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________________ - ४८. १३.८] महाकवि पुष्पदन्त विरचित अरहंतु भडारउ दोसमुक्कु अब्भागयवित्तिवियाणएण agar भोपायविही नृसिरि कुसुमाई णिवाइयाई वासुरयणु करइ थोत्तु इतुहुं गोवाणियारिचंडु जप कुडिलत्तणु मुक्कु ईस जइतुहुं संसारहु णिरु विरत्तु जर तुहुं मुक्क संगग्ग हेण जइ ई विद्धंसिउ सयलु कामु जइतुहुं सामिय संजमपयासि तु णाहासियई ण जइ पडंति घरेंप्रंगणि प्रगणि जाव दुक्कु । ता विवि पुणव्वसुराणएण । नृवं संपीणि अक्खयणिहीइ | सुरणिर्यरहिं तुरई वाइयाई । धत्ता - संवच्छर तिणि छम्मत्थु जें महि हिंडियउ ॥ विल्लहु तलि देउ घाइचउक्कै छड्डियउ ||१२|| १३ संभरइ विरुद्ध जिणचरितु | तो काई णत्थि करि तुज्झ दंडु | तो कई तुहारा कुडिल केस । तो कि ते इहु अहरु रत्तु । तो कि तुह तिजगपरिग्गहेण । तो किंतु संपर्णं कामु । तो किंमु कमल उवरि देसि । तो किं एयई चमरई पडंति । Jain Education International १६५ हूँ । इतने में दोषोंसे मुक्त भट्टारक अरहन्त घरोंके आँगन- आँगन में पहुँचे । तब अभ्यागतको वृत्तिके जानकार राजा पुनर्वसुने प्रणाम कर प्रासुक विधिसे उन्हें भोजन कराया । राजा अक्षय निधिसे प्रसन्न हो गया । राजाके सिरपर कुसुम गिर गये । देवोंके द्वारा तूर्य ( नगाड़े ) बजाये गये । 1 १० धत्ता - तीन वर्ष तक वह छद्मस्थ भावसे धरती पर घूमे फिर बेल वृक्षके नीचे स्वामी वह चार घातिया कर्मोंके द्वारा छोड़ दिये गये ||१२|| १३ तब देवसमूह आकर स्तुति करता है और विरुद्धरूप में (विरोधाभास शैली) जिनचरित्रका स्मरण करता है, "यदि तुम अपने शत्रुके लिए प्रचण्ड (कर्मरूपी शत्रुके लिए प्रचण्ड ) गोपाल (ग्वाला, इन्द्रियों के संयमके पालक) हो, तो तुम्हारे हाथमें दण्ड क्यों नहीं है ? हे ईश, यदि तुमने कुटिलताको छोड़ दिया है, तो तुम्हारे केश कुटिल क्यों हैं । यदि तुम संसारसे एकदम विरक्त हो, तो तुम्हारे अधर अधिक रक्त क्यों हैं ? यदि तुम परिग्रहके आग्रहसे मुक्त हो तो तुम्हें तीनों लोकोंके परिग्रहसे क्या ? यदि तुमने समस्त कामको ध्वस्त कर दिया है, तो तुम सम्पन्न काम क्यों हो ? हे स्वामी, यदि तुम संयमका प्रकाशन करनेवाले हो तो कमलोंके ऊपर अपने पैर क्यों रखते हो ? हे नाथ, यदि तुम्हारे आश्रित लोगोंका पतन नहीं होता है, तो ये चमर तुम्हारे ऊपर क्यों ४. AP रायहु घरपंगणि जाव ढुक्कु । ५. AP फासूयं । ६. AP णिव । ७. AP णिवं । ८. A ° । ९. A वेल्लिहि तलि । १३. १. P has before it : उप्पायउ केवलु जयपयक्खि, पूसह चउदसि पढमिल्लपक्खि । २. A गोवाल | ४. AP पई । ५. A तो पुणु किं तुह । ६. AP संपुण्णकामु । ३. A P तेरउ अहरग्गु रत्तु । ७. A कम । For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002724
Book TitleMahapurana Part 3
Original Sutra AuthorPushpadant
AuthorP L Vaidya
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year1981
Total Pages574
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Mythology, & Story
File Size12 MB
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