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________________ ३९९ -६१. १७.१०] महाकवि पुष्पदन्त विरचित तं णिसुणिवि सुरवरु चित्तचूलु आयउ णिवंघरु णहलग्गचू लु। जिणजेट्ठतणुब्भवु भणिउ तेण अण्णण्णु होइ तिहुवणु खणेण। घत्ता-णउ अस्थि तो वि दीसइ पयहु जिह सिविणउ तेलोक्कु तिह ॥ लइ सुण्णु जि णिच्छउ आवडिउं कहिं अच्छइ गय दीवसिह ॥१६॥ १० तं सुणिवि भणइ पविपहरणक्खु अण्णाणहं दुक्करु णाणचक्खु । जइ अवरु जि खणि खणि होइ सव्वु तो किं जाणइ जणु णिहिउ दव्वु । पज्जायारूढी सव्वसिहि आउंचिउ हत्थु जि होइ मुट्ठि। अण्णयविरहिउं जि जगु भणंति खकुसुम ते सससिंगे हणंति । जइ सिविणु व तचु परोवहासि तो सिविणयभोयणि किं ण धासि । जइ सुण्णत्तहु दीवच्चि जाइ। तो खप्परि कजलु केमै थाइ तं सुणिवि पबुद्धउ सुरु बद्ध संसइ तुहुं णरवइ णाणसुद्ध । को करइ बप्प पई सहुँ विवाउ अरहंतु भडारउ जासु ताउ । घत्ता-गउ चित्तचूलु सणिहेलणहु इंदचंदफणिपरियरिउ ।। खेमंकरु पढमहु तणुरुहहु अप्पिवि वसुमइ णीसरिउ ।।१७।। ऐसे राजभवन में आया। उसने जिनके बड़े लड़के ( वज्रायुध ) से कहा कि त्रिभुवन एक पलमें कुछका कुछ हो जाता है। पत्ता-यद्यपि वह नहीं है, तो भी वह प्रत्यक्ष रूपमें दिखाई देता है, जिस प्रकार स्वप्न ( दिखाई देता है ) उसी प्रकार त्रिलोक। लो शून्यको शून्य हो निश्चय रूपसे ज्ञात हुआ, गयो दीप शिखा कहां रहती है ? ॥१६॥ १७ यह सुनकर वज्रायुध कहता है कि अज्ञानियोंके ज्ञानचक्षु कठिन होते हैं। यदि सब कुछ क्षण-क्षणमें कुछका कुछ हो जाता है तो लोग रखे हुए धनको किस प्रकार जान लेते हैं ? समस्त सृष्टि पर्यायोंपर आश्रित है। संकुचित हाथ मुट्ठी बन जाता है। जो विश्वको एक दूसरेसे ( द्रव्य पर्याय ) रहित कहते हैं वे आकाशके फूलको खरगोशके सींगसे मारते हैं। हे परोपहासी ( दूसरोंका उपहास करनेवाले), यदि तत्त्व भी स्वप्नकी तरह है, तो तुम स्वप्नमें किये गये भोजनसे तृप्त क्यों नहीं होते ? यदि दीपकी शिखा शून्यत्वको जाती है तो खप्परमें काजल कैसे पाड़ा जाता है ? यह सुनकर वह क्षणिकवादी बौद्धदेव प्रबुद्ध हो गया और प्रशंसा करने लगा कि हे देव, हे राजन्, तुम ज्ञानसे शुद्ध हो। हे सुभट, तुम्हारे साथ विवाद कौन करे कि जिसके पिता आदरणीय अरहन्त हैं ? ___घत्ता-चित्रचूल देव अपने घर चला गया और इन्द्र, चन्द्र और नागोंसे घिरा हुआ क्षेमंकर अपने पहले पुत्रको धरती सौंपकर चला गया ॥१७॥ ६. A नृवघरू । ७. AP सुण्ण उ णिच्छउ । १७.१. AP जइ खणे खणे अवरु जि होइ । २. P खकुसुम । ३. AP कि ण थाइ । ४. A सुरु पबुद्ध; P सुरु वबुद्ध । Jain Education International For Private & Personal Use Only For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002724
Book TitleMahapurana Part 3
Original Sutra AuthorPushpadant
AuthorP L Vaidya
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year1981
Total Pages574
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Mythology, & Story
File Size12 MB
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