पक्षिणी ) यदि मैं कल तक लौटकर नहीं आया तो मैं इस जमदग्निके पापको ग्रहण करूँ" ॥१३॥ १४ यह सुनकर क्रोधको ज्वालासे जिसका शरीर जल रहा है, ऐसा शतबिन्दुका पुत्र बोला, १३.१. AP वच्चहं । २. P पच्छहि । ३. A जिण । ४. A तावसभासुर। ५. A रमंति। ६. A भवण: P भणमि । ७. महं । ८. A डोल्लिउ । ९. A करहु । १०. A णिच्चउ । ११. A लेवि । १४.१. A पक्खि पिसुण । २. AP बुक्किउं । Page #503 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४५६ ५ १० जइ दुकिउ तो पईं संघारमि एव चवेष्पिणु कयसंकीलणु ल्ल थिय अंबरि जाइवि तत्रहु ण जुत्तरं जीवविणासणु ता भाइ छारेणुद्धलिउ किं मई कियेउ पाउं तवचरणें ता घरपक्खि कहइ लइ चंगउं परं किं वेयवयण ण वियाणिउं सुमुहकमलु ण कहिं वि णिहालिडं थि अपुत्तहु गइ विप्पागमि महापुराण तणुरुहकारणि मग्गइ कण्णउ वेयालु व वियरालु जडालउ थेरु जराजज्जरि ण लज्जइ कीलंती अण्णेक्क पियारी घता - अण्णाणि तवभट्ठर मायावयणहउ || सो त पारयणामहु मामहु पासि गउ || १४ | १५ हत्थे हि सिवि पेडु समारमि । करहि णिहिट्टिउसउणिणिहेलणु । भणिउ तवसि तेर्ण पोमाइवि । महिताय खम मुणिहिं विहूसणु । तुम्हहिं किं झाहु चालिङ । गणइति यणपूयाकरणें । पईं तवतायें ताविडं अंगडं । वउ कलत्तु ण कत्थु विमाणि । दुरि अप्पा किं इलिउ । ता संजाय चिंत जइपुंगमि । कज्जलकं चणमरगयवण्णउ । अवलोएप्पिणु णट्ठउ बालउ । घरघरिणीवाएं किह भज्जइ । कुरि रेणुधूसर लहुयारी | [ ६५. १३.४ "अरे अरे दुष्ट पक्षी, तूने क्या कहा, मुझ गुणवान् में क्या पाप है ? यदि दुष्कृत है तो तुम्हें मारता हूँ । हाथसे रगड़कर चूर्ण-चूर्ण करता हूँ ।" यह कहकर, जिसने परिहास किया है, ऐसे पक्षियों के घोंसलेको वह हाथसे रगड़ता है। दोनों पक्षी जाकर आकाश में स्थित हो गये - प्रशंसा करते हुए । तापससे कहा कि तपस्वी के लिए जीवका नाश करना ठीक नहीं । हे तात, क्षमा कीजिए, क्षमा मुनियोंका आभूषण है । तब भस्म विभूषित वह मुनि कहते हैं कि तुम लोगोंने हमें ध्यानसे क्यों विचलित किया । गणपति और शिवकी पूजा और तपश्चरण करके मैंने क्या पाप किया ? इसपर गृहपक्षी कहता है - " अच्छा लो, तुमने तपतापसे अपने शरीरको सन्तप्त किया । पर क्यों तुमने वेद वचन नहीं जाना । तुमने नवकलत्रको भी नहीं माना। तुमने पुत्रके मुखकमलको कभी भी नहीं देखा । तुमने अपनेको पापसे मलिन क्यों किया ? ब्राह्मणोंके आगमके अनुसार पुत्रहीन व्यक्तिको कोई गति नहीं है ।" ( यह सुनकर ) यतिवरको चिन्ता पैदा हो गयी । घत्ता - अज्ञानी तपसे भ्रष्ट और मायावचनोंसे आहत वह अपने पारत नामके मामाके पास गया || १४॥ १५ पुत्रकी इच्छासे वह कन्या मांगता है। काजल, स्वर्ण और मरकतके रंगका वह वेताल के समान विकराल और जटासे युक्त था । उसे देखकर, कन्याएँ भाग गयीं। बुढ़ापेसे जर्जर वह बूढ़ा जरा भी नहीं लजाया । घर और गृहिणीकी बातसे वह कैसे भग्न होता ? खेलती हुई एक और ३. AP पट्टु । ४. AP हि । ५. AP कथउ । ६. A सुरपक्खि; T घरपक्खि । ७. AP पई | १५. १. AP घरि घरिणी । २. Pधूसरि । Page #504 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४५७ -६५. १६.८] महाकवि पुष्पदन्त विरचित रेणुय भणिवि तेण हकारिवि कयलीहलु दंसेवि पैयारिवि । वइसारिय अंचोलिहि लुद्धे भणिउं अणंगसरोह णिरुद्धे । णिसुणि ससुर एयइ हउं इच्छिउ मुद्धइ एंतु मणेण पडिच्छिउ । एह देवि लहुई किं वुइ जाहि महारउ बोल्लिउ रुच्चइ । घत्ता-णासउ तणुगरुयत्तणु पत्थिवपुत्तियहं ॥ वडियजोठवणगठवह मज्झु विरत्तियह ॥१५॥ कण्णउ खुजियाउ तहु सावें कण्णाकुजणयरु तं घोसिउ एयहं पासिउ एह रवण्णी गउ वणवासहु महिहरकंदरि जाया तणुरुह दोणि महार्णीय दोहि मि णिहियई जयजसधामई रेणुयभायरु साहु अरिंजउ आउ णिहालिवि ससइ णमंतिइ १६ जायउ तिव्वतवोहपहावे । देवहिं जैडचरित्तु उवहासिउ । देहि मझु ता ताएं दिण्णी। तहिं णिवसंतहं ताहं सणिज्झरि । दोण्णि वि चंद सूर णं णहचुय । इंदसेयरामंतई णामई। रिद्धिवंतु तवतत्तु सुसंजउ । मग्गिउ किं पि हसंतहसंतिइ। धूल-धूसरित छोटी प्रिय कन्याको रेणुका कहकर पुकारा और केलेका फल दिखाकर उसे वंचित कर उस लोभीने उसे गोदमें बैठा लिया । कामदेवके तीरोंसे घायल वह बोला, 'हे ससुर, सुनिए । उसके द्वारा मैं चाहा गया हूँ। आते हुए मुझे मुग्धाने मनसे स्वीकार किया है। यह देवी है, इसे छोटा क्यों कहा जाता है ? कि जिसे हमारा बोलना अच्छा लगता है। धत्ता-मुझसे विरक्त तथा जिनका यौवनगर्व बढ़ा हुआ है ऐसी पार्थिव कन्याओंके शरीरोंका गौरव नष्ट हो जाये ॥१५॥ १६ उसके शाप और तीव्र तपके प्रभावसे कन्याएं कुबड़ी हो गयीं । उसे कन्याकुब्ज (कान्यकुब्ज) नगर घोषित कर दिया गया। देवोंने उसके ( जमदग्नि ) मूर्खचरितका उपहास किया। इनकी तुलनामें यह सुन्दरी है, यह मुझे दे दो। तब पिताने उसे दे दिया। वनवासके लिए वह झरनोंसे युक्त पर्वतकी कन्दरामें चला गया। वहां निवास करते हुए उनके दो महाबाहु पुत्र हुए। दोनों मानो आकाशसे च्युत सूर्यचन्द्र थे। जय और यशके घर दोनोंके नाम इन्द्रराम और श्वेतराम रखे गये। रेणुकाके भाई मुनि अरिजंय ऋद्धिसे युक्त, तपसे सन्तप्त और सुसंयमी थे। वह उसे ३. A वियारिवि; PT पवियारिवि । ४. A अच्चो लिहि । ५. AP देहि । ६. लहुधी; P लहुवी । ७. P वडगरुयं । १६. १. AP कण्णाखुज्जु । २. A तह घोसिउ । ३. A कुडचरित्त। ४. A महन्भुय । ५. A दिण्णई । ५८ Page #505 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४५८ १० महापुराण [६५. १६.९जइयतुं महु विवाहु किउ ताएं तइयहुं धणु ण दिण्णु पई भाएं। अज्जु देहि बंधव जैइ भावइ . जेण दुक्खु दालिद वि णावइ । घत्ता-भणइ मुणीसरु सुंदरि छिंदैहि कुमयमइ ॥ दसणणाणचरित्तई रयणई तिण्णि लइ ।।१६।। १७ ता सम्मत्तु वियारे सहियउ सावयवउ मुद्धइ संगहियउ। तुट्ठ भडारउ सुट्ठ वियक्खणु करुणे करिवि सबहिणिणिरिक्खणु । परसुमंतु परिरक्खणु देते दिण्णी कामधेणु भयवंत । हूई रेणुय ताइ कयत्थी पभणइ भिक्खुहि पंजलिहत्थी । तुम्हारिसहं सजीउ वि देतहं दीणुद्धरणु सहाउ महंतहं । ससहि महंतु हरिसु पयणेप्पिणु गउ रिसि धम्मविद्धि पभणेप्पिणु । कामधेणु हियइच्छिउ दुभइ तं तावसकुडुंबु तहिं रिज्झइ । अण्णहि वासरि सुरगिरिधीरे , सहसबाहु संजुउ कयवीरें। गहणणिहेलगु छुडु जि पइट्ठउ राउ तवोहणेण ते दिट्ठउ । घत्ता-अब्भागयपडिवत्तिइ भोयणु दिण्णु तहु ॥ हिर भिण्णउं दोहं मि कुअरहु पत्थिवहु ॥१७॥ देखने के लिए आये । प्रणाम करते हुए बहन ने हंसी-हँसीमें कुछ तो भी मांगा-"जब पिताने मेरा विवाह किया था तो तुम भाईने मुझे कुछ भी धन नहीं दिया था। हे भाई, यदि अच्छा लगे तो मुझे आज दो। जिससे दुख और दारिद्रय न फटके।" घत्ता-मुनीश्वर कहते हैं- "हे सुन्दरि, अपनी कुमतबुद्धिको दूर करो और सम्यक् दर्शन, ज्ञान और चरित्र ये तीन रत्न स्वीकार करो" ||१६|| तब उस मुग्धाने ज्ञानके साथ सम्यक्त्व श्रावक व्रत स्वीकार कर लिये। अत्यन्त विचक्षण अपनी बहनसे भेंट करनेवाले आदरणीय मुनि परम सन्तुष्ट हुए और करुणा कर उसे परिरक्षण मन्त्र सहित फरसा देते हुए उन्होंने ज्ञानवान् एक कामधेनु दो। रेणुका उससे कृतार्थ हो गयी। हाथ जोड़कर उसने महामुनिसे कहा-"अपना जीवन भी देनेवाले आप जैसे महापुरुषोंका स्वभाव ही दोनोंका उद्धार करना है।" इस प्रकार अपनी बहन के लिए महान् हर्ष उत्पन्न कर और धर्मवृद्धि हो-यह कहकर वह मुनि चले गये। वह कामधेनु इच्छानुसार दुही जाती और वह तपस्वी परिवार वहाँ सम्पन्न हो गया। दूसरे दिन सुमेरुपर्वतके समान धोर कृतवीरके साथ सहस्रबाहु आया। वह शोघ्र तापस-गृहमें प्रविष्ट हुआ। तपोधन ( जमदग्नि ) ने राजाको देखा। घत्ता-अभ्यागतको ( आतिथ्यकी ) परम्पराके अनुसार उसके लिए भोजन दिया गया। राजा और कुमार ( कृतवीर ) का हृदय आश्चर्यसे चकित हो गया ॥१७|| ६. A जं भावह । ७. A दालिद्द ण आवइ; P दालिद्द वि ण आवइ । ८. A छडुहि । १७. १. A सुद्धे । २. P पररक्ख ण । ३. P तें। ४. P तहिं । ५. AP हियव । ६. A कुमरहु । Page #506 -------------------------------------------------------------------------- ________________ -६५.१९.३ ] महाकवि पुष्पदन्त विरचित १८ णियजणणीसस णविवि नियच्छिय अम्मि अम्मि भोयणु भल्लारडं एहउं नृवहं मिणउँ संपज्जइ अक्खि रेणुयाइ विह से पिणु ताइ वुत्तु अम्हहं चिंतिउ फलु जं अंबाइ एम आहासिउँ रयणई होंति महीयलवालह तासु वि तहिं जि चित्त आसत्तउं चउरासमगुरु रयणिहिं अंच धत्ता-गाइ ण देमि म पत्थहि तो तं सुणिवि तेण महिणाहें झत्त अमरवरसुरहि हड्डिय धरइ जमयग्गि ण संकइ माच्छिय कयवीरें पुच्छिय । जहिं चक्खिज्जइ तहिं रससारउं । तुम्ह तावसाहं हि जुज्जइ । ग बंधव सुरघेणु देष्पिणु । तो पुणु वणि भुंजहुं दुर्महलु | तणएं तं णिपिउहि पयासिउ । उ तवैसिद्दिपसरियजडजालहं । कयवीरें कर मडलिवि वुत्तरं । दिव्वगाइ दिय देहि म वंचहि । अरितरुणिय र सिहि । विणु गाइइ अम्हारइ ण सरइ होमविहि || १८ || १९ गोहणद्धे णं वणवाहें । कंचणदामइ धरिवि णियड्डिय । रेणु कल करहुं ण थक्कइ । १८ अपनी माँकी बहनको प्रणाम कर कृतवीरने उसे देखा । मौसीसे उसने पूछा, "हे माँ, हे मां, भोजन बहुत अच्छा है, जहांसे भी चखो, वहींसे रसमय है । ऐसा भोजन तो राजाओंके लिए भी सम्भव नहीं है । तुम तपस्वियोंके लिए यह कैसे प्राप्त होता है ?" तब रेणुका हँसकर बोली, "मेरा भाई सुरधेनु देकर गया है, हे पुत्र, उसके द्वारा हमारे लिए चिन्तित फल मिलते हैं, नहीं तो वनमें हम वृक्षोंके फल खाते हैं ।" जब मौसीने इस प्रकार कहा तो पुत्रने यह अपने पिता के लिए बताया कि रत्न धरतीका पालन करनेवालोंके होते हैं न कि तपस्याकी आगसे जटाजाल बढ़ानेवालोंके। उसका (सहस्रबाहुका ) चित्त भी उसमें आसक्त हो गया । कृतवीरने उससे हाथ जोड़कर कहा, "चारों आश्रमोंके गुरु (राजा) की तुम रत्नोंसे अर्चा करो। हे द्विज, तुम दिव्य गाय दो, धोखा मत दो ।" ४५९ घत्ता - ( द्विजने कहा ) - शत्रुरूपी वृक्षोंके समूह के लिए आगके समान हे ( कृतवीर ), मैं राजाके लिए गाय नहीं दूँगा । गायके बिना हमारी यज्ञविधि पूरी नहीं होगी || १८ || १८. १. AP णिवहं । २. Pण वि । ३ AP दुमफलु । ४. णियपियहि । ५. A तवसियपसरियं । १९. १. Pता तें सुणिवि । २. AP महिड्डिय । १० १९ तब गोधन के लोभी उस राजाने मानो भीलके समान महा ऋद्धि सम्पन्न वह सुरधेनु स्वर्णकी श्रृंखलासे पकड़कर खींच ली । जमदग्नि बाहुओंसे उसे पकड़ता है, शंका नहीं करता, Page #507 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४६० महापुराण [६५. १९. ४तवसिहि करु करेण आच्छोडिउ णिञ्चलु मेइणियलि सो पाडिउ । णीसारिय णंदिणि मढवासहु णं णियजीयवित्ति तणुदेसहु । उद्धाबद्धणिविडजडमंडलु सवणोलंबियतंबयकुंडलु । सोत्तरीयउववीययउरयलु धूलिधवेलु अवलोइयमुयबलु । बद्धतोणु परिवढियअमरिसु धाइड सर मुयंतु रणि तावसु । दोण्णि तिण्णि चउ पिच्छंचिय वर पंच सत्त णव दह चंचलयर। बारह तेरह पुणु पण्णारह सोलह बाण मुक सत्तारह । णहयलुसरसंछण्णु ण दीसइ सहसबाहु णियरहियहु भासइ । घत्ता-वाहि वाहि रहु तुरिएं संघारमि कुमइ ॥ ___ एहा महियलि जइ जइ तो केहा णिवइ ।।१९।। २० बाणहिं बाण हणेप्पिणु विद्धउ णं चंदणतरु णायहिं रुद्धउ । जइ विचित्तमइदइएं घाइउ सयबिंदुहि तणुरुहु विणिवाइउ । णाहमरणि दुक्खेण विसट्टइ गाइ ण जाइ हयवि पलट्टइ। महिपलोट्ट णियसामि णिहालइ पुच्छि विजइ जीहइ लालइ । रेणुका कलकल करते हुए नहीं थकती। तपस्वीके हाथको उसने अपने हाथसे झकझोर दिया और उसे अचेतन धरतीपर गिरा दिया। आश्रमसे नन्दिनी निकाल ली गयी मानो शरीरप्रदेशसे अपनी जीववृत्ति निकाल ली गयी हो। जिसका निविड जटामण्डल ऊपर बंधा हुआ है, जिसके लाललाल कुण्डल कानों तक लटक रहे हैं, जो वक्षपर उत्तरीय और यज्ञोपवीत पहने हुए हैं, जो धूलसे धूसरित है और बार-बार अपनी भुंजाएं देख रहा है, जिसने तूणीर ( तरकस ) बांध रखा है, जिसका अमर्ष बढ़ रहा है ऐसा वह तपस्वी ( जमदग्नि ) तीर छोड़ता हुआ युद्ध में दौड़ा। उसने पुंखसे शोभित दो, तीन, चार, पांच, सात, नो और दस, बारह, तेरह फिर पन्द्रह, सोलह और सत्तरह चंचल तीर छोड़े। तीरोंसे आच्छन्न आकाश दिखाई नहीं देता। तब सहस्रबाहु अपने सारथिसे कहता है पत्ता-अश्वसे शीघ्र-शीघ्र रथ बढ़ाओ, मैं उस कुमतिको मारूंगा। यदि धरतीपर इस प्रकारके यति हैं, तो राजा किस प्रकारके होंगे ॥१९॥ २० तीरोंसे तीरोंको आहत कर उसने उसे विद्ध कर दिया, मानो चन्दनवृक्षको नागोंने अवरुद्ध कर लिया हो । विचित्रमतिके पति ( सहस्रबाहु ) ने यतिको आहत कर दिया। शतबिन्दुका पुत्र मार डाला गया। अपने स्वामीके मरनेपर गाय दुःखसे आहत हो उठती है, वह आगे ३. A तहिं पाडिउ । ४. AP adds after this : चल्लिउ लेवि जाम णियवासह ( A णियदेसह ) । ५. A omits this foot ६. P तणु देतहु । ७. A समणोलंबिय। ८. A सोत्तरीउ । ९. A धवलु। १०: AP सर। ११. A णहयलु संछण्णउ उ दीसइ; Pणहयलु उण्णु ण बाणहिं दोसइ । १२. वाहु वाहु । २०. १. AP चंदणतरु णं । Page #508 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४६१ -६५. २१.९] महाकवि पुष्पदन्त विरचित दुद्धे सिंचइ वयणु समिच्छइ ओरसंति णियडुल्लइ अच्छइ । जाम ताम णियव इरिहिं चप्पिवि रोवइ रेणुय विहुरु वियप्पिवि । हा हा कंत कंत किं सुत्तर कि ण चवहि महु काई विरत्तउ। मुच्छिओ सि किं तवसंतावें कि परवसु थिउ झाणपहावें। लइ कुसुमाइं घट्ट लइ चंदणु करहि भडारा संझावंदणु । घत्ता-उढि णाह जलु ढोवहि तण्हाणिरसणउं ॥ करि सहवासियहरिणहं करयलफंसणउं ॥२०॥ २१ दावहि एयहु कुवलयकतिहि जलु होमावसेसु सिसुदंतिहि । उट्ठि णाह तुहुं एक्कु जि जाणहि तणयहं वेयपयई वक्खाणहि । तेहिं वि अजु काई सुइराविउं अवरु किं पि किं दुग्गि विहाविउ । जहिं गय कंदमूलफलगुंछेह तहिं किं कमि णिवडिय खलमेच्छह । ण मुणंति जं जणयहु जायउ ता तहिं सुयजुवलुल्लउं आयउं । आर्यण्णवि तहिं जणणिहि रुण्णउं पिउमडउल्लउं बाणविहिण्णउं । जाईवि दोहि मि थीयणसारी पुच्छी अम्माएवि भडारी । भणु भणु केणे ताउ संघारिउ केण संपाणणासु हक्कारिउ । कुलिसिहि कुलिसु केण मुसुमूरिउ सेसफडाकडप्पु किं चूरिउ । नहीं जाती, ( सींग मारकर ) पीछे हट आती है। धरतीपर पड़े हुए अपने स्वामीको देखती है। पूंछसे हवा करती है, जीभसे चाटती है। दूधसे सींचती है, उसका मुख देखती है, चिल्लाती है और जब उसके निकट रहती है, तबतक अपने शत्रुओंके द्वारा घिरी हुई रेणुका दुखका विचार कर रोती है, "हा-हा हे स्वामी, तुम क्यों सो गये ? मुझसे बोलते क्यों नहीं, मुझसे विरक्त क्यों हो? तपके सन्तापसे मूच्छित क्यों हो? ध्यानके प्रभावसे परवश क्यों हो? लो ये फूल, लो यह चन्दन घिसा । हे आदरणीय, सन्ध्यावन्दन करिए । पत्ता-हे स्वामी, उठिए । प्यासको दूर करनेवाला जल ग्रहण करिए और सहवास करनेवाले हरिणोंका करतलसे स्पर्श कीजिए ? ॥२०॥ कुवलयके समान कान्तिवाले बालगजको होमावशेष जल दिखाओ। हे स्वामी, तुम उठो । एक तुम्हीं वेदपदोंको जानते हो और बच्चोंके लिए उनकी व्याख्या करते हो। उन्होंने भो आज क्यों देरी कर दी? क्या कुछ और वनमें उन्होंने देख लिया है ? जहाँ कन्दमूल और फलके गुच्छोंके लिए गये हुए वे क्या दुष्ट म्लेच्छोंके हाथ पड़ गये हैं कि जो वे पिताकी मृत्युको नहीं जानते?" इतने में वे दोनों पुत्र वहां आ गये। वहां अपनी मांका रोना सुनकर और पिताके शवको तीरोंसे छिदा हुआ देखकर दोनों, स्त्रीजनमें श्रेष्ठ आदरणीय माता रेणुका देवीसे पूछा-"बताओबताओ, किसने पिताको मारा ? किसने अपने प्राणोंके विनाशको ललकारा है ? वज्रसे वज्रको २. A णियडुल्लिय; P णियदुल्लइ । ३. A णियवइउरि। २१.१. AA दुग्गु । २. AP गोंछहं । ३. AP जणणह। ४. A आयण्णिवि तहिं; P आयण्णंतहि । ५. A जोयवि । ६. P ताउ केण । ७. A सुपाणणासु । Page #509 -------------------------------------------------------------------------- ________________ महापुराण [६५. २१. १० १. केसरिकेसरग्गु किं छिण्णउं केण गरलु हालाहलु चिण्ण उं । केण सदेहु हुणिउ कालाणणि को पइट्ट वइवसमुहघंधलि । घत्ता-इजइ कहिउ रुयंतिइ भोयणरिद्धि भरि ।। सहसबाहु कयवीरु वि मुंजिवि मझु घरि ॥२१॥ २२ जहिं भुत्तउं तहिं भाणउं भिंदिवि कंतु महारउ कंडहिं छिदिवि । गेय रिउ हरिवि महारिय धेणुय ता संथविय संपुत्तिहिं रेणुय । गज्जिवि पुणु वि रोसरसभरियउ णयणजुयलजलु जणणिहि पुसियउ । ता जेट्ठहु उवइट्ठउ मायइ परसुमंतु दिण्णासीवायइ । गय बेण्णि मि जण वीरं महाइय तं साकेयणयक संपाइय । करि तुरंगु रहवरु णरु णावइ दस दिसु चडुलु परसु परिधावइ । लंबिरकेसइं भउहाभीसई पिउपुत्तहं खणि छिण्णई सीसई । णासंत वि खत्तिय णिक्खत्तिय वइवसमुहकुहरंतरि घत्तिय । जो भूआलु णाम चिरु राणउ जो तउ चरिवि मरिवि सणियाणउ । १० देउ महासुकंतरि जायउ । जो पुणरवि जम्मंतरि आयउ । समलं तेण गम्भेण पलाणी सइ विचित्तमइ णामें राणी। किसने चूर-चूर किया है ? उसने शेषनागके फनसमूहको क्यों चूर-चूर किया है ? सिंहके अयालके अग्रभागको किसने छुआ? गरलविषको किसने ग्रहण कर लिया है ? किसने कालाननमें अपने शरीरको होम दिया है ? यमकी मुखरूपी विडम्बनामें कोन पड़ गया है ?" घत्ता-आदरणीया ( मां ) ने रोते हुए कहा, "भोजनकी ऋद्धिसे भरपूर मेरे घर में भोजन करके सहस्रबाहु और कृतवीर-॥२१॥ २२ जिस पात्र में उन्होंने खाया, उसीमें छेद कर और मेरे स्वामीको तीरोंसे छेदकर दुश्मन हमारी गायका हरण कर ले गया।" तब पुत्रोंने अपनी मां रेणुकाको सान्त्वना दी। फिर क्रोधके रससे भरे हुए उन दोनोंने गरजकर मांको दोनों आंखोंके आँसू पोंछे। जिसने आशीर्वाद दिया है ऐसी माने, तब बड़े पुत्रके लिए परशुमन्त्रका उपदेश दिया। वीर और महा-आहत वे दोनों गये और उस साकेत नगर पहुंचे। हाथी-घोड़ा, रथवर और मनुष्यको भाँति वह चंचल फरसा दसों दिशाओंमें दौड़ता है। पिता-पुत्रके लम्बे केशवाले, भौंहोंसे भयंकर सिरोंको उसने क्षण-भरमें काट डाला। भागते हुए क्षत्रियोंको भी उसने धूलमें मिला दिया और उन्हें यमके मुखरूपी कुहरमें डाल दिया । जो पुराना भूपाल नामका राजा था और जो तप कर निदानपूर्वक मरा था, महाशुक्र स्वर्गमें देव हुआ था और पुनः जन्मान्तरमें आया था। उसके साथ गर्भ लेकर (उसे गर्भमें रखकर) विचित्रमती नामकी उस सती रानीने वहांसे पलायन किया। ८. A जिं छित्तउ । ९:AP भुत्तउं । १०. AP हरि । २२. १. AP गउ । २. AP महारी । ३. A सपुत्तहि । ४. P धीर । ५. AP संपाइय । ६. AP भूपालु । ७. AP सो। Page #510 -------------------------------------------------------------------------- ________________ महाकवि पुष्पदन्त विरचित घत्ता - णियपइपुत्तं मरणें सोथविसं ठुलिय ॥ सुंदर भयकंपितणु कत्थइ संचलिय ||२२|| २३ -६५. २४. २ ] सा गुरुहार दिट्ठ संडिल्ले अपि सा सुबुद्धिणिग्गंथहु वसैइ जिणालइ गइ रणयालइ पुत्तु सूई देवहिं रक्खि उ पुच्छि साहु समंजसु घोसइ सोलहमइ पत्तइ संवच्छरि देवीभायरेण यसलें पडिभडवर सिरखुडणसमत्थई एतहि रिसिजैमयग्गिहि पुत्ते एकवीसवारउ णिक्खत्तिवि वड्डियवेयवयणमाह पह तावसेण संसयण वच्छल्लें । सुद्धसहावहु कहियसुपंथहु । फुल्लियाणणि तर्हि मिगमेलइ । मायइ कुलउद्धरणु णिरिक्खि । दणु छक्खंडाउ होसइ । तुपेच्छहिसि चिंधु तणुरुवरि । णि भिवणहु सिसु संडिल्लें | परिपालिउ सिक्खिउ सत्थत्थई । जयसिरिरइरसलंपडचित्तें । घत्ता - जणणमरणु सुअरंतें मारिय रायवर ॥ परसुमंतमाहप्पें रणि करवालकर ||२३|| २४ खत्तिय सयेलु वि छारुपेरत्तिवि । पुइ असेस विदिण्णी विप्पहं । ४६३ घत्ता - अपने पति और पुत्रकी मृत्युके कारण शोकसे अस्त-व्यस्त, भयसे जिसका शरीर कांप रहा है ऐसी वह सती सुन्दरी कहीं भी चल दी ||२२|| १० २३ स्वजनों के प्रति वात्सल्य रखनेवाले तपस्वी शाण्डिल्यने जब उसे गर्भवती देखा तो उसने सन्मार्गका कथन करनेवाले शुद्ध स्वभावसे युक्त सुबुद्धि ( सुबन्धु ) नामक निग्रन्थ मुनिको उसे सौंप दिया। वह जिनालय में रहने लगी । रणका समय बीतनेपर जहाँ पशुओंका संगम है, ऐसे खिले हुए जंगल में उसने पुत्रको जन्म दिया। देवोंने उसकी रक्षा की। माताने अपने कुलके उद्धारकर्ताको देखा । उसने न्यायशील मुनिसे पूछा । उन्होंने बताया, "तुम्हारा पुत्र छह खण्ड धरतीका स्वामी होगा । सोलहवाँ वर्ष प्राप्त होनेपर तुम अपने पुत्रके ऊपर राजचिह्न देखोगी ।" जिसका शल्य नष्ट हो गया है ऐसा देवीका भाई शाण्डिल्य बच्चेको अपने घर ले गया । उसने उसका परिपालन किया और शत्रु योद्धाओंके श्रेष्ठ सिरों को काटने में समर्थ शस्त्र-अस्त्रोंकी उसे शिक्षा दी । यहाँ पर जमदग्निके विजयश्री के रतिरसके लम्पट चित्तवाले पुत्रने धत्ता - अपने पिता के मरणकी याद करते हुए रणमें हाथमें तलवार लिये हुए राजाओं को परशुमन्त्र के प्रभावसे मार डाला ||२३|| २४ इक्कीस बार मारकर, समस्त क्षत्रियोंको खाकमें मिलाकर जिनके वेदवचनोंका माहात्म्य २३. १. A सिसुजण वच्छल्लें; P ससुर्याणि वच्छलें । २. AP सह सुबंधु । ३. A तेत्थु सा विजा वसइ जिणालइ; P वसई जिणालइ गय रयणालइ । ४. A सचिधु तणुं । ५. A सिरिजम । ६. AP सुमरंतें । ७. A मंतिमाह रणं । २४. १. A सयल वि । २. AP पवत्तिवि । Page #511 -------------------------------------------------------------------------- ________________ महापुराण [६५. २४.३जाया रिद्धिइ सक्कसमाणा जहिं दीसहि तहिं दियवर राणा। जहिं दीसइ तहिं पसु मारिजइ पियरहं ढोएप्पिणु पलु खजइ । सोमपाणु महुमहुरल पिज्जा सामवेयपउ मणहरु गिजइ । विउलजण्णमंडवसिरि दावइ होमहुयासधूमु णहि धावइ । णिञ्चमेव संठियपडिहारइ परसुरामदेवेसंदुवारइ । पयडियदंतपंति वियरालई खंभि खंभि कीलियई कवालई । ताराणियरसिसिरकरधवलई णं जसवेल्लिहि फुल्लई विमलई । जायउ सर्वभोमभूवालउ किं वणिज्जइ तावसबालउ। गुरुहारहि कह कह व चलंतहि मायहि पसवणवियणकिलंतहि । उप्पज्जइ सो को वि सुणंदणु किज्जइ जेण वइरिसिरछिदणु । जामयग्गिणरणाहें जेहउ अण्णहु जयविलासु कहु एहउ । घत्ता-भरहु असेसु वि भुत्तउ हय रिउ तायवहि ।। पुप्फदंत तहु तेएं समय चरति गहि ॥२४॥ १५ इय महापुराणे तिसद्विमहापुरिसगुणालंकारे महामव्वभरहाणुमण्णिए महाकइपुप्फयंतविरइए महारब्वे अरतित्थंकरणिवाणगमणं परसुरामविहवबण्णणं णाम पंचसटिमो परिच्छेओ समत्तो ॥६५॥ बढ़ रहा है ऐसे विप्रोंको धरती दे दी। ऋद्धिसे वे इन्द्र के समान दिखाई देने लगे। जहां दिखाई देता है वह ब्राह्मण राजा है। जहां दिखाई देता है वहां पशु मारे जाते हैं, पितरोंको चढ़ाकर मांस खाया जाता है, मधुर मधुर सोमपान किया जाता है, सामवेदके मधुर पदोंका गान किया जाता है, विपुल यज्ञोंकी मण्डपश्री दिखाई देती है, यज्ञोंको आगका धुओं आकाशमें दिखाई देता है। जिसमें प्रतिहार बैठे हुए हैं, ऐसे परशुराम राजाके द्वारपर नित्य हो, जो स्पष्ट दिखाई पड़नेवाली दन्तपंक्तिसे विकराल हैं ऐसे कपाल खम्भे-खम्भेपर ठोक दिये गये हैं, जो ऐसे लगते हैं मानो यशरूपी लताके तारासमूह और चन्द्रकिरणोंके समान धवल और विमल फूल हों। वह सार्वभौम राजा हो गया। उस तपस्वो राजाका क्या वर्णन किया जाये। गर्भके भारवाली, किसी प्रकार कठिनाईसे चलते हुए प्रसवकी वेदनासे पीड़ित माताका वैसा कोई एक अच्छा बेटा पैदा होता है कि जिसके द्वारा शत्रुका सिर काटा जाता है। जमदग्नि राजाने जैसा (विलास भोगा) ऐसा जयविलास किसका है ? घत्ता-पिताका वध होनेपर उसने शत्रुको मारा और अशेष भारतका भोग किया। उसके तेजसे सूर्य और चन्द्रमा आकाशमें डरसे भ्रमण करते हैं ॥२४॥ इस प्रकार ब्रेसठ महापुरुषों के गुणालंकारोंसे युक्त महापुराणमें महाकवि पुष्पदन्त द्वारा विरचित एवं महामव्य भरत द्वारा अनुमत महाकाव्यका अरतीर्थकर निर्वाण गमन एवं परशुराम विभव वर्णन नामका पैंसठवाँ परिच्छेद समाप्त हुआ ॥६५॥ ३. A सुदुवारइ। ४. A सव्वभूमिभूवालउ । ५. A कहिं । ६. A सुभूमचक्कवट्टिउप्पत्ती। Page #512 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 'संधि ६६ एत्तहि गिरिगहणि तावसघरि वड्ढइ सुंदरु ।। लक्खणचेंचइउ णहणिव डिउ णाइ पुरंदरु ॥ध्रुवकं ।। करताडियवरफणिफेणकडप्पु उहालियवणमायंगदप्पु। लीलाइ धरियकेसरिकिसोरु तकीलिरकिंणरिचित्तचोरु । दियसिहि वढिउ णं बालयंदु णं सो णिववंसहु तणउ कंदु । सत्तुहि छिंदंतहु अमरसेण उठवरिउ कहि मि जो विहिवसेण । ण सहसबाहुकुलजसणिहाउ णं परसुरामसिरकुंलिसघाउ । सन्धि ६६ यहां गहनवनमें तपस्वी शाण्डिल्यके घर वह सुन्दर इस प्रकार बढ़ने लगा जैसे लक्षणोंसे शोभित आकाशसे पतित इन्द्र हो। जिसने महानागोंके फनसमूहको अपने करतलसे ताड़ित किया है, जिसने वनगजोंके दर्पको उखाड़ दिया है, जिसने खेल-खेलमें किशोरसिंहोंको पकड़ लिया है, जो वृक्षोंपर क्रीड़ा करती हुई किन्नरियोंके चित्तका चुरानेवाला है, ऐसा वह कुमार कुछ ही दिनोंमें इस प्रकार बढ़ने लगा, मानो बालचन्द्र हो, मानो वह राजवंशका अंकुर हो। देवसेनाको नष्ट करते हुए शत्रुसे जो भाग्यके वशसे किसी प्रकार बच गया हो, जो मानो सहस्रबाहुके कुलका यशसमूह हो, मानो परशुरामके सिरपर All Mss. have, at the beginning of this samdhi, the following stanza: यस्येह कुन्दामलचन्द्ररोचिःसमानकीतिः ककुभां मुखानि । प्रसाधयन्ती ननु बम्भ्रमोति जयत्वसौ श्रीभरतो नितान्तम् ॥ १॥ पीयूषसूतिकिरणा हरहासहारकुन्दप्रसूनसुरतीरिणिशक्रनागाः। क्षीरोद शेष बल याहि निहंस चैव कि खण्डकाव्यधवला भरतः स्थ यूयम् ॥ २॥ A reads in the third line: बलयासिति हंस चैव; P reads बलसत्तम हंस चैव; AP reards in the fourth line भरतस्तु यूयम् । K has a gloss: या हि त्वं गच्छ; निहंस नितरां हंस त्वमपि गच्छ । ययं कि भरतः अतिशयात खण्डकाव्यवत् घवला वर्तध्वे, अपि तु न । तहि गच्छन्तु ।। १. १. AP णहि णिवडिउ । २. P°फणिफड । ३. P उड्डालियं । ४. A णिरु कीलिरकिंणर । ५. P omits णं । ६. AP"सिरि कुलिस । Page #513 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४६६ महापुराण ६६.१.८ चकंकियकरयलु पायपउमु हकारिउ मामें सो सुभैउमु । विहवत्तणदुक्खोह रियछाय अण्णहि दिणि पुच्छिय तेण माय । संडिल्लु मामु तुहुं जणणि माइ पर ताउ ण पिच्छमि महुरवाइ। विणु ताएं पुत्तु ण होइ जेण महु संसउ वट्टइ कह हि तेण । घत्ता-भंणु हउं कासु सुर महियलि मंडणउ पहिल्लउं ॥ भणु किं कारणेण तुह हस्थि णत्थि कईंल्लउं ॥१॥ २ www तावम्महि अंसुजलोल्लियाई णयणई णं कमलई फुल्लियाई । जाणिवि णियतणयहु तणिय सत्ति पडिलवइ सहसमुयरायपत्ति । सुणि सुय जो सुव्वइ परसुरामु तें मारिउ तुह पिउ अतुलथामु । तावट्ठवीसधणुदंडतुंगु वण्णे कगयच्छवि रणि अहंगु। तं णिसुणिवि णं जमरायदूउ आरुट्ठ अरिहि सिहिचुरुलिभूउ । चूडामणिकिरणालिहियमेहि तावेत्तहि रेणुयतणयगेहि । दिउ णारायणकमकमलभसलु संपत्तउ कैहि मि णिमित्तकुसलु । सो पुच्छिउ तेण कयायरेण उद्धरियसंधरधरगुरुभरेण । सहसयरसिरुप्पललूरणेण णियजणणिमणोरहपूरणेण । वज्रका आघात हो, जिसका हाथ चक्रसे अंकित है, जिसके पैरोंमें शंख हैं, ऐसे उस कुमारको मामा शाण्डिल्यने सुभौम कहकर पुकारा। वैधव्यके दुःखसे जिसके शरीरको कान्ति नष्ट हो गयी है ऐसी अपनी मांसे उसने एक दिन पूछा, "हे मां, शाण्डिल्य मामा है और तुम जननी हो, परन्तु मधुर बोलनेवाले पिताको मैं नहीं देखता हूँ। परन्तु बिना पिताके पुत्र नहीं हो सकता इसीलिए मेरा सन्देह बढ़ रहा है आप बताइए। पत्ता-कहो, मैं किसका पुत्र हूँ ? पृथ्वीतलपर मैं किसका पहला मण्डन हूँ ? बताओ किस कारण तुम्हारे हाथमें कड़ा नहीं है" ॥१॥ २ तब माताके नेत्र अश्रुजलसे आर्द्र हो उठे, मानो खिले हुए कमल हों। अपने पुत्रकी शक्तिको जानते हुए सहस्रबाहुकी पत्नी प्रत्युत्तर देती है, "हे पुत्र सुनो, जो परशुराम कहा जाता है उसने अतुलशक्तिवाले तुम्हारे पिताका वध किया है। जो अट्ठाईस धनुष प्रमाण ऊंचे थे, रंगमें स्वर्णकान्तिके समान और युद्ध में अभग्न थे।" यह सुनकर आगकी ज्वाला बनकर वह शत्रुपर इस प्रकार क्रुद्ध हो गया, मानो यमराजका दूत हो। जिसके शिखरमणिकी किरणोंसे मेघ अंकित हैं, ऐसे रेणुकाके पुत्रके घर नारायणके चरणकमलोंका भ्रमर एक निमित्तशास्त्री ब्राह्मण आया। जिसने पर्वत सहित धरतीका गुरुभार उठाया है, ऐसे सहस्रबाहुके सिररूपी कमलको काटनेवाले तथा अपनी मांके मनोरथोंको पूरा करनेवाले उसने आदर करते हुए पूछा ७. A सुभूमु । ८. A°दुक्खें हरिय। ९. A भणु कासु सुउ हउं महिलहि मंडणउ । १०. AP कडउल्ल। २. १. AP ता अम्महि । २. AP रिउहि । ३. A कह व । ४. A सघरगुरुभायरेण । ५. A पूरएण । Page #514 -------------------------------------------------------------------------- ________________ -६६. ४.२ ] महाकवि पुष्पदन्त विरचित घत्ता-पई विप्पेर्ण जगि जीवहं भवियन्वु पमाणिउं ॥ महुहुं मरणु भणु भणु जइ पई फुड जाणिउं ॥ २ ॥ ३ तं णिणिवि विप्पें वुत्तु एम भोयणकालइ रसरसियभावि रिउदसण असणभावेण जासु ताराएं यरि महाविसाल संणियि णिओइय दिष्णु दाणु पीणिविदेसिय तित्तिइ डेरंत दसदिसि हि पसरिय एह वत्त अदीहरपंथें मंथिएण भो भो कुमार लहु जाहि जाहि घत्ता - किं वणतरुहलेहिं खद्ध हिं मि तित्ति ण पूरइ ॥ महुं भायर हियवडं जूरइ ॥ ३ ॥ छवि ४ जहिं जणवड भुंजइ अप्पमाणु । जहिं दरिसिज्जइ ससिअंतसोहु राहु के अस्थि दाणु भोयणपत्थव मुहरुहोहु रायाहिरा भो णिसुणि देव | अग्गइ दक्खालिइ कयसरावि । णिव परिणमंति तुहुं वज्झु तासु । काराविय तक्खणि दाणसाल । घिउँ दुद्धु दहिउं इच्छापमाणु णिश्चं चिंय दाविज्जंति दंत | कवीराणुयइसुसिरु पत्त । वैणि जंतें वुत्तर पंथिएन । सायणयरि भुंजंतु थाहि । ४६७ १० ५ घत्ता- तुम विप्रके द्वारा विश्वमें जीवोंका भवितव्य प्रमाणित किया जाता है । मेरा मरण कब होगा ? कहो - कहो, यदि तुम स्पष्ट जानते हो तो ? ॥२॥ ३ १० यह सुनकर विप्रने इस प्रकार कहा, "हे राजाधिराज देव, सुनिए । जिसमें रसके ज्ञायकका भाव है ऐसे भोजनकालमें, सकोरेमें रखे गये शत्रुके दांत जिसके आगे दिखाये जानेपर ओदनभावप्राप्त होते हैं, हे नृप तुम उसके द्वारा वध्य होगे ।" तब राजाने नगर में उसी क्षण एक विशाल दानशाला बनवायी। वहीं किंकर रख दिये । इच्छाके अनुसार घी, दूध और दहीका दान दिया । प्रसन्न करते हुए यात्रियोंको नित्य ही दाँत दिखाये जाते । दसों दिशापथों में यह बात प्रसारित हो गयी । कृतवीर के अनुज सुभौमके कर्णविवर में यह बात पहुँची । अत्यन्त लम्बे पथसे श्रान्त वनमें जाते हुए एक पथिकने कहा, "हे कुमार, शीघ्र जाओ - जाओ और साकेत नगर में भोजन करते हुए रहो । घत्ता-खाये गये वन-तरुफलोंसे क्या ? तृप्ति पूरी नहीं होती, तुम्हारा शरीर देखकर हे भाई, मेरा हृदय सन्तप्त होता है ||३|| ४ जहाँ राजाका दान है, जहां अप्रमाण जनता भोजन करती है। भोजन के प्रस्ताव के समय ६. A विप्पेण वर जगि; P विप्पें वर जगि । ७. AP पमाणिउं । ८. जाणियउं । ३. १. AP पीणिय । २. A फुरंत । ३. A ददिसिपह; P दसदिसिप । ४. A कुमरहु अखिउ ता पंथिएन । o ४. १. P पत्यारई । Page #515 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ૪૬૮ महापुराण सो जासु कूरु होही सुरामु तहु हत्थे मरिही परसुरामु । तहिं गच्छहि पेच्छहि चोज बप्प किं अच्छइ काणणि णिव्वियप्प । तं णिसुणिवि मणि चिंतइ कुमार डहुडहु णरु जंगलपुंजु फारु । दुज्जणकरगाहगलत्थियाई जे दिट्ठई सयणइं दुत्थियाई। दरिसावियबंधवलोयवसण जेणायण्णिय गंदंत पिसुण । सो णिहयजणणिजोव्वणवियारु अम्हारिसु जीवइ भूमिभारु । वरिसहं परमाउसु जमदुगेज्झु धुवु सट्ठिसहासई आउ मज्झु । १० ' लइ णियइ ण ढुक्कइ अंतरालि रिउ चूरमि मारमि कलहकालि । .. अह वा जइ मरमि ण तो वि दोसु लइ अज्ज करमि हउं सहलु रोसु । . घत्ता-तायवियारणउं जं वइरु रिणु य चिरु दिण्णउं ।। तं हउं तासु रणि लइ अन्जु देमि उच्छिण्णउं ॥ ४ ॥ इय भणेवि वीरो'धुरंधरो समरभारवहणेक्ककंधरो। कायकंतिधवेलियदिसावहो चिक्करतैछक्कण्णुपाणहो । धरणिविजयसिरिविजयलंपडो कसणकुडिलधम्मिल्लझंपडो । दंडपाणिपोत्थयपरिग्गहो रत्तचीरचेचइयविग्गहो। चन्द्रकान्तके समान दांत दिखाये जाते हैं। जिससे वे दांत सुन्दर भात हो जायेंगे उसके हाथसे मारा जायेगा। हे सुभट तुम वहाँ जाओ और उस आश्चर्यको देखो। बिना किसी विकल्पके जंगल में क्यों पड़े हो।" यह सुनकर कुमार अपने मन में विचार करता है-प्रचुर मांससमूह वह मनुष्य खाक हो जाये कि जिसने स्वजनोंको दुर्जनोंके द्वारा हाथ पकड़कर बाहर निकाले जाते हुए और खराब स्थितिमें होते हुए देखा है। जिसने बान्धवलोकको दुख दिखानेवाले दुष्टोंको आनन्दित होते हुए सुना है। अपनी मांके यौवन-विकारको नष्ट करनेवाला (व्यर्थ कर देनेवाला) ऐसा वह मुझ जैसा धरतीका भारस्वरूप व्यक्ति जीवित है। परमायु मैं यमके द्वारा अग्राह्य हूँ, ( यम मुझे नहीं पकड़ सकता ), निश्चय ही मेरी आयु साठ हजार वर्ष है, लो इस अन्तरालमें ( इस बीच ) नियति नहीं आ सकती, इसलिए युद्धकालमें शत्रुको चकनाचूर कर मारता हूँ। अथवा यदि मैं मर जाता हूँ तो इसमें दोष नहीं है। लो मैं आज अपना क्रोध सफल करता हूँ। पत्ता-पिताके मारनेका जो वैर और ऋण पहले दिया गया है, मैं आज उसे युद्ध में दूंगा और उसे उच्छिन्न करूंगा ॥४॥ यह कहकर समरभारको अपने एक कन्धेसे उठानेवाला, अपनी शरीर-कान्तिसे दिशाओंको धवलित करनेवाला, चरमराते हुए छह कोनोंवाले जूतोंसे युक्त, पृथ्वीविजय और श्रीविजयका लम्पट, मुक्त खुले काले बालोंवाला, जिसके हाथमें दण्ड और पुस्तकका परिग्रह है, जिसका शरीर २. A मरही। ३. A णरजंगलु। ४. AP भारु । ५. AP णिहियजणणिहि जोवण । ६. AP समरकालि । ७. A वइरु रिणु चिरु ण दिण्णउं; P वइरु रिण व चिरु दिण्णउं । ५. १. AP धोरो । २. AP °कविलियं । ३. A चिक्करंतु छक्कण्णुवाणहो; P चिक्करंतु छक्कण्णवाणहो । Page #516 -------------------------------------------------------------------------- ________________ -६६. ६.९] महाकवि पुष्पदन्त विरचित कुसपवित्तयंकियकरंगुली कोसलं पुरं पत्तओ बली। सहयरेहिं सह लच्छिमाणणो वेयघोसबहिरियदिसाणणो । दाणमंडवं खणि पइट्ठओ तं णिउत्तमणुएहिं दिट्ठओ। तेहिं तस्स विऊण णीरयं पायपोमपक्खालणं कयं । आसणे णिविट्ठस्स णिम्मलं णीलदभखंडं पुणो जलं । पत्ता-पुणु अहियारिएहिं ढोएप्पिणु मिट्ठउ भोयणु ।। दसणुकेरु तहु दक्खालिउ जायउ ओयणु ॥५॥ जं दंत जाय णवकलमसित्थ तं उद्विय भड रणभैरसमत्थ । हणु हणु भणंत करफुरियखग्ग बालहु अखत्तधम्मेण लग्ग। परमेसरु ते णउ गणइ केव कंठीरउ वणि गोमाउ जेव । जो दसणपुंजु तं कूरु जाउ तं जोयइ णं णियजसणिहाउ । उट्ठिवि दिटिइ चप्परिय सम्व . गय णासेप्पिणु भड गलियगव्व । विण्णविउ तेहिं पहु परसुधारि भो पुहइशाह रिउ जीवहारि । आएसपुरिसु संपत्तु भीम तं णिसुणिवि णिग्गउ इंदरामु। सपसाहणेण हरिवाहणेण संणज्झिवि लहु सहुँ साहणेण । आवंतु दिट्ट बाले अणेण भुयदंड तुलिय हरिसियमणेणे । लाल वस्त्रसे शोभित है, जिसकी अंगुलियां दर्भमुद्रिकासे अंकित हैं, ऐसा वह वोर धुरन्धर और बलवान् अयोध्या नगरी पहुंचा। लक्ष्मीको माननेवाला वह अपने सहचरोंके साथ वेदोंके घोषसे दिशामुखोंको बहरा बनाता हुआ एक क्षणमें दानमण्डपमें प्रविष्ट हुआ । वहां नियुक्त मनुष्योंने उसे देखा। उन्होंने उसे प्रणाम कर उसके चरणकमलोंका धूलरहित प्रक्षालन किया और आसनपर बैठे हुए उसे निर्मल हरा दर्भखण्ड ( दूब खण्ड ) और जल दिया। घता-फिर अधिकारियोंने मीठा भोजन देकर उसे दांतोंका समूह दिखाया, वह भात बन गया ॥५॥ ६ जब दांत नये चावलोंकी तरह सीज गये तो रणभारमें समर्थ योद्धा उठे। जिनके हाथमें ! तलवारें चमक रही हैं, ऐसे वे मारो-मारो कहते हुए क्षात्रधर्मको ताक पर रखते हुए वे बालकके पीछे लग गये। लेकिन वह परमेश्वर उन्हें उसी प्रकार कुछ नहीं समझता कि जिस प्रकार सिंह वनमें शृंगालोंको कुछ नहीं समझता। जो वह दांतसमूह भात हो गया था उसे वह अपने यशसमूहके समान देखता है। उठकर उसने दाष्टसे उन्हें हटा दिया। गलितगवें सभी योद्धा भागकर चले गये। उन्होंने फरसा धारण करनेवाले अपने स्वामोसे निवेदन किया, "हे पृथ्वीनाथ, शत्रु जीवका हरण करनेवाला है। भयंकर आवेगपुरुष है।" यह सुनकर इन्द्रराम निकला। अपने प्रसा ४. AP णमिऊण । ५. A आसणोपविट्ठस्स । ६. A णीलडब्भ । ६. १.A भड समत्थ । २. P अक्खतषम्मेण । ३. AP तहिं करु । ४.A चप्परिवि । ५. A adds after this: बोल्लिउ पडिमडछडभंजणेण । . - Page #517 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १० महापुराण जइ अस्थि को वि सुक्कियपहाउ तई एउ जि पहरणु मज्झु होउ। इय चिंतिवि तेण सुकम्मवाउ तं दंतकूरपरिउ सराउ । भामिउ णहि जायउ णिजियकु आरासहासविप्फुरियउ चक्कु । घत्ता-रिसिसुउ तेण हउ मारिउ गउ णरयणिवासहु ।।। दुग्गइ सावडइ सव्वहु वि लोइ कयहिंसहु ॥६॥ दुइसय'कोडिहिं वरिसह गयह अरतित्थे राउ सुभोमउ रामाकामउ हुई सुत्थे । माणु मलेप्पिणु ढुट्टहं घिट्टहं दुजणहं हित्तई छत्तई चमरई चिंधई बंभणहं । रहजपाणई पिउसंताणई लद्धाइं चउदहरयणई णव वि णिहाणइं सिद्धाई । छक्खंड वि महि जयलच्छीसहि भुत्त किह ___ असिणा तासिवि णाएं भूसिवि दासि जिह । एक्कहिं वासरि उग्गइ दिणयरि उत्तसिउ १० विरइयभोयणु अमयरणायणु भाणसिउ । धन सहित अश्व वाहन और सेनाके साथ शीघ्र सन्नद्ध होकर उसे आते हुए इस बालकने देखा। हर्षित मन होकर उसने अपने बाहु तोले ( उठाये )। यदि मेरा कोई पुण्य प्रभाव हो तो मेरा यही एक अस्त्र हो-यह विचारकर उसने सुकर्मके पाककी तरह उस दांतोंरूपी भातसे भरे सकोरेको घुमा दिया। सूर्यको जीतनेवाला तथा सैकड़ों आराओंसे विस्फुरित चक्र आकाशमें उत्पन्न हो गया। पत्ता-उससे उसने शत्रुपुत्रका काम तमाम कर दिया। वह नरकनिवासमें गया। हिंसा करनेवाले सभी लोगोंके लिए लोकमें नरकगति मिलती है ॥६॥ अरनाथके प्रशस्त तीर्थके दो सौ करोड़ वर्ष बीतनेपर स्त्रियोंको चाहनेवाला सुभोम नामका चक्रवर्ती हुआ। दुष्ट, ढीठ और दुर्जन ब्राह्मणोंका मान मर्दन कर उनके छत्र-चमर और चिह्न छीन लिये गये । उसे रथ जम्पान और पिताको परम्परा प्राप्त हुई तथा चौदह रत्नों और नव निधियां सिद्ध हई। विजयलक्ष्मीकी सखी, छह खण्ड धरतीको तलवारसे त्रस्त कर तथा न्यायसे भूषित कर इस प्रकार उपभोग किया जैसे वह दासी हो । एक दिन सूर्योदय होनेपर ६. A तइ एउ; P ता एउ । ७. A सकम्मवाउ । ८. A दंतंतकर । ९. AP विप्फुरिउ । ७. १. A दुइसय वरिसहं गइयह कोडिहिं; P दुइसय वरिसहं कोडिहिं गइयहं । २. AP सुभउमउ । ३. A हुवउ सुतित्थे; P हुआ सत्थे। ४. AP चिट्ठहं दुट्ठहं । ५. A चमरई छत्तई चिंधई; P चमरई चिंघई छत्तई। ६. जाणई सयणई लद्धाई। ७. P अमिय । Page #518 -------------------------------------------------------------------------- ________________ -६६. ८. २ ] महाकवि पुष्पवन्त विरचित कयला लाजल णावइ कोमल झंर्दुलिय ते सिरीधरि दिण्णी णिवकरि अंबिलिय । भक्त "चक्खतें सिरु धुणिउं ។ 0 रसु ११ "राएं तं रूसिवि तहु गुण दूसिवि जं भणिडं । तं खलसंहिं णिरु दुवियड्ढहिं पोसियउं जीवि धीरहु हु सुवारहु णासियउं । मरिवि सतामसु जायउ जोइस दुक्कु तर्हि छण्णें रोसें वणिवरवेसें राउ जहिं । तें महिवालहु जीहालोलहु ढोईयेई फलई अणेय बहुरेस भेयइं जोइयेई । ईतर अह मासंतरि रहइ खलु वणि सराएं मग्गिड राएं देहि फलु । तेण पत्तरं देव णित्तं गिट्टिय रुि दूरंतर परदीवंतरि संठियई । पत्ता - फलसंदोहु मई सुरवरहुं पसाएं लद्धउ ॥ णिच्छउ णिट्ठियउ लइ पई जि भडारा खद्धउ ||७|| सा १५ सुञ्च वसुहाहिव कहमि तुज्झ तु पुणु पहु अवलोयणि तसं त ८ एवहिं ते देव ण देंति मज्झ । इरहं कह महिमंडलि वसंति । ४७१ १५ २० उसका भोजन बनानेवाला अमृतरसायन नामका रसोइया त्रस्त हो उठा । उसने लक्ष्मी धारण करनेवाले राजाके हाथमें कढ़ी दी जो लारजल उत्पन्न करनेवाली कोमल इमलीके समान थी । उसे खाते हुए और रस चखते हुए राजाने अपना माथा ठोका तथा उसके गुणोंको दोष लगाते हुए क्रुद्ध होकर जो कुछ कहा उसका मूर्ख दुष्ट खलसमूहने समर्थन किया। उस धीर रसोइएका जीवन नष्ट हो गया । क्रोधपूर्वक मरकर वह ज्योतिष देव हुआ और वह प्रच्छन क्रोधसे सैठका रूप बनाकर वहाँ पहुँचा कि जहाँ राजा था । उसने जीभके लालची राजाको बहुरस भेदवाले अनेक योग्य फल दिये । एक पक्ष अथवा माह व्यतीत होनेपर एकान्त में राजाने रागपूर्वक उस दुष्ट बनियेसे याचना की - "फल दो ।" उसने कहा- हे देव, निश्चित रूपसे फल समाप्त हो गये हैं और वे अत्यन्त दूर द्वीपान्तर में हैं । • २५ घत्ता - वह फलसमूह मैंने सुरवरके प्रसादसे प्राप्त किया था, वह अब खत्म हो गया है । हे आदरणीय, वह आपने खा लिया है ||७| ८ वसुधाधिप में तुमसे सच कहता हूँ । इस समय वे देव मुझे फल नहीं देते । हे स्वामी, ८. A झिदुलिय । ९. A भक्खंतई । १०. A चक्खंतई । ११. A राएं रूसिवि । १२. P राइयई । १३. AP बहुविहभेयई । १४. P ढोइयई । १५. P गहपक्वंतरि । १६. A णिउत्तउ । Page #519 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४७२ महापुराण [६६.८.३राएं पडिवण्णउं वयणु तासु भणु मुवणि ण दुकाइ णियइ कासु । णिउ णरपरमेसरु तेण तेत्थु करिमयरभयंकरु जलहि जेत्थु । जीहिं दियविसयेवसेण खविउ तहिं सिहरि सिलायलि णिवइ थविउ । चट्टयविहत्थु रोसेण फुरिउ ' सूयारवेसु देवेण धरिउ। पभणिउ मई जाणहि किं ण पाव खलवयणणडिय रे कूरभाव । चिंचिणिहलस्थि दप्पिट्ट दुहूँ हउँ पई जम्मतरि णिहउ कह। इय कहि वि तेण सयखंडु करिवि मारिउ गउ णरयहु भउमु मरिवि । घत्ता-गोत्तमु वज्जरइ मगहाहिव चारु चिराणउं॥ अण्णु वि णिसुणि तुहुं बलणारायणहं कहाणउं । ८॥ इह खेत्ति णिसेविवि जइणमग्गु दो पत्थिव गय सोहम्मसग्गु । तहिं एक्कु सुकेउ सेहुँ ससल्लु किं वण्णमि मूढेउ मोह गिल्लु । इह भारहंति संपुण्णकामु चकैउरिणाह वरसेणु णामु। इक्खाउवंसगयणयलि चंद . दाणोल्लियकरु णं सुरकरिंदु। तह देवि पढम पिय वइजयंति _लच्छिमइ बीय णं ससिहि कति । जइयतुं सुभउमि मुइ जाणियाहं छहसयसमकोडिहिं झीणियाहं । तुम्हारे देखनेसे वे त्रस्त हो उठते हैं। नहीं तो वे दूसरे धरतीमण्डलमें क्यों निवास करते ? राजाने उसका कहा स्वीकार कर लिया। बताओ संसारमें किसकी नियति ( अन्त ) नहीं आती। उसके द्वारा वह नरपरमेश्वर वहां ले जाया गया कि जहां हाथियों और मगरोंसे भयंकर समुद्र था। जिह्वा इन्द्रियके विषयरूपी विषसे नष्ट वह राजा पहाड़की एक चट्टानपर स्थापित कर दिया गया। देवने जिसके हाथमें करछुली है ऐसा रसोइयेका रूप धारण कर लिया और क्रोधसे तमतमाया। वह बोला-“हे पाप, तू मुझे नहीं जानता। दुष्टोंके वचनोंसे प्रतारित हे दुष्टभाव, चिंचणो फल ( इमली ) के अर्थी दर्पिष्ठ और दुष्ट कठोर जन्मान्तरमें मैं तेरे द्वारा मारा गया।" यह कहकर उसने सौ टुकड़े कर उसे मार डाला । सुभौम मरकर नरकमें गया। घत्ता-गौतम कहते हैं-हे मगधराज, एक और सुन्दर और पुराना बल तथा नारायणका कथानक है, उसे सुनो ||८|| इस भरत क्षेत्रमें जैनमार्गका पालन कर दो राजा सौधर्म स्वर्ग गये। उनमें एक सुकेतु था जो शल्य सहित था। मोहग्रस्त उस मूर्खका क्या वर्णन करूं ? इस भारतमें चक्रपुरमें सम्पूर्णकाम वरषेण नामका राजा था। वह इक्ष्वाकुवंशरूपी आकाशतलका चन्द्र था, दान (जल और दान) से आर्द्रकर (हाथ और सूंड़) वाला जो मानो ऐरावत गज था। उसकी पहली प्रिय पत्नी वैजयन्ती थी तथा दूसरी चन्द्रमाकी कान्तिके समान मानो लक्ष्मीवती थी। सुभोमके मरनेपर जब ज्ञात ८. १. A वडिवण्णउं । २. AP विसयविसेण । ३. A चड्डवविहत्थु; P चद्दअविहत्थु । ४. A दुट्ठ । ५. A कट्ठ। ९. १.A मुउ । २. A मोहें मूढगिल्लु । ३. A चक्कउरणाहु । . Page #520 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४७३ -६६.१०.७] महाकवि पुष्पदन्त विरंचित तइयतुं संचुउ सोहम्मदेउ हुउ पुत्तु जयंतिहि सोक्खहेउ । अण्णेक्कु लच्छिमइयहि ससल्लु किं वण्णमि अप्पडिमल्लमल्ल । तहिं एक्कु पकोक्किउ णंदिसेणु अण्णेक्कु वि दुत्थियकामधेणु । णामई हक्कारिउ पुंडरीउ किं थुणमि वइरिमृगपुंडरीउ । ते बेण्णि वि णीलसुपीयवसण ते बेणि वि भायर धवलकसण । दोहं मि विच्छिण्णउ आवयाउ दोहं मि घत्ता-सीरिहि साहियइं छप्पण्णसहासइं वरिसह ।। चकिहि णाहियई परमाउसु एंवे सुपुरिसह ॥९॥ कोसि संसिउ देवयाउ। १० छन्वीसचाव देहहु पमाणु तहिं ताहं पहुत्तणु जाणमाणु । इंदरि णरिंदु उविंदसेणु जो देवहिं गेजइ धरिवि वेणु । तहु तेण धीय दामोयरासु पोमावइ दिण्ण कयायरासु । तं हरहुं पराइन पहु णिसुंभु चिरभवि सुकेउ सो रिउणिसुंमु । जायउं रण विज्जहि लग्ग बे वि अवरोप्परु णउ सकिय हणेवि । पडिहरिणा घल्लि उ धगधगंतु धरियउं कण्हेण रहंगु एंतु । तेणाहउ उरयलि पडिउ वेरि अइभीसणु कयधम्मावहेरि । छह सौ करोड़ वर्ष बीत गये तो सौधर्म देव च्युत होकर वैजयन्तीका पुत्र हुआ जो सुखका कारण था। दूसरा जो सशल्य था, वह लक्ष्मीमतीसे जन्मा। अप्रतिम मल्लोंके मल्ल उसका मैं क्या वर्णन करूं। उनमेंसे एकको नन्दिषेण कहा गया और दूसरेको जो दुःस्थितों (विपत्तिग्रस्तों) के लिए कामधेनु था, पुण्डरीक नामसे पुकारा गया। शत्रुरूपी हरिणोंके लिए पुण्डरीक (व्या समान था, उसकी मैं क्या स्तुति करूं? वे दोनों ही नील और पीत वस्त्रवाले थे। वे दोनों ही भाई गोरे और काले थे। दोनोंने आपत्तियोंको तहस-नहस कर दिया था। दोनोंको विद्याएँ सिद्ध थीं। घत्ता-श्री बलभद्र नन्दिषेणकी आयु छप्पन हजार वर्ष कही गयी है। चक्रवर्ती पुण्डरीककी आयु भी इससे अधिक नहीं थी, इस प्रकार दोनों सुपुरुषोंकी यह परमायु थी ॥९|| १० है आ दोनोंके शरीरका प्रमाण छब्बीस धनुष था। वहाँ उनका प्रभुत्व भी ज्ञातमान था। इन्द्रपुरीका राजा उपेन्द्रसेन था। जिसका देवों द्वारा वेणु लेकर गान किया जाता था । किया गया र जिसका ऐसे उग्र दामोदर (पण्डरीक) को उसने अपनी कन्या पद्मावती दे दी। पूर्वभवमें शत्रुओंका नाश करनेवाला जो सुकेतु राजा था, ऐसा निशुम्भ राजा (चक्रपुरका ) उसका अपहरण करने के लिए आया। दोनोंमें युद्ध हुआ, वे विद्याओंसे लग गये। वे एक-दूसरेको मारने में समर्थ नहीं हो सके। प्रतिनारायण निशुम्भने धकधक करता हुआ चक्र चलाया। आते हुए उसे नारायग पुण्डरोकने पकड़ लिया। उससे वक्षःस्थलमें आहत होकर अत्यन्त भयंकर और धर्मकी ४. AP अण्णेक्कू वि लच्छिमइहि। ५. AP अप्पडिमल्लु । ६. AP मिग । ७. AP read a as b and basa. ८. P संछिण्णउ । ९. AP एउ । Page #521 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४७४ महापुराण [६६. १०.८. गउ गरयहु णियमणगहियखेरि महि साहिवि पहयाणंदभेरि । हरि हलहर रज्जु करंत थक्क ता कालें अणुयहु दिहि मुक्क । सन्भंतरि णिवडिउ चक्रपाणि हलिणा विरइय कम्मावहाणि । सिवघोसगुरुहि उवएसएण सिद्धउ मुक्कउ मोहें मएण। घत्ता-भरहणराहिवहिं मणभरियभत्तिपइरिक्कहिं ॥ वंदिउ विसहरेहिं खगपुप्फयंतगहचक्कहिं ॥१०॥ इय महापुराणे तिसटिमहापुरिसगुणालंकारे महामस्वमरहाणुमण्णिए महाकइपुप्फयंतविरहण महाकव्वे सुभउमचक्कट्टिबलएववासुएवपडिवास एवकहंतरं नाम छसटिमो परिच्छेओ समत्तो ॥६६॥ अवहेलना करनेवाला वह शत्रु गिर पड़ा। अपने मनमें कलहका भाव धारण करनेवाला वह नरकमें गया। जिसमें आनन्दकी भेरी बजायी गयो है. ऐसी धरतीको सिद्ध कर जब बलभद्र और नारायण राज्य करते हुए रह रहे थे, तो कालने अनुज (पुण्डरीक ) पर अपनी दृष्टि छोड़ी। चक्रवर्ती नरकके मध्य गया। बलभद्रने शिवघोष गुरुके उपदेशसे कर्मोका नाश किया तथा मोह और मदसे मुक्त होकर वह सिद्ध हो गये। पत्ता-जिनके मन में भक्तिको प्रचुरता भरी हुई है, ऐसे भरतक्षेत्रके राजाओं, विषधरों, विद्याधरों, सूर्य-चन्द्र आदि गृहचक्रोंने उनकी वन्दना की ॥१०॥ इस प्रकार त्रेसठ महापुरुषोंके गुणालंकारोंसे युक्त महापुराणमें महाकवि पुष्पदन्त द्वारा विरचित एवं महामव्य मरत द्वारा अनुमत महाकाव्यका सुमोम चक्रवर्ती बलदेव वासुदेव प्रतिवासुदेव कथान्तर नामका छियासठवाँ परिच्छेद समाप्त हुआ ॥६६॥ १०.१. AP सहिवि । २. AP हलिणा पुण विरइय कम्महाणि । ३. A°रिसिहि । ४. AP omit पडिवा सुएव । ५. P adds सत्तमचक्कवटि अर स एव तित्थयर अटुमचक्कवट्टि सुभौम छट्टबलएव णंदिसेण, वासूदेव पुंडरीय, पडिवासुएव णिसंभ एतच्चरियं सम्मत्तं; K gives this in margin | Page #522 -------------------------------------------------------------------------- ________________ संधि ६७ तिहुवणसिरिधेरो सल्लविवजिओ ॥ जो परमेसरो सयमहपुजिओ॥ध्रुवकं ।। जेण हओ णीहारओ सुजसोधवलियहंसओ जा कंती मयलंछणे सा वि जस्स मुहपंकए मोत्तूणं महिवइचलं गाढं जेण वसं कयं हिंसायारो वारिओ कामभोयआसी हया णट्ठा जस्स विवाइणो रुइणिज्जियणीहारओ। जस्स मुवणसरहंसओ। संपुण्णा जाय छणे । इर मजेइ णिप्पंकए। चित्तं सोदामणिचलं । मुणिमग्गे णीसंकयं । जो कोवाणलवारिओ। सरहस्स व वणसीया। अइबहुकम्मविवाइणो। सन्धि ६७ जो त्रिभुवनकी लक्ष्मीको धारण करनेवाले और शल्यसे रहित हैं, जो परमेश्वर इन्द्रके द्वारा पूज्य हैं। जिन्होंने मनुष्यको मिथ्या चेष्टासे उत्पन्न कर्मको नष्ट कर दिया है, जिन्होंने कान्तिसे चन्द्रमाको जीत लिया है, जिन्होंने अपने सुयशसे सूर्यको धवलित किया है, जिनका यश भुवनरूपी सरोवरमें हंसकी तरह क्रीड़ा करता है। पूर्णिमाको रात्रिमें चन्द्रमाकी जो सम्पूर्ण कान्ति होती है, वह भी जिसके निष्पंक ( कलंकरहित ) मुखरूपी कमलमें डूब जाती है। राज्यलक्ष्मीको छोड़कर जिन्होंने सौदामिनीकी तरह चंचल मनको अच्छी तरह वशमें किया है और मुनिमार्गमें निःशंकभावसे लगाया है । जिन्होंने हिंसामय आचारका निवारण किया है, जो क्रोधरूपी आगका निवारण करनेवाले हैं, जिन्होंने कामभोगरूपी सर्पको दाढ़को नष्ट कर दिया है, उसी प्रकार जिस प्रकार अष्टापद वनसिंहको नष्ट कर देता है। अत्यन्त अधिक कर्मविपाकवाले विवादी जिनसे नष्ट हो गये All Mss. have, at the beginning of this samdhi, the following stanza: इह पठितमुदारं वाचकैर्गीयमानं इह लिखितमजस्रं लेखकैश्चारु काव्यम् । गतवति कविमित्रे मित्रतां पुष्पदन्ते भरत तव गृहेऽस्मिन्भाति विद्याविनोदः ॥१॥ १. १. A सिरिवरो। २. K reads a p: मिज्जइ इति पाठे मीयते । ३. A महिवइबलं । ४. T reads ap: कामभोइसी इति पाठे काम एव भोगी सर्पस्तस्य आसी दंष्ट्रा । व पदन्ते । Page #523 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४७६ महापुराण [ ६७. १. १२ सोउं जस्स सुआमयं हंतूणं मोहामयं । पुरिसा णिक्कलधामयं पत्ता णाणसुधामयं । आयंबुज्जलकरणहं भयवंतं णियकरणहं। णिम्मलत्तणिरसियणहं तं मझिं णमिण हैं। वोच्छं तस्सेव य कहं इयरह मोक्खविही कह । घत्ता-पढमइ दीवइ सुरगिरिपुवइ ।। कच्छादेसइ सोहादिवइ ॥१॥ वीयसोयणयरेसरो राया रूवी विव सरो। धीरो जियपरमंडलो विहवेणं आहंडलो। कोसेणं वइसवणओ णामेणं वइसवणओ। अण्णस्सि दियहे घणं गंतूणं कीलावणं । पंकेरुहरयधूसरो रमइ जाम पुहईसरो। ताम पवासियदिहिहरो सुरधणुमंडियजलधरो। थोरथेभैथिप्पिरणहो पच्छाइयदसदिसिवहो । फुल्लियफुडयकयंबओ वियसावियदालिंबओ। णीरपूरपूरियधरो किडिकरडीण सुहंकरो। पत्तो वासारत्तओ दूरं कंको मत्तओ। णच्चावियसिहि उलणडो विज्जुजलणजलिओ वडो। हैं, जिनके श्रुतरूपी अमृतको सुनकर, मोहरूपी व्याधिको नष्ट कर लोग ज्ञानरूपी सुधासे युक्त निष्कलधाम ( मोक्ष ) को प्राप्त हुए हैं, जिनके हाथोंके नख लाल और उज्ज्वल हैं, जो ज्ञानवान् और अपनी इन्द्रियोंका घात करनेवाले हैं, जिन्होंने निर्मलतामें आकाशको तिरस्कृत कर दिया है ऐसे उन मल्लिनाथको मैं नमस्कार करता हूँ और उन्हींकी कथाको कहता हूँ। घत्ता-प्रथम जम्बूद्वीपके सुमेरुपर्वतकी पूर्व दिशामें शोभासे दिव्य कच्छदेशमें ||१|| . वीतशोक नगरका स्वामी राजा (वैश्रवण ) कामदेवके समान सुन्दर था। धीर और शत्रुमण्डलको जीतनेवाला जो वैभवमें इन्द्र, धनमें कुबेर और नामसे वैश्रवण था। दूसरे दिन सघन क्रीड़ावनमें जाकर कमलपरागसे धूसरित वह राजा क्रीड़ा करता है तो इतने में प्रवासियोंके धैर्यका हरण करनेवाला जिसमें इन्द्रधनुषसे मेघ मण्डित हैं, आकाशसे बड़ी-बड़ी बूंदें गिर रही हैं, दसों दिशापथ आच्छादित हैं, जिसमें कदम्ब वृक्ष विकसित और पुष्पित हैं, जिसने कुकुरमुत्तोंको विकसित कर दिया है, जलोंसे धरती प्लावित है, जो सुअरों और गजोंसे सुन्दर है ऐसी वर्षाऋतु आ गयी, बगुले दूर हो गये हैं। जिसने मयूरकुलरूपी नटोंको नचाया है ऐसा वटवृक्ष ५. A णविऊण । २. १. A रायं रूवें जियसरो। २. AP वीरो । ३. AP अण्णेसं । ४. AP°जलहरो। ५. AP°थिभ । Page #524 -------------------------------------------------------------------------- ________________ -६७. ३. १२ । महाकवि पुष्पदन्त विरचित पर्यलियपल्लवराहयं हुयवहपउलियसाहयं । दळूणं तं पायवं __चिंतइ णिवइ णवं णवं । होइ जयं पुणु णासए णिच्च चिय ण हु दीसए । घत्ता-जिह णग्गोहओ दाणिं दिट्ठओ ।। तडिदंडाहओ सहसा णट्ठओ ।२।। णासिहिति तिह हय गया चिंधछत्तचामरचया। देहो जो रसपोसिओ रयणाहरणविहूसिओ। सिंभवसापित्तासओ सो वि ण होही सासओ! इय भणिउं दाउं सिरि णियतणयस्स गओ गिरि । सिरिणायं सिहरुण्णयं दरितरुकीलियपण्णयं । संबोहियबहुवणयरं सिरिणायंकं मुणिवरं । णविऊणं जाओ जई सामंतेहिं समं वई। एयारह वि सुयंगई पढिऊँणं अविहंगई। धरिऊणं हिययं दद चिण्णं चरियं णीसढं। इंदचंदककित्तणं बद्धं तित्थयरत्तणं। अहमिदेहिं विराइए संभूयउ अवराइए। तेत्तीसंबुहिकालए गइ थिइ छम्मासालए। बिजली की आगमें जलकर भस्म हो गया। उस वृक्षको देखकर राजा अपने मनमें सोचता है कि यह विश्व नया-नया होता है फिर नाशको प्राप्त होता है। घता-जिस प्रकार इस समय वटवृक्ष विद्युत्-दण्डसे आहत सहसा नष्ट होता हुआ दिखाई दिया--॥२॥ उसी प्रकार हाथी और घोड़े, चिह्न, छत्र और चामर-समूह नाशको प्राप्त होगा। रससे पोषित, रत्नाभरणोंसे विभूषित, श्लेष्मा (कफ), मज्जा और पित्तसे आश्रित यह शरीर भी शाश्वत नहीं होता। उसने यह विचार किया और लक्ष्मी अपने पुत्रको देकर राजा श्रीनाग पर्वतके लिए चल दिया कि जो पर्वतोंसे उन्नत था और जिसकी घाटियों में सांप क्रीड़ा कर रहे थे। जिन्होंने बहुतसे अनेक वनचरोंको सम्बोधित किया है, ऐसे श्रीनायक मुनिवरको प्रणाम कर वह सामन्तोंके साथ मुनि हो गया। अविभंग ग्यारह श्रुतांगोंको पढ़कर उसने निष्कपट चारित्र्य ग्रहण कर लिया। जिसका कीर्तन इन्द्र और चन्द्रमा करते हैं ऐसे तीर्थंकरत्वका उसने बन्ध कर लिया। वह अमरेन्द्रोंसे विराजित अपराजित विमानमें उत्पन्न हुआ। वहाँ उसके तैंतीस सागर आयु बीतने और छह माह शेष रहनेपर ६. A पयडियं । ७. A णरवइ । ३. १. A चामरधया । २. A णमिऊणं । ३. P पडिऊणं । Page #525 -------------------------------------------------------------------------- ________________ महापुराण [६७. ३.१३ घत्ता-तम्मि कालए अमलिणवेसहो। सोहम्माहिवो कहइ धणेसहो ॥३॥ सुणि इह भरहे अंगए विसए धम्मवसंगए। मिहिलाउरणयराहिवो दीणेसु य पसरिय किवो। रिसहगोत्तवंसुब्भवो कुंभो णाम महाणिवो। किं किर कहमि महासई देवी तस्स पँयावई। णिकंदप्पो णिन्भओ होही ताणं अब्भओ। मुवि हिरण्णगब्भो गुणी जं थुगंति देवा मुणी। कुणसु तस्स णयरं तुमं ता धणएण अणोवमं। सहसा रइयं तं पुरं रयणजालफुरियंबरं। पुण्णाणं पिव संचए पासाए मणिमंचए। राइविरामे सुत्तिया पेच्छइ पंकयणेत्तिया । साहियसिरियणुभवणए एए सोलह सिविणए। __घत्ता-पूर्ण मत्तयं धोरेयं सियं । सारंगाहिवं गोवद्धणपियं ॥४॥ पत्ता-उस समय स्वच्छ वेशवाला सौधर्म इन्द्र कुबेरसे कहता है ॥३॥ "सुनो, भरतक्षेत्रके धर्मके वशीभूत अंगदेशमें मिथिलापुर नामके नगरका राजा है, जो दीनोंके प्रति कृपाका विस्तार करनेवाला है। जो ऋषभके गोत्र और वंशमें उत्पन्न हुआ है, ऐसा कुम्भ नामका महान् राजा है। उसकी देवी महासती प्रजावती है। उसका मैं क्या वर्णन करूं? उससे कामदेवका नाश करनेवाला निष्कलंक बालक उत्पन्न होगा, जो संसारमें हिरण्यगर्भ ( ब्रह्मा) होगा, और जिसकी देव और मुनि स्तुति करते हैं, उसके लिए तुम सुन्दर नगर बनाओ।" तब कुबेरने सहसा अनुपम, जिसके रत्नजालसे आकाश स्फुरित है ऐसा मिथिलापुर नगर बनाया। पुण्योंके समूहके समान प्रासादमें मणिमय मंचपर सोते हुए रात्रिके अन्तमें वह कमलनयनी, जिसमें लक्ष्मीके भोगको कहा गया है, ऐसे स्वप्नमें ये सोलह ( चीजें ) देखती है। घत्ता-मतवाला गज, सफेद बैल, सिंह, लक्ष्मी ।।४।। ४. १. A महिलावरं । २. A दीणेसुं; P दीणेसु पसरियं । ३. AP महाहिवो । ४. AP पहावई । ५. A तासु । Page #526 -------------------------------------------------------------------------- ________________ महाकवि पुष्पदन्त विरचित ४७९ मालाओ कयजणदिहिं अमयरुहं सररुहसुहिं। भावभरियवम्महरसं अणिमिसमिहुणं रइवसं । धवलघडाणं जुयलयं हंसीचुंबियकुवलयं । पुलिणणिलीणबेलाययं सजलं कमलतलाययं। सरिरायं रसणारवं मणिवीढं हरिभइरवं।' अच्छरणाइणिगेयए इंदफणिंदणिकेयए। हरियं पीयं तंबयं रयणाणं णिउरुंबयं । ठूणं मरजालियं अग्गि जालामालियं । पडिबुद्धा परमेसरी कहइ सपइणो सुंदरी। मई विइण्णलोयणरई दिट्ठा सिविणयसंतई। घत्ता-तिस्सा तं फलं कहइ नृसारओ। _तुह होही सुओ देवि भडारओ ।।५।। धरिही जो रयणत्तयं लहिही जो छत्तत्तयं डहिही जो णिभंतयं सोते होही डिंभओ अमरविलासणिसत्थओ णविही जस्स जयत्तयं । जाइजरामरणत्तयं । जाही मोक्खमणंतयं । सुहिजणलग्गणखंभओ। पत्तो मंगलहत्थओ। मालाएँ, जनोंका भाग्यविधाता चन्द्रमा और सूर्य जिसमें भावोंसे-। कामदेवका रस भरा हुआ है ऐसा रतिवश मत्स्ययुग, धवल घड़ोंका युग्म, जिसमें कमल हंसिनियोंके द्वारा चुम्बित हैं, जिसके तटोंपर बगुले बैठे हुए हैं, ऐमा सजल सरोवर। गर्जनासे भयंकर समुद्र, सिंहासन (सिंहोंसे भयंकर मणिपीठ ), अप्सराओं और नागिनोंके द्वारा गाये गये स्वर्गलोक और नागलोक, रत्नोंका हरा-पीला और लाल समूह तथा पवनसे प्रज्वलित ज्वालाओंसे सहित आगको देखकर वह परमेश्वरी जाग गयी। वह सुन्दरो अपने पतिसे कहती है कि मैंने आंखोंमें रति उत्पन्न करनेवाले स्वप्नोंको देखा। घत्ता-तब उसके लिए राजा उनका फल कहता है कि हे देवी, तुम्हारे आदरणीय पुत्र होगा । ॥५॥ जो रत्नत्रयको धारण करेगा, जिसे तीनों जगत् प्रणाम करेंगे। जो तीन छत्र प्राप्त करेगा, जन्म-जरा और मरण तीनोंका नाश करेगा, जो बिना किसी भ्रान्तिके अनन्त मोक्षको प्राप्त होगा। सुधीजनोंका आधारस्तम्भ वह तुम्हारा पुत्र होगा। मंगलद्रव्य हाथमें लिये हुए अमर ५. १.A वलालयं । २. A तडालयं । ३. A तस्सा । ४. AP णिसारओ। ६. १. A सो तव होही । Page #527 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४८० महापुराण [६७. ६. ६ सुविसुद्धे गब्भासए धणधारावरिसे कए। पढममासि पढमे दिणे आसिणिगइ हरिणंकणे। राणउ जो रइकंदओ . वइसवणो अहमिदओ। गयरूवेणवइण्णओ राणीगब्भि णिसण्णओ। सो सुरेहिं अहिणंदिओ फणिकिणरणरवंदिओ। णिवाणं पत्ते अरे वरिसकोडिसहसंतरे। मम्गसिरे तुहिणायरे सियएयारसिवासरे। आसिणिरिक्खे जायओ तित्थयरो हयरायओ। एक्कुणवीसमओ इमो णररूवेण व संजमो । अहिसित्तो अमरायले हरिणा पंडुसिलायले। घत्ता-मल्लियमालागंधो जाणिओ। इंदेण जिणो मल्ली भाणिओ।।६।। १५ अणुअत्थं पवियप्पिओ जणणीहत्थे अप्पिओ। घणडंबरघल्लियपया देवा णियवासं गया। बुहमुहपोमाणं इणो वड्ढइ कालेणं जिणो। जाओ जायरूवाहओ पंचवीसधणुदीहओ। आउसु तस्स सहासई वरिसहं पणपण्णासइं। वरिससए वोलीणए आरूढो सुरपूणए। विलासिनियोंका समूह आ गया। धनधाराकी वर्षा होनेपर सुविशुद्ध गर्भाशयमें चैत्र शुक्ला प्रतिपदाके दिन प्रातःकाल चन्द्रमासे युक्त अश्विनी नक्षत्रमें रतिका अंकुर वह राजा वैश्रवण अहमेन्द्र गजरूपमें अवतीर्ण होकर रानीके गर्भ में स्थित हो गया। नाग, किन्नर और मनुष्योंके द्वारा वन्दनीय वह देवों के द्वारा अभिनन्दित किया गया। अरनाथके निर्वाण प्राप्त करने के बाद एक हजार करोड वर्ष बीतनेपर मार्गशीर्ष सूदी एकादशोके दिन अश्विनी नक्षत्र में कामदेवका नाश करनेवाले तीर्थंकरका जन्म हुआ। उन्नीसवें तीर्थंकर यह जैसे मनुष्यके रूपमें मूर्त संयम थे। इन्द्र के द्वारा सुमेरुपर्वतपर पाण्डुकशिलाके ऊपर वह अभिषिक्त हुए। घत्ता-मल्लिकाको मालाके गन्धसे युक्त जानकर इन्द्रने उन जिनको मल्ली कहा ।।६।। उसने सार्थक नाम समझा और माताके हाथमें उन्हें दे दिया। मेघोंके आडम्बर ( घटा) में पैर रखते हुए देवता अपने निवासगृह चले गये। जो बुधोंके मुखरूपी कमलोंके लिए सूर्य हैं, ऐसे जिन भगवान् समयके साथ बढ़ने लगे। वह स्वर्णरूप हो गये एवं वह पच्चीस धनुष ऊंचे थे। उनकी आयु पचपन हजार वर्ष थी। सौ वर्ष आयु पूरी होनेपर वह ऐरावतपर आरूढ़ हुए। वह २. A अस्सिणि । ३. A राओ जो । ४. AP रुइरुंदओ । ५. A अस्सिणि । ७. १. A अणुअच्छे and gloss आश्चर्यम्; T अणुअत्थं आश्चर्यम् । २. Aधणुदेहओ। ३. A सुरथूणए। Page #528 -------------------------------------------------------------------------- ________________ -६७.८.८ ] कुइ विवाहपट्टणं परिहापाणियदुग्गमं घडियपायारयं पोमरायकयभारुणं हसियणिसावइतियं सरइ पहू अवराइयं खीणं तेण विमाणयं for होही किं थिरं महाकवि पुष्पदन्त विरचित ता सारस्यभासियं कुंभविस्य तरुहो इंदेणं ससहर मुहो जयणे जाणे थक्कओ कामे सुविरतओ जन्मदिणे णक्खत्तए णिववरं तिसेयइए जुओ सातवे ओ पेच्छ कुरो पट्टणं । बहुदुवारकयणिग्गमं । पवरट्टालयसारयं । उब्भियधुयधयतोरणं । पेच्छंतो घरपंतियं । सुकयं मज्झ पुराइयं । मुक्कं अहमिंदाणयं । रजम्मे यरं घरं । घत्ता - छत्तायारयं सिवमहिमंडलं || करमि तवं परं लहमि धुवं फलं ॥७॥ ८ · सोऊणं सुईमीसियं । तरुणीणं विवरंमुहो । हविओ दिक्खासंमुहो । कुवलय कुमुय मियंकओ । सरयवणं संपत्तओ । पक्खे तम्मि पउत्तए । मोहणिबंधाओ चुओ । णाचणंकिओ । ४८१ ४. AP कुमरो । ५. AP पोमरायकिरणारुणं । ८. १. A सुयमोसियं । २. A तिसईए; P विसइएन । ६१ १० विवाह के लिए प्रवर्तन करते हैं। कुमार नगरको देखते हैं कि जो परिखा और पानीसे दुर्गम है, जिसमें बाहर जानेके अनेक द्वार हैं, जिसके परकोटे स्वर्णरचित हैं, जिसमें श्रेष्ठ और विशाल अट्टालिकाएँ हैं, जो पद्मराग मणियोंकी आभासे युक्त हैं, जिसमें हिलती हुई ऊँची पताकाओंके तोरण हैं । गृह-पंक्तियोंको देखते हुए कुमार मल्लि अपराजित विमानकी याद करता है । मेरा पुरातन पुण्य क्षीण हो गया है उसीसे अहमेन्द्र विमानसे में मुक्त हूँ । इस मनुष्य जन्मके नगर और घर क्या स्थिर रहते हैं । १५ घत्ता - मैं केवल तप करूँगा और छत्राकार शिवमहीमण्डलके शाश्वत फलका भोग करूंगा ॥७॥ ५ ८ तब लोकान्तिक देवोंका आगमयुक्त कथन सुनकर स्त्रियोंसे पराङ्मुख दीक्षाके लिए उद्यत चन्द्रमाके समान मुखवाले कुम्भराजाके पुत्र वैश्रवणका इन्द्रने अभिषेक किया। 'जयन' यानमें बैठकर कुवलय (पृथ्वीरूपी) कुमुदके लिए चन्द्रमाके समान कामों से अत्यन्त विरक्त वह शरद्वनमें पहुँचे । जन्मके दिन अर्थात् अगहन सुदी एकादशीके दिन अश्विनी नक्षत्रमें तीन सौ राजाओं के साथ वह मोह बन्धनोंसे छूट गये । सायंकाल सुतप में स्थित हो गये और चार ज्ञानोंसे अंकित Page #529 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४८२ महापुराण [ ६७. ८.९ धित्तं पञ्चक्खाणयं मोत्तं भत्तं पाणयं । बिहिं दिवसेहिं गएहिं सो दसदिसिवहपसरियजसो। णिण्णेहो णीसंगओ मिहिलाए भिक्खं गओ। णंदिसेणवरराइणा दिण्णं भत्तं जोइँणा। मुत्तं तणुणिवाहणं संजमजत्तासाहणं । पत्ता-पुणु दिक्खावणे सुरहियपरिमले ॥ थक्कु असोयहो तलि धरणीयले ॥८॥ १५ दिणि छक्के विच्छिण्णए भिण्णे मिच्छादुण्णए। हुउ देवाण वि देवओ लद्धो खाइयभावओ। रिसिविज्जाहरसंसिओ इंदपडिंदणमंसिओ। समवसरणि आसीणओ अरिसुयेणे वि समाणओ। जीवमजीवं आसवं संवरणिज्जरणं तवं । बंधं मोक्खं भासए लोयं धम्मविसेसए। थवइ तस्स णिसुणियझुणी अट्ठवीस जाया गणी। सयई पंचपण्णासई पुन्वधराह णिरासइं। एक्कुणतीससहासई सिक्खुयाहं मलणासइं। हो गये । प्रत्याख्यानावरण आदि छोड़नेके लिए भात और पानी छोड़ दिया। दो दिन हो जानेपर दसों दिशाओंमें जिनका यश फैला हुआ है ऐसे निर्नेह और अनासंग वह मिथिला नगरीमें भिक्षाके लिए गये। नन्दिषेण श्रेष्ठ राजाने योगीको आहार दिया। शरीरका निर्वाह करनेवाला और संयमयात्राका साधक आहार उन्होंने ग्रहण कर लिया। घत्ता-फिर सुरभित परागवाले दीक्षावनमें वह अशोक वृक्षके नीचे धरणीतलपर स्थित हो गये ॥८॥ छठा दिन बीतनेपर (पारणाके बाद) मिथ्या दुर्नय नष्ट होनेपर वह देवोंके देव हो गये। उन्होंने क्षायिकभाव प्राप्त कर लिया। ऋषि विद्याधरों द्वारा प्रशंसित इन्द्र और प्रतीन्द्र के द्वारा प्रणम्य समवसरणमें बैठे हुए शत्रु और स्वजनमें समान वह जीव-अजीव-आस्रव-संवर-निर्जरा-तपबन्ध और मोक्षका कथन करते हैं, लोकको धर्मविशेषमें स्थापित करते हैं। जिन्होंने दिव्यध्वनि सुनी है ऐसे उनके अट्ठाईस गणधर हुए। आशारहित पूर्वांगके धारी पांच सौ पचास थे। मानका नाश करनेवाले शिक्षक उनतीस हजार थे। - ३. P घेत्तुं । ४. A मोत्तं । ५. P राइणो। ६. A भिक्खं; P भक्खं । ७. A जोइणो । १. P add after this: पूसकिण्हदीयए तओ, पंचमु णाणुप्पण्णओ । २. A अरिसयणे; P अरिसयणा । ३ A सिक्खुवाह; P भिक्खुयाह । Page #530 -------------------------------------------------------------------------- ________________ -६७. ११.२] ४८३ महाकवि पुष्पदन्त विरचित घत्ता-दुसहसदुसयइं सावहि हयकलि ।। तेहिं जेत्तिय ते तेत्तिय केवलि ॥९॥ चउदहसय वाईसह विकिरियह वि रिसीसहं। णवसय दोणि सहासई कुच्छियणयविद्धंसई। मणजाणहं सत्तारह सयपण्णास समीरह। पंचावण्णसहासई विरइहिं मुक्कंसवासई। सावयलक्खु अहीण सावई हिं तं तिउणउं । सुर असंख उम्मोहिंवि पसु ससंख संबोहि वि। भवसमुदतडपाविए मासंसेसथियजीविए। पंचसहासहिं जुत्तओ रिसिहि णाहु तमचत्तओ। संमेए सिरह्यणहे फग्गुणि सियपंचमियहे। भरणीरिक्खे मुक्कओ अट्ठमपुहइहि थक्कओ। पत्ता-हरउ भयंकरं भवविन्भमदुहं ॥ मल्लिमुणीसरो देउ सुहं महं ॥१०॥ ११ मल्लितित्थसंताणे कयपडिवक्खवहं बुहयणसुइसुहयरणं णिसुणह चक्किकहं । घत्ता-पापका नाश करनेवाले अवधिज्ञानी दो हजार दो सौ थे। वहां जितने थे उतने ही केवलज्ञानी थे ॥९॥ वादी मुनि चौदह सौ थे। कुत्सित नयोंका ध्वंस करनेवाले विक्रिया-ऋद्धिके धारक मुनि दो हजार नौ सौ थे। तुम मनःपर्ययज्ञानी एक हजार सात सौ कहो। अपना गृहवास छोड़नेवाली पचपन हजार आर्यिकाएं थीं, श्रावक एक लाख थे और श्राविकाएं तिगुनी अर्थात् तीन लाख थीं। असंख्य देवोंको मोहमुक्त कर संख्यात तियंचोंको सम्बोधित कर संसाररूपी समुद्रका तट प्राप्त कर जीवनका एक माह शेष रहनेपर पांच हजार मुनियोंके साथ अन्धकार रहित स्वामी शिखरसे आकाशके छूनेवाले सम्मेद शिखरपर फागुन शुक्ला सप्तमीके दिन भरणी नक्षत्र में मुक्त हुए । वे आठवीं धरतीपर पहुंच गये। पत्ता-हे मल्लि जिनेश्वर, तुम भयंकर भवविभ्रमके दुखको दूर करो और मुझे सुख दो ॥१०॥ ११ मल्लिनाथकी तीर्थपरम्परामें जिसमें शत्रुपक्षका वध किया गया है, जो बुधजनोंके कानोंके ४. AP तहिं हुय जेत्तिय तेत्तिय । १०.१. A पण्णावण । २. A मुक्कसवासई; P मुक्कभवासई। ३. A संमोहिवि । ४. AP माससेसि थिइ जीविए । ५. AP पुहविहि । ६. AP महं सुहं । ११. १. A°सुहजणणी; P°सुहजाणण । Page #531 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४८४ १० १५ २० महापुराण जंबूदीव सुरोलि पुण्वविदेह व रे विउलि सुकच्छाजणवइ सिरिहरि सिरिणयरे । asकरालअसिधारातासिय सयलखलो पयपालो पुहईसो पोसियपुहइयलो । णिसिसमए दट्ठूणं उक्कं हल्हसियं वित्त समवे सुकियं तेण कियं । बारहविहतवचरर्णे इंदियमयहरणं मुक्काहारसरीरं सल्लेहणमरणं । जायर अच्चुयकप्पे अमरो मरिऊणं सग्गसिहरभवणाओ पुणु ओयरिऊणं । इह भर कासी वाणार सिणाहो आइदेवकुलतिलओ पहु पंकयणाहो । मज्झेखामा सामौ रामा तस्स सई जाओ देवो पोमो ताणं सुद्धमई । तीसवर सहसर धणुबावीसतणु यसंनिहियणरोहो पहु णं चरममणु । गंगासिंधूविओ साहियमहियमरो हिरयणालंकारो णवमो चक्कहो । घत्ता - पुहईसुंदरी मुहउ धीयउ ॥ असि विणीयउ || ११ || लिए शुभकर है ऐसी चक्रवर्ती कथाको सुनो। जम्बूद्वीप के सुमेरुपर्वतके श्रेष्ठ पूर्वविदेहके अत्यन्त विशाल कच्छावती देशमें लक्ष्मीको धारण करनेवाले श्रीनगर में प्रजापाल नामका पृथ्वीश्वर है जो बिजली के समान भयंकर असिधारासे समस्त शत्रुओंको त्रस्त करनेवाला है और पृथ्वीतलका पालन करनेवाला है । रात्रिके समय आकाशसे गिरते हुए तारेको देखकर उसने शिवगुप्त मुनिके समीप बारह प्रकारके तपके आचरणके द्वारा इन्द्रियोंके मदका हरण करनेवाला पुण्य किया तथा छोड़ दिया है आहार और शरीर जिसमें ऐसा सल्लेखना मरण किया । मृत्युको प्राप्त होकर वह अच्युत स्वर्ग में उत्पन्न हुआ । स्वर्गकै विमान शिखरसे अवतरित होकर वह पुन: इस भारतवर्ष के काशीदेश में वाराणसीका राजा हुआ - इक्ष्वाकुकुलका तिलक स्वामी पद्मनाभ | उसकी सती स्त्री सुन्दरी मध्यमें क्षीण थी । उनका शुद्धमति पद्म नामका पुत्र उत्पन्न हुआ । तीस हजार वर्षं उसकी आयु थी । बाईस धनुष उसका ऊँचा शरीर था । वह लोगोंको न्यायमें स्थापित करनेवाला मानो अन्तिम मनु था । जिसने गंगा और सिन्धु नदियोंको सिद्ध किया है, धरती और देवोंको सिद्ध किया है, जो निधियों - रत्नों और अलंकारोंसे युक्त है, ऐसा वह नौवां चक्रवर्ती था । घत्ता - उसकी पृथ्वीसुन्दरी प्रभृति कन्याएँ थीं जो आठों ही अत्यन्त विनीत कही गयी हैं ||११|| २. A सुरालए । ६. A सहसाऊ । ७. A सिद्धउ | ३. A विदेहि वरे । ४. A उक्कं उल्हसियं । [ ६७.११.३ ५. A रामा सामा तस्स । Page #532 -------------------------------------------------------------------------- ________________ -६७. १२. १६ ] महाकवि पुष्पदन्त विरचित १२ दिण्णा ताओ सुकेप्स पुत्ताण । रज्जं करतेण भूचक्कवालेण । दिट्ठो घणो खे पणट्टो खणद्वेण । दुब्भंतिणा मंतिणा जंपियं ताम । जीवा ण बज्झति पुण्णेण पावेण । सो उत्त भो वुड्ढ णिण्णाय । णो जम्मु णो कम्मु करणव्वाणु | हे णिउत्ताण विष्णाणजुत्ताण णिच्छिमाणेण दीहेण कालेण देवेण सव्वावणीरिद्धिरिद्वेण कम्मारिचारिततत्ती कया जाम जायंति भूयाण संजोयभावेण दिखाइ भिक्खाइ किं होउ हे राय जंत्थि जो तस्स उत्पत्ति संताणु कूराण कउलाण कंकालंचिंधाण सुते किं मज्झु किं बंधुणेहेण एवं पवोत्तूण तच्चाई णाऊण सूरिरस तिव्वं समाहीइ गुत्तस्स सोमो व्व सोमेणं णिम्मुकपोमेण 'सड्ढं इसी जायया णिक्कसाएण 'खीणा तवेणं खरं णिक्कलत्तेण कीलालमत्ताण कंतारयंधाण | सामि सोक्खं धुवं एण देहेण । पुत्तस्स भूमिं असेसं पि दाऊण । काउं तवं पायमूले सुजुत्तस्स । राया सुकेॐ वि अण्णे वि पोमेण । णिल्लोहणिम्मोहिणा णिव्विसारण । मोक्खं गया संठिया णिक्कलत्तेण । घत्ता - एत्थइ तित्थइ जे हयवइरिणो || जाया भाणिमो ते हरिसीरिणो || १२|| ४८५ ५ १० १२ आठों राजा सुकेतुके स्नेहसे परिपूर्ण विज्ञानसे युक्त पुत्रोंको दी गयीं। लम्बा समय निकल जानेके बाद राज्य करते हुए भूपाल चक्रवर्ती समस्त धराऋद्धियों से समृद्ध देवने आकाशमें आधे ही पल में बादलको नष्ट होते हुए देखा। जब उसने कर्मोंके शत्रु जिनके चरित्रकी चिन्ता की तो दुर्भ्रान्त मन्त्रीने कहा - " प्राणी संयोगभावसे जन्म लेते हैं, जीव पुण्य या पापसे बन्धनको प्राप्त नहीं होते । इसलिए हे राजन्, दोक्षा और भिक्षासे क्या होता है ?" तब राजाने कहा - "हे न्यायहीन वृद्ध मन्त्री, जो चीज नहीं है उसकी उत्पत्ति या परम्परा नहीं हो सकती है । जब जन्म नहीं है, कर्म नहीं है, तो निर्वाण क्या है ? कंकाल चिह्नवाले क्रूर कौल मद्यसे मस्त कान्तारतिमें अन्धे चार्वाकों के सिद्धान्तसे मुझे क्या, बन्धुस्नेहसे क्या ? इस शरीर से में शाश्वत सुखकी सिद्धि करूंगा ?” यह कहकर, तत्त्वोंको जानकर, पुत्रको समस्त धरती देकर सुयुक्त समाधिगुप्त मुनिके पादमूल में तीव्र तप कर लक्ष्मीसे मुक्त चन्द्रमाके समान सौम्य राजा पद्मके साथ राजा सुकेतु तथा दूसरे राजा मुनि हो गये । निष्कषाय, निर्लोभ, निर्मोह और निर्विषाद तथा स्त्रीशून्य तपसे क्षीण वे मोक्ष गये और वहां अशरीरभावसे स्थित हो गये । घत्ता - इसी तीथंमें जो शत्रुओंको मारनेवाले बलभद्र और नारायण हुए उनका कथन करता हूँ ॥ १२ ॥ १५ १२. १. A दिण्णाउ ता ताउ । २. AP सुके उस्स । ३ A पिच्छिजजमाणेण । ४. A खं पणट्टो । ५. A अस्थि । ६. P धम्मणिव्वाणु | ७. A कंकालगिद्धाण | ८. AP साहम्मि । ९. P सोमो ण । १०. A सुकेऊविइण्णेण । ११. A सुद्धं इसी जायओ; P सक्कं इसी जायया । १२. A खीणं तवेणं । Page #533 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४८६ महापुराण [६७.१३.१ ससहरधवलहरे धणरिद्धे इह भरहे साकेयपसिद्धे। मंदरधीरो वीरो राया पुत्ता रामविरामा जाया। एए किर दुम्मइपइरिका पिसुणमंतिवयणेण विमुक्का। लग्गा ते ण हु पिउणो चित्ते भाउ वि णिहियउ जुवराइत्ते । लर्खियतच्चे रक्खियजीवे गुरुणो सिरिसिवगुत्तसमीवे । धम्मणाहतित्थे हयमारा ते पावइया रायकुमारा। णो समियं णियचित्तं कुद्धं अणुजाएण णियाणं बद्ध। जइ वयवेल्लिहलं पावामो तो तं खलमंतिं णिहणामो। एम भरंतो णिग्गयप्राणो अणसणेण जाओ गिव्वाणो। पढमे कप्पे पिहलँविमाणे जेट्ठो वि हु तत्थेय विमाणे । पिसुणेमहंतो ता संसारे अणुहविऊणं दुक्खपयारे। उत्तरसढीमंदिरणामे णयरे कामिणिकामियकामे । जाओ धरणीवइ खयरिंदो बलिबलणासो णाम'बंलिंदो । घत्ता-चंडा राइणो असिणा दंडिया ॥ तेण तिखंडिया मेइणि मंडिया ॥१३॥ १३ इस भारतवर्ष में धनसे समृद्ध चन्द्रमाके समान धवल गृहवाले अयोध्या नगरमें मन्दराचलके समान धीर वीर नामका राजा था। उसके राम-विराम नामके पुत्र थे। वे दुर्मतिसे प्रचुर थे। दुष्ट मन्त्रीके कहने में आकर आजाद हो गये। वे दोनों पिताके चित्तको अच्छे नहीं लगे, इसलिए उसने छोटे भाईको युवराजपदपर स्थापित कर दिया। कामदेवको नष्ट करनेवाले वे राजकुमार, धर्मनाथके तीर्थकालमें जिन्होंने तत्त्वोंको जान लिया है, जीवोंकी रक्षा की है ऐसे श्री शिवगुप्त मनिके पास प्रव्रजित हो गये। छोटे भाई (विराम) ने अपने क्रद्ध चित्तको शान्त नहीं किया और निदान बांध लिया कि यदि मैं व्रतरूपी लताका फल प्राप्त करता हूँ तो मैं उस दुष्ट मन्त्रीको मारूंगा। इस प्रकार स्मरण करता हुआ वह अनशनसे मृत्युको प्राप्त हुआ और प्रथम स्वर्गके विशाल विमानमें देव हुआ। बड़ा भाई भी वहीं उत्पन्न हुआ। वह दुष्ट मन्त्री भी संसारमें तरहतरहके दुःखोंका अनुभव कर विजया पर्वतको उत्तर श्रेणी में जिसमें कामिनियोंके द्वारा काम चाहा जाता है, ऐसे मन्दरपुर नगरमें बलवानोंके बलका नाश करनेवाला बलीन्द्र नामका विद्याधर राजा हुआ। घत्ता-प्रचण्ड राजाओंको उसने तलवारसे दण्डित किया। उसने तीन खण्ड धरतीको अलंकृत किया ।।१३।। १३.१.P साकेयए पसिद्धे । २. A रामविराम विजाया। ३. A भाऊ णिहिओ। ४. A लक्खियचित्त । ५. A तो। ६. AP पाणो । ७. AP विवाणे । ८. P तत्थेअ समाणे; K records: तत्थेष समाणे इति पाठे पूजासहिते । ९. P'पिसुणु । १० A परिंदो। Page #534 -------------------------------------------------------------------------- ________________ -६७.१४. १९] महाकवि पुष्पदन्त विरचित ४८७ एत्थंतरए सिरिसुंदरए। खेतविचित्ते भारहखेत्ते। कासीदेसे सज्जणवासे। बहुगुणरासी वाणारासी। नणयहम्मा णयरी रम्मा। पडिभडमल्लो अग्गिसि हिल्लो। सत्तिसहाओ तस्सि राओ। सिसुहंसगई अवराइय ई। णं पच्चक्खा कयरयसोक्खा। अलिकेसवई थी केसवई। बीया सरसा पियघरसरसा। विस्सुयणामो जो चिररामो। कयजिणसेवो आयउ देवो। थक्को गब्भे रवि व सियभे। जाओ तीए पढमसईए। रमियरईए केसवईए। अवरो हूओ वम्महरूओ। घत्ता-लीलागामिणो णाइ मरालया। वजोवणसिरि पत्ता बालया ॥१४॥ इसी बीच श्रीसे सुन्दर तथा क्षेत्रोंसे विचित्र भारत क्षेत्रके सज्जनोंसे बसे हुए काशी देशमें अनेक गुणोंकी खान वाराणसी नगरी है जो उन्नत प्रासादोंवाली और सुन्दर है। उसमें शत्रयोद्धाओंके लिए मल्ल तथा जिसकी सहायक शक्ति है ऐसा अग्निशिख नामका राजा था। उसकी शिशुहंसके समान गमनवाली अपराजिता नामकी पत्नी थी जो प्रत्यक्ष रतिसुख करनेवाली थी। दूसरी भ्रमरके समान बालोंवाली केशवती नामको पत्नी थी। दूसरी अत्यन्त सरस और पतिघररूपी सरोवरकी लक्ष्मी थी। जो पहला विश्रुतनाम राम था और जिसने जिनकी सेवा की है ऐसा वह देव आया तथा गर्भमें उसी प्रकार स्थित हो गया जिस प्रकार श्वेतकमलमें सूर्य। वह प्रथम सती अपराजिता स्त्रीसे उत्पन्न हुआ। जिसने रतिको तरह रमण किया है ऐसी केशवतीसे दुसरा (विराम) कामदेवके रूपमें उत्पन्न हुआ। पत्ता-हंसोंके समान लीलापूर्वक चलनेवाले वे दोनों बालक योवनश्रीको प्राप्त हए ॥१४॥ १४. १. A गिरिसुंदरए । २. P खेत्ति विचित्ते । ३. A °गुणवासी । ४. उग्गयहामा । ५. AP आओ। Page #535 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४८८ महापुराण [६७. १५.१ तहिं पहिल्लओ णंदिमित्तओ बीयओ वि णामेण दत्तओ। खरपयावभरतसियवासवा बे वि ते णिवा सीरिकेसवा । बे वि सिद्धहरिरहविहंगया बे विकासकज्जलणिहंगया। बिहिं मि अत्थि महिपंसुपिंजरो खीरसायरो णाम कुंजरो। मग्गिओ ये सो रायराइणा धीरैवइरिसंतावदाइणा। अट्टहास हिमरासिवण्णओ तेहिं तस्स सोणेय दिण्णओ। दूयवयणविहिवढिओ कली सह चमूइ आर्यउ णिवो बली । चारु अमरकंतारवासिणा दोहिणिल्लसेढीखगीसिणा। बद्धणेहरसमुणियसाउणा माउलेण केसवइभाउणा । सहिय बे वि बंधू वि णिग्गया सह बलेण समराइरं गया। जाययं रणं वलियसंमुहा सीरिणा या वइरितणुरुहा । चूरिया रहा दारिया हरी लूरिया धया मारिया करी। णच्चिया णहे अमरसुंदरी बद्धमच्छरो धाइओ अरी। अंतरे भडो संठिओ हरी तेण दोंछिओ खयरकेसरी। घत्ता-दोहिं मिजं कयं विजापहरणं ॥ को तं वण्णए बहुरूवं रणं ।।१५।। उनमें पहला नन्दिमित्र था दूसरा भी नामसे दत्त था। अपने प्रखर प्रतापके भारसे इन्द्रको सन्त्रस्त करनेवाले वे दोनों राजा बलदेव और नारायण थे। उन दोनोंको क्रमशः सिद्ध रथ वाहिनी और गरुड़ विद्याएँ सिद्ध थीं । दोनोंके शरीर कास और काजलके रंगके समान थे। दोनोंके पास धरतीको धूलसे घूसरित क्षीरसागर नामका हाथी था। उसे धीर वैरियोंको सन्ताप देनेवाले राजराजा ( बलीन्द्रने ) मांगा। अट्टहास और हिमराशिके रंगका वह गज उन लोगोंने उसे नहीं दिया। दूतके शब्दोंसे कलह बढ़ गयो। सेनाके साथ वह बलि राजा वहां आया। अमरकान्तार नगरके निवासी दक्षिण श्रेणीके विद्याधर स्वामी बद्धस्नेहके स्वादको जाननेवाले मामा केशवतीके भाईके साथ वे दोनों भाई भी निकल पड़े। सेनाके साथ दोनों समरांगणमें गये। उनमें रण हआ। बलि (बलीन्द्र राजा) के सम्मुख बलभद्रने शत्रुके पुत्रका काम तमाम कर दिया, रथको चूर-चूर कर दिया। घोड़ेको फाड़ डाला । ध्वज फाड़ डाले। हाथोको मार डाला। अमरसुन्दरो आकाशमें नाच उठी । तब मत्सर बांधता हुआ शत्रु दौड़ा। वह योद्धा और हरिके बोच स्थित हो गया। उसने विद्याधर राजाकी भत्सना की। पत्ता-दोनोंके द्वारा जो विद्याओंका अपहरण किया गया है, ऐसे उस बहुरूपी रणका कोन वर्णन कर सकता है ? ॥१५॥ १५. १. A हुवा । २. AP वि । ३. AP वोरं । ४. AP आइओ । ५. A दाहिणल । ६. A दुच्छिओ । Page #536 -------------------------------------------------------------------------- ________________ -६७. १६. १३ ] महाकवि पुष्पदन्त विरचित जं दिणयरबिंबु व विप्फुरिउ पडिवक्खें चक्कु मुक्कु तुरिउ । सुहडत्तदीउ णं संचरिउ तं दत्तएण हत्थे धरिउ । हउ वईरि तेण मारिउ तुमुलि गउ णिवडिउ सत्तमधरणियलि । इह एव एहु थिउ गपि जहिं महि मुंजिवि कण्हु वि गर्यउ तहिं । तहिं अवसरि सील परिग्गहिर । हलिणा हिय उल्लउं णिग्गहिउं । संभूयजिणेसरु सेवियउ तवतावे अप्पउ तावियउ । सहियई बावीसपरीसहई महियइं चउकम्मइं दुम्महई । अणयार महाकेवलिपवरु जायउ कालेण अजर अमरु । ससहावे तिहुवणसिहरु णिउ बीयउ परमेट्टि हवेवि ठिउ । सो बुधु सिधु णिचूयरउ धुवकेवलदसणणाणमउ । मयरद्धयचावसमुल्ललियं णिसियं संछिंदउ आवलियं । घत्ता-भरहणमंसिउ महे देहाणियं ॥ सुकुसुमयंतउ कुसुमसराणियं ।।१६।। इय महापुराणे तिसटिमहापुरिसगुणालंकारे महामव्वभरहाणुमण्णिए महाकइपुप्फयंतविरइए महाकब्वे मल्लिणाहपंउमचक्किणंदिमित्तदत्तयबकिपुराणं णाम सत्तसट्ठिमो परिच्छेओ समत्तो ॥६७॥ १६ जो दिनकरके बिम्बके समान चमक रहा है ऐसे उस चक्रको तुरन्त चलाया गया मानो सुभटत्वका द्वीप ही संचरित कर दिया गया हो। दत्तने उसे अपने हाथमें ले लिया। वैरी नष्ट हो गया। उसके द्वारा मारा गया वह भयंकर सातवें नरक में गया। इस प्रकार यह जहाँ जाकर स्थित रहा धरतीका भोग कर नारायण भी वहीं गया। उस अवसरपर बलभद्रने शील ग्रहण कर लिया और अपने हृदयका निग्रह किया। उसने सम्भूत जिनेश्वरकी सेवा की और तपके तापसे स्वयंको सन्तप्त किया। उसने बाईस परिग्रहोंको सहन किया। दुर्मद चार घातिया कर्मोका नाश कर दिया। अनागर महाकेवली प्रवर समयके साथ अजर-अमर हो गये। अपने स्वभावसे वह त्रिभुवनकी शिखरपर ले जाये गये और दूसरे परमेष्ठी (सिद्ध) होकर स्थित हो गये। पापको नष्ट करनेवाले वह बुद्ध सिद्ध शाश्वतरूपसे केवलदर्शन ज्ञानमय हो गये । कामदेवके धनुषसे उल्लसित पत्ता-कुसुमबाणमयी मेरे शरीरमें लगी हुई पैनी तीरपंक्तिको हे कुन्दकुसुमके समान . कान्तिवाले भरतके द्वारा नमनीय मल्लिनाथ काट दो ।।१६।। वेसठ महापुरुषोंके गुणालंकारोंसे युक्त महापुराणमें महाकवि पुष्पदन्त द्वारा विरचित एवं महामव्य मरत द्वारा अनुमत महाकाव्यका मल्लिनाथ पद्म चक्रवर्ती नन्दीमित्र दत्तबकि पुराण नामका सड़सठवाँ परिच्छेद समाप्त हुआ ॥६॥ १६.१. A पडिचक्कें । २. AP तेण वहरि । ३. A इह एम गंपि थिउ एह जहिं । ४. A जाम तहिं; P तेम तहिं । ५. AP तवभावें । ६. A दुम्मयई । ७. AP धुर । ८. A णिसि पासिउ छिदिउ आवडियं । ९. A महं । १०. A मल्लिणाहणिव्वाणगमणं णाम सत्तसत्तिमो । ६२ Page #537 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Page #538 -------------------------------------------------------------------------- ________________ NOTES [The references in these Notes are to Samdhis in Roman figures and to Kadavakas and lines in Arabic figures. ] XXXVIII 1. 126 भवइजसोहो, having the beauty of the rays born of भवइ, the lord of stars, or Tets, 26 qrafa, i.e., TATTUTH, publish or manifest. Note v. l. qraf which is simpler to understand, but K sometimes shows preference to such forms; compare fa in the following line; as also gogfa and toefa in 5. 10, 11; afsofa & pangfa in 3. 8 below. 2. 16 gaufzugs #faqafqh, for some days. 2a fofoquo3 fafquor:, dejected. fufcants i. e., falanta: of K is an equally good reading and may mean Totutiffaritatea, but I have adopted forfoquus in view of 303 for face for if in 4. 9a below, and in view of the gloss. 9–10 a f Alfs etc. a who lifted up atraat, the goddess of learning, going down on an empty, very empty or dangerous path ( quran y afe ) or in the empty sky in these (bad) times, full of wicked people ( angos ), and full of people of bad character ( Ac), by covering her (संवरिय संवृतां कृत्वा) by means of his विनय, modesty. 3. la अइयणदेवियव्वतणुजाएं, i.e., by भरत who was the son of अइयण or ऐयण and देवियब्वा. 26 दुत्थियमित्ते, by भरत who was the friend of दुत्थिय, persons in distress. 3a E TUTTHą furoago, by ta who accomplished, i.e., showered, obligations on me, i. e., poet 86995a. How ya put 969ra under his obligations can be seen from MP 1, 3-10 and Introduction to Vol I. pp xxviii-xxxii. 10 Je feraf etc., why don't you milch the milk of nine sentiments (ua Th) out of the cow, viz., your aut or poetic power which is fug or accomplished to you or is at your command. 4. 7a 73 73 of 3, the king is as ( fickle as the red glow of the evening, i. e., lasting for a short time. 86 49 fa es fa gas HT3, to compose even one word is a heavy task. 10 T T3 etc., the world is always crooked (443) with the virtuous (FOTO #E) as the bow is when strung with its string (T). 5. 26-3a According to the poet, a excelled even king water, i, e., सातवाहन, in that he ( भरत ) was a constant friend of poets ( अणवरयरइयकइमेत्तिइ ). Page #539 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 492 MAHĀPURANA [ XXXVIII 4a-b. The poet here refers to an anecdote that king fac carried the famous poet floath on his shoulders. Historically this reference is on par with several others, e. g., those mentioned in the TTFET. The date of the accession to throne of king of the patron of art, is 620 A. D., while #TFIE is certainly older than Aihole Inscription of 634 A. D., than atur (620 A.D.) and above all than वत्सभट्टि' मन्दसोर प्रशस्ति of 473 A. D. 8a-b. Poet पुष्पदन्त who styled himself as fiaaf95555, was honoured by some and was despised by others saying that he was a dullard (थध्दु). 11 देवीसुय, a son of देवी or देवियव्वा of 3. la above, ie. भरत. 6. 3a-b. The poet here assures his patron ta that his poctic genius manifests itself out of devotion for the feet of the Jinas, and not out of desire to earn his living ( 3 fotofaufanf ). 10. FE #foot #to, place on your car this ear-ring (#157), viz., the narrative ( FTof 34f5a. 7. The narrative of अजित, the second तीर्थकर, begins with this कडवक. I have already referred to the monotonous way in which lives of great men in Jain works are described (Vide MP Vol. I, p. 599). We first get some information of the previous birth of a Jina wherein he acquires the necessary qualifications of becoming a Jina in the subsequent birth. In the case of Ajita, he was विमलवाहन, a king ruling in the town of सुसीमा of the वत्सदेश, situated on the southern bank of the river सीता in the पूर्वविदेह of जम्बूद्वीप. There one day he acquires disgust for the worldly life, practises penance, cultivates the sixteen भावनाs such as दर्शनविशुद्धि, secures तीर्थकर नाम and गोत्र, dies by observing fast, is born in the विजय अनुत्तरविमान, has a life of 23 सागरोपम; there when only six months of this long life remain, the comes to know that this fe is to be born in staat in the raad as a son to king frary and queen fautent, and orders ar to bestow a shower of gold on this city. The six deities, t, , afa, ha, Fifra and wilfa, come to wait upon queen fastUT. The queen then secs sixteen dreams, and on waking up describes them to king hard who tells her that she would give birth to a जिन. When विमलवाहन completes his period of life as अहमिन्द्र he descends into the womb of factor in the form of an elephant. Gods arrive on the scene and congratulate foart. The Jina is born as fastfi e., possessed of मति, श्रुत and अवधिज्ञान, on the 10th day of the bright half of माघ. Gods headed by 9, arrive on the scene once more, go round the Jina three times, salu te the parents, and handing over to the mother a Atila, take the Jina to the # mountain, give him a bath, name him as afra, offer him prayers, and, bringing him back to BUTEUT, hand him over to his mother. When 3f50 attained youth, he was married to thousand princesses, He was also crowned as prince, and enjoyed the earth for 19 lacs of gas. One night prince 3fat saw a meteor Page #540 -------------------------------------------------------------------------- ________________ -XXXVIII ) NOTES 493 falling, and gathering from it that his fortune was as fickle as the meteor, resolved to renounce the worldly life. Gods arrive on the scene once more and praise him for his resolve. He then placed his son after on the throne, gods gave him a bath, and on the afternoon of the ninth day of the bright half of माघ he performed the केशलोंच and took the दीक्षा. The hair of the monk अजित were picked up by gg in a golden plate and thrown in the stays. One thou sand princes renounced the world with him. In a short time the fourth knowledge, viz., H:9945, was acquired by him. He took the vows with a fast of two days and a half ( Tata). He broke the fast the next day at अयोध्या at the house of king ब्रह्मा, who was graced by five wonders. अजित practised penance for twelve years, and on the 11th day of the bright half of पौष, he secured केवलज्ञान under सप्तच्छद tree. इन्द्र and other gods arrived on the scene, praised him and built a H T . There the Jina sat on a fapt, called , had with him all the eight siferufs, and then delivered a discourse. He had his to or followers devided into 12 groups, viz., TUTET, gaf , FTET, अवधिज्ञानिन्, केवलिन्, विक्रियाऋद्धिमत्, मनःपर्ययज्ञानिन्, अनुत्तरवादिन्, आर्यिका, श्रावक, श्राविका and देव, देवी, तिर्यञ्च् etc. With such संघ, the Jina wandered on the earth for a period of 53 lacs of gas less by 12 years. He then went to the hafrat, and having lived the life of 72 lacs gas, practised the qfarhts for one month, and attained emancipation on the forenoon of the fifth day of the bright half of 87. Gods worshipped him on this occasion, his body was burnt by 32017RAT, the ashes were respectfully collected by Indra and thrown into क्षीरसमुद्र. I have given all the details of the life of a here. The same will be repeated almost in the same form with the change of names, dates etc., in the case of all the tits mentioned in this Vol. and therefore will not be described any more. I am giving these details in the tabular form to facilitate understanding. 