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________________ -४१. ११.२] महाकवि पुष्पदन्त विरचित . सिसुकीलाइ रमियगंधव्वहं दोणि दहद्धलक्ख गय पुन्वहं । फणिसुरणरमणणयणाणंदणु जणणे हक्कारिउ अहिणंदणु । भणिउ देव किं देंवि सकित्तणु भुवणत्तयसामिहि सामित्तणु । लइ लइ रज्जु अज्जु जाएसंवि हउँ परलोयकजु थाहेसविं। तहिं अवसरि आयउ सकंदणु पुरि घरि गयणि ण माइउ सुरयणु । वाइउ सुसिरु तंति घणु पुक्खरु गायउ किं पि गेडे महुरक्खरु । पुरउ णडतें अमरणिहाएं वइयालियदिण्णासीवाएं । सायरसरिसरजलसंघाएं पुणु ण्हाणिउ कुमारु सुरराएं । हार तार जोयणवित्थिण्णी णं णहि गंगाणइ अवइण्णी। घत्ता-जलधार पडइ सिरि दुर्तरिय देउ ताइ°ण वि हम्मइ ।। भावई महुं ण्हंतु वि घडसयहिं बिंदुएंण णउ तिम्मइ ॥१०॥ ११ मउडपट्टधरु बीयविणिट्ठिउ पिउसंताणि णिओइ अहिहिउ । विणियराउ ताउ रिसि जायउ पंहु वि महिं भुजंतु सजायउ। का प्रमाण साढ़े तीन सौ प्रचण्ड धनुष हो गया। क्रीड़ामें गन्धर्वोके साथ खेलते हुए उनके साढ़े बारह लाख पूर्व वर्ष बीत गये । नागों, सुरों और मनुष्योंके मनको आनन्द देनेवाले अभिनन्दनको पिताने पुकारा और कहा, "हे देव, भुवनत्रयके स्वामीके लिए कीर्तिसहित स्वामित्व क्या दूँ, लोलो राज्य, आज मैं जाऊंगा, और मैं परलोककार्यको थाह लूंगा।" उस अवसरपर भी इन्द्र आया, और वह देवसमूह, पुर, घर तथा आकाशमें नहीं समा सका । सुषिर, तन्त्री, धन और पुष्कर वाद्य बजाये गये । और मधुर अक्षरोंमें कुछ भी मधुर गीत गाया गया। सामने नाचते हुए देवसमूह वैतालिकोंके द्वारा दिये गये आशोदिके साथ समुद्र, नदी और सरोवरोंके जलसमूहसे इन्द्रने कुमारका पुनः अभिषेक किया। हारोंकी तरह स्वच्छ एक योजन तक फैली हुई, मानो आकाशमें गंगानदी अवतीर्ण हुई हो। पत्ता-दुर्धर जलधारा उनके सिरपर पड़ती है, लेकिन देव उससे आहत नहीं होते। वह मुझे अच्छे लगते हैं कि सैकड़ों घड़ोंसे नहलाये जाते हुए भी वह एक बूंदसे भी नहीं भीगते ॥१०॥ ११ - मुकुट पट्टको धारण किये हुए, धैर्यसे युक्त वह नियोगसे पितृपरम्परामें नियुक्त हो गये । और पिता रागको नष्ट करनेवाले मुनि हो गये। प्रभु भो पत्नीके साथ धरतीका उपभोग करने - ३. A कोक्काविउ । ४. P साहेसमि। ५. A वायउ सुसरू। ६. A गेय । ७. A Pण्हाविउ । ८. A हारसुतारतोयविच्छिण्णो; P हारसुतारजोयविच्छिणी। ९. A सिरिसिहरि; PT दुद्धरिस । १०. A P तहि ण वि हम्मइ। ११. A णावइ but records ap भावइ । १२. A P घडसएण । १३. A जं बिंदुएण; P तं बिंदुएण । ११.१. A धीरविपिठिउB P पीढि णिविठ्ठउ । २. A P पहिठिउ । ३. P विणियराउ । ४. Pएह वि ___ महि भुंजंतु । Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002724
Book TitleMahapurana Part 3
Original Sutra AuthorPushpadant
AuthorP L Vaidya
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year1981
Total Pages574
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Mythology, & Story
File Size12 MB
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