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-५३. १३. १० ]
महाकवि पुष्पदन्त विरचित
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पहु बाहत्तर बच्छर लक्खई अच्छियड एम मरइ को पंडियपंडियवर मैरणु
raft हू कि इह ण नियच्छियउ । ५ पुणु विट्ट बहुभवसंभरणु ।
जे
हउं वि एवं संचितभि जइ णरभवु लहमि तो खरतवमंथाणें कम्मदहिउँ महमि । अप्पर णा वासुपूज्जपरमेहिहि मग्गे संचरमि ।
चोप्पडु
घत्ता - भरहहु होंतर जिणचरियई तियसह संधिवि ॥ हरि सग्गहु हि पुष्पदंत उल्लंघिवि ॥ १३॥
इति महापुराणे तिसट्टि महापुरिस गुणालंकारे महाभव्वमरहाणुमण्णि महाकपुष्यंतविरइए महाकब्वे वासुपुज्जणिन्दाणगमणं णाम तिवण्णासमो परिच्छेओ समत्तो ॥ ५३॥
बहत्तर लाख वर्षं रहे, इस समय जाकर वह मुक्त हुए, तुमने यह नहीं देखा। इस प्रकार पण्डितों में महापण्डित मरण कौन मरता है कि जिससे दुबारा जीव संसारकी अनेक जन्म-परम्परामें नहीं पड़ता । मैं भी यही सोचता हूँ कि यदि में मनुष्य जन्म पा सकूं तो तीव्रतपरूपी मथानीसे कर्मरूपी दहीका मन्थन करूंगा, और ज्ञानसे जो आत्मा तथा स्निग्धत्व ( रागतत्त्व ) है उसे छिन्न करूंगा, तथा वासुपूज्य परमेष्ठी के मार्गपर चलूँगा ।
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घत्ता - इस प्रकार भरतसे लेकर जिनचरितोंको इन्द्रसे कहकर इन्द्र आकाशमें नक्षत्रोंको लांघकर स्वर्ग चला गया ||१३||
इस प्रकार त्रेसठ महापुरुषोंके गुणालंकारोंसे युक्त महापुराण में महाकवि पुष्पदन्त द्वारा विरचित एवं महाभव्य भरत द्वारा अनुमत महाकाव्यका वासुपूज्य निर्वाण गमन नामका तिरपनवाँ परिच्छेद समाप्त हुआ ॥ ५३ ॥
३. P मरणे । ४. P संसरणे । ५. A णाणं । ६. A omit णहि ।
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