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________________ ४१९ -६२. १७.९ ] महाकवि पुष्पदन्त विरचित चाइत्तणु तेरउ किं करइ तो विहसिवि महिवइ वज्जरइ। मई चाउ करेवउ तेम तिह जिउ ण मरइ ण हवइ हिंस जिह । वर अच्छउ णिग्गुणु छुहियतणु णउ ओयोविज्जइ प्राणिगणु । किं वग्घु भणिज्जइ पत्तु गुणि आहारु असुद्ध ण लेति मुणि । घत्ता-जेहिं णियागमि वुत्तउं आमिसु दिण्णउं भुत्तउं ।। ते लहंति दुणिरिक्खइं भवि भवि विविहइं दुक्खई ॥१६।। १७ तं णिसुणिवि देवें संसियउ मेहरहु सिरेण णमंसियउ । गउ अमरु णिवासुएण भणिउ कोऊहलु महुं हियवइ जणिउ । को एह किमत्थु समागमणु तो कहइ णराहिउ रिउदमणु । पई दमियारिहि रणि पाइयउ हेमरहु णाम णिउ घाइयउ। भवि भमिवि सुइरु कइलासयडि वणि पेण्णकंततीरिणिणियडि । वरसिरिदत्ताकंतावसहु सुउ जायउ सोम्मैहु तावसहु । चंदाहु णाम प्रिउँ पाणपिउ पंचम्गिताउ तउ तेण किउ । जोइसकुलि उप्पण्णउ अमरु गउ जहिं हरि अच्छइ कुलिसकरु । ईसाणणामकप्पाहिवइ तहिं तियसहं णिसुणिवि वयणगइ । दोगे तो गोधका नाश है और मांस देनेपर कबूतरका नाश है ? तुम्हारा त्याग इसमें क्या करेगा ?" तब राजा हंसकर उत्तर देता है, "मेरा त्याग वह करेगा कि जिससे जीव नहीं मरेगा और हिंसा नहीं होगी ? निर्गुण और भूखा रहना अच्छा लेकिन प्राणियोंको घात नहीं करना चाहिए? क्या बाधको गुणीपात्र कहा जाता है, मुनि लोग अशुद्ध आहार ग्रहण नहीं करते। पत्ता-जिन लोगोंके द्वारा अपने आगममें कहा गया और दिया गया आमिष भोजन खाया जाता है, वे भव-भवमें दुर्दर्शनीय दुःखोंको पाते हैं ।।१६।। यह सुनकर देवोंने उसको प्रशंसा की और मेघरथको सिरसे प्रणाम किया। वह देव चला गया। राजाके अनुज (दृढ़रथ ) ने कहा कि इसने मेरे हृदयमें कुतूहल उत्पन्न कर दिया है। यह कोन है और किसलिए यहाँ आया ? तब शत्रुओंका दमन करनेवाला, राजा मेघरथ कहता है-तुमने ( अनन्तवीर्यके रूपमें ) दमितारिके पैदल सैनिक हेमरथ राजाको मारा था। वह बहुत समय तक संसारमें भ्रमण कर कैलासके तटपर पर्णकान्ता नदीके निकट वनमें श्रेष्ठ श्रीदत्ता कान्ताके वशीभूत तापस सोमशर्माका चन्द्र नामका प्राणप्रिय पुत्र हुआ। उसने पंचाग्नि तप किया, वह ज्योतिषकुलमें देव उत्पन्न हुआ है। वह वहाँ गया जहाँ हाथमें वन लिये इन्द्र था, जो-ईशान स्वर्गका राजा था। वहां देवताओंकी वचनगति और मेरे त्याग तथा भोगकी स्तुतिको ५. A तो। ६. A उज्जाविज्जइ । ७. A पाणिगण; P पाणिगुणु । १७.१. A तो। २. AP पण्णकति । ३. A सोमह । ४. AP पिउ । ५. A कूलिसघरु । Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002724
Book TitleMahapurana Part 3
Original Sutra AuthorPushpadant
AuthorP L Vaidya
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year1981
Total Pages574
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Mythology, & Story
File Size12 MB
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