SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 296
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ -५३. ९.८] महाकवि पुष्पदन्त विरचित २४९ वरिसि विसुद्धबुद्धिसहिइ हयदुट्ठमइ सावयसीलि परिट्ठियउ गन्भट्ठमइ । काले वेड्ढंतहु गुणेहिं जाणियमणुहि जायइ माणु सरासणई सत्तरि तणुहि । कुंअरतें परमेसरहो कोलाणिरय अट्ठारह संवच्छरह तहु लक्ख गर्यं । घत्ता-णवघुसिणछवि करणुज्झियणाणपहायरु ॥ णिव कुलमहिहरे उम्गेउ णं बालदिवायरु ॥ ८॥ एक्कहिं दिणि णिव्वेयउ भासइ तउ करमि जेण पुणु वि संसारि असारिणे संसरमि। लोयंतियसुरवंदहिं लहु संबोहियउ माणवदाणवदेवहिं ण्ह विवि पसाहियउ । फुल्लियफलियमहीरुहरंजियसडयणहु - सिवियाजाणारूढउ गउ मणहरवणहु । कयचउत्थु मज्झत्थु महत्थु महंतमइ मणपज्जवपरियाणियमा[समणविगइ । फैग्गुणि कसणि चउद्दसिदिणि विरएं लइउ संयभिसहइ सायण्हइ सो सई पावइउ। ५ तेण समउं संसारह णिग्विण्णइं वरई सयइं णिवहं पावइयइं छहछाहत्तरई । तिक्खु चरित्तु चरंते पाउ गलत्थियउं मोहसमुदु रउद्दु सुदुंम्महु मंथियउ । कामहु पंच वि चंडई कंडई खंडियइं इंदियदुटुकुडुंबई मुणिणा दंडियई। शास्त्रविधि नहीं सुनते, लक्षण सहित समस्त कलाओंका स्वयं विचार करते हैं । गर्भसे आठवें वर्ष में विशुद्ध शुद्ध बुद्धिसे सहित, दुष्ट बुद्धिका नाश करनेवाले वह श्रावकधर्ममें दीक्षित हुए। समयके साथ गुणोंसे बढ़ते हुए, मनःपर्ययज्ञानको जाननेवाला उनका शरीर सत्तर धनुषके मानका हो गया। उन परमेश्वरके कौमार्यमें क्रीड़ामें रत अठारह लाख वर्ष बीत गये। पत्ता-नवकेशरके समान छविवाले, तथा इन्द्रियोंसे रहित ज्ञानरूपी सूर्यवाले वह, हे राजन् ( श्रेणिक ), कुलरूपी पर्वतपर मानो बाल दिवाकरके रूपमें उत्पन्न हुए ॥८॥ एक दिन विरक्त होकर वह कहते हैं कि मैं तप करूंगा जिससे मैं इस असार संसारमें संसरण न करूं। लोकान्तिक देवोंने तत्काल सम्बोधित किया और मानवों तथा दानव देवोंने अभिषेक कर उनका प्रसाधन किया। शिविकायानपर आरूढ़ होकर जहां पुष्पित और फलित वृक्षोंपर गुंजन करते हुए भ्रमर हैं, ऐसे मनोहर उद्यानमें वह गये। जिन्होंने मनःपर्ययज्ञानसे मनुष्य और श्रमणकी चेष्टाओंको जान लिया है, ऐसे महार्थ मध्यस्थ और महामति, एक उपवास कर फागुन माहके कृष्णा चतुर्दशीके दिन, विरक्तिसे परिपूर्ण, उन्होंने सायंकाल शतभिषा नक्षत्र में प्रव्रज्या ले ली। उनके साथ संसारसे विरक्त छह सौ छिहत्तर राजाओने दोक्षा ग्रहण कर ली। तीव्र तपका आचरण करते हुए उन्होंने पापको नष्ट कर दिया, और अत्यन्त दुर्मद भयंकर मोहसमुद्रका मन्थन कर डाला। कामके पांचों प्रचण्ड तीरोंको उन्होंने नष्ट कर दिया। मुनिने दुष्ट ५. A वटुंतें । ६. A कुमरत्तें; P कुवरत्तै । ७. AP °णिरया। ८. AP गया। ९. A णं उग्गउ । ९. १. A ण पइसरमि । २. A सिवियाजाणइ रूढ उ । ३. P माणविगह । ४. A फग्गुणकसणच उद्दसिदिण। ___५. AP सविसाहइ । ६. A चरई । ७. A छाहंतर। ८. A सुसंमुह । ९. P°कुटुंबई । Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002724
Book TitleMahapurana Part 3
Original Sutra AuthorPushpadant
AuthorP L Vaidya
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year1981
Total Pages574
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Mythology, & Story
File Size12 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy