________________
महापुराण
[४१. २.८कंजपुंजरुंजंतमहुलिहे
कयलिललियलवलीलयागिहे। णिसुयमहरपियमाहवीसरे पहियहिययगयविसमैसरसरे। 'उच्छवीलणुल्ललियरसजले मंगलावईभूमिमंडले। को वेटुलट्टालदुग्गम
रुद्धकुद्धलुद्धारिसंगर्म । खोल्लखाइयावूढकोमलं
पंचवण्णकेलिल्लिचंचलं। मणिगणंसुमालाविरोहियं
कुर्वेदीहियावाविसोहियं । कणयघडियघरपंतिपिंगलं णिञ्चमेव संगीयमंगलं। अमियरायरिद्धीपपवेट्टेणं
रयणसंचयं णाम पट्टण । तत्थ वसइ राया महाबलो भुयबलि व धीरो महाबलो। जस्स लच्छिकंता उरत्थले रमइ कित्तिरमणी महीयले । दीहकालमवियलेमणोरह" मुंजिऊण रज रमासुई। किं कुणामि णिचं परासुहं
हो मुयामि इणमो परासुहं । माणसं दमेणं णियंतियं
एम तेण सहसा विचिंतियं । घत्ता-धणवालहु बालहु णियसुयहु विरइवि पट्टणिबंधणु ॥
सो पासि विमलवाहणजिणहु जायउ राउ तवोहणु ॥२॥ तैरती हैं, जहां कमलोंके समूहपर भ्रमर गुंजन कर रहे हैं, जिसमें कदलियों और लवली लताओंके सुन्दर लतागृह हैं, जिसमें कोयलोंके मधुर स्वर सुनाई दे रहे हैं, जहां पथिकोंके हृदय कामदेवके विषम तीरोंसे आहत हैं, जिसमें गन्नोंके पेरनेसे रसरूपी जल उछल रहा है। उसमें ( मंगलावती देशमें ) रत्नसंचय नामका नगर है, जो परकोटों और गोल-गोल अट्टालिकाओंसे दुर्गम है। जिसमें क्रुद्ध और लोभी शत्रुओंका समूह अवरुद्ध हैं, जो कोटरों और खाइयोंसे व्याप्त और कोमल है, जो पांच रंगोंकी पताकाओंसे चंचल है, जो मणिगणोंकी किरणमालाओंसे सुशोभित है, और कूप और दीर्घ वापिकाओंसे सशोभित है. जो स्वर्णनिर्मित गह पंक्तियोंसे पीला है. और जिस संगीत और मंगल होते रहते हैं, जिसमें अमित राज्यवैभव बढ़ रहा है। उसमें (रत्नसंचय नगरमें) राजा महाबल नामका राजा निवास करता था, जो बाहुबलिके समान धीर और महाबली था। जिसके उरस्थलमें लक्ष्मीकान्ता रमण करती थी, और महीतल पर कोतिरूपी रमणी। लम्बे समय तक निर्विघ्न मनोरथ राज्य और रमासुखका भोग करनेके बाद एक दिन उसने सहसा विचार किया कि मैं नित्य दूसरोंके प्राणोंका घात क्यों करता हूँ ? हा, मैं इन अत्यन्त अशुभ ( कामोंको) छोड़ता हूँ। मैं अपने मनको संयमसे नियन्त्रित करता हूँ।
पत्ता-अपने पुत्र बालक धनपालको पट्ट बांधकर, वह राजा विमलवाहन जिनके पास जाकर मुनि हो गया ॥२॥
८. A°जरयरत्त । ९. P°विसमसरिसरे । १०. A उच्छपीलणु; P उच्छुपोलणुं । ११. A कोट्टबद्धलंटालदुग्गमं; P कोट्टवटुलाट्टालसंगमं । १२. P कुद्धलुदमुखारिदुग्गमं । १३. A पंचवण्णकंकेल्लि । १४. P दीविया । १५. A° पवड्ढणं । १६. A P°मविलयं । १७. A मणोहरं। १८. A 'रमाहरं । १९. P कुणोमि । २०. हो ण जामि ।
Jain Education International
For Private & Personal Use Only
www.jainelibrary.org