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________________ महापुराण [५०.३.१० घत्ता-णं वणि लिणि दुरेहु अच्छइ णिच्च पइट्ठउ ।। इय सो तेत्थु रवंतु लक्खणजाएं दिट्ठउ ॥३।। ४ तओ तं णियच्छेवि राएंगएणं वणुस्साहिलासं गहीरं गएणं । घरं गंपि सो गोमिणीमाणणेणं पिऊ पत्थिओ पुण्णचंदाणणेणं । सया चायसंतोसियाणेयवंदी जहिं कीलए णिचसो विस्सणंदी। वेणं देहि तं मज्झ रायाहिराया महामंतिसेणावईवंदपाया। ण देमि त्ति मा जंप णिभिण्णकण्णं अहं देव गच्छामि देसंतमण्णं । णरिंदेण उत्तं वणं देमि णणं तुमं जाहि मा पुत्त उव्विग्गठाणं । दुमते रमतो मयच्छीण मारो पुणो तेण कोकाविओ सो कुमारो। खणेणेय पत्तो समित्तो णवंतो पिवेण संबोहिओ णायवंतो। महं भाउणा णेहवासेण दिण्णं तुमं पत्थिवो तुज्झ रज रवण्णं । कुलीणा तुमं चेय मण्णंति सामि तुम थाहि सीहासणे भुंज भूमि । अहं जामि पच्चंतवासाइं घेत्तं बलुद्दामथामें रिऊ पुत्त हंतं । तओ जंपियं तेण तं मज्झ पुज्जो तुमं देव तायाउ आराहणिज्जो । थिराणं कराणं पयासेमि सत्तिं अहं जामि गेण्हामि कूरारिवित्तिं । पत्ता-मानो वनमें कमलिनी और भ्रमर नित्य रूपसे प्रवेश करके स्थित हों । इस प्रकार रमण करते हुए उन्हें लक्ष्मणाके पुत्र विशाखनन्दीने देखा ॥३॥ उस समयं उस राजपुत्रको देखकर उसके मनमें वनकी गम्भीर अभिलाषा उत्पन्न हो गयी। घर जाकर लक्ष्मीके द्वारा मान्य और पूर्ण चन्द्रमाके समान मुखवाले कुमारने अपने पितासे प्रार्थना की, "जिसने अपने त्यागसे अनेक चारणोंको सन्तुष्ट किया है, ऐसा विश्वनन्दो जहां नित्य क्रीड़ा करता है, महामन्त्री और सेनापतिके द्वारा वन्दनीय चरण हे राजाधिराज, वह उपवन मुझे दीजिए, 'मैं नहीं देता हूँ', कानोंको भेदन करनेवाला ऐसा मत कहो ( नहीं तो) हे देव मैं देशान्तर चला जाऊँगा।" राजाने कहा, "मैं निश्चित रूपसे वन दूंगा। हे पुत्र, तुम खेद जनक स्थानको मत जाओ।" फिर उसने, मृगनयनियोंके लिए कामदेवके समान, क्रीड़ा करते हुए कुमारको खोटे विचार से बुलाया। एक क्षणमें अपने मित्रके साथ उपस्थित प्रणाम करते हुए न्यायवान उस पुत्रसे चाचाने कहा, "भाईके द्वारा स्नेहके कारण दिया गया यह सुन्दर राज्य तुम्हारा है । तुम राजा हो । कुलीन लोग तुम्हींको राजा मानते हैं। तुम सिंहासनपर बैठो और धरतीका भोग करो। मैं सीमान्तके निवासियोंको पकड़नेके लिए और सेनाकी उद्दाम शक्तिसे, हे पुत्र, शत्रुका नाश करनेके लिए जाता हूँ।" तब उस कुमारने उससे कहा, "तुम मेरे पूज्य हो। हे देव, तुम तातके द्वारा आराधनीय थे। मैं अपने स्थिर हाथोंकी शक्ति प्रकाशित करूंगा, में जाता हूँ और क्रूर राजाओंकी वृत्ति ग्रहण करता हूँ।" ६. A णलिणदुरेहु । ७. P णिच्चु । ४.१. A माणिणीमाणणेणं । २. A वणे देहि। ३. A वरं देवि गुणं। ४. AP सिंहासणे । ५. A रिलं पुत्त । Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002724
Book TitleMahapurana Part 3
Original Sutra AuthorPushpadant
AuthorP L Vaidya
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year1981
Total Pages574
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Mythology, & Story
File Size12 MB
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