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________________ २१६ १० १५ ५ १० महापुराण अट्टहास बहलंघयार गच्छंत वारणारूढ देह झल्लरिमुइंगकाहलरवेण कुसुमियपियालकक्कोलएलि णं उवसमरस सिंगारैभार । हलहर हरि णं सियअसियमेह । दियहेहिं गंपि सर्वरुच्छवेण । तहिं थक्क संदणावत्तसेलि । घत्ता - पवणचलंतियहिं धयपंतियहिं णहु णं उप्परि घुलियउं ॥ चियनृणडिहिं पिहुपडकुडिहिं खोणीयलु चित्तलिय ||४|| [ ५२.४.१० ५ दुवई - चिंचिणिचारचूयेचव चंपयचंदणबद्धकुंजरे ॥ frs डिबलि तुरंगहि लिहिलिरवे सयडावत्तगिरिवरे ॥ जोएवि सिविरु णवघणसरेहि विष्णविउ णवेष्पिणु चरणेरहिं । अरिपुरवरघरसं दिण्णडाहु विज्जाहर भूयरभूमिणाहु | आढत्तर जिणु व महसरेहिं आढत्तर आहंडलु णरेहिं । आढत्तर खज्जोएहि भागु आढत्तर तरुणियरें किसाणु । आढत्तर केसर जंबुर हिं आढत्तउ जैरं जीवियचुएहिं । आढत्तउ गयवरु गद्दहेहिं आढत्त मंतु गहिं । आढत्तर रइवइ कैइय वेहि आढत मोक्खु वि जडतवेहिं । भो देवदेव संधियस रेहिं आढत्तर तुहुं णियकिंकरेहिं | अट्टहास और सघन अन्धकार हों, मानो शान्तरस और शृंगारभार हो, चलते हुए गजों पर आरूढ शरीर बलभद्र और नारायण ऐसे मालूम होते हैं, मानो सफेद और काले मेघ हों । झल्लरी मृदंग और काहलोंके शब्दोंसे और युद्धके उत्साह के साथ कुछ दिनों तक चलकर वे, जिसमें प्रियाल अशोक और एला वृक्ष खिले हुए हैं, ऐसे स्यंदनावर्त पर्वतपर वे ठहर गये । पत्ता - हवा से चलती हुई ध्वजपंक्तियोंसे मानो ऊपर आकाश घूम उठा और नीचे नाचती हुई राजनर्तकियों और विशाल पटकुटियोंसे धरतीतल रंग-विरंगा हो उठा ॥४॥ ५ जिसमें, चिचिणी चार आम्र धी चम्पक और चन्दन वृक्षोंसे हाथी बँधे हुए हैं और घोड़ोंके हिनहिनाने का शब्द हो रहा है, ऐसे शकटावर्त पहाड़पर शत्रुसेना ठहर गयी । नवघनके समान स्त्ररवाले चर मनुष्योंने शिविर देखकर, प्रणामकर राजासे निवेदन किया - " जिसने शत्रु नगरोंके घरोंको आग लगा दी है और जो विद्याधर मनुष्यों की भूमियोंके स्वामी हैं, ऐसे हे देवदेव, कामदेव के बाणोंने जिनवरको आक्रान्त किया है, मनुष्योंने इन्द्रको आक्रान्त किया है, जुगनुओंने सूर्यको आक्रान्त किया है, तरुसमूहने आगको आक्रान्त किया है, सियारोंने सिंहको आक्रान्त किया है, जीवनसे च्युत लोगोंने यमको आक्रान्त किया है, गधोंने गजवरको आक्रान्त किया है, ग्रहोंने मन्त्रके उद्गमको आक्रान्त किया है, कपटोंने कामदेवको आक्रान्त कर लिया है, जड़तपस्वियोंने मोक्षको आक्रान्त किया है, जिन्होंने अपने तीरोंका सन्धान कर लिया है ऐसे अपने ही अनुचरोंने तुम्हें Jain Education International ५. A सिंगारहार । ६. P समह । ७. AP वर्णाडि । ५. १. A चारुचूयघव ; Pचारचूयय । २. A पडिबलतुरंग । ३. AP जमु । ४. A पत्तंग । ५. AP कइवएहि । ६. P जडभवेहि । For Private & Personal Use Only • www.jainelibrary.org
SR No.002724
Book TitleMahapurana Part 3
Original Sutra AuthorPushpadant
AuthorP L Vaidya
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year1981
Total Pages574
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Mythology, & Story
File Size12 MB
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