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________________ १६४ महापुराण [ ४८.११.१११ सुकंकहि सिवियहि च डिवि चलिउ सुरयणु जयजय पभणंतु मिलिउ । ओइण्णु सहेउयवणि महंतु चरियावरणई कम्मई खवंतु । माहम्मि मासि तिमिरेण कालि बारहमइ दिणि जायेइ वियालि। छटोववासु सड्डइ करेवि सहुँ रायसहासें दिक्ख लेवि । अवरहि दिणि णहयललग्गसिहरु भिक्खाइ पइट्ट अरिहणयरु । णउ एयहु हियवउ सुण्णघडिउ उ भक्खइ पलै णियपत्तपडिउ । णउ परिहइ चीवरु रंगरिधु वहु का वि भणइ उ देहि णारि । घत्ता-उधरइ पिणाउ णउ फणिकंकणु फुरियकरु ।। हुंकारु ण देइ णउ उच्चारइ गेयसरु ॥११॥ १२ णर णडइ ण दावइ ढकसदु बहु का वि भणइ उ एहु रुद्दु । सुरवहुरएण रझ्याई जाई वयणाई णथि चत्तारि ताई। णउ कहइ वेउ पसुहणणडंभु वहु का वि भणइ उ एहु बंभु । वहु का वि भणइ णेउ चक्रपाणि ण पउंजइ दाणवप्राणहाणि । णारायणु एहु ण होइ माइ जाणमि विक्खायउ भुवणभाइ। ५ शुक नामकी शिविकामें चढ़कर वह चले। सुरजन जय-जय कहते हुए इकट्ठे हो गये। चारित्रावरणी कर्मोंका नाश करते हुए वह महान् सहेतुक उद्यान में उतरे। माघ कृष्ण द्वादशीके दिन, सन्ध्याकालमें श्रद्धासे छठा उपवास कर एक हजार राजाओंके साथ दीक्षा लेकर दूसरे दिन जिसके अग्र शिखर आकाशसे लगे हुए हैं, ऐसे अरिष्टनगरमें भिक्षाके लिए गये। ( उन्हें देखकर कोई वधू कहती है )-कि इनका हृदय शून्यसे निर्मित नहीं है, ( यह शून्यवादी नहीं हैं ), यह अपने पात्रमें पड़े हुए पल ( मांस ) को नहीं खाते। रंगसे समृद्ध यह चीवर नहीं पहनते हैं ? कोई ती है कि यह बद्ध नहीं हैं। इनके पास तलवार नहीं है, यह कंकाल धारण करनेवाले नहीं हैं, न इनके हाथमें कपाल है और न शरीरमें स्त्री है। घत्ता-यह पिनाक धारण नहीं करते, न नागोंका कंकण और स्फुरित हाथ है ? यह न हुंकार देते हैं और न गोतस्वरका उच्चारण करते हैं ? ॥११॥ वधू कह न नृत्य करते हैं और ढक्का शब्दका प्रदर्शन करते हैं। कोई वधू कहती है कि यह रुद्र नहीं है। सुरवधू ( तिलोत्तमा अप्सरा )के द्वारा जिनकी रचना की गयी है, ऐसे वे चार मुख इनके नहीं हैं, पशुवधके अहंकारवाले वेदोंका कथन भी यह नहीं करते। कोई वधू कहती है कि यह ब्रह्मा नहीं हैं। कोई वधू कहती है कि यह चक्रपाणि (विष्णु) नहीं हैं क्योंकि यह दानवोंके प्राणोंकी हानिका प्रयोग नहीं करते हैं, हे मां, यह नारायण नहीं हैं, मैं इन्हें विख्यात विश्वबन्धु जानती ११.१. AP सुक्कक्कइ । २. A ओयण्ण; P अवइण्णु । ३. P बारहवइ । ४. A जायउ। ५. P सदइ। ६. P फलु । ७. A णियपत्ति पडिउ । ८. A °रिदु । १२. १. P गहु । २. AP पाणहाणि । ३. AP जाणिवि । Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002724
Book TitleMahapurana Part 3
Original Sutra AuthorPushpadant
AuthorP L Vaidya
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year1981
Total Pages574
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Mythology, & Story
File Size12 MB
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