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________________ -५१. १२. २ ] महाकवि पुष्पदन्त विरचित २०५ ११ णिद्ध अद्धजोयणवित्थिण्णी णाणावणतरुवरसंछण्णी । जिणपयसेवा इव फलेभाइणि बहुमुणिलक्खमोक्खसुहदाइणि । पुण्ण पवित्त पावखयगारी दीसइ सिल णं सिद्धिभडारी। कहिं वि दंतिदंतग्गहिं खंडिय सीहणहरचुयमोत्तियमंडिय । कहिं वि पलिप्पइ जालावलणे किडिदाढाणिहसणरुहजलणे । कहिं वि जक्खिपयघुसिणं लिप्पैइ चंदकंतजलधारइ धुप्पइ । कहिं वि णीलगलणियरहिं णीलिय वर्णयवधूमंधारें मइलिय । कहिं वि फुरइ घणतिमिरविमुक्कहिं । सप्पफडाकडप्पमाणिकहिं । कहिं वि भमियमृगणाहिमओहें सुरहिय सेविय भमरसमूहें। कहिं वि वियंभिय सइसहगारव किंणरगेयवेणवीणारवं। सा परियंचेप्पिणु अंचेप्पिणु ___ सिद्धसेस राएहिं लएप्पिणु । घत्ता-पुणु भणिउ अणंतु पेक्खहुं सिल उण्णावहि ॥ हयकंठकयंतु होसि ण होसि वदावहि ॥११॥ १२ ता सिल उच्चायंतहु कण्हहु पवरकरिकरायारहिं बाहहिं दुजणदेह वियारणतण्हहु । पाहाणुट्ठियभूसणरेहहिं । स्निग्ध आधे योजन विस्तीर्ण, तरह-तरहके वनवृक्षोंसे आच्छन्न, जिनपदकी सेवाके समान फलकी भाजन, अनेक लाखों मुनियोंको मोक्ष-सुख देनेवाली। पुण्यसे पवित्र और पापका क्षय करनेवाली । वह शिला ऐसी दिखाई देती है मानो सिद्धिरूपी भट्टारिका हो। कहींपर वह हाथियोंके दांतोंके अग्रभागसे खण्डित थी, कहींपर सिंहोंके नखोंसे च्युत मोतियोंसे अलंकृत थी। कहींपर ज्वालाके जलनेसे प्रज्वलित थी, कहींपर सुअरकी दाढ़ोंके संघर्षणसे उत्पन्न ज्वालासे, कहींपर यक्षिणीके पैरोंकी केशरसे रंजित है, और चन्द्रकान्त मणिको जलधारासे धुली हुई है, कहींपर मयूरोंके समूहसे नीली, और दावाग्निके धुएंसे काली। कहींपर सघन अन्धकारसे मुक्त, सर्पके फनसमूहके माणिक्योंसे चमकती है। कहींपर घूमते हुए कस्तूरीमृगके मदसमूहसे सुरभित है और भ्रमर समूहसे सेवित है, कहींपर पवित्रता, सुख और गौरव फैल रहा है और किन्नरोंके द्वारा गाये वेणु और वीणाके शब्द हैं। उसकी परिक्रमा और पूजा कर और राजाओंके द्वारा अक्षत लेकर घत्ता-नारायणसे फिर कहा गया हम देखें, तुम शिला उठाओ और बताओ कि वह अश्वग्रीवके लिए यम होगी या नहीं होगी? ॥११॥ जिसे दुर्जन देहके विदारणको तृष्णा है, ऐसे तथा शिलाको उठाते हुए कृष्णकी, प्रवर गजको सूंडके समान तथा पत्थरपर लिखी गयी भूषण-रेखाओंवाली बाहुओंसे हरिण उरतलपर गिर पड़े। ११.१ AP अजोयणं । २. A फलुभाविणि; P फलभाविणि । ३. AP°जलणें । ४. A लिंपइ । ५. A णीलमणिणियरहिं । ६. P वणदव। ७. AP मृगणाहि। ८. AP सुरहिपसेविय । ९. A°गारउ । १०. वीणारउ । ११. A उच्चावहि; P ओचावहि । १२. A दावइ । Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002724
Book TitleMahapurana Part 3
Original Sutra AuthorPushpadant
AuthorP L Vaidya
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year1981
Total Pages574
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Mythology, & Story
File Size12 MB
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