7. 2a stufe afrafes, we have a v. l. in K, 3772", but is corrected in the Ms. to दाहिण, perhaps on the strength of गुणभद्र's उत्तरपुराण, which reads : taraf & TATĪ TEHTEYT facut ETT 1-3729er, 48. 3. where 39 means south. 8b affe, by farmers. 8. &a- TH ETT etc. God of love falls into background on account of the beauty of विमलवाहन, and therefore gave up his body and became अनङ्ग. 9. 26 780944743, the mothers of five great vows, viz. the 25 saats, five for each vow. 8a दसणसुद्धिविणउ, the sixteen भावनाs beginning with दर्शनविशुद्धि. For details see तत्वार्थसूत्र VI. 24. These भावनाs enable a soul to secure तीर्थकर नामगोत्र. Page #541 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 494 MAHÁPURANA [ XXXVIII 10. 9a BERTEB, that whez, who, in the previous birth, was king faa167. 116 TUTTHAFOTETTOT, (374182) having houses of gold. 11. 1b Amraafurfuraë, dressed as earthly ladies. 4a Tfour y ag, even before the descent of the fut; into the womb i. e., 5 sent a shower of gold even before the जिन descended into the womb of queen विजया. 12. For sixteen dreams see my note in MP. Voll, pp. 600-601. 13. 4a- b a z etc. The staffs, on completion of his period of life at farafahr, entered into the mouth of the queen in the form of an elephant just as the sun enters into clouds. 9–10. These lines mention the interval between the निर्वाण of ऋषभ and the descent of अजित into the womb of queen विजया; it is fifty lacs of crores of ATTEITAS. 14. 4-5 दसणकमलसरणच्चियसुरवरि etc. इन्द्र ascended his elephant ऐरावण on whose lotu s-pond-like tusks gods were dancing. 86 THPT, talking full of devotion. 15. 6. Hq THIET Fulfa, using the hit " FATET." 18. 9a वसुवइवसुमइकताकतें, by अजित who was the lord of two wives, viz., wealth ( वसुवइ ) and the earth ( वसुमइ ). 19. 15 ईसमणीस समासमलीणी, the mind of lord अजित was completely engrossed in peace of mind (4, 59TH, QTa ). 46 313 aftaafa fa fr75, man's life is les sened year by year. 20. 4a-b toga r aTTg Tatt, for the continuation of his race which meant a series of acts ( कम्मसंताण) such as गइ (देवमनुष्यादिगति ) and misdeeds (zafiat ). The act of continuing the race involves a series of birth and death and several other acts which are misdeeds. 21. 6a-6 nafcq etc. The five miraculous things are F990, a shower of flowers from heaven, TET, beating of heavenly drums, quer shower of gold from heaven, itt, erecting of flags, and BETEIT, divine sound praising the nobility of gift. Compare faatadi page 78. 23. Description of AHETT. 24. Description of eight staafs, viz., 31*1987, fou qoqafe, foueaft, 27, सिंहासन, भामण्डल, देवदुन्दुभि and छत्र. 10-12 and the following कडवक mention the number of his TOTS, for which see the Table, 26 1 a freferę i. e., on mount Meru, 5 b 27TFestitao describes the process by which the soul of a Jina proceeds to forget. Page #542 -------------------------------------------------------------------------- ________________ -XL] NOTES XXXIX The samdhi gives the story of सगर, the second चक्रवर्तिन् of the Jainas. 1. 2 मगहाहिब, ie, श्रेणिक, the king of the मगध country who asked गौतम इन्द्रभूति to tell him the lives of sixtythree great mon 4 For दाहिणपलि AK originally read उत्तरयलि but K corrects it to दाहिणयलि which agrees with गुणभद्र's उत्तरपुराण: द्वीपे प्राग्विदेहस्य सीताप्राग्भागभूषणे । विषये वत्सकावत्यां पृथिवीनगराधिपः ॥ 48. 58. 495 12 घरचूलाल, the capital पृथ्वीपुर which struck or scratched the surface of the sky with the tops ( चूला) of its houses. 2. 96 सिसुमोहणीउ मुणिहिं वि दुवार, affection to children is irresistible even to monks 10 जिणवरवयणु रसायणु, the councillors of the king gave him the elixir, viz., the teachings of the Jinas to overecome his grief. 4. 3a इयरु विie महारुतमन्त्री 56 किउ दोहिमि पडिवोहणणिबंधु, god महाबल ( formerly king जयसेन ) and god मणिकेतु (formerly महास्त मन्त्री ) made an agreement that whoever was born as a human being first, should be reminded by the other who continued to be 3 or god, of this fact, 5. 9-10 The fourteen jewels of the sovereign ruler. 6. 30 जिव भर तिव समरहू जि होइ, ie, सगर got as much wealth as भरत, the first चक्रवर्तिन् 7. 1a मयमउलवियणयण, elephants have their eyes closed on account of their मद, rut or rutting season. 10a रयणकेउ, i. e., मणिकेतु, 8. 98 तरुणहि कोक्किन्जइ हसिवि ताउ, young women laugh at him and call him papa, father ( ताउ, तात ). 10. 20 देवसाहू o मणिकेतु, who, being a god, assumed the form of a monk. 12. Description of the descent of the मङ्गा. 14. 20 विहि ऊणी सट्टि sixty thousand sons, minus two viz., भीम and भईरहि or भगीरथ who alone escaped death. 96 गउ आवद णउ सरिसरतरंगु, waves of the river water, once gone, do not come back ( आवइ णउ ). 16. 11 दहधम्म पायंतिद at the fect of a sage named दवधम्म ( दृढधर्मन् ). 17. 66 गउ जेण महाजणु सो जि पंथ, Compare : महाजनो येन गतः स पन्थाः. XL 1. सासवसंभवु source of eternal bliss ( शाश्वत + शंभव ) संभवणासणु one that puts an end to संभव, birth, ie, संसार. 56 पुसियबंभहरिहरणयं, one that refuted (पुसिय) Page #543 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 496 MAHAPURĀŅA TXL the doctrines (णय) of ब्रह्मा, विष्णु, and शिव. 206 असिआउसं. For note on this expression see MP. Vol I, page 653. 23 अमिउं, पियह कण्णंजलिहि, drink the nectar, i. e., my Poem, with the अञ्जलि of your ears. Compare कर्णाअलिपुटपेयं विरचितवान भारताख्यममतं यः । तमहमरागमकृष्णं कृष्णद्वैपायनं वन्दे. 4. 10b सत्था i. e., स्वस्था, quiet, peaceful, happy. 5. 14a जित्तसत्तूसुए, son of जितशत्रु, i. e., अजित, the second तीर्थकर. 18b जंभारिणा, by इन्द्र. 6. 40 सईइ सई धारियउ, held or picked up by शची herself. 8. 12 किं जाणहं सोसिउ उवहि, what do you think? The ocean became dry as gods were carrying water for the bath of संभवजिन. 9. 13 पई मुइवि, त्वां मुक्त्वा , वर्जयित्वा, except yourself. 11. 7a कत्तियसियपक्खि i. e. कार्तिक + असित+पक्षे, कार्तिक कृष्णपक्षे, Compare गुणभद्र 49. 41 जन्मरूं कार्तिके कृष्णचतुर्थ्यामपराह्मगः. 11 णाणे णेयपमाणे, his knowledge which was co-extensive with ज्ञेय, knowables, i,e., the केवलज्ञान. 13.5a जक्खिदमउडसिहरुद्धरिउ, coming out from the top of the crown of यक्षेन्द्र, i. e. कुबेर. 14. 106 दहगुणिय तिण्णि सहस, i. e., thirty thousand. गुणभद्र however mentions twenty thousand. 15. la भवियतिमिरु, ignorance of the भव्य persons. 14 सिंगारंगह i.., शृङ्गाराङ्गस्य, ie., शृङ्गारभूमेः. XLI 1.1 for fefqug forats, one who wards off or controls the base, fazer, senseorgans, i.e., a तीर्थकर, here अभिनन्दन. 18 जीहासहसेण विणु, in the absence of one thousand tongues. The contear has one thousand tongues and hence capable of praising all aspects of a तीर्थंकर, but पुष्पदन्त. the poet; has only one tongue and hence unable to do justice to the qualities of a तीर्थंकर. 3. 16 सणियउं वियरइ, walks gently so as to cause no injury to a living being. 50 तिण्णि तिउत्तरसय, the expression is eliptic, but clearly refers to 363 doctrines of heretics, as the lection faciliore of AP indicates. 5.7b सव्वु सवारिउ, he accomplished it completely. 6. 12 आसणथणहरणि, by the shaking of his seat. इन्द्र learnt, on account of the shaking of his seat, that a fort was born. Page #544 -------------------------------------------------------------------------- ________________ -XLII] NOTES 497 8. This 459% gives the list of ten deities invoked at the time of he bathing of a ft. These deities or #91558 are: F5, 3 , 4, 7, 70, aty, at, रुद्र, चन्द्र and फणीश; they are described here with a specific mention of their vehicle (वाहन ) weapon (प्रहरण ), wife (प्रियरमणी) and a characteristic feature (fa ), as line 23 says. 12. 13 भयलज्जामाणमयवज्जियां जिणवउं पेम्मसमाणगं, the vow of a जिन is like the vow of love or behaviour of love, in as much as it ignores or is destitute of fear, shame, pride and self-respect. Just as a man in love ignores the love ignores the feelings of fear etc., 80 a fotat ignores these feelings. 17. 9a जीवपक्खिबंदिग्गहपंजरु, (the dead body मुक्ककलेवरु ) was a cage to catch the bird, viz., the soul. XLII 1. 18 समासइ वइयरु, the व्यतिकर, story or narrative is being abridged ( 44186, #hid). 2. 4b qtcucifafasifuges (in the country) where the herds of elephants were reddened with the pollen of lotus flower, 5a que formaT etc. The region of goistaat was so charming that it bore the comparison with TF2ft from which the god of love, TETHUT, the lord of fat, would depart (only) with difficulty. 106 रमइ वइसवणओ आवणे आवणे, the lord of wealth, वैश्रवण, i. e., कुबेर, took delight in every shop, as it had plenty of wealth. 15 39hqiftgut, with the water (atforat, qitu) of tranquility of mind (3947, 5497). 16 TISUT, with the grass (0, TOT) senjoyments (174, TT). 3. 176 fuadeur, with his body filled with horripilation ( 56, FETA) due to joy. 4. 15a gg &fc , when the orders of gf, i, e., , were obeyed, i, e., when the town etc. was decorated at the command of Indra. 17 Bragfour tea, even before the arrival or birth of the अर्हत. 5. 21 daerufe, with flags ( , TTT) fluttering (gova ). 7. 66 णिविधकामावहो, of the जिन who continually or uninterruptedly destroys the god of love or passions. 106 45g r , hard to be practised by dullards and mischievous people, literally means a mischievous bull. forff 955 etc. A wretched camel throws itself or wanders over a rugged cliff (forfettare) for the sake of sweet (##refor) herbs where they cannot be had. 9. 56 u afegua, when the sun turned towards the west, was about to set. Page #545 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 498 MAHĀPURĀŅA [ XLIII 12. 15b घडिमालाहय, the पूर्व periods counted by the series of घटिका that elapsed. Compare zafcueqref in 5. 14a. XLIII 1.5aणियायममग्गणिओइयसीसु, who directed his disciples (सीस, शिष्य) on the path prescribed by his holy texts (fac + 37TH) or scriptures. 7b tiam bulblike ( tender ) neck, 2. 6a ofte, nests or houses, 10a sifa for ( fuit ), women, 13 gt3 TETE, qui HTT, be accomplished. 15 normally means tafa, but the gloss explains it as go. 14 i 3 etc. If the town or capital is abandoned, then one can secure emancipation quickly. If the king leaves his kingdom he can secure release from arc. 4. 1a-b fortatorstag fatta,... Helaf, ate, the period of life of the firs was twenty सागरोपम ( महोवहि) mixed with or plus (विमीस, मिश्र) eleven which is the number of the प्रतिमाs of a householder, in all thirtyone सागरोपम. 8. 106 ghlug, wretched man. 10. 46 The line should be rather read : warna afeg forth, always equanimous towards his relatives and towards his enemies. XLIV 3. 8a Tehfcargura 1743, born in the race (suora Frau = at of fear, the first तीर्थकर who was परमारिस, परमषि, the great sage. 6. 11 qfrytur here stands for achts, atoms. All atoms or as many atoms as exist in the universe, were used to make up the body of the lord gyra. 7. 5a 357353, the falling of stars or meteors, which indicated the fickleness of T. 9. 5b जलहिमाणि किं आणिज्जइ घडु. Can we use or bring an earthen jar to measure ( the waters of the ocean ? XLV 1. 17b auratora, by means of a wreath of fresh lotus flowers, namely, my poetic composition ( 1907, 97 ). 2. 16b 1495413, made of gold ( Fieta ). 3. 1?a-b great for me, the quarters ( Fan, facit ) were being beaten, i. e., filled, with the sound of trumpets (ge, gef ); #foot far feu o y , even if a Page #546 -------------------------------------------------------------------------- ________________ -XLVIII ] NOTES 499 sound reaches our ears, it is not heard or understood owing to deep sound of trumpets. 6. 96 TOT, army of # ( 74 ), god of love. 13. 13-14, The meaning of the lines is: q was born in the court heaven, and had a white complexion (faut and very bright lustre. On seeing this lustre of पद्मप्रभ, the wife or wives of पुष्पदन्त,i.e., of चन्द्र and सूर्य, felt that their lustre was nothing before his lustre and thus became blackened. XLVI 5. 96 Adfe a 919gourg, like crops ( ATH, FT) sown in series of plough share marks ( at ). # is a deść word meaning a line drawn by the ploughshare (हलविदारित भूमिरेखा) and is still preserved in Marathi in the form of तास. 6. 12. faturaufe ifas TET as, the milk which was used for bathing the fun, could not be distinguished as its colour was identical with the complexion of the जिन; an instance of मीलितालंकार. 11. 5a maag pins af fafout, put the figure 3 after 9; araas are nine, The whole passage gives the figure 93 which is the number of Torts of 954. 10-11. These lines mention the eight प्राविहार्यs such as पिडीगम, i.e., अशोकवृक्ष. The position of these starts in the middle of the list of the followers of this unusual, XLVII 4, 3a 4-es fe TTHE, he avoids places where there is the tree (973, 27 ) of anger. The variant in P, 'ary' is clearly an easier substitute for . 6. 9a-6 The child, looking at its mother and also at her reflected image, was comfounded and felt it had two mothers ( athrug Ahrath ) and so was unable to decide which was his real mother, XLVIII 1. 19 गुणभद्दगुणीहिं जो संथुउ, he i. e., the tenth तीर्थंकर who is glorified by the revered sage गुणभद्र. We know that गुणभद्र is the pupil of जिनसेन the author of the Sanskrit आदिपुराण. जिनसेन's work was continued after his death by गुणभद्र, which is called the 3775TTT. The expression Treufe may also be interpreted "by pious monks possessing auspicious qualities.” 4. 14 तं पट्टणु कंचणु घडि, that city was made or built of gold. कंचणु stands for काञ्चनं, i.e., काञ्चनमयम्. AP read कंचणघडिउं as the copyists did not understand the meaning above of कंचणु. Page #547 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 500 MAHAPURĀŅA [ IL 9. la-b 8 g etc. The line means: Even though the water used for the bath of a flowed in a downward direction, it led the pious people in the upward direction, i, e., to heaven. 10. 5b JATTUTT Tout onis, a man, out of pride, goes or walks with his face or head up or erect. A proud man walks with his head stiff and erect. 13. 1b farbas foraft, the gods brought to their minds the ( apparent ) contradictions in the life of the fut. In the following lines we get a reference to these contradictions. For instance, the fort is called T91 (cowherd boy, lord of the earth ) and is very terrific to his own enemies (forafas). 18. 5a-6 He who makes gifts of cows etc., goes to facopota in golden fahrts, and enjoys (AT ) heavenly pleasures. 11. E foafurur, is purified by touching the पिप्पलवृक्ष. 20. 14 सई विरइवि कन्व, मण्डसालायण himself composed some verses glorifying the gifts of cow etc. and brought them to the king. The king felt that these verses were as authentic as the Vedas. IL 1. 15 कित्ति वियंभउ मह जगगेहि, may my fame spread over the house of the whole world. The poet is conscious of his poetic powers which, as he says, would bring him a world-wide name. 3. 36 गुणदेवहं भवदेवहं ईसरु, the अनन्तजिन is said to be the lord of गणधरs and also of gods by birth such as F# etc. 5. 9 at rus etc. Owing to the shower of gold in the city it was very difficult for people to distinguish the night from the day. The people therefore called that time to be the daytime when lotuses in ponds bloomed. L. This samdhi and the two following narrate the story of the first area (fage ), first anda ( fata ) and first gferarusa ( sarta ) of the Jain Mythology. In order that the reader should understand the background of the friendship between त्रिपृष्ठ and विजय, and the enmity between त्रिपृष्ठ and अश्वग्रीव, the poet gives us the narrative of the two previous lives of all these three. 1. 5a 13 TESTET es, where travellers were made to drink to their satisfaction (धाय) the streams of milk of cows. 1la जइणो i. e., जैनी which is Page #548 -------------------------------------------------------------------------- ________________ -LI] NOTES 501 a proper name here. 15 खलमित्तसणेहु, friendship with a wicked friend which lasts only for a short time. 2.5a णिग्गेसइ ण वाय, words will not come out. The root णिग्ग here and in 7b below corresponds to निघणे in Marathi and may be traced to निर् + गम् or गा. 3. 56 तरइ swims. The root तर to swim is preserved in Marathi in this sense. There is another root तर in Prakrit which means to be able (शक). ___ 4. 1b वणुस्साहिलासं should have been वणस्साहिलासं, the desire to have the garden, que is found in all the Mss. and hence retained. Or, are we to take वण + उस्स ( उत्सुक )+ अहिलासं, keen desire for the garden ? 126 तायाउ आराहणिज्जो, to be respected after the death of my father. You deserve the same respect as my father. __5. 13 दुग्गु भणेवि, saying ar thinking that the stone pillar was like a fortress ( दुग्ग ). वइरिउ i e. विशाखनन्दी. 8.6a छइ उ (छादितः) defeated. 9. 10 तुज्झु हसियह करमि समाणउं, I shall equalize, ie, repay your laugh which ridicu les me and insults me. 10. 8b अवरु i.e., विशाखनन्दी. LI 1.6a जायासीधणुतणु, They both (विजय and त्रिपृष्ठ ) grew to the height of 80 bows. 96 बिहिं पक्खहिं णं पुण्णिमवासरु, like the day of the full moon which had on one side the bright half and on the other side the dark half, corresponding to विजय बलदेव who is white and त्रिपृष्ठ वासुदेव who is dark in complexion. 2. 1lab हलहरु, दामोयरु. Please note that बलदेवs and वासुदेवs will all be referred to by their various synonyms such as सीरि, हली, लंगलहर, सीराउह etc. for बलदेव, and दामोदर, माधव, श्रीवत्स, अनन्त, सिरिरमणीस, लच्छीवइ, ( लक्ष्मीपति ) दानवारि, दानववैरिन्, विट्ठरसव, विस्ससेण, etc. for 'वासुदेव; similarly अश्वग्रीव is mentioned under हयग्गीव, हयकंठ, तुरंगगल etc. __5. 4b पृयवयणहिं, note ऋ in पृय which has come in for प्रिय probably by extending the application of हेमचन्द्र's rule: अभूतोऽपि क्वचित्, iv. 399. 6. 13. जसु जसु, यस्य यशः whose fame. . 7. 8b मृगवइयहि जाएं, by the son of मृगावती, i.e., by त्रिपृष्ठ. 9a संचालेवी, the potential passive participle. Campare also पालेवी जणेवी, परिणेवी etc. हेमचन्द्र under iv. 438 however gives एवा as substitute for तव्य in अपभ्रंश and does not mention एवी. Page #549 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 502 MAHÁPURANA [ LII 9. 13-14णियजणणविइण्णु etc. The lines mean that अर्ककीति understanding the signs of the brows from his father prostrated before king tonefa and thus saluted him. 10. la हरिबलेहि, by हरि i. e., त्रिपृष्ठ, and by बल i. e., विजय. ससुरउ ( श्वशुरः ) the the ( would-be) father-in-law of त्रिपृष्ठ. 11. 12-13 पुणु भणिउ etc. They again said to अणंत (त्रिपृष्ठ ): Let us sce; lift up the slab of stone, and show to us whether you would be the killer, ( कयंतु, कृतान्तः ) of हयकंठ (अश्वग्रीव ) or no. 15. 14 अह सो सामण्णु भणहं ण जाइ, now he cannot be called an ordinary man ( सामण्ण, सामान्य ). LII 1. 2 चिरभववइरवसु, under the influence of enmity of the previous birth, when both of them were विश्वनन्दि and विशाखनन्दि. 4 तिखंडखोणिपरमेसरु, the lord of earth with three continents, i. e., df. aura was the award before त्रिपृष्ठ. 5. 46 विज्जाहरभूयरभूमिणाहु, the lord of the विद्याधरभूमि and भूचरभूमि, i. e. the अर्धचक्रवर्ती, अश्वग्रीव. 7.3a मा रसउ काउ चप्पिवि कवाल, a crow sitting on the head of a person and crowing is considered to be an indication of approaching death. 8.2 करगय etc., why do you require a mirror to see a golden bracelet which is put on your hand? A famous लोकोक्ति. 5a भरहह लग्गिवि, from the days of king भरत, the first चक्रवर्तिन्. 11 रणु बोल्लंतहुं चंगठ, the talk of fight is pleasant. Campare युद्धस्य कथा रम्या. 9. किंकर णिहणंतहं णत्थि छाय, there is no charm or pleasure in killing the servants, aprauta was glad to fight with fg as he thought that there was no pleasure in fighting with the inferior or low people. 15 सारंग is interpreted as बलवत in T. but it appears that त्रिपृष्ठ, being a वासुदेव, should have a bow made of a horn, facus is called me in Hindu Mythology. The other emblems of विष्णु in Hindu Mythology such as पाञ्चजन्य, कौस्तुभमणि, असि, कौमोदकी गदा, गरुडध्वज and gut, are also mentioned as emblems of anyaa in Jain Mythology and hence I think that सारंगु धणु should also mean शाङ्ग धनुः. 10. 4 a-b This line mentions the weapons of बलदेव; they are: लाङ्गल, a plough, मुसल, a pestle, and गदा called चन्द्रिमा. Page #550 -------------------------------------------------------------------------- ________________ -LIII ] NOTES 503 11. 2 fat i, e. Tas, eagle, who is the emblem on the banner of atica or facus. 8a furfang, thick and high. This expression, according to T seems to come from fire and 39. It is likely that it can also come from free, farg and 39 + 3 of which the second 39 become's 39. The meaning would be 'hair standing on end (THT) which remain for ever high.' 12. 8a-b 5. etc. A warrior says : Even if my head falls, my trunk would kill the enemy and dance. 15. 2 #UUT TE ZET T 5, the armies that were engaged in a fight which was due to the giving away in marriage of the girl Fair. 12–13 These two lines compare the two armies to loving couples, मिहुणइं, मिथुनानि, engaged in love-sport. 16. 2 fafc&fche, who is mentioned above in LI, 16, 9 b, as the minister of king 19.25 h a gut, i, e., by gf het. 17. 146 of 173 , the moon in the eight place in the horoscope indicates death. For a different view see yogafc VI. 9: कस्सटुमो दिणअरो कस्स चउत्थो अ वट्टए चंदो। where the moon in the fourth place is said to indicate death, 19. 36 oftcoputerat tot, i, e., by auta. 20. 216 stiefs, free from fear. 21. 14b fa7fAOTTE, by beloved, viz., the female jackal ( farat ). 16 Hamay, price or return. 24. 15b 1977, the wheel of the potter. When the discus of quita did no harm to fitqg and remained on his hand, asta said that it was like a wheel of the potter, quite useless in warfare, although F98 and his party valued it so much. 790ta abu ses 1798 by saying that a begger may value a lump of oil-cake as a precious article of food, which would satisfy his hunger. but others do not think so. 25.9 कामिणिकारणि कलहसमत्तो, engaged in fight or battle for the sake of a lady (Faush). LIII 5. 5b कंजबंधवो सरम्मि दिण्णपोमिणीरई, the sun who is the friend of lotus flowers and gives delight to lotu s-plants in the lack. 6. 86 तित्थणाहसंखम्मि रिक्खए, on a नक्षत्र which is twenty fourth, i e. शतभिषा or शततारका. Page #551 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 504 MAHAPURANA [LIV 8. 5a अण्णह पासि ण सत्थविही कत्थइ सुणइ, he does not study the शास्त्रs with any teacher other than himself. The aim is self-enlightened and does not require a teacher. 13. la Auft, with the saf3977279, i. e., TarCAT TT. LIV 1. 14-15 The lines mean: If I ( the poet compare the face of Tort to the moon, there will be no exhibition of my poetic powers, I would not be called a poet; for, the face of TTT is not soiled or darkened by the deerspot as the disc of the moon is, nor is there reduction in size nor crookedness as it is in the moon. 3. 2 इहु कल्लोलणिवहु etc. The poet says that friendship between विन्ध्यशक्ति and a was so fast and intimate that it was impossible to draw any distinction between them; for who will be able to differentiate the ocean from a mass of waves ? The art or identity between age and is an accepted thing with philosophers. 8. 76 The birth of anca and area is heralded by the sun and the moon seen in dreams by their mothers. 8. 96 atas 3991dfag 63. The name of the mother of farqsaryża is guaraat as given here. Topus however gives it as 39. Compare: तस्यैवासौ सुषेणाख्योऽप्युषायामात्मजोऽजनि । faqerenfTCETEU Tafaeftat 11 58. 84. 9. 10b गलियंसुयई सुहद्दहि णयणई, I shall kill अचल and make his mother सुभद्रा shed tears. 12. 10-12 रायत्तणु etc. There is a pun on राय which means राजन् as well as ITT. 17. 8a रासहु होइवि etc. तारक compares द्विपृष्ठ to an ass and himself to an elephant. 10a Tatates, the son of a cowherd boy, is an epithet of area (), who, according to Hindu Mythology, lived and was brought up among the cow herds. LV 3, 6b To fi quis , how can querfa (9696a) describe his qualities ? aus means broken, incomplete, which is one of the nicknames of goyect. Page #552 -------------------------------------------------------------------------- ________________ -LVII) NOTES 505 7, 86 OTTUTUT, 1979t: i. e. gods. 16 for å foret fat 3, the season of summer ( foret, TOH) defeated winter (fara, fa# ). This was a fare for faire to realize the impermanence of the world, LVI 1. 6a por ato for fara fera o , wealth, like the rainbow, does not remain perpetu aly with a person. 7a 77 UHTE 3autfa, brothers misbehave ( autfa, 297fr ) with their brother. 2. 8a-b चर etc. चर, गमण, छेज्ज and कड्ढण are different types of the play of dice which are a means of attacking the opponent and taking charge of his possessions. 96 fys foretre H, one of them ( The lost his kingdom. Note the use of afs3 which word, in the form of 3500 is preserved in modern Marathi. 6.4a महराउ भणहि महघोट काई, how can you call king मधु a mouthful of honey? How can you speak of king in such light terms ? 7a ff THOTTT, by धर्मबलदेव who wears blue clothes. बलदेव is a नीलाम्बर. Compare नीलाम्बरो रौहिणेयः कालाङ्को मुसली हली in अमरकोश. 7. 10a gfaçaqueta, sfare + gogurty, 345 i. e., Fatie ( area ) got angry. 11 a-6 675 Fes etc. I swear by the feet of (my elder brother ) 7h, if I do not make the goblins drink the blood of king मधु. पायमि stand for पाययामि, make one drink, a causal form of ar to drink. 8. 1 TIETUS, the son of age, i. e., Fun. The name of the mother of Fazla is feat as we see from 4. 76 above; here the poet uses a synonym allt for qfaat. 9. 46, 66 kjafefe augu i. e, by #T. 54-b-6a faza44494faugo, by king मधु who was glorified in compositions or poems ( वयण, वचन ) composed by a body of learned men (farar, faavuta). 36 HEHEHR by the discus discharged by the enemy of मधु. महुमह or मधुमथन is one of the names of विष्णु in Hindu Mythology. LVII This samdhi gives the narratives of three persons, संजयन्त, मेरु and मन्दर with their several past lives. Of these #s and at are the two prominent TTOTETTS of fans. The table given below records chronologically the different previous births of persons mentioned in the narratives : Page #553 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 506 MAHAPURĀŅA [ LVIII(a) संजयन्त-(१) सिंहसेन; (२) अशनिघोष हस्ती; (३) श्रीधरदेव; (४) रश्मिवेग; (५) अर्कप्रभ; (६) वज्रायुध; (७) सर्वार्थसिद्धि अहमिन्द्र; and (८) संजयन्त, It is in this birth that he attained emancipation. (6) मेरु-(१) मधुरा; ( २ ) रामदत्ता; ( ३ ) भास्करदेव; ( ४ ) श्रीधरा in देवलोक; (५) रत्नमाला in the अच्युतस्वर्ग; ( ६ ) वीतभय; (७) आदित्यप्रभ; and (८) मेरु who is the गणधर of विमल. (0) मन्दर-(१) वारुणी; (२) पूर्णचन्द्र; ( ३ ) वैडूर्यदेव; (४) यशोधरा; (५ ) रुचकप्रभ in कापिष्ठस्वर्ग; (६) रत्नायुध; (७) विभीषण; (८) द्वितीय नारकी; (९) श्रीधामा; (१०) ब्रह्मस्वर्गस्थित देव; (११) जयन्तधरणेन्द्र; and ( १२ ) मन्दर who is the गणधर of विमल. There are two other prominent persons mentioned in the narrative; they are : (1) सत्यघोष or श्रीभूति, the minister of सिंहसेन who became अगन्धनसर्प, चमरमृग, कुक्कुटसर्प, तृतीय नारक, अजगर, चतुर्थनारक, सादिभव, सप्तमनारक, सर्प, नारकी, मगशृङ्ग and विद्यदृष्ट्र; ( 2 ) भद्रमित्र the merchant who became सिंहचन्द्र, प्रीतिकर देव and चक्रायुध. 1. 56 चिज्जइ comes from चि to pluck, to collect, and then eat. The T gives med which is only a secondary sense of the root. 6. 10 देवदिवायराह, of god आदित्यप्रभ who in subsequent birth became मेरु. 9. 1la बिण्णि वि एयइं, i.e., यज्ञोपवीत as well as मुद्रिका. 14. la णावइ वारुणि, like wine. .. 15. 6a तूलिहि, on a mattress made of cotton ( तूल ). 18. 4b कम्मारउ, a labourer. LVIII 9. laपण तह का etc. The line means: Now for the sake of अनन्त ( तहु कइ, तस्य कृते) the royalty ( राज्यश्री ) suffered pangs of love; she fainted ( but was brought round ( सञ्चयण कय ) by fanning ) by means of chowries. 11. 86 मिहिरमहाहिय, superior in lustre ( मह, महस् ) to the sun ( मिहिर ). 13. 12a अमवासाणिसियहि, on the night of अमावास्या. Both गुणभद्र and पुष्पदन्त do not mention the month which is #7. Probably we are to borrow the name of the month from 11.la. 16. 9 महुसूयणु i. e. मधुसूदन the Mss use promiscuously महसूयणु and महुसूयणु. In Hindu Mythology मधुसूदन is the name of विष्णु. Are we to take मखसूदन to be the name, which is confounded with मधुसूदन ? 21. Note the दामयमक or श्रृंखलायमक throughout the कडवक. Page #554 -------------------------------------------------------------------------- ________________ -LX) NOTES 507 22. 56 7 9 i. e. 7, the discus. 13a cafofo TË THOTE afe, there are hundreds of रथात, i.e., चक्रवाक birds in lakes but can they catch a maddened elephant ? LIX 4. 7 fafata ca e, giving delight to men who were modest or humble though rich. Note that the word fafaute has no case-ending of the Genitive. See हेमचन्द्र iv. 345. 6. 3a gaffe Tafafcaft, there is no mention of the name of the month here, Elsewhere, i. g. in , the month of Fre is mentioned, but we cannot have gone on the full-moon day of 19. The month therefore must be 19. Is the confusion due to the difference in the method of naming the months in the northern and southern India ? 14. la 7431 ( TIF ), the wheel, i. e., discus, the weapon of a wafat. 19, 10 fact s , the drippling of dirty rainwater. LX 2. 5b ofa afura fu fata 1993, where the sun (U13, 95 ) could not be seen because of the rays of gems. The gems were so numerous and vast that their rays even eclipsed the sun. 3. 5b कोडिसिलासंचालणधवलहु, the line refers to the exploit of त्रिपृष्ठ the first वासुदेव who lifted up the कोटिशिला. See LI. above. 4. 136 TTESTATTHUÊ, by a series of gifts passing or exchanged between fari and 3rfader. 14 forfir f3, Aff; an astrologer. 5. 96 si qog5 3 ta, when th, i. e., fastu ada renounced the world, I (the Brahmin astrologer says ) also became a monk with him. 6. lla Atmaqs, given by my father-in-law (TA). Even in modern Marathi the father-in-law is called HTHT. 8. 24 अमोहजीहु, the name of the astrologer. 75 जेणुव्वरसि by which you will survive the calamity. 11. 36 forage, the AP reading foreporre is easier. The meaning of the expression is 'binding tissues. 96 953 turn. The word at, meaning a turn, is preserved in Marathi, Page #555 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 508 MAHA PURANA [LXI ___18. 5a हरिसुउ, i. e., श्रीविजय the son of त्रिपृष्ठवासुदेव. 29. 106 समयसमियकलि, समतया स्वमतेन वा शामितः कलिः येन, who, by his equanimity or preaching, settled the quarrels of people. LXI 1.9a-286 These lines give the list of विद्याs acquired by अमिततेजसः 12. 6 दिल्लिदिलिए, हे बाले. दिल्लिदिलिअ is a dess word meaning a boy & दिल्लिदिलिआ a girl. See देशीनाममाला V. 40. 15. 13 आउंचियारिपसरु, who stopped the progress of his enemies. 21, 11 धणवाहणहु, ie., मेघरथस्य. . . LXII 2.2a गरुडेण वि जिप्पइ एह ण वि, this cock cannot be defeated even by an eagle. ___5. 10b जाउडयजडिलमंडियथणिहि, whose breasts were decked by a thick paste of saffron. . 7.9a to 10.2b We have here a description of the whole earth with its continents as seen from the sky. 17. 126 पक्खें (पक्षिणा), by the bird. Are we to have the word as पक्खि which would be the form of the Instrumental sing ? LXIII 2. 7a एरादेविइ, elsewhere the name of the mother of शान्ति is given as अइरा as for instance in 1. 16 and 11. 26. 5. 5-6 These lines give the list of 14 gems which, as a चक्रवर्तिन, शान्तिनाथ possessed. 11. 1-7 These lines give the previous births of शान्तिनाथ and चक्रायुध. शान्ति had in all twelve, viz., श्रीषेण, कुरुनरदेव, विद्याधर, देव, बलदेव, देव, वज्रायुध, चक्रवर्तिन, देव, मेघरथ, सर्वार्थसिद्धिदेव, शान्ति; चक्रायुध also had the following : अनिन्दिता, कुरुनर, विमलप्रभदेव, श्रीविजय, देव, अनन्तवीर्य, वासुदेव, नारक, मेघनाद, प्रतीन्द्र, सहस्रायुध, अहमिन्द्र, दृढरथ ( मेघरथभ्राता), सर्वार्थसिद्धिदेव, चक्रायुध. LXIV - 1.76 जो ण करइ करि कत्तिय कवालु, ( कुंथु or a तीर्थकर ) who does not hold in his hand human skull ( कपाल ) and (tiger's) skin ( कृत्ति) as god शिव does. The तीर्थकर is thus far superior to god शिव. Page #556 -------------------------------------------------------------------------- ________________ -LXVI) NOTES 509 2. 86 वयविहिअजोग्नु दिण्णु वि ण लेइ, while begging alms he does not accept things which, for his vows ( afe he cannot accept, 8. 16 fou eatifs, on the same day, month and fortnight on which he was born, i. e. on the first day of the bright half of atte. 26 कित्तियणक्खत्तासिइ ससंकि, when the moon was in conjunction with the नक्षत्र mentioned ( faa) or fat. LXV 3. 4b ET TEUTETUT3754545, the town that excelled in brightness or was extremely bright owing to the rays of gems. 4. 96-106 aftalfs T faâurs....90034 TUCHTTE, when after the afor of Fre onefourth of the TCUITH minus one thousand crores of years passed. 5.56 दहदहधणुतणु, with his body twenty शरासनs in height. गुणभद्र however mentions thirty शरापनs as the height of अर. Compare : त्रिशच्चापतनू त्सेधः चारुचामी#Tagfa:-65, 26. Which seems to be more probable. 9. 1-8 Note the play on the term 7 or 3e here. 11. 8a fua fortasfefe 75 arah, the king became a Jain monk, while the Brahmin became a Ti ascetic, i. e., an ascetic following the teaching of the Vedice religion, particularly the teaching of devotion to god fara. 12. 6-77 G etc. These lines give the characteristic behaviour of god शिव, who performs a ताण्डवनृत्य, sings, has a woman or women (पार्वती and गङ्गा), beats the gas, burns fate, and kills demons. The Jain monk says that such a godhead will not save one from संसार. 13. 6b arataratarfa zaifa, the pair of sparrows, having formed their nest in the beard of the ascetic, used to warble. 16. 1-2 These lines give the origin of the name FOUT FUTOTTE, the city of F4F, because the girls in which, having refused to marry the sage, became dwarfish owing to his curse. 24. 16 afera u fa te qafafa, having burnt to ashes all the oftas. qfafa comes from TIF a deśí root which is preserved in modern Marathi as qraf. LXVI 1. 9a faqatat&f2317, whose beauty or spirit was soiled by sufferings of widow hood ( fagan, fagara ). 106 q7 als o fq=3fh, but I do not see or know my father ( Eata ). Page #557 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 510 MAHÁPURANA [LXVII 5. 56 कोसलं पुरं, i. e., साकेत which is the capital of the कोसल country. 6.3a परमेसरु, i.e. सुभौम, who was destined to be a चक्रवर्तिन later. ICb एउ जि, this very earthen plate filled with the teeth of his father ( 697 ), which turned into a discus ( 97 ). 10. 10a nafs ( 2 ), in a ditch, i. e., in a hell. LXVII 4. 6a हिरण्णगब्भो, i. e., a जिन. The term हिरण्यगर्भ is used to designate god Tai in Hindu Mythology, but in Jain Mythology it is used to denote a ti. 9. la दिणि छक्के विच्छिण्णए, six days after his दीक्षा. i.e., on पौष कृष्ण द्वितीया, मल्लि attained केवलज्ञान. गुणभद्र also gives this date exactly in the same form. Compare: fata Te TFT T SHà-66.51. 13. lla famurhaal, i, e., the minister named fata, who gave a wrong report about राम and विराम to their father वीर, was born as बलि the अर्धचक्रवतिन् and a gfaargea. 14 4b Turah, i, e., attuat; the lengthening of the third syllable is due to metre. Page #558 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अँगरेजी टिप्पणियों का हिन्दी अनुवाद सन्धियोंको टिप्पणियों के सन्दर्भ रोमन अंकों में हैं, जबकि कड़वकों और पंक्तियों के अरबी अंकोंमें । वर्ण्य विषयका संक्षिप्त सार प्रारम्भिक परिचय में दिया गया है, जिससे पाठक मूलपाठको समझ सकें। ये टिप्पणियां उन संस्कृत टिप्पणियोंकी पूरक हैं, जो पृष्ठके नीचे पाद टिप्पणके रूप में दिये गये हैं। टीप्रभाचन्द्र के टिप्पणके लिए है। XXXVIII __1. 12b भवइजसोहो-सूर्यसे उत्पन्न किरणोंकी शोभा धारण करनेवाले, 26 प्रकाशयामिप्रकाशित करता हूँ या व्यक्त करता हूँ। पयासयामि = इसे समझना आसान है-परन्तु 'के' प्रति कभी-कभी ऐसे रूपोंको वरीयता देती है । तुलना कीजिए-बादकी पंक्तिसे (समासवि) साथ ही इच्छवि और अच्छवि । पांचवेंकी 10-11 पंक्ति या तीसरी पंक्ति में पडिच्छवि और ओहच्छवि, तीसरे कडवककी आठवीं पंक्ति । 2. 1b कहवयदियहई-कुछ दिनोंके लिए। 2a णिविण्णउ निविण्ण-उदास । णिविणोउ अर्थात् निविनोद । 'क' प्रतिका यह पाठ पढ़ने में समान रूपसे ठीक है और उसका अर्थ हो सकता है काव्यरचनाके विनोदसे रहित । परंतु मैंने णिविण्णउ पाठको उव्वे उ जि वित्थरइ णिरारिउ पाठके दृष्टिकोणसे ठीक समझा है, जो 4 के 9a में है, और टिप्पणके विचारसे भी। 9-10 खलसंकलि कालि-इत्यादि. भरत जिसने सरस्वती ( विद्याकी देवी ) का उद्धार किया, जो रिक्त अत्यन्त, या खतरनाक रास्तेपर जा रही थी। ( शून्य सुशून्य पथमें ) अथवा बुरे समयमें, (खाली आसमानमें ) जो दुर्जनोंसे व्याप्त है (खल संकुलि)। और खोटे चरित्रवाले लोगोंसे भरा है (कुसोलमइ)। उसे विनय करके । Modesty विनय । 3. अइयणदेवियश्वतणुजाएं-भरतके द्वारा जो अइयण (एयण) और देवि अव्वाका पुत्र था। 2b दुत्थियमित्ते-भरतके द्वारा, जो उन लोगोंका मित्र था, जो संकटमें थे। 