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________________ १६६ महापुराण [४८. १३. ९जे पई जि रउद्दई दूसियाई , तो आसणि किं सीहई थियाई । १० जइ रयणई तुह तिण्णि वि पियाई तो तुहुं किर णिरलंकारु काई। घत्ता-थेणत्तु णिसिधु जइ तुहे तो कंकेल्लितरु ॥ अच्छरकरसोह हरइ काई कयदलपसरु ॥१३॥ १४ तुहुं माणुसु मुवणि पसिधु जइ वि माणवियपयइ तुह णत्थि तइ वि । जइ कासु वि पई णउ दंडु कहिउ तो कि छत्तत्तइ फुरइ अहिउ । जइ रूसहि तुहुं सरमग्गणाहं। तो किं ण देव कुसुमच्चणाहं । जइ वारिउ पई परि घाउ एंतु तो किं हैम्मइ दुंदुहि रसंतु। जइ पई छड्डिय मंडलहु तत्ति तो किं पुणु भामंडलपवित्ति। कहिं एक्कदेसरहु तुह महेस कहिं बहुजणभासइ मिलिय भास । ण वियाणविं तेरउ दिव्वचार सोहम्माहिवइ सणैक्कुमारु । इय वंदिवि वेण्णि वि संणिविट्ठ देवेण सिट्ठि णीसेस दिट्ठ। घत्ता-एयासी तासु जाया जाणियधम्मविहि ॥ गणहर गणणाह गुरुयण गुरुमाणिक्कणिहि ॥१४|| पड़ते हैं ? यदि रौद्र लोग तुम्हारे द्वारा दूषित कर दिये गये हैं, तो फिर तुम्हारे आसनमें सिंह क्यों हैं। यदि तुम्हें तीन (सम्यग्दर्शन, ज्ञान और चारित्र) प्रिय हैं, तो तुम अत्यन्त निरलंकार क्यों हो? घत्ता-यदि तुमने चोरीका निषेध किया है तो तुम्हारा अशोक वृक्ष अपने पत्ते फैलाकर अप्सराओंकी शोभाका अपहरण क्यों करता है ॥१३॥ १० __ यद्यपि तुम विश्वमें प्रसिद्ध मनुष्य हो, फिर तुम्हारी प्रकृति मानवीय प्रकृति नहीं है। यदि तुमने विश्वमें किसीके लिए दण्ड नहीं कहा, तुम्हारे छत्रत्रयमें वह अधिक क्यों चमकता है ? यदि तुम कामदेवके बाणोंसे अप्रसन्न होते हो, तो हे देव, पुष्पोंकी पूजासे तुम अप्रसन्न क्यों नहीं होते हो ? यदि तुमने दूसरेपर आघात करना मना कर दिया है तो बजते हुए नगाड़ोंपर आघात क्यों किया जाता है ? यदि तुमने मण्डलों ( देशों) में तृप्तिका परित्याग कर दिया है तो फिर तुममें भामण्डलोंकी प्रवृत्ति क्यों है ? एक देश में उत्पन्न होनेवाले महेश, तुम कहाँ, और बहुजनोंकी भाषासे मिली हुई तुम्हारी भाषा कहां? हम तुम्हारे दिव्य आचरणको नहीं जानते।" सौधर्म और सानत्कुमार स्वर्गोंके इन्द्र, इस प्रकार वन्दना कर दोनों बैठ गये। देव (शीतलनाथ) ने समस्त सृष्टिका कथन किया। ___घत्ता-उनके धर्मविधिको जाननेवाले और गुरुरूपी माणिक्य निधिवाले महान् इक्यासी गणोंके स्वामी गणधर हुए ॥१४॥ ८. A जइ; P जं। ९. A P तो तुह । १४.१. A माणसु । २. A P देंतु । ३. A हम्मद किं । ४. A एक्कदेस तुहु तुह महेस; P एक्कदेस सुहं तुहं महेस । ५. A कि बहुजणभासइ; P कि बहुजणभासहि । ६. A P सणंकुमारु । Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002724
Book TitleMahapurana Part 3
Original Sutra AuthorPushpadant
AuthorP L Vaidya
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year1981
Total Pages574
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Mythology, & Story
File Size12 MB
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