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________________ ४५४ महापुराण [ ६५. ११. ११जिणवरहरपयाई सुमरेप्पिणु बेणि मि मुय संणासु करेप्पिणु । खत्ति मरिवि जाउ सोहम्मइ बंभणु पुणु जोइससुरहम्मइ । धत्ता-चिंतिउ पत्थिवदेवें सुहि वसुमलमइहि ॥ तउ अण्णाणु चरेप्पिणु हुउ जोइसगइहि ॥११॥ १२ मई सयणेण वि णउ उत्तारिउ जायउ बंधु' दीहसंसारिउ । इय णिज्झाइवि दुक्कउ तेत्तहिं अच्छइ सुरेवरु जोइस जेत्तहिं । णेहपरव्वसेहिं भुयमंडिउ दोहं मि एक्कमेक्कु अवलंडिउ । अवलोइवि जोइसु मउलियकरु आहासइ विहसिवि कप्पामरु । पई जिणवयणु बप्प अवगण्णिउ अण्णाणु जि गुरुयारउं मण्णिउ । णचइ देउ गेयसरु गायइ महिलउ माणइ वजउ वायइ। डहइ पुरइं रिउवग्गुं वियारइ एहउ किं संसारहु तारइ। णिकलु किं सिद्धंतु समासइ विणु वयणेण सह कहिं होसइ । सर्वे विणु कहिं सत्थपरिग्गहु पई कुमग्गि किं किउ णियणिग्गहु । १० तं णिसुणिवि इयरेण पवुत्तउं मइंग सिवागमि इह तउ तत्तउं । घत्ता-गउरीमुहकमलालिहि वरगोवइगइहि ॥ __ भासिउ किं पि ण बुज्झिउ देवहु पसुवइहि ॥१२॥ उसके वचनोंकी उपेक्षा की। उसने कुछ भी उत्तर देने की चेष्टा नहीं की। जिनवर और शिवके चरणोंका स्मरण कर दोनों संन्यासपूर्वक मर गये । क्षत्रिय (राजा) मरकर सौधर्म स्वर्गमें उत्पन्न हुआ और ब्राह्मण ज्योतिषदेवके विमानमें । घत्ता-राजा देवने विचार किया कि मित्र अज्ञानतपका आचरण कर आठों मलोंसे युक्त मतिवाले ज्योतिषी घरमें उत्पन्न हुआ है ।।११।। १२ स्वजन मैंने उसका उद्धार नहीं किया और मेरा बन्धु दीर्घ संसारी हो गया। यह सोचकर वह वहां पहुंचा, जहांपर वह ज्योतिष सुरवर था। स्नेहके परवश होकर दोनोंने बाहु फैलाकर एक दूसरेका आलिंगन किया। हाथ जोड़े हुए ज्योतिष देवको देखकर कल्पवासी देव हंसकर कहता है- "हे सुभट, तुमने जिनवचनोंकी उपेक्षा की, अज्ञानको हो तुमने बहुत बड़ा माना। देव (शिव) नृत्य करता है, गीत स्वर गाता है, महिला (पार्वती) को मानता है। वाद्य (डमरू) बजाता है, नगरों (त्रिपुर ) को जलाता है, शत्रुवर्गका नाश करता है। यह क्या संसारसे तार सकता है। सदाशिव क्या सिद्धान्तका कथन कर सकता है, बिना वचनके क्या शब्द हो सकता है ? शब्दके बिना शास्त्रकी रचना कैसे हो सकती है ? तुमने कुमागमें अपना तप क्यों किया।" यह सुनकर दूसरेने कहा-"मैंने शिवागममें इष्ट तपका आचरण नहीं किया। घत्ता-पार्वतीके मुखरूपी कमलके भ्रमर, बैलपर ( नन्दीपर ) चलनेवाले पशुपति देवका कहा हुआ मैंने कुछ भी नहीं समझा" ।।१२।। १२. १. A द ह बंधु । २. A जोइससुरवरु । ३. AP गरुयारउ । ४. AP सई । Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002724
Book TitleMahapurana Part 3
Original Sutra AuthorPushpadant
AuthorP L Vaidya
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year1981
Total Pages574
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Mythology, & Story
File Size12 MB
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