3a मइं उवयारभावु णिव्वहणे-भरतके द्वारा, जिसने मुझपर उपकारोंकी वर्षा को। [ कवि पुष्पदन्तपर ], भरतने पुष्पदन्तको किस प्रकार उपकृत किया, यह, महापुराणके I. 3-10 कड़वकोंमें देखा जा सकता है, और जिल्द एक की भूमिकामें देखा जा सकता है । Pp-XXVIII | 10 तुह सिद्धहि इत्यादि । तुम नवरसोंका दोहन क्यों नहीं करते, अपनी वाणीरूपी कामधेनुसे । अथवा काव्यात्मक शक्तिसे जो तुम्हें सिद्ध है, या जिसपर तम्हारा अधिकार है। __ 4. 7a राउ राउणं संझहि केरउ-राजा, सन्ध्याके अरुण रागकी तरह है, अर्थात थोडे समय ठहरनेवाला है,b एक्कु वि पउ वि रएवउ भारउ-एक पदकी रचना करना भी बहुत बड़ा कार्य है। 10 जगु एउ इत्यादि-संसार गुणोंके साथ वक्र है जिस प्रकार कि धनुष जब डोरीपर खींचा जाता है। 5. 26-3a कविके अनुसार भरत सालवाहन (सातवाहन ) से बढ़कर है, इस बातमें कि भरत कवियोंका लगातार मित्र रहा है ( अणवरयरइयकइमेत्तिइ) 4 ab-यहाँ कवि उस किस्सेका सन्दर्भ दे रहा है कि राजा श्रीहर्षने कालिदासको अपने कन्धोंपर उठा लिया था । ऐतिहासिक दृष्टिसे यह सन्दर्भ दूसरोंसे भी समानता रखता है, जिनका कि भोजप्रबन्धमें उल्लेख है। श्रीहर्षकी जो बाणभट्टका आश्रयदाता है राजगद्दी Page #559 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ५१२ महापुराण [xxxVIII - पर बैठनेकी तारीख 620 ईसवी है, बाणकी ( 620 ) की तुलनामें, और वत्सभट्टिको प्रशस्ति ( 473 ई. सं.) से 18 a-b-पुष्पदन्त जो अपनेको काव्यपिसल्ल कहते हैं, कुछ लोगोंके द्वारा सम्मानित हुए, और कुछ लोगों द्वारा असम्मानित हए, यह कहते हुए कि वह बुद्ध है। 11 देवोसुय-देवोका पुत्र, अथवा देवियव्वा of 3.1a ऊपर-अर्थात् भरत । 6. 3a-b यहाँ कवि अपने आश्रयदाता भरतको विश्वास दिलाता है कि उसकी काव्य-प्रतिभाकी अभिव्यक्ति जिनवरके चरणकमलोंकी भक्ति के कारण है, आजीविकाके लिए धन कमाने की इच्छासे नहीं । (णउ णियजी वियवित्तहि ), 10 करहु कण्णि कहकोंडलु-अजितनाथके कथाके कर्णकुण्डलको तुम अपने कानोंमें धारण करो। 7. दूसरे तीर्थकर अजितनाथकी कथा इस कडवकसे शुरू होती है; मैं पहले ही उस ऊबाऊ शैलीका सन्दर्भ दे चुका है जिसमें बड़े लोगोंकी जीवनियोंका जैन साहित्यमें वर्णन किया जाता है ( म. पु. जिल्द I पृ. 599 )। सबसे पहले हम तीर्थंकरों या महापुरुषों के बारेमें सूचनाएँ पाते हैं जिनमें वे कुछ विशेष योग्यताएँ हैं, जिनके कारण अगले भवमें तीर्थंकरोंका जन्म होता है। अजितनाथके मामले में विमलवाहन एक राजा था जो वत्स देशका शासक था जो कि पूर्व विदेहमें सीता नदीके दक्षिण किनारेपर स्थित था। वहीं एक दिन उसे सांसारिक जीवनसे विरक्ति हो जाती है, वह तप करता है, सोलह कारण भावनाओंका ध्यान करता है, (जैसे तीर्थकर नाम गोत्र इत्यादि)। उपवासपूर्वक उसको मृत्यु होती है, और वह विजय अनुत्तर विमानमें उत्पन्न होता है। वहां उसकी तेंतोस सागर प्रमाण आयु थी। जब उसके लम्बे जीवनके छह माह बाकी बचते हैं, तो सौधर्म इन्द्र जान लेता है कि यह अहमेन्द्र अयोध्यामें जन्म लेनेवाले हैं, भारतवर्ष में राजा जितशत्र और रानी विजयाके पुत्रके रूप में। वह कुबेरको अयोध्यापर स्वर्णको वर्षा करनेका आदेश देता है। श्री, ह्रो, धृति, मति, कान्ति और कीर्तिके ये छह देवियाँ विजयाकी देखभाल करनेके लिए आती हैं, रानी विजया सोलह सपने देखती है, नींद खुलने पर वह राजासे उनका वर्णन करती है, जो उसे बताते हैं कि वह जिनको जन्म देगी । जब विमलवाहन अपने जीवनके समयको समाप्त करता है तो वह विजयाके गर्भमें हाथोके रूपमें जन्म लेते हैं । उस अवसरपर देव आते हैं और राजाको बधाई देते हैं । तीन ज्ञानोंके साथ जिनवर जन्म लेते हैं, अर्थात् उन्हें मति, श्रुति और अवधिज्ञान प्राप्त थे। माघ शुक्ला दशवींके दिन इन्द्र के नेतृत्वमें देवता वहाँ पहुँचते हैं और जिनवरकी तीन बार प्रदक्षिणा करते हैं, माता-पिताको प्रणाम करते हैं। माताको मायावी बालक देते हुए वे जिनबालकको मन्दराचलपर ले जाते हैं, जहाँ उनका अभिषेक करते हैं। उनका अजित नामकरण करते हैं, और उनकी स्तुति करते हैं। उसे अयोध्या वापस लाकर माताको सौंप देते हैं। जब अजितनाथ युवा हुए, तो उनको एक हजार गजकुमारियोंसे विवाह हुआ। उनका युवराजके रूपमें अभिषेक हुआ। उन्होंने 19 लाख पूर्व धरतोका उपभोग किया। एक रात युवराज अजितने उल्कापात देखा और उससे यह सोचते हुए कि भाग्य उसी प्रकार क्षणभंगुर है, जिस प्रकार यह उल्का । एक बार फिर देवता आये और निश्चयके लिए भगवान्की प्रशंसा की। उन्होंने अपने पुत्र अजितसेनको गद्दीपर बैठाया। देवोंने उनका अभिषेक किया और माघ शुक्ल नवमीको दोपहर बाद उन्होंने केशलोंच कर दीक्षा ग्रहण की। मुनि अजितके बालोंको देवेन्द्रने इकट्ठा किया, स्वर्णपात्र में, और उन्हें क्षीरसमुद्र में फेंक दिया। उनके साथ एक हजार राजकुमारोंने दीक्षा ग्रहण की। थोड़े ही समयमें उन्हें चौथा मनःपर्ययज्ञान उत्पन्न हो गया। उन्होंने ढाई दिनका उपवास ग्रहण किया और दूसरे दिन अयोध्यामें राजा ब्रह्माके घर उपवास तोड़ा। उसे पांच आश्चर्य प्राप्त हुए । अजितने बारह वर्ष तक तप किया, और पौष शुक्ला ग्यारहवीं के दिन सप्तच्छद वृक्षके नीचे उन्होंने केवलज्ञान प्राप्त किया । इस अवसरपर इन्द्र और दूसरे देव आये। उन्होंने स्तुति की और समवसरणकी रचना की। उसमें अजितनाथ सर्वभद्र सिंहासनपर बैठे । उनके साथ आठ प्रातिहार्य थे। उन्होंने धर्म प्रवचन किया। उनके अनुयायी बारह गणोंमें विभक्त थे-गणधर, पूर्वधारिन, शिक्षक, अवधिज्ञानो, केवली, Page #560 -------------------------------------------------------------------------- ________________ -xxxVIII ] अंगरेजी टिप्पणियोंका हिन्दी अनुवाद ५१३ विक्रियाधारीऋद्धिमत, मनःपर्ययज्ञानी, अनुत्तरवादी, आर्यिका, श्रावक, श्राविका और देव, देवी तिथंच इत्यादि । इस संघके साथ भगवान् अजितनाथने 53 लाख पूर्व तक धरतीपर भ्रमण किया (बारह वर्ष कम), तब वह सम्मेदशिखरपर गये और 72 लाख पूर्वका जीवन पूरा कर उन्होंने नौ महीनों तक प्रतिमाओंका अभ्यास किया और चैत्र शुक्ला पंचमीको उन्होंने मोक्ष प्राप्त किया। इस अवसरपर देवोंने भगवान की पूजा की। अग्निकुमारने उनके शरीरका दाह-संस्कार किया। देवेन्द्रने आदरपूर्वक भस्मको इकट्ठा किया और उसे समुद्र में फेंक दिया। मैंने यहां अजितके जीवनका समूचा जीवन विस्तार दे दिया है। यही चीजें प्रायः प्रत्येक तीर्थकरके जीवन में दुहरायी जायेंगी। केवल समय, नामों, तिथियों में कुछ परिवर्तनके साथ । इस जिल्दमें वणित सभी तीर्थकरोंके जीवनके वर्णनमें इन बातोंको नहीं दुहराया जायेगा। इन विस्तारोंको हम चित्र रूपमें दे रहे हैं जिससे पाठक उन्हें समझ सकें। 7. 2a -सीयहि दाहिणकलि-'के' प्रतिमें उत्तर पाठ है, परन्तु हमने उसे सुधार दिया है। और उत्तर कर दिया है। गुणभद्रके उत्तरपुराणके प्रमाणपर, जिसमें पाठ इस प्रकारका है-सीतासरिदपाग्भागे वत्साख्यो विषयो महान् । वहाँ अपाग्भागका अर्थ है दक्षिण । 8 हलियहि-किसानोंके द्वारा । 8. 8a b जसु सोहग्गे-प्रेमके देवता ( कामदेव ) राजा विमलवाहनके सौन्दर्यके कारण पृष्ठभूमिमें चला गया इसलिए उसने शरीरको छोड़ दिया और वह अनंग हो गया । 9. 26 पंचमहन्वयमायउ-पांच महाव्रतोंको माता । अर्थात् पचीस भावनाएँ, एक-एक व्रत को पाँच भावनाएं। 8a दस वसुद्धिविण उ-सोलहकारणभावनाएं जो दर्शन-विशुद्धिसे शुरू होती हैं। विस्तारके लिए तत्त्वार्थ सूत्र देखिए VI. 24 । इन भावनाओंसे व्यक्तिको तीर्थकर गोत्रका बन्ध होता है। ___10. 9a सो अहममराहिउ-वह अहमिन्द्र जो पूर्वजन्ममें विमलवाहन था। 11b कणयमयणिलयण-(अयोध्या) जिसके स्वर्णप्रासाद हैं। 11. 16 माणवमाणिणिवेसें-धरतीको स्त्रियोंका वेश धारण किये हुए। 4 गभि ण थंतहुजिनके गर्भ में स्थित होने के पूर्व इन्द्रने स्वर्णकी वर्षा को । जिनेन्द्र अजितके विजयाके गर्भमें आनेके पूर्व । 12. सोलह स्वप्नोंके लिए म. पु. प्रथम जिल्द, पृ. 600-601 देखिए । 13. 4a-b कुंजरवेसें-अहमिन्द्र अपने जीवनको अवधि समाप्त कर (विजय विमान में) रानी विजयाके मुख में, एक हाथी के रूपमें इस प्रकार प्रविष्ट हुए जिस प्रकार सूर्य बादलोंमें प्रवेश करता है । 9-10 ये पंक्तियां ऋषभके निर्वाण, अजितनाथके विजयाके गर्भ में अवतरणके बीचकी अवधिका वर्णन करती हैं जो पचास करोड़ सागर प्रमाण है। 14. 4-5 दसणकमलसरणच्चियसुरवरि-इन्द्र अपने ऐरावत हाथीपर आरूढ़ हुआ। जिसकी कमलसरोवर के समान सँडपर देवता नृत्य कर रहे थे। 86 सरसरसिर-भक्तिसे परिपूर्ण बातें करते हए । __15. 6b मन्तु पणवसाहा संजोइवि-'ओं स्वाहा' मन्त्रका प्रयोग करते हए । 18. 94. वसुवइवसुमइकंताकतें-अजितके द्वारा, जिनकी दो पत्नियां थीं। अर्थात् धरती और लक्ष्मी । 19. 16 ईसमणीस समासमलीणी-स्वामी अजितका मस्तिष्क पूर्णतः मानसिक शान्तिमें निमग्न था। (सम, उपशम, वैराग्य )। 4b आउ वरिसवरिसेण जि खिज्जइ-मनुष्यकी आयु वर्ष-प्रतिवर्ष कम होती जाती है। 20. 4a-b गइदुचरित्तकम्मसंताणइ-अपनी जातिको जारी रखने के लिए, जिसका अर्थ है कर्मोकी परम्परा, जैसे-गति ( देवमनुष्यादिगति) खोटे कार्य ( दुश्चरित्र)। जातिको जारी रखनेके कर्ममें Page #561 -------------------------------------------------------------------------- ________________ महापुराण [ XXXIXजन्म और मृत्युको शृंखला संलग्न रहती है । और भी दूसरे कर्म होते हैं जो बुरे कार्य है। 21. 6a-b कुसुमवरिसु-पांच आश्चर्योंकी वर्षा कुसुमवर्षा है। स्वर्गके फूलोंका बरसना, सुरपटहनिनाद, स्वर्गके नगाड़ोंका शब्द, वमहारा-स्वर्गसे स्वर्णकी वर्षा, चेलुक्खेव-झण्डे ऊँचे करना, अहो दाणंदानकी शालीनतामें किये गये प्रशंसाके स्वर्गीय शब्द । तुलना कीजिए विवागसुयसे, पृष्ठ 78। 23. समवसरणका वर्णन । 24. आठ प्रातिहाल्का वर्णन-अशोकवृक्ष, पुष्पवृष्टि, दिव्यध्वनि, चामर, सिंहासन, भामण्डल, देवदुन्दुभि और छत्र। 10-12 और बादका कड़वक अपने गणोंका वर्णन करता है इसके लिए चित्रफलक देखिए। 26. la सिहरिहि-सुमेरु पर्वतपर। 56 = दण्डकवाडुरुजगजगपूरणु-उस प्रक्रियाका वर्णन करता है जिससे जिनेन्द्रकी आत्मा सिद्धशिलापर आरोहण करती है । XXXIX यह सन्धि सगरकी कहानी बताती है, जो जैनों के दूसरे चक्रवर्ती हैं । 1. 2 मगहाहिव-श्रेणिक, मगध देशका राजा, जिसने गणधर गौतम इन्द्रभूतिसे प्रेसठ शलाका पुरुषोंके जीवनके बारेमें कहने के लिए कहा था। 4a दाहिणयलि के लिए-'ए' और 'के' प्रतियों में सामान्यतः उत्तरयलि 'पाठ' है, परन्तु 'के' प्रति इसकी जगह शुद्ध पाठ दाहिणयलि मानती है । गुणभद्रके उत्तरपुराणमें द्वीपेऽत्र प्राग्विदेहस्य सीताप्राग्भागभषणे । विषये वत्सकावत्यां पृथिवीनगराधिपः ।। 48-58 12 घरचूलाह्यणहयल–राजधानी पृथ्वीपुर जो अपने प्रासादोंके शिखरोंसे आकाश को छूती थी। 2. 96 सिसुमोहणीउ मुणिहि वि दुवारु-बच्चोंके प्रति प्रेम को रोकना मुनियोंके लिए भी कठिन है। 10 जिणवरवयणु रसायणु-राजाके मन्त्रियोंने उस दुःखको सहने के लिए जिनवरका वचनामृत दिया। 4. 3a इयरु वि-अर्थात् महारुत मन्त्री। 50 किउ दोहि मि पडिबोहणणिबंधु-देव महाबल, (पूर्वजन्मका राजा जयसेन ) और देव मणिकेतु (पूर्वजन्मका महारुत मन्त्री), दोनोंने यह समझौता किया कि जो पहले मनुष्य होगा, उसे दूसरा इस तथ्यका स्मरण करायेगा जो स्वर्ग में देर तक देव रहता है । 5. 9-10 सार्वभौम राजाके ये चौदह रत्न हैं। 6. 3a जितनी सम्पत्ति भरतको थी, उतनी ही सगरकी भी हुई, चक्रवर्तीके रूपमें। , 7. la मयमउलवियणयण-हाथी मदके कारण आंखें बन्द किये हुए था। 10a रयणकेउ अर्थात् मणिकेतु । 8. 90 तरुणिहिं कोक्किज्जइ हसिवि ताउ-जवान औरतें उसपर हंसों और उसे पापा कहकर पुकारा। 10. 2a देवसाहु-मणिकेतुने देव होनेके कारण साधुका रूप धारण कर लिया। 12. गंगाके अवतरणका वर्णन । 14. 2a विहिं ऊणी तट्ठी-साठ हजार पुत्रोंमें-से दोको छोड़कर, (भीम और भागीरथ), जो अपनेको मौतसे बचा सके। 96 गत आवह णउ सरिसरतरंगु-नदीके जलकी तरंगें, जब एक बार जाती हैं तब दुबारा नहीं भातीं। Page #562 -------------------------------------------------------------------------- ________________ -XLI] अंगरेजी टिप्पणियोंका हिन्दी अनुवाद ___16. ila दढधम्महु पायंतिइ-दृढ़ धर्मके पैरोंके नीचे । 17. 66 गउ जेण महाजणु सो जि पन्थ-तुलना करिए महाजनो येन गतः स पन्थाः । XL 1. सासयसंभवु-शाश्वत आशीर्वाद, (शाश्वत+शं + भव) संभवणासणु-वह जो जन्म ( संसार ) का अन्त कर देता है। पुसियबंभहरिहरणयं-वह जिसने ब्रह्मा, विष्णु और शिवके सिद्धान्तोंका खण्डन कर दिया है। 206 असिआउसं-इस अभिव्यक्तिपर टिप्पणके लिए म. पु. की जिल्द एक, पृष्ठ 653 पर देखिए । 23 अमिउं पियहि कण्णंजलिहि-अमृतका पान करिए, अर्थात् अपने कानोंकी अंजलिसे मेरे काव्यका पान करिए । तुलना कीजिए-कर्णाञ्जलिपुटपेयं विरचितवान् भारताख्यममृतं यः। तमहमरागमकृष्णं कृष्णद्वैपायनं वन्दे । 4. 10b सत्था-स्वस्थ । अत्यन्त शान्त और प्रसन्न । 5. 14a जितसत्तुसुए-जितशत्रुके पुत्रने, अजित, दूसरे तीर्थकर। 18b जंभारिणा-इन्द्र । 6. 4a सईइ सई धारियउ-इन्द्राणीने स्वयं धारण किया। 8. 12 कि जाणिहं सोसिउ उवहि-क्या तुम सोचते हो कि समुद्र सूख गया क्योंकि देवता सम्भवजिनके अभिषेकके लिए पानी ले जा रहे हैं। 9. 13 पइं मुइवि-तुम्हें छोड़कर । 11. 7a कत्तियसियपक्खि-कार्तिक कृष्ण पक्ष में। गुणभद्रके 49से तुलना कीजिए। 41 जन्मः कार्तिक कृष्ण चतुर्थ्यामपरालगः, 11 णाणे णेयपमाणे-उनका ज्ञान जो ज्ञेयके साथ विस्तृत है-अर्थात केवलज्ञान । 13. 5a जक्खिदमउडसिहरुद्ध रिउ-यक्षेन्द्रके मुकुटके अग्रभागसे आता हुआ । यक्षेन्द्र यानो कुबेर। 14. 10b दहगुणिय तिणि सहस-तीस हजार, यद्यपि गुणभद्र बीस हजारका उल्लेख करते हैं । 15. la भवियतिमिर-भव्य जीवोंके अन्धकारको। 14 सिंगारंगह =श्रृंगारके अंगका। श्रृंगारभूमिका। XLI ___ 1. णिदिदियई णिवारउ-जिन्होंने निन्द्य इन्द्रियोंका निवारण कर दिया है, अर्थात् तीर्थकर, यहाँपर अभिनन्दन । 18 जीहासहसेण विणु-हजार जीभवालेके बिना। फणीश्वरकी एक हजार जीभ है इसलिए वह तीर्थकरकी सभी विशेषताओंका वर्णन करने में समर्थ है, परन्तु कवि पुष्पदन्तकी एक हो जीभ है इसलिए वह तीर्थकरोके गुणों के साथ न्याय नहीं कर सकता। 3. lb सणियउं वियरइ-धीरे चलते हैं इसलिए प्राणियोंको चोट नहीं पहुंचती। 56 तिण्णि तिउत्तरसय-अभिव्यक्तिमें न्यूनपद है, परन्तु वह स्पष्टतः वंशपरम्पराके 363 सिद्धान्तको सन्दर्भित करता है । जैसा कि अपभ्रंशमें पाठोंकी सरलता सूचित करती है। 5. 76 सव्वु सवारिउ-उसने इसे पूरा सम्पादित किया । Page #563 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ५१६ महापुराण [ XLII6. 12 आसणथणहरणि-आसनके कम्पन के द्वारा इन्द्र जानता है; आसनके कम्पायमान होनेके कारण इन्द्र जानता है कि जिनका जन्म हुआ है। 8. इस कडवकमें उन दस लोकपालोंकी सूची है। जिनवरके जन्माभिषेकके समय जिनका आह्वान किया जाता है। ये देव या लोकपाल हैं-इन्द्र, अग्नि, यम, नैऋत, वरुण, वायु, कुबेर, रुद्र, चन्द्र और फणीश्वर । यहाँ वाहनों, प्रहरणों, पत्नियों, और चिह्नोंके साथ उनका विशेष वर्णन किया गया है। जैसा कि २३वीं पंक्ति बताती है । 12-13 भयलज्जामाणमयवज्जियउं जिणवउं पेम्मसमाणउं-जिनवरके प्रति व्रतप्रेमके अथवा चरित्रके प्रेमके व्रतके समान उतना हो जितना यह भय, लज्जा, मान और मदका परित्याग करता है, उसी प्रकार जिस प्रकार प्रेम में पड़कर आदमी-भय आदिको अनुभूतिको उपेक्षा करता है । 17. जीवपक्खिबंदिग्गहपंजरु-( मृत शरीर ) पक्षी ( आत्मा ) को पकड़नेका पिंजरा है । XLII 1. 18 समासइ वइयरु- व्यतिकर । कहानी या कथानकको संक्षेपमें कहता है। 2. 4b पोमरयरासिपिजरियकुंजरघडे (देशमें )-हाथियोंके झुण्ड कमलपुष्पोंके परागसे रंजित हैं । 5a दुक्खणिग्गमण इत्यादि-पुष्कलावतीका क्षेत्र इतना आकर्षक था कि वह वनश्रीसे समानता रखता था जो प्रेमकी देवी है । रइरमण-रतिका स्वामी-कामदेव, कठिनाईसे अलग होगा। 10b रमइ वइसमणओ आवणे आवणे-धनका देवता-कुबेर प्रत्येक दुकानमें प्रसन्न होता है, क्योंकि उसमें धनकी प्रचुरता है। 15 उवसमवाणिएण-मनकी शान्तिके जलसे । 16 भोयतणेण-भोगरूपी तृण । 3. 17b हरिसुद्ध देहेण-अपने रोमांचित शरीरसे । आनन्दके कारण । ___4. 15a हूए हरिभणणे-जब कि हरिके आदेशसे, इन्द्रकी आज्ञाओंको माना गया, जब कि नगर आदिको सजाया गया इन्द्र के आदेशसे। 17 अणवइण्णि अरुहे-अर्हतके जन्मके होनेके पूर्व ही। . 5. 21 झुल्लंतवडायहि-झण्डोंसे झूलते हुए। 7. 66 णिविधकामावहो-जिनेन्द्रका, जो लगातार या बिना किसी बाधाके, प्रेम अथवा वासनाके देवताका अन्त कर देते हैं। 100 जड कसरदुग्गेण-जड़ और धूर्तों के लिए जिसका आचरण दुस्साध्य है । कसरका शाब्दिक अर्थ है दुष्ट बैल । गिरिकक्करि पडइ-दुष्ट ऊँट अपने-आपको फेंक देता है या घूमता है, जंगलके रेतीले क्षेत्रमें। मीठी घासके लिए, वहाँ जिसे वे नहीं पा सकते । 9. 56 इणे पच्छिमत्थे- जब कि सूर्य पश्विम दिशामें पहुँच गया, अस्त होनेको था। 12. 15b घडिमालाध्यहं-पूर्वसमय उन घटिकाओंसे मापा जाता है, जो समाप्त हो जाता है । हय दियहपाडीहि से तुलना कीजिए 5. 14a में । XLIII 1. 5a णियायममग्गणिओइयसीसु-जिसने शिष्योंको आगमके पवित्र मार्गपर निर्देशित किया है। 7b गलकंदलु-बल्बके समान गलेवाला । 2. 6a णीड-घोंसला या घर । 10a भाविणि-( भामिनी ) औरत । 13 होउ पहुच्चइ-पूर्ण हो । सामान्यतः अर्थ है समर्थ होना। परन्तु शब्दकोश पूर्ण अर्थ करता है। 14. जं पुरउ इत्यादि-यदि Page #564 -------------------------------------------------------------------------- ________________ -XLVI ] अँगरेजी टिप्पणियोंका हिन्दी अनुवाद ५१७ नगर या राजधानी छोड़ दी जाती है तो व्यक्ति शीघ्र तपस्या ग्रहण कर सकता है। यदि राजा अपना राज्य छोड़ता है, तो वह संसारसे मुक्ति पा सकता है। 4. la-b गिहोगुणठाणवएहिं विमीस-अहमिन्द्र जीवनकी आयु बोस सागर प्रमाण थी, उसमें 99 (प्रतिमाओंको संख्या) मिलानेसे कुल इकतीस सागर प्रमाण आयु थो। 8. 10b दुमाणवु-नीच व्यक्ति । 10. 4b पंक्ति इस प्रकार पढ़ी जानी चाहिए-सबंधुसु वेरिसु णिच्चसमाणु-जो अपने परिवारजनों और शत्रुओंसे समान भाव रखते थे। XLIV 3. 8a परमारिसरिसहण्णबजायउ-ऋषभके वंशमें उत्पन्न । प्रथम तीर्थकर जो परमर्षि हैं। 6. 11 परिमाणु-यहाँ परमाणुका रूप है-अणु। संसारमें जितने परमाणु प्राप्त हैं उनसे सुपार्श्वका शरीर बनाया गया। 7. 5a उडुपल्लट्टउ-नक्षत्रोंका पतन, या उल्काओंका पतन । जो संसारकी क्षणभंगुरताकी सूचक थीं। 9. 5b जलहिमाणि किं आणिज्जइ घडु-क्या हम मिट्टीके घड़ेसे समुद्रका पानी माप सकते हैं। XLV ___1. 176 वयणणुवुष्पलमालइ-नये कमलोंकी मालाके द्वारा अर्थात् काव्यात्मक रूपसे रचित शब्दोंके द्वारा। 2. 16 कलहोइमइयाउ-स्वर्ण ( कलधौत ) से निर्मित । 3. 12a-b तूररवें दिस इम्मइ = नगाड़ोंके शब्दोंसे दिशाएँ निनादित थीं। कण्णि वि पडिउ ण सुम्मई-यदि ध्वनि कानोंमें भो पहुँचती थी तो सुनाई नहीं देती थी, या समझी जाती थी-विजयके सघन नादोंके कारण । 6. 96 सरसेणा-कामदेवकी सेना । 13. 13-14 इन पंक्तियों का अर्थ पद्मप्रभ है, जो वैजयन्त स्वर्गमें उत्पन्न हुए। और उनका शरीर गौरवर्ण था, तथा अत्यन्त चमकीली कान्ति थी। पद्मप्रभकी इस कान्तिको देखकर पुष्पदन्त (चन्द्र और सूर्य ) की पत्नियोंने अनुभव किया कि उनकी कान्ति कुछ भी नहीं है -पद्मप्रभुके शरीरकी कान्तिकी तुलनामें । XLVI 5. 90 सासेहिं व चासपइण्णएहि-धान्यके समान जो हलके द्वारा की गयी रेखा (चास ) में बोये गये है। चास देशी शब्द है जिसका अर्थ है हलके फलकसे खींची गयी रेखा, हलविदारित भूमिरेखा। और तासके रूपमें अब भी मराठी में सुरक्षित है । 6. 12 जिणतणुहि कंतिइ पयडु ण होतउ—जिस दूधका जिनवरके अभिषेकके लिए उपयोग किया जाता था, वह जिनवर के शरी को कान्तिसे साफ दिखाई नहीं देता था, क्योंकि दूधकी कान्ति जिनवरके शरीरकी कान्तिसे मिलती-जुलती थी। मीलित अलंकारका उदाहरण । Page #565 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ५१८ महापुराण [ XLVII11. 5a बलदेवहं अग्गइ देहि तिण्णि-तीनके आगे 9का अंक दीजिए, जो बलदेवोंकी संख्या है। पूरा अंक 93 होगा, जो चन्द्रप्रभुके गणवरोंकी संख्या है। 10-11 इन पंक्तियोंमें आठ प्रातिहार्योंका वर्णन है । जैसे पिंडीद्रुम-अर्थात् अशोक वृक्ष । इन प्रातिहार्यों की स्थिति सूचीके मध्यमें चन्द्रप्रभुके अनुयायियोंमें अस्वाभाविक है। XLVII ____ 4. 9a वच्छु जहिं रोसहुँ-वह उन स्थानोंको छोड़ देते हैं जहाँ क्रोधका वृक्ष है । 'पी' में 'वासु' भिन्न रूप स्पष्ट रूपसे वच्छका सरल रूप है। 6. 9a-b बच्चा अपनी मां और उसकी प्रतिच्छायाको देखता हुआ भ्रान्तिमें पड़ जाता है और समझता है कि उसकी दो माताएँ हैं और इसलिए वह यह निर्णय करने में असमर्थ था कि उसकी वास्तविक माँ कौन थी। XLVIII 1. 19 गुणभद्दगुणीहिं जो संथन-अर्थात दसवें तीर्थकर, जो गुणभद्रसे गौरवान्वित हैं । हम जानते है कि गुणभद्र जिनसेनके शिष्य हैं, जो संस्कृत आदिपुराणके रचयिता है। उनकी मृत्युके बाद उनके कार्यको गुणभद्रने जारी रखा, जो उत्तरपुराण कहलाता है। गुणभदगुणीहि-इस अभिव्यक्तिका यह अर्थ भी किया जा सकता है, विशिष्ट गुणोंको धारण करनेवाले पवित्रजनोंके द्वारा। 4. 14 तं पट्टणु कंचणु घडिउं-वह नगर स्वर्णसे निर्मित था । यहाँ कंचनका प्रयोग कांचनके लिए हुआ है- अर्थात् कांचनमय । “ए-पी' में कंचणघडिउ पाठ है, क्योंकि प्रतिलिपिकार कंचणका अर्थ नहीं समझ सका। 9. la-b तं सइं पंक्तिका अर्थ है, यद्यपि शीतलनाथके अभिषेकमें प्रयुक्त जल नीचेकी ओर बह रहा था, परन्तु वह पवित्र लोगोंको ऊपर की दिशामें ले जा रहा था, अर्थात् स्वर्ग । 10. 5b उत्ताणाणणु गव्वेण जाइ-गर्वसे आदमी अपना सिर तानकर या ऊंचा उठाकर चलता है। घमण्डी आदमी अपना सिर अकड़ाकर और ऊँचा करके चलता है। 13. 1b संभरह विरुद्धउ जिणचरित्तु-देवोंने उसके दिमागमें जिनवरके जीवनको परस्परविरोधी बातें ला दीं। बादकी पंक्तिमें उक्त परस्परविरोधी बातोंका सन्दर्भ है। उदाहरणके लिए जिन गोपाल कहे जाते हैं ( ग्वाला-पृथ्वीका पालन करनेवाले) लेकिन अपने ही शत्रुओंके लिए वे अत्यन्त भयंकर हैं। 18. 5a-b जो गायका दान करता है, वह विष्णुलोक जाता है, स्वर्णविमानमें । और स्वर्गीय मानन्द मनाता है । 