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________________ -६१. २२.९] महाकवि पुष्पदन्त विरचित ४०३ जिह सो तिह अवरु वि अजियसेणु रयणत्तयजलधुयकम्मरेणु । थुइसयहिं पसंसिवि वरगिरेण बेणि वि वंदिय पणमियसिरेण । देवि चिंतिउ संसारु चित्त जिणधम्मि ण किज्जइ केम चित्तु । काणीणदीणदिजंतदाणि चक्केसररजि पवढमाणि । घत्ता-खगमहिहरदाहिणपंतियहि सिवमंदिरि घणवाहणहु । विमलादेविहि संभूय सुय कणयमाल सँपसाहणहु ।।२१।। २२ संगरभरमारियखत्तियासु दिण्णी वसुहाहिवणत्तियासु ।' गुणमणिउज्जोइयकुलहरासु सोवण्णसंतिणामहु वरासु। वसुसारयणयरि समुद्दसेण रायहु जयसेण वसंतसेण। दोहिं मि सहुं गउ गहणंतरालु घोलंतणीलदलवेल्लिजालु। विमलप्पहु णामें तेत्थु साहु अवलोइड णाणजलोहवाहु । णिसुणेवि तञ्च पावज्ज लइय सहं घरणिहिं तेण विमुक्कदइय । णारिहि णे चल मइ जणियसंति आसंघिय विमलमइ त्ति खंति । सिद्धायलि काओसग्गु देवि तिणि वि थियाई मणि जोउ लेवि । अवियाणियसमचित्त जडेण विज्जाहरेण वइरुब्भडेण । गये हैं। जिस प्रकार वह उसी प्रकार दसरा अजितसेन भी रत्नत्रयरूपी जलसे कर्मरजको धो चुका है। उसने सैकड़ों स्तुतियों और उत्तम वाणी तथा नम्रसिरसे दोनोंकी वन्दना की। उसने विचार किया कि संसार विचित्र है, जिनधर्ममें चित्तको क्यों न किया जाये ? जिसमें कन्यापुत्रों और दीनोंको दान दिया जाता है ऐसे चक्रवर्ती राज्यके बढ़नेपर पत्ता-विजयाध पर्वतको दक्षिण श्रेणीके शिवमन्दिर नगरमें सैन्ययुक्त मेघवाहन और विमलादेवीके कनकमाला नामकी पुत्री हुई ॥२१॥ २२ जिसने संग्राम समूहमें क्षत्रियोंको मारा है, जिसने गुणरूपी मणियोंसे कुलगृहोंको आलोकित किया है ऐसे राजाके नाती कनकशान्ति नामक वरको कन्या दी गयी। वसुसार नगर ( वस्त्वोकसार ) के समुद्र राजाको जयसेना और वसन्तसेना स्त्रियां थीं। वह उन दोनोंके साथ गहन वनके भीतर गया कि जहाँ हरे-हरे पत्तोंवाला लताजाल आन्दोलित हो रहा था। वहां उसने ज्ञानरूपी जलसमूहको धारण करनेवाले विमलप्रभ नामक मुनिको देखा। उनसे तत्त्व सुनकर उसने अपनी गृहिणियोंके साथ, जिसमें पत्नीका त्याग किया जाता है ऐसी दीक्षा ग्रहण कर ली। स्त्रियोंने भी अविचल मति एवं शान्ति देनेवाली विमलमति नामकी आर्यिकाकी शरण ग्रहण की। सिद्ध-शिलातलपर कायोत्सर्ग करते हुए वे तीनों मनमें योग धारण कर स्थित हो गये। जो ४. AP बेण्णि वि पणविवि वंदिवि सिरेण । ५. A देवें; P देविए। ६. AP दाहिणसेढियहि । ७. AP सुपसाहणहु । २२. १. A adds after this: तह सुय उप्पण्णी वर एण, सा पुणु परिणिय पहुसुयसुएण । २. AP णिच्चलम। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002724
Book TitleMahapurana Part 3
Original Sutra AuthorPushpadant
AuthorP L Vaidya
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year1981
Total Pages574
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Mythology, & Story
File Size12 MB
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