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________________ -५२. १२.१६ ] महाकवि पुष्पदन्त विरचित २२३ १२ दुवई-विहसिवि सुहडु भणइ लइ गच्छमि दारियकरिवरिंदहो । काई सरासणेण किं खग्ग महुँ रणवणि मइंदहो । भडु को वि भणइ जइ जाइ जीउ तो जाउ थाउ छुडु पहुपयाउ। भडु को वि भणइ रिउं एंतु चंडू मई अज्जु करेवंउ खंडखंडु । भडु को वि भणइ पविलंबियंति मई हिंदोलेवे दंतिदंति । भडु को वि भणइ हलि देइ हाणु सुइदेहें दिजइ प्राणदाणु । भडु को वि भणइ किं करहि हासु णिग्गवि सिरेण रिणु पत्थिवासु । भडु को वि भणइ जइ मुंडु पडइ तो महुं रुडु जि रिउ हणवि णडइ । भडु पियहि सरसु वज्जरइ कामि हउं रणदिक्खिउ सरु मोक्खगामि । भड को वि भणइ असिधेणुयाहिं । जसदुधु लेमि णरसंथुयाहिं। भडु को वि भणइ हलि छिण्णु जइ वि महुँ पाउ पडइ रिउसरहुं तइ वि । भडु को वि सरासणदोसु हरइ सरपत्तई उज्जुय करिवि धरइ । भड़ को वि बद्धतोणीरजुयलु । णं गरुंडसमुद्घयपक्खपडलु । को वि भणइ कलहंसवाणि महुं तुहुं जि सक्खि सोहग्गखाणि । घत्ता-परबल अभिडिवि रिउसिरु खुडिवि जइ ण देमि रायहु सिरि ॥ १५ तो दुक्कियहरणु जिणतवचरणु चरविं घोरु पइसिवि गिरि ।।१२।। कोई सुभट हंसकर कहता है कि लो, मैं जाता हूँ। जिसने करिवरेन्द्रोंको विदारित किया है, ऐसे मुझ मृगेन्द्रको युद्धरूपी वनमें धनुष और तलवारसे क्या ? कोई योद्धा कहता है कि यदि जीव जाता है तो जाये, यदि प्रभुका प्रताप स्थिर रहता है। कोई सुभट कहता है, मैं आज आते हुए प्रचण्ड शत्रुको खण्ड-खण्ड कर दूंगा। कोई सुभट कहता है कि जिसमें आंतें लटक रही हैं, ऐसे हाथोके दांतपर मैं झूलूंगा। कोई सुभट कहता है-हे सखी, जल्दी स्नान दो। मैं पवित्र शरीरसे प्राणदान दूंगा? कोई सुभट कहता है कि तुम हँसी क्यों करती हो, मैं अपने सिरसे राजाके ऋणका शोधन करूंगा। कोई सुभट कहता है कि यदि मेरा सिर गिर जाता है, तो मेरा धड़ ही शत्रुको मारकर नाचेगा। कोई कामी सुभट अपनी प्रियासे यह सरस बात कहता है कि मैं युद्ध में दीक्षित मोक्षगामी सर ( स्मर और तीर ) हूँ। कोई सुभट कहता है कि मैं लोगों के द्वारा संस्तुत असि रूपी धेनुका (छुरी ) से यशरूपी दूध लूंगा। कोई सुभट कहता है कि हे सखी, यदि मैं छिन्न भी हो जाता हूँ तब भी मेरा पैर शत्रुके सम्मुख पड़ेगा। कोई सुभट अपने धनुषका दोष दूर करता है, और तीरोंके पत्रोंको सीधा करके धारण करता है। बांध लिया है तूणीरयुगल जिसने, ऐसा कोई सुभट ऐसा जान पड़ता है, मानो गरुड़को दोनों पक्षपटल निकल आये हों। कोई योद्धा कहता है कि हे कलहंसके समान बोलनेवाली और सोभाग्यको खान, तुम मेरी गवाह हो। पत्ता-शत्रुसेनासे भिड़कर, शत्रुशिर काटकर यदि मैं राजाकी लक्ष्मी नहीं देता, तो मैं घोर वनमें प्रवेश कर पापको हरण करनेवाले जिनवरका तपश्चरण करूंगा ॥१२॥ . १२. १. P करेव्वउ । २. P हिंदोलिव्वउ । ३. A P सुइदेहई। ४. A P पाणदाणु । ५. A P तुडु। ६. A सरिसु । ७. A P रिउसमुहं । ८. A P गरुडु । Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002724
Book TitleMahapurana Part 3
Original Sutra AuthorPushpadant
AuthorP L Vaidya
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year1981
Total Pages574
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Mythology, & Story
File Size12 MB
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