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________________ २३६ महापुराण [ ५२. २४. ६चंदणचच्चियकुसुमंचियंगु परिमलमिलंतगुमुगुमियभिंगु। उग्गमिउ णाई जेगखइ खयक पुणु पडिवक्खें करि लेवि चक्कु । बोल्लियउ पयावइपुत्तु एम्व एवहिं पई णउ रक्खंति देव । गोवालबाल अविवेयभाव ' दे देहि कण्ण मा मरहि पाव। इय भणिवि तेण घल्लिउ रहंगु तं पेक्खिवि केण ण दिण्णु भंगु । तं देवि पयाहिण पहेयतासु चडियउ दाहिणकरि केसवासु । गहगहियदिवायरलील वहइ णं हरिसुहमहिरुहकुसुमु सहइ। आयासहु णिव डिउ पुप्फवासु रिउ कहि पबोल्लिउ सो सहासु । संभरु तुहुं जिणवरणाहचरणु अहवा लँइ महुं पइसरहि सरणु । ता भणइ सुहडु रणरंगदुकु । हउं मण्णमि एउं कुलालचक्कु । घत्ता-पई पुणु मणि गणि चंगउ भणि भिक्खागयहु ससंकह ।। तिव्वछुहामहणु गरुयउं गहणु तिलखलखंडु वि रंकहु ॥२४॥ १५ दुवई-अज्ज वि सिसुमयच्छि महु अप्पिवि करि घणपणइसंधणं । मा पावहि कुमार तरुणत्तणि ताडणमरणबंधणं ॥ असहतेणं रिउणा दिण्णं ससवणसूलं दुश्वयणं । काउं वयणं डसियाहरयं भूभंगुरतंबिरणयणं । दामोदरके द्वारा उसी प्रकार पकड़ ली गयी, जिस प्रकार संकेतसे आयी हुई स्त्री मनुष्यके द्वारा पकड़ ली जाती है। तब शत्रुने हाथमें चक्र उठा लिया, जो चन्दनसे चचित और फूलोंसे अचित था, जिसके सौरभसे मिलकर भ्रमर गुनगुना रहे थे, जो ऐसा लगता जैसे विश्वके क्षयके लिए प्रलय सूर्य हो । और उसने प्रजापतिके पुत्रसे कहा-"इस समय देव भी तुम्हारी रक्षा नहीं कर सकते । हे अविचारशील गोपाल बालक, कन्या दे दे, हे पाप, स्वयं मत मर।" यह कहकर उसने चक्र छोड़ दिया। उसे देखकर किसने खण्डन नहीं दिया ( कोन आहत नहीं हुआ ), वह चक्र त्रासको आहत करनेवाले केशव (त्रिपृष्ठ) के हाथपर प्रदक्षिणा देकर चढ़ गया। वह राहुसे ग्रस्त सूर्यको लीलाको धारण करता है, मानो नारायणके सुखरूपो कल्पवृक्षके कुसुमकी तरह शोभित है, आकाशसे पुष्पवर्षा हुई । कृष्ण ( त्रिपृष्ठ )ने हंसीपूर्वक शत्रु ( अश्वग्रीव ) से कहा, तुम या तो जिनवरनाथके चरणोंका स्मरण करो, अथवा लो मेरो शरणमें आओ। तब युद्ध उत्साहसे भरा हुआ वह सुभट कहता है, मैं इसे कुम्हारका चक्र मानता हूँ। घत्ता-तुमने इसे मणि समझ लिया, ठीक ही कहा है कि भिक्षाके लिए आये हुए सशंक दरिद्र व्यक्तिके लिए भूखका नाश करनेवाला तिलखलका टुकड़ा भी भारी और दुर्लभ होता है ॥२४॥ २५ आज भी तुम शिशुमृगनयनी मुझे सौंपकर प्रगाढ़ स्नेह सन्धि कर लो। हे कुमार, तुम तारुण्य (यौवन) में ताडन-मरण और बन्धनको प्राप्त मत करो। इस प्रकार शत्रुके द्वारा दिये गये, ४. A जुगखयखयंकु; P जुगखइ खयक्कु । ५. A जाव । ६. A पहयरासु; P पहपयासु । ७. A लहु । २५. १. AP पणयसंघणं । Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002724
Book TitleMahapurana Part 3
Original Sutra AuthorPushpadant
AuthorP L Vaidya
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year1981
Total Pages574
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Mythology, & Story
File Size12 MB
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