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________________ ११८ महापुराण तहु मंदिर णंदिरि णिम्मलिणि सुंदरि इंदिदिरि णं णलिणि । मुक्कमलकमलदलणयणजय सुहेजलरहल्लि णववेल्लिभुय । तृयसिरमणि गुणमणिणिवहखणि सरसेणाजियसेणा रमणि । सुपसुत्त पुत्तसंणिहियमइ सा सिविणय सुविणिय णियइ सइ । घत्ता-सीहु हत्थि ससि दिणयरु पुण्णकलसु पंकयसरु ॥ सिरि वसहिंदु पमत्तउ संखु दाहिणावत्तउ ॥६॥ दिट्ठउ सिद्धउ सुहिमोणियइ णियकतहु कतहु राणियइ । फलु विलसिउं भासिउं तेण तहि दिसवलेए विमलइ थियइ णहि । तहि गब्भि अब्भि णं चंदमउ थिउ सिरिहरु सिरिहरु सच्चमउ । उप्पण्णउ धण्णउ पुण्णणिहि तरु धरणिहि अरणिहि णाई सिहि । जं जाणिउं भाणि जेण जहिं वड्ढ़ते संतें तेण तहिं।। णयरिद्धिइ बुद्धिइ लक्खियां णिहिलत्थु वि सत्थु वि सिक्खियउं । मायइ पियवायइ गुणसहिउं णियणामु सधामु तासु णिहि। सवियक्कउ थकउ तरुणिरेउ णवजोव्वणि णं' वणि महुसमउ । क्रूरमति अजितंजय नामका दुर्जेय ( मनुजमति ) राजा था। आनन्द देनेवाले उसके घरमें निर्मल सुन्दरी गृहिणी थी मानो कमलिनीमें लक्ष्मी हो । वह निर्मल कमलके समान आंखों वाली सौन्दर्यके जलकी लहर नवलताके समान बाहुबली, स्त्रियोंमें शिरोमणि, गुणरूपी मणिसमूहकी खदान, और कामदेवको सेना अजितसेना नामकी स्त्री थी। पुत्रमें अत्यन्त बुद्धि रखनेवाली, अत्यन्त प्रगाढ़ रूपसे सोयी हुई, सुविनीता वह सती स्वप्न देखती है। घता-सिंह, हाथी, चन्द्रमा, दिनकर, पूर्णकलश, कमल, सरोवर, लक्ष्मी, प्रमत्त वृषभेन्द्र और दक्षिणावर्त शंख ॥धा सुधियोंके द्वारा मान्य रानीने जो देखा, वह अपने प्रिय पतिसे कहा। उसने उससे उसका विलसित फल कहा । दिशा मण्डल और आकाशके निर्मल होनेपर उसके गर्भ में, बादलोंमें चन्द्रमा के समान, लक्ष्मीधारक श्रीधर स्थित हो गया। पुण्य निधि और धन्य वह इस प्रकार उससे उत्पन्न हआ जैसे धरती पर वक्ष और लकडीसे आग उत्पन्न हई हो। वद्धिको प्राप्त होते हए उसने जहां जो जाना वह कहा। नय-ऋद्धि और बुद्धिसे वह उपलक्षित हो गया, निखिलार्थ शास्त्र भी उसने सीख लिये। प्रिय बोलनेवाली मां ने गुण सहित अपना नाम और घर उसे सौंप दिया ( अजितसेन उसका नाम था ) नवयौवन में वह विचारग्रस्त और तरुणीरत हो गया मानो वनमें ७. A णंदिरि मंदिरि । ८.A सुक्क । ९. A सुयजलहरणि णिववेल्लिभुय; Pसुहजलवहुल्लि । १०. AP तियसिर । ११. A सविणय सिविणय; P सुविणय सिविणय । १२. AP संखु वि दाहिणवत्तउ । ७.१ सुहमाणियइ। २. A दिसिवलयइ विमलि थियम्मि णहि; P दिसवलइ विमलि थियम्मिहि । ३. AP omit थिउ । ४. A उप्पण्णउ वण्ण उ सच्चणिहि; P उप्पण्णहु घण्णहु पुण्णणिहि। ५. A तरुणियउ । ६. AP वणि णं । Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002724
Book TitleMahapurana Part 3
Original Sutra AuthorPushpadant
AuthorP L Vaidya
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year1981
Total Pages574
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Mythology, & Story
File Size12 MB
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