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________________ संधि ५९ . जिणुं धम्मु भडारउ तिहुवणसारउ मई जडेण किं गज्जइ । चवलुकलियायरु भरियड सायरु किं कुडुवेण मविज्जइ ॥ध्रुवकं ॥ १ लच्छीरामालिंगियवच्छं दिव्वणि छत्तत्तयवंतं भामंडलरुइणिज्जियचंदं अमरमुककुसुमंजलिवासं बुद्धं बहुसंबोहियसुरवं वरकंठीरवपीढारूढं पंचिदियभडसंगरसूरं उण्णय सिरिवच्छं । २ कंतं मयवंतं । भवकुमुयचंं । देवं दिव्वासं । जयदुं दुहि सुरवं । मीमंसारूढं । णणणसूरं । सन्धि ५९ त्रिभुवन श्रेष्ठ आदरणीय जिनधर्मका मुझ जड़के द्वारा क्या वर्णन किया जाये ? चंचल लहरोंका समूह सागर क्या कुतुपसे मापा जा सकता है ? १ जिनका वक्षःस्थल लक्ष्मीरूपी रमणीके द्वारा आलिंगित है, जो अशोक वृक्षके समान उन्नत हैं, जो दिव्यध्वनि और तीन छत्रोंसे युक्त हैं, जो ज्ञानवान् और सुन्दर हैं, जिन्होंने भामण्डल की कान्तिसे चन्द्रमाको जीत लिया है, जो भव्यरूपी कुमुदोंके लिए चन्द्रमाके समान हैं, जिनपर देवेन्द्रोंने कुसुमांजलियोंकी वर्षा की है, जो देव दिगम्बर बुद्ध हैं, जिनका शब्द ( दिव्यध्वनि ) अनेक जनोंको सम्बोधित करनेवाला है, जो जय दुन्दुभिके शब्द से युक्त हैं, जो सिंहासनपर आरूढ़ हैं, जो मीमांसा में प्रसिद्ध हैं, जो पंचेन्द्रिय योद्धाओंसे संग्राम करनेमें शूर हैं, जो विश्वरूपी कमलके All Mss., A, K and P, have, at the beginning of this samdhi, the following stanza: अत्र प्राकृतलक्षणानि सकला नीतिः स्थितिश्छन्दसामर्थालंकृतयो रसाश्च विविधास्तत्त्वार्थनिर्णीतयः । कि चान्यद्यदिहास्ति जैनचरिते नान्यत्र तद्विद्यते द्वावेतौ भरतेशपुष्पदशनी सिद्धं ययोरीदृशम् ॥ १ ॥ K reads ते चार्थनिर्णीतयः for तत्वार्थ ; देवेतौ for द्वावेतौ, and भारताख्यं for भरतेश ; P reads देवेतौ भरते तु पुष्पं । K has a gloss on देवेतो as देवत्वं इतो प्राप्तो देवेतौ । १. १. A जिणधम्मु । २. P किं तं । ४३ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002724
Book TitleMahapurana Part 3
Original Sutra AuthorPushpadant
AuthorP L Vaidya
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year1981
Total Pages574
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Mythology, & Story
File Size12 MB
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