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________________ - ५२. २४.५] महाकवि पुष्पदन्त विरचित रिउणा ण णिविउ कण्हेण पट्टविउ। जहिं सप्पु तहिं गरुलु जहिं अग्गि तहिं सलिलु । जहिं सिहरि तहिं कुलिखें जहिं तुरउ तहिं महिसु। जहिं विडवि तहिं जलणु जहिं मेहु तहिं पवणु। जहिं रत्ति तहिं दियहु जहिं सीहु तहिं सरहु । जहिं कालु सोंडालु तहिं कुडिलुं दाढालु । केसरि पवित्थरइ णहरेहिं उत्थरइ। जहिं भीमु वेयालु तहिं मंतु असरालु। मुंजेवि कोवेण गोविंददेवेण। रिउणो णिहित्ताउ विज्जाउ जित्ताउ। . जुझेवि भूवेहिं पडिवक्खरूवेहिं । घत्ता-बहुरूविणिए सुरकामिणिए खगवइ भणिउ ण सक्कमि ।। हलहरसिरिहरहं पहरणकरहं माणु मलंतु चवक्कमि ॥२३॥ २४ __ महुं णियबाहुदडायरसावज व धगधगंति । ५ दुवई-जंपिउं हयगलेण किं केण वि तिहुयणि धीरु हीरए ।। महुँ णियबाहुदंडथिरसहयर पई किर काई कीरए । तेणेव भणेप्पिण मुक्क सत्ति मेहें चलविजु व धगधगात । गयणयलि एंति उरयलि घुलंति चल पलयकालजाल व जलंति । विप्फुरिय धरिय दामोयरेण संकेयागय णारि व गरेण । दोनों ही जलती हुई प्रलयाग्नि थे। वे दोनों ही मानो शनिश्चर थे। नारायण त्रिपृष्ठने जो तीर प्रेषित किया, शत्रु उसे नष्ट नहीं कर सका । जहां सांप है, वहां विष है, जहाँ आग है, वहाँ जल है, जहां पर्वत है, वहां वज्र है, जहाँ अश्व है, वहां महिष है, जहां वृक्ष है, वहां आग है, जहाँ मेघ है, वहां पवन है, जहां रात है, वहां दिन है, जहाँ सिंह है, वहां श्वापद है, जहाँ मतवाला कृष्णगज है, वहां क्रूर दाढ़ोंवाला सिंह फैलता है और नखोंसे उछलता है। जहाँ भीम वेताल है वहां विशाल मन्त्र है । क्रोधसे युक्त गोविन्ददेव (त्रिपृष्ठ ) ने शत्रुके द्वारा फेंकी गयी विद्याको, प्रतिपक्षरूप ( अश्वनीवरूप) राजाओंसे युद्ध कर जीत लिया। पत्ता-देवविद्या बहुरूपिणीने विद्याधर राजासे कहा कि हाथमें अस्त्र लेनेवाले बलभद्र और नारायण (विजय और त्रिपृष्ठ ) का मैं कुछ नहीं कर सकती, उनका मान मर्दन करते हुए चौंकती हूँ ॥२३॥ अश्वनीवने कहा, "क्या त्रिभुवन में किसीके द्वारा धैर्यका अपहरण किया जा सकता है, मेरे बाहुरूपी दण्डको स्थिर सहचरी तुम्हारे द्वारा यह क्या किया जा रहा है ?" उसने यह कहकर शक्ति छोड़ी जो मेघके द्वारा चंचल बिजलीकी तरह धकधक करती हुई, आकाशतलमें आती हुई उरतलपर व्याप्त होती हुई, चंचल प्रलयकालकी ज्वालाकी तरह जलती हुई, विस्फुरित वह, २. A कुडिसु । ३. A कोलु। ४. AP कुडिल । ५. A मंति। ६. A जॅझेवि; P जं जं वि । ७. P has पुणु before बहु । ८. AP मलंति चम । २४. १. P°सहयरए अवरि काई । २. AP पडति । ३. AP°जालेव पडंति। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002724
Book TitleMahapurana Part 3
Original Sutra AuthorPushpadant
AuthorP L Vaidya
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year1981
Total Pages574
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Mythology, & Story
File Size12 MB
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