11 सुज्झइ पिंपलफंसणिण-पीपल का वृक्ष छूनेसे शुद्ध होता है। 20. 14 सई विरइवि कन्बु, मुण्डसालायण-मुण्डसालायणने स्वयं गौ आदिके दानके महत्त्वको बतानेके लिए छन्दोंकी रचना की और उन्हें वह राजाके सामने लाया। राजाने अनुभव किया कि वे उतने ही प्रामाणिक हैं जितने कि वेद । IL 1. 15 कित्ति वियंभउ महं जगगेहि-मेरी कीर्ति समूचे विश्वरूपी घरमें फैल जाये। कवि अपनी काव्यशक्तिके प्रति सचेतन है, जैसा कि वह कहता है कि वह उसे विविवख्यात यश दिलवायेगी। Page #566 -------------------------------------------------------------------------- ________________ -LI ] अंगरेजी टिप्पणियोंका हिन्दी अनुवाद 3. 36 गुणदेवहं भवदेवहं ईसरु-अनन्त जिनवर गणघरों और जन्मसे देव होनेवाले इन्द्रादिकके ईश्वर हैं। 5. 9 ता णज्जइ इत्यादि-शहरमें स्वर्णवर्षा होनेके कारण लोगोंको रात और दिनके बीच भेद करना कठिन था। इसलिए लोग उस समयको दिनका समय मानते थे जब सरोवरमें कमल खिलते थे। , यह और इसके बादकी दो सन्धियाँ प्रथम वासुदेव त्रिपृष्ठ, प्रथम बलदेव (विजय) और प्रथम वासुदेव अश्वग्रीवकी कहानीका वर्णन करती हैं, जो जैन पौराणिक परम्पराके अनुसार हैं। पाठक त्रिपृष्ठ और विजयकी मित्रता और त्रिपृष्ठ तथा अश्वग्रोवकी शत्रुताकी पृष्ठभूमि समझ सकें, इसके लिए कवि तीनके दो पूर्वभवोंके जीवन का वर्णन करता है। 1. 5a गोउलपयधाराधायपहिइ-जहाँपर यात्री गायोंके दूधको जी-भर पी सकते हैं। 1la जइणी-जैनी, जो यहाँ व्यक्तिवाचक संज्ञा है। 15 खलमित्त सणेहु-दुष्ट आदमीके साथ मित्रता थोड़े समयके लिए रहती है। 2. 5a णिग्गेसइ ण वाय-शब्द बाहर नहीं निकलेंगे। यहाँ णिग्ग शब्द तथा 7b में मराठीके निघणे के समतुल्य है जिसकी व्युत्पत्ति निर्गमसे की जा सकती है। 3. 50 तरइ Swims-मूल 'तर' तैरना मराठी में सुरक्षित है, इसो अर्थमें प्राकृतमें एक और मूल शब्द तर है जिसका अर्थ समर्थ या योग्य होता है। 4. 16 वणुस्साहिलासं-होना चाहिए वणस्साहिलासं, उद्यान रखने की अभिलाषा । वणुस्स सभी पाण्डुलिपियोंमें मिलता है इसलिए इसे रहने दिया है अथवा क्या हम वण + उत्सुक + अभिलासं ले सकते है, जिसका अर्थ होगा वन रखनेकी तीव्र इच्छा। 126 तायाउ आराहणिज्जो-दादमें आदर करने योग्य । (पिताकी मृत्युके बाद), तुम भी मेरे पिताकी तरह समान आदर पाने योग्य हो। 5. 13 दुग्गु भणेवि-यह कहते हुए या सोवते हुए कि वृक्ष दुर्गके समान है ( दुग्ग )। वइरिउ-शत्रु । 8. 6a छइउ ( छादितः) पराजित किया । 9. 10 तुज्झ हसियह करमि समाणउं-मैं बराबर कर दूंगा। मैं उस हँसीका बदला दूंगा जो मेरा मजाक उड़ाती है और अपमान करती है। ___10. 8b अवरु-विशाखनन्दी। LI 1. 6a जायासीधणतण-वे दोनों (विजय और त्रिपष्ठ) 80 धनुष बराबर ऊँचे हो गये । 96 बिहि पक्खहिं णं पुण्णिमवासरु-पूर्णिमाके दिनके समान जिसके एक ओर आधा उजला पक्ष है और दूसरी ओर अँधेरा पक्ष है। जो विजय बलदेवके समान है, जो गोरे हैं, और त्रिपृष्ठ वासुदेव जो श्याम वर्णके हैं। 2. 1lab हलहरु दामोयह-यहां कृपया याद रखिए कि बलदेव और वासुदेवका उल्लेख उनके विभिन्न पर्यायवाची नामोंसे होगा। जैसे सीरि, हलो, लंगलहर, सीराउह, बलदेवके नाम है। दामोदर, माधव, श्रीवत्स, अनन्त, सिरिरमणीस, लच्छीवइ ( लक्ष्मीपति), दानवारि, दानववैरिन्, विट्ठरसव, विस्ससेण वासुदेवका; इसी प्रकार अश्वग्रवका उल्लेख हयग्गीव, हयकण्ठ, तुरंगगलके रूपमें होगा। Page #567 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प . . महापुराण [ LII5. 4b पृयवयणहिं-ऋ पृय में है जो प्रियके रूप में आनी चाहिए, सम्भवतः यह हेमचन्द्र के नियम अभूतोऽपि क्वचित्, ( 399 ) का बढ़ाव है । 6. 13 जसु जसु-यस्य यशः—जिसका यश । 7. 86 मगवइयहि जाएं-मगावती के पुत्रके द्वारा। यानी त्रिपष्ठके द्वारा। 9a संचालेवी-कर्मवाच्यका सम्भाव्य कृदन्त रूप है, तुलना कीजिए-पालेवी जणेवी, परिणेवी इत्यादिसे । हेमचन्द्र 438 नियममें इसके लिए एवा रूप देते हैं जो तव्यका स्थानापन्न है । वे एवीका उल्लेख नहीं करते। 9. 13-14 णियजणणविइण्ण-पंक्तियों का अर्थ है कि अर्ककीति अपने पिताकी भौंहोंके संकेतों को समझते हुए राजा प्रजापतिके पास गया और इस प्रकार उसे प्रणाम किया। ___10. la हरिबलेहि-त्रिपृष्ठ और बलके द्वारा; ससुरउ ( श्वसुर ), त्रिपृष्ठका होनेवाला ससुर । 11. 12-13 पुणु भणिउ-उन्होंने फिर अनन्त ( त्रिपृष्ठ ) से कहा-हम देखें और पत्थरके गोल खम्भे उठायें और मुझे बतायें कि क्या तुम अश्वग्रीवकी हत्या कर सकते हो। 15. 14 अह सो सामण्णु भणहं ण जाइ-उसे सामान्य व्यक्ति नहीं कहा जा सकता। LII 1. 2 चिरभववइरवसु-पूर्व जन्मके वैरके प्रभावसे कि जब वे विश्वनन्दी और विशाखनन्दी थे। 4 तिखंडखोणिपरमेसरु-तीन खण्ड धरतीके चक्रवर्ती । अश्वग्रीव अर्धचक्रवर्ती था। 5. 40 विज्जाहर भूयरभूमिणाहु--विद्याधरभूमि और मनुष्यभूमिके स्वामी । अर्धचक्रवर्ती अश्वग्रीव । 7. 3a मा रसउ काउ चप्पिवि कवालु-आदमोके सिरपर कौएका बैठना और कांव-काव करना आनेवाली मौतका संकेत है। 8. 2 करगय-स्वर्णका हार देखने के लिए तुम्हें दर्पण क्यों चाहिए कि जो तुम्हारे हाथमें है। वह प्रसिद्ध लोकोक्ति है, 5a भरहह लग्गिवि-भरत चक्रवर्तीके समयसे लेकर, प्रथम चक्रवर्ती । 11 रणु बोल्लंतहुं चंगउं-युद्ध की बात करना आनन्ददायक है । तुलना कीजिए कि युद्धस्य कथा रम्या । 3. किंकर णिहणंतहं णत्थिाय-अनुचरोंको मारने में कोई आकर्षण या आनन्द नहीं है। अश्वग्रीव त्रिपृष्ठसे लड़ने में प्रसन्न था, उसने सोचा कि छोटे व्यक्ति या अनुचरसे लड़ने में कोई मजा नहीं है । 15 सारं का 'टी' में बलवान अर्थ किया गया है। परन्तु लगता है कि त्रिपृष्ठको वासुदेव होने के कारण शृंगका बना धनुष रखना चाहिए, विष्णुको शाङ्गधर कहा जाता है-हिन्दू-पुराण विद्यामें । हिन्दू-पुराण विद्यामें विष्णुके दूसरे प्रतीक है पाँचजन्य, कौस्तुभमणि, असि, कौमोदकी गदा, गरुडध्वज और लक्ष्मी । जैनपुराण विद्यामें ये प्रतीक वासुदेवके भी माने जाते हैं और इसलिए मैं सोचता है कि सारंगधनुका अर्थ शाधिनु होगा । 10. 4a-b यह पंक्ति बलदेवके हथियारोंका वर्णन करती है, ये हैं लांगल, मुसल और गदा जो चन्द्रिमा कहा जाता है। 11. 2 खगाहिवो-गरुड़, जो वासुदेव या विष्णुके ध्वजका प्रतीक है । 84 णिच्चिच्चुंचे-मोटा और ऊँचा । 'टी' के अनुसार यह मुहावरा निस् + उच्च से बना । सम्भवतः कि नित्य + उच्च से बना हो, उच्च उंच होता है, अथवा उच्च + उच्च; इसका अर्थ है अन्त तक खड़े बाल, जो हमेशा खड़े रहते हैं । 12. 8a-b भडु इत्यादि-योद्धा कहता है यदि मेरा मस्तक भी गिर जाता है तो भी मेरा धड़ शत्रुका वध करेगा और नाचेगा। Page #568 -------------------------------------------------------------------------- ________________ -LIV ] अंगरेजी टिप्पणियोंका हिन्दी अनुवाद ५२१ 15. 2 कण्णाहरणकरणरणलग्गइं-सेना उस युद्धमें व्यस्त थी, जो विवाहमें दी गयी कन्या स्वयंप्रभाके अपहरणके लिए हो रहा था। 12-13 ये दो पंक्तियाँ, दो सेनाओंकी तुलना प्रेम करते हुए जोड़ेसे करती हैं । मिहुणई-मिथुनानि-प्रेमक्रीड़ामें लगे हुए । __16. 2 सिरिहरिमस्सु-जो कि ऊपर वर्णित है LI में। 16-9b, प्रजापति राजाके मन्त्रीके रूपमें । 25 माहवबलवइणा अर्थात् हरिमस्सु ।। 17. 146 णं अट्ठमउ चंदु-चन्द्रमा आठवें स्थानपर हो तो ज्योतिषशास्त्रमें मृत्युको सूचना देता है । ___19. 36 णोलंजणपहदेवीसुएण-अश्वग्रीवके द्वारा। दूसरे दृष्टिकोणके लिए देखिए मृच्छकटिक VI. 9. “कस्सट्रमो दिणअरो कस्स चउत्थो आ बट्टए चेदो" इसमें चतुर्थ स्थानका चन्द्रमा मृत्युका सूचक है। 20. 21b भीमुह-उज्झिउ-भयसे मुक्त । 21. 14b सिवकामिणीह-प्रेमिकाके द्वारा अर्थात् स्त्रीशृगाल शिवा । 16 मोल्लवणु-मूल्य या वापसी। 24. 150 कुलालचक्कु-कुम्हारका चक्र । जब अश्वग्रीवका चक्र त्रिपृष्ठको आहत नहीं कर सका, और वह उसके हाथमें ठहर गया। अश्वग्रीव बोला-यह कुम्हारके चक्र के समान है जो युद्धमें व्यर्थ है। यद्यपि त्रिपृष्ठ और उसके पक्षने इसका बहुत कुछ मूल्य आँका । अश्वग्रोवने त्रिपृष्ठको यह कहकर निन्दा को कि भिखारी तिलतुष खण्डको भूख मिटानेवाला कीमती खाद्य पदार्थ समझकर महत्त्व दे सकता है, परन्तु दूसरे लोग ऐसा नहीं सोचते। 25. 9 कामिणिकारणि कलहसमत्तो-कामिनीके लिए युद्ध में व्यस्त । LIII 5. 5b कंजबंधवो सरम्मि दिण्णपोमिणीरई-सूर्य जो कि कमलका मित्र है और झीलमें कमलके पौधोंको आनन्द देता है। 6. 8 तित्यणाहसंखम्मि रिक्खए-चौबीसवें नक्षत्रपर अर्थात् शततारिका । 8. 5a अण्णहु पासि ण सत्थविही कत्थइ सुणइ-वह शास्त्रका अध्ययन नहीं करता, मेरे अध्यापकसे वह स्वयं अध्ययन करता है। तीर्थकर स्वयं प्रकाशित है, और उन्हें किसी दूसरे गुरुकी आवश्यकता नहीं। 13. la ससयभिसहइ-शततारिकाके साथ । LIV 1. 14-15 पंक्तियोंका अर्थ है-यदि मैं (कवि) गुणमंजरीके मुखकी तुलना चन्द्रमासे करता है तो इसमें मेरी कवित्व शक्तिका प्रदर्शन नहीं होगा। मुझे कवि नहीं कहा जाना चाहिए । क्योंकि गुणमंजरीका मुख गन्दा या काला नहीं है, जैसा कि मृगचिह्न चन्द्रमण्डलपर है। उसकी आकृतिमें चन्द्रमाकी तरह घटत और वक्रता है। 3. 2 इहु कल्लोलणिवहु-कवि कहता है कि विन्ध्यशक्ति और सुषेणकी मित्रता इतनी घनिष्ठ और पक्की थी कि उनमें मेरा भेद करना असम्भव है। क्योंकि समुद्रसे उसकी लहरोंको दूर कौन कर सकता है ? दार्शनिकों द्वारा समुद्र और उनकी लहरोंका एकात्म्य, एक स्वीकृत सत्य है । Page #569 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ५२२ महापुराण [LV8. 76 बलदेव और वासुदेवका जन्म माताओंके द्वारा स्वप्न में देखे गये सूर्य और चन्द्रने पहलेसे . घोषित कर दिया। 8. 90 बीयउ उववादेविइ दढउ-द्विपष्ठ वासूदेवकी माताका नाम उववादेवी है-जैसा कि यहाँ दिया गया है । यद्यपि गुणभद्रने उसका नाम उषा दिया है : तुलना कीजिए : तस्यैवासी सुषेणाख्योऽप्युषायामात्मजोऽजनि । द्विपृष्ठाख्यस्तनुस्तस्य चापसप्ततिसंमिता ॥ 58184 9. 10b गलियंसुयई सुहद्दहि णयणई-३ अचलको मारूँगा और उसकी सुभद्राको बात-बातमें आंसू बहानेके लिए विवश करूंगा। ___12. 10-12 रायत्तणु इत्यादि-रायमें श्लेष है, जिसका अर्थ है राजन् और राग । 17. 8a रासह होइवि-तारक द्विपृष्ठकी तुलना गधेसे और अपने हाथीसे करता है। 10a गोवालबाल-ग्वालेका पुत्र, बालक । वासुदेवका एक विशेषण है, जो कि हिन्दू पुराण विद्याके अनुसार ग्वालोंमें रहे और वहीं बड़े हुए। Ly 3. 6b तह गुण किं वण्णइ खंडकइ-खण्डकवि ( पुष्पदन्त ) उसके गुणोंका वर्णन किस प्रकार कर सकता है । खण्डका अर्थ है टूटा हुआ, अधूरा जो पुष्पदन्तका एक उपनाम है। 7. 8bणायभव, नाकभवा-देवता। 16 गिर्भ जित्त सियालउ-ग्रीष्मऋतुने शीतको पराजित कर दिया। यह एक निमित्त था कि जिससे विमलनाथ विश्वकी अपूर्णताका अहसास कर सकें। LVI 1. 6a धणु सुरघणु जिह तिह थिरु ण ठाइ-इन्द्रधनुषकी तरह धन व्यक्तिके पास स्थायी रूपसे नहीं रहता। 7a भायर णियभायहु अवयरंति-भाई भाईके साथ बुरा बर्ताव करते हैं । 2. 8a-b चर इत्यादि-चर. गमण. छेज्ज और कडढण-पाँसेके खेलके विभिन्न प्रकार है जो विरोधीपर आक्रमण करने और उसके अधिकारको चार्जमें लेने में है। 9b एक्के उडिउ णियरज्जु तामउनमें से एकने ( सुकेतु ) अपनी राजधानी खो दी। ध्यान दीजिए कि उडिउका प्रयोग आधुनिक मराठी में उडवणेके रूप में सुरक्षित है। 6. 4 महुराउ भणहि महघोट्ट काइं-तुम मधुको राजा कैसे कहते हो कि वह मधुसे भरा मुखवाला है ? मधु राजाके सम्बन्धमें इतने ओछे शब्दों में तुम कैसे बोल सकते हो ? 7a णीलणियासणेणधर्मबलदेवके द्वारा जो कि नीले वस्त्र धारण करता है । बलदेवको नीलाम्बर कहा जाता है । तुलना कीजिए : नीलाम्बरो रोहिणेयः कालांको मुसली हली-अमरकोश । 7. - 10a उविदुप्पणरोसु-उविंदु + उप्पणरोसु, उपेन्द्र अर्थात् । स्वयंभू-वासुदेव क्रुद्ध हो गये। 1la-b जइ लोहिउ-मैं अपने भाईके वरणोंकी शपथ खाता हूँ यदि मैंने वेतालको मधु रक्त नहीं पिलाया। पायमि पाययामिका रूप है । 'पा' धातुका प्रेरणार्थक रूप । 8. 1 वसुहासुउ-वसुधाका पुत्र-अर्थात् स्वयंभू । स्वयंभू की माताका नाम । इस पर्यायवाची शब्दका उपयोग कविने पृथ्वीके अर्थ में किया है, जैसा कि हम 4 और 70 के रूपोंसे देखते हैं। Page #570 -------------------------------------------------------------------------- ________________ -LVIII ] . अंगरेजी टिप्पणियोंका हिन्दी अनुवाद ५२३ 9. 4b, 60 सुंदरिहि तणुएण-मधुके द्वारा । 5a-b-6a विउससयणकयवयणविणुएण-~मधुके द्वारा जो सैकड़ों विज्ञानोंके समान काव्य रचनामें प्रशंसित है। 36 महमहमुक्के चक्कें-चक्रके द्वारा, जो मधुके शत्रु द्वारा प्रक्षिप्त था। महुमह-मधुमथन विष्णुका एक नाम है, हिन्दूपुराण विद्या । LVII इस सन्धिमें तीन व्यक्तियोंकी कथा है। ये हैं-संजयन्त, मेरु और मन्दर; और उनके पूर्वभवोंको जीवनियोंकी भी कथा है। इनमें मेरु और मन्दरकी जीवनियाँ प्रमुख है जो विमलनाथके गणधर हैं। नीचे दी गयी सूची में इन दोनों के पूर्वभव कालक्रमानुसार इस प्रकार हैं (a) संजयन्त-1. सिंहसेन, 2. अशनिघोष हस्ती, 3. श्रीधरदेव, 4. रश्मिवेग, 5. अर्कप्रभ, 6. वज्रायुध, 7. सर्वार्थसिद्धि अहमिन्द्र, 8. संजयन्त, इस जीवनमें उसने तपस्या ग्रहण की। (b) मेरु-1. मधुरा, 2. रामदत्ता, 3. भास्करदेव, 4. श्रीधरा, 5. रत्नमाला, 6. वीतभय, 7. आदित्य प्रभ, 8. मेरु, जो विमलनाथके गणधर हैं। (c) मन्दर-1. वारुणी, 2. पूर्णचन्द्र, 3. वैडूर्यदेव, 4. यशोधरा, 5. रुचकप्रभ, 6. रत्नायुध, 7. विभीषण, 8. द्वितीय नारकी, 9. श्रीधामा, 10. ब्रह्मस्वर्गस्थित देव, 11. जयन्तधरणेन्द्र, 12. मन्दर, जो विमलके गणधर हैं। इस वर्णनात्मक वृत्तान्तमें दो और प्रमुख व्यक्तियोंका वर्णन है। वे हैं (1) सत्यघोष या श्रीभूति, सिंहसेनका मन्त्री, जो अगन्धनसर्प, चमरमग, कुक्कुटसर्प, तृतीयनारक, अजगर, चतुर्थनारक, सादिभव, सप्तनारक, सर्प, नारकी, भृगशृंग और विद्युदंष्ट्र। (2) भद्रमित्र व्यापारी जो सिंहचन्द्र, प्रीतिकरदेव और चक्रायुध । 1 56 चिज्जइ-चि से विकसित है तोड़ने और तब खाने के लिए । 'टो' में इसका अर्थ खाना दिया है, जो दूसरा अर्थ है । 6. 10 देवदिवायराहु-आदित्यप्रभ देवका जो परवर्ती दूसरे भवमें मेरु बना। 9. ilaविणि वि एयई-यज्ञोपवीत और मुद्रिका । 14. la णावइ वारुणि-पुराके समान । 15. 6a तूलिहि-सूतसे बना गद्दा । 18. 4b कम्मारउ-श्रमिक । LVIII 9. la पुणु तहु कइ-पंक्तिका अर्थ है अनन्तके लिए (तह कई = तस्य कृते ) राज्यश्री प्रेमको कसकसे पीड़ित हो उठी और मूछित हो गयी। परन्तु उसे सचेतन किया गया, चंवरों से । 11. 8b मिहिरमहाहिय-कान्तिमें श्रेष्ठ । सूर्यसे श्रेष्ठ । 13. 12a अमवासाणिसियहि-अमावस्याकी रातमें। गुणभद्र और पुष्पदन्त माहका उल्लेख नहीं करते जो चैत्रमास है । हमें माहका नाम 11. la से लेना पड़ा है। 16. 96 महसूयणु-मधुसूदन विष्णुका नाम है। हिन्दूपुराण विद्यामें यह विष्णुका नाम है । क्या मखसूदनको उस मधुसूदनके समकक्ष माना जाये जो मधुसूदनसे समता रखता है। Page #571 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ५२४ महापुराण [ LIX 21. दामयमक अथवा शृंखलायमकपर ध्यान दीजिए जो पूरे कडवकमें है। 22. 5b रहचरणु-चक्र । 13a. सरसलिलि रहंगसयाई अत्थि-वहाँ झोलमें सैकड़ों चक्रवाक है परन्तु क्या वे पागल हाथीको पकड़ सकते हैं। LIX 4. 7 सिविणय देंतु सुहुं-उस आदमीको सुख देता हुआ जो धनिक होते हुए भी नम्र और सदय हैं। ध्यान दीजिए कि शब्द सिविणयमें कारक चिह्न नहीं है। 6. 3a पूसरिक्खि छणससिदिवसि-इसमें भी माहके नामका उल्लेख नहीं है । गुणभद्रमें माघ माहका उल्लेख है, परन्तु माघको पूर्णिमाको हम पुष्यनक्षत्र नहीं पा सकते इसलिए पौष माह होना चाहिए । क्या यह उत्तर और दक्षिणमें माह गिनने के अलग-अलग प्रकारोंके सन्देहके कारण ऐसा हुआ? 14. la सयडंग ( शकटांग )-चक्र; चक्रवर्तीका शस्त्र । 19. 10 विसरिसजलझलज्झलं-वर्षाके गन्दे पानीका टपकना । LX 2. 5b जहिं मणियरहिं ण दिठ्ठ पयंगउ-जहाँ रत्नोंकी किरणोंके कारण सूर्य दिखाई नहीं पड़ता था, रत्न इतने अधिक और विशाल थे कि उन्होंने सूर्यको आच्छादित कर लिया। 3. 5b कोडिसिलासंचालणधवलह-यह पंक्ति प्रथम वासुदेव त्रिपृष्ठके कार्यको सन्दर्भित करती है कि जिसने कोटिशिलाको उठाया । 4. 136 पाहुडगमणागमणपवाहें-भेंटकी वस्तुओंके आने-जानेके प्रकारमें-विजयभद्र और अमिततेजस के बीच । नैमित्तिक-ज्योतिषी । 5. 96 इउं पव्वइउ समउं हलीसह-हलीस अर्थात विजय बलदेव, जिन्होंने संसारका परित्याग कर दिया। मैं ( ब्राह्मण ज्योतिषी भी ) उसके साथ साधु हो गया। 6. 1la मामसमप्पिउ-मेरे ससुर के द्वारा दिया गया। यहाँ तक आधुनिक मराठीमें ससुरको मामा कहते हैं। 8. 2a अमोहजीह-ज्योतिषीका नाम । 7 जेवव्वरसि-जिससे तुम आपत्तिमें सुरक्षित रह सकोगे ( जीवित रह सकोगे )। 11. 36 णिबद्धणाई- 'ए' 'पी' में पाठ है णिबंधणाई, जो सरल है । मुहावरेका अर्थ है तन्तुओंको बांधनेवाले। 96 वारउ-पारी । वार शब्दका पारी अर्थ मराठी में सुरक्षित है। 18. 5a हरिसुउ-श्रीविजय, त्रिपृष्ठ वासुदेवका पुत्र । 29. 106 समयसमियकलि-जिसने समता या अपनी मतिसे कलहको शान्त कर दिया है। LXI 1. 9a-28b इन पंक्तियोंमें अमिततेज द्वारा अर्जित विद्याओंको सूची है। 12. 6 दिल्लिदिलिए, हे बाले-कन्या, देशी नाममाला देखिए। Page #572 -------------------------------------------------------------------------- ________________ -LXV 1 अँगरेजी टिप्पणियोंका हिन्दी अनुवाद ५२५ 15. 13 माउंचियारिपसरु-जिसने शत्रुओंकी प्रगति रोक दी है । 21. 11 घणवाहणहु-मेघरथका । LXII 2. 2a गरुडेण वि जिप्पइ एहु ण वि-यह रसोइया गरुड़के द्वारा भी नहीं जीता जा सकता । 5. 10b जाउडयजडिलमंडियथणिहिं-जिसके स्तन केशरसे सघन रँगे हुए हैं। 7. 9a to 10. 26-यहां पूरी घरती और उसके खण्डोंका वर्णन है जो आकाशसे दिखाई देते हैं। 17. 12b पक्खें-पक्षीके द्वारा। इस शब्दको क्या पक्खिके रूपमें लिया जा सकता है, जो वाद्यात्मक संगीतका एक अंग है। LXIII 2. 7a एरादेविड-दूसरी जगह शान्तिकी माताका नाम अइरा दिया गया है, उदाहरण के लिए 1.16 और 116 में। 5. 5-6-इन पंक्तियोंमें उन रत्नोंकी सूची है, जो चक्रवर्ती शान्तिनाथको प्राप्त थे। 11. 1-7-इन पंक्तियों में शान्तिनाथ और चक्रायुधके पूर्वभवोंका वर्णन है । शान्तिनाथके कुल 12 भव हैं-श्रीषेण, कुरुनरदेव, विद्याधर, देव, बलदेव, देव, वज्रायुध, चक्रवर्ती, देव, मेघरथ, सर्वार्थसिद्धिदेव, चक्रायुधके ये भव थे-अनिन्दिता, कुरुणर, विमलप्रभदेव, श्री विजय, देव, अनन्तवीर्य, वासुदेव, नारफ, मेघनाद, प्रतीन्द्र, सहस्रायुध, अहमिन्द्र, दृढ़रथ ( मेघरथभ्राता), सर्वार्थसिद्धिदेव, चक्रायुध । J-XIV 1. 7b जो ण करइ करि कत्तिय कवालु-कुन्थु या तीर्थकर, जो अपने हाथमें मानवीकपाल नहीं रखते, और बाघका चमड़ा जैसा कि शिब रखते हैं, इसलिए तीर्थकर शिवसे बहत ऊँचे हैं। 2 8b वयविहिजोग्गु दिण्णु वि ण लेह-हाथ पसारे हुए, वह ऐसी चीजें स्वीकार नहीं करते, जो अपनी व्रतनिष्ठाके कारण, वे ग्रहण नहीं कर सकते । 8. 16णियजम्ममासपक्खंतरालि-उसी दिन माह और पक्षमें, कि जब उनका जन्म हुआ। अर्थात् वैशाख शुक्ल प्रतिपदाके दिन । 25 कित्तियणक्खत्तासिइ ससंकि-जबकि चन्द्रमा कृत्तिका नक्षत्रके संगममें था। LXV 3. 4b पट्टणु रयणकिरणअइसइयउ-रत्नोंकी किरणोंके कारण नगर अत्यन्त चमकदार था। 4. 96-106 वरिसकोडि सहसेण विहीणह-जबकि कुन्थ के निर्वाणके एक हजार करोड़ वर्ष बीत गये। 5. 56 दहदहधणुतणु--शरीर बीस धनुष ऊंचा था, यद्यपि गुणभद्र तीस धनुष ऊँचा शरीर बताते हैं; जो अरहको ऊंचाईसे तुलनीय है। तुलना कीजिए = त्रिशच्चापतनत्सेधः चारुचामीकरच्छवि:-65. 26 जो अधिक सम्भवनीय है। 9. 1-8 ध्यान दीजिए-अर शब्दपर अलंकारिता है। Page #573 -------------------------------------------------------------------------- ________________ महापुराण [ LXVI तावसु- राजा जिन साधु बना जब कि ब्राह्मण तपस्वी । विशेष रूपसे वह शिवको भक्ति सिद्धान्तोंका अनुयायी बना । 12. 6-7 णच्चइ देउ – इन पंक्तियों में शिव के चरित्र की विशेषताओंका वर्णन है कि जो ताण्डव नृत्य करते हैं, और जो पार्वतीको रखते हैं। डमरु बजाते हैं, त्रिपुर को जलाते हैं, और राक्षसों का संहार करते हैं । जिनवर कहते हैं कि ऐसी ईश्वरता संसारसे नहीं बचा सकती । 13. 66 तावसमासुरवासि रसंति - चिड़ा चिड़िया के जोड़ने दाढ़ीमें घोंसला बना लिया साधुकी और वे उसमें गाते हैं । ५२६ 11. 8a णिउ जिणवररिसि सोति अर्थात् वैदिकधर्मका अनुयायी साधक बना 16, 1 -2 इन पंक्तियोंमें कान्यकुब्ज नगरका नाम है । क्योंकि उसमें साधुसे विवाह नहीं करनेपर कन्यामको शापके कारण 'बोनी' बनना पड़ा । 24, 16 खतिय सलु विछारु परत्तिवि - सभी क्षत्रियोंको जलाकर खाक कर देनेवाले परत्तिवि परतसे बना है जो देशी है, और जो आधुनिक मराठी में सुरक्षित है । LXVI 1. 9 वित्तदुक्खोरिया के कारण उत्पन्न दुख उसके शरीरको कान्ति चली गयी । 106 पर ताउ ण पिच्छमि - परन्तु मैं अपने पितासे ( सहस्रबाहु से ) नहीं मिलती । 5. 56 कोसलं पुरं— कोसलपुर अर्थात् साकेत, जो कोसल राज्यको राजधानी है । 6. 30 परमे वरु अर्थात् सुभौम, जो बाद में चक्रवर्ती होनेवाले थे। 106 एउ जि-पिता के दाँतोंसे पकड़ा हुआ मिट्टीका प्लेट इस प्रकार चक्रमें बदल गया । 10. 10] सम्भंवरि ( श्वभ्रान्तरमें) नरक में । LXVII 4. 6a हिरण्यगभोजिन-हिरण्यगर्भ शब्द हिन्दुपुराण विद्यामें ब्रह्मा से भेद बताने के लिए है परन्तु जैनपुराण विद्या में यह तीर्थकरका वाचक है । 9. 1a दिणि छक्के विच्छिण्णए-दीक्षाके छह दिन बाद । अर्थात् पौष कृष्ण द्वितीयाके दिन मल्लिने केवलज्ञान प्राप्त कर लिया। गुणभद्र भी इस तिथिको इस रूप में देते हैं। 13. 11 पिसुण महंतो - पिशुन नामका मन्त्री, जिसने राम-विरामके बारेमें उनके पिता 'वीर' को गलत सूचना दी वह बलि हुआ । 14. 46 वाणारासि - वाराणसी, छन्दके कारण तीसरे अक्षरको दीर्घ किया गया । Page #574 -------------------------------------------------------------------------- ________________