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________________ २९८ महापुराण [५७. ८.७तो किं जियइ को वि भुवणंतरि एहु लय उ चोरेहिं वर्णतरि। हिंडइ दवपिसाएं मुत्तर जंपइ जंजि तं जि अवचित्तउ । एहु चौरु चिंते गहियउं ता राएण वितं सद्दहियउं घत्ता-वणि डिंभसहासहिं परियरिउ भमइ णयरि परिमुक्कसरु॥ आरडइ करुण सूरुग्णमणि णिवंघरणियडइ चडिवि तरु॥८॥ मई दिहिवंतइ सीलविसुद्धा ता महएविइ वुत्तु विरुद्धइ। परवंचणगुणतग्गयचित्तहिं महिवइमइ भामिजइ धुत्तहिं । णिरणुट्ठाणु दीणु दालिहिउ अप्पणु जइ वि होइ सोहद्दिउ । तहु जंपिउ ण को वि आयण्णइ राउ वि णिद्धणवयणु ण मण्णइ । णिवे तुह मंदिरि चोरहं उण्णइ एम चवेप्पिणु सुंदरु विहियउं पासाहलउ पासि संणिहियउ। पहिं पडंतु संतु हक्कारिउ आउ महंतु तहिं जि वइसारिउ । दोहिं मि अक्खजूउ पारद्धउं देविइ भल्लाउं उत्तरु लद्धउं । मज्झु जाइ णीसेसहु देसहु तुज्झु वि सुत्तहु दियवरवेसहु। चामीयरसोहासोहिल्लहि अवरु वि मुर्देइ मणितेइल्ल हि । बिणि वि एयई भूसियगत्तई रायाणियइ छइल्लइ जित्तई । महियंगुलियइ वज्जुजेलियइ उववीयउ सहुं अंगुत्थलियइ । क्या कोई इस संसारमें जीवित रह सकता है ? यह वनके भीतर चोरोंके द्वारा लूट लिया गया है और द्रव्यपिशाचसे सताया हुआ यहां घूमता है । वह जो कुछ भी कहता है वह उद्भ्रान्त चित्तका कथन है। विचार करते हुए राजाने इसे सुन्दर समझ लिया और उसका विश्वास कर लिया। पत्ता-हजारों बालकोंसे घिरा हुआ उन्मुक्त स्वरवाला वह वणिक् नगरमें घूमता फिरता। सूर्योदय होनेपर राजाके घरके निकट पेड़पर चढ़कर वह करुण स्वरमें चिल्लाता ॥८॥ तब भाग्यशालिनी शीलसे विशुद्ध महीदेवीने कुपित होकर मुझसे कहा, "दूसरोंको ठगनेके गुणमें दत्त-चित्त धूर्तों के द्वारा राजाकी बुद्धि घुमा दी जाती है। जो निरुद्यम, दीन और दरिद्र है चाहे वह खुद कितना ही स्नेहयुक्त हो उसके कहेको कोई नहीं सुनता। राजा भी निर्धनके वचनको नहीं मानता। हे राजन्, तुम्हारे घरमें चोरोंकी उन्नति है।" यह सुनकर उसने एक सुन्दर बात की। वह द्यूतफलकके पास बैठ गयी। पैरोंपर पड़ते हुए उसने मन्त्रीको पुकारा और आये हुए मन्त्रीको उसने वहीं बैठा लिया। दोनोंने अक्षयूत प्रारम्भ किया। देवीने भी भला उत्तर पा लिया कि मेरे समस्त देश और तुम्हारे द्विजवर वेशके जनेऊ और स्वर्णशोभासे शोभित मणितेजसे युक्त अंगूठीका खेल ( जुआ) होगा। शरीरको भूषित करनेवाली ये दोनों चीजें चतुर रानीने जीत ली-बिजलीकी तरह चमकती हुई बहुमूल्य अंगूठीके साथ जनेऊ । ४. A omits वि । ५. A चोरु । ६. AP चित्तंतें । ७. A सहासि । ८. AP णिवघरि णियडउं । ९.१. P तहिं । २. A adds this line in second hand: P omits it। ३. AP जि । ४. AP - मुद्दहि । ५. AP विज्जुज्जलियइ; but gloss in T होरदीप्त्या । Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002724
Book TitleMahapurana Part 3
Original Sutra AuthorPushpadant
AuthorP L Vaidya
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year1981
Total Pages574
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Mythology, & Story
File Size12 MB
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