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________________ ११० महापुराण देव तुहारी हयदुहवेल्लिहि भत्ति मूलु आसिद्धि सुहेल्लिहि । अट्ठ वि पाडिहेर थिय जांवहि समवसरणि आसीणउ तांवहि । भासइ धम्म भडारउ जेहउ भासहुं सक्कइ को वि ण तेहर। पालइ को वि कहिं मि जइ सूरउ णासइ णिहहि जणु विवरेरउ । घत्ता-पाणिवह पमेल्लह अलि म बोल्लह दव्वु परायउ मा हरह ।। परदार म माणह धणु परिमाणहं रयणिहि भोयणु परिहरह ॥९॥ १० एंव भणिवि संबोहिय मणहर पंचणवइ संजाया गणहर । 'बिणि सहस भासिय तीसुत्तर अंगसपुर्वधारि तहु मुणिवर । 'बिणि लक्ख चालीससहासई चउसहसई णवसयई विमीसई। अवर वि वीस जि सिक्खुय साहिय जे णोरंजणेण णिवाहिय । णव जि सहासई ओहि विबोहहं सहसेयारह पंचमबोहह। संयई तिण्णि सहसई पण्णारह विक्किरियालहं रिसिहि सुहीरह। सोत्तसैमाणसहासपमाणहं पण्णासुत्तरु सउ मणजाणहं । वसुसहसई रिदुसयई विवाइहिं सुद्धसुरूवदेसकुलजाइहिं । लक्खइं तिणि तीससहसालई विरयह णारिहिं लुचियालइं। १० सागारहं वि लक्खु गुणगुत्तिहि वयंगुणियाई ताई तप्पत्तिहिं । वर्णन करता है ? समुद्र मापनेके लिए क्या घड़ा लाया जाता है ? हे देव, दुःखरूपी लताका हनन करनेवाली सुखरूपी लताका, सिद्धिपर्यन्त मूल तुम्हारी भक्ति ही है । जैसे ही आठ प्रातिहार्योंकी स्थापना हुई वैसे ही, वह समवसरणमें विराजमान हो गये। आदरणीय वह जिस प्रकार धर्मका कथन करते हैं, उस प्रकारका कथन दूसरा कोई नहीं कर सकता। कहीं यदि कोई सूर हो तो वह पालन कर सकता है ? निष्ठासे विपरीत मनुष्य नाशको प्राप्त होता है। घत्ता-प्राणियोंका वध छोड़ो, झूठ मत बोलो, दूसरेके धनका अपहरण मत करो, परस्त्रीको मत मानो, धनका परिसीमन करो, रात्रिमें भोजनका परिहार करो ॥ ९॥ इस प्रकार कहकर उन्होंने सम्बोधित किया। उनके पंचानबें सुन्दर गणधर हुए। अंगधारी मुनिवर दो हजार तीस थे। शिक्षक दो लाख चौवालीस हजार नौ सो बीस कि जिनका निरंजन (तीर्थकर ) ने संसारसे उद्धार किया। अवधिज्ञानी नौ हजार; केवलज्ञानी; पन्द्रह हजार तीन सौ सुधीर, विक्रिया-ऋद्धिके धारक थे। मनःपर्ययज्ञानी नौ हजार एक सौ पचास । शुद्ध स्वरूप, देशकालमें उत्पन्न हुए वादी मुनि आठ हजार छह सो। तीन लाख तीस हजार केश लोंच करनेवाली आर्यिकाएँ थीं। तीन लाख श्रावक और पांच लाख श्राविकाएँ। ६. A आसुद्धि । ७. A कहि मि को वि । ८. AP पाणिवहु । ९. P परदार । १०. P परियाणह । १०.१. A दोण्णि । २. A अंगसुपुव्वधारि; P अंगपुत्रधारिय। ३. A ओहिबिमोहहं। ४. P सयाई। ५. P सुधीरहं । ६. P समारण । ७. A विरइयणारिहिं । ८. P लुचियकुरुलहिं । ९. A वयगण्णियाई। हविभाहत । सान सवार Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002724
Book TitleMahapurana Part 3
Original Sutra AuthorPushpadant
AuthorP L Vaidya
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year1981
Total Pages574
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Mythology, & Story
File Size12 MB
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