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________________ न्त विरचित -४७. १६.८] सहुं असीइसहसई हिरवजहं दोणि लक्ख पालियघरधम्महं अमरच्छरउलाई गयसंखई इय एत्तियलोएं संजुत्तहु महि विहरंतहु धम्मु केहंतहु अट्ठवीसपुव्वंगविहीणउ घत्ता-मासमेत्तु मुणिगणजुओ लंबियपाणि मणोहरे लक्खई तिणि पउत्तई अजहं। मणुयह मणुइहिं पंच सुसोम्महं । तिरियई पुणु कहियाई ससंखई। भुवणत्तयराईवयमित्तहु । पुप्फंदंतदेवहु अरहंतहु। पुत्वहं एक्कु लक्खु तेहिं झीणउं । फणिदेवासुरणरथुओ ।। थिउ संमेयमहीहरे ॥१५।। आउसमाणई णामइं गोत्तई करिवि वेयणीयाइं णिहित्तई। दंडकवाडरुजगजगपूरई विरइवि मुक्कई तिण्णि सरीरई। तेजेइओरालियकम्मइयई जॉइं विमुक्कई पुणु वि ण लइयई । उव्वेल्लिवि कड्ढिवि आउँचिवि जीवपएस सयलघण संचिति । चउसमयंतयालु थिउ देहइ भहवए सुक्कट्ठमिदियहइ। अवरणहइ सहुँ मुणिहिं सहासें सिद्धउ जिणु जणजयजयघोसें। पुजिय तणु चविहहिं सुरिंदहिं वंदिउ इंदपडिंदणरिंदहिं । गइ देवाहिदेवि अववग्गहु गउ सुरयणु णीसेसु वि सग्गहु । वितण्डावादियोंको प्रत्युत्तर देनेवाले वादी मुनि छह हजार छह सौ, तीन लाख अस्सी हजार निरवद्य आर्यिकाएं थों, दो लाख गृहस्थ धर्मका पालन करनेवाले श्रावक थे और सुसौम्या पांच लाख श्राविकाएँ थीं। अमरों और अप्सराओंका कुल असंख्यात था परन्तु तिथंच ससंख्य कहे गये हैं। इस प्रकार इन लोगोंसे संयुक्त तथा भुवनत्रयरूपी कमलके लिए सूर्यके समान अरहन्त पुष्पदन्तको धरतीपर विहार और धर्मोपदेशका कथन करते हुए अट्ठाईस पूर्वांग रहित एक लाख य बीत गया। पत्ता-मुनिसमूहसे सहित, नागदेव और असुरोंसे संस्तुत हाथ ऊंचा किये हुए वह सुन्दर सम्मेद शिखर पर्वतपर स्थित हो गये ॥१५॥ आयुकर्म, नाम, गोत्र और वेदनीय कर्मका उन्होंने नाश कर दिया और दण्ड, कपाट, प्रतर और लोकपूरणको रचना कर उन्होंने तीनों शरीर छोड़ दिये । जब उन्होंने तेजस, औदारिक और कामण शरीरको छोड़ दिया तो उन्हें दुबारा ग्रहण नहीं किया। एकत्रित, आकर्षित और संकोचित कर समस्त सघन जीवप्रदेशोंको संचित कर चार समयके अन्तराल (दण्ड, कपाट, प्रतर और लोकपूरण) तक, देहमें स्थित रहकर, भाद्रपदके शुक्लपक्षके उत्कृष्ट अष्टमीके दिन अपराल में एक हजार मुनियोंके साथ, लोगोंके जयघोष के साथ जिन सिद्ध हो गये। चार प्रकारके देवेन्द्रोंने उनके शरीरकी पूजा को । इन्द्र-प्रतीन्द्र-नरेन्द्रोंने वन्दना की। देवाधिदेवके मोक्ष जानेपर समस्त देवसमूह भी स्वर्ग चला गया। ५. A करतहुँ । ६. AP पुष्फयंत । ७. A तहो झोणउं; P परिखीणउं । ८. A मासमेत । १६. १. P णामयं । २. A दंडकवालरुजगजग; P दंडकवाडपयरजग । ३. P तेजोरालियअरुकम्म । ४. A जोयविमुक्कई; P जाएवि मुक्कई । ५. AP सिहि दिण्ण सिहिदहिं । Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002724
Book TitleMahapurana Part 3
Original Sutra AuthorPushpadant
AuthorP L Vaidya
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year1981
Total Pages574
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Mythology, & Story
File Size12 MB
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