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________________ ૪૬૮ महापुराण सो जासु कूरु होही सुरामु तहु हत्थे मरिही परसुरामु । तहिं गच्छहि पेच्छहि चोज बप्प किं अच्छइ काणणि णिव्वियप्प । तं णिसुणिवि मणि चिंतइ कुमार डहुडहु णरु जंगलपुंजु फारु । दुज्जणकरगाहगलत्थियाई जे दिट्ठई सयणइं दुत्थियाई। दरिसावियबंधवलोयवसण जेणायण्णिय गंदंत पिसुण । सो णिहयजणणिजोव्वणवियारु अम्हारिसु जीवइ भूमिभारु । वरिसहं परमाउसु जमदुगेज्झु धुवु सट्ठिसहासई आउ मज्झु । १० ' लइ णियइ ण ढुक्कइ अंतरालि रिउ चूरमि मारमि कलहकालि । .. अह वा जइ मरमि ण तो वि दोसु लइ अज्ज करमि हउं सहलु रोसु । . घत्ता-तायवियारणउं जं वइरु रिणु य चिरु दिण्णउं ।। तं हउं तासु रणि लइ अन्जु देमि उच्छिण्णउं ॥ ४ ॥ इय भणेवि वीरो'धुरंधरो समरभारवहणेक्ककंधरो। कायकंतिधवेलियदिसावहो चिक्करतैछक्कण्णुपाणहो । धरणिविजयसिरिविजयलंपडो कसणकुडिलधम्मिल्लझंपडो । दंडपाणिपोत्थयपरिग्गहो रत्तचीरचेचइयविग्गहो। चन्द्रकान्तके समान दांत दिखाये जाते हैं। जिससे वे दांत सुन्दर भात हो जायेंगे उसके हाथसे मारा जायेगा। हे सुभट तुम वहाँ जाओ और उस आश्चर्यको देखो। बिना किसी विकल्पके जंगल में क्यों पड़े हो।" यह सुनकर कुमार अपने मन में विचार करता है-प्रचुर मांससमूह वह मनुष्य खाक हो जाये कि जिसने स्वजनोंको दुर्जनोंके द्वारा हाथ पकड़कर बाहर निकाले जाते हुए और खराब स्थितिमें होते हुए देखा है। जिसने बान्धवलोकको दुख दिखानेवाले दुष्टोंको आनन्दित होते हुए सुना है। अपनी मांके यौवन-विकारको नष्ट करनेवाला (व्यर्थ कर देनेवाला) ऐसा वह मुझ जैसा धरतीका भारस्वरूप व्यक्ति जीवित है। परमायु मैं यमके द्वारा अग्राह्य हूँ, ( यम मुझे नहीं पकड़ सकता ), निश्चय ही मेरी आयु साठ हजार वर्ष है, लो इस अन्तरालमें ( इस बीच ) नियति नहीं आ सकती, इसलिए युद्धकालमें शत्रुको चकनाचूर कर मारता हूँ। अथवा यदि मैं मर जाता हूँ तो इसमें दोष नहीं है। लो मैं आज अपना क्रोध सफल करता हूँ। पत्ता-पिताके मारनेका जो वैर और ऋण पहले दिया गया है, मैं आज उसे युद्ध में दूंगा और उसे उच्छिन्न करूंगा ॥४॥ यह कहकर समरभारको अपने एक कन्धेसे उठानेवाला, अपनी शरीर-कान्तिसे दिशाओंको धवलित करनेवाला, चरमराते हुए छह कोनोंवाले जूतोंसे युक्त, पृथ्वीविजय और श्रीविजयका लम्पट, मुक्त खुले काले बालोंवाला, जिसके हाथमें दण्ड और पुस्तकका परिग्रह है, जिसका शरीर २. A मरही। ३. A णरजंगलु। ४. AP भारु । ५. AP णिहियजणणिहि जोवण । ६. AP समरकालि । ७. A वइरु रिणु चिरु ण दिण्णउं; P वइरु रिण व चिरु दिण्णउं । ५. १. AP धोरो । २. AP °कविलियं । ३. A चिक्करंतु छक्कण्णुवाणहो; P चिक्करंतु छक्कण्णवाणहो । Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002724
Book TitleMahapurana Part 3
Original Sutra AuthorPushpadant
AuthorP L Vaidya
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year1981
Total Pages574
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Mythology, & Story
File Size12 MB
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