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________________ -४८. १०. १४ ] महाकवि पुष्पदन्त विरचित १६३ जं दिह' मओ महुयरु सणालि मयरंदालुद्धउ आरणालि । ता चिंतइ जिणु सिरिरसवसाहं . अलिविहि होसइ अम्हारिसाहं । हो धिगिधिगत्थु धणु घरु कलत्तु जणु सयल मोहमइराइ मत्तु । खणि णञ्चइ खणि गायइ सरेहिं खणि रोवइ उरु ताडइ करेहिं । खणि णिद्धणु खणि विहवत्ति थाइ उत्ताणाणणु गम्वेण जाइ। हउं सुकइ सुहडु हउं चाइ भोइ हउं सूहउ हउं णिप्फण्णजोइ । हउं चंगउ एंव भैणंतु मरइ जोणीमुहेसु संसरइ सरइ। जहिं जहिं उप्पज्जइ तहिं जि बंधु अण्णाणछण्णु णउ णियइ अंधु । सहुंजाइ ण परियणसयणसत्थु संसारिणे कासु वि को वि एत्थु । भासंतई संजयसम्मयाई ता पत्तई सुरवरगुरुसयाई। अणुकूलिउ तेहिं तिलोयणाहु तांवाइउ सामरु अमरणाहु । तें ण्हवणु करिवि पहु महिउ जेंव हउं जडु कइ किंकिर कहमि तेंव । घत्ता-णियगोत्तहियत्तु पुणु पुणु हियवइ भावियः ॥ ___ संताणि सडिंभु णरणाहेण णिरूवियउ ॥१०॥ १० जब उन्होंने नाल सहित कमलमें मकरन्द (पराग ) के लोभी भ्रमरको मरा हुआ देखा तो जिन सोचने लगे, लक्ष्मीरूपी रसके लोभी हम लोगोंकी भी भ्रमर जैसी हालत होगी। हो-हो, धन, स्त्रो और घरको धिक्कार, समस्तजन मोहरूपी मदिरासे मतवाला हो रहा है। वह (जनसमूह) क्षणमें नाचने लगता है, क्षणमें स्वरोंसे गाने लगता है, क्षणमें रोता है और हाथोंसे अपने उरको पीटने लगता है । क्षणमें दरिद्र हो जाता है, और क्षणमें वैभवमें स्थित होकर अपने सिर ऊँचा कर गर्वसे चलता है। मैं सुकवि हूँ, मैं सुभट हूँ, मैं त्यागी हूँ, मैं भोगी हूँ। मैं सुभग हूँ, मैं योगी हूँ। मैं अच्छा हूँ, यह कहता हुआ मृत्युको प्राप्त होता है, और योनिके मुखोंमें रतिपूर्वक भ्रमण करता है। जहां-जहां उत्पन्न होता है, वहां-वहां बन्धको प्राप्त होता है, अज्ञानसे आच्छादित वह अन्धा कुछ नहीं देखता। परिजन और स्वजनका समूह साथ नहीं जाता। संसारमें यहां कोई किसीका नहीं है । तब संयम और सम्यक्त्वकी घोषणा करते हुए लोकान्तिक देव वहाँ आये। उन्होंने त्रिलोकनाथको तपके लिए अनुकूलित किया। इतनेमें देवोंके साथ देवेन्द्र आ गया। उसने अभिषेक कर प्रभुकी जिस प्रकार पूजा की मैं जड़कवि उसका किस प्रकार वर्णन करूं। पत्ता-अपने गोत्रके हितका उन्होंने मनमें बार-बार विचार किया, और नरनाथने कुलपरम्परामें अपने पुत्रको स्थापित कर दिया ॥१०॥ १०.१. A दिउ महुयरु मउ सणालि; P मुउ सुणालि । २. A उत्ताणणु जणु गव्वेण जाइ; P खणि उत्ताण णाणु गव्वेण । ३. AP णिप्पण्णु । ४. Aभणंति । ५. AP ण कोइ वि कासु एत्थु । ६. A संजयसंयमाई; P संजयसंगमाई । ७. A किर कह कहमि । Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002724
Book TitleMahapurana Part 3
Original Sutra AuthorPushpadant
AuthorP L Vaidya
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year1981
Total Pages574
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Mythology, & Story
File Size12 MB
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