SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 83
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ ३६ महापुराण [३९. १५.१ तावेक्कु परायउ दंडपाणि कासायचीरधरु महुरवाणि । जिणवरु व णिवारियभव विहरु कुंडलियणीलभमरउलचिहुरु । सोत्तरियफुरियजण्णोववीउ रूवेण गुणेण वि अंदुतीउ । सो मंतिहिं गहियखणेहिं महिउ कुलबंभणु भणिवि नृवस्( कहिउ । ता भासइ लद्धावसरु विप्पु को पुत्तु एत्थु किर कवणु बप्पु । संसारु असारु णिरायराय कि सासय मण्णहि अब्भछाय । जिह तरुवेलिहिं परगम्मु होइ तिह गरु णारिहि अप्पउंण वेइ । जीहोवहिं जगमारणेहिं डिभहिं डंभुन्भवकारणेहिं । संसारिय सयल सणेहु लेंति केसा इव बंधणजोग्ग होंति । १० मोहें बंद्धा भैवि संसरंति पुणु पुणु हेवंति पुणु पुणु "मरंति । घत्ता-महु वित्तई पुत्तकलत्तई एम भणंतु जि णिज्जइ ॥ ''सुहं माणइ धम्मु ण याणइ जगु खयरक्खें खज्जइ ॥१५।। तब इतनेमें गेरुए वस्त्र धारण किये हुए मीठी वाणी बोलनेवाला एक दण्डी साधु वहां आया । जो जिनवरकी तरह भव्योंके कष्टोंको दूर करनेवाला था, जिसके भ्रमरकुलके समान नीले बाल कुण्डलित थे, जो उत्तरीय वस्त्रके साथ यज्ञोपवीत धारण किये हुए था। वह रूप और गुणमें अद्वितीय था। तपके लिए नियम ग्रहण करनेवाले मन्त्रियोंने उसका सम्मान किया और कुलीन ब्राह्मण समझकर राजासे कहा। तब अवसर मिलनेपर ब्राह्मण बोला- “यहाँ कोन पुत्र है, और कौन बाप है ? हे मनुष्यों के राजराज, यह संसार असार है। क्या तुम मेघोंकी छायाको शाश्वत मानते हो ? जिस प्रकार तरु लताओंके परवश हो जाता है, उसी प्रकार मनुष्य नारियोंके कारण अपनेको नहीं जान पाता। जगका नाश करनेवाली जीवकी अवस्थाओं, बच्चों और बच्चोंके जन्मकारणोंके द्वारा सभी संसारी जीव स्नेह ग्रहण करते हैं, और केशोंके समान बन्धनके योग्य हो जाते हैं। मोहसे बँधकर संसारमें परिभ्रमण करते हैं। फिर-फिर जन्म ग्रहण करते हैं और फिर-फिर मृत्युको प्राप्त होते हैं। घत्ता-'मेरा धन, मेरे पुत्र-कलत्र' इस प्रकार कहता हुआ वह ले जाया जाता है, फिर भी वह सुख मानता है, धर्म नहीं जानता। और इस प्रकार यह जग यमरूपी राक्षसके द्वारा खा लिया जाता है ॥१५॥ १५. १. A°चीरु धरु। २. A P°विहुरु । ३. A अदुईउ; P अदुईउ । ४. A P णिवस्स । ५. A डिंभुन्भव । ६. A मोहं बद्धा । ७. P जगि । ८. P संभरंति । ९. A मरंति; P भवंति । १०. A हवंति । ११. A रुणंतु । १२. सुक माणइ । Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002724
Book TitleMahapurana Part 3
Original Sutra AuthorPushpadant
AuthorP L Vaidya
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year1981
Total Pages574
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Mythology, & Story
File Size12 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy