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________________ ३३८ महापुराण [५९. १. १०.. मंदरद्दिधीरं सवरहियं रायरोसरहियं । दूरुज्झियमायाविरहंसं मुणिमणसरहंसं। एयाणेयवियप्पविवायं मोहमेहवायं । पायपोमपाडियगिळवाणं उग्गयगिळवाणं। दिसिणासियदुण्णयसारंग हयवसुसारंगं। १५ तवहुयवहहुयवम्महधम्म णमिॐणं धम्म। भणिमो तस्स चरित्तं चित्तं रंजियपरचित्तं । घत्ता-जिह अक्खइ गोत्तमु उत्तमु णित्तमु सत्तमु सेणियरायहु ॥ तिह हउं दुक्कियहरु कहमि कहतरु भरहहु भवसहायहु ॥१॥ धादइसंडइ पुवदिसायलि पुत्वविदेहइ अंकुरपल्लवसोहियपायवि माहवगेहइ । सीयातीरिणिदाहिणतीरइ वच्छयदेसइ पुरिहि सुसीमहि दसरहु राणउ जयसिरिसेसइ सुपसाहियसिरु बुहयणवच्छलु णिवसैइ केहउ चाएं भोएं विहवें रूवें वम्महु जेहउ । रयणिसमागमि गिलियउछणससि अब्भपिसाएं खीरामेलउ णावइ णाएं दिट्टर राएं। ५ चिंतिउ णियमणि सच्छसहावें वियलियदप्पे अमयकलायरु जेम णिसायरु गसिउ विडप्पे । तेम गसेवउ जीउ पुसेर्वउ कूरकयंतें णिव्वयवंत कारिमजते काइं जियंतें। लिए सूर्य, मन्दराचलके समान धीर, शवरहित ( स्व-परसे रहित, शवरके हितस्वरूप ) हैं, जो राग-रोषसे रहित हैं, जिन्होंने माया और विरहके अंशोंको दूर कर दिया है, जो मुनियोंके मनसरोवरके लिए हंस हैं, जो एक-अनेक विकल्पोंसे विवाद करनेवाले हैं, जो मोहरूपो मेघके लिए पवनके समान हैं, जिन्होंने देवोंको अपने चरणकमलोंपर झुकाया है, जो उन्नतग्रोव हैं, जिन्होंने दिशाओंसे दुर्नयरूपी हरिणोंको भगा. दिया है, जिन्होंने द्रव्यके अनुरागको नष्ट कर दिया है, तपको ज्वालामें कामदेवको आहत कर दिया है, ऐसे धर्मनाथको प्रणाम कर, उनके परचित्तोंको रंजित करनेवाले विचित्र चरित्रको कहता हूँ। __घत्ता-जिस प्रकार उत्तम तमरहित और प्रशस्त गौतम गणधर राजा श्रेणिकसे कहते हैं, उसी प्रकार मैं पापको हरनेवाला कथान्तर भव्योंके सहायक भरतसे कहता है ॥१॥ धातकीखण्डके पूर्व मेरुतलमें पूर्वविदेहमें, जो वृक्षों, अंकुरों और पल्लवोंसे शोभित है, जिसमें धनपतियोंके घर हैं, ऐसे सीता नदीके दक्षिण तटपर स्थित वत्सदेशको सुसीमा नगरीमें रथ था। जिसका सिर विजयश्रीकी पूष्पमालासे प्रसाधित है. ऐसा पण्डितजनों के प्रति वत्सलभाव रखनेवाला वह राजा इस प्रकार निवास करता था, मानो त्याग भोग वैभव और रूप में कामदेव हो। निशाका आगमन होनेपर बादलरूपी पिशाच ( राह) के द्वारा निगला गया पूर्णचन्द्रमा राजाने इस प्रकार देखा, मानो नागके द्वारा क्षीरसमुद्र निगल लिया गया हो। स्वच्छस्वभाव और विगलित गर्व उस राजाने अपने मन में विचार किया कि "जिस प्रकार राहने ३. AP णविऊणं । ४. P omits चित्तं । ५. A कहवि । ६. P°सयायहु । २. १. A सिरि । २. P णिवइ स । ३. A गसेवउ । ४. A पुसेवट । Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002724
Book TitleMahapurana Part 3
Original Sutra AuthorPushpadant
AuthorP L Vaidya
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year1981
Total Pages574
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Mythology, & Story
File Size12 MB
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