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________________ ३२४ महापुराण [५८.८.७जोण्हालउ णिहिलकलाउ लेंतु सुहदसणु कुवलयदिहि करंतु । कामग्गिताववित्थरु हरंतु अकलंकु अखंडु पसणेकंतु । पत्ता-जिणु वरिसह कयजणहरिसह माणियइच्छियसोक्खई ।। जहिं कुंवरत्तणि थिउ सिसुकीलणि तहिं सत्तद्ध जि लक्खई ॥८॥ पुणु तहु कइ पत्ती मयणताउ सिरि मुच्छिय चमरहिं दिण्णु वाउ । सिंचिय अहिसेयघडंबुएहिं सच्चेयण कय मइवरणएहिं । उट्ठिय लहु सत्तंगई धुणंति अरि सुहि मज्झत्थु वि मणि मुणंतिं । णियपरियणणिवसण संवरंति मिलियहं मंडलियहं मणु हरंति । अवलोइय णाहहु खेउं देंति वच्छयलि विउलि लीलइ वसंति । पुजिउ सूहउ इंदाइएहिं सीसेण णमंसिउ दाइएहिं । मुंजतहु संपयसुहसयाई पणदहसमाहं लक्खई गयाई। पण्णाससरासंण देह तुंगु तवणीयवण्णु णं णवपयंगु । णाणामहिवालयकुलसमग्गि सो रयणिहि थिउ अत्थाणमग्गि। पत्ता-तहिं राएं भवियसहाएं उक्क पडंति णिरिक्खिय । गय चंचल जिह सा सयदल तिह णररिद्धि वि लक्खिय ॥९॥ प्रसन्न देवको माताके लिए दे दिया। इन्द्र प्रणाम करके अपने विमानमें चला गया। बालक इस प्रकार बढ़ने लगा मानो ज्योत्स्नाका घर पूर्ण कलाओंको ग्रहण करता हुआ शुभदर्शन कुवलय (पृथ्वीमण्डल-कुमुद समूह ) को सौभाग्य देता हुआ बालचन्द्र हो। कामाग्निके तापका विस्तार करते हुए अकलंक अखण्ड एवं प्रसन्नकान्त घता-जिनभगवान् लोगोंको हर्ष प्रदान करते, इच्छित सुखोंको भोगते तथा शिशुक्रीड़ा करते हुए जब कुमारावस्थामें रह रहे थे तो साढ़े सात लाख वर्ष बीत गये ॥८॥ फिर उनके लिए प्राप्त राजलक्ष्मी मदनसे तापको प्राप्त हुई। मूच्छित उसे चमरोंसे हवा दी • गयी, अभिषेकके घटजलोंसे उसे अभिषिक्त किया गया, मन्त्रीवरोंके द्वारा सचेत किया गया। वह शीघ्र उठी ( राज्यलक्ष्मी ) और अपने सात अंगोंको (स्वामी अमात्यादि ) को धुनती है, शत्रु सुधी और मध्यस्थका अपने मनमें ध्यान करती है, अपने परिजनरूपी वस्त्रका संवरण करती है, मिले हुए माण्डलीक राजाओंका मनहरण करती है, देखनेपर जो खेद देती है, ऐसी वह उन स्वामीके वक्षस्थलपर निवास करती है उस सुभगके इन्द्रादिकोंने पूजा की तथा देवोंने नमस्कार किया। इस प्रकार सम्पत्तिके सैकड़ों सुख भोगते हुए उनके पन्द्रह लाख वर्ष बीत गये। उनका शरीर पचास धनुष ऊँचा था। स्वर्णके समान रंगवाले मानो नवसूर्य हों। जो नाना प्रकारके राजाओंके कुलोंसे परिपूर्ण हैं, ऐसे दरबारमें रात्रिके समय वह बैठे हुए थे। घत्ता-वहां भव्यसहाय राजा अनन्तने एक टूटते हुए तारेको देखा। जिस प्रकार वह चंचल तारा सौ टुकड़े होकर चला गया, उसी प्रकार उन्होंने मनुष्यके वैभवको देखा ॥९॥ २. P पसण्णु कंतु । ३. A omits जहिं । ४. AP कुमरत्तणि । ९. १. AP'धडंभएहिं । २. AP°वरणरेहिं । ३. A मज्झत्थई । ४. P°सरासणु । Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002724
Book TitleMahapurana Part 3
Original Sutra AuthorPushpadant
AuthorP L Vaidya
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year1981
Total Pages574
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Mythology, & Story
File Size12 MB
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