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________________ -४५. ८. ११ ] महाकवि पुष्पदन्त विरचित ता राएं ताएं तालघणु गंपिणु गयसोउ असोयवणु। दुहहरु सिरिहरु जिणु सेवियउ भर्वपासु सुदूर विहावियउ । घत्ता-चितइ महिपरमेसर एंवहिं धम्महु अवसरु ।।। कण्णहु णियडइ घुलियई मरणु कहति व पलियइं ॥७॥ सो अजियसेणु वेणु व धरहि अहिथविउ ण्ह विउ ढोइयकरैहि । रिसिसिक्खहि दिक्खहि लग्गु किह पिउ हयकलि केवलि हुयउ जिह । एत्तहि जयजत्तहि जोत्तियहु णिक्खत्तियखत्तियसोत्तियहु । तसियक्कु चक्क तहु हुयउ घरि रुइपुंजु कंजु ण कंजसरि । जणजोणिहि खोणिहि साहियइं। चडई छक्खंडई साहियइं। णवणिहि मणदिहिउप्पायणई रयणई चेयणइं अचेयणई। चउदह दहंगभोएंण सहुं घर एंति देति चिंतविउं लहु । कयदमु अरिदमु णामें समणु मासोबवासि धणरासितणु । जो मण्णइ वण्णइ जिणचरिउं जें सुत्तु सुर्जुत्तु समुद्धरिउ । घरु पत्तु पत्तु तें जोइयउ अणवज्जु भोजु संप्राइयउँ । णवपुण्णई णवणवभावणइ ते बद्धई णिद्धई कर्यपणइ। वसन्तका समय हो। तब पिता राजाने शोकसे रहित होकर ताल वृक्षोंसे सघन अशोक वनमें जाकर दुःखका हरण करनेवाले श्रीधर जिनकी सेवा की और अत्यन्त दूरवर्ती भवरूपी बन्धनको देख लिया। घत्ता-धरतीका वह राजा विचार करता है कि इस समय, अब धर्मका अवसर है। कानोंके निकट व्याप्त सफेदी मानो मृत्युका कथन कर रही है ॥७॥ उसने उस अजितसेनको कर देनेवाली धरती पर वेणुके समान स्थापित कर दिया और अभिषेक किया और मुनिकी शिक्षासे युक्त दीक्षामें वह इस प्रकार लग गया कि पापको नष्ट करनेवाले पिता केवलज्ञानी हो गये। इधर विजय-यात्रामें लगे हुए तथा जिसने क्षत्रियों और ब्राह्मणोंको क्षत्र रहित कर दिया है ऐसे उस राजा अजितसेनको सूर्यको त्रस्त करनेवाला चक्र, इस प्रकार उत्पन्न हुआ मानो कमलोंके सरोवरमें कान्तिका समूह उत्पन्न हुआ हो। उसने मनुष्योंकी योनि प्रचण्ड छह खण्ड भूमि सिद्ध कर ली। नव निधियां, मनके भाग्यको उत्पन्न करनेवाले चेतन अचेतन चौदह रत्न, दशांगभोगोंके साथ घर आते हैं और वह जिसकी चिन्ता करता है, वे वह शीघ्र प्रदान करते हैं । शान्तमन एक मासका उपवास करनेवाले और तृणके समान शरीरवाले अरिंदम नामक श्रमण, जो जिनचरितको मानते हैं और उसका वर्णन करते हैं, तथा जिन्होंने यक्तियक्त सूत्रोंका उद्धार किया है घर आये । राजाने उन्हें देखा और उन्हें अनवद्य आहार दिया। प्रणतिपूर्वक नव-नव भावनासे उसने स्निग्ध नये-नये पुण्योंका बंध किया। जिन्होंने दिशा ७. A तालहिं तालघणु । ८. AP भवयारु । ९ A सदूरु । ८.१. A घेण व घरह । २. A करह। ३. P रज्जसरि । ४. P भोएहिं । ५. A गुणरासितणु । ६. P सजुत्त । ७. A P संपाइ । ८.P णवपुण्णय । ९. P कयविणइ । Jain Education International For Private & Personal Use Only . www.jainelibrary.org
SR No.002724
Book TitleMahapurana Part 3
Original Sutra AuthorPushpadant
AuthorP L Vaidya
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year1981
Total Pages574
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Mythology, & Story
File Size12 MB
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