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________________ १3० महापुराण [४६.६.१ तओ तेण छम्मेण णिच्छम्मयाए . परं डिभयं दिण्णय अम्मैयाए । तडालग्गतारावलीमेहलालं ससिंगप्पहापिंगदिश्चककूलं। रमंतच्छराणेउरारावरम्म । दिसादीसमाणुद्धजेणिंदहम्मं । फर्णिदाणियापायरायावलितं अदिटेकलंबत किंकिल्लिवत्तं । लयामंडवासीणविजाहरिंदं । तुरंगासणासत्तकीलापुलिंदं । दरीचंदणामोयलग्गाहिकण्णं मओमत्तमायंगदंतग्गभिण्णं । गुहाकिंणरीकिंणरालत्तगेयं । सपायंतणिक्खित्तचंदक्कतेयं । णिओ सुंदरं मंदरं देवदेवो तहिं तेहिं सो णाणणिकंपभावो। पविच्छिण्णकुंभेहिं कुंभीसगामी तिलोयंतवासीहिं तेलोकसामी। गुणुप्पण्णणेहेहि णिण्णटुणेहो अकूवारखीरेहि खीराहदेहो । जिणिंदो जियारी जयंभोयमित्तो फणिंदेहिं इंदेहिं चंदेहिं सित्तो। घत्ता-तं दुद्ध पडतर जिणतणुहि कंतिई पयडु ण होतउ ॥ णं अमिउं ससंकहु वियेलियउं दिह महिहि धावंतउं ॥६॥ उस अवसरपर उस मायावी इन्द्रने (भगवान् की) निष्कपट माँके लिए दूसरा बालक दिया और वह ज्ञानभावसे निष्कम्प उस देवदेवको सुन्दर मन्दराचल पर्वत पर ले गया, जो (मन्दराचल) तटपर लगी हुई तारावलीसे युक्त है, अपने ही शिखरोंकी प्रभासे जिसके दिग्मण्डलोंके तट पीले हैं, जो रमण करती हुई अप्सराओंके शब्दसे रमणीय हैं, जिसकी दिशाओंमें ऊंचे-ऊंचे जिन मन्दिर दिखाई देते हैं, जो पद्मावतीके चरणरागसे (चरण लालिमासे) लिप्त हैं, जो अदृष्ट और एक पर एक अवलम्बित अशोकपत्रोंसे युक्त हैं, जिसके लता मण्डपों में विद्याधरेन्द्र बैठे हुए हैं, जिसमें घोड़ोंके उरासनोंपर आसक्त क्रीड़ा-पुलिन्द हैं। जिसमें नागकन्याएं घाटोके चन्दनोंके आमोदमें लगी हुई हैं, जो मतवाले गजोंके दांतोंके अग्रभागोंसे विदीर्ण हैं, जिसमें किन्नर और किन्नरियां गीतोंका आलाप कर रहे हैं, जिसने सूर्य और चन्द्रमाको अपने चरणोंके नीचे डाल रखा है। कुंभीसगामी (गजगामी) का अविच्छिन्न कुम्भों (घड़ों) के द्वारा, त्रिलोक स्वामीका त्रिलोकके अन्तमें निवास करनेवाले देवोंके द्वारा स्नेहका नाश करनेवालेका गुणोंमें उत्पन्न स्नेह करनेवालोंके द्वारा दूधको आभाके समान देहवाले जिनेन्द्रका. समदक्षीरोंके द्वारा, शत्रओंको जीतनेवाले विजयरूपी कमलके सूर्य श्री जिनेन्द्रका, नागेन्द्रों, इन्द्रों और चन्द्रोंके द्वारा, अभिषेक किया गया। पत्ता-गिरता हुआ वह दूध जिनवरके शरीरकी कान्तिसे प्रगट नहीं होता हुआ, ऐसा मालूम हो रहा था मानो चन्द्रमासे विगलित अमृत धरतीपर दौड़ रहा हो ॥६॥ ६. १. P अंबयाए । २. A°मेहलीलं; P मेहजालं । ३. AP दिच्चकवालं । ४. AP ककेल्लि । ५. A °णासंत । ६. A°लग्गाहिकिण्णं । ७. P मयमत्तं । ८. P कति । ९. P वियलिउ । Jain Education International www.jainelibrary.org For Private & Personal Use Only
SR No.002724
Book TitleMahapurana Part 3
Original Sutra AuthorPushpadant
AuthorP L Vaidya
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year1981
Total Pages574
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Mythology, & Story
File Size12 MB
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