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________________ महापुराण [ ४२.८.१ अणुभासियं तं जि लोयंति' विबुहेहिं आवेवि देवेहिं पज्जण्णपमुहेहिं । तिपुरिल्लकल्लाणविहि तेहिं संविहिउ सिवियाइ णेऊण णंदणवणे णिहिउ । मुक्काई वत्थाई भीमाई सत्थाई गहियाई सत्थाई णियधम्मसत्थाई। लुंचेवि कुंतलकलावो वि कोंतलेइ सहुं छडिओ जोग्गपत्तम्मि पविमलइ । सो देवदेवेण पित्तो समुहम्मि दुद्धबुकल्लोलमालारउहम्मि । मणपज्जउप्पण्णणाणेण सुवसिल्लु छट्टोववासत्थु णीसंगु णीसल्लु । णीसंकु णिक्कंखु णिम्मुक्कदुविहासु सियलेसु णिदोसु णीरोसु णीहासु । वइसाहसियणवमि पुठवण्हवेलाइ आलिंगिओ सामिओ दिक्खबालाइ । घत्ता-अवरहिं दियहि पुणु संसारमहण्णवतारउ । पुरवरु सउमणसु चरियाइ पइट्छु भडारउ ॥८॥ तत्थ सो पोमणामेण राएण संभाविओ भाववंतेण सत्तीइ भत्तीइ भुंजाविओ। पंचचोज्जाइं जायाइं दाणिस्स तस्सालए लोयणाहो भेमंतो वसंतो गिरिदालए। वीसवासाई घोरे गहीरे तवे संठिओ ता रओ दूसहो दुम्महो दुज्जओ णिट्ठिओ। तम्मि दिक्खावणे वायहल्लंततालीदले णिच्चलं झायमाणेण झेय' पियंगूतले । . यही बात लोकान्तिक देवोंने आकर कही। इन्द्र प्रभृति देवोंने आकर आगेकी तीसरी कल्याण विधि सम्पन्न की और शिविकासे ले जाकर उन्हें नन्दनवनमें स्थापित कर दिया। वस्त्र और भीषण शस्त्र छोड़ दिये गये, स्वधर्मको शासित करनेवाले शास्त्र ग्रहण कर लिये गये । केशकलापको उखाड़कर पुष्पमालाके साथ पवित्र योगपात्रमें डाल दिया गया । देवेन्द्रने दुग्धजलकी लहरोंकी मालासें भयंकर समुद्र में फेंक दिया। मनःपर्ययज्ञान उत्पन्न हो जानेके कारण स्ववशीभूत, अनासंग और शल्यरहित, छठे उपवासमें स्थित, निःसंग आकांक्षा-रहित, दुविधाओं से मुक्त, शुक्ल लेश्यासे युक्त, निर्दोष अक्रोध, भाषाविहीन ( मौन ) स्वामीका वैशाख माहके शुक्लपक्षकी नवमीके दिन, पूर्वाल वेलामें दीक्षा रूपी बालाने आलिंगन कर लिया। पत्ता-एक दूसरे दिन, संसाररूपी महासमुद्रसे तारनेवाले भट्टारक जिन सुमतिनाथ, सौमनस नगरमें चर्याके लिए प्रविष्ट हुए ॥८॥ वहां पद्मनाभके राजाने उन्हें पड़गाहा तथा भावोंसे भरे हुए उसने शक्ति और भक्तिसे उन्हें आहार करवाया। उस दानीके घरमें पांच आश्चर्य हुए। लोकनाथ सुमति पहाड़ोंके घरमें भ्रमण करते और निवास करते हुए वे बीस वर्षोंके घोर तपमें स्थित हो गये। और तब दुःसह, दुर्मद और दुर्जय कर्मरज नष्ट हो गया। वायुसे आन्दोलित तालीदलवाले उसी दीक्षा वनमें ८. १. P लोयंत । २. A P कुंतलइ । ३. P°कल्लोलवेलारउद्दम्मि । ९.१. हम्मालए । २. P समंतो। ३. A जायं । Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002724
Book TitleMahapurana Part 3
Original Sutra AuthorPushpadant
AuthorP L Vaidya
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year1981
Total Pages574
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Mythology, & Story
File Size12 MB
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