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________________ १० -३८.११. ४] महाकवि पुष्पदन्त विरचित णिप्पडियारउ गिरहंकारउ भूसणहरु अहमिदभडारउ । णियवासहु वासंतरु ण सरइ उत्तरवेउविउ वउ ण करइ । सीहासणि सुणिसण्णउ अच्छइ ओहिइ तिजगणाडि संपेच्छइ । लेइ मणेण भक्खु छुह णासहि सो तेत्तीसहिं वरिससहासहिं । णिग्गयदइयंधवणणिहदुक्खहिं णीस सेइ तेत्तियहिं जि पक्खहिं । छम्मासाउसु वट्टई जइयहु सोहम्मिदें जाणिउ तइयहु । सो अहमेमराहिउ आवेसई जियसत्तहि घरि जिणवरु होसइ । इम चिंतेवि भणिउ जक्खाहिउ धरणीगयणिहाणलक्खाहिउ । जंबूदीवभरह उज्झाउरि धणय कणयमयणिलयण लहु करि । घत्ता-ता णयरि कुबेरें णिम्मविय कंचणभवणविसेसहिं ।। सरिसरवरउवेवणजिणहरहिं "पहचच्चरविण्णासहिं ॥१०॥ ११ आयउ देविउ इंदाएसें पुरवरु माणवमाणिणिवेसें। सिरिहिरिदिहिमइकंतीकित्तिउ विजयादेविहि सेव करंतिउ । तणुसंसोहणगुणसंजोये हिं. थक्कउ णाणाविहिहिं विणोयहि । गब्भि ण थंतहु अमरवरिट्ठउ वसुधारहिं वइसवणु वरिट्ठउ । से रहित और निरहंकार, भूषण धारण करनेवाला आदरणीय अहमेन्द्र । वह अपने निवासविमानसे दूसरे विमान में नहीं जाता। उसका शरीर प्रतिशरीर उत्पन्न नहीं करता। वह अपने सिंहासनपर स्थित रहता । अवधिज्ञानसे वह तीनों लोकोंकी नाड़ीको देखता, वह भूख नष्ट करनेके लिए तैंतीस हजार वर्ष में मनसे आहार ग्रहण करता और धमनीके समान दुःखसे रहित तैंतीस पक्षमें एक बार श्वास लेता। जब उसकी छह माह आयु शेष रह जाती है तब सौधर्म स्वर्गके इन्द्रके द्वारा जान ली गयी। वह अहमेन्द्रराज आयेगा और जितशत्रुके घर जिनवर होगा। यह विचारकर ( इन्द्रने ) धरतीपर स्थित लाखों निधानोंके स्वामी कुबेरसे कहा, 'हे धनद, जम्बूद्वीपके भरतक्षेत्रकी अयोध्यानगरीमें स्वर्णमय प्रासादका निर्माण करो।' घत्ता-तब कुबेरने नगरीका विशेष कंचन भवनों, नदियों, सरोवरों, उपवनों, जिनघरों, पथों और चत्वरोंकी रचनाओंसे निर्माण कर दिया ॥१०॥ इन्द्र के आदेशसे मानवोंकी मानवियोंके वेश देवियाँ नगरवरमें आयीं। श्री, हो, धृति, कान्ति, कीर्ति और विजयदेवो सेवा करने लगीं। शरीरके संशोधनों और गुणों के उत्पादनों और नाना प्रकारके विनोदोंके साथ वे स्थित हो गयीं। उनके गर्भ में स्थित नहीं होते हुए भी अमर श्रेष्ठ ६. AP अहमिदु । ७. P भिक्खु । ८. A तेतीसहिं । ९. P°दयिधवण । १०. P adds वि after णीससे।। ११. A P वड्ढइ । १२ A P सो लहु अमराहिउ । १३. A P आएसइ। १४. A जंबूदीवे भरहे उज्झा'; P जंबूभरहदोउ उज्झा । १५. P°णिलयह लह । १६. P°जिणहर उववणेहि । १७. A अइरमणीयपएसहिं।। ११.१. P आइउ । २. P संजोवहिं। ३. Pणाणविहिहिं। ४. A गब्भेच्छंतह; P गब्भि ण छतउ। २ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002724
Book TitleMahapurana Part 3
Original Sutra AuthorPushpadant
AuthorP L Vaidya
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year1981
Total Pages574
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Mythology, & Story
File Size12 MB
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