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________________ -४०.८.१२] महाकवि पुष्पदन्त विरचित धरणिंदें धरणिसमुद्धरणु पत्थिउ महुं देव तुहुँ जि सरणु । इय बहुगिन्वाणहिं बंदियउ ध्रुवें संभवु संभवु सहियउ। पत्ता-पुणु पुणु पणवेप्पिणु घरु आणेप्पिणु दिण्णु सुसेणासुंदरिहि ॥ गुरुचरणइं अंचिवि सुकिउ संचिवि गउ सुरवइ सुरवरपुरिहि ॥७॥ १० कणयच्छवि सुष्टु सलक्खणउ जहिं दीसइ तहिं जि सुहावणउ । अंगउ लायण्णमहिड्डियउ चउचावसयाई पव ड्डियउ । जसु आयत्तउ सयमेव विहि सो किं वणिज्जइ रूवणिहि । जसु अंगि दुद्ध लोहिउं गणमि सो खमवंतउ किं किर भणमि । जसु गुणपरिमाणु णेय लहंवि सो सूहउ हउं किरें किं कहंवि। अच्छरणररामाणंदणहु तहु तेत्थु सुसेणाणंदणहु । कीलंतहु अमरवरेहिं सहुं भुजंतहु रायकुमारसुहूं। घरघडियारयदंडेण हय पुत्वहं पण्णारहलक्ख गय । पइरत्तउ पेच्छिवि तरुणियणु आहंडलु आयउ तहिं वि पुणु । उवणेप्पिणु नृवंइकुमारिगणु पारंभिउ रायँहु परिणयणु । पत्ता-तूरहिं वजतहिं गलगजंतहिं तियसेहिं कि ण विसेंट्ट महि ।। जिणणाहु ण्हवंतिहिं वारि वहतिहिं किं जाणहुं सोसिउ उवहि ॥८॥ ध्यान किया। धरणेन्द्रने प्रार्थना की-"हे धरतीका उद्धार करनेवाले देव, आप ही मेरे लिए शरण हैं।" इस प्रकार देवोंने उनकी वन्दना की और निश्चित रूपसे 'सम्भव-सम्भव' शब्दका उच्चारण किया। पत्ता-बार-बार प्रणाम कर और घर आकर, ( उन्होंने ) सुन्दरी सुषेणाको बालक दे दिया। गुरुके चरणोंकी वन्दना कर और पुण्यका संचय कर इन्द्र अपने स्वर्ग चला गया ॥७॥ स्वर्ण रंगवाले और लक्षणोंसे युक्त वह जहां दिखाई देते वहीं सुन्दर लगते। लावण्य और ऋद्धियोंसे सम्पन्न उनका शरीर चार सौ धनुष ऊंचा था। जिसके अधीन स्वयं विधाता हैं, उस रूपनिधिका क्या वर्णन किया जाये ? जिसके शरीरमें मैं रक्तको दूध गिनता हूँ, उनको मैं क्षमावान् किस प्रकार कहूँ? मैं जिसके गुणोंके परिमाणको नहीं पा सकता, उन्हें मैं सुभग किस प्रकार कह ? अप्सराओं, मनुष्यों और खियोंको आनन्दित करनेवाले, सुषेणादेवीके पत्र ( सम्भव ) के देवोंके साथ क्रीड़ा करते हुए, और राजकुमारका सुख भोगते हुए, घरकी घड़ोके दण्डसे आहत पन्द्रह लाख पूर्व वर्ष निकल गये। पतिमें अनुरक्त युवतीजनको देखकर, इन्द्र दुबारा आया। राजाओंकी कन्याओंका समूह देकर उनका विवाह प्रारम्भ किया गया। पत्ता-बजते हुए तूर्यो, गरजते हुए देवेन्द्रोंसे क्या धरती विशिष्ट नहीं हुई ? जिननाथका अभिषेक करते और पानी बहाते हुए क्या जाने कि समुद्र सूख गया ॥८॥ ४. A ध्रव संभव संभ3; P धुउ संभउ संभउ । ५. A वेप्पिणु । ८. १. AP महड्डियउ । २. A किं किर । ३. A रामावंदणहु । ४. A ता तेत्थु । ५. AP पेविखवि । ६.T उवणेविणु । ७. AP णाहह । ९. P विसड्ढ । Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002724
Book TitleMahapurana Part 3
Original Sutra AuthorPushpadant
AuthorP L Vaidya
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year1981
Total Pages574
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Mythology, & Story
File Size12 MB
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