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________________ १७५ -४९. ३. १० ] महाकवि पुष्पदन्त विरचित जहिं चोरारिमारिदालिब इं पासंडाइं वि णत्थि रउद्दई। तहिं राणउ णलिणालयमाणणु णलिणप्पहु णामें णलिणाणणु । घत्ता-भयभीयई महिणिवडियई जीये देव सविणउ जंपंति ॥ जासु पयावें तावियइं परणरणाहसयई कंपंति ॥२॥ कलयलंतचलकलकोइलगणि तावण्णहिं दिणि सहसंबयवणि । पेच्छिवि जिणु अणंतु वणवाले विण्णत्तउ सिरेगयभुयडालें । तहु तहिं तवसिहिहुयवम्मीसरु गुणदेवहं भवदेवहं ईसरु । परमप्पउ पसण्ण परमेसरु आयउ देउँ धम्मचक्केसरु । तं णिसुणेवि तेण तित्थंकर जाइवि वंदिउ दुरियखयंकरु । बुज्झिवि धम्मु अहिंसालक्खणु चिंतिवि बंधमोक्खविहिलक्खणु। देवि सुपुत्तु महिहिं परिरक्खणु सई रिसि हूयउ राउ वियक्खणु । चरणमूलि जइवरहु अणंतहु चरइ मग्गि दुग्गमि अरहंतहु । घत्ता-णीलकिण्हलेसउ मुयइ काउलेस दूरें वजंतु ।। सुक्कलेस मुणिवरु धरइ भीमें तवतावें खिज्जंतु ।।३।। संत्रस्त और पाशबद्ध हैं, मानो घरके कुत्ते हों। जहाँ चोर शत्रु मारी और दारिद्रय और भयंकर पाखण्डी नहीं हैं। उसमें लक्ष्मीको भोग करनेवाला और कमलके समान मुखवाला नलिनप्रभु नामका राजा था। पत्ता-जिसके प्रतापसे सन्तप्त होकर, सैकड़ों शत्रुराजा काँप उठते और भयभीत होकर धरतीपर गिरकर 'हे देव आपकी जय हो, विनयके साथ यह कहते हैं ॥२॥ इतनेमें एक दिन, जिसमें चंचल कोकिल-समूह कलकल कर रहा है, ऐसे सहस्राम्ब नामक वनमें अनन्त जिनको देखकर, वनपालने अपनी भुजारूपी डालें सिरसे लगाते हुए, उससे निवेदन किया, "हे देव ( उद्यानमें ) तपकी आगमें कामदेवको नष्ट करनेवाले गुणदेवों और विश्वदेवोंके ईश्वर परमात्मा प्रसन्न परमेश्वर और धर्मचक्रेश्वर देव आये हुए हैं." यह सुनकर, उसने जाकर पापोंका नाश करनेवाले तीर्थकरकी वन्दना की। तथा अहिंसा लक्षणवाले धर्मको समझकर एवं बन्ध और मोक्षकी विधि तथा लक्षणका विचार कर, अपने पुत्रको भूमिके रक्षण का भार सौंपकर, वह विचक्षण राजा स्वयं ऋषि हो गया। वह, मुनिवर अनन्तनाथके चरणमूलमें दुर्गम चर्यामार्गमें विचरण करने लगा। घत्ता-वह कृष्ण और नोल लेश्या छोड़ देता है, कायक्लेशका दूरसे परित्याग करता है। वह मुनिवर शुक्ल लेश्या धारण करता है और भीम तपतापमें वह अपनेको क्षीण करता है ।।३।। ६. A जीव । ३. १. A तावण्णयदिणि । २. A सिरि गय । ३. AP पसण्णु । ४. AP देव । ५. AP मुयाउ । Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org..
SR No.002724
Book TitleMahapurana Part 3
Original Sutra AuthorPushpadant
AuthorP L Vaidya
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year1981
Total Pages574
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Mythology, & Story
File Size12 MB
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