SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 238
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ - ५०.८.६ ] महाकवि पुष्पवन्त विरचित हउँ णिग्गुणु अवरु वि मज्झु तण वियसिय पंकयसंणि मुद्देण हो जोठवणेण हो उववणेण हो पट्टणेण सुहवट्टणेण यहिं जहिं संभवइ वइरु म जण दिण्णी तुझु पुहुइ मई पुणु जाएव कहिं वि तेत्थु घत्ता - तं णिसुणिवि राएण जइ वि चित्ति अवहेरिउ ।। तो वि परायइ कज्जि पुत्तु रजि वइसारिउ ||७| 'इस बहु विसाहणंदि संसूरि पर्णेवि पवित्त चिरु कालु चरेपिणु चारु चरणु उपणु महासुकाहिहाणि सहभूयभूरिभूसाविहाणि परमंडलवइवाहिणिहि छइउ कवडे जेहिं तुह भग्गु पणउ । पडिजंपिडं जइणीतणुरुद्देण । हो परियणेण हो हो धणेण । हो सीमंतिणिण घट्टणेण । पित्तिय तहिं ण वसमि हउं वि सुइरु | जो चइ सो तुहुं करहि नृवइ । णिवसंति दियंबर विझि जेत्थु । ८ सविसाहभूइ गउ विस्सदि । दोहिं वि पडिवण्णउं रिसिचरितु | किड पित्तिएण संणासमरणु । मणिमयविमाणि धयधुव्वमाणि । सोलहसमुद्दजीवियपमाणि । एतहि वि रायगिहणयरु लंइउ । Jain Education International १९१ से क्या ? निर्गुण (गुण और डोरीसे रहित) चाप (धनुष) और पुरुष से क्या ? एक तो में निर्गुण हूँ, दूसरे कपट के कारण मेरा स्नेह तुमसे भंग हो गया है। तब कमलके समान, जिसका मुखकमल खिला हुआ है, ऐसे उस जैनीपुत्रने प्रत्युत्तर दिया, "योवन रहे, उपवन रहे, परिजन रहे, धन रहे, नगर रहे, सुखवर्तन रहे, सीमन्तिनियोंके स्तनोंका संघर्ष रहे कि जिससे स्वजनोंके साथ वेर उत्पन्न होता है, हे चाचा, मैं वहाँ अधिक समय नहीं रहूँगा । मेरे पिताने तुम्हें धरती प्रदान की है, तुम्हें जो अच्छा लगे तुम उसे करो, मैं तो अब वहीं जाऊँगा कि जहाँ विन्ध्याचल में दिगम्बर मुनि निवास करते हैं । १० धत्ता - यह सुनकर राजाने यद्यपि अपने मनमें इसकी उपेक्षा की तो भी कार्य आ पड़नेपर उसने पुत्रको राज्य में बैठा दिया || ७ || ८ विशाखनन्दी राज्य में बैठा । विश्वनन्दी विशाखभूति सहित चला गया। सम्भूति मुनिको प्रणाम कर दोनोंने मुनिचरित ग्रहण कर लिया। बहुत समय तक सुन्दर चरित्रका पालन कर चाचाने संन्यासमरण किया। वह ध्वजोंसे कम्पित महाशुक्र नामक मणिमय विमान में उत्पन्न हुआ। अनेक भूषा-विधान उसे साथ-साथ उत्पन्न हुए। उसकी आयुका प्रमाण सोलह सागर पर्यन्त था । शत्रुमण्डल के राजाकी सेनाके द्वारा आच्छादित राजगृह नगर भी यहाँ ले लिया गया । ३. A कवडेण जेण । ४. A° संमुहमुहेण । ५. Pथणथडण | ६. A महु सयणहि जं संभवइ वइरु । ७. AP णिवइ । ८. १. A वहसणे; P वइसेणइ । २. A पणवेवि चित्तु । For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002724
Book TitleMahapurana Part 3
Original Sutra AuthorPushpadant
AuthorP L Vaidya
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year1981
Total Pages574
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Mythology, & Story
File Size12